Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 0099999999999999999 ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ ॥ श्रीलक्ष्मीवल्लभगणीप्रणीत टीका || + श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रम् - मृल. मूलार्थ, टीका, अने टीकाना अनुवाद महिन. तृतीय भागः -छपावी प्रसिद्ध करनार :पालनपुरनिवासी व्हेन मणीयाइए पोताना पिताश्री महेता राजकरण छगनलालना स्मरणार्थे प्रसिद्ध कर्यो. वीर संवत् २४६२ मूल्यम् रु.४ सने १९३६ DOOS00 DESIDESSESSIBEEDSSISISIED For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥५७७॥ www.kobatirth.org ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ ॥ अथ श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ (मुलगाथा अने तेनुं भाषांतर- टीका अने टीकानुं भाषांतर ) (मूलकर्त्ता - श्रीसुधर्मास्वामी, टीकाकार-श्रीलक्ष्मीवल्लभमणि ) भाषांतरसहित छपावी प्रसिद्ध करनार - पंडित श्रावक हीरालाल हंसराज - (जामनगरवाळा ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अथ दशममध्ययनं प्रारभ्यते ॥ आ द्रुमपत्रनामनुं दशम अध्ययन आरंभ थाय छे. नवमेऽध्ययने चारित्रविषये निष्कंपत्वमुक्तं, तन्निष्कंपत्वं शिक्षात एव भवति, ततो दशमेऽध्ययने शिक्षां वदति, इति नवमदशमाध्ययनयोः संबंधः दशममध्ययनं श्रीगौतममुद्दिश्य श्रीवीरेणाभिहितमिति गौतमवक्त व्यता तावदुच्यते For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१० ॥५७७॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥५७८ ॥ 兆儿儿 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवमाध्ययनमां चारित्र्य विषये निष्कंपत्य = अडग पणे रहेवानुं कलं, ते निष्कंपत्त्र शिक्षावडे करीनेज थइ शके छे तेथी दशम अध्ययनमा शिक्षा कहे छे; एवीरीते नत्रमा तथा दशमा अध्ययननो संबंध = संगति दर्शावी. आ दशम अध्ययन श्रीगौतमने उद्देशीने श्रीमहावीरे कथित छे तेथी गौतम वक्तव्यता प्रथम कहेवामां आवे छे. पृष्टिपा नाम्नी नगरी, तत्र शालनामा राजा, महाशालनामा युवराजः, तयोर्भगिनी यशोमती, तस्याः पिठरनामा भर्तास्ति, यशोमतीकुक्षिसंभूतः पिठरपुत्रो गांगलिनामा वर्तते. अन्यदा भगवान् श्रीमहावीरस्तत्र समवसृतः, शालराजा महाशालादिपरिवृतस्तत्रागतो भगवंतं वंदित्वाग्रे धरणीतलोपविष्टः श्रीमहावीरकृतामिमां देशनामशृणोत् मानुष्यादिका धर्मसाधनसामग्री दुर्लभास्ति, मिध्यात्वादयो धर्मप्रतिबंध हेतवो बहवो वर्तते, महारंभादीनि नरकका| रणानि संति, जन्मादिदुःखप्रचुरः संसारोऽस्ति कषायाः ससारपरिभ्रमणहेतवः संति, कषायपरित्यागे च मोक्षप्राप्तिरिति भगवद्देशनां श्रुत्वा संवेगमुपागतः शालराजा जिनेंद्रंप्रत्येवमुवाच भगवच्चरणमूलेऽहं तपस्यामादास्ये, परं महाशालं यावद्राज्ये स्थापयामि तावत् श्रीभगवद्भिरय्यत्र विहारो न कार्यः. भगवतोक्तं प्रतिबंधं माकार्षीरिति शालराजा गृहे गत्वा महासालं भ्रातरं प्रत्येवमाह बंधो ! त्वं राज्यं पालय ? अहं व्रतं गृह्णामि, महाशाल उवाच भवदहं संविग्नो ऽस्मि, अलं महारंभहेतुना राज्येन, ममापि प्रव्रज्याग्रहणमनोरथोऽस्ति. भारतवर्षमां पृष्टिचंपा नामनी नगरी हती तेना शाल नामे राजा हता तेना भाइ महाशाल नामे युवराज हता, आ बेयनां यशोमती नामे व्हेन हतां अने तेना पति पिठर नामना हता. आ यशोमतीनी कूखथी पिठरने गांगलि नामे पुत्र थयो हतो. For Private and Personal Use Only FREDER भाषांतर अध्य०१० ॥ ५७८ || Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१० ॥५७९॥ ॥५७९॥ د لك لك فقال له : فقلنا فيها الطاللافنا للمطالقاد एक समये भगवान् श्रीमहावीर त्यां (पृष्टिचंपानगरीमा) समवसूत थयाम्पधार्या. शालराजा पोताना भाइ युवराज महाशाल वगेरेने साये लइ त्यां आवी भगवान्ने चंदन करी आगळ पृथ्वी तळ उपर बेसी श्रीमहावीरे करेली देशना सांभळवा लाग्या"मनुष्य जन्म आदिक धर्म साधननी सामग्री मळवी घणी दुर्लभ छे, तेनी साथे मिथ्यात्वादिक धर्मना प्रतिबंधक हेतु भो घणा छे, वळी सांसारिक महोटां कार्योना आरंभ करवा ए बधां नरक प्राप्तिना कारणो छे, तेमज जन्म जरा मरणादि दुःखोथी भरेलो आ संसारमा परिभ्रमणना हेतुओ नाना प्रकारना कषायो छे; ए तमाम कषायनो परित्याग थाय त्यारे मोक्ष प्राप्ति थाय.' आ प्रमाणे भगवद्देशनानुं श्रवण करतां शालराजा संवेग पामीने जिनेन्द्र प्रत्ये एम बोल्या के-हे भगवन् ! हुं तो हवे आपना चरणमा रही तपस्या ग्रहण करीश तेने माटे मारा अनुज महाशालने राज्यपर स्थापीने हुँ पालो आq त्यां सुधी आपे अन्यत्र विहार न करवो, | भगवाने का-'प्रतिबंध नज करशो? त्यारे शालराजा घरे जइ पोताना भाइ महाशालने कहेवा लाग्या के बंधो ! आ राज्य तमारु समजी तमे तेनुं प्रतिपालन करो अने हुँ तो व्रत-दीक्षा ग्रहण करीश, महाशाले उत्तरमा कर्जा के-'हे भाइ ! तमारी पेठे हुँ पण कंटाळ्यो छु, आ महाव्यवसाय पूर्ण राज्यनुं मारे प्रयोजन नथी. मारे पण प्रव्रज्या ग्रहण करवानो मनोरथ थयो छे. तदा शालराजेन भगिनीपुत्रो गांगलिः स्वराज्येऽभिषिक्तः, शालमहाशालौ द्वावपि प्रवजितो, भगिनी श्रमणोपासिका जाता, भगवांस्ततो विहारं चकार. शालमहाशालमुनी एकादशोगान्यधीतो, भगवान् राजगृहे समवमृतः, तत्रानेकभन्यान् प्रतियोध्य स्वामी चंपायां गतः, तत्र शालमहाशाली स्वामिनंप्रत्येवमूचतुर्यदि भवदाज्ञा स्यात्तदा वयं | पृष्टिचंपायां व्रजामः, यदि कश्चित्तत्र प्रतिघुध्यते सम्यक्त्वं वा लभते तदास्माकं महान् लाभो भवतीति. स्वामिना For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तदा तयोर्गौतमः सार्थे दत्तः, गौतमस्वामी ताभ्यां सह पृष्टिचंपायां गतः, तदा गांगलिराजा पितृमातृभ्यां पिठरयशो| मतीभ्यां सह वंदितुमायातः, समागतायां पर्षयेवं देशनां चकार ao भाषांतर यन सूत्रम् अध्य०१० IBE ज्यारे युवराजे पण राज्यनुं मत्याख्यान कर्यु त्यारे शालराजाए तेनी ब्हेनना पुत्र गांगलिनो पोताना राज्यपद उपर अभिषेक |JE ॥५८०॥ ॥५८०॥ कों अने शाल तथा महाशाल बन्नेए प्रव्रज्या गृहण करी, आ वे भाइओनो त्याग जोइ तेनी व्हेन यशोमतीने पण वैराग्य थवाथी ते पण श्रमणा-उपासिका थइ. तदनंतर भगवान् महावीरे ते स्थानकेथी विहार कॉ. शाल तथा महाशाल मुनि एकादशांगk अध्ययन करी तत्त्वज्ञान संपन्न थया. भगवान् त्यांची राजगृह नगरमां समवस्त थया, त्या अनेक भन्यजीवोनेमतिबोध आपी त्यांथी स्वामी चंपामां आव्या त्यारे शाल तथा महाशाल बन्ने स्वामीने वंदवा आव्या, बंदना करी बोल्या के-'हे भगवन् ! जो आपनी आज्ञा होय तो अमे पृष्टिचंपामा जइये त्यां जो कोइ पण भव्यने प्रतिबोध थइ सम्यक्त्व लाभ थाय तो अमने महोटो लाभ uथयो गणाय. स्वामीए ते बभेनी साथे गौतमने आप्या अने आज्ञा आपी तेथी गौतमने साथे लइ बन्ने पृष्टिचंपा नगरीमां गया ते | वारे त्यांना राजा गांगलि पोताना पिता पिठर तथा माता यशोमती साथे लइने वंदन करवा आव्या. ज्यारे पर्षद श्रोतृजन वर्ग=1 आवी बेठो त्यारे ते मुनि आ प्रमाणे देशना करवा लाग्या. भो भव्याः! विषयप्रसक्ता मा तिष्टत ? अनेकदुःखदारुणे संसारे प्रतिबंध मा कुरुत? कष्टेन मनुष्यादिसामग्री JE प्राप्तास्ति, संध्याभरागसदृशो यौवनादिप्रपंचोऽस्ति, क्षणदृष्टो नष्टः सकलसंयोगोऽस्ति, जलविंदुचंचलं जीवितमस्ति, For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ard ततो जिनधर्म प्रकाममुद्यम कुरुत? तथाकृतेऽचिरेण शाश्वतपदाप्राप्तिर्भवतां भवतीति गौतमदेशनां श्रुत्वा गांगलिः भाषांतर उत्तराध्ययन सूत्रम् ६ मतिबुद्धो भणति, भगवन्नहं भवदंतिके प्रव्रज्यां गृहीष्ये, नवरं मातापितरौ पृच्छामि, ज्येष्टपुत्रं च राज्ये स्थापयामि. अध्य०१० एवमुक्त्वा गृहे गत्वा मातापितरौ पृष्टौ, ताभ्यामुक्तं यदि त्वं प्रबजिष्यसि तदा वयमपि प्रव्रजिष्यामः. ततः पुत्रं ॥५८१॥ 15॥५८१॥ BEIN राज्ये स्थापयित्या गांगलिराजा स्वमातृपितृभ्यां सह प्रबजितः. गौतमस्वामी तैः शिष्यैः सह पश्चादलितः. 'हे भव्यजनो! तमे विषयोमा आसक्ति न राखो. अनेक दुःखोथी दारुण आ संसारमा प्रतिबंध मा करो, अर्थात् मोक्षमार्गमा a अटकायत करे तेवां आचरण मा करो. आ मनुष्य देह जेबी मोक्षनी सामग्री अति कष्टे सापडी छे. आ यौवनादि अवस्था वगेरे सघल्लं संध्या समयना वादळांना रंग जेवू छे आ संसारना संयोग एक क्षणवारमा जोत जोतामा नष्ट थवाना छे. जलना बिंदु जेवू | चपळ आ जीवित छे. माटे जिनधर्ममां खंतथी प्रवृत्ति करो. तेम करवाथी थोडा समयमांज शाश्वत पदनी प्राप्ति तमोने थशे.” आ प्रमाणे गौतमस्वामीनी देशनानुं श्रवण करतां राजा गांगलिने प्रतिबोध थयो तेथी ते बोल्या के-'हे भगवन्! हुँ आपनी पासे पत्र ज्या ग्रहण करीश, माता पिताने पूछवानुं पण मने ठीक नथी लागतुं, मारा ज्येष्ठ पुत्रने राज्य उपर स्थापु छ.' आम कही घरे जइ Reमाता पिताने पोतानो विचार पूछतां तेमणे कछु के-जा तुं प्रव्रज्या ले तो पछी अमे पण पत्रज्या गृहण करीशुं. आ पछी पोताना पुत्रने राज्य उपर स्थापी राजा गांगलि पोताना माता तथा पिता सहित प्रव्रजित थया. आ बधा शिष्योने साथे लइ गौतमस्वामी त्यांथी पाछा वळ्या. मार्गे शालमहाशालयोः शुभाध्यवसायेन केवलज्ञानमुत्पन्नं, पुनरग्रे गच्छतां गांगलिप्रमुखाणां त्रयाणामपि For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१० ॥५८२॥ ॥५८२।। शुभध्यानेन केवलज्ञानमुत्पन्नं. एवं सर्वेऽपि ते गौतमसहिताश्चंपायां गताः. गौतमस्वामिना भगवञ्चरणौ प्रणतो, शालमहाशालादिकेवलिनो भगवतः प्रदक्षिणां कृत्वा तीर्थ प्रणम्य केवलपर्षदभिमुखं चलिताः, तावदुत्थितो गौतमस्तान्प्रत्येवं भणति भोः शिष्याः कव्रजत? बंदत तीर्थकरं? तावता भगवान् माह गौतम! केवलिनो माशातयेति भगवद्वचसा गौतमस्तान् क्षामयति, मनस्येवं च चिंतयति, अहं न सेत्स्यामि, मदीयाः शिष्याः केवलज्ञानमासादयंति, कित्वद्य यावन्मया केवलज्ञानं न प्राप्त. मार्गमां शाल तथा महाशाल बन्ने शुभ अध्यवसायने परिणामे केवलज्ञान उत्पन्न थयु. फरी आगळ जतां गांगलि पिठर तथा | यशोमती ए त्रणेने पण शुभ ध्यानना प्रभावथी केवळज्ञाननो अविर्भाव थयो. आम सर्वे गौतम सहित पाछ। चंपानगरीमां आव्या त्यारे गौतमस्वामीए भगवान् पासे जइ चरणमां प्रणाम कर्या. पण पेला शाल तथा महाशाल आदिक केवली वर्ग तो भगवान्ने प्रदक्षिणा करी तीर्थने प्रणाम करी केवल पर्षदने अभिमुख चालवा मांडे छे त्यां गौतमे उठीने पडकार्या के-'हे शिष्यो! तमे क्यां जाओ छो? आ तीर्थकरनी वंदना करो.' त्यारे भगवान् बोल्या के 'हे गौतम! केवलीनी आशातना मा करो' आq भगवाननु वचन सांभळीने गौतमस्वामी ते केवळज्ञानिओने खमाववा लाग्या, अने मनमां विचार्यु के-'हुँ तो हजी सिद्धि पाम्यो नहिं त्यां तो आ मारा शिष्यो केवळज्ञानने प्राप्त थइ गया मने तो हजी सुधी पण केवळज्ञान प्राप्त न थयु. इतोऽवसरे मिथो देवानामेवं संलापो वर्तते यदद्य भगवता व्याख्यानावसरे एवमादिष्टं यो भूमिचरः स्वलब्ध्या For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ष्टापदाद्रौ चैत्यानि वंदते स तेनैव भवेन सिद्धिं यातीति श्रुत्वा गौतमः स्वामिनं पृच्छति हे भगवनहमष्टापदे चैत्यानि भाषांतर यन सूत्रम् वंदितुं यामीति. JE अध्य०१० ॥५८३॥ ____ आ अवसरे देवोनी परस्पर मलाप थयो जे–'आजे व्याख्यान टाणे भगवाने एम आदेश कर्यो के-'जे भूमिचर पोतानी ॥५८३॥ लब्धिवडे अष्टापद पर्वतमांना चैत्योनुं वंदन करे ते तेज भवथी सिद्धि पामे; आ सांभळी गौतमे स्वामीने पूछ्यु, के-'हे भगवन् ! हु अष्टापदमां चैत्योनी वंदना करवा जाउं? भगवाने 'भले अष्टापद पर्वते जाओ, अने चैत्यने वंदो आम कडं तेथी हर्ष पामी गौतम | स्वामी भगवान्ना चरण वांदी पोते अष्टापद पर्वत गया. भगवतोक्तं व्रजाष्टापदे? तत्र चैत्यानि वंदस्व? ततो हृष्टो गौतमो भगवञ्चरणौ वंदित्वा तत्र गतः, पूर्व हि तत्राष्टापदे तादृग्जनसंवादं दृष्ट्वा पंचपंचशतपरिवारास्त्रयः कोडिन्नदिन्नसेवालाख्यास्तापसा गताःसंति, तेषु कोडिन्नस्तापसः सपरिवार एकांतरोपवासेन भुक्त, पारणे मूलकंदान्याहारयति, सोऽष्टापदे प्रथममेखलारूढोऽस्ति. द्वितीयो दिन्नतापसः सपरिवारः प्रत्यहं षष्टषष्टपारणके परिशटितानि पर्णानि भुक्त, स द्वितीयमेखलामारूढोस्ति. तृतीयः सेवालतापसः सपरिवारो निरंतरमटम पारग के सेवालं भुक्ते, स तृतीयमेखलामारूढोऽस्ति. जे संवाद सांभळीने गौतम अष्टापद पर्वत उपर जवा तत्पर थया तेवोज संवाद सांभळी गौतमना पहेला पांचसो पांचसोना Rell परिवार सहित. कोडिन, दिन क्या सेवाल, एवा नामना त्रण तापस अष्टापद पर्वते पहोंचेला तेमां पहेलो कोडिन्न तापस पोताना For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिवार सहित एकांतर उपवास करी पारणामां कंदमूळनो आहार करता हता ते अष्टापद पर्वतनी प्रथम मेखला उपर आरूढ यया | उत्तराध्य भाषांतर हता; बीजा दिन्न तापस परिवार सहित प्रतिदिन छठे छड्ढे पारणे पाकीने खरी गयेलां पांदडां खाता हता ते अष्टापदनी बीजी | JE यन सूत्रम् अध्य०१० मेखला सूधी चड्या हता; त्रीजा सेवाल तापस परिवार सहित हमेशां आठमे पारणे सेवाल खाता हता ते अष्टापद पर्वतनी त्रीजी ॥५८४|| मेखला पर आरूढ थया हता. ॥५८४॥ ___एवं तेषु क्लिश्यमानेषु गौतमः सूर्यकिरणावलंबेन तत्रारोदुमारब्धः. ते तापसाचितयं येष स्थूलवपुः कथमत्राधिJE रोढुं शक्ष्यते? वयं तपस्विनोऽप्यशक्ताः. एवं चिंतयत्स्वेव तेघु पश्यत्सुस गौतमः क्षणादष्टापदपर्वतशिखरमधिरूढः, ते पुनरेवं चिंतयंति यदासावतरिष्यति तदास्य शिष्या वयं भविष्यामः, अथ गौतमस्वामी प्रासादमध्ये प्राप्तो निजTrll निजवर्णपरिमाणोपेताश्चतुर्विंशतिजिनेंद्राणां भरतकारिताः प्रतिमा ववंदे, तासां चैवं स्तुति चकार-'जगचिंतामणि जगनाह । जगगुरु जगरक्खण॥' इत्यादि स्तुतिं कृत्वा पूर्वदिग्भागे पृथिवीशिलापट्टकेऽशोकबरपादपस्याध एकरात्री पर्युषितः. इतश्च शक्रलोकपालो वैश्रमणस्तत्र चैत्यानि वंदितुमायातः, प्रत्येकं चैत्यानि वंदित्वाशोकतरोरधः समायातः, गौतमस्वामिनं बंदित्वाग्रे निषण्णः, तस्याग्रे गौतम एवं धर्म कथयति-धर्मार्थकामात्रयः पुरुषार्थाः, तत्रार्थकामसाधकत्वेन धर्म एव प्रधानः, स च देवगुरुभक्तिरागेण भवति, देवः पुनः सर्वज्ञः सर्वदर्यष्टादशदोषरहितो भवति, गुरवः सुसाधवो भवंति, साधवः समशत्रुमित्राः समलेष्टुकांचनाः पंचसमितास्त्रिगुप्ता अममा अमत्सरा जितेंद्रिया जितकषाया निर्मल ब्रह्मचर्यधराः स्वाध्यायध्यानसक्ता दुभरतपश्चरणा अंतमताहाराः शुष्कमांसरुधिराः For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसृत्रम् ॥५८५ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृशशरीरा भवंति. इमां गौतमक्रियमाणां देशनां श्रुत्वा वैश्रमणमनस्येवं विसंवादो जातोऽहो एतेषां विशेषपुष्टितिधरं शरीरं, यतिवर्णनं चेदृशमिति वैश्रमणमनोवितर्क ज्ञात्वा गौतमस्तदा पुंडरीकाध्ययनं प्ररूपितवान् तथा च आम एणे आगळ वधवाना असामर्थ्यने लड क्लेश पामता हता त्यां गौतमे त्यां जड़ने सूर्यना किरणोना अवलंबन वढे ए | अष्टापदपर आरोहण करवा मांडयुं. त्यारे ते त्रणे तापसेा विचार करवा लाग्या के - 'अति स्थूल शरीरवाळा आ अष्टापद उपर केम आरोहण करी शकशे? ज्यां चडवाने अमें तपस्वी अशक्त थया' आम ते त्रणे विचार करता जोड़ रह्या छे तेटलामां गौतम तो एक | क्षणमात्रमा ए अष्टापद पर्वतना शिखर उपर आरूढ थया. आ जोड़ ए त्रणे तापसोए विचार्य के 'ज्यारे ए उतरशे त्यारे आपणे त्रणे एना शिष्यो पशुं ? गौतमस्वामी अष्टापदपर्वत उपरना प्रासाद मध्ये पहोंच्या त्यारे त्यां आवेली-पोतपोताना वर्ण परिमाण युक्त चोवीशे तीर्थकरोनी प्रतिमाओनुं वंदन कर्यु अने ते प्रतिमाओनी- 'जगदना चिंतामणि, जगत्ना नाथ, जगतना गुरु तथा जगत्ना रक्षण हार ! इयादि वाक्यो वडे-स्तुति करीने पूर्वदिशा तरफ आवेला एक पार्थिवशिलापट्ट उपर अशोक वृक्षने नीचे एक रात्रि निवास कर्यो. अहीं इन्द्रलोकपाल वैश्रमण त्यां चेत्योनुं वंदन करवा आवेला ते पण दरेक चैत्यांना वंदन करी एज अशोक वृक्षतळे आल्या. ते गौतमस्वामीने वंदीने आगळ बेठा त्यारे तेनी आगळ गौतमे कहेवा माड्युं के 'धर्म अर्थ तथा काम आ त्रण पुरुषार्थ हे, | तेमां अर्थ तथा कामनो साधक होइ धर्म प्रधान गणाय के ए धर्म देव तथा गुरुनी भक्तिमां अनुराग थवाथी लाभे छे, देव तो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अष्टादश दोष रहित छे, अने गुरु तो शुभ लक्षण साधुओ होय छे. साधुओ शत्रु मित्रमां समताधारी, लोष्टमाटीनुं For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१० ॥१८५॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य घन म ५८६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढेकुं तथा कांचनने समान, भावे जोनारा, पंचसमित, त्रिगुप्त, ममकाररहित, मत्सर दोष त्रिमुक्त, जितेंद्रिय, क्रोधादिकपाय जेणे जीत्या छे एवा, निर्दोष ब्रह्मचर्यधारी, स्वाध्याय ध्यानमां निरंतर आसक्त, इतरथी न थइ शके तेवा तपनुं आचरण करनारा, अंतमत आहार सेवनारा तेमज मांस तथा रुधिर शुष्क यतां कुश=दुबळा = शरीरवाळा थाय छे.' गौतमस्वामीए प्ररुपण कराती आदेशना सांभळीने वैश्रवमणना मनमां विसंवाद= संशय =थयो के - 'अहो !! आ साधुओनां शरीर तो विशेषपुष्ट तथा कांतिवाळां | देखाय छे अने साधुओनां गुण वर्णन तो आवां कष्टयुक्त करे छे; आतो वधुं बीजाने समजाववानुं लागे छे अने पोताने आचरवानं | तो जुर्दुज जणाय छे.' आवो तर्क पैश्रमणना मनमां आव्यो ते गौतममुनि जाणी गया ते वखते तेमणे ए वैश्रमणना मनना तर्क निवारण करवा माटे पुंडरीक अध्ययननुं मरुपण आरंभ्युं. पुष्कलावती विजये पुंडरीकियां नगर्यो महापद्मराजाभवत्, तस्य पद्मावती राज्ञी बभूव, तस्याः कुक्षिसंभूतौ पुंडरीककंडरीकनामानौ पुत्रौ जातौ, पितर्युपरते पुंडरीको राजा जातः, कंडरीको युवराजो जातः अन्यदा तत्र स्थविरा साधवः समायाता, स्थिता नलिनीवनोद्याने, कंडरीककसहितो पुंडरीकस्तत्र गतो वैदित्वाग्रे निषण्णो धर्मदेशनां शुभाव, पुंडरीकः श्रावक धर्म प्रपन्नवान्, कंडरीक प्रबुद्धस्तान् प्रत्येवं जगादाहं भवन्निकटे प्रव्रज्यां गृहीष्ये, नवरं पुंडरीक राजानं पृच्छामीत्युक्त्वा पुंडरीकं प्रत्याहं प्रव्रजामीत्युक्तवान् पुंडरीकोऽप्याह इदानीं त्वं मा प्रव्रज्यां गृहाण ? तवाय राज्याभिषेकं करोमि, त्वं निश्चितः सन् राज्यं पालय ? यथेष्टं सुखं भज? कंडरीको नैतदंगीकुरुते, पुनः प्राग्रहमेव कुरुते For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१० ५८६॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसृत्रम् ॥५८७ || www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यावदसौ राज्यादिलोभेन गृहे स्थापयितुं पुंडरीकेण न शक्यते तावत्संयमकष्टं पंडरीकोऽस्य दर्शयति पुष्कलावती विज्य प्रदेशमां पुंडरीकिणी नामे नगरी हती तेमां महापद्म नामनो राजा राज्य करतो हतो ए राजानी पद्मावती | नामे राणी हती. तेनी कूखधी जन्मेला पुंडरीक तथा कंडरीक एवा नामना बे पुत्रो हता, पिता उपराम पाम्या पछी पुंडरीक राजा | थयो अने कंडरीकने युवराज कर्यो. एक समये त्यां वृद्ध साधुओ आव्या, नलिनीवन नामना उद्यानमा स्थित थया. कंडरीकने साथै लइ राजा पुंडरीक त्यां गया अने साधुओने वंदन करी आगळ वेठा त्यां धर्मदेशना सांभळीने पुंडरीके श्रावकधर्म स्वीकार्यो, अनेकंडरीक तो मबुद्धथयो तेथी तेणे ते साधुओने कछु के- 'आपनी पांसे हुं मत्रज्या गृहण करीश, मारे पुंडरीकने पूछं नथी, आम पुंडरीकने कछु के- हुं प्रत्रजित थाउं छु' पुंडरीके कछु के- 'दमणां तुं प्रव्रज्या लेमां, हुं आजेज तने राज्याभिषेक करूं छं, तुं निश्चित थइने राज्यपालन कर, यथेष्ट राज्यवैभवोना सुख भोगव ? कंडरीके ज्यारे आ मांगणीनो अंगीकार न करतां मव्रज्यानो आग्रह करवा मांडयो अने राज्यादिकना प्रलोभनथी पण पुंडरीके तेने घरे राखी न शक्यो त्यारे तेने संयमना कष्ट देखाडवा मांडया. अयं संयमः सत्यः सर्वदुःखक्षयंकरः परं वालुकास्वादसदृशः, गंगाप्रमुख महानदीप्रवाह सन्मुखगमनवद् दुःसाध्य, भुजाभ्यां समुद्रतरणवत्कष्टानुष्ठेयः अत्र द्वाविंशतिपरीषहाः सोढव्याः, ततः सुकुमालशरीरेण भवता नायं संयमः पालयितुं शक्यः, तस्माद् गृह एव तिष्ट? राज्यसुखं च भजेति पुंडरीकेणोक्तः कंडरीकः प्राह, कापुरुषाणां परलोकप राङ्मुखाणामिह लोकविषयसुखतृष्णावतामयं संयमो दुःपाल्योऽस्ति अहं च विषयसुख पराङ्मुखः परलोकसंमुखः For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१० ॥२८७॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१० ॥५८८॥ शुरतरोऽस्मीति नाहं संयमाद्विभेमीति वदंतं कंडरीकं पुंडरीको राजा संयमायानुज्ञातवान. पुंडरीककारितमहामहः उत्तराध्य-10 पूर्वकं कंडरीकः संयमं गृहीतवान् ; क्रमेण स्थविरांतिके स एकादशांगानि पपाठ. चतुर्थषष्टाष्टमादितपांसि चकार. यन सूत्रम Inf| एकदा तस्य तपस्विनस्तपःपारणके तुच्छाहारैर्दाघज्वरादयो रोगाः प्रादुर्भूताः, तथाप्यसौ स्थविरैः समं विहारं चकार. ॥५८८॥ "आ संयम सत्य छे, सर्व दुःखनो क्षयकारक छे किंतु वेळुना कोळीया चाखवा जेवो तेमन गंगा आदि महा नदीना प्रवाह hd सामे धसवा जेवो अति दुःख साध्य छे, वळी हाथ वती समुद्र तरवा जेवो कष्ट अनुष्ठानवाळो छे. जेमा बावीश परीपहो सहन कर- | रवाना होय छे ते आ सुकुमार शरीरे तमाराथी ए संयम पाळी शकशे नहिं माटे घरे रहो अने राज्यसुख भोगवा' आम पुंडरीके || कई ते सांभळी कंडरीक बोल्यो-परलोकथी विमुख तथा आ लोकना विषय सुखोनी तृष्णावाला कायर पुरुषोए आ संयम पाळी |न शकाय ए वात ठीक छे पण हुँ तो विषय सुखोथी पराङ्मुख होइ परलोक संमुख थवामां शूरतर छु तेथी ए संयमनी कठिनता | DE] सांभळी डरतो नथी ? आम ज्यारे कंडरीक बोल्या त्यारे पुंडरीक राजाए संयमनी अनुज्ञा आपी अने पुंडरीके करायेला महोत्सव पूर्वक कंडरीके संयम ग्रहण कर्यो. पछी ते स्थविर साधुओ पांसे रही कंडरोके क्रमे करी एकादश अंगर्नु अध्ययन कर्यु, चोथा छठा तथा आठमा आदिक नपर्नु आचरण कयु. आम करतां ते कंडरीक तपस्वीने तपना पारणामां तुच्छ आहार करवाथी दाहज्वर आदिक रोगो थया तो पण ते रोगजन्य दुःख सहन करता ए स्थविर साधुओनी साथे विहार करता रह्या. एकदा ते स्थविराः कंडरीकेण समं विहरंतः पुंडरीकिण्यां नगर्या समायाताः, नलिनीवने समवस्ताः, पुंडरीक Fer Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandi www.kobatirth.org ॥