Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1 एवमेगेसिं. जं णायं भवति अत्थि मे आया उववाइए, जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ सोऽह॥5॥
छाया-स यत् पुनर्जानीयात् सह सन्मत्या (स्वमत्या), परव्याकरणेन अन्येषामन्तिके वा श्रुत्वा तद्यथा-पूर्वस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि यावत् अन्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वा आगतो अहमस्मि। एवमेकेषां यदि ज्ञातं भवति-अस्ति मे आत्मा औपपातिकः, योऽस्या दिशोऽनुदिशो वा अनुसंचरति, सर्वस्या दिशोऽनुदिशः सोऽहम्।। - पदार्थ-से-वह ज्ञाता। पुण-यह पद वाक्य-सौन्दर्य के लिए प्रयुक्त किया गया है। संमइयाए-सन्मति या स्वमति। परवागरणेणं-तीर्थंकर के उपदेश के। सह-साथ। वा-अथवा। अण्णेसिं अन्तिए सोच्चा-तीर्थंकरों के अतिरिक्त अन्य उपदेष्टाओं से सुनकर। जं-जो। जाणेज्जा-जानता है। तंजहा-वह इस प्रकार है। पुरत्थिमाओ वा दिसाओः-पूर्व दिशा से। आगओ अहमंसि-मैं आया हूँ। जाव-यावत्-यह पद:अपठित अवशिष्ट पदों का संसूचक अव्यय है। अण्णयरीओविदिशा से। आगओ अहमंसि-मैं आया हूँ। एवमेगेसिं-इसी प्रकार किन्हीं जीवों को। जं-जो। णायं-ज्ञात। भवति-होता है, वह यह है कि। मे-मेरा। आयाआत्मा। उववाइए-औपपातिक-जन्मान्तर में संक्रमण करने वाला। अत्थि-है। जो इमाओ दिसाओ-जो अमुक दिशा। वा-अथवा। अणुदिसाओ-विदिशा में। एवं सव्वाओ दिसाओ-सभी दिशाओं। वा-अथवा। अणुदिसाओ-विदिशाओं में। अणुसंचरइ-भ्रमण करता है। सोऽहं-मैं वही हूँ। ___ मूलार्थ-वह ज्ञाता स्वमति या सन्मति से, तीर्थंकर के उपदेश से अथवा किसी अन्य अतिशय ज्ञानी से सुनकर यह जान लेता है कि मैं पूर्व दिशा से आया हूं यावत् किसी भी दिशा-विदिशा से आया हूं और वह यह भी परिज्ञात कर लेता है कि मेरी आत्मा औपपातिक है। इसके अतिरिक्त वह इस बात को भी भली-भांति समझ लेता है कि अमुक दिशा-विदिशाओं में भ्रमणशील जो आत्मा है, वह मैं ही हूं।