Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
जब यह निर्णय कर लेती हैं कि भोजन ठीक बना है, तो वह अपने इसी निर्णय से जान लेती हैं कि यह खाद्य पदार्थ सबको पसन्द आ जाएगा। जो वस्तु मुझे स्वादिष्ट एवं आनन्दप्रद लगती है, वह दूसरों को भी वैसी प्रतीत होगी, क्योंकि उनमें भी मेरे जैसी ही आत्मा है और वह भी मेरे जैसी अनुभूति एवं संवेदन-युक्त है। इस तरह स्व के ज्ञान से पर के ज्ञान की स्पष्ट अनुभूति होती है। आगमों में भी कहा है-सब प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, सुख सबको प्रिय है, इसलिए मुमुक्षु को चाहिए कि वह किसी भी प्राण, भूत, जीव, सत्त्व की हिंसा-घात न करे, न दूसरों से करावे और न हिंसा करने वाले का समर्थन करे। इसके अतिरिक्त दशवैकालिक सूत्र में बताया है कि जो अपनी आत्मा के द्वारा ही अपनी आत्मा को जानता है और रागद्वेष में समभाव रखने वाला है, वही पूज्य है। अपनी आत्मा से आत्मा को जानने का तात्पर्य है कि अपनी ज्ञानमय आत्मा से अपने स्वरूप को जानना-समझना।' इन सबसे यह स्पष्ट होता है कि आत्मा ज्ञानमय है और-ज्ञान स्वप्रकाशक भी है। उसे अपने बोध के साथ दूसरे का भी परिबोध होता है।
इससे स्पष्ट है कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है। जीव का लक्षण बताते हुए आगम में कहा है कि 'जीवो उवओगलक्खणो' अर्थात्-जीवं का लक्षण ‘उपयोग' है। वह उपयोग 1. ज्ञान, 2. दर्शन, 3. सुख और 4. दुःख रूप से चार प्रकार है। इस प्रकार भी कहा गया है कि 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये जीव के लक्षण हैं। उक्त दोनों गाथाओं में सुख-दुख का संवेदन एवं चारित्रं तथा तप का आचरण व्यवहार दृष्टि से जीव का लक्षण बताया गया है। सुख-दुःख का संवेदन वेदनीय कर्मजन्य साता-असाता या शुभ-अशुभ संवेदन का प्रतीक होने से समस्त जीवों में और सदा काल नहीं पाया जाता। क्योंकि यह संवेदना कर्मजन्य है, अतः कर्म से आबद्ध संसारी जीवों में ही इसका अनुभव होता है और वह अनुभूति भी संसार-अवस्था तक ही रहती है। इसी तरह चारित्र एवं तप भी सभी जीवों में सदा-सर्वदा विद्यमान
1. वियाणिया अप्पगमप्पएणं।
-दशवैकालिक 9/3/11 2. नाणेणं दंसणेणं च, सुहेण य दुहेण य।
उतराध्ययन, 28/10 3. नाणं च दंसणं चेव, चारित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य, एवं जीवस्स लक्खणं॥
-उत्तरा., 28/11