५८९ उत्सराध्य- राजा तेषां वंदनाय तत्रायातः, स्थविराणां देशनां श्रुत्वा कंडरीकमृर्षि वंदते, तद्वपुः सरोगं पश्यति, पुनः स्थविरां- भाषांतर यनसूत्रम् तिके समागत्यैवमवादीद्यदि स्थविराणामाज्ञा स्यात्तदाहं कंडरीकमुनेपुषि प्रासुकौषधादिभिश्चिकित्सां कारयामि, र अध्य०१० ॥५८९॥ 1. यूयं मम पानशालायां तावत्कालं तिष्ठत? ततस्ते स्थविराः कंडरीकेण समं यानशालायां गत्वा स्थिताः. ततः स पुंडरीकराजा कंडरीकस्य प्रासुकौषधैश्चिकित्सा कारयति,त्वरितमेव तस्य रोगोपशांतिर्जाता,स्थिविरास्ततो विहारं चक्रुः, 0 रोगातकादिप्रमुक्तोऽपि कंडरीकमुनिर्मनोज्ञाहारादिभिर्छितस्ततो विहारं कर्तु नेच्छति, कंडरीकस्य तादृशं स्वरूपमाIor कर्ण्य पुंडरीकराजा तदंतिके समागत्यैवमाह धन्यस्त्वं, कृतपुण्यस्त्वं, सुलक्षणस्त्वं, सुलब्धमनुष्यभवस्त्वं, येन राज्य-Thd मंतःपुरं च परिहत्य संयममादृतवान् , एवं द्वित्रिवारं पुरीकेणोक्ते प्राप्तलज्जः पुंडरीकराजानमापृच्छय कंडरीकः स्थविरः समं ततो विजहार. oral एक समये ए स्थविरो कंडरीक सहित विहार करता करता पुंडरीकिणो नगरीमा आवी नलिनीवन स्थानके समवस्त=स्थित vd Salथया. ए स्थविरोनुं वंदन करवा राजा पुंडरीक त्या आल्या. स्थविरोने वंदीने तेश्रोनी देशना श्रवण करी कंडरीकमुनिने बंदन कर्यु त्यारे कंडरीकर्नु शरीर रोगग्रस्त दीढुं. फरी स्थविरोनी समीपे आवी पुंडरीक राजा एम बोल्या के-जो आपनी आज्ञा होय | KI तो आ कंडरीकना शरीरनी प्रामुक औषधादिक बडे चिकित्सा करावू, अने त्यां मधी आप सर्वे मारी यानशाळामां स्थिति करो. IV स्थविरोए कंडरीकने उचार करवानी आज्ञा आपी अने पोते सर्वे स्थविरोए राजाना कहेचा प्रमाणे तेनी यानशाळामां स्थिति करी. For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RA राजाए कंडरीकने मामुक औषध सेवन करावतां थोडा दिवसोमां कंडरीक रोगरहित थयो, त्यारे बधा स्थविरो त्यांथी विहार उत्तराध्य-16 भाषांतर करवा तत्पर थया, पण रोगना दुःखथी मुक्त थयेलो कंडरीक तो मनमान्या आहारमा लोलुप बनेलो तेथी तेणे विहार करवा || यन मृद्रम अध्य०१० अनिच्छा बतावी एटले कंडरीकनो तेवो आशय सांभळी राजा पुंडरीके तेनी पासे आवीने का के-'तुं धन्य छो, तें घणां पुण्य ॥५९०। करेला छे, तुं शुभ लक्षणवान् छो, तें मनुष्यभवनुं सार्थक्य कर्यु के जे राज्य तथा अंतारपुनो त्याग करीने संयममा आदरवाळो थयो, १५९०॥ आम पुंडरीके वे त्रण वार का त्यारे शरमाइने पुंडरीक राजानी रजा लइ कंडरीके स्थविरोनी साथे विहार कर्यो. कियत्कालमुग्रविहारं कृत्वा पश्चात्संयमाद्विखिन्नः शनैः शनैः स्थविरांतिकान्निर्गत्य पुंडरीकिण्यां नगर्यामशोक| वाटिकायामशोकबरपादपस्याधः समागत्य शिलापट्टमारूढ उपहतमनःसंकल्पः किंचिद् ध्यायन्नेव तिष्ठति. ततः पुंडDIरीकोऽपि तत्रागत्य तं त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य धन्यस्त्वमित्यायुक्तवान् , कंडरीकस्य तद्वचनं न रोचते, सर्वथा संयमाभ्रष्टं तं ज्ञात्वा पुंडरीकः पुनरेवमुवाचाहो भ्रातस्ते यदि विषयार्थस्तदेदं राज्यं गृहाणेत्युक्त्वा तं राज्येऽभिषिक्तवान् , स्वयं तु पंचमौष्टिकं लोचं कृत्वा संयममुपात्तवान् , कंडरीकसत्कं पात्रोपकरणादिकं च गृहीतवान्. स्थविराणामंतिके प्रव्रज्यां गृहीत्वाहारं गृहीष्ये, नान्यथेत्यभिग्रहं कृत्वा स्थविराभिमुखमेकाक्येव चलितः, ___ आम केटलोककाळ अणगमता मने स्थविरोनी साथे विहार करी पाछळथी संयम पालन करवामां कंटाळो खाइ धीरेधीरे स्थविर समीपेथी नीकळी पाछा पुंडरीकिणी नगरी प्रति आव्या अने अशोक वाटिकामां अशोकना सुंदर वृक्षनी नीचे एक शिलापट्ट For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१० उत्तराध्य-| हतो तेना उपर चडी मनः संकल्प उपहत थवाथी जाणे कंइक ध्यान करता होय तेम उद्विग्न थइने बेठा, आ वखते राजा पुंडरीक यनसूत्रम् | त्यां आवी तेने त्रण प्रदक्षिणा करी प्रथमनी पेठे 'तमे धन्य छो' इत्यादि कहेवा मांडयु. कंडरीकने आ वचनो रुच्या नहि. त्यारे ॥५९१॥ 'आतो सर्वथा संयमथी भ्रष्ट थयो छे' एम जाणीने फरी पुंडरीके तेने कयु के-'अहो भाइ! तमो जो विषयभोग भोगववा इच्छता हो तो आ राज्य ग्रहण करो.' आम कहीने राजा पुंडरीके कंडरीकने गाममां लइ जइ पोताना राज्य उपर अभिषिक्त कर्या अने | पोते स्वयमेव पंच मुष्टि लोच करी संयम ग्रहण कयु, कंडरीकना पात्र उपकरण वगेरे पोते लीयां अने 'स्थविरोनी समीपे प्रव्रज्या ग्रहण कर्या पछी आहार करीश ते विना नहिं' आवो अभिग्रह स्वीकारीने स्थविरोना तरफ एकलाज चाली नीकल्या. ॥५९१॥ ___ कंडरीकस्तु राजगृहांतर्गत्वा तस्मिन्नेव दिने सरसमाहारं भुक्तवान् , रात्रौ च तस्य तदाहारस्य रसात्कृशशरीरस्योदरे महाव्यथोत्पन्ना, न कोऽपि तस्याग्रे मंत्रिसामंतादिकश्चिकित्सा समायाति, प्रव्रज्यापरित्यागादयोग्य इत्ययं सर्वैरपि लोकैरुपेक्षितः, स आतरौद्रध्यानोपपन्नः कालं कृत्वा सप्तमनरकपृथिव्यां नारकत्वेनोत्पन्न. पुंडरीकस्तु स्थवि रांतिके गत्वा पुनर्दीक्षां गृहीतवान, प्रथममष्टमं तपः कृतवान, पारणे च शीतलरूक्षाहारेण वपुषि महावेदना समु| त्पन्ना, ततस्तेनानशनं विहितं, चत्वारि शरणानि कृतानि, आलोचितप्रतिक्रांतः पुंडरीकः कालं कृत्वा सर्वार्थसिद्धवि-३ J माने देवत्वेनोत्पन्नः, इममाख्यानं वैश्रमणाने उक्त्यैवं पुनरुवाचाहो देवानुपिय! दुर्वलशरीरोऽपि कंडरीकः सप्तमी भूमि गतवान् , सबलशरीरोऽपि पुंडरीकः सर्वार्थसिद्धिविमाने गतस्तस्माद् दुर्बलशरीरं संयमसाधनं तद्वयाघातकं For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम ॥ ५९२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बा, एवं नियमो नास्ति, किंतु ध्यानमेव तत्साधनं, यस्य शुमध्यानं स संयमाराधकः, यस्य तु ध्यानशुभं स संयमविराधकः. एवं गौतमस्वामित्र्याख्यानं श्रुत्वा वैश्रमणो वंदित्वा स्वस्थानं गतः. अहीं कंडरीके तो राजगृहनी अंदर जइ तेज दिवसे सरस आहार खुब तृप्ति पूर्वक खाधो. आ आहार कृश शरीर कंडरीकना उदरमां जरी न शक्यो तेथी तेना पेटमां महा व्यथा=पीड =थवा लागी. तेनी पांसे मंत्री सामंत वगेरेमाना कोइ पण आवे नहिं, केमके ज्यानो तेणे परित्याग कर्यो तेथी अयोग्य गणी बधाय तेनी उपेक्षा करता हता, आथी ए कंडरीक आर्त तथा रौद्र ध्यान वाळो वनतां मरण पामी सातमी नरक भूमिमां नारकी उत्पन्न थयो. पुंडरीके तो स्थविरोनी समीपे आवी दीक्षा ग्रहण करीने अष्टम तपने अंते पारणामां टाढा तथा सूक्ष अन्ननो आहार कर्यो तेथी तेना शरीमां महा वेदना उत्पन्न थतां तेणे अनशन व्रत लइ चार शरण गृह्यां. आवी रीते पुंडरीक प्रतिक्रांतनी आलोचना करतो मरण पामी सर्वार्थ सिद्धि नामना विमानमां देव भावे उत्पन्न थयो; त्यांथी च्युत थशे त्यारे महाविदेह क्षेत्रे जन्म लड़ सिद्धिपद पामशे. आ आख्यान वैश्रमण आगळ कहीने गौतममुनि फरीने बोल्या के - 'हे देवानु मिय। दुर्बळ शरीर वाळो पण कंडरीक सप्तमी नरक भूमिए गयो अने सबळ शरीरवाळो पुंडरीक सर्वार्थ सिद्धि विमाने गयो; ते उपरथी - दुर्बळ शरीर संयम साधन छे अथवा पुष्ट शरीर समयनुं व्याघातक ले आवो कई नियम नथी किंतु शुभ ध्यानज संयम साधन छे, जेने शुभ ध्यान छे ते संयमनो आराधक अने जेनुं ध्यान अशुभ ते संयमनो विराधक समजवो. आवुं गौतमस्वामीनुं व्याख्यान श्रवण करी वैश्रमण वंदन करी पोताने स्थाने गया. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१० ॥५९२ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥५९३॥ गौतमः प्रभाते चैत्यानि नमस्कृत्याष्टापदात्प्रत्यवतरतिस्म, तापसास्तदेवमायमस्मद्गुरवो वयं भवच्छिष्या 136 भाषांतर भवामः, तदा गौतमस्वामी भणति मम धर्माचार्यस्त्रिलोकगुरुर्वर्धमाननामास्ति, ते न भणंति युष्माकमप्याचार्यों वर्तते अध्य०१० किं? गौतमः प्राहेदृशो मम धर्माचार्यों वर्तते, यथा सर्वज्ञः सर्वदशी रूपसंपदा तिरस्कृतत्रिलोकरूपः किंकरीकृतसकलसुरासुरविरचितसमवसरणोपविष्ट उपरिधृतच्छन्नत्रयः सुरेंद्रवीज्यमानचामरयुगलः चतुस्त्रिंशदतिशयनिधानः ।।५९३॥ श्रमणभगवान् श्रीमहावीरनामा वर्तते. प्रभातमां गौतम चैत्योंने नमस्कार करी अष्टापद पर्वत उपर उतर्या त्यारे पेला तापसोए का के-तमे अमारा गुरु थाो अमे तमारा शिष्यो थवा इच्छीये छइए. गौतमस्वामी बोल्या के-'मारा धर्माचार्य त्रिलोकगुरु बर्द्धमान नामना छ,' त्यारे तापसो बोल्या के-'वळी आपनाय कोइ आचार्य छे!' गौतमे कां-'मारा आचार्य तो एवा छे के-ते सर्वज्ञ छे, सर्वदर्शी छे, रुप संपत्तिथी त्रणे लोकना रुपनो तिरस्कार करे एवा तथा सकल सुर असुर जेना किंकर थइ समवसरण रचना करे तेना उपर बेठेला छे, जेना उपर त्रण छत्र धरायेलां छे, सुरेंद्र जेने चामर ढोळे छे, चोंत्रीश अतिशयोना निधान श्रमण भगवान् महावीरनामना मारा परमाचार्य छे' एवं वीतरागस्वरूपमाकर्ण्य तेषां तापसानां सम्यक्त्वोपचयः संपन्नः. ततः सर्वेऽपि तापसा गौतमस्वामिना प्रत्राजिताः, शासनदेव्या तेषां सर्वेषां लिंगान्युपनीतानि, तैः सर्वैः शिष्यैः सह गौतमस्वामा ततश्चलितः कस्मिंश्चिद् ग्रामे गतः, भिक्षावेला जाता, गौतमेनोक्तं यद्वतां रोचते तद्वक्तव्यं, मया तदानीयते, तैरुक्तं पायसमानेयं, सर्वल اظن انارشون رو ندارم For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie धिसंपन्नो गौतमः कचिद् गृहे पतदग्रहं पायसेन भृतान, उपाश्रये आगत्य सर्वेषां तेषां मंडल्यामुपवेशितानां उत्तराध्य-36 पात्रेषु क्षीरं परिवेषितवान , न च क्षीरं क्षीणं भवति, महानसिकलब्धिमता गौतमेन पतग्रहेगुष्टक्षेपाजेमतामेव यन सूत्रमा सेवालतापसानामीदृशः परिणामो जातोऽहोस्माकं शुभकर्मोदयो जातः, यतोऽनभ्रवृष्टिसदृशः समस्तशास्त्रार्णवपार॥५९४|| गामीडशो गुरुस्माभिलब्धः, इत्यादि भावनां भावयतां तेषां तदेव केवलज्ञानमुत्पन्नं. भाषांतर अध्य०१० ॥५९४॥ आq वीतरागर्नु स्वरुपाख्यान सांभळतांज ते तापसोने सम्यकत्वनो उपचय थयो तेथी ए सर्वे तापसोए गौतमस्वामी पासे | पत्रज्या ग्रहण करी. शासनदेवताओए ते सई तापसोने सर्व (रजोहरणादि) लिंग-चिन्हो आप्यां एटले गौतमस्वामी ते सर्व शिष्योने साथे लइ त्यांथी चालीने कोइ गाममां गया त्यां भिक्षावेळा थइ त्यारे गौतमे शिष्योने कछु के-'तमने जे भोजन रुचे भावे ते बोलो एटले हुँ ते लइ आबु.' ते तापसो बोल्या के-'पायस भोजन लावो' गौतम सर्व लब्धि संपन्न होवाथी पांसेना गामेथी कोई ग्रहस्थने त्यांथी पात्र पायसथी भरी लाव्या. उपाश्रये आवी ते सर्व साधुओने मंडळीमा बेसाडीने सर्वना पात्रमा खीर पीरसी, बधा साधओ तृप्त थया तथापि खीर खूटी नहिं केमके गौतमे माहानसिक-रसोडां संबंधी लब्धि-सिद्धि मेळवेली तेथी तेओ पातरामां पोतानो अंगुठो नाखे तेथी पायस क्षीण=ोई थाय नहि. आ अवसरे जे पांचसोने एक अष्टपदनी त्रीजी मेखलाए पहोंचेला सेवालवर्गी साधुओ हता तेओने जमतां जमतां एवोज कोइ परिणाम थयो के-'अहो ! आपणा शुभ कर्मनो उदय थयो के जेथी वादळां विना जेम वृष्टि थाय तेम आज आपणने समस्त शास्त्ररूपी सागरना पारने पामेला आवा गुरु मल्या;' आवी आची भावनाओन For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥५९५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुध्यान करतां तेओने तेज क्षणे केवळ ज्ञान उत्पन्न थयुं. नितापसानां तु भोजनानंतरं चलितानां भगवत्समीपे प्राप्तानां भगवतश्छत्रादिविभूतिं च पश्यतां तथाविधशुभा ध्यवसाययोगेन केवलज्ञानमुत्पन्नं. कोडिन्नतापसानां तु स्वामिनं साक्षाद् दृष्ट्वा तादृशाध्यवसायेनैव केवलज्ञानमुत्पन्नं. गौतमस्वामी भगवचरणौ प्रणनाम, ते तापसमुनयः केवलिनस्त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य केवलिपर्षदभिमुखं चलिताः तड़ा गौतमस्वामी भणतीहागच्छत? भगवंतं प्रणमत? भगवान् महावीरः प्राह गौतम ! केवलिनो माशातय? ततो गौतम|स्तेषां मिथ्यादुष्कृतं ददौ ततः परं गौतमस्य महत्ववृतिर्जाता. ततो भगवान् महावीरः गौतमस्वामिनंप्रत्याह गौतम! पूर्वभवपरिचितत्वेन तव मयि महान रागोऽस्ति तत्क्षयमंतरेण तव केवलज्ञानं नोत्पद्यते, क्षीणे च तस्मिन्नेव भवे | तवावश्यं केवलमुत्पत्स्यते, प्रशस्तोऽपि रागः केवलप्रतिबंधको भवत्येव त्वमहं च द्वावपि निर्वाण तुल्यौ भविष्याव इति माधृतिं कार्षीरिति तदानीं स्वामी महावीरो द्रुमपत्तयमध्ययनं प्ररूपितवान्. वीजी मेखलामा अवस्थित हता ते दिन आदिक पांचसोने एक साधुओ भोजन कर्या पछी चाली भगवत्समीपे पहोंच्या त्यां तेओने भगवान्नी छत्रचामरादि विभूति= वैभव = जोड़ने तादृश शुभ अध्यवसायनां योगे केवळज्ञान उत्पन्न थयुं. प्रथम मेखलाबाळा कोडिन आदिक पांचसो एक साधुओने ज्यारे महावीरस्वामीनुं साक्षात् दर्शन थयुं त्यारे तादृश शुभ अध्यवसायना प्रभावथी केवळ| ज्ञान उत्पन्न थयुं. गौतमस्वामी भगवानना चरणमां प्रणाम करता हता त्यां आ पंदरसोने त्रण केवळी तापसमुनिओ भगवानने त्रण For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१० ।। ५९५ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir || पदक्षिणा करी केवळी पर्षदने अभिमुख चालता थया. त्यारे गौतमस्वामीए का के-अहीं आवो अने भगवान्ने प्रणाम करो.' आJe उत्तराध्य- IE समये भगवान् महावीरस्वामीए का के-'हे गौतम केवळीनी अशातना मा करो' आ वचन सांभळी गौतमे ते मुनिश्रीने 'मिथ्या भाषांतर यन सूत्रम अध्य०१० दुष्कृतं कहीने खमाव्या; पण गौतमना मनमा महोटी अधृति (धैर्य रहितता) थइ पडी त्यारे भगवान् महावीरे गौतमस्वामी प्रत्ये| ॥५९६॥ कई के-'हे गौतम! तमारो मारे विषे पूर्वभवना परिचयने लीधे महान् राग छे ते रागनो क्षय थया विना तमने केवळ ज्ञान उत्पन्न ।।५९६॥ नथी यतुं, ज्यारे ए राग क्षय पामशे त्यारे एज भवे तमने केवळ ज्ञान अवश्य उत्पन्न थशे. राग गमे तेवो प्रशस्त सारो होय तो Jआपण केवळज्ञाननो प्रतिबंधक थायज. एटले तुं तथा हुं आपणे बन्ने निर्वाणपदे तुल्य थइशुं माटे तमे अधृति मा करशो. एम कही ते समये महावीरस्वामीए आ 'द्रुमपत्त' अध्ययननी प्ररूपणा करी. इदं चाध्ययन सूत्रतोऽर्थतश्च भगवता श्रीमहावीरेणैव प्ररूपितमिति श्रीमदुत्तराध्ययनबृहवृत्ती. ततो ये वदत्युत्तराध्ययनसूत्रे वीरवाणीस्पर्शोऽपि नास्ति ते कुमतय एव बोद्धव्याः. ____ आ अध्ययन सूत्ररूपे तथा अर्थथी पण भगवान् श्रीमहावीरस्वामीएज प्ररूपित छे एम उत्तराध्ययननी बृहद् वृत्तिमा निर्देश करेलो छे तेथी जेओ एम बोले छे के 'उत्तराध्ययनमां वीरवाणीनो स्पर्श पण नथी' तेओने कुमति समजवा. दुमपत्तए पंडुरए । जहा निवडइ राइगणाणमच्चए ॥ एवं मगुआणूजीवियं । समय गोयम में पमाया ॥१॥ Fer Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् [जहा] जेम (राइगणाणं अचए) रात्रि वीती गया पछी [पंहुअए) पाकी गयेल (दुमपत्ताए) वृक्ष पांद? (निवडइ) पडी जाय छे (पव) एज प्रमाणे (मणुआण) मनुष्योनु (जीविअं) जीवितआयुथ्य क्षीण थाय छे तेम (गोअम) हे गौतम ! (समय) एक समय मात्र पण (मा पमायए) प्रमाद करवो नहि. १ भाषांतर र अध्य०१० ॥५९७॥ ॥५९७॥ व्या०-भगवान् श्रीमहावीरदेवो गौतमस्वामिनमुद्दिश्यान्यानपि भव्यजीवानुपदिशति-हे गौतमैवमनेन दृष्टांतेन मनुजानां मनुष्याणां जीवितं जानीहि? त्वं समय समयमात्रमपि मा प्रमादीः? प्रमादं मा कुर्याः? अत्र समयमात्रग्रहणमत्यंतप्रमादनिवारणार्थ, अनेन केन दृष्टांतेन? तद् दृष्टांतमाह-यथा रात्रिगणानामत्यये गमने, रात्रीणां गणा रात्रिगणाः कालपरिणामा रात्रिदिवससमूहास्तेषामत्ययेऽतिक्रमे पांडुरक दृमपत्रकं पकं वृताच्छिथिलपायं पर्ण निपतति, तथैव दिनानामत्यये आयुर्लक्षणे ते शिथिले जाते सति जीवितं शरीरं पतति, जीवो जातो यस्मिंस्तज्जीवितं शरीरमित्यर्थः, जीवितस्य कालस्य विनाशाभावात, जीवितशब्देन शरीरमुच्यते. यदाह नियुक्तिकारः-परियत्तिय लावन्नं । चलंति संधि मुअंति विंटग्गं ।। वसणं पत्त पत्तं । काले पत्ते भगइ गाहं ॥ १॥ जह तुज्झे तह | अम्हे । तुज्झेवि अहो हिआ जहा अम्हे ।। अप्पाहेइ पडतं । पंडुअपत्तं किसलयाणं ॥२॥ न विअस्थि नवि अ होही । उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं ॥ उवमा खलु एस कया। भवियजणा वियोहणट्ठाए ॥ ३ ॥ यथा हि किसलयानि पांडपत्रेणानुशिष्यते तथान्योऽपि यौवनगर्वितोऽनुशासनीयः ॥ १॥ अथायुषोऽनित्यत्वमाह For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवान् श्रीमहावीरदेव गौतमस्वामीने उद्देशीने अन्य पण भन्य जीवोने उपदेश करे छे. हे गौतम! आ दृष्टांत उपरथी मनु भाषांतर प्योर्नु जीवित जाणो, अने तमे समयमात्र पण प्रमाद मा करो. अहीं समय मात्रनुं गृहण अत्यंत प्रमाद निवारणार्थ करेलुं छे. क्या BE गन मृममा अध्य०१० दृष्टांतथी? आना उत्तररूपे दृष्टांत कहे छे यथा जेम-रात्रीना त्रण काळपरिणाम विशेष अर्थात् रात्री तथा दिवसना समूहोनो अत्यंत ॥५९८॥ अतिक्रम थतां पांडुरक एटले फीका रंगर्नु थइ गयेलं डुमपत्र झाडनुं पांदडु-पाकीने डीटमाथी छुटुं पडवानी अणो पर आवेलुं खरी ॥५९८॥ ३ पडे छे तेवीज रीते दिवसो बीततां आयुष्यरूपी डीट शिथिल थतां जावित=(जेमा जीव जन्म्यो कहेवायो ते)शरीर पडी जाय छे. अहीं BE जीवित काळनो तो विनाश थतो नथी तेथी जीवित शब्दे करी शरीरज समजवानुं छे. नियुक्तिकार लखे छे के-'ज्यारे लावण्य=कोमळता युक्त चमक-हती ते पर्यय=नाश पामी, तथा सांधा चलित थ३ गया अने ताग्र डीट९ पण मुकाइ गयुं ते काळे व्यसन अवस्थां। तर=ने पामेलं पांडुर पत्र-पींगळु थइने खरतुं पान, किसलय नवां कुंपळीयांने कहे छे.? जेम हमणां तमे छो, अमे पण एक काळे तेम हतां अने हमणां जेम अमे छइए तेवा तमे पण एक काळे यशो. २ आ कुंपळीयां तथा खर्या पांदडांनो उल्लाप=संवाद थयो नथी तेम थवानो पण नथी किंतु आ एक उपमा भविक जनोने विबोधनार्थे कही छे. ३ अर्थात् जेम पांडुपत्रोए किसलयने शिखामण आपी तेम अन्य यौवन गर्वित जनने पण शिखामण देवानी छे. १ हवे आयुष्यनी अनित्यता कहे छे. कुसग्गे जह ओसबिंदुए । थो चिठ्ठइ लंबमाणए ॥ एवं मणुयाण जीवियं । समयं गोयम मा पमायए ॥२॥ (जह) जेम (कुसग्गे) दर्भना अग्रभागपर (लंबमाणए) लटकतु (ओसबिंदुए) झाकळनु बिंदु [थोव] अल्प काळ [चिठ्ठइ] For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥५९९।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहे छे, (एव) तेज प्रमाणे [मणुआण] मनुष्योनु [जीविअ ] जीवीत छे, तेथी करीने [गोयम] हे गौतम! [समय ] एक समय मात्र [मा पater] प्रमाद न करवो, २ व्या०—हे गौतम! समयमात्रमपि मा प्रमादी : ? तत्र हेतुमाह- कुशस्याग्रेऽवश्यायविंदुर्लयमानः सन् स्तोकं | स्तोककालं तिष्ठति, वातादिना प्रेर्यमाणः सन् पतति, तथा मनुष्याणां जीवितमायुरस्थिरं ज्ञेयं एवमायुषोऽनित्यत्वं ज्ञात्वा धर्मे प्रमादो न विधेय इत्यर्थ. हे गौतम! समयमात्र प्रमादन करशो. तेमां हेतु कहे छे, जेम दर्शना अग्र भाग उपर लटकतो झाकळनो बिंदु अत्यंत स्वकल्पकाळ स्थित थइ वायु आदिकथी मेराइ झट पडी जाय छे तेम मनुष्योनुं जीवित आयुष्य पण एना जेवुंज अस्थिर जाणवु आम | आयुष्यनी अस्थिरता = अनित्यता याद राखी धर्माचरणमां सर्वथा प्रमाद करवो नहि. २ इइन्तरियंमि आऊँए । जीविएं अ बहुपचवायाए । विहुणाहि रयं पुरेकडं । समयं गोयम मा पमायए ॥ ३ ॥ [x] आ प्रमाणे [आ] आयुष्य [ इत्तरिअम्मि] अल्पकाळनु छते [जीविआए] जीवित [ बहुपश्च्चवायम् ] घणा विघ्नवाळु [[पुरेकड] पूर्वे करेला [रयं] कर्मरूपी रजने (विटुणाहि) तुं दूर कर? (गोयम) हे गौतम! (समय) एक समय पण (मा पमायण) प्रमाद न करवो. ३ व्या०—- इत्युक्तदृष्टांतेनेत्वरे स्वल्पकालपरिमाणे मनुष्यस्यायुषि भो गौतम! पुराकृतं रजः प्राचीनकृतं पातकं For Private and Personal Use Only भाषांतर 'अध्य०१० ।। ५९९ ।। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie उत्सराध्ययन सूत्रमा भाषांतर अध्य०१० | दुःकर्म विशेषेण धुनीहि? जीवात्पृथक्कुरु? हे गौतम! पुनर्जीवितकेऽर्थात्सोपक्रमे आयुषि बहवः प्रत्यवाया उपघातहेतवोऽध्यवसायादयो वर्तते यस्मिंस्तवहुप्रत्यवायकं, तस्मिन् बहुप्रत्यवायके समयमपि मा प्रमादं कुर्याः? अत्रायुःशब्देन निरूपक्रममायुर्भण्यते, जीवितशब्देन सोपक्रम भण्यते. एति मामोत्युपक्रमहेतुभिरतः प्रवर्त्यतया यथास्थित्यैवमनुभवमित्यायुः, तस्मिन्नायुषि निरुपक्रमे आयुषि स्वल्पपरिमाणेऽपि दुःकृतं दृरीकुरु? यद्यपि पूर्वकोटिममाणमायुभवति, तथापि देवापेक्षया स्वल्पमेव ज्ञेयमतृप्तत्वात्. यदुक्तं-धनेषु जीवितव्येषु । रतिकामेषु भारत ॥ अतृप्ताः पाणिनः सर्वे । याता यास्यंति यांति च ॥१॥ अत्र सोपक्रमनिरुपक्रमायुर्ज्ञानं केवलिन एव भवेत् ॥३॥ ॥६००॥ एम उक्त दृष्टांतथी इत्वर-सततगमन करतु-स्वल्पकाल परिमाणनुं मनुष्य आयुष्य छे माटे हे गौतम! पूर्वे करेलां दुष्कर्म रजने विशेषे करी खंखेरी नाखो-जीवथी छुटां करी नाखो. हे गौतम! जीवित-सोपक्रम आयुष्यमा घणा प्रत्यवाय उपयातना हेतुओ अध्यवसायादिक रहेला होय छे माटे समय-क्षण पण प्रमाद मा करशो. आ गाथामा आयुः शब्दथी निरुपक्रम आयुष्य कहेवाय छ तथा जीवित शब्द वडे सोपक्रम आयुष्य कहेवामां आव्यु छे. 'एति' उपक्रम हेतु वडे अनुभवाय छे ते आयुः, ते स्वल्पपरिमाणना निरुपक्रम आयुष्यमां पण दुष्कृतने दूर करो. आयुष्य तो जोके पूर्व कोटि प्रमाण छे तो पण देवोनी अपेक्षाये स्वल्प मनाय कारण के आयुष्य विषयमा सर्व अतृप्तन होय छे. का छे के-'धन, जीवित अने काम सुख; आ त्रणेना विषयमां पाणिओ हमेशा | उप्ति पाम्या विनाज गत थया छे, गत थशे अने गत थाय छे.' आ सोपक्रम तथा निरुपक्रम आयुष्य ज्ञान केवळीनेज होय छे.३ For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्ययनसूत्रम् ॥६०१॥ दुल्लहे खलु माणुसे भवे । चिरकालेणवि सव्वपाणिणं । विगाढा य विवागकम्मुणे । समयं गोयम मा पमायए।।४15 RET भाषांतर (सब्वपाणिण) सर्व प्राणीने (चिरकालेण वि) चिरकाले करीने पण (माणुसे भवे) मनुष्यभव (दुलहे खलु) दुर्लभजछे (य) कारणके Modi अध्य०१० (कम्मुणो) कमाना (विवाग) विपाको (गाढा) गाढछे तेथी [गोयम] हेगौतम! (समय) समयमात्र (पमामायए) प्रमाद करवो नहि.४ खल्विति निश्चयेन मर्वप्राणिनां सर्वजीवानां चिरकालेनापि मनुष्यो भयो दुर्लभो दुःमाप्यो वर्तते, तत्र हेतु ॥६.१॥ माह-कर्मणां मनुष्यगतिविघातकानां विपाका विगाढा विशेषण गाढा विगाढा विनाशयितुमशक्यास्तस्मात्समयमात्रमपि प्रमादं मा कुर्याः ॥४॥ कथं मनुजत्वं दुर्लभमित्याह-- खलु=निश्चये जाण जो जे सर्वप्राणी जीवो ने लांचे काळे पण मनुष्यभव दुर्लभ दुष्पाप्य हे, कारण के मनुष्यगतिनां विघातक जे कर्मो छे तेना विपाक विशेषतया गाढ दृढ होय छे, अर्थात् तेओनो विनाश सहेलाइथी थइ शकतो नथी माटे हे गौतम समय क्षण पण प्रमाद मा करशो. ४ हवे मनुष्यत्व केम दुर्लभ छे? ते करी देखाडे छे. पुढविक्कायमइगओ । उक्कोसं जीवो उसंवसे | कालं संखाईयं । समयं गोयम मा पमायए ॥५॥ (पुढविक्काय अइगओ) पृथ्वीफायने पामेलो (जीवोउ) जीव [उक्कोस] उत्कर्षथी (संखाइयं काल) संख्यातीत काळ सुधी (संवसे) रहे छे (गोयम) हे गौतम! (समय) एक समय पण (मा पमायए) प्रमाद करीश नहि ५ जीवः संसारी पृथ्वीकायमधिगता पृथ्वीकायभावं प्राप्तः सन्नुत्कर्षत उत्कृष्टकारी संख्यातीतमसंख्योत्सर्पिण्यव. सर्पिणीमानं कालं संवसेत्तद्रूपतयावतिष्टेन, तस्मात्समयमात्रमपि मा प्रमादीः ||५|| B UCULADDODD For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रमा भाषांतर अध्य०१० ॥६०२॥ ॥६०२॥ संसारी जीव पृथ्वीकाय भावने पाम्या पछी उत्कर्पतः संख्यातीत असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाणना काळ पर्यंत तद्रूज संवास करे छे अर्थात् पार्थिवकायमांज उत्कर्ष पाम्या करे छे; माटे हे गौतम! समय-निमेष मात्र काळ पण प्रमाद करवानो नथी.५ आउक्कायमइगओ । उक्कोसं जीवो उसंवसे ॥ कालं संखाईओ। समयं गोयम मा पमायए ॥६॥ तेउकायमइगओ । उक्कोसं जीवो उसंवसे ॥ कालं संखाईयं । समयं गोयम मा पमायए ॥७॥ वाउक्कायमइगओ । उक्कोम जीवो उसंवसे ॥ कालं संखाईयं । समयं गोयम मा पमायए ॥८॥ (आउक्काय अइगओ) अप्कायने पामेलो. (तेउकाय अइगओ) तेजस्कायने पामेलो. (वाउक्काय महगओ) वायुकायने पामेलो जीव ते ते कायामां असण्यातो काळ रहे छे तथा हे गौतम, एक समयमात्र पण प्रमाद न करवो. ६-७-८ व्या-तथाप्कायमधिगतो जीव उत्कृष्टमसंख्योत्सर्पिण्यवसर्पिणीमान कालं संवसेत् , तस्मात् समयमात्रमपि मा प्रमादी? ॥६॥ एवं तेजस्कायमग्निकायमधिगतो जीव उत्कृष्ट संख्यातीतं कालमसंख्योत्सपिण्यवसर्पिणीमानं कालं संवसेत् , तस्मात्समयमात्रमपि प्रमादं मा कुर्याः ॥७॥ एवं जीवों वायुकायमधिगतोऽप्युत्कृष्टमसंख्योत्सपिण्यवसर्पिणीप्रमाणकालं संवसेत् , तस्मात् समयमात्रमपि प्रमादं मा कुर्याः? ।। ८ ।। तथा पूर्वकथित पृथ्वीकायनी पेठे अप्काय जलकायने पामेलो जीव उत्कृष्ट असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण काल पर्यत संवास करे छे माटे समयमात्र पण प्रमाद न करशो. एमज तेजस्काय अग्निकायने तथा वायुकायने पामेलो जीव उत्तरोत्तर उत्कृष्ट | संख्यातीत असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल संवसे छे माटे हे गौतम! समयमात्र पण प्रमाद मा करो. ६-७-८ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अभ्य०१० ॥६०३॥ वणस्सइकायमइगओ । उक्कोसं जीवो उसंवसे ॥ कालमणतं दुरंतं । समयं गोयम मा पमायए ॥९॥ उत्तराध्ययनमूत्रम् बेदियकायमहगओ। उक्कोसं जीवो उसवसे ॥ कारं संग्विजसन्नियं । समयं गोयम मा पमायए ॥१०॥ तेदियकापमहगओ। कोसं जीवो उवसंवसे ।। कालं संखिज्जसन्नियं । समयं गोयम मा पमायए ॥११॥ ॥६०३।। चरिदियकायमइगओ । उक्कोसं जीवो उसंवसे ।। कालं संखिलमन्नियं ।समयं गोयम मा पमायए ॥१२॥ पंचिदियकायमहगओ। उक्कोसं जीवो उसनसे ॥ सत्तट्ठभवग्गहणे । समयं गोयम मा पमायए ॥१३॥ व्या०-जीवः संसारी वनस्पतिकायमधिगत उत्कर्षत उत्कृष्टं कालमनंतमुत्सपिण्यवसर्पिणीमानमनंतकायिकापेक्षं वसेत् , कथंभूतमनंत कालं? दुरंतं, दुष्टोऽन्तो यस्य स दुरंतस्तं, ते हि वनस्पतिकायमधिगता जीवास्तत्स्थानादुध्वृता अपि प्रायो विशिष्ठं नगदिभवं न लभते, तस्माद दुरंतमिति विशेषणं. तस्मात् समयमात्रमपि प्रमादं मा कुर्याः? ॥९॥ दींद्रियकार्य जीवोऽधिगतः सन्नुत्कृष्टं कालं संख्यातसंज्ञक संख्यातासंख्यातवर्षसहस्त्रात्मकं कालं दींद्रियGl कायं तिष्टेदित्यर्थः, तत्समयमात्रमपि गौतम मा प्रमादं कुर्याः॥१०॥एवं जीवस्त्रींद्रियकायमधिगतः संख्यातवर्षसहस्रा त्मक कालमुत्कृष्टं वसेत, तेन त्वं समयमात्रमपि प्रमादं मा कुर्याः? ॥११॥ एवं जीवश्चतुरिंद्रियकायेऽधियसन संख्या तवर्षसहस्रात्मकं कालमधिवसेत, तस्मात्वं प्रमादं समयमात्रमपि मा कुर्याः? ॥१२॥ पंचेंद्रियकायमधिगतः पंचेंद्रियत्वं JI प्राप्तः सन्नुत्कृष्टं सप्ताष्टभवग्रहणे संवसेत् , सप्ताष्टौ वा परिमाण येषां ते सप्ताष्टाश्च ते भवाश्च सप्ताष्टभवास्तेषां प्रहणं सप्ताष्टभवग्रहणं, तस्मिन. यदा हि पंचेंद्रियो मृत्वा पंचेंद्रियो भवेत्तदोत्कृष्टं सप्ताष्टवारं स्थादित्यर्थः. तस्मा For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम ॥ ६०४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयमात्रमपि मा प्रमादीः कचित्पुण्यवान् संख्यातायुष्को जीवः सप्तभवान् करोति, कश्चिदसंख्यातायुष्को जीवोभवान् वा करोति, एवं ज्ञात्वा प्रमादो न विधेयः ॥ १३ ॥ | संसारी जीव वनस्पतिकाय [वड पीपळा आदि] ने पामेलो उत्कर्षयी अनंत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण काल ( अनंतकायिकापे| क्षाथी ) बसे छे. केटलो काळ? अनंत तथा दुरन्त, एटले जेनो अंत= परिणाम दुष्ट होय एटला काळ पर्यंत संवास करे छे. वनस्प तिकायने पामेला जीवो ते स्थानमाथी उधृत थइने पण प्रायः विशिष्ट स्थान=नरादिभत्र पामता नथी तेथी 'दुरंत' विशेषण क माटे समयमात्र प्रमाद मा करो. बेदियकाय तेंदियकाय० चउरिन्दिकाय० पंचिदियकाय०, द्वींद्रियकायने तथा त्रद्रिकायने अने | चतुरिंद्रियकायने पामेलो जीव उत्कृष्टकाळे संख्यात संज्ञक = असंख्यात वर्ष सहस्रात्मकाळपर्यंत अधिवास करे छे, माटे हे गौतम किंचिन्मात्र समय पण प्रमाद मा करो. पंचेंद्रियकायने पामेलो जीव, उत्कृष्ट सात आठ भव ग्रहणमां संवसे छे माटे गौतम! समयमात्र पण प्रमाद माकरो. पंचेंद्रिय कायने अधिगत = पामेलो जीव उत्कृष्टवडे सात आठ भव ग्रहणकरतो संवास करे छे, अर्थात् सात अथवा आठ भवनुं ग्रहण करे छे, कोइ संख्यात आयुष्यवाळो जीव सात भवनुं ग्रहण करे छे अने कोइक असंख्यातायुष्क जीव आठ भव कहे छे, एम जाणीने हे गौतम समय मात्र पण प्रमाद न करवो. ९-१०-११-१२-१३ देवे desert | कोसं जीवो उसेबसे । इक्केकभवग्गहणे । समयं गोयम मा पमायए ॥ १४ ॥ (देवे) देवपणाने स्था (नेरइर) नारकीपणाने (अइगओ) पामेलो (जीवो उ) जीव [उक्कस'] उत्कर्षथी [इक्किक्कभवग्गाहणे ] एक एक भत्र ग्रहणने वि [सबसे] रहे छे, तेथी [गोयम] हे गौतम! [समय] १४ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० १० ॥६०४॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Live भाषांतर अध्य०१० ॥६०१॥ उत्सराध्य व्या०-देवे देवभवे नरके नरकभवेऽधिगतः संसारी जीव उत्कृष्टमेकै कस्मिन् भवग्रहणे संवसेत् , तस्मात्समययनसूत्रम् मात्रमपि प्रमादं मा कुर्याः? देवो मृत्वा न स्यात् , नारको मृत्वा नारको न स्यात् , एकमन्यद्भवांतरं कृत्वा पश्चात्स्या |दित्यर्थः, तस्मादेकैकभवग्रहणमित्युक्तं. ॥१४॥ ॥६०१॥ । देवभवमां तथा नरकभवमां अधिगत प्राप्त थयेलो संसारी जीव उत्कृष्ट एक एक भव ग्रहण करतो संबसे छे, माटे समयमात्र | पण प्रमाद मा करो. देव मरीने पालो कंह देव नथी थतो, तेम नारकी मरीने नारकी नथी थवातुं. किंतु वच्चे एकाद भवांतर | पामी पछीथी यवाय तेथी एक एक भवग्रहण का छे. १४ एवं भवसंसारे । संसरइ सुहासुहेहिं कम्मेहिं । जीवो पमायबहुलो । समयं गोयम मा पमायए ॥१५॥ Bell (पव) उपर प्रमाणे (भवसंसारे आ संसारने विषे (पमाय बहलो) घणा प्रमादवाळो (जीवी) जीव (सुभासुहेहि कम्मेह) शुभा- 13t शुभ कौए करीने (संसरह) भ्रमण करे छे तेथी (गोयम) हे गीतम! (समय) १५ एवममुना प्रकारेण जीवो भवसंसारे भवभ्रमणे शुभाशुभैः कर्मभिः प्रेर्यमाणः संसरति पर्यटति. कोशो जीवः? प्रमादबहुलः, प्रमादो बहुलो यस्य स प्रमादबहुलः प्रमादवर्तीत्यर्थः, तस्मात्प्रमादस्य दुनिवारत्वं ज्ञात्वा समयमात्रमपि | प्रमादं मा कुर्याः ॥१५॥ मनुष्यत्वं प्राप्तस्याप्युत्तरोत्तरगुणाप्तिर्दुर्लभेत्याह एम-पूर्वोक्त प्रकारे जीव, भवसंसारमा भवभ्रमणमा शुभअशुभ कर्मो वडे मेरायेलो थको संसरे छे=भटके छे. केवो जीब? |प्रमाद बहुल जीवितकाळनो अधिकांश प्रमादमांज गाळनारो; माटे प्रमादथी बचचुं बहु दुष्कर जाणीने गौतम! समयमात्र पण For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ ६०२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमाद मा करशो. १५ लधूण वि माणुसत्तणं । आयरियत्तं पुणरेव दुल्लहं ॥ बहवे दसुया मिलच्छुया । समयं गोयम मा पमाय ॥ १६ ॥ [माणुसत्ताण'] मनुष्यपणु ं [लधूण वि] पाम्या छतां पण [ पुणरवि] फरीने तेमां (आरिअत्त') आर्यपणु [दुल्लह] दुर्लभ हे [बहवे ] जो तो [] पर्वतादिकमां वसनारा [मिलच्छुआ] म्लेच्छ=अधर्मी तेथी करीने [गोयम] हे गौतम [समय] १६ arra - मनुष्यत्वमपि लब्ध्वा आर्यत्वमार्यदेशोत्पत्तिभावं पुनरपि दुर्लभं, यद्यपि मनुष्यत्वं जीवः प्रामांति, तदाप्यार्यदेशे मनुष्यत्वं दुर्लभमित्यर्थः यत्र देशेषु धर्माधर्मजीवाजीव विचारः स आर्यो देशस्तत्रोत्पत्तिर्दुर्लभा, पुनरपि बहवो जीवा दस्यवचौरा देशानां प्रांते पर्वतादिषु निवासकारिणस्तस्करा भवति, म्लेच्छाः के? येषां वाक् सम्यकेनापि न ज्ञायते ते म्लेच्छा उच्यंते. पुलिंदा नाहला नेष्टा । शबरा घरटा भयाः ॥ माला भिल्लाः किराताथ । सर्वेऽपि म्लेच्छजातयः ॥ १॥ तत्र च धर्माधर्मज्ञानं दुर्लभं तस्मात्समयमात्रमपि प्रमादं मा कुर्या: ? ॥१६॥ मनुष्यपणाने पामीने पण आर्यदेशमां उत्पन्न श्रवं एतो फरी पण अति दुर्लभ है. यद्यपि जीव मनुष्यत्व पाये तथापि आर्यदेशमां | मनुष्यत्व तो अत्यंत दुर्लभ छे; जे देशोमां धर्म, अधर्म, जीव, अजीव, इत्यादि विचार रह्या छे ते आर्यदेश, ए देशमा उत्पत्ति अति दुर्लभ छे, वळी घणा जीवो तो दस्यु होय छे, एटले पर्यंत देशांमां पर्वतादिस्थानोमा रहेनारा तस्करो होय छे तेम केटलाकतो जेनुं बोलवु आपणे समजी न शकीये तेवा म्लेच्छ होय छे, 'पुलिंद, नाइल, नेष्ट, शवर, वरट, भट, माल, भिल्ल तथा किरात; आ नवे म्लेच्छ जाति कहेवाय छे' एवी जातिमां धर्माधर्म ज्ञान दुर्लभज होय माटे हे गौतम! समये प्रमाद मा करो. १६ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१० ||६०२॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassaqarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनमूत्रम् ॥६०३।। लध्धृण वि आयरियत्तणं । अहीणपंचेंदिअया हुदुल्लहा ।। विगलिदिअया हुदीसह । समयं गोयम मा पमायए।॥१७॥ भाषांतर [अरिअत्तण] आर्यपणु [लध्धूण वि] पामीने पण [अहीण पंचे दिअया पंचेंद्रियपणु [दुल्लहा हु] प्राप्त थषु दुर्लभ छे कारण के AC अभ्य०१० (विगलि दिअया) विकले द्रियता होय [हु] बहोळताए [दीसइ] जोवामां आवे छे तेथी (गोयम) गौतम! (समय) १७ व्या०-आर्यत्वमार्यदेशोत्पत्तिभावमपि लब्ध्वा, हु इति निश्चये, अहीनपंचेंद्रियता पुनर्लभा, हु इति बाहुल्येन बहूनां विकलेंद्रियता दृश्यते, विकलानि रोगा|पहतानींद्रियाणि येषां ते विकलेंद्रियास्तेषां भावो विकलेंद्रियता, सा | दृश्यते. बहवो हि दुःकर्मवशादोगोद्रेकेग विगतनेत्रश्रवणरसनस्पर्शनचरणवीर्या दृश्यंते, ते च धर्मानुष्ठानकरणेऽसमर्था भवंति, तस्मात्त्व समयमात्रमपि हे गौतम ! प्रमादं मा कुर्याः? ॥१७।। आर्यत्व एटले आर्यदेशमा उत्पन्न थइने पण सपेन्द्रिय संपन्न होवू अति दुर्लभ छे केम के घणा जणोमा कोइने कोइ इंद्रियनी विक| लता जोवामां आवे छे, अर्थात् घणाय रोग शीतळाइत्यादिकथी आंख, कान, जीभ, स्पर्शेन्द्रिय, पग हाथ हलावबार्नु सामर्थ्य जेनां नष्ट ययां होय तेवा जोवामां आवे छे अने तेथी तेो धर्मानुष्ठान करवामां अशक्त वनी जाय छे तेथी हे गौतम! तमे समय काळमात्र पण प्रमाद वश थशोमां. १७ अहीणपंचिंदियत्तं पि से लहे । उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा ।। कुतिथिनिसेवए जणे | समयं गोयम मा पमायए ॥१८॥ | [अहीणपचि दित्त] अन्यून पचेंद्रियपणाने पण [से ते जीव कदाच (लहे) पामे तो पण (उत्तमधम्मसुद) उत्तम धर्म श्रवण (दुल्लहा हु) दुर्लभछे कारण के (जणे) घणा लोको (कुतिस्थिनिसेवए) कुतीर्थीओने सेवनारा होय छे. तेथी (गोयम) हे गौतम! (समय) For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir भाषांतर अध्य०१० ॥६०४॥ व्या०-से इति स जीवोऽहीनपंचेंद्रियत्वमपि चेल्लभेत तदापि हु इति निश्चयेनोत्तमधर्मश्रुतिदुर्लभा, जिनधउत्तराध्य-15 DEमस्य श्रवणं दुःप्राप्यमित्यर्थः. तत्र हेतुमाह-जनो लोकः कुतीथिनां मिथ्यात्विनां निषेवकः, कुतीथिनो हि सत्कारयन मुत्रम यशोलाभार्थिनो भवति, ते च प्राणिनां विषयादिसुखसे वनोपदेशेन वल्लभत्वमुत्पाद्य जनान् रंजयंति, अतस्तेषां सेवा ॥६०४॥ सुकरा, तेषां मुखाद्धर्मवार्ता कुन इत्यर्थः. १८ | 'से' ते जीव अहीन पंचेंद्रियत्व पण कदाच पामे तारे पण 'हु'निश्चये उत्तम धर्म-जिनधर्मनुं श्रवण दुष्पाप्य छे, तेमां हेतु कहे छे जनों लोको कुतीथि निषेधक थाय छ-कुतीथि-मिथ्यात्वीना अनुयायी थइ जाय छे, केमके कुतिथिओ सत्कार यश तथा लाभना अर्थी होय छे तेथी तेओ पाणीओने विषयादिसुख सेववानो उपदेश करी लोकोना वहाला बनी जनोने रंजीत करे छे आथी तेवाओनी सेवा मुकर लागे छे. एवाओना मुखेथी धर्मवार्ता सांभळवानुं क्याथी मळे? माटे हे गौतम! समये प्रमाद न करो. १८ लन्धूण वि उत्तम सुई। सदहणा पुणरवि दुल्लहा ॥ मित्थत्तनिसेवए जणे । समयं गोयम मा पमायए ॥१९॥ (उत्तम) उत्तम धर्मनु (सुई) श्रवण (लब्धूणवि) पामोने पण (पुनरवि) पुनः (सद्दद्दणा) श्रद्धा थवी दिल्लद्दा दुर्लभ छ [जणे] घणा माणसो (मिच्छत्तनिसेवए) मिथ्यात्वने सेबनारा छे तेथी (गोयम) हे गौतम (समय) १९ ___ घ्या -उत्तमधर्मस्य श्रुतिमपि लब्ध्वा पुनः श्रद्धा दुर्लभा । तत्वरुचिर्दुःमाप्या, यतो हि जनो लोका मिथ्यात्वनिषेवकः स्यात् , मिथ्यात्वं हि कुगुरुकुदेवकुधर्मलक्षणं नितरां सेवते इति मिथ्यात्वनिषेवकः, तस्मान्मिथ्यात्वोदयाजिनधर्मरुचिर्दुर्लभा, तस्मात्समयमात्रमपि त्वं मा प्रमादीः? १९ For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य- उत्तम धर्मनी श्रुति पामीने फरी श्रद्धा दुर्लभ हे तत्त्वमा रुचि थवी दुष्माय होय छे; कारण के जनलोक, मिथ्यात्व सेवी थाय छे 15 भाषांतर यनसूत्रम् । तेथी तेओमां मिथ्यात्वनो उदय थवाथी तेओनी जिनधर्ममां रुचि दुर्लभ थाय छे तेथी हे गौतम! समयमात्र पण तमे प्रमाद मा करशो. अध्य०१० ॥६०५॥ धम्म पि हु सदहंतया । दुल्लाहया कारण फासया ॥ इह कामगुणेसु मुच्छ्यिा । समयं गीयम मा पमायए ।२०॥ AGI [धम्म'] धमने [सद्दहतया पिहु] सद्दहता थका पण [कारण तेने कायावडे [फासया] स्पर्श करनारा [दुलहया] अति दुलभ छे कारण के [इह] आ जगतमां [कामगुणेसु कामभोगने विषे [मुच्छि आ] मू वाळा होय छे छतां गोयम] हे गौतम! [समयं] व्या०-धर्म जिनोक्तं धर्म श्रद्दधतः, जिनोक्तमागमं साधुश्राद्धधर्म वा सर्व सत्यमिति जानतोऽपि जीवस्य कायेन शरीरेण, कायग्रहणेन कायसंबद्धयोवागमनसोरपि ग्रहणं, तस्मात्कायेन वचसा मनसा च स्पर्शना दुर्लभिका, धर्मक्रियानुष्ठानकरणं दुःकरमित्यर्थः. इह जगति जीवाः कामगुणेषु विषयेषु मूर्छिता लोलुपा भवंति, विषयिणो हि धर्मक्रियास्वयोग्याः, हे गौतम! धर्मक्रियानुष्ठान करणं दुःकरमिति समयमात्रमपि प्रमादं मा कुर्याः? ॥२०॥ धर्म-जिनोक्त धर्मने श्रद्धाथी पामीने पण, अर्थात्-जिनोक्त आगम तथा साधुश्राद्धधर्म सर्व सत्य छे एम जाग्या छतां पण जीव, कायावडे (अहि 'काय' शब्दथी काया साथेना वाणी तथा मननुं ग्रहण करवानुं छे) काया मन तथा वाणी वडे स्पर्शना-धर्मक्रियान आचरण करवु ए तो अति दुर्लभ-दुष्कर छे. आ जगत्मां जीवो काम गुणोमां मूर्छित लोलुप होय छे, एटले विषयीजनो धर्मक्रि| यामां अयोग्य गणाय तेथी हे गौतम! धर्मक्रियाओनुं अनुष्ठान करवू ए अति दुष्कर होवाथी समयमात्र पण प्रमाद मा करशो. २० परिझरइ ते सरीरयं । केसा पांडुरया हवंति ते ॥ से सोयबले य हायई । समयं गोयन मा पमायए ॥२१॥ For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit भाषांतर अध्य०१० ॥६०६॥ | (ते] तासरीरयशरीर [परिझरह] सर्व प्रकारे जीर्ण थाय छे तथा [ते] तारा [केसा) केशो (प'डरया) वृद्धावस्थाने लीधे श्वेत || उत्तराध्य हवंति थाय छे [अ] तथा से] ते [सोअप्पते] श्रवणेंद्रियनुं बळ [हायइ हानि पामे छे माटे [गोयम हे गौतम! समय) २१ । यन सुनमा व्या०-हे गौतम! ते शरीरकं परिजीयति, परि समंतात्सर्वप्रकारेण वयोहानिजरथा जीर्णत्वमनुभवति, तव ॥६०६॥ पुनः केशाः पांडुरकाः श्वेता भवति, अत्र ते तवेति कथनात्प्रत्यक्षानुभवेन मंदेहो न कर्तव्यः, यथा हस्तकंकणस्यात्मदJशावलोकनं. यथा तव शरीरं तथा सर्वेषामेव ज्ञेयमित्यर्थः. से इति तच्छ्रोत्रवलं हीयते हीनं स्यात्, तच्छन्दग्रहणा. BE यच्छन्दग्रहण कर्तव्य, यत श्रोत्रयोर्थलं तरुणावस्थायां स्यात्तद् वृद्धावस्थायां हीयत इत्यर्थः. अत्र पूर्व श्रोत्रग्रहणं धर्म श्रवणत्वख्यापनार्थ, यतो हि धर्मश्रवणादेव धर्मकरणमतिः स्यादिवर्थः, तस्मात् श्रोत्रयले सति धर्मभ्रवणादरः कर्तव्यः, तत्र समयमात्रमपि त्वं मा प्रमादीः? ॥२१॥ साई गौतमः तारुं शरीर परिचारेकोरथी सर्व प्रकारे वयोहानिरूप जरावडे जीर्णता अनुभवे छे, तेम वळी तारा केश पांडुरक-चेत | थइ गया छे. अहीं 'तारा' एम कहे छे तेथी प्रत्यक्ष अनुभवाता होवाथी तेमां संदेह करवा जेवू रहेतुं नथी: जेम हाथना कंकणमां Deपाताना स्वरूपर्नु अवलोकन निःशंशय थाय छे तेम तारुं तेमज बीजानां पण सर्वेना शरीर एवान समजवाना छे. ते श्रोत्रबळ शब्द| ग्रहण सामर्थ्यरूप=जे श्रवणेंद्रियनुं बळ युवावस्थामा हतुं ते पण हीन थयु. अत्रे वीजा इन्द्रियो न गणतां श्रोत्रनी प्रथम गणना की तेनो आशय एको छ के-धर्मनुं श्रवण करवाथी धर्म करवामां प्रीति थाय तेथी ज्यांसुधी श्रोत्रइन्द्रियनुं बळ क्षीण नथी थयुं तेटलामांज धर्मश्रवणमा आदर करवो, ए बावतमा समयमात्र पण तुं प्रमाद करीशमां. २१ For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥६०७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिरह ते सरीरयं । केसा पांडुरया हवति ते ॥ से चक्बले य हायई । समयं गोयम मा पमायए ||२२|| परिरइ ते सरीरथं । केसा पांडुरया हवंति ते । से घाणवले य हायई । समयं गोयम मा पमायए ||२३| परिरइ ते सरीरयं । केसा पांडुरया हवंति ते ॥ से जिम्भवले य हायई । समयं गोयम मा पमायए ||२४|| परिरह ते सरीरयं । केमा पांडुरया हवंति ते ॥ से फासले य हायई । समयं गोयम मा पमाय ||२५|| परिर ते सरीरयं । केसा पांडुरया हवति ते ॥ से सव्ययले ग हायई । सत्यं गोवन मापनावर ||२३| २१ गाथा प्रमाणे अर्थ. तेमां विशेष ए के (चक्युबले अ) नेत्रनु वळ पण (हायर) हानि पामे छे, वली नासिका, जिह्वावळ स्प द्रिय बळ, हाथ, पग विगेरे सर्व अवयवोनु वळ पण नाश पामें के माटे हे गौतम! समयमात्र प्रमाद न करवो. २२-२३-२४-२५-२६ मा० - गाथायाः पूर्वार्धस्यार्थः पूर्ववद ज्ञेयः, तत्पूर्वसत्कं चक्षुर्बलं हीयते, तद्धानौ च धर्मकरणं दुर्लभं ज्ञात्वा मा प्रमादं कुर्याः ॥ २२ ॥ तत्पूर्व सत्कमपि घाणवलं नासाधलं हीयते, तस्मान्नसायले सति त्वया सुरभिरभिगंधग्रहणेन विषये रागक्षेषकरणवेलायां प्रमादो न विधेयः ||२३|| तत् जिहाबलं हीयते, यादृशं तरुणावस्थायां भवेत्ताहां वृद्धावस्थायां न स्यात्, तस्माज्जिह्वायले सति स्वाध्यायादिधर्मक्रियायां प्रमादं मा कुर्याः ? ||२४|| तत्स्पर्शवलं शरीरवलं हीयते, यादृशं यौवने शरीरवलं भवेत्तादृशं जरायां न स्यात् तस्माद्धर्मानुष्ठानादौ प्रमादं मा कुर्याः ? ||२५|| ततरुणावस्थासत्कं सर्वयलं करचरणदंतादीनां बलं हीयते, तस्मात्समयमात्रमपि त्वं मा प्रमादीः ? ||२६|| आ पांचे गाथाना पूर्वार्द्धनो अर्थ तो पूर्वनी एकवीशमी गाथा प्रमाणे जाणी लेवो. विशेष कहे छे ते पूर्वे हतुं तेवुं चक्षुर्बळ हीन For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१० ||६०७ || Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१० ॥६०८॥ | थयु, तेनी हानि थइ एटले धर्म करवामा दुर्लभपणुं जाणी प्रमाद मा करो. ते पूर्व हतुं तेवू घाण बळ नासिका बळ हीन थाय छे. उत्सराध्य नासिकानुं सुगंध दुर्गधादि ग्रहण सामर्थ्य होय त्यारे ते विषयमा राग द्वेष करवा वेळाए प्रमाद न करवो. ते जिहानुं बळ हीन यन सूत्रमा थाय छे. जेवू युवावस्थामा होय छे तेवू वृद्धावस्थामां नथी होतुं. माटे जीहा बळ होय त्यां सुधीमां स्वाध्याय अध्ययन करवामां ॥६०८॥ प्रमाद मा करशो. ते स्पर्श बळशरीर चळ जेवू युवावस्थामा होय छे ते जरावस्थामा रहेतुं नथी माटे धर्मानुष्ठानमा प्रमाद मा करो. ते तरुण अवस्थामा हतुं तेवु सर्व वळ हाथ पग दांत वगेरेनुं वळ पण हीन थाय छे माटे समयमात्र प्रमाद मा करो.२२-२६ अरइ गंडं विस्मइया । आयंका विविहा फुसंति ते ॥ विवडइ विद्धंसह ते शरीरं । समयं गोयम मा पमायए।॥२७॥ (अरई) अरति-उद्वेग (गड) लोहीना दोषथी तथा (विसईआ) विसूचिका (विविहा) विविध प्रकारना (आयका) आतंक (ते) तारा शरीरने (कुसति) स्पर्श करे छे, तथा (ते शरीरय) तारु शरीर [विवडा] बळनी हानि थवाधी पडे छे, (विद्धसइ) JET जीव रहित थह विध्यस पामे छे, माटे (गोयम गौतम (समय) समयमात्र प्रमाद न करयो, २७ ___व्या -हे गौतम! ते तव विविधा नानाप्रकारा आतंका रोगाः शरीरं स्पृशंति, ते के चातकाः? अरतिश्चतुरशीतिविधवातोद्भूतचित्तोद्वेगो वातप्रकोप इत्यर्थः, गंडं रुधिरप्रकोपोद्भूतस्फोटकः, विशुचिकाऽजीर्णोदभूत्तवमनामातविरेचादिसद्योमृत्युकृझक, इत्यादयो रोगा आतंका देहं पीडयंति, ते रोगैः पीडिते शरीरे सति धर्माराधनं दुष्कर, ते शरीरं रोगाभिभूत सद्विपतति, विशेषेण बलापचयान्नश्यति, पुनः शरीरं ते तव विध्वंस्यते, जीवमुक्तं सद्विशेषेणाधः पतति. अत्र सर्वत्र यद्यपि ते तवेत्युक्तं, गौतमे च केशपांडुरत्वादींद्रियाणां हानिश्च न संभवति, तथापि तन्नि For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्य- यनमूत्रम् भाषांतर अध्य०१० ॥६०९॥ ॥६०९॥ नगो, इत्यादिक आवाधा नाश पामे ममा केशपार श्रयापरशिष्यादिवर्ग प्रतियोधार्थ मुक्तं, दोषाय न भवति, तथा च प्रमादो न विधेयः. २७ हे गौतम! तने विविध नाना प्रकारना आतंक रोगो शरीरे स्पर्शशे ते क्या आतंको? अरति= चोराशी प्रकारना वातव्याधिोथी थतो वात प्रकोप जन्य चित्तनो उद्वेग, गंद-रुधिर प्रकोपथी थतां गह गुंबड, विमूचिका अजीर्ण विकारथी उद्भवतां वमन विरेचन आफरा वगेरे तत्काळ मृत्यु करनार रोगो; इत्यादिक आतंक तारा देखने पीडे छे. ते रोगोवडे पीडाता शरीरथी धर्माराधन दुष्कर बने छे ते रोगाभिभूत शरीर विशेषतया वळ घटी जवाथी नाश पामे छ; एटले ते तारुं शरीर विश्वस्त जीव रहित थइ नीचे पडे छे. अत्रे सर्वत्र 'ते' तारं एम गौतमने निर्देशी कहेवामां आव्यु पण गौतममां केशपांडुरता के इंद्रियोनी बळ हानि नथी संभवती तथापि तेनो आश्रय लइ अपर शिष्योने प्रतिबोध देवा माटे तेम कहे, ए दोष नथी; माटे प्रमाद सर्वथा न करवो. २७ वुच्छिद सिणेहमप्पणो । कुमुयं सारइयं व पाणिय ॥ से सम्वसिणेहवजिए । समयं गोरम मा पमायए ॥२८॥ (सारइ) शरदऋतु कुमुभ] कमळ (पाणि वा) जळने जेम तजी दे छे तेम (अप्पणो सिणेह) पोतानो स्नेह [बुछिद] दूर | कर [से अने पछी (सध्यमिणेहजिए.) सर्व स्नेह रहित थयो थको [गोयम] हे गौतम! (समय) २८ व्या०-हे गौतमात्मनः स्नेहं मयि विषये राग व्युच्छिधि? अपनय स्नेह? बंधनं त्यजेत्यर्थः किं किमिव? कुमुद | कमलं पानीयमिब, यथा कुमुदं पानीयं त्यक्त्वा पृथक्तिष्टति, तथा त्वमपि स्नेहं त्यक्त्वा पृथग्भवेत्यर्थः कीदृशं पानीयं? शारदं, शरदि ऋतौ भवं शारदं अत्र पानीयस्य शारदमिति विशेषणेन मनोरमत्वं स्नेहस्य दर्शितं, स्नेहो हि संसारिणो जीवस्य मनोहरो लगति, सेशन्दोऽथशब्दार्थः, अथ त्वं सर्वस्नेहवर्जितः सन् समयमानमपि प्रमादं मा कुर्याः?२८ For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Jहे गौतम! आत्मानो स्नेह, अर्थात् मारे विषये तारो जे अनुराग छे तेने छेदी नाख हृदयमांथी दूर करी नाख; स्नेह बंधन छेकज त्यजी दीयो. केनी पेठे? कुमुद कमळ जेम शरद पाणीने त्यजी पृथक् थाय छे तेम. आ स्थाने पाणीने शारद विशेषण आप्यु. भाषांतर यन सूत्रमा अध्य०१० तेनो अभिप्राय एवो छे के-शरद् ऋतुमां पाणी बहु निर्मळ होवाथी मनोहर लागे छे तेम संसारी जीवने स्नेह पण मनोरम लागे छ, ॥६१०॥ 'स' पदनो अय शब्दना जेवो अर्थ छे एटले तुं सर्व स्नेहवर्जित थइ अनंतर समय लेश पण प्रमाद करीश मां. २८ R६१०॥ चिच्चा धणं च भारियं । पब्वइओहि सि अणगारियं ॥ मा वंतं पुणोवि पायए । समयं गोयम मा पमायए ॥२९॥ DEI [हि] कारण के [धण] धन [च अने [भारि] भार्याने [चिच्चा] तजीने [अणगारि] मुनिपणाने [पव्वइओसि] पाम्यो छे तेथी | ACT(वत') चमेलाने [पुणोवि] फरीथी (मा आविए) पी नहि [गोयम गौतम! (समय) २९ व्या०-हे गौतम! यदि त्वमनगारितां साधुत्वं प्रवजितोऽसि प्रकर्षेग प्राप्तोऽसि, किं कृत्वा? धनं च पुनर्भायी च त्यक्त्वा, तदा पुनरपि वांत त्यक्तं मा पिय? त्यक्ते वस्तुनि पुनर्ग्रहणादरं मा कुर्याः? एतस्मिन् विषये समयमात्रमपि SE|मा प्रमादी? ॥ २९ ॥ | हे गौतम! जो तमे अनगारिता साधुपणाने प्रबजित प्रवज्या ग्रहण पूर्वक प्रकर्षे करी प्राप्त थया छो; केम कराने? धन तेमज भार्याने acl त्यजी दइने; तो पछी फरीने वांत वमन करेला पदार्थने मा पियो. त्याग करेल वस्तुनुं फरी ग्रहण करवामां आदर मा करो; ए | विषयमा समयमात्र पण प्रमाद मा करो. २९ अव उज्झिप मित्तयंधवं । विउलं चेव धणोहसंचयं ।। मा त यीइयं गवेसए । समयं गोयम मा पमायए ॥३०॥ For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावांतर अध्य०१० यनसूत्रम् ॥६११॥ उत्तराध्य- IA [मित्तबंध] मित्रो तथा बांधवोने (चेय] अने [विउल] विस्तारवाळा [घणोह संचय"] धनना समूहने [अवउझिअ] तजीने [त] मते मित्रादिकने [विइअ] पुनः [मागवेसर] तुंगवेषणा कर, माटे (गोयम हे गौतम! (समय) ३० व्य-हे गौतम! मित्रबांधवं 'अवउज्झिय' अपोह्य त्यक्त्वा च पुनर्विपुल धनौघसंचयं, धनस्योधः समूहो धनौ॥६१॥ CE | घस्तस्य संचयो राशिकरणं, तदप्यपोह्य त्यक्त्वा, 'बिइयमिति' द्वितीयवारं पुनरित्यर्थः, तन्मित्रयांधवधनौघसंचयादि मा गवेषयेत् , तस्मात्समयमात्रमपि मा प्रमादी:? ॥३०॥ हे गौतम! मित्र तथा बांधवोने 'अवउज्झिय' त्यजीने तेमन विपुल धनौघसंचय=पुष्कळ धन राशिने पण मनमाथी खसेडी नाखीने | वीजीवार फरीथी ते मित्र बांधव तथा धन संचयने गोततो जाइशमां आम कहीने समयमात्र प्रमाद करशो मां. ३० नहु जिणो अज्ज दिस्सइ । बहुमए दिस्सइ मग्गदेसिए । संपइ नेयाउए पहे । समयं गोयम मा पमायए ॥३१॥ | [अज] आजे (जिणे) जिनेश्वर (न हु दीसइ) नथीज देखोता तोपण [मग्गदेसिए) मोक्षमार्गने देखाडनार (बहुमथ) देखायछे, अर्थात् | मोक्षमार्ग देखाघ (संपइ) हमणा (नेआउए) मुक्तिरुपी मार्मने विषे (गोयम) हे गौतम! (समय) ३१ व्या-पुनरपि गौतमादीन दृढीकरोति श्रीमहावीर:-हे गौतम! संप्रतीदानीं मयि विद्यमाने प्रत्यक्षप्रमाणेन गृह्यमाणे सति नैयायिके मुक्तिरूपे पथि मार्गे मा प्रमादं भवान् कुर्यात्, यद्यपि तवेदानी केवलज्ञानं नास्ति, तथाप्यहं विद्यमानोऽस्मीति सांप्रतं संशयाभावेन प्रमादस्त्याज्यः. अग्रे तु मदिरहे एतादृशा भाविनो भव्यजीवा भविष्यंति ये इति विचिंत्येत्यनुमानप्रमाणं विधाय नैयायिके मार्गे साधुधर्मे मयि च स्थिरा भविष्यति, तत्किमनुमानं कृत्वाऽप्रमा For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१० ॥६१२।। दिनः स्थिराश्च भविष्यंति तदाह-मार्ग इव मुक्तिनगरंप्रति पंथा इव देशितः कथितो मार्गदेशितः, अयं जीवदयाधर्मो उत्तराध्य मुक्तिमार्ग इव कथितो दृश्यते, अधेदानीं जिनो न दृश्यते, कथंभूतोऽयं मार्गदेशितः? बहुमतः, यहुभिर्वहनां वा मतो यन मृत्रम बहुमतः, अथवा बहवो मता नया यस्मिन् स यहुमतः, नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिख्दैवंभूतादिसप्तनया॥६१२॥ त्मकः, ज्ञानदशनचारित्राणि मोक्षमार्गः, अपरमते शेकांतवादित्वं, तस्मादयं जैनमतस्तु बहुमतः. एवं विधोयं मुक्ति मार्गोऽतींद्रियार्थदर्शिनं जिनं केवलिनं विना न स्यात, तस्मादस्य बहुमतस्य मुक्तिमार्गस्थ, एवं भव्या ज्ञास्यंति चेदयं | मुक्तिमार्गोऽस्ति जिनो नास्ति, तदास्य मार्गस्य कश्चिद्वक्ताप्यासीत, न च स कश्चिद्वक्तापि सामान्यः, किंत्वस्य धर्मस्योपदेष्टा कश्चिदाप्तो जिन एव भवितुमर्हति, इति मदिरहेऽप्यप्रमादिनो भविष्यंति, संप्रति मयि केवलिनि सत्यस्मिनयायिके पधि सर्वथा प्रमादस्त्याज्य एवेति भावः. निश्चित आयो मुक्तिलक्षगो लाभो यस्मिन् स नैयायिको ज्ञानद| शनचारित्ररूपरत्नत्रयात्मक इत्यर्थः. अथ पुनरप्यस्या गाथाया अयमर्थोऽप्यस्ति-हे गौतमायेदानी भवान् जिनः केवलो Jन दृश्यते, दृश्यत इतिक्रियावलाद्भवानितिपदमनुक्तमपि गृद्यते, परं बहुभिर्भतो मान्यो ज्ञातो वा बहुमतः, अर्थात्प्र सिद्धो मार्ग इव जिनत्वभवनमार्गो देशितो मया तवोपदिष्टः, स मार्गस्त्वया विलोक्यत एव, तस्मात् संमतीदानी | मयि जिने सति नैयायिके मार्गे मदुक्ते मार्गे समयमात्रमपि मा प्रमादीः? नधि विद्यमाने सति मयि विषये मोहाद्भ| वान् जिनोपश्चात्वं न वर्तते, जिनो भावी, तस्मादिदानी मदचने प्रमाण्य विधेयमित्यर्थः ॥३१॥ पुनरपि फरीने पण श्रीमहावीर गौतममादिकने वधारे दृढ थवा कहे छे. हे गौतम! हमणां हुं विधमान छ, अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाणवडे For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य विद्यमान छ तेथी आ टाणे संशयनो अभाव होवाथी पमाद त्यजी देवो, आगळ उपर तो मारा विरह टाणे एवाज भावी भव्य जीवो यशे के जे एम अनुमान प्रमाणथी विचारी नैयायिक मार्ग-साधुधर्ममां तथा मारे विषये पण स्थिर थशे. तेओ केवु अनु भाषांतर यनसूत्रम् IAS अध्य०१० ॥६१३॥ मान करी अप्रमादी बनी स्थिर यशे? ते कहे छ-मुक्तिनगर प्रति जाणे मार्गज देशित कर्यो होय नहि. तेवो आ जीवदयाधर्म मुक्तिमार्ग जेवो कहेलो देखाय छे आजे ए जिन तो नथी देखाता तथापि मार्ग उपष्टि दीसे छे, केवो मार्ग? बहुमत, घणानो मानेलो, । ॥६१३॥ | अथवा जेमा घणा मत=नय आवेला छे जेवा के नैगम, संहन, व्यवहार, ऋजु; मूत्र; शब्द, समभिरूढ, इत्यादि सप्तनयात्मक ज्ञान दर्शनचारित्र एज मोक्षमार्ग. अपरमतमा एकांत वादिपणुं होय छे तेथी आ जैनमत तो बहुमत छे. आवा प्रकारनो ए मुक्तिमार्ग | P- अतींद्रिय अर्थनादर्शी तथा केवळी जिन विना निरुपणा न थाय; माटे आ बहुमत मुक्तिमार्ग छे एम भव्य जीवो कदि जाणशे के DE] आ मुक्तिमार्ग छे पण जिन नथी त्यारे ए मार्गनो कोइ वक्ता तो हतोज; अने ते बक्ता पण कोइ सामान्य जन तो नहीं किंतु | आवा धर्मनो उपदेष्टा कोइ आप्त जिनज होवा योग्य छे, एम मारा असांनिध्यमां पण अपमादी थशे. हमणां तो हुँ केवळी हाजर | होवाथी ए नैयायिक मार्गे सर्वथा प्रमाद त्यजीज देवो. नैयायिक एटले जेभी निश्चित आय लाभ रह्यो छे तेवो; अर्थात् ज्ञानदर्शन | चारित्ररूप रत्नत्रयात्मक, ए मोक्षमार्ग उपदेशेलो छे. आ गाथानो आम पण अर्थ छे-हे गौतम! आजे तमे केवळी जिन नथी देखाता 'दृश्यते' ए क्रियापदना बळथी 'भगवान्'='तमे' ए पद कहेल नथी तो पण अध्याहारथी लेवाय छे. परंतु बहुए मान्य करी जाणेलो | JE अर्थात् अति प्रसिद्ध मार्ग=जिनत्वभवना मार्ग तुल्य में तमने देशित उपदिष्ट करेलो ए मार्ग तो तमे जोयोज छे, ते माटे हवे हुँ जिन संनिहितज होवाथी में कहेला ए मार्गमा समयमात्र पण प्रमाद मा करो. हुं विद्यमान छु त्यां सुधी मारामां मोह होचायी तमे Fer Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम ॥६१४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिन नथी पण पाछळथी तमें जिनभावी थशो ते माटे हमणां तो तमारे मारा वचनमां प्रामाण्य भाव राखीनेज वर्तवं योग्य छे. ३१ अवसोहिय कंटगापहं । उत्तिष्णोसि पर्छ महालयं ॥ गच्छसि मग्गं विसोहियं । समयं गोयम मा पमायए ॥ ३२ ॥ [क'गाप] कटकरुप भव [ अवसोहिआ ] त्याग करीने [महालय' ] मोटा [ह] मोक्षरूपी भाव मार्गमां [ उण्णो सि] आवेलो छे [विलोहिआ] ते मार्गमां [मग्ग] तेज तु' [गच्छसि ] चाले छे तेथी (गोयम) हे गौतम! (समय) ३२ व्या०-हे गौतम! त्वं महालयं पंथानमुत्तीर्णोऽसि महान् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षण आलय आश्रयो यस्मिन् स महालयस्तं महालयं, एतादृशं पंथानं राजमार्ग प्राप्तोऽसि किं कृत्वा ? कंटकपथमवशोध्य, कंटकानां बौद्ध| चरकसांख्यादीनां पंथः कंटकपंथः, आकारः प्राकृतिकः. अथवा कंटैः कृतीर्थिकैराकीर्णो व्याप्तः कुत्सितपंथाः कंकापस्तं परिहृत्य सम्यग्मुक्तिमार्ग राजमार्गमिव प्राप्तोऽसि हे गौतम! यदि विशेषेण शोधिते निरवद्ये मार्गे गच्छसि | तदा समयमात्रमपि प्रमादं मा कुर्याः ३२ हे गौतम! तमे महालय =जेमां सम्यग्ज्ञानदर्शन चारित्रलक्षण महोटो आलय [आश्रय] छे एवा पथ = राजमार्गे प्राप्त थया छो. केम करीने? कंटकपथ = कंटकरूप बौद्ध चरक सांख्यादिकना पंथने अवशोधन करीने=साफ करने, (कंटकापथ शब्दमां 'आ' कार छे ते प्राकृतने लीधे तेम थइ शके तेथी छे.) अथवा कंटक =कुतीर्थिकोए आ=आकीर्ण (व्याप्त) कुत्सित मार्ग कंटकापथ, तेने परहरी ने सम्यगू मुक्तिमार्ग= राजमार्ग जेवाने प्राप्त थयो छे, माटे हे गौतम! हवे ज्यारे विशेषतया शोधित निर्दोष मार्गे जाओ छो तो समयमात्र पण प्रमाद मा करशो. ३२ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१० ॥६१४॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६१५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब जह भारवाहए | मा मग्गे विसमेवगाहिया || पच्छा पच्छातावए । समयं गोयम मा पमायए ॥३३॥ (जहा जेम (अबले) अशक्त (भारवादर) भारवाहक (विसमे मग्गे) विषम मार्गमां (अवगाहिआ ) प्रवेश करीने [पच्छा] पछी [पच्छाताव] पश्चात्ताप करनार [मा] म थाओ माटे (गोयम) हे गौतम! [समय ] ३३ व्या०-हे गौतम! यथा कश्विद्भारवाहको विषयं मार्गमवगाह्य विषये मार्गे स्वर्णादिभारमुत्पाट्य समे मार्गेऽबलः स्यात् स च भारवाहकः पश्चाद् गृहमागत्य पञ्चादनुतप्यते पश्चात्तापपीडितः स्यात्, कोऽर्थः ? यथा कश्चिद्भारवाहकः शिरसि कतिचिद्दिनानि यावद्विषमे मार्गे स्वर्णादिभारमुद्रहति, तदनंतरं कुत्रचित् पाषाणादिसंकुले मार्गे भारेणाक्रांतोऽहमिति ज्ञात्वा तं भारमुत्सृजति, स च भारवाहकः पञ्चाद् गृहमागतः सन् निर्धनत्वेन पश्चादनुतप्यते, पश्चासापीडितः स्यात्, तथा त्वमपि विषमं मार्ग तारुण्यादिवयोविशेष महाव्रतभारमुद्राह्य समे मार्गे यौवनात्तारे कुत्रचित्परीषहादिना स्खलन महाव्रतभारं त्यजन्नबलो भवन् पश्चादंत्ये वयस्यागतः संयमधनरहितो भूत्वा मा पञ्चादनुनप्येः, मा पश्चात्तापपीडितो भूया इति विचित्व समयमात्रमपि मा प्रमादी ? ||३३|| हे गौतम! जेम कोइ भारवाहक विषम मार्गने पार उतरीने, अर्थात् वसमा मार्गमां सुवर्णादिभार उपाडीने बळहीन बने अने ते भार वाहक पछी घरे आवी पश्चात्ताप करी पीडित थाय; अर्थ एवो छे के जेम कोइ भारवाहक माथा उपर केटलाक दिवस सूधी सुबर्णादिभार उपडी अति समो मार्ग उतर्यो तदनंतर जरा पाणा वगेरेथी खडचचडो मार्ग आवतां 'हु' तो आ भारथी थाकी गयो' एम कंटाळी ए बोजो फगावी नाखी पश्चात् घरे आवीने 'अरेरे! ए भार न नाखी दीघो होत तो केतुं सारु? आत्री रीते निर्धनताना For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० १० ।। ६१५॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | पश्चात्तापथी पीडाय तेम तुं पण विपमार्ग यौवनअवस्थामां महाव्रत आदिक भार वही हवे यौवन उतर्या पछी सीधे मार्गे आवीने |De/ उत्तराध्यकोइ एक परीषहादिकमां स्खलन पामी महाव्रत भारने अबल थइ तजी दइ पाछळथी छेली अवस्थामां आव्या थका संयम धन भाषांतर अध्य०१० रहित बनी पश्चात्तापवडे अनुताप मा पामशो आम विचारीने यकिंचित् समय लेश प्रमाद सर्वथा म करशो. ३३ तीणोसि अण्णवं मह । किं पुण चिठ्ठसि तीरमागओ ॥ अभितुर पारं गमित्तए । समयं गोयम मा पमायए ॥३४॥ मह] मोटा (अण्णवं) संसार समुद्रने (तिण्णो हुसि तु तरीज गयो छे [पुण हवे तारमागओ] कांठे आव्यो थको [किं चिट्ठसिर EI केम अटकी रहे छे (पर गमित्तए) पार पामवाने [अभितुर] उतावळ कर. तेथी गोयम हे गौतम! [समय]३४ ___ व्या०-हे गौतम! त्वमर्णवं भवसमुद्रं तीर्ण एवासि, उहंचितप्रायोऽसि, किं पुनस्तीरमागतः सन् तिष्टसि! औदासीन्यं भजसि. हे गौतम! भवार्णवस्य पारं गंतुमभित्वरस्व? पारगमने उत्तालो भवेत्यर्थः. तोरमत्र मुक्तिपदमुः रयते, तस्मात्समयमात्रमपि मा प्रमादीः? ॥३४॥ | हे गौतम! तुं अर्णव आ भवरूपी समुद्रने तरी गयोज छे घणे भागे अर्णव ओलघाइ गयो छे, हवे शुं छेक तीरे आवांने उभी छ? ३५ | केम उदासीनता धारण करी रह्यो छे? हे गौतम! भवार्णवने पारने पामवा उतावळो था, अही तीर एटले मुक्तिपद कहेवाय छेते | कारणथी हवे समयमात्र पण प्रमाद मा करजे. ३४ अकलेवरसेणिमुस्सिया । सिद्धि गोयम लोयं गच्छसि ।। खेयं च सिवं अणुत्तरं । समयं गोयम मा पमायए॥३५॥ गोयम] हे गौतम!तु (अकलेवरसेणि) कलेवर रहित श्रेणिने [ऊसिआ] प्राप्त करीने (खेम च) क्षेम तथा [सिष'] कुशळ (अणु For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य घनसृश्रम् ॥६१७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तर) सर्वोत्कृष्ट एवा (सिद्धि' लोभ) मोश प्रत्ये [गच्छसि] जइश तेथी (गोअम) हे गौतम! (समय) ३५ व्या०-हे गौतम! त्वं सिद्धि नामकं लोकं स्थानं गमिष्यसि प्राप्स्यसि, किं कृत्वा ? अकलेवरश्रेणिमुत्सृज्य, नविद्यते कलेवरं शरीरं येषां तेऽकलेवराः सिद्धास्तेषां श्रेणिरुत्तरोत्तर प्रशस्तमनः परिणतिपद्धतिः क्षपकश्रेणिस्तानक लेवरश्रेणिमुत्सृज्य, उत्तरोत्तरसंयमस्थान प्राप्त्योन्नतिमेव कृत्वा, कथंभूतं सिद्धिलोकं? क्षेमं परचक्रायुपद्रवरहितं पुनः कीदृशं शिवं सकलदुरितोपशमं पुनः कीदृशं? अनुत्तरं सर्वोत्कृष्टमित्यर्थः ||३५|| हे गौतम! तुं सिद्धिनामक लोके जइश, शुं करीने? अकलेवर श्रेणि= एटले जेओने कलेवर=शरीर होतां नथी एवा जे सिद्ध, तेओनी श्रेणि= उत्तरोत्तर प्रशस्त मनःपरिणामनी पद्धति अर्थात् क्षपक श्रेणिने छोडी दइ एनाथी पण आगळ वधी=एटले उत्तरोत्तर संयमस्थान पामतां पामतां उन्नति करीने क्षेम=परचक्रादिक उपद्रव रहित तेमज शिव = सकल दुरितनो ज्यां उपशम छे तथा अनुत्तर= सर्व उत्कृष्ट सिद्धिलोक ने तुं पामीश, माटे हे गौतम समयमात्र पण प्रमाद मा करजे. ३५ बुद्धे परिनिधुडे चरे । गामगए नगरे च संजए ॥ संतिमग्गं च ब्रूहए । समयं गोयम मा पमायए ||३६|| [गाम] गाम [नगरे व] नगरने विषे रहेलो [मंजर] संयत तथा [बुद्धे] तत्वज्ञ वो [तु] तु [परिनियुडे] कपायथी शांत थो थको (च) चारित्रनु सेवन कर [च] तथा (सतिमग्ग) मोक्षमार्गने [वृहन] वृद्धि पमाड ते माटे [गोयम] हे गौतम! [समय ] समयमात्र [न पमायण) प्रमाद कर नहिं ३६ व्या०-हे गौतम! परिनिर्वृतः शांतरससहितः सन् चर? संयमं सेवस्व ? कीदृशः ? ग्रामे गतो ग्रामगतः च पुन For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१० ॥६१७॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BER ॥६१८॥ नगरे गतः, चशब्दादने वा स्थितः, पुनः कीदृशः? संयतः सम्यग्यतं कुर्वाणः, पुनः कीदृशः? बुद्धो ज्ञाततत्वः, च | HE| पुनर्हे गौतम! शांतिमार्ग त्वं बृहयेः, भव्यजनानामुपदेशद्वारेण वृद्धि प्रापयेः; अत्र कार्ये समयमात्रमपि मा प्रमादी? भाषांतर यन सूत्रम अध्य०१० * हे गौतम! पारनित शांत रसयुक्त थइने चर=विहरजे; संयमने सेवा. केवी रीते? गामे गयो हो अथवा नगरे गया हो के 'च' शब्द छे तेथी वनमां स्थित हो तो पण संयत सम्यक् यत्नपरायण रही तेमन बुद्ध ज्ञाततत्त्व थइ अने शांतिमार्गने तुं वृद्धि पमाडजे | ॥६१८॥ अर्थात् भव्यजनोने उपदेश करी जगत्मा विस्तारजे; आ कार्यमा समयमात्र पण प्रमाद मा करजे. ३६ बुद्धस्स निसम्म सुभासियं। सुकहियमठ्ठपओवसोहियं ।। रागं दोसं च छिदिया। सिद्धिं गए भयवं गोयमत्तिबेमि ३७ JE] [सुकदिन] सुकथित [अठ्ठपोवसोहिअ] शब्दोथो अलंकृत थयेलु (बुद्धस्स) तत्वज्ञ-महावीरस्वामीन (भासि) कथन (निस्सम्म) |JG श्रवण करीने (भयव गोअमे) भगवान् गौतमस्वामी [राग दोसंच राग तथा द्वेषने (छिदि) जीतीने [सिद्धि' गई गए] मोक्षपदने र: पाम्या, (त्तिबाम) एम ९ कहु छु. ॥३॥ व्या०-गौतमः सिद्धि मुक्तिस्थान प्राप्तः, किं कृत्वा? बुद्धस्य श्रीमहावीरदेवस्य सुष्टु शोभनं भाषितं सुभाषित सम्यगुपदेशं निशम्य श्रोत्रहारेण हृद्यवधार्य च, पुनः रागद्वेषं च छित्वा कीदृशं सुभाषितं सुकथित, सुतरामतिशयेन शोभनप्रकारेणोपमायोगेन कथितं, तथा अर्थपदोपशोभित तथाहं तवाग्रे ब्रीमीत्यर्थः ॥ ७॥ इति द्रुमपत्राख्यं दशममध्ययनं संपूर्ण. | गोतम, सिद्धि-मुक्तिस्थाने माप्त थया. केम कराने? त कहेवाय छे. बुद्ध-श्रीमहावीर देवर्नु सुशोभन भाषितसम्यक उपदशने For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ।।६१९ ।। www.kobatirth.org सांभळी, अर्थात् श्रोत्रद्वारा हृदयमां अवधारण करीने, च- पुनः राग तथा द्वेषने छेदीने; सुभाषित कें? सुकथित=सम्यकप्रकारे उपमायुक्त दृष्टांत सहित कहेवायलं तथा अर्थपदोपशोभित=कहेवा धारेला अर्थतुं निरुपण करवामां समर्थ पदोथी शोभीतुं. [श्रीमहावीर देवना सुभाषितना विशेषण छे] 'एम हुं बोलुं हुं.' आ वचन सुधर्मास्वामीनुं जंबूस्वामी प्रत्येनुं छे. ||३७|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायामुपाध्याय श्रीलक्ष्मी कीर्तिगणिशिष्यश्रीलक्ष्मीवल्लभ गणिविरचितायां दशमाध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥ श्रीरस्तु ॥ एप्रमाणे उपाध्याय श्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिना शिष्य श्रीलक्ष्मीवल्लभगणीनी रचेली श्रीमद् उत्तराध्ययननी वृत्तिमां दशमं द्रुप अध्ययन पूर्ण थयुं. ॥ अथैकादशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ अथ दशमेऽध्ययने प्रमादपरिहारार्थमुपदेशो दत्तः, स च विवेकिन एव स्यात्. विवेकी च बहुश्रुतो भवेत् अन एकादशमध्ययनं बहुश्रुनाख्यं बहुश्रुतवर्णनमुच्यते संजोगा विपमुकस्स । अणगारस्स भिक्खुणो ॥ आयारं पाउकरिस्सामि । आणुपुविसुणेह मे ॥ १ ॥ ( संजोगा ) अर्थ प्रथम अध्ययननी प्रथम गाथा प्रमाणे समजवो. For Private and Personal Use Only भावांतर अध्य०११ ॥६१९ ।। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भाषांतर अध्य०११ ॥६२०॥ व्या-हे जंबू! संयोगाद विप्रमुक्तस्य अनगारस्य भिक्षोः आचारं साधुयोग्यक्रियां बहुश्रुतपूजारूपं बहुश्रुतउत्तराध्य | स्वरूपज्ञानं आनुपूर्त्या अनुप्रामेण प्रादुःकरिष्यामि प्रकटीकरिष्यामि, मे मन कथयिष्यतस्त्वं शृणुः । १।। अथवा साधोयन सूत्रम राचार आकार बहुश्रुतस्य आकारं, बहुश्रुतः कीदृग् स्यात् ! तत्वकटीकरिष्यामि. ॥१॥ प्रथमं तत्परिज्ञानार्थ अबहुश्रु. ॥६२०॥ रतस्य लक्षणमाह __अथ बहुश्रुत पूजा नामर्नु अगीयारमुं अध्ययन दशमा अध्ययनमा प्रमाद परिहारार्थ उपदेश दीधी पण ए प्रमाद परिहरवो ए तो विवेकीथीज थइ शके अने विवेकी बहु| श्रुतज होय एटला माटे आ एकादश अध्ययन बहुश्रुत नामर्नु अर्थात् बहुश्रुतनाज वर्णन वाळू कहेवाय छे. हे जंवू ! संयोगथी विममुक्त, सांसारिक संबंधधी छुटो थयेलो तथा अनागर=ग्रह रहित एवा भिक्षु संयमी साधुनो आचार साधु| योग्य क्रिया, अर्थात् बहुश्रत पूजारूप आचार माटे नियत बहुश्रुतस्वरुप ज्ञान, आनुपूर्वीथी एटले अनुक्रमे प्रकट करीश, जे मे कहेवाशे ते तुं श्रवण कर. अथवा साधुनो आचार आकार, एटले बहु श्रुतनो आकार, बहुश्रुत केवो होय? ते हुं प्रकट कही देखाडीश.१ बहुश्रुतनुं निरुपण करता पहेलां, बहुश्रुतर्नु यथार्थ स्वरुप परिज्ञान थवा माटे अबहुश्रुतनुं लक्षण कही देखाडे छे. जे यावि होह निविजे । थद्धे लुद्धे अणिग्गहे ॥ अभिक्खणं उल्लवइ । अविणीए अबहुस्सुए ॥ २॥ [जे जे कोइ [निग्विज्जे] अविद्य [होइ] होय [अधि] अपि (थद्धे) अहकारी होय [लुद्धे लुब्ध होय [अणिग्गहे] इद्रिय अने मनना निग्रह रहित होय (अभिक्खण) वारंवार [उल्लबह उल्लाप करतो होय (अ) तथा [अविणीए विनय रहित होय ते (अब For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् भाषांतर अध्य०११ ॥६२१॥ हुस्सुए) अबहुध्रुत कहेवाय छे. २ ___व्या०-यश्च यो मनुष्यो निविद्यो भवति, अपिशब्दात् यः सविद्यो वा भवति, सचेत् स्तब्धोऽहंकारी भवति, पुनर्लुब्धो भवति, रसादिषु लोलुपो भवति, पुनर्योऽनिघ्रह इंद्रियदमनरहितो भवति, पुनर्योऽभीक्ष्णं वारंवारं उल्लपति, उत्प्रायल्येन यथातथा अविवारितं लपति, वाचालो भवति, स पुरुषोऽविनीतो विनयधर्मरहितोबहुश्रुत उच्यते.||J सविद्योऽपि अबहुश्रुतः चेत् स्यात् स विद्यत्वस्य फलं न प्राप्नुयात् , तद्विपरीतो यहुश्रुतः स्यात्. ॥२॥ अबहुश्रुतस्य कारणमाह जे मनुष्य निर्विद्य-शास्त्राध्ययन रहित होय; अपि शब्द छे तेथी जे भले सविद्य-अधीत शास्त्र होय पण ते कदाच स्तब्धअहं. कारवान् होय तेम लुब्ध रसादि विषयोगां लोलुप रहेतो होय अने बळी अनिग्रह-द्रिय दमन रहित होय, एटलुंज नहिं वळी जे वारंवार प्रबलता पूर्वक जेम तेम अविचारित बकवाद करतो वाचाळ होय ते पुरुष अविनीत=विनय धर्म रहित होवाथी अबहुश्रुत कहेवाय छे. सविध होय तो पण अबहुश्रुतमा गणाय तो तेना सविद्यत्वचें फळ न पामे. आनाथी विपरीत होय ते बहुश्रुत कहेवाय. _ हवे अबहुश्रुतनां कारण कहे छे. अह पंचहिठाणेहिं । जेसि सिक्खा न लाभइ ।। थंभा कोहा पमाएण । रोगेणालस्सेण ग || ३ ।। तह हवे [जेहि जे [पंचहि] पांच [ठाणेहि] स्थानोबडे [सिक्खा] ग्रहण (न लम्भइ) पामती नथी. [थ भा] मानथी [कोहा, क्रोधथी [पमापण] प्रमादथी रोगेण] रोगथी [आलस्सएण य] आळसथी ३ For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या०-अथ श्रोतुः पुरुषस्य उत्कीर्णताकरणे यैः पंचभिः स्थानः पंचभिः प्रकारैः शिक्षा ग्रहणासेवनारूपा न उत्तराध्यलभ्यते, न प्राप्यते, तानि पंचस्थानानि शृणु इत्यध्याहारः. स्तंभः, क्रोधः, प्रमादः, रोगः, आलस्यं च. स्तंभादहकारात् | Iodभाषांतर यन सूत्रम अध्य०११ शिष्यो योग्यो न भवति, तथा क्रोधादपि शिष्यो योग्या न भवति. तथा पुनः प्रमादेन मदविषयकषायनिद्राविक-| ॥६२२॥ थारूपेण उपदेशयोग्यो न स्यात् , तथा रोगेण वातपित्तश्लेष्मकुष्टशलादिव्याधिना शिक्षाग्रहणा) न भवति, तथा| । ६२२॥ | आलस्येन अनुद्यमेन, चशब्देन एतैः सर्वप्रकारैः. अथवा एतेषां स्थानानां मध्ये एकेनापि स्थानेन शिक्षा न प्राप्यते, गुरूपदिष्टशास्त्रार्थाभ्यासं कर्तुं न शक्नोति, शिक्षालाभस्याभावात् अबहुश्रुतत्वं स्यात् ।। ३ ।। अथाग्रतनगाथागं बहुश्रुतहेतूनाह___अथ हवे श्रोता पुरुषने असर उत्पन्न करवामां जे पांच स्थानो वडे शिक्षा ग्रहण तथा आ सेवना रुप=शिक्षा लब्ध थती नधीपमाती नथी; ते पांच स्थानो सांभळ; [आटलो अध्याहार करवानो छे.] स्तंभ, क्रोध, प्रमाद, रोग तथा आलस्य; आ पांच JE स्थान छे तेमां प्रथम स्तंभ अहंकारने लीधे शिष्य योग्य नथी गणातो. तेम क्रोधथी पण योग्य नथी रहेतो बळी प्रमादम्मद विषय कषाय निद्रा विकथारूप-ने लइ शिष्य उपदेश योग्य नथी रहेतो तथा वातपित्तश्लेष्म कुष्ठ शूलादि व्याधि वडे शिक्षा ग्रहण लायक नथी थतो तेमज आलस्य अनुद्योगथी, 'च' शब्दथी ए बधा प्रकारो वडे शिष्य शिक्षा योग्य नथी रहेतो. अथवा ए पांचमाथी एकाद स्थानथी ए बधा प्रकारो वडे शिष्य शिक्षा योग्य नथी रहेतो. अथवा ए पांचमांथी एकाद स्थानथी पण शिक्षा प्राप्त थती नथी, अर्थात् गुरुए उपदिष्ट शास्त्रार्थनो अभ्यास करी शकातो नथी एटले शिक्षा लाभ न थवाथी अबहुश्रुतता थाय छे. ३ For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उतराध्य घनसृश्रम् ॥६२३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वे आगळी गाथा बहुश्रुतपणाना हेतुओ कहे छे. अह अहह ठाणेहि । सिक्खामीलति बुच्चइ || अहस्सिरे सया दंते । न य मम्ममुदाहरे ॥ ४ ॥ (अ) हवे [ अहि] आठ (ठाणेहि) स्थानो बडे [सिक्खासीले ति] शिक्षाशील (बुवा) कद्देवाय छे. (अहस्सिरे) ओछा हास्यवाळो (a) यो दमन करना [य] तथा (मम्म) ममने [न उदाहरे] न कहेतो होय ते ४ व्या०-- अधानतरमेतेरष्टभिः स्थानैरष्टाभिः प्रकारैः शिक्षाशील इत्युच्यते, शिक्षां ग्रहणासेवनारूपशास्त्रं शीलं ते धारयतीति शिक्षाशीलः तानि अष्टप्रकाराणीमानि- 'अहस्सि' अहसनशीलः पुनः सदा दांतो जितेंद्रियः, पुनर्यो मर्म न उदाहरेत्, य एतादृशो भवति, स गुरूणां शिक्षायोग्यो भवति, गुणिनो ग्रहणाद् गुणानां ग्रहणं कर्तव्यं ॥ ४ ॥ अथ=अनंतर आ आठ स्थान=आठ प्रकार वडे शिक्षाशील एम कहेवाय छे; अर्थात् शिक्षा=ग्रहणा तथा आ सेवनारूप=छे शील जेनुं=तेवी शिक्षानो धारण करनार शिक्षाशील कहेवाय. ते आठ प्रकार दर्शावे छे-जेने हमेशां हसवानी देव न होय, वळी जे सदा दांत = जितेंद्रिय होय अने कोइनां मर्म न बोले; एवो जे होय ते गुरुओनी शिक्षाने योग्य होय छे, अहीं गुणोना ग्रहणथी ते ते गुणवाळानुं ग्रहण करवानुं छे एम समजी लेबुं. ४ नासीले न विसीले । न सिया अइलोलुए । अकोहणे सचरई । सिक्खासीलेत्ति वुच्चई ॥ ५ ॥ [न] असीले] शीळ रहित ( न विसीले अ) जे विरू : शीळवाळो ते तथा [ अहलोलुप ] अत्यंत रसलंपा (न सिआ) नहोय ते ६ [अकोहणे ] जे अति क्रोधी न होय ते ७ तथा [सचरम् ] सत्यव्रतने विषे रक्क होय ते [सफ्खासीलेत्ति] शिक्षाशील छे एम For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०११ ॥६२३|| Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम ॥६२४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [बुधइ] कद्देवाय छे. ५ व्या०- पुनरेतादृशः शिक्षाशील उच्यते, एतादृशः कः ? यः सर्वथा अशीलो न स्थात्, न विद्यते शीलं यस्य सः अशीलः शिलरहित इत्यर्थः पुनर्यो विशीलो न स्यात्, विरुद्धशीलो विशीलः, अतीचारैः कलुषितत्रतो न स्यात्. यः पुनरतिलोलुपोडातरसास्वादलंपटो न स्यात्, अथवा अतिलोभसहितो न स्यात्, पुनर्योऽक्रोधनः क्रोधेन रहितः स्यात्, पुनर्यः सत्यरतिः स्यात् स शिक्षाशीलः स्यादित्यर्थः हास्यवर्जनं १, दांतत्वं २, परममनुद्घाटनं ३, अशीलवर्जनं ४; विशीलवर्जनं ५, अतिलोलुपत्वनिषेधनं ६, क्रोधस्य अकरणं ७, सत्यभाषणं ८ च एतैरष्टभिः प्रकारैर्बहुश्रुतत्वं स्यादिति भावः ||५|| अथ अबहुश्रुतत्वबहुश्रुतत्व हेत्वोरविनीतविनीतयोः स्वरूपमाह पुनरपि जे आवो होय ते शिक्षाशील कहेवाय. केवो होय? जे सर्वथा अशील=शीलरहित न होय तेम जे विशीलल= विरुद्ध| शील= अतिचारवडे कलुषित व्रत न थयो होग, बळी जे अति लोलुप=अति रसास्वादलंपट न होय, अथवा अति लोभयुक्त न होय, विळी जे अक्रोध न=क्रोध रहित तथा सत्यरतिं, अर्थात् सत्यमां दृढ प्रीतिवाळो होय ते शिक्षाशील थाय. हास्य वर्जनः दांतत्व, पर मर्मोनुं अ कथन, अशील वर्जन, विशील त्याग, अति लोलुपपणांनो निषेध, क्रोध न करवो. तथा सत्य भाषण; आ आठ प्रकारे | बहुश्रुत पशुं थाय छे. एवो बेय गाथानो भावार्थ छे. ५ हवे बहुश्रुतना तथा बहुश्रुतताना हेतु अविनीत तथा विनीत ए बेयनां स्वरूप कहे छे. अह चउदसहिठाणेहिं । वट्टमाणे 3 संजए || अविणीए बुच्चई सो उ । निव्वाणं च न गच्छ ॥६॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०११ ॥ ६२४|| Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यघनसूत्रम् ||६२५|| = www.kobatirth.org [अह] हवे [चउदसहि] चौद [ठाणेहि] स्थानोने विषे (वट्टमाणे उ) रहेतो (संजय) मुनि [अविणीर] अविनीत [बुच्चाइ] कद्देवाय [3] बळी (सो) ते अविनीत [निव्वाणांच] निर्वाणने [न गच्छइ] पामतो नथी. ६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या० - अथ चतुर्दशसु स्थानेषु वर्तमानः संयतोऽविनीत उच्यते स चाविनीतो निर्वाण मोक्षं च न गच्छति, न प्राप्नोति अथवा निर्वाण निर्वाणकारणं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणं रत्नत्रयं सुखकारणं न प्राप्नोति अत्र 'चतुर्दशसु स्थानेषु' इति सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वानीयाबहुवचनं ॥ ६॥ अथ तानि चतुर्दशस्थानानि विभगाधामिराह हवे चतुर्दश स्थानोमां वर्तनारी संयत = मुनि = अविनीत कहेवाय ले अने ते अविनीत निर्वाण =मोक्षने पामतो नयो. अथवा निर्वाणना कारणभूत ज्ञानदर्शनचारित्ररूप रत्नत्रय के जे परमसुखनां कारण छे तेने नयो पामतो. अत्रे 'चतुर्दशम स्थानेषु' एम सप्तमी जोइए तेना स्थानमां तृतीया बहुवचन निर्देश कर्यो ते प्राकृतमां सप्तमी स्थाने तृतीया यह शके छे. ६ उपर निर्दिष्ट करेलां चउद स्थानो ऋण गाथावडे निरूपण करी दर्शावे छे. कोही वह । पबंधं च पकुच्चः ॥ निचिज्ञमाणो बम । सुयं लघ्घूण मजड़ ||७| अवि पापरिक्खेवी । अवि नितेसु कुप्पड़ || सुप्पियत्सावि मित्तस्स | रहे भासह पावगं ||८|| पनवाई दृहिले । धद्वे द्वे अणिग्गहे ॥ अमंविभागी अवियते । अविणीपति बुच्चई ||९|| अभीक्षण=वारवार-कोथी थाय छे, अने प्रबंध = उत्तरोत्तर प्रकुपितज रह्या करे छे; मित्र जेबो जणाता छतां बसे है, अर्थात मैत्री त्यजी दे छे. श्रुत=शास्त्राध्ययन पामीने पण मद गर्भ धारण करे छे. पाप वढे बीजानो निंदक पण थाय छे भने मचना उपर For Private and Personal Use Only भावांतर अध्य०११ ॥६२५॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण कोपे छे एटलुज नहिं सारी रीते प्रिय होय तेवा मित्रना पण तेनी पूठे पाप-दोष भाषे छेम्बोले छे. बळी जे आ आमज छे' उत्तराध्य- एम प्रतिज्ञायवादी होय, अथवा प्रकीर्णवादी-असंबद्ध प्रलापी-होय तथा द्रोही स्वभाववाळो, स्तब्ध गर्विष्ठ, लुम्ध-लोभी. अनिग्रह- भाषांतर यन मृत्रम इंद्रियो जेनां निगृहात नथी तेवो, तथा असंविभागी-कोइने कशुभापे नहि तेवो अने अप्रीतिकर-जेनाथी कोइ राजी न थाय अध्य०११ B तेयो होय ते अविनीत-अबहुश्रत-कहेवाय छे. ७-८-१ ॥६२६॥ ॥६२६॥ व्या०-अथ तानि चतुर्दश स्थानानि विभजति. य ईदृशो भवति स च पुमान् अविनीत इत्युच्यते. ईदृशः El कीदृशः? अभीक्ष्णं वारंवार क्रोधी भवति, क्रोधं करोति. च पुनः प्रबंध क्रोधस्य वृद्धि, कुपितोऽपि कोमलवचनैरपि ac क्रोधस्य अत्यजनं, क्रोधस्य स्थिरीभावं प्रकुरुते. मित्रीयमाणोऽपि, 'मित्रं ममास्तु अयं' इति विचित्यमानोऽपि पश्चा-ri द्वमति त्यजति. कोऽर्थः? पूर्व हि मित्रभावं कृत्वा पश्चात्त्वरितं मित्रत्वं त्रोटयति. ननु साधवो हि कुत्रापि मित्रत्वं स्नेहभावं केनापि सह न कुर्यः, संयोगाद्विप्रमुक्ता भवेयुः, नहि कथं 'मित्तिजमाणो वमई' इत्युक्तं? अत्र हि षटजीवनिकायेषु व्रतग्रहणसमये मैत्री विधाय शिथिलाचारित्वेन तां भैत्री त्यजेयुरित्यर्थ. अथवा केनापि धर्मशिक्षाशास्त्रा-JE र्थदानादिना उपकारः कृतः स च हितकारकत्वान्मित्रप्रायस्तत्र उपकारलोपत्वेन कृतघ्नत्वेन मित्रत्वं वमति. अविनीतस्यैतल्लक्षणमित्यर्थः. पुनर्यः श्रुतं लब्ध्वा माद्यति, ज्ञानाभ्यासादहंकारं करोति, विद्यामदोन्मत्त इत्यर्थः॥७॥ अपिशब्दः संभावनायां, यः पापपरिक्षेपी, अपि सं नाव्यते पापैः समितिगुप्तिस्खलनैः परिक्षिपति तिरस्करोतीत्येवंशीलः पाप-15 परिक्षेपी समितिगुप्सिविराधकंपति तिरस्कारोति. कोऽर्थः? कदाचित् कश्चित् समितिगुप्ति अज्ञानितया स्खलति, तदा ३६ For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य पनमूत्रम् ॥६२७॥ तंप्रति धिकरोति, छिद्रं दृष्ट्वान्य निंदतीत्यर्थः. तथा मित्रेषु अपि कुप्यति, मित्रेभ्योऽपि शिक्षादातृभ्यः संघेभ्यः क्रुध्यति, स्वयं क्रोधं करोति, तान् वा क्रोधयति. पुनः सुतरामतिशयेन प्रियस्य मित्रस्य हितवांछकस्य गुर्वादेरपि रहसि एकांते ३८ भाषांतर पापकं, पापभेव पापकं अवर्णवादं भाषते, कोऽर्थः? अग्रतः प्रियं वक्ति, पृष्टतः दोषं वक्तीत्यर्थः ।।८।। पुनः प्रकीर्णवादी, अध्य०११ प्रकीर्ण असंबद्धं वदति इति प्रकीर्णवादी, अथवा प्रतिज्ञया च इदं इत्यमेव इत्यादिनिश्चयभाषणशीलः. पुनदृहिलो ॥६२७॥ द्रोग्धा द्रोहकरणशील इत्यर्थः. पुनः स्तब्धोऽहंकारी, अहं तपवखी इत्यादिजल्पका. पुनलम्यो सयुक्ताहारादौ लोभो. पुनरनिग्रहोऽवशीकृतेन्द्रियः. पुनरसंविभागी, आनीताहारं अन्येभ्यः साधुभ्यः प्रार्थयतीत्येवंशीलः संविभागी, न सांवभागी असंविभागी, आहारेण स्वयमेवोदरं विभर्तीत्यर्थः, अन्यस्मै न ददाति. 'अघियते इति' अप्रीतिकरः, दर्शनेन वचनेन अप्रीतिमुत्पादयति, पतैलक्षणैरविनीत उच्यते. अथ चतुर्दशस्थानानां नामानि-क्रोधः १, क्रोधस्थिरीकरणं २, मित्रत्वस्य वमनं त्यजनं ३, विद्यामदः ४, परच्छिद्रान्वेषणं ५, मित्राय फ्राधस्योत्पादनं ६, बियमित्रस्यैकांते दुष्टभाषणं मुखे मिष्टभाषणं ७, अविचार्यभाषणं ८, द्रोहकारित्वं ९, अहंकारित्वं १०, लोभित्वं ११, अजितेंद्रियत्वं १२, असंविभागित्वं १३, अप्रीतिकरत्वं १४, चतुर्दश स्थानानि चतुर्दश हेतृनि कारणानि अविनीतत्वोत्पादकानि ज्ञेयानि, हवे ते चउद स्थानना विभाग देखाडे छे. जे एवो होय ते पुरुष तो अविनीत एम कहेवाय छे. एवो ए केवो? जे अभीक्षण | | वारवार क्रोधी थाय छे क्रोध करे छे, बळी प्रबंध एटले क्रोधनी वृद्धि; अर्थात्-कुपित थाय त्यारे कोमळ वचनो वडे वीनवतां छतां Fer Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण क्रोध त्यजे नहिं एटलो क्रोधने स्थिर राखे; तेने कोइ 'आ मारो मित्र थाओं' एम धारे तो तेने पण पाछळयी त्यजी दीये, उत्तराध्यअत्रे 'वमति' पदनो प्रयोग करवानो आशय एत्रो छे के-प्रथम मित्रभाव करीने पाछळथी मैत्री संबंधने तरतज तोडी नाखे तेवो. भाषांतर यन सूत्रम अत्रे एवी शंका करे हे के-साधुओ क्यांय भैत्री स्नेहभाव नन करे एम पूर्वे 'संयोगा विष्पमुक्कस्स.' इत्यादिकथी कहेवाय गg. अध्य०११ ॥६२८॥ तो पछी 'मित्रीयमाणो वमति' ए केम कर्जा? तेना समाधानार्थ कहे छे के-अत्रे षट्नीवनिकायोने विषये व्रत ग्रहण समये भैत्री ॥६२८॥ धारण करीने पाछळथी पोते आचार पाळवानी शिथिलताने लोधे ते भैत्रीने त्यजे ए आ ठेकाणे विवक्षित छे. अथवा कोइये पण धर्मशिक्षा तथा शास्त्रार्थ दानादिक द्वारा उपकार को होय तो ते हितकारक होवाथी मित्र जेबो गणाय तेवाना उपकारनो लोप करी कृतघ्न बनी मित्रत्वनुं वमन करे छे, अत्रे वपन शब्द त्यागना अर्थमा छे एटले मित्रभाव छोडी दीये छे एवो अभिप्राय छे, वळी जे श्रुत शास्त्र ज्ञान पामीने मद धारे छे=ज्ञानाभ्यासथी अहंकार करे छे विद्या मदथी उन्मत्त बने छे आ अविनीतर्नु लक्षण को. अपि शब्द संभावना अर्थमां छे-जे पापपरिक्षेपी-पापवडे निंदा करनारों पण थाय एटले समिति गुप्ति विराधक पति तिरस्कार | करे अर्थात्-कोइ वखते कोइ समितिगुप्तिमा अज्ञानिपणाने लीधे स्खलित थाय त्यारे तेना प्रति धिक्कार दर्शावे; छिद्र जोइने अन्यनी निंदा करे; तेम मित्रोने विषये पण कोपे-मित्ररूप शिक्षादाता संघादिक पति पण क्रोधे भराय अथवा संघादिकने कुपित करे-वळी JE Sad सुभतिशये हितवांछना करनार प्रिय मित्र तुल्य गुरु वगेरेना पण रहा एकांतमां पापक-न बोलवा जेवां दुर्वचनो वोले; मतलब के पांसे होय त्यारे तो प्रिय बोले पण परपुंठे दोष भांखे. पुनः प्रकीर्णवादी असंबद्ध प्रलाप करनारो अथवा 'आ हुँ कहुं हुं एमज छ JE आम प्रतिज्ञापूर्दक निश्चय भाषणनी देववाळो अने बधायनो द्रोह करनारो तथा स्तब्ध अहंकारी 'हुं तपस्वी छ' इत्यादिक पोतानी For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir C JE उत्तराध्यINE | महत्तानो लवारो करनारो तथा लुब्ध रसयुक्त आहारादिकमा लोलुप; वळी अनिग्रह जेनां इंद्रियो वश्य नथी एवो तेमज असंवि B भाषांतर पनसूत्रम् Saभागी=जे कइ आहारादिक मळे तेमाथी अन्यने जरा पण न देता केवळ पेटभरो बनी वर्तनारो, अने जोनारने तथा वचन सांभ TO अध्य०११ | ळनारने अप्रीति उपजावनारो; आटला लक्षणोथी युक्त पुरुष अविनीत कहेवाय छे. हवे ए चतुर्दश स्थाननां नामो कहे छे क्रोध १,३४ ॥६२९॥ क्रोधस्थिरीकरण २, मित्रत्वन वमन त्याग ३. विद्यामद ४, परच्छिद्रान्वेषण ५, मित्रने क्रोध उपजाववो, प्रियमित्रनु एकांतमा ॥६२९॥ BE दुष्ट बोल, ७, वगर विचार्य बकवाद ८, सर्वनो द्रोह करवो ९, अहंकारिपणुं १०, लोभिपणुं ११, अजितेंद्रियपणुं १२, असंवि|भागिता १३, अने अप्रीतिकरत्व; आ चउद स्थान एटले चउद कारणो अविनीतताना उत्पादक समजवानां छे. ९ ए प्रमाणे अविनीततानां कारणो कही हवे विनीततानां १५ स्थानो को छे. अह पन्नरसहि ठाणेहिं । सुविणीएत्ति वुबई ।। नीयावत्ती अचवले । अमाई अकुतूहले ॥ १० ॥ (अह) हवे [पन्नरसहि] पदर [ठाणेहि ] स्थानोबडे [सुषिणीएत्ति सुविनीत [वुञ्चर] एम कहेवाय (नी आवित्ती) नम्रतावाळो १, | (अचयले) अचपळ २, तथा [अमाइ माघा रहित ३. तथा (अकुतूहले) कुतूहल रहित४. १० व्या-अथ पंचदशभिः स्थानः सुविनीत इत्युच्यते, तानि पंचदश स्थानानि इमानि, य एतैः पंचदशभिर्लक्षगैर्युक्तो भवति स विनीत इत्यर्थः. प्रथमं यो नीचावर्ती, नीचं अनुद्धतं, गुरोः शय्यासनात् अनुचं, तत्र वर्तितुं स्थातुं | शीलं यस्य स नीचावर्ती, गुरोः शय्यातः, गुरोरासनाद्वानीचे शय्यासने शेते तिष्ठति वा इत्यर्थः, पुनर्योऽचपलः, न | चपलोऽचपलः, अचपलत्वं चतुर्धा भवति, गत्या अचपलः १, स्थित्या अचपलः २, भाषया अचपलः ३, भावेन For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०११ ॥६३०|| अचपलः ४. गत्या अचपलः शीघ्रचारी न भवति १, स्थित्या अचपलस्तिष्टन्नपि शरीरहस्तपादादिकं अचालयन । उत्तराध्य- 16 स्थिरस्तिष्टति २, भाषया अचपलोऽसत्यादिभापो न स्यात् ३, भाधेन अचपलः सूत्रे अर्थे अनागते असमाप्ते सत्येव यन मृनम lor अप्रेतनं न गृह्णाति ४, इति अचपल स्यार्थः २. पुनः अमायी, मायास्यास्तीति मायी, शुभनिष्टानाहारादौ आया॥६३०॥ दीनामवंचकः ३. पुनर्योऽकुतहलः, न विद्यते कुत्तृहलं यस्य स असतहला, कुझ्कइंद्रजालभगलविद्यानाटकादीनों न बिलोकक इत्यर्थः. ४ ॥१०॥ हवे पछी पंचदश स्थानावडे 'मुविनीत' एम कहेवाय छ ते पंचदश स्थान अत्रे कदेवाशे, जे ए पंचदश लक्षणोथी युक्त होय BE विनीत समजवो. प्रथम तो नीचावों [१] अनुद्धत वर्तन, अर्थात गुरुनां शव्या तथा आसन वगेरेथी उन्दु न होय तेवा शय्या आसन उपर स्थिति करवानी टेक्वाळो, तथा जे अचपळ (२) चपळ न होय; अचपळता गति, स्थिति, भाषा तथा भाव; एका भेदयी चार प्रकारनी कही छे. गतिथी अचपळ पुरुष उतावळो न चाले; स्थितिथी अचपळ वेठां वेठां हाथ पग वगेरे न हलाये; भापाथी २ अचपळ असत्यादि न बोले; भावथी अपचळ मूत्र अथवा अर्थ न आवढे अथवा समाप्त न थयेल होय त्यां सुधी आगळ न चलाये; | आवी रीते अचपळ पदनो अर्थ समजवा; बळी जे अमायी (३) माया रहित अर्थात् शुभमिष्टान्न आहारादिकमां आचार्यादिकनी | वंचना न करनारो; अकुतूहळ [४] जेने कुतूहळ न होय, अर्थात् जादुखेल, इंद्रजाळ, नाटकादिक, जोवामा उत्कंठा रहित; १० । अप्पं चाहिरिखबई । पञ्च न कुब्बई ॥ मित्तिज्जमाणा भयइ । सुयं लध्धुं न मज्जइ ॥११॥ (च) तथा [अप्पं अहिक्खियद कोइनो तिरस्कार करे नहि ५, [पबंधच] कोपना प्रबंधने (न कुव्यइ) करे नहिं ६, (मितिज For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ad माणो) मित्रभाव दर्शावतो ७, तथा [सुभ] शास्त्र ज्ञान (लढुं) मेळववामा [न मजद] मद न करे. ८, ११ उत्तराध्य भाषांतर यनसूत्रम् व्या-पुनर्योऽल्पं अधिक्षिपति, अल्पशब्दोऽत्र अभावार्थः, कमपि न अधिक्षिपति. कमपि कठिनथेचमेन निर्भ- 1 136 अध्य०११ सयतीत्यर्थः ५. च पुनः प्रबंधं न करोति, प्रचुरकालं क्रोधं न रक्षति, वीर्घरोपी न स्यादित्यर्थः ६. मित्रीयनाणं भजते । ॥६३१॥ | मित्रत्वकर्तारं सेबते, कोऽर्थः? यः कथित् स्वस्मै विद्यादानानापकारं कुर्यात्तस्मै स्वयमपि प्रत्युपकारं करोति, कृतनो ॥६३२॥ CI न स्यादित्यर्थः ७. पुनः श्रुतं लब्ध्वा न मायति, मदं न करोति ८. इत्यटनस्थान. ॥११॥ बळी जे अल्प अधिक्षेप करे अहीं अल्प शब्द अभाव अर्थमा छे अर्थात जे कोइनो अधिक्षेप-तिरस्कार न करे (५) तेमज | प्रबंध पण न करे-एटले लांबा काळ मधी क्रोध न राखे, अर्थात दीर्घ रोपी न थाय, (६) अने कोइ तेने मित्र करवा इच्छे तो ||| तेने भजेअनुकूळ वर्ते, (७) अर्थात् जे कोइ पोताने विद्यादानादि उपकार करे तेनो पोते पण प्रत्युपकार करे पण कृतघ्न न थाय; NEI अने श्रुत शास्त्र ज्ञान संपादन करी मद धारण न करे. (८) ११ न य पावपरिवखेवी । न य मित्तेसु कुप्पई ॥ अप्पियत्सावि मित्तस्स । रहे कल्लाण भामई ॥१२॥ [य] तथा [पावपरिक्खेवी] पापनो परिक्षेप करनार (न) न होय ९. (य) तथा (मित्तेसु) मित्र उपर (न कुप्पइ) कोप करे नदि १० तथा [अप्पिअस्सावि अप्रिय एवा (मित्तस्स) मित्रनु [रहे एकांतमां [कल्लाण कल्याण (भासइ) बोले ॥१२॥ व्या०-च पुनः पापपरिक्षेपी न भवति, पापेन परिक्षिपति तिरस्कगेतीत्येवंशीलः पापपरिक्षेपी, समितिगुप्त्यादिषु स्वयं स्खलनं कृत्वा आचार्यादिभिः शिप्यमाणः सन् आचार्यादीनामेव मर्मोद्घाटको न भवति ..न च For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०११ ॥६३२॥ 5 मित्रेभ्यः कुप्यति, अपराधे सत्यपि मित्रोपरि क्रोधं न करोति १०. पुनर्यो मित्रस्य, मम मित्रमित्यंगीकृतस्य तस्य उत्तराध्य अप्रियस्य च, अपराधे सत्यपि पूर्वकृतं सुकृतमनुस्मरन् रहसि अपि कल्याणमेव भाषते, न च तस्य दुषणं वदतीत्यर्थः. यन मृत्रम रळी ते पापपरिक्षेपी न थाय; पापी कोइनो तिरस्कार करवानो हेवा न राखे; अर्थात्-समितिगुप्ति आदिकमां पोते कंइ स्खलन करे ते टाणे आचार्य शिखामण आपे तेथी उश्केराइ आचार्यादिकना मर्मनु लोकमां प्रकटन करनार न बने, ९ वळी जे मित्रो | उपर न कोपे; मित्रथी कंइ अपराध थइ गयो होय तथापि तेना उपर कोप न करे १०, तेमज जेणे 'आ मारो मित्र' तेणे पूर्व करेल सुकृतने याद करी एकांतमां-परपूढे पण तेनुं कल्याण सारुंज बोले; तेनुं दृषण नज भांखे ११, १२ कलहडमरवजए । बुद्धे य अभिजाइगे ॥ हिरिमं पडिसंलीणे । सुविणीएत्ति वुचई ॥ १३ ॥ OF [कलहडमरवजए] कलह रहित होय (बुद्धे] बुद्धिमान (अभिजाइगे) कुलीनताने पामेलो [हिरिम] लज्जायुक्त तथा (पडिस. लोणे) प्रतिसलीन [सुविणोए त्ति सुविनीत [बुथर] कहेवाय छे. ___व्या०-पुनर्यः कलहडमरं वर्जयति, तत्र कलहं वाक्ययुद्धं त्यजति, डमरं चपेटामुष्टिलत्तादिभियुद्धं, तयोरुभयोर्वजको यो भवति १२. पुनर्बुद्धिमान् बुद्धोऽवसरज्ञो भवति, पुनर्योऽभिजातिगो भवति, अभिजाति कुलीनतां गच्छति प्रामोतीति अभिजातिगः, गुरुकुलवाससेवक इत्यर्थः १३. पुनर्यो ह्रीमान् , ही विद्यते यस्य स ह्रीमान्, कलुषाध्यवसाये अकार्यकरणे अपायुक्त इत्यर्थः १४. प्रतिसलीनः, गुरुसकाशेऽन्यत्र वा यतस्ततो न चेष्टते, चेष्टां न करोति स प्रतिसंलीन उच्यते १५. य एतादृशो भवति स विनीत उच्यते. अथ पूर्वोक्तपंचदशस्थानानां सुविनीत चपेटामुाति, अभिमहीमा: For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥६३३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्वकारणानां नामान्याह - गुरोरासनाद् द्रव्यभावतो नीचासनोपसेवनं १, अचपलत्वं २, अमायित्वं ३, अकुतूहलत्वं ४, कस्यापि अनिर्भर्त्सनं ५, अदीर्घ रोषत्वं ६, मित्रस्योपकारकरणं ७, विद्यामदस्य अकरणं ८, आचार्यादीनां मर्मस्यानुद्घाटनं ९, मित्राय क्रोधस्य अनुत्पादनं १०, अपराधे सत्यपि मित्रस्य अमित्रस्य वा परपृष्टे दूषणस्य अभाषणं ११, कलहडमर वर्जनं १२, गुरुकुलवाससेवनं १३, लज्जावत्वं १४, प्रतिसंलीनत्वं १५, एतानि पंचदश स्थानानि सुविनीतस्य ज्ञेयानि ||१३|| अथ सुविनीतः कीदृक् स्यादित्याह कलह तथा डमर वर्जतो होय, अर्थात् कलह एटले वाक्य युद्ध तथा डमर एटले थपाट मुट्टी लात वगेरेनुं शरीर युद्ध, ए बेयनो जे वर्जक = त्यागी होय १३, बळी बुद्ध = बुद्धिमान = अवसरनो जाण होय तथा अभिजातिग=कुलीनता संपन्न, अर्थात् गुरुकुलबासने सेवनारो होय १३, तेमज हीमान=खराब निश्चय करवामां तथा न करवानुं करवामां शरमाय तेवो होय १४, अने प्रतिसंलीन= गुरुनी पांसे अथवा अन्यत्र ज्यां त्यां चेष्टा न करनार १५, आ पंदर लक्षण संपन्न जे पुरुष होय ते विनीत एम कहेवाय छे. १३, पूर्वोक्त पंचदश स्थान सुविनीतपणानां कारण कह्यां तेनां नाम गणावे छे. गुरुना आसन करतां द्रव्यथी तथा भावधी नीचा आसननुं सेवन, १ अचपळत्व २, अमायित्व ३, अकुतूहलत्व ४, कोइनुं पण निर्भर्त्सन न कर ५, अदीर्घ रोषता ६, मित्रनो उपकार करवो ७, विद्यामद न करवो ८, आचार्यादिकना मर्मोने उघाडा न करवा ९, मित्र प्रत्ये क्रोध उत्पन्न न करवो १०, अपराध छतां पण मित्रना के अन्यना परपूठे दोष न बोलवा ११, कलद्दडमर वर्जन १२ गुरुकुलबास सेववो १३, लज्जवाळा थर्बु १४, प्रतिसंलीनता १५ आ पंदर स्थान सुविनीतनां जाणवां. १३ वे सुविनीत केवो होय? ते कहे छे For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०११ ॥६३३॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराव्य पन सूत्रम भाषांतर अध्य०११ ॥६३४॥ ॥६३४॥ वसे गुरुकुले निचं । जोगवं वहाण ॥ पियंकरे पियंवाई। से सिक्खं लध्धुमरिहई ॥ १४ ॥ णिच] निर'तर (गुरुकुले) गुरुकळने विषे [वसे] रहेनारो तथा [जोगवं] धर्मना व्यापारवाळो तथा [उवहाण] तप करनार || (पिकरे) प्रियकर ( पिबाइप्रियवादी (से) ते शिष्य (सिक्ख) शिक्षा शास्त्र [लई] मेळववाने (अरिहई) लायक थाय छे. १४ व्या०–स मुनिः शिक्षा लन्धुमर्हति, शिक्षायै योग्यो भवति. स इति का? यो गुरुकुले नित्यं वसेत्, गुरोः पूज्यस्य विद्यादीक्षादायकस्य था, कुले गच्छे संघाट के वा नित्यं यावजीवं तिष्ठेत् , पुनर्यो मुनिर्योगवान, योगो धर्मव्यापारः, स विद्यते यस्य स योगवान, अथवा योगोऽष्टांगलक्षणस्तद्वानित्यर्थः. पुनर्यः साधुरुपधानवान् , उपधानमंगोपांगादीनां सिद्धांतानां पटनाराधनार्थमाचाम्लोपवासनिर्विकृत्यादिलक्षणं तपोविशेषः, स विद्यते यस्य स उपधानवान् , सिद्धांताराधनतपोयुक्त इत्यर्थः. पुनर्यः साधुः प्रियंकरः, आचार्यादीनां हितकारकः, पुनर्यः प्रियवादी, पियो वादोऽस्यास्तीति प्रियवादी प्रियभाषो, एतैर्लक्षणैर्युक्तो मुनिः शिक्षा प्राप्तुं योग्यो भवति. ॥१४॥ अथ बहुश्रुतप्रतिपतिरूपमाचारं स्तवद्वारेणाह-जहा ते मुनि शिक्षा मेळववाने योग्य थाय छे, ते कोण? जे नित्ये गुरुकुळमां वास करे, अर्थात् दीक्षादायक अथवा विद्याध्यापक गुरुना कुळगच्छ अथवा संघाडामांज जीवित पर्यंत स्थिति करी रहेतो होय तथा जे साधु धर्मव्यापाररूप योगमा दृढ होय, अथवा अष्टांग लक्षण योगमा निरत होय, वळी जे उपधान=अंगोपांगादि सिद्धांतोना पठन तथा आराधनार्थ आ चाम्ल उपवास निर्विक| त्यादि तपो विशेष युक्त, अर्थात्-सिद्धांताराधन तप. संपन्न होय बळी जे आचार्यादिकने प्रिय लागे तेज भाषण करे तेवो For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 उत्तराध्ययनसत्रम् भाषांतर अध्य०११ ॥६३५॥ ॥६३५॥ आटलां लक्षणो बडे युक्त मुनि शिक्षा पामवा योग्य थाय छे. १५ हवे बहुश्रुतनी पतिपत्ति खात्री करावे एवो आचार स्तुतिरूपे कहे - संखमि पयं निहितं । दुहाओवि विगयई ।। एवं बहुस्सुए भिख्खू । धम्मो किसी तहा सुयं ॥१५॥ [जहा जेम [संखम्मि] संखमा [निहित] नाखेलु [पय] दृध (दुहओ वि) बन्ने प्रकारे शोभे छे (एव) तेम (वहुस्सुए) बहुश्रुतवाळा | (भिखवू) मुनिने विषे [धम्मो] धर्म (कित्ती) कीति तहा] तथा (सुर्य) शास्त्र शोभे छे. ॥१५॥ __ व्या०-यथा शंखे निहितं पयो दुग्धं द्विधापि विराजते, उभयप्रकारेण शोभते, पयो धवलं, अथ च पुनः | शंखेऽपि धवलेऽत्यंतधवलत्वेन वर्णो विराजते, एवममुना प्रकारेण शंखमध्यदुग्धदृष्टांतेन पहुश्रुते भिक्षौ धर्मो पतिधर्मस्तथा कीर्तिः श्रुतं च, एतत्पदार्थत्रयं स्वत एव भासते, बहु प्रचुरं श्रुतं श्रुतज्ञानं यस्य स बहुश्रुतः, तथा एवं गुरुकुलवामिनि साधौ बहुश्रुते आश्रयविशेषादत्यंत शोभते. बहुश्रुते स्थितो धर्मः कीर्तिर्यशश्च मालिन्यं न प्रामोति. | अन कीनिर्गुणश्लाघा, यशः सर्वत्र प्रसिद्धत्वं, इत्यनयोः कीर्तियशसोर्लक्षणं ज्ञेयः ॥ १५ ॥ | जेम शंखने विषये भरेलु द्ध द्विधा उभय प्रकारे शोभे छे, अर्थात् ध धोडं तेम शंख पण घोळो होवाथी बन्ने शुभ्रताथी शोभे छे तेज प्रकारे शंखमां भरेला दुग्धना दृष्टांत प्रमाणे बहुश्रुत भिक्षुमां धर्म=यति धर्म, कीर्ति, तथा श्रुत: पत्रणे पदार्थ स्व| तःज शोभी नीकळे छे. बहु-पुष्कळ जेनुं श्रुतज्ञान होय ते बहुश्रुत कहेवाय; एवा गुरुकुळवासी तथा बहुश्रुत साधुनो आश्रय विशेष पामी धर्म कीर्ति तथा श्रत मालिन्य नथी पामतुं, अहीं कीर्ति एटले गुणनी प्रशंसा तथा यशः एटले प्रसिद्धि समजवी आम कीर्ति For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा यशः ए बेयनां पृथक् लक्षणो जाणी लेवां. १५ उत्तराध्य भाषांतर यन सूत्रम जहा से कंबोयाणं । आइण्णो कंथये सिया ॥ आसे जवेग पवरे । एवं हवइ बहुस्सुए ॥ १६ ।। अध्य०११ (जहा) जेम [क वोआण'] कंबोज देशमा जन्मेला घोडाओ मध्ये [आइणो] आकीर्ण अने (कथए) कथक [से ते [आसे] अश्व ॥६३६॥ [जवेण] वेगवडे (पवरे) श्रेष्ट [सिआ होय छे. [एवं] एज प्रमाणे [बहुस्सुए] बहुश्रुत पण [भवइ] होय छे. १६ । ॥६३६॥ व्या०-बहुश्रुतः साधुरेवं भवति एवं विराजते. एवमिति कथं? यथा कंबोजानांकांबोजदेशोद्भवानामश्वानां मध्ये य आकीर्णः शीलादिगुणैर्व्याप्तो विशुद्धमातृपितृयोनिजत्वेन सम्यगाचारः, स्वामिभक्तादिशालिहोत्रशास्त्रोक्तगुणप्र- | युक्तः कीदृश आकीर्णः? कंथकः, लघुपाषाणभृतकुतपनिपतनसंजातशब्दान्न त्रस्यति, अथवा शस्त्रादीनां प्रहाराद्रणे निर्भीकः कथक उच्यते, पुनः कीदृशः सः? जवेन वेगेन सम्यग्गत्या प्रवरः प्रकर्षण वरः श्रेष्टः यथा हि सर्वेषु कांधो|जदेशोद्भवेषु अश्वेषु आकीर्णः कंथकोऽश्वो गमनेन अत्यंत प्रधानो भवेत् , राजादीनां वल्लभो भवेत् , तथा बहुश्रुतोऽपि ३६ सर्वेषां ज्ञानक्रियावतां मुनीनां मध्ये परवादीनां वादैरत्रस्तः सम्यगाचारविहारेण विराजमानः स्यात् , सर्वेषां वल्लभोः भवेदित्यर्थः ॥१६॥ | बहुश्रुत साधु एवो थाय छे; एवो ते केवो? जेम कंबोज देशमा उत्पन्न थता अश्वोना मध्यमां आकीर्ण-शीलादिगुण युक्त अने | विशुद्ध मातापिताथी जन्मेल होवाथी सारा आचारवाळो तेमज शालिहोत्र नामक अश्वशास्त्रमा वर्णवेला स्वामिभक्ति आदिक गुणोJवडे युक्त कथक, नाना पांचीका भरेली कोथळीयो आगळ फेकवामां आवे तेना अवाजथी जराय भडके के चमके नहि; अथवा For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६३७|| २ शस्त्रादिकना प्रहार थता होय तेवा संग्राममा पण निर्भय रही आगळ यधे ते कथक कहेवाय छे; ए अश्व पुनः केवो? जव=1361 IJ भावांतर वेगयुक्त सम्यकगतिमा प्रवर श्रेष्ठ; जेम कंबोजदेशमा उत्पन्न थता सर्व अश्वोमां आकीर्ण कंधक अश्व चालवामां अत्यंत प्रधान होइ | अध्य०११ राजा आदिकनो वल्लभ प्रिय थाय छे तेम बहुश्रुत पण ज्ञानक्रियावाळा सर्वे मुनिओना मध्यमां परवादीना वादथी जग पण त्रास न | PS||६३७|| | पामतां सम्यक् आचार विहारादिकथी वर्त्ततो सर्वेनो बल्लभ थाय छे. १६ जहाइण्णसमारूढे । सूरे दडपरकमे ।। उभओ नंदिघोसेणं । एवं हवंह यहुस्सुए ॥ १७ ॥ जहा] जेम [भाइण्ण समारूहे] भाकीर्ण अश्व पर आरूढ थयेलो [दृढ परकमे] हद पराक्रमवाळो (सूरे) योद्धो [उभओ] बन्ने बाजु नदियोसेण] वाजिन नादथी शोभे छ [व] एज (बहुस्सुए) बहुश्रुत पण शोभता [भवति होय छे. १७ . व्या०-पुनयथा शूर आइन्नसमारूढः, आकीणों जातिविशुद्धघोटकस्तत्र समारूढ आकीर्णसमारूढः, दृढपराक्रमः स्थिरपराक्रमः स्थिरोत्साहः, केनाप्यन्यसुभटेन न अभिभूयते इत्यध्याहारः, न च तंप्रत्याश्रितोऽपि भृत्यादिवर्गः केनाप्यभिभूयते. कथंभूतः स शूरः? उभयतो वामदक्षिणतः, अथवा पृष्ठतोऽग्रतो वा नांदीघोषेणोपलक्षितः, नांदी द्वादशतृर्याणि, तेषां द्वादशतृर्याणां घोषो नांदीघोषस्तेनोपलक्षितः. अथवा त्वं चिरं जीया इत्यादियंदिजनोच्चारिताशीर्वचनं, तस्य घोषः शब्दस्तेनोपलक्षितः. यथैतादृशः शरः सर्वत्र विजयी स्यात् , एवं बहुश्रुतोऽपि साधुर्जिनप्रवचनाश्वारूढः, दृढपराक्रमो दृप्यत्परवादिदर्शनादत्रस्तः, परवादिजये समर्थः, उभयतो दिनरजन्योः स्वाध्यायरूपेण नांदीघोषेणोपलक्षितः, अथवा उभयतः पार्श्वदयः शिष्याध्ययनरूपेण नांदीघोषेणोपलक्षितः, अथवा प्रवचनोद्दीपकत्वेन For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ME स्वतीयश्चिरं जीवत्वसावित्याद्याशीर्वचनरूपेण नांदीघोषेणोपलक्षितः, परतीयैः पराभवितुमशक्यो भवेत् , तदा उत्तराध्य-10 भाषांतर |श्रितोऽपि संघः केनापि पराभवितुं न शक्यते. ॥१७॥ यन मृत्रम अध्य०११ पुनरपि जेम कोइ शूर, आकीण जातीला घोडा उपर चडेलो दृढ पराक्रम कोइ अन्य सुभट जेनो पराभव न करी शके तेवोBE ॥६३८॥ ।।६३८॥ Jac स्थिर उत्साहवाळो होय के जेना आश्रित नोकर वगेरेनो पण अभिनीव करवा कोइ हिम्मत न करी शके तेवोए शूरवीर डावे | तथा जमणे बेय पडखे अथवा आगळ पाछळ नांदीघोष बार प्रकारनां वादिनना नाद, अथवा 'तमे घणुं जीवो' इत्यादि बंदिजनोनां आशीर्वचनो, शांभळतो विजयी याय, एम बहुश्रुत साधु पण जिन प्रवचनरूप घोडे चडी दृढ पराक्रम एटले गर्विष्ट वादीनां वचBE नोथी जरापण नहिं डरतां परवादीने जीतवा समर्थ बेयकोर-रात्र दिवसमा स्वाध्यायरूप नांदीयोष युक्त, अथवा पोताना बेय ICI पडखे शिष्याध्ययनरूप नांदीघोपणवाळो, अथवा प्रवचनने उद्दीपक थता 'घणुं जीवो आ' एवा पोताना साथीओए उच्चारातां आशी- DEI चनोरूपी नांदीयोपथी उपलक्षित होइ परतीर्थकोनो पराभव पमाडतो नथी एटलुंज नहिं किंतु एवा बहुश्रुतनो आश्रित संघ पण कोइनाथी पराभव पमाडी शकातो नथी. १७ जहा करेणुपरिकिन्ने । कुंजरे सठिहायणे । बलवंते अप्पडिहए । एवं हेवइ बहुस्सुए ॥ १८ ॥ (जहा) जेम [करेणुपरिकिण्णे] हाथणीओ वडे परिवारेलो सठ्ठीहायणे साठ वर्ष नी उमरनो (कुजरे) हाथी [बालव ते बळवान | होय छे [एव'] एज प्रमाणे (बहुस्सुए) बहुश्रत मुनि पण [भवति होय छे १८ व्या०-यथा षष्टिहायनः षष्टिवाषिकः कुंजरो बलवानप्रतिहतः स्यात् , प्रतिद्वंद्विगजैः प्रतिहंतुं शक्यो न स्यात्, For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-I If तथा बहुश्रुतोऽपि. षष्टिवर्षा णि यावद्गजो वर्धमानयलः स्यात् , कथंभूतो गजः? करेणुभिर्हस्तिनीभिः परिकीर्णः परि-lar भाषांतर यनसूत्रम् घृतः, षष्टिहायनतया कुंजरः स्थिरमतिश्च स्यात् . एवं बहुश्रुतोऽपि उत्पातिक्यादिचतसृभिवुद्धिभिर्विद्याभिर्वा सहितो ID अध्य०११ वर्धमानशास्त्रार्थवलः केनापि प्रतिवादिना जेतुं न शक्यते. ॥१८॥ ॥६३९॥ यथा जेम साठ वर्षनो कुंजर बलवान् तथा अप्रतिहत प्रतिद्वंद्वी सामे थवा आवनार गजोए हठावी न शकाय तेवो होय छे DE ॥६३९॥ JE एम बहुश्रुत पण डोय छे. साठ वर्ष सुधी हाथीनुं वळ वधतुं जतुं होय छे; हाथी साठ वर्ष जुवान गणाय छे, एवो गन हाथीणीयोथी | घेरायलो साठ वर्षनो स्थिर बळ होय छे तेम बहुश्रुत पण उत्पातिकी आदिक चार प्रकारनी बुद्धि बडे अथवा विद्या वडे संपन्न होइ र शास्त्रार्थनुं बळ प्रतिदिन बघतुं जतु दोबाथी कोइपण प्रतिवादीए वादमा जीती शकतो नथी. १८ जहा मे तिखसिंगे। जायबंधे विरायई । बर्महे जूहाहियई । एवं हवाइ बहुस्सुए ॥ १९ ॥ [जहा] जेम (से) ते तिक्वसिंगे] तीक्ष्ण शीगडाचाळो तथा (जायख धे) जेने बांध उत्पन्न थइ छे. तेवो (जूहाहिबई) यूथाधिपति DEL (वसहे) वृषभ (विरायई) शोभे छ [एव] एज प्रमाणे [गहुस्सुर भवर बहुथुत पण होय छे. १९ व्या०-यथा स इति वक्ष्यमाणो वृषभो यूथस्य गोवर्गस्य अधिपो विराजते, एवं बहुश्रुतोऽपि विशेपेण राजते. कथंभूतो वृषभः? तीक्ष्णशृंगः, पुनः कथंभूतः? जातस्कंध उत्पन्नधर्धरणभागः, एतादृशो बलीवई इव यहुशुतोऽपि | | शोभते. कंथभूतो बहुश्रुतः? परपक्षभेदकत्वेन तीक्ष्णे स्वमतपरमतज्ञानरूपे शास्त्रे एव शृंगे यस्य स तीक्ष्ण,गः, पुनः || कथंभूतो बहुश्रुतः? जात उत्पो गणस्य कार्यरूपधुरंप्रति धौरेयिकत्वेन पृष्टः स्कंधो यस्य स जातस्कंधः पुनः कीरशो For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन मृश्रम ॥६४० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुश्रुतः यथाधिपतिः, यूथस्य चतुर्विधसंघस्य अधिपतिर्यथाधिपतिः एवं बहुश्रुतोऽपि यूथाधिपवृषभवत् आचार्यादिपदवीं प्राप्तः सन् विराजते. ॥१९॥ यथा=जेम-जेनुं वर्णन हमणांज आपशे एवो-वृषभ = बळद, यूथ=बळदना टोळांनो अधिपति धइने विराजे छे- शांभे छे; एज प्रमाणे बहुश्रुत पण विशेषताथी शोभे छे. वृषभ केवो? तीक्ष्ण शृंग=तीखां अणीदार शींगडांवाळो बळी जातस्कंध =धोंसरी धारण | कवानो भाग जेने उत्पन्न थयो छे तेवो, आवा वळदना जेवो बहुश्रुत पण शोभे छे, बहुश्रुत के वो? परपक्ष भेदवा माटे स्वमत ज्ञान तथा परमतज्ञान रूप वे तीक्ष्ण जेने छे एवो वळी ते बहुश्रुत केत्रो? जातस्कंध एटले जेने गणना कार्यरूपी घोंसरी उठावना अग्रणी | पणां रूप स्कंध जेने उत्पन्न थयेल छे एवो तथा यूथ = चतुर्विध संगनो अधिपति थयेलो; आयो बहुश्रुत पण यूथाधिपति वृषभनो पेठे आचार्य आदिक पदवी पामीने शोभे छे. १९ जहा से क्खिदा । उग्गे दुप्पहए | सोहे मियाण पैवरे । एवं हवइ हुए ।। २० ।। [जा] जेम [से] ते [तिक्ख दाढे] तीक्ष्ण दाढवाळो [उदग्गे] उत्कृट तथा ( दुप्पह सप) पराभव न पमाडी शकाय तेवा [मिआण] मृगो मध्ये [परवरे] प्रवर एवो [सीहे] सिंह शाभे छे, (एव) एज प्रमाणे [हुस्सुभवइर] बहुश्रुत पण शोभे छे. २० व्या०—यथा सिंहो मृगाणामरण्यजीवानां मध्ये प्रवरः प्रधानः स्यात् एवं बहुश्रुतोऽपि सिंह इव अन्यतीर्थीयमृगाणां मध्ये प्रकर्षेण श्रेष्ठः स्यात् कथंभूतः सिंहः? तीक्ष्णदंष्ट्रः पुनः कीदृशः सिंहः ? उदग्र उत्कटकः, पुनः कथंभूतः दुःप्रहंसको दुरभिभवः अन्यैर्जीवै दुर्धृष्यो दुःसह इत्यर्थः, बहुश्रुतोऽपि सिंह इव, कथंभूतो बहुश्रुतः ? तीक्ष्णदंष्ट्रः, For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०११ ॥६४०॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसत्रम् ॥६४॥ तीक्ष्णाः सप्तनयविद्यारूपा दंष्ट्रा यस्य स तीक्ष्णदंतः, अत एव उत्कटो दुर्जयः पुनः कथंभूतो बहुश्रुतः? दुःप्रहंसकः, | अन्यतीर्थेदुधृष्यः, कलितुमशक्य इत्यर्थः ॥२०॥ भाषांतर अध्य०११ यथा जेम सिंह, मृग अरण्य जीची प्राणीयोना मध्यमां प्रवर प्रधान के एम बहुश्रुत पण सिंहनी पेठे अन्यतीर्थीय मृगोना JE मध्यमां प्रकृष्ट श्रेष्ठ , सिंह के गो? तीक्ष्णदंष्ट्र जीखी दाढोवाळो तथा उदग्र उत्कृष्ट अने दुष्पहंसक अन्यमाणियोथी पराभव न ॥६४१॥ |पमाढाय तेवो होय छे तहत् बहुश्रुत पण तीक्ष्ण उग्र छे सप्तनय विद्यारूपी दाढो जेनी तथा उदग्र दुर्जय अने अन्यतीर्थीओ वडे इठावाय नहिं एवो होय छे. २० जेहा से वासुदेवे । संखचकगयाधरे ॥ अप्पडिहयबले जोहे । एवं हवह बहुस्सुए ॥ २१ ॥ (जहा) जेम (सखचक्रगदाधरे) शख, चक्र अने गदाने धारण करनारा (अप्पडियनले) अप्रतिहत बळवाळा (से] ते (वासुदेवे) 138 | वासुदेव (जोहे] महा योद्धा छे (एवं) एज प्रमाणे बिहुम्सुए भवद] नो अर्थ २० गाथा प्रमाणे समजवी, ___व्या०-यथा स प्रसिद्धो वासुदेवोऽप्रतिहतबलः स्यात्, अप्रतिहतं केनाप्यनिवारितं बलं यस्य सोऽप्रतिहतबलः, एवं बहुश्रुतोऽपि केनापि परमतिना अनिवारितबलः स्यात्. कीडशो वासुदेवः? शंखचक्रगदाधरः, वासुदेवस्य हि | रत्नसप्तकं स्यात् , यतः-चक्कं धणुहं खग्गो । मणी गया होइ तह य वणमाला ॥ संखो सत्त इमाई । रयणाई वासुदे वस्स ॥१॥ अत्र प्रयाणामेव ग्रहणं पहुश्रुतेन साम्याथै, सप्तानां मध्ये त्रयाणामेव प्राधान्यमप्यस्ति. पुनः कीदृशो | वासुदेवः? योधः, युध्यति शत्रूनपति संहरतीति योधः, यदुक्तं-युद्धे सूरा वासुदेवा । खमासूरा अरिहंता । तपसूरा Fer Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अणगारा । भोगसूरा चक्कवटी य ॥ १॥ वासुदेवो हि स्वशरीरेण युद्धं कृत्वा शत्रून् जयतीत्यर्थः. एवं बहुश्रुतोऽपि उत्तराध्यवासुदेववत् कीदृशो बहुश्रुतः? शंखचक्रगदातुल्यानि रत्नत्रयाणि ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाणि धरतीति शंखचक्रगदा भाषांतर यनसूत्रम् अध्य०११ | धरः. पुनः कीदृशो बहुश्रुतः? योधोंतरंगशत्रुघातकः. अत्र बहुश्रुतस्य वासुदेवोपमानं ॥ २१ ॥ ॥६४२।। जेम ते प्रसिद्ध वासुदेव अप्रतिहत बळ छे; अर्थात् कोइनाथी निवाराय नहिं एबुं जेनुं वळ छे, एम बहुश्रुत पण कोइ परमत । ॥६४२॥ वाळाथी हठावाय नहिं एवा शास्त्रवळवाळा होय छे, वासुदेव शंख, चक्र तथा गदा धारण करे छे, वासुदेव ने सात रत्न छे-जेवां के|चक्र, धनुष, खड्ग, मणि, गदा तथा वनमाला अने शंख; आ वासुदेवनां सात रत्नो छे. तेमांना त्रणमुंज अत्रे ग्रहण करेलुं छेद BE] कारण के सातेमां त्रणनुं प्राधान्य होवाथी बहुश्रुतनी समानता दर्शाववामां ए त्रणनोज अत्रे उपयोग छे. वासुदेव केवा? योध:=JE | युद्ध करनारा, शत्रुना संहार करनार; का छे के-युद्धमां शूर वासुदेव, क्षमामां शूर अरिहंत, तपः शूर अनगार=भिक्षु, अने भागमांशुर चक्रवर्ती; १ वासुदेव जेम स्वशरीरें शंख चक्र गदाधारी युद्ध करी शत्रुने जीते छे, तेम बहुश्रुत पण शंख चक्र गदा समान ज्ञानदर्शनचारित्ररूप रत्नत्रय धारण करी अंतरंगशत्रु क्रोधादिकनो घात करे छे. आमां बहुश्रुतने वासुदेवर्नु उपमान आपेल छे. २१ जहा से चाउरते । चक्कवट्टी महदिए । चउद्दसरयणाहिबई । एवं हवइ बहुस्सुए ।। २२ ।। [जहा] जेम (से) ते (चाउरते) चार प्रकारना शत्रुनो नाश करनार [चक्कवट्टी] चक्रवर्ती (महिट्ठिए) मोटी समृद्धिवाळो अने (चउ. दसपणाहिंचई) चौद रत्न अधिपति होय छे. [एवं एज प्रमाणे [बहुस्सुए भवइ] २२ व्या०-यथा स इति प्रसिद्धश्चक्रवर्ती विराजते इत्यध्याहारः, तथा बहुश्रुतोऽपि विराजते. कीदृशश्चक्रवर्ती? For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनम्नम् ॥६४३॥ चातुरंतः, चतुभिहयगजरथपदातिभिः सेनांगैरंतोऽरीणां विनाशो यस्य स चतुरंतः, चतुरंत एव चातुरंतः, आसमुद्रं | आहिमाचलं विविधविद्याधरबंदगीतकीनिया एकच्छत्रषखंडराज्यपालकश्चातुरंतः पुनः कीदृशश्चक्रवर्ती? महद्धिकः, PJभाषांतर 26 अध्य०११ | महती ऋद्धियस्य स महद्धिकः, चतुःषष्टिसहस्रांतःपुरनारीणां शय्यासु वैक्रियशक्ति विधाय रममाणः, येक्रियादिक|द्धिसहित इत्यर्थः, दिव्यानुकारिलक्ष्मीयुक्तो वा. पुनः कीदृशश्चक्रवर्ती? चतुर्दशरत्नाधिपति, चतुर्दशरत्नान्यमूनि- RE६४३|| | सेनापति १, गृहपति २, पुरोहित ३, गज ४, हय ५, सूत्रधार ६, स्त्री ७, चक्र ८, छत्र ९, चर्म १०, मणि ११, काकीनी १२, खड्ग १३, दंड १४. एतेषां रत्नानां स्वामी. एवं बहुश्रुतोऽपि. कीदृशो बहुश्रुतः? चतुभिर्दानशीलतपोभावलक्षणैर्धमैरंतश्चतमृणां गतीनां यस्य स चतुरंत एव चातुरंतः. चतुर्दशरत्नाधिपतिश्चतुर्दशपूर्वरूपाणि रत्नानि, तेषामधिप इत्यर्थः. पुनः कीदृशो बहुश्रुनः? महर्दिकः, महत्य ऋद्य आमदैषधिवप्रौषधिखेलौषध्यादयो यस्य स महद्धिको लब्धिऋद्धिं सहित इत्यर्थः, अथवा महती ऋद्धिर्ज्ञानसंपत्तिर्यस्य स महद्धिकः. ॥ २२ ॥ जेवो ते प्रसिद्ध चक्रवर्ती, शोभे छे (एटलो अध्याहार छे,) तेवो आ बहुश्रुत पण शाभे . चक्रवर्ती केवो? चातुरंत एटले घोडा, हाथी, रथ, पाळा; ए सेनाना चार अंगो वडे शत्रुनो अंत=विनाश करनार, अथवा समुद्र पर्यंत तथा हिमाचळ मूधी विविध विद्याधरो जेनी कीर्ति गाता होय तेवो एक छत्रे छ खंड पृथ्वीनुं राज्य पालन करनार चातुरंत कहेवाय; बळी ते चक्रवर्ती महोटी ऋद्धिवाळो चोसठ हजार अंत.पुरनारीओनी शय्यामां वैक्रियशक्ति धारीने रमता होय तेवो, वैक्रियादिऋद्धिसहित, अथवा दिव्यर्नु अनुकरण करे तेवी लक्ष्मीथी युक्त, अने चतुर्दश रत्नो, जेवा के-सेनापति १, गृहपति २, पुरोहित ३, गज, ४, हय ५, मूत्र For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उत्तराध्य Page मा राजत, धार ६, स्त्री ७, चक्र ८, छत्र ९, चर्म १०, मणि ११, काकिनी १२, खङ् १३, दंड १४, प रत्नोनो अधिपति स्वामि एम | बहुश्रुत पण दान, शील, तप तथा भाव; आ चार धर्म वढे अंत=चार गति जेने लाभे ते चातुरंत, बळी चतुर्दश पूर्वरूपी चउद भाषांतर अध्य०११ रत्ननो अधिपति, तेमज महोटी ऋद्धिओ, आमापधि आदिक जेने प्राप्त छे, अर्थात् लब्धि ऋद्धि युक्त; अथवा महोटी ऋद्धि॥६४४॥ | ज्ञानसंपत्ति जेने प्राप्त थयेली छे तेवो बहुश्रुत होय छे. २२ 16॥६४४॥ जहा से सहस्सक्खे । बज्रपाणी पुरंदरे । सक्के देवाहिवई । एवं हवइ बहुस्सुएं ॥ २३ ॥ | (जहा) जेम से] ते [स] शक 'द्र [सहस्सक्खे सहस्राक्ष कहेवाय छे तथा [पुरदरे पुरंदर कहेवय छे तथा दिवादियई] [D] Inc देवनो अधिपति छे एच] एज प्रमाणे (बहुस्सुए) बहुश्रुत पण होय छे. २३ व्या०-यथा स इति प्रसिद्धः शक्र इन्द्रो विराजते, तथा बहुश्रुतोऽपि विराजते. कीदृशः शक्रः? सहस्राक्षः सहस्रमक्षीणि यस्य स सहस्राक्षः सहस्रनेत्रः पुनः कीदृशः? वज्रपाणिर्वज्रशस्त्रहस्तः पुनः कीदृशः पुरंदरः, पुराणि दैत्यनगराणि दारयति विध्वंसयतीति पुरंदरः, दैत्यनगरविध्वंसकः. पुनः कीदृशः? देवाधिपतिः, देवेषु अधिपतिर्देवा|धिपतिः, देवेषु अधिककांतिधारी. अथ कीदृशो बहुश्रुतशक्रः? सहस्रमक्षोणि श्रुतज्ञानानि यस्य स सहस्राक्षः, सह संख्यैर्नेप्रेरिवं श्रुतज्ञानभेदैः पश्यतीयर्थः. पुनः कीदृशो बहुश्रुतशक्रः? वज्रपाणिः, वज्रं वज्राकारं पाणौ यस्य स 0 | वजपाणिः, विद्यावतः पूज्यस्य हस्तमध्ये वज्रलक्षणस्य संभवात्. पुनः कथंभूतो बहुश्रुतशक्रः? देवताधिपतिः, देवेषु सर्वसाधुपु अधिपतिरधिकः, सर्वसाधूनधिकं यथास्यात्तथा पाति रक्षतीति देवाधिपतिः. 'रिसी हि देवा य समं । जानकी For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassaqarsuri Gyanmandir विविता' इत्युक्त।. देवा अधिक पांति रक्षति सेवां कुर्वत्युपद्रवेभ्यो रक्षति हरिकेशवलसाधुवत् वैयावृत्यं कुर्वतीति उत्तराध्य देवाधिपतिः, देवैरपि पूज्यते इत्यर्थः ॥ २३ ।। यनसूत्रम् | Jeभाषांतर अध्य०११ जेम ते प्रसिद्ध शक्र इन्द्र शोभे छे तेवो बहुथत पण शोभे छे शक केवो? सहस्राक्ष जेनां हजार नेपछे, बळी बच शख जेना ॥६४५॥ 13 हाथमा छे, तथा दैत्योनां पुर=नगरोनुं दारण=विध्वंस न करनारो अने देवाधिपति देवोमा अधिक कांतिधारी छे; तेवोज बहुश्रुत "६४५॥ पण सहस्राक्ष-हजारो जेनां श्रुतज्ञानरूपी नेत्र छे तेवो तथा वज्रपाणि =हस्तमा पत्रकार चिन्हवाळा-विद्यावान पूज्य पुरुषोना हाथमा व चिन्ह होय छे-वळी ते बहुश्रुत पुर-शरीरने तपवडे कृश करे तेथी पुरंदर तथा देव सर्व साधुओने अधिक रीते पालेरक्षे तेथी देवाधिपति कहेवाय. 'ऋषिओ तथा देव समान गणाया छे. एवू कहेल छे, देव अधिक पाले छे-रक्षे छे सेवा करे छे; हरिकेशवळ साधुनी पेठे उपयोथी बचावे छेवैयादृत्य करे छे एटले देवाधिपति कहेवाय एवा बहुश्रुत देवोये पण पूजाय छे एवो भावार्थ छे २३ जहा से तिमिरविद्धंसे । उत्तित दिवायरे ।। जलते इव तेएणं एवं हवाई यस्लप ॥२४॥ [जहा] जेम [से ते (तिमिहविद्ध से] अंधकारनो नाश करनार (दिवायरे) सूर्य [उत्तिट्टते) उदय पामतो (तेषण) तेजवढे (जलते घ) जवाळा मूकतो होय तेम (बहुस्सुप) २४ व्या०-यथा स इति प्रसिद्ध उत्तिष्टन उगच्छन् दिवाकरः यस्तेजसा ज्वलन् ज्वालाभिरुत्सर्पन इव विराजते, तथा बहुश्रुतोऽपि राजते. तथा कथंभूतः सूर्यः? तिमिरमंधकारं विध्वंसते इत्येवं शीलस्तिभिरविध्वंसी, अथवा For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org JUDEI उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६४६॥ तिमिरस्य विध्वंसो यस्मात् स तिमिरविध्वंसी. अथ बहुश्रुत एव दिवाकरः कीदृग्स्यात् ? कथंभूतो बहुश्रुतसूर्यः? | तिमिरं मिथ्यात्वांधकारं विध्वंसयतीति तिमिरविध्वंसी. किं कुर्वन्? उत्तिष्टन क्रियानुष्ठानादौ अप्रमादीभवन. पुनः Bl भाषांतर र अध्य०११ कीदृशो बहुश्रुतदिवाकरः? किं कुर्वनिव तेजसा द्वादशविधतपस्तेजसा माहात्म्येन वा ज्वलन् देदीप्यमानः, परवादिभिर्दष्टुमप्यशक्य इत्यर्थः ॥ २४ ॥ ।.६४६॥ यथा जेम ते प्रसिद्ध उदय पामतो दिवाकर मूर्य, तेजवडे ज्वळतो ज्वाळाओथी फेलातो होयनी जाणे तेवो शोभे छ तेम बहुश्रुत पण शोभे छे. मूर्य केवो? तिमिरविध्वंसीअंधकारना नाश करवानी टेववाळो, अथवा अंधकारनो जेनाथी नाश थाय छे तवा, हवे बहुश्रुतदिवाकर पण तिमिर-मिथ्यात्वरूपी अंधकारनो विध्वंस करनार, केवी रोते? साधुए अनुष्ठान करवा योग्य क्रियाओमा प्रमाद न करतां वर्तीने; वळी ते बहुश्रुत सूर्य पोताना द्वादश प्रकारना तपो जन्य तेजवढे अथवा माहात्म्यवढे देदीप्यमान होइ परवादी जनाए जेना सामु जोइ पण न शकाय तेवो होय छे. २४ जहा से उबई चंदे । नक्खत्तपरिवारिए । पडिपुण्णे पुण्णमासीए । एवं हवइ यहुस्सुए ॥ २५ ।। [जहा] जेम (से) ते [पुण्णमासीय] पूर्णिमानो [च दे] चंद्र (उडुबई) नक्षत्रोनोपति छे नक्खत्तपरिवारिए] नक्षत्रोवडे परिवारेलो [पडिपुन्ने] परिपूर्ण छ, [एवं] एज प्रमाणे [बहुस्सुए भवर] २५ व्या०-यथा पूर्णमास्यां राकायां उडुपतिश्चंद्रो भवति, जनालाहको भवति, चंदति आहादयतीति चंद्रः, अन्वर्थनामा भवति. तथा यहुश्रुतोऽपि पूर्णमास्यां सम्यक्त्वप्राप्ती प्रतिपूर्णः, उडुपतिरिव चंद्रो भव्यजनाहादको भवति, For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६४७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कीदृश उडुपतिः ? नक्षत्रैर्ग्रहतारकादिभिः परिवृतः, परिवारो जातोऽस्येति परिवारित इति वा पुनः कीदृश उडुपतिः? | प्रतिपूर्णः षोडशकलादिभिर्युक्तः, पूर्णो मासः संसारो यस्याः सा पूर्णमासी, सम्यक्त्वलब्धिरूपायां पूर्णमास्यां बहु| श्रुतरूप उडुपतिर्भव्यजनाहादको भवतीति भावः पुनः कीदृशो बहुश्रुत उडुपतिः ? साधुभिर्नक्षत्रैरिव परिवारितः सहितः पुनः कीदृशो बहुश्रुत उडुपतिः ? प्रतिपूर्णः सर्वधर्मकलाभिः संपूर्ण इत्यर्थः ॥ २६ ॥ जेम पूर्णमासी = पुनमने दिवसे उडुपति=चंद्र जनोने आहाद आपनारो थाय छे. चंदधातु आल्हाद अर्थनो छे तेथी ए धातु|मांथी बनेलो चंद्र शब्द पण = आल्हाद जनक = एवा अर्थवाळो छे, तेम बहुश्रुत पण सम्यक्त्वनी प्राप्ति थवाथी परिपूर्ण चंद्र जेवो थइ भव्यजनोने आल्हादपद थाय छे. चंद्र केवो? प्रतिपूर्ण=सोळे कळाओथी युक्त. बहुश्रुतपक्षमां-पूर्ण थयेल छे मास=संसार जेनो अर्थात् सम्यक्त्व लब्धिरूप पूर्णमासी थतां बहुश्रुत रुपी उड़पति चंद्र पण भव्यजनोनो आल्हादजनक थाय छे. बळी आ बहुश्रुत | चंद्र साधुरूपी नक्षत्रोबडे सदा परिवारित रहे छे अने सर्व धर्म कला वडे संपूर्ण होय छे. २५ जहा से सामाईपाणं । कोट्टागारे सुरखिए || नाणाधन्नपडिपुण्णे । एवं हवइ बहुस्सुए ।। २६ ।। [जा] जेम (नाणाधन्न पडिपुन्ने) धान्यथी भरपूर [सामाइआणं] सामाजिक लोकोनो (से) ते (कोट्टागारे) कोठार [सुरखिए ] सुरक्षित (ए) एज प्रमाणे (बहुस्सु भवइ) २६ व्या०—यथा स इति प्रसिद्धः सामाजिकानां महागृहस्थानां कोष्ठागारो विराजते, तथा बहुश्रुतोऽपि विराजते. | समाजो जनसमूहस्तमर्हतीति सामाजिकाः, तेषां सामाजिकानां कौटुंबिकानां कथंभूतः कोष्ठागारः ? सुरक्षितः, सुत For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० ११ ॥६४७॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर R- अध्य०११ ॥६४८॥ BE रामतिशयेन चौरमृधकादिभ्य उपद्वेन्यो रक्षितः सुरक्षितः. पुनः कीदृशः कोटागारः? नानाधान्यतिपूर्णः, चतुर्विउत्तराध्य शतिधान्यैः प्रतिपूर्णो भृतः. अथ यहुश्रुतः कीदृशः? सुरक्षितः, सुतरामतिशयेन गच्छसंवाटस्थमुनिभिर्यत्नेन रक्षितः. यनसूत्रम् पुनर्नानाप्रकारैरंगोपांगादिरूपैर्धान्यैः प्रतिपूर्ण इत्यर्थः ॥ २६ ॥ ॥६४८॥ जेम ते प्रसिद्ध सामाजिक-महोटा गृहस्थोनो कोठार शोभे छे तेना जेवो बहुश्रुत पण शोभे छे. समाज एटले जनसमूह, Ba तेने लायक होय ते सामाजिक कहेवाय, ते सामाजिक, अर्थात् महोटा कुटुंबी जनोना कोठार जेम सुरक्षित, एटले चोर उदर वगेरे उपद्रव न करे ते माटे पहेरेगीर वगेरेथी रक्षित होय छे ते कोठारो नाना प्रकारना चोवीश जातमां धान्यो बडे प्रतिपूर्ण=भरेला होय छे तेम बहुश्रुत पण सुरक्षित गच्छ, संघाडा, मुनि; इत्यादिक बडे रक्षित होय छे तथा नानाप्रकारना अंगउपांगादिरूप धान्यो बडे प्रतिपूर्ण होय छे. २६ जहा से दुमा पथरा। अंपूनाम सुदंसणा ।। अणाढियस्स देवस्म । एवं भवइ बहुस्सुए ॥२७॥ (सहा) जेम [अगाढिपस्स] अनाहत नामना [देवस्स] व्यतर देवनो [सा ते (सुदंसणानाम) सुदर्शन नामनो [ज'] जवू वृक्ष | [दुमाण] सर्व वृक्षोने विषे (पवरा) श्रेष्ट छे (एव' बहुस्सुए भवइ] २७ ___व्या०-यथा द्रमाणां मध्ये जंबुनामा सुदर्शना इत्यपरनामा दुमो वृक्षः प्रवरः प्रधानः शोभते, तथा यहुश्रुतोऽपि सर्वमुनीनां मध्ये प्रधानो विराजते. स च जंबुसुदर्शनानामा वृक्षोऽनार्दिकस्य जंबूद्रीपाधिष्टातृदेवस्य वर्तते. तस्य हि जंबूद्वीपाधिपाभितत्वेन सर्ववृक्षेभ्यः प्रधानत्वं ज्ञेयमित्यर्थः. बहुश्रुतोऽपि मिष्टफलसदृशसिद्धांतार्थफलप्रदः, For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६४९॥ देवादिभिरभिगम्यः. ॥ २७ ॥ भाषांतर यथा जेम द्रुम-वृक्षोना मध्यमां जंबूनामनो सुदर्शन अपर संज्ञावाळो द्रुम=वृक्ष, प्रवर अधान पणे शोभे छे नेम बहुश्रुत पण अध्य०११ सकळ मुनिओना मध्यमा प्रधानपणे शोभे हे. ते सुदर्शन नामनो जंब वृक्ष जंबूद्वीपना अधिष्ठाता अनादिक देवनो होबाथी जंबूद्वीपमां सर्व वृक्षोमां प्रधान मनाय छे तद्वत् बहुश्रुत पण मधुर फळ जेवा सिद्धांतार्थरूपी फळ देनार होवाथी देवादिके पण पामे 50 ॥६४९ | जावा योग्य होय छे. २७ जहा सा नईण पवरा । सलिग सागरंगना ॥ सीया नील पंतप्पवाहा । एवं हवह बहुस्सुए ॥२८॥ (जहा) जेम (नीलवनप्पवाहा] नीलवान पर्वतमाथी उत्पन्न थयेली (नइणपवरा) सर्व नदीओमा श्रेष्ठ एवी [सा] ते [सीआ] सीता र | नामनी (सलिला) नदी [सागर गमा] सागरमा मळे छ, [एवं] एज प्रमाणे [बहुस्सुए भवइ] व्या०-यथा सा इति प्रसिद्धा नदोनां मध्ये सीतानाम्नी नदी प्रवरा प्रधाना शोभते, तथा बहुश्रुतोऽपि शोभते. कथंभृता सीता नदी? सलिला, सलिलं पानीयमस्या अस्तीति सलिला, नित्यनीरा. पुनः कथंभूता सीता? सागरंगमा, सागरं गच्छतीति सागरंगमा. पुनः कीदृशा सीता? नीलवंतप्पवाहा, नीलबंतपर्वतात् प्रवाहो यस्याः सा नीलवत्प्रवाहा, नीलवत्पर्वतादुत्तीर्णेल्यर्थः, बहुश्रुनोऽपि साधूनां मध्ये प्रधानः, निर्मलजलतुल्यसिद्धांतसहितः. पुनः सागरभिव मुक्तिस्थानंगामी. पुनर्बहुश्रुतो नीलवत्पर्वतसदृशोशतकुलात्प्रसूतः, उत्तमकुलप्रसूतो हि सबिद्याधिनयौदार्यगांभीर्या| दिगुणयुक् स्यात्. ॥ २८ ॥ 美美美美美美美美美號 For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥६५०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेम से प्रसिद्ध, नदीओना मध्यमां सीता नामनी नदी प्रवरा=मधानपणे शोभे छे तेम बहुश्रुत पण शोभे छे. सीता नदी | केवी छे? सलिला=जेमां हमेशां पाणी भर्युज रहे छे एवी तथा सागरमां जइ भळती, अने नीलवान् पर्वतमांथी जेनो प्रवाह वह्यो छे एवी. बहुश्रुतमुनि पण साधुओना मध्यमां प्रधान, निर्मल जलसमान सिद्धांत सहित अने सागरना जेवा मुक्तिस्थानमां जनारा तथा नीलवान् पर्वतना समान उत्तम कुळमां जन्मी सद्विद्या, विनय, औदार्य, गांभीर्य इत्यादि गुण युक्त होय छे. २८ जहा नगाण पवरे । सुमहमंदरे गिरी || नाजीसहिपज्जलिए । एवं हवइ बहुस्सु ।। २९ ।। [[जा] जेम [से] ते (नगाणपवरे) पर्वतोमां श्रेष्ट [सुमह] अति मोटो [मंदरे गिरी] मेरु पर्वत [नाणोस पहिजलिए] औषधी युक्त छे (एव) एज प्रमाणे (बहुस्सु भव) २९ व्या० - यथा स इति प्रसिद्धो नगानां पर्वतानां मध्ये सुतरामतिशयेन महानुच्चैस्तरो भंदरो मेरुगिरिमेरुपर्वतः शोभते, तथा बहुश्रुतोऽपि शोभते. कथंभूतो मेरुः ? नानौषधीप्रज्ज्वलितः, नानाप्रकाराभिरौषधीभिः शल्यविशल्यासंजीवनी संरोहिणीचित्रावल्लीसुधावल्लीविषापहारिणीशस्त्रनिवारिणीभूतनागदमन्यादिभिर्भूलीभिः प्रज्ज्वलितो जाज्वल्यमानः एवं बहुश्रुतः सर्वसाधूनां प्रवरो गुणरुच्चैस्तरः श्रुतस्य महात्म्येनात्यंतं स्थिरः, परवा दिवादवात्या अचलः, | अनेकलब्ध्यतिशयसिद्धिरूपाभिरौषधीभिर्मिथ्यात्यांधकारेऽपि वज्रस्वामिमानतुंगकुमुदचंद्रादिवत् जैनशासनप्रभावनारूपप्रकाशकारकः. ।। २९ ।। यथा=जेम ते=प्रसिद्ध नग= पर्वतोना मध्यमां अतिशय महान=बहु उंची मंदर = मेरुपर्वत शोभे छे तेम बहुश्रुत पण शोभे छे. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०११ ॥६५०॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassaqarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-16 मेरुपर्वत केवो? नाना=विविधप्रकारनी ओपधियोवडे, अर्थात् शल्य विशल्या, संजीविनी, संरोहिणी, चित्रावल्ली, सुधावल्ली, विषाप TO भाषांतर यनसूत्रम् हारिणी, शस्त्रनिवारिणी, भूत दमनी, नागदमनी; इत्यादिक अनेक जडी मूळीथी प्रज्वलित रहे छे तेवीरीते बहुश्रुत पण सर्व साधु IAS अध्य०११ ओमां प्रवर श्रेष्ठ तथा गुणोबडे उच्चतर तथा विविध अने परवादीरुपी वायुथी अडग प्रकारनी लब्धिना अतिशयवाळी सिद्धिरुप ॥६५॥ ओषधिओ बडे मिय्यात्वरूपी अंधकारमा पण वनस्वामी, मानतुंग, कुमुद चंद्रादिनी पेठे जैनशासनप्रभावनारूप प्रकाशकारक होय छे. GE ॥६५॥ जहा से सयंभुरमणे । उदही अवओदए । नाणारयणपडिपुण्णे । एवं हवइ यहुम्सुए ॥ ३० ॥ (जहा) जेम (से) से (संयभुरमणे) स्वयंभूरमण नामनो (उदही) समुद्र [अक्खोदए अखूटजळयाळो तथा (नाणारयणपडिपुन्ने) रत्नथी भरपूर [ए] एज प्रमाणे [बहुस्सुपभवाइ] ३० व्या०-यथा स इति प्रसिद्धः स्वयंभूरमणनामा चरमोदधिविराजते, तथा बहुश्रुतोऽपि विराजते. कथंभूतः स्वool यंभूरमणोदधिः? अक्षयं शाश्वतमविनाशि उदकं जलं यस्य सोऽक्षयोदकः. पुनः कथंभूतः स्वयंभूरमणसमुद्रः? नाना रत्नप्रतिपूर्णः, बहुप्रकारैरसख्यैर्माणिक्यैर्भूतः. तथा बहुश्रुतोऽपि स्वयंभूरमण इव. कथंभूतो बहुश्रुतः? अक्षयज्ञानोदकोऽक्षयज्ञानजलः. पुनर्बहुश्रुतः स्वयंभूरमणसमुद्रवन्नानाप्रकारातिशयरूपरत्नैः संपूर्णः ॥ ३० ॥ जेम ते स्वयंभूरमण नामनो छेल्लो उदधि-समुद्र शोभे छे तेम बहुत पण विराजे छे. स्वयंभूरमणोदधि केवो छे? नानारत्नJE प्रतिपूर्ण घणा प्रकारनां माणिक्यादि असंख्य रत्नोथी भरेलो तथा अक्षयोदक एटले कोइ काळे खूटे नहिं तेवा शाश्वत जलथी| | भरेलो छे तेम बहुश्रुत पण अखूट ज्ञानरूपी जळयी भरेलो तथा स्वयंभूरमण समुद्रनी पेठे विविध अतिशयरूप रत्नोवडे संपूर्ण होय छे. For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६५२ ॥ www.kobatirth.org सतुदेगंभीरसमा दुरासया । अक्किया के दुप्पहंसया || सुरस पुलिस ताइणो । खवित्तु कम्नं गमुत्तमं गया ॥ ३१ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (समुद्दग ंभीरसमा) समुद्रनु' गांभीर्य तथा (दुरासया) दुराश्रय (अचकिआ ) अचकित तथा (केणइ दुप्पहसया) कोथो पराभवन माडी शकाय तेवा (विउलस्स सुअस्स) विस्तार पामेला श्रुतवडे ]पुण्णा ] तृप्त थयेला (ताइणो) बीजाओने तारनारा (कम्म खचित्तु ) कम नो क्षय करी [उत्तम गई गया] उत्तम गतिमां जाय छे. ३१ व्या०- एतादृशाः श्रुतस्य पूर्णा बहुश्रुता उत्तमां गतिं गताः प्रधानं मुक्ति प्राप्ताः किं कृत्वा ? कर्माणि क्षपयित्वा श्रुतस्य पूर्णा इत्यत्र तृतीयास्थाने षष्टी, श्रुतेन श्रुतज्ञानेन पूर्णाः कीदृशस्य श्रुतस्य विपुलस्य विस्तीर्णस्य, अनेक हेतुयुक्तिदृष्टांत उत्सर्गापवादन याद्यनेकर हस्यार्थयुक्तस्य. कीदृशा बहुश्रुताः समुद्रगंभीरसमाः. समुद्रस्य गांभीर्येण तुल्याः समुद्रगभीरसमाः पुनः कीदृशाः ? दुराश्रयाः, केनापि वादिना कपटं कृत्या न आश्रयणीयाः, केनापि वंचितुमशक्या | इत्यर्थः पुनः कथंभूताः ? अचकिता अग्रसिताः, परीप है बासमप्रापिताः पुनः कीदृशाः ? दुःप्रहस्याः परवादिभिः पराभवितुमशक्याः एतादृशाः श्रुतज्ञानधरा मोक्षं गता गच्छति गमिष्यंति च ॥ ३१ ॥ एवा श्रुतथी पूर्ण बहुश्रुतो उत्तम गतिए गया है-प्रधान स्थान मुक्तिने पाम्या छे. केम करीने? कर्मने खपावीने. 'श्रुतस्य' ए पदमां तृतीया विभक्तिने स्थाने पष्ठी विभक्ति छे एटले 'श्रुते करी पूर्ण' एम अर्थ समजतो. श्रुत के ? विपुल = विस्तीर्ण - अर्थात् अनेक हेतु, युक्ति, दृष्टांत, उत्सर्ग, अपवाद, नयः इत्यादिक पुष्कळ रहस्यार्थ संयुक्त श्रुतज्ञाने करी पूर्ण वळी समुद्र तुल्य गांभीर्य For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०११ ॥६५२ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य वाळा, तथा दुराश्रय कोइ वादीए कपट करी जेनो आश्रय लइ न शकाय तेवा, अर्थात् कोइथी छेतरी न शकाय तेवा बळी अचयनसूत्रम् कित त्रास मुक्त कोइ परीपहवडे त्रास न पामनारा अने परवादीओए पराभव न पमाडी शकाय तेवा श्रुतज्ञान धर=बहुश्रुत जनो मोक्षे गया छे, जाय छे, तथा जशे. ३१ TAG अध्य०११ ॥६५३॥ तम्हा सुअमहिहिज्जा । उत्तमढुंगवेसए । जेणप्पाणं परं चेव । सिद्धि मंपाउणिज्जसे तिबेमि ॥ ३२ ॥ IBE ॥६५३॥ | (तम्हा) तेथी [उत्तम गबेसए] मोक्ष शोधक पुरुषे [सु अहिटिज्जा] श्रुतज्ञाननो अभ्यास करवो (जेण) के जेथी (अप्पाण' पर' चेव) स्वपरने पण [सिद्धि सिद्धि प्रत्ये [संपाउणिज्जालि पमाडी शकाय [त्तिबेमि एम कटु छु'. ३२ व्या-उत्तमार्थगवेषको मोक्षार्थी पुमान् , तस्मात् यहुश्रुतस्य मोक्षप्राप्तियोग्यत्वात् श्रुतं सिद्धांतं अधितिष्टन् , | उत्तमश्चासावर्थश्च उत्तनार्थो मोक्षार्थस्तं गवेषते इति उत्तमार्थगवेषकः, येन श्रुतेन आत्मानं च पुनः परमपि सिद्धिं प्रापयेत् , मोक्षं गमयेत्. कोऽर्थः? बहुश्रुतः स्वयनपि मोक्ष प्रामोति, अन्यमपि स्वं सेवकं मोक्ष प्रापयतीत्यर्थः. इत्यह ब्रवीमि, इति सुधर्मास्वामी स्वामिन प्रवाह ॥३२॥ इति बहुश्रुतपूजाख्यमेकादशमध्ययन संपूर्ण. ॥११॥ उत्तमार्थगवेषक मोक्षार्थी पुरुषे-बहुश्रतज मोक्ष प्राप्तिने योग्य छे ते माटे श्रुतसिद्धान्त स्थित करवो. उत्तम अर्थ-मोक्ष, तेनी J. गवेषणा शोधमां उतरेला मनुष्ये, जे श्रुतज्ञानवडे आत्मा-पोताने तथा परने पण सिद्धि पमाडाय मोक्ष प्राप्ति करावाय, एटले के DE ते बहुश्रुत पोते मोक्ष पामे तेम अन्य-पोताना सेवकने पण मोक्ष पमाडे-एम हुं बोलु छु. (आ रीते सुधर्मास्वामी जंयूस्वामी प्रत्ये | | वोल्या.) परीते आ बहुश्रुतपूजा नामर्नु एकादशाध्ययन पूर्ण थयु. For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यनसूत्रम् इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यश्रीलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां बहुश्रुतपूजाख्यस्याध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥ श्रीरस्तु ॥ ॥ ए प्रमाणे श्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिना शिष्य श्रीलक्ष्मीवल्लभगणिए विरचित श्रीमद् उत्तराध्ययनमूत्रांनी अर्थदीपिकानामनी वृत्तिमा बहुश्रुतपूजा जामर्नु अगीयारमा अध्ययननो अर्थ संपूर्ण थयो. भाषांतर अध्य०१२ ॥६५४॥ ॥६५४॥ ॥ अथ द्वादशमध्ययनं प्रारभ्यते । अथ हरिकेशीय नामक द्वादश अध्ययन. एकादशेऽध्ययने बहुश्रुतपूजा प्रोक्ता, अथ द्वादशे बहुश्रुतेनापि तपो विधेय इत्येकादशहादशयोः संबंधः. अतोऽत्राध्ययने तपोमाहात्म्यमाह. हरिकेशवलसाधुस्तपस्वी बभूव, तत्संबंधो यथा-मथुरानगर्या शंखो नाम राजा JE | विषयसुखविरक्तः स्थविराणामंतिके निष्क्रांतः, कालक्रमेण गीतार्थो जातः, पृथ्वीमंडले परिभ्रमन् हस्तिनागपुरे प्राप्तः, | तत्र भिक्षानिमित्तं प्रविष्टः तत्रैको मार्गोऽतीवोष्णोस्ति, उष्णकाले केनापि गंतुं न शक्यते, ततस्तन्मार्गस्य हुनवह | इति नाम संजातं. तेन मुनिनासन्नगवाक्षस्थितः सोमदेवाभिधानः पुरोहितः पृष्टः, किमेतेन मागण व्रजामीति. पुरोः | हितेन चितितं यद्यसौ हुतवहमार्गे गच्छति, तदा दह्यमानममुं पश्यतो मम कौतुकमनोरथः पूर्णो भवतीति. अतस्तेन | For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassaqarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६५५॥ الاكل الفلاشات البلاد بالفائدة البيانا هنا فاع स एव मार्गो निर्दिष्टः, ईर्योपयुक्तो मुनिस्तेनैव मार्गेण गंतुं प्रवृत्तः. लब्धिपात्रस्य तस्य पादप्रभावतस्तादृशोऽपि मार्गः |शान्तो बभूव. तस्मिन्मार्ग शनैः शनैश्चलंतं मुनि वीक्ष्य स पुरोहितः स्वावासगवाक्षात्तीर्य स्वपादाभ्यां तं मागे स्पृष्ट IDEभाषांतर अव्य०१२ वान , हिमवच्छीतलो मार्गः, तेन ज्ञातं मुनिपादमाहात्म्यं, एवं च चिंतितं हा मया पापकर्मणा पुण्यात्मनोऽस्य कीदृशो |JE | मार्गः, प्रकाशितः! परमस्य पादस्पर्शादेव मार्गतापोपशांतिर्जाता. ततो यद्यहमस्य शिष्योऽभूवं तदा ममैतस्य प्राय या मतम्य प्राय-1॥६५५५ श्चित्तं भवतीति चिंतयित्वा तस्य मुनेः पुरः स्वपापं प्रकाशित, पादौ च प्रणतो, मुनिनापि तस्य सम्यग्धर्मः प्रकाशितः. जातसंवेगेन तेन सोमदेवेन तस्य मुनेरंतिके दीक्षा गृहीता, चारित्रं विशेषात् पालयति, परमहं ब्राह्मगत्वादुत्तमजातिरिति मदं कुरुते, परं नैवं भावयति-गुणैमत्तमतां याति । न तु जातिप्रभावतः ॥ क्षीरोदधिसमुत्पन्नः । कालकूटः किमुत्तमः॥१॥ किंच-कौशेयं कृमिजं सुवर्णमुपलाद् दुर्वापि गोरोमतः पंकाचामरसं शशांकमुदधेरिदीवरं गोमयात् ॥ काष्टादग्निरहेः फणादपि मणिर्गोपिचतो रोचना । जाता लोकमहार्यतां निजगुणैः प्राप्ताश्च किं जन्मना ॥२॥ एवं परमार्थमभावयन स जातिमदस्तब्धः सोमदेवः कियत्कालं संयममाराध्य कालक्रमेण मृतो देवो जातः, तत्र चिरकालं | वांछितसुखानि भुक्तवान्. ततश्च्युतो गंगातीरे हरिकेशाधिपस्य यलकोष्टाभिधानस्य चंडालस्य भार्याया गौर्याः कुक्षी समुत्पन्नः. सा च स्वप्ने फलितमाम्रवृक्षं ददर्श, स्वप्नपाठकानां च कथितवती. तैरुक्तं तव प्रधानपुरुषो भविष्यतीति. | कालमासे दारको जातः, जातिमदकरणेनास्य चंडालकुलोत्पत्तिर्जाता. स बालः सौभाग्यरूपरहितो बांधवानामपि हसनीयः, तस्य बल इति नाम प्रतिष्टितं. स च वर्धमानः प्रकामं क्लेशकारित्वेन सर्वेषामुढेगकारी जातः. For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगीयारमा अध्ययनमा बहुश्रुतपूजा कही हवे आनारमा अध्ययनमा बहुश्रुते पण 'तपोनुष्ठान करघु' एम प्रतिपादन कराशे ए. उत्तराध्यरीते पूर्वोत्तर अध्ययननी संगति दर्शावी एटले आ अध्ययनमा तपो माहात्म्य कहेवामां आवशे. हरिकेशबल साधु-तपस्वी हता, भाषांतर यनसूत्रम् अध्य०१२ तेनो अहीं संबंध एवीरीते छे के-मथुरा नगरीमा शंख नामे विषयसुखथी विरक्त राजा हतो ते एक वख्ते स्थविरोनी समीपे ॥६५६॥ नीकल्या, कालक्रमे गीतार्थ-दीक्षा पूर्वक संयमी=थया. पृथ्वीभंडळमां परिभ्रमण करतां हस्तिनागपुरमा आवी चड्या ज्यां भिक्षा ॥६५६॥ माटे गाममा पेसे छे त्यां एक अति उनो मार्ग हतो के जेनापर उष्णकाळमां कोइर्था चाली न शका, तेथी ते मार्गर्नु 'हुतवह एqE | नाम पडी गयुं हतुं; ते मुनियें पांसेना गोखमां बैठेला एक सोमदेवनामना पुरोहितने पूछयु के-केम आ पागे जाउं?' पुरोहिते | विचार्यु के -जो आ साधु आ हुतवह मार्गे जाय तो तेना पग बळे त्यारे ए तरफडाट जोवानो मारो कौतुक मनोरथ पूरी याय' | आथी तेणे ते साधुने एज मार्ग चौंध्यो, इर्यासमिविना उपयोगे मुनि एज मार्गे जवाने प्रवृत्त थया. लब्धि (सिद्धि)ना पात्रभूत ते मुनिना पादप्रभावथी तेवो अग्निसदृश मार्ग पण शांत थइ गयो. ते मार्गमां धीरे धीरे चाल्या जता मुनिने जोइ ते पुरोहित पोताना JEI निवासना गोखमांथी हेठे उतरी पोताना बेय पगवती ते मार्गनो स्पर्श को त्यां तो बरफ जेबो शीतल मार्ग जाण्यो. ते समज्यो | के मुनिना पादज आ महात्म्य छे, त्यारे तेणे एम विचार्यु के-'अरे! पाप कर्म करनार बनी में आ पुण्यात्मा साधुने केवो मार्ग | देखाड्यो? पण आना पादस्पर्शीज आ मार्गना तापनी उपशांति थइ, तेथी जो हुँ आनो शिष्य थाउं तो मारा आ पापर्नु मायचिस थाय? आम विचारीने तेणे मुनिनी आगळ पोतार्नु पाप प्रकाशित कयु, अने तेना पादमां प्रणाम कर्या. मुनिए पण तेने सारीरीते धर्म प्रकाशित कर्यो ते उपरथी ते सोमदेव पुरोहितने पंवेग उत्पन्न थतां ते मुनिनी पांसेज दीक्षा ग्रहण करी. हवे ए सोमदेव For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassaqarsuri Gyanmandir 119PIT स उत्तराध्य- साधु चारित्र्य तो विशेष रूपे पाळवा लाग्या पण हुं ब्राह्मण होवाथी उत्तम जाति छ आवो मद धारण करता. पण आम भावन |भाषांतर यनसुत्रम् करवू नहि, कां छे के-गुणैरत्तमतां याति न तु जाति प्रभावतः ।। क्षीरोदधि समुत्पन्नः कालकूटः किमुत्तमः? ॥ गुणोबडे उत्तमता IBEअध्य०१२ पामे छे कंइ जातिप्रभावथी नहि. क्षीरसागरमाथी उत्पन्न थयेल कालकूट विष शुं उत्तम गणाशे?. किंच-कौशेयं कृमिजं सुवर्ण ॥६५७॥ ॥६५७|| मुपलाद् दुर्वापि गोरोमतः पंकात्तामरसं शशांक उदधेरिंदीवरं गोमयात् ।। काष्ठादग्निरहेः फणादपि मणिर्गोपित्ततो रोचना जाता लोकमहार्गतां निजगुणैः प्राप्ताश्च किं जन्मना? ॥२॥ रेशम कीडामांथी, सुवर्ण पाषाणमांधी, दुर्वा गायोना रुंबाडामांथी, पद्म काद| वमांथी, चंद्र समुद्रमांथी, इंदीवर छाणमांथी, अग्नि काष्ठमांथी, मणि सर्पफणामांथी, रोचना गायना पित्तमाथी उत्पन्न थयेल छे छतां पोताना गुणोने लीधे लोकमां महोटा मूल्यने पाम्यां छे तो पछी जन्मथी शुं यवानुं इतुं?. २ आवी परमार्थभावना न राखतो Je ते जातिना मदथी गर्वित बनेलो सोमदेव केटलोक काळ संयम पाळीने काळक्रमे मरण पामी देव थयो. त्यां दीर्घकाळ पर्यंत वांछित सुखोने भोगवी तदनंतर त्यांथी च्युत थइ गंगातीरे हरिकेशना अधिप बलकोष्ठ नामना चांडालनी भार्या गौरीना उदरथी | उत्पन्न थयो. ए गौरीए स्वप्नमां जेनापर पुष्कळ फळ आवेलां छे एवो आम्रवृक्ष स्वप्नमां दीठो तेथी तेणीये स्वप्नपाठकोनी पांसे | | जइ स्वप्ननी वात करी त्यारे तेओए कडं के-तारो पुत्र आ जगत्मा प्रधान पुरुष थशे. प्रसव समय आवतां बाळक जनम्यो, जातिमदना कारणथी एनी चांडाळ कुळमां उत्पत्ति थइ. ते बाळक सौभाग्यरूप हीन होवाने लीधे बांधवोनो पण हास्यापात्र बन्यो, | तेनुं 'बळ' एq नाम लोकमां प्रसिद्ध थयु, आ बालक उमर वधतां सर्वने क्लेश आपनार होवाथी सर्वने उद्वेग करनार बन्यो. अन्यदा वसंतोत्सवे प्राप्ते चांडालकुटुंबानि विविधखाद्यपानकरणाय पुराइ बहिमिलितानि संति, स बलनामा For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१२ ॥६५८॥ बालकः परयालैः समं क्लेशं कुर्वन् ज्ञातिवृद्धैर्निव्यूढः. दूरस्थः स विलासक्रीडापरान परयालान् पश्यति, परं मध्ये उत्तराध्य-DE समायातुं न शक्नोति. तस्मिन्नवसरे तत्र सर्पो निर्गतः, सविष इति कृत्वा चांडालैर्मारितः, पुनस्तत्र प्रलंबमलशिकं यनसूत्रम् निर्गतं, निषिमिति कृत्वा तैन विनाशितं. तादृशमारणं दृष्ट्वा तेन बलबालेन चिंतितं, निजेनैव दोषेण प्राणिनः परा॥६५८॥ भवं सर्वत्र प्राप्नुवंति. यद्यहं सर्पसदृशः सविषस्तदा पराभवपदं प्राप्तः, यद्यलसिकवनिरपराधोऽभविव्यं, तदा न मे कश्चित्पराभवोऽभविग्यदिति सम्यग्भावयतस्य जातिस्मरणमुत्पन्नं, विमानवाससुखं स्मृतिमार्गमागतं, जातिमदविपा| कोऽपि ज्ञातः, संवेगमागतेन तेन दीक्षा गृहीता. एक समये वसंतोत्सव प्राप्त थतां चांडाळोनां कुटुंबो विविध खानपान करवा नगरथी बहार भेळा मळ्यां त्यां त बळ नामना | वाळकने बीजा बाळ को साथे क्लेश करतो जोड़ नातना वृद्धोए काढी मेल्यो. दूर रह्यो रह्यो ते क्रीडाविलास करता बीजा बाळकोने जुए छे पण ए बाळकोना मध्यमां क्रीडा करवा आवी शकतो नथी तेटलीवारमा त्यांची एक सर्प नीकल्यो. झेरी साप जाणी चांडा| कोए तेने मारी नाख्यो. त्यारपछी त्यां एक अति लांब अणशियुं नीकल्यु. आमां झेर नथी एम समजी तेने मायु नहि. आयु BEI मरण जोइ ए बळ बाळके विचार्यु के-सर्वत्र माणिओ पोतानाज दोपथी पराभव पामे छे. जो हुं सर्पसदृश झेर युक्त थाउं तो पराभव पाम पण जो अणशिया जेबो निरपराध होत तो मारो कोइ पण पराभव न करत; आम मनमां भावन करतां तेने जातिस्मरण उत्पन्न थर्य पूर्वजन्मनो वृत्तांत बधो स्मरण थयो. विमानमां निवास करवानुं सुख स्मरणमागे चडी आव्यु, जाति मदनो पण विपाक जाणवामा आव्यो. संवेग आवतां तेणे दीक्षा ग्रहण करी. For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महस्थितमिमं मुनि सेवा प्राधुर्णकः समागतः, ते गात. तद्गुणावर्जितश्च यक्षED उत्तराध्यस हरिकेशीयलः शुद्धक्रियां पालयत षष्टाष्टमदशमद्वादशमासार्धमासादितपस्तपन क्रमेण विहारं कुर्वन बारा-IRE भाषांतर यनसूत्रम् णसी नगरी प्राप्तः, तत्र तिंदुकवने मंडिकयक्षप्रासादे स्थितो मासक्षपणादितपः करोति. तद्गुणावर्जितश्च यक्षस्तं अध्य०१२ महर्षि निरंतर सेवते. अन्यदा तत्र वने एकोऽपरो यक्षः प्राघूर्णकः समागतः, तेन मंडिकयक्षस्य पृष्ठं कथं त्वं मद्वने ॥६५९॥ DE सांप्रतं नायासि? तेनोक्तमहमिहस्थितमिमं मुनि सेवे. एतद्गुणावर्जितश्चान्यत्र गंतुं नोत्सहे. सोऽप्यागंतुको यक्षस्त-08 ॥६५९॥ द्गुणावजितो बभूव. ए हरिकेशीबल, शुद्धक्रिया पाळोने छठ, अठम, दश, बार, अर्धमासा, मास; इत्यादि तपश्चर्या करी क्रमे विहार करतो वाराणसी नगरीमा पहोंच्यो. त्यां तिदुक वनमां मंडिक यक्षना प्रासादमां स्थिति करी मासक्षपणादिक तपः करतो तेना गुणोथी प्रसन्न थयेलो यक्ष ते महर्षिनी नित्य सेवा करतो, तेवामां ते तिंदुक बनमा एक बीजो यक्ष महेमान थइने आधी चडयो, तेणे | मंडिक यक्षने पूछयु-'केम हमणां तमे मारा वनमां आवता नधी?; मंडिके कां-'हुँ अहिं रहेला आ मुनिनी सेवा करुं छु, एना | गुणोथी प्रसन्न चनी अन्य स्थाने जवाने इच्छताज नथी. आ उपरथी ते आगंतुक यक्ष पण तेना गुणोथी वश थइ गयो. आगंतुकयक्षेण मंडिकयक्षस्योक्तं एतादृशा मुनयो महनेऽपि संति, तत्र गत्वा अद्य तान सेवामहे, इत्युक्त्वा | द्वावपि तो तत्र गतो. विकथादिप्रमादपरास्ते तत्र ताभ्यां दृष्टाः, तेभ्यो विरक्तौ तौ यक्षौ पश्चात्तत्रागत्य हरिकेशोयलं महामुनि प्रणमतः, प्रत्यहं सेवैतेस्म. अन्यदा तत्र यक्षायतने वाराणसीपतिकौशलिकराजपुत्री भद्रानानी नानाविधपरिजनानुगता पूजासामग्री कृत्या गृहीत्वा समायाता. यक्षप्रतिमां पूजयित्वा प्रदक्षिणां कुर्वती मलक्लिन्नवस्त्रगानं For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६६०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुस्सहतपःकरणकृशं कुरूपं तं महामुनिं दृष्ट्वा वृत्कृतं निससर्ज. आगंतुक यक्षे मंडिक यक्षने कथं के- 'आना जेवा मुनिओ मारा वनमां पण छे; त्यां जइने आजे ते ओनी सेवा करीए; आम बोलीने ते बेय यक्षो त्यां गया. व्यर्थ कथा आदिक प्रमाद परायण तेओने जोया तेथी ते मुनिओथी ए बन्ने यक्षोए विरक्त पड़ने पाछा मंडिकयक्षना वनमां आवी महामुनि हरिकेशीबलने प्रणाम कर्या; अने प्रतिदिन सेवा करवा लाग्या. एक समये ते यक्षना स्थानमा एक भद्रा नामनी वाराणसीपति कौशलिक राजानी पुत्री नाना प्रकारनी पूजा सामग्री सज्ज करी साथ लड़ पोतानी दासीओ सहित आवी, तेणे यक्षप्रतिमानी पूजा करीने प्रदक्षिणा करतां मेलां गंदा वत्र जेना अंगपर छे तथा दुःसह तपश्चर्याने लीवे जेनुं शरीर कृश तथा कुरूप लागे छे तेवा ते महामुनिने जोइ थू की. यक्षेण चिंतितं इयं महामुनिं तिरस्कुरुते, अतो मया शिक्षणीयेति, अधिष्टिता तेन यक्षेण, असमंजसं प्रलपती दासीभिरुत्पाटय राजगृहं नीता, राज्ञा मांत्रिका वैद्याश्वाकारिताः, तैश्चिकित्सायां कृतायामपि न तस्याः कश्चिदिशेषो जातः अथ तस्या मुखे संक्रांतो यक्षः स्पष्टमेवमाह-अनया मदायतनस्थितो महानुभावः संयमी निंदितः, यदीयं तस्य संयमिनः पाणिग्रहणं कुरुते तदा मयास्या वपुर्मुच्यते, नान्यथेति चिंतितं राज्ञा ऋषिपत्नी भूत्वापीयं जीवत्विति प्रतिपन्नं यक्षवचनं राज्ञा सा स्वस्थशरीरा जाता, सर्वालंकारभूषिता गृहीतविवाहोपकरणा महाविभूत्या यक्षायतने गता, तस्य महर्षेः पादौ प्रणम्य एवं विज्ञप्तिं चकार. यक्षना मनमा लाग्युं के 'आ राजकुमारी महामुनीनो तिरस्कार करे छे, माटे मारे तेने शिक्षा देवी' एम विचारी यक्षे For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१२ ॥६६०॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit JE lad] राजकुमारीना शरीरमा आवेश कर्यो; तेज क्षणे मोडेथी जेम तेम प्रलाप करती ते कुंवरीने दासीओए उपाडीने राजगृहमां पहोंचाडो. पुत्सराध्यपनसूत्रम् राजाए वैद्योने तथा मंत्र जाणनाराओने बोलाव्या तेओए अनेक उपायो कर्या तेथी कशो फेर न पडयो. आ वख्ते ते राजकन्यामा IS भाषांतर पेठेलो यक्ष राजकन्याना मुखे स्पष्ट बोल्यो के-'आ कन्याए मारा स्थानमा रहेला महानुभाव संयमीनी निंदा करी हे, जो आ|Dt INC अध्य०१२ ॥६६१॥ E| ते संयमीन पाणिगृहण करे तो हुँ एना शरीरमांथी नीकळी जाउं अन्यथा नहिं छोई.' राजाना मनमा थयु के ऋपिपत्नी थइने || ॥६६॥ पण आ जीवती तो रहेशे; आम विचारी यक्षना वचननो अंगीकार कर्यो, तेज क्षणे राजकन्या स्वस्थशरीरवाळी थइ गइ. राजा | कन्याने सर्व अलंकार वस्त्रादिकथी विभूपित करीने विवाहनां साधनो साथे लइ यक्षने स्थाने मोकली अने ते कन्याए मह|पिने पगे पडी विज्ञप्ति करी के| हे महर्षे त्वं मत्करं करेण गृहाण ? मुनिना भणितं भद्रे ! बुद्धजननिदितयानया संकथयालं. अपि च ये | साधव एकस्यां वसतौ स्त्रीभिः समं वासमपि नेच्छंति, ते सांप्रतं करं करेण कथं गृहंति ? सिद्विवधूबद्धरागाः साधवः कथम शुचिपूर्णासु युवती रज्यंते ? अथ तेन यक्षेण तस्य महर्षेः शरीरं प्रच्छाद्य तत्सदृशं भिन्नरूपं विकुळ तस्याः करं करेण जगृहे. । 'हे महर्षेः तमें मारो हाथ आपना हाथथी गृहण करो? मुनिए कबु-'भद्रे! बुद्ध जनोए निदित आवी वात बंध कर= म बोल. JE जो ! जे साधुओ एक स्थानमा स्त्रीभोनी साथे रहेवाने पण इच्छे नहिं तेओ आटाणे पोताने हाथे हाथ केम गृहण करे? सिद्धिरूपी Pel वधूमां जेओनो राग बंधायो छे एवा साधुओ अशुचि पदार्थोथी भरेली एवी युवतिओमां केम आसक्त थाय? पछी ते यक्षे ए मह 光罷罷罷罷罷罷罷罷罷罷罷 For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१२ ॥६६२ पिना शरीरने आवृत करी तेना जे भिन्नरूप करीने ते राजकन्या पाणिग्रहण कयु. उत्तराध्य | एकरात्रि यावद्रक्षिता, प्रभाते यक्षा दरोभूतः, स्वाभाविकरूपो यतिस्तानाह, भद्रे ! अहं संयमी नैव स्त्रीस्पर्श यनसूत्रम् विधा शुध्ध्या करोमि, न मया त्वत्करः करेण गृहीतः, किंतु मक्तेन यक्षेणैव त्वं विडंविता, स च सांप्रतं दूरे गतः, ॥६६२॥ मत्तस्त्वं दूरे भव ? महर्षिणेत्युक्ता सा प्रभाते सर्व स्वप्नमिव मन्यमाना भृशं विखिन्ना राज्ञो गृहे गता, सर्व तत्स्वरूपं राज्ञ आचख्यो. तदानीं राज्ञः पुर उपविष्टेन रुद्रदेवपुरोहितेनोक्तं, राजन्नियं ऋषिपत्नी, तेन मुक्ता ब्राह्मणाय दीयते, | ततो राज्ञा सा तस्येव दत्ता. एक रात्री राखी प्रभाते यक्ष नोकळी गयो. स्वाभाविकरूपवाळा यतिए तेणीने कह्यु.-'हे भद्रे! हुं संयमा स्त्री स्पर्श पण न करु. में तारो हाथ झाल्यो नथी किंतु मारा भक्त यक्षे तने छेतरी अने ते यक्षतो हवे दूर जतो रह्यो. तुं माराथी छेटे जती रहे. महर्षिए आम कह्यु त्यारे ते राजपुत्री सवारे वधुं स्वप्नतुल्य मनमां मानती खिन्नमनी राजगृहमा आवीने बधो वृत्तांत राजा Jtआगळ कही देखाइयो. आ वख्ते पांसे बेठेला रुद्रदेवनामना पुरोहिते का के-'हे राजन्! आ ऋषिपत्नी थइ, हवे तेणे मूकी | दीधी तो ब्राह्मणने दइ देवाय.' त्यारे राजाये ए पुरोहितनेज पुत्री आपी दीधी. | पुरोहितोऽपि तयासह विषयसुखमनुभवन् कियंत कालं निनाय. अन्यदा तस्या यज्ञपत्नीत्वकरणाथै यज्ञस्तेन कर्तुमारब्धः, तत्र यज्ञमंडपे देशांतरेभ्योऽनेकभवाः समायाताः, तदर्थ भोजनसामग्री तत्र प्रगुणीकृता. अस्मिन्नवसरे तत्र स महर्षिर्मासोपवासपारणके गोचो भ्रमन् यक्षमंडपे समायातः, इत्यादि कथानकं हरिकेशीयलस्योक्तं, शेषकथानक For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेने धारण करनार.१ उत्तराध्य-1BE भाषांतर यनसूत्रम् इरिएमण भासाए । उच्चारसमिईसु य ।। जओ आधाणनिक्खेवे । सर्जओ सुसमाहिओ ॥२॥ अध्य०१२ (इरिएसणभासाए उच्चारेसमिइसु) इ, एषणा, भाषा अने उच्चार समितिने विषे [अ] तथा (आयाणनिक्खेवे) आ दान ग्रहण कर॥६६४॥ बाने विषे (जओ) यतनाबाळा तथा (संजओ) संयमयुक्त [सुसमाहिओ] समाधिचत एवा ते मुनि हता ॥२॥ ॥६६४॥ ८) व्या०-पुनः कथंभूतो हरिकेशीवलो मुनिः? ईर्यैषणाभाषोचारसमितिषु जओ इति यतो यत्नवान्. ईर्या च एषणा च | भाषा च उच्चारश्च ईर्थेषणाभाषोचारास्तेषां समितयः सम्यव्यवहारा इषणाभाषोच्चारसमितयस्तास्तु ईरणं ईयां गम-BE | नागमनं, तस्य समिती गमनागमनव्यवहारे यत्नवान्. एषणमेषणा आहारग्रहणं, तत्र समितिरेषणासमितिस्तत्र यत्नवान्. एवं भाषासमिती भापाव्यवहारे यत्नवान. 'भासाए' इत्यत्र एकार आषत्वात् तिष्टति. उचाररसमितौ मूत्र| पुरीषादिपरिष्टापन विधौ यत्नवान, पुनः कोदशो हरिकेशीयलः साधुः? आदान निक्षेपे वस्त्रापात्राापकरणग्रहणमोJEचने सं सम्यक्प्रकारेण यतः संयतः संयमी. पुनः कीदृशः? सुतरामतिशयेन समाधितः समाधिसहितः, चित्तस्थैर्यस|हित इत्यर्थः. पंचसमितियुक्तः स साधुरस्ती यर्थः ॥ २ ॥ पुनः ते हरिकेशबळ केवो हतो? इर्या एपणा भाषा तथा उच्चार, इत्यादिकनी समिति सम्यकव्यवहारमा यत=ध्यान राखनार इर्या=जवू आवद्यु, तेनी समितिमां, अर्थात् गमनागमन व्यवहारमा सर्वदा यत्नवान् रहेतो तथा एपणा=आहार ग्रहण समितिमां पण | यत्नवान्, एवीजरीते भाषासमिति=भाषण व्यवहारमा पण यत्नवान, वळी उच्चार=मूत्र पुरीपादिकना परिस्थापन व्यवहारमा पण For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AF उत्तराध्य-10 | मत्रादेवावसेयं भाषांतर यनसूत्रम् पुरोहित पण तेणीनी साथे सुखानुभव करतो केटलोक काळ गाळ्यो. एक वरुते तेने यज्ञपत्नी करवा माटे पुरोहिते यज्ञ अध्य०१२ ॥६६॥ आदर्यो, ते यज्ञमंडपमा देशांतरथी अनेक भट्ट आव्या, तेओने माटे भोजन सामग्री त्यां एकठी करी. आ अवसरे त्यां पेला महर्षि |R ॥६६३। एक मासना उपवासने अंते पारणा करवा गोचरीमा फरता ते यज्ञमंडपमा आवी चढया. अहीं सुधीनी हरिकेशीवळनी कथा कही | ८ | हवे बाकीनी कथा मूत्र उपरथीज जाणवानी छे. सोबागकुलसंभूओ । गुणत्तयधरो मुगी ॥ हरिऐसयलो नाम आसी भिक्खू जिइंदिर ॥१॥ | (सोवागकुल संभूओ) चांडालवंशमा उत्पन्न थयेलो (गुणत्तरधरो) छतां गुणिष्ट [मुणी] जिनाज्ञा पालक तथा (जीइ दिओ) जितेDell न्द्रिय एवा [हरिएसबलो नाम] हरिकेशबळ नामना भिक्खू साधु [आसि] हता. __स हरिकेशवलो नाम प्रसिद्धो भिक्षुरासीत्. कीदृशः स साधुः? जितंद्रियः, जितानि इंद्रियाणि येन स जितदियो विषयजेता. पुनः कीदृशः? श्वपाककुलसंभूतः, श्वपाकश्चांडालस्तस्य कुले संभूतः, पुनः कीदृशः? मुनिर्मन्यते जिनाज्ञामिति मुनिर्जिनाज्ञापालक इत्यर्थः. पुनः कीदृशः? गुणत्रयधरः, गुणत्रयं ज्ञानदर्शनचारित्राख्यं धरतीति गुणत्रयधरः ॥१॥ t ते हरिकेशबळ नामे प्रसिद्ध भिक्षु थया. केवा ते साधु? जितेल छे इन्द्रियो जेणे एवा=विषय जेना, पुनः केवा? श्वपाककुल | संभूत चांडाळकुळमां संभूत उत्पन्न थयेला तथा मुनि-जिनाज्ञाने माननारा, अने गुणत्रयधर गुणत्रय=ज्ञानदर्शनचारित्रनामक रत्नत्रय, For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६६५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | यत्नवान् वळी आदान= वस्त्र पात्र आदिक उपकरणोतुं ग्रहण तथा निक्षेप=र बखादिकने मूकवा वगैरे व्यवहारमां संयत = संयमवान, |तथा सुसमाहित=अत्यंत समाहित स्थिरचित्तवाळो, पंच समितियुक्त ते साधु हतो. २ मणगुलो बगुलो। कायगुत्तो जिइंदिओ ॥ भिक्खिा वंभजमि । जन्नबीडबडिओ ॥ ३ ॥ तथा [मणगुत्तो] मनोगुप्तिवाळा तथा [कायगुत्तो] कायगुप्तियाळा [जीइदिओ] जितेंद्रिय एवा ते मुनि (भिखट्टा) भिक्षाने माटे (भजम्मि) ब्रह्मपूजन करवामां आवे छे एवा [जनवाड'] यज्ञना पाडामां [उवडिओ ] प्राप्त थया. ३ व्या० - पुनः कीदृश: ? मनोगुप्त्या गुप्तो मनोगुप्तः, पुनर्वचनगुप्त्या गुप्तो वचोगुप्नः पुनः कायगुप्त्या गुप्तः कायगुप्तः इत्यत्र सर्वत्र मध्यपदलोरी मनामः पुनर्जितेंद्रियः, एतादृशो हरिकेशवलः साधुभिक्षार्थ ब्राह्मणानां ईज्या ब्राह्मणेज्या, तस्यां ब्राह्मणयजराठके उपस्थितः यत्र ब्राह्मणा यज्ञं कुर्वेति तत्र यज्ञपाटकांतिके प्राप्तः ॥ ३ ॥ मनोविडे गुप्त, वचनगुप्तिवढे गुप्त, तथा कायगुप्तिवडे गुप्त; अहीं सर्वत्र मध्यमपदलोपी समास समजवो. वळी ते जितेंद्रिय एवो हरिकेशवळ साधु भिक्षा अर्थे ब्राह्मणोनी ज्यां इज्या थती हती तेवा यज्ञवाट=स्थाने आव्यो=ज्यां ब्राह्मणो यज्ञ करता हता त्यां यज्ञ| वाट=यज्ञप्रदेशमां आवी उभो. ३ तं पासिणमेज्जतं । तत्रेण परिसोसियें || पंतोबहिओपगरणं । उवहसंति अगारिया ॥ ४ ॥ (तवेण) नप वडे (परिसोसिभं) कृश थयेला, [पंतोषहिउवगरण] औपग्रहिक जेनी पासे छे एवा (तं) ते मुनिने (रजत) आवता (पासिउण) जोहने [ अणारिआ] अनार्यो [ उपहसति] हसवा लाग्या. ४ For Private and Personal Use Only 毛毛時光華 भाषांतर अध्य०१२ ।। ६६५।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१२ ॥६६६॥ व्या-तं हरिकेशबलं साधु एज्जंतं आयांतं पासिऊण दृष्ट्वा अनार्या दुष्टा ब्राह्मणा उपहसंति, उपहासं कुर्वति. | उत्तराध्य कीदृशं तं? तपसा दुर्थलीकृतं, पुनः कीदृशं त? प्रांतोपध्युपकर गं जीर्णवस्त्रोपधिधारक, प्रांत जीर्ण मलिनत्वादिना यनसूत्रम् आसारं उपधिर्व कल्पादिः, स एव उपकरणं धर्मोपष्टंभहेतुरस्येति प्रांतोपध्युपकरणस्तं प्रांतोपध्युपकरणं. ॥४॥ ॥६६६|| ते हरि के शबळ साधुने आवता जोइने ते अनार्य दुष्ट ब्राह्मणा उपहास करवा लाग्या. केवा ते मुनि? तपें करी कृश थयेला तथा प्रांत=जीर्ण-मलिनताने लीधे असार उपधि-वर्षाकल्पादि, एज छे उपकरण धर्मोपष्टंभक हेतु जेने एवा. ४ जाईमयपडित्थद्धा । हिंसगा अजिइंदिया । अबभचारिणो बाला । इमं वयंणमवैवी ॥५॥ JE] [जाइमयपडित्थद्धा] जातिमदथी गर्वित थयेला तथा [हिंसगा] हिंसक तथा (अजिइंदिआ) इंद्रिओने वश नहि राखनारा तेथी (अबभचारिणा) ब्रह्मचर्य नहिं सेवनारा ते (बाला] अज्ञानीओ (इम वयण) आ प्रमाणे वचन (अब्बबी) बोल्या: ५ व्या०-ते ब्राह्मणा याला विवेकविकला इदं वचनमब्रुवन्. कीदृशास्ते? जातिमदप्रतिस्तब्धाः, जातिमदेन ब्राह्मपयुद्भवत्वेन यो मदोऽहंकारस्तेन प्रतिस्तब्धा अनन्ना जातिमदप्रतिस्तब्धाः, पुनः कीदृशाः? हिंस्रका जीवहिंसाकरणशीला:. पुनः कीदृशाः? अजितेंद्रिया विषयासकाः, पुनः कोदृशाः? अब्रह्मचारिणो मैथुनाभिलाषिणः, अब्रह्मणि कामसेवायां चरंति रमते इति अब्रह्म वारिणः कुशाला इत्यर्थः ॥ ५॥ ते ब्राह्मणाः किमब्रुवन्नित्याह ते ब्रह्मणो बाल= विवेक हीन आq वचन बोल्या. केवा. ते ब्राह्मणो? जातिना मदथी अर्थात् अमे ब्राह्मणीमां जन्मेला छइये | एम मनमा धारीने मद-गर्व आववाथी प्रतिस्तब्ध अक्कड अनम्र रहेनारा, वळी हिंस्रक जीवहिंसा करनारा तथा अजितेंद्रिय For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassaqarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६६७|| | विषयासक्त, अने अब्रह्मचारी मैथुनाभिलाषी; अथवा अब्रह्म कामसेवा-मांज रमनारा.५ केयरे आगच्छइ दित्तरूए । कोले विकराले पोकनासे । ओमेचेले पंसुपिसायभूए संकरसं परिहरिय कंठे ॥६॥ भाषांतर [दित्तरूवे जीभत्सरूपवाळो तथा [काले] श्याम [विकराळे] विकराळ तथा (पोकनासे) चीयो तथा [ओमचेलप] अव्यवस्थित JE अध्य०१२ वस्त्रवाळो (पंसुपिसायभूए) धूलिथी खरडायलो-भूत तेवो [सकरदूस] सकर दूष्यने (कटे) काठमा [परिहरित] पहेरीने (कयरे) ॥६६७॥ कोण [आगच्छइ आवे छे! ६ व्या०-कतरः कोऽयमागच्छति? अतिशयेन क इति कतरः, एकारः प्राकृतत्वात् , परमयं कीदृशः? दीप्तरूपी बीभत्सरूपो दीप्तवचनं बोभत्सार्थवाचकं. पुनः कीदृशः कालः कालवर्णः, पुनः कीदृग? विकरालो विकृतांगोपांगधरः, | लंयोष्टदंतुरत्वादिविकारयुक्तः, पुनः कीदृशः? पोकनाशः, पोका अग्रे स्थूलोन्नता मध्ये निम्ना चिप्पट्टा नासा यस्य स पोक्कनाशः, पुनः कीदृग? अचमचेलः, अवमान्यसाराणि चेलानि वस्त्राणि यस्य सोऽवमचेलः, मलाविलत्वेन जीर्ण| स्वेन त्याज्यप्रायवस्त्रधारीत्यर्थः. पुनः कीदृशः? पांशुपिशाचभूतः, पांशुना रजसा पिशाचभूतः पांशुपिशाचभूतः, धल्या | व्याप्सावगुंठितशरीरत्वेन मलिनवस्त्रत्वेन भूततुल्य इत्यर्थः एतादृशः कोऽयं शकरदृष्यं कंठे परिवृत्य अबागच्छति? | समीपे आगतं दृष्ट्वा एवमूचुरित्यर्थः, शंकर उत्करटकस्तत्रस्थं दुष्यं वस्त्रं शंकरदृष्यं. यद्यपि तस्य साधोवस्त्रमुत्करटकस्य | नास्ति, तथापि तेषामत्यतघृणोत्पादकत्वेन तरुक्तं, कोऽयमुत्करटकस्य वस्त्रं कंठे परिधृत्य पिशाचसदृशो भ्रमन्नत्रागच्छति? स हि हरिकेशीसाधुः कुत्रापि आत्मीयमुपकरणं न मुंचति, सर्व वस्त्रोपच्युपकरणादिकं गृहीत्वैव भिक्षाद्यर्थ 美美美美泥北北北我我我我我 For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ्रमतीति भावः ॥ ६॥ इसराध्यCERI आ कोण आवे छे? 'आ ते कोण? एवा अर्थमा कतर शब्द वापों छे. प्राकत होवाथी छेडे पकार थयो . आ केसो ? ||21| मापातर दीप्तरूप-बीभत्सरूपवाळो; अत्रे दीप्तवचन बीभत्स अर्धन वाचक छे, फरी ते केवो? काल-शरीरे काळो तथा विकराल=विकृत अंग | ad ॥६६८॥ उपांगवाळो=(लांबा होठ, दांत बहार नीकळेला, इत्यादि विकार युक्त), पोकनास एटले आगळथी उंचुं तथा वचमां बेठेल-चपटुं ॥६६८॥ जेनुं नाक छे तेवो; तथा अवम जुनां फाटल वस्त्रवाळो, मेला तथा जुना होवाथी नाखीदेवा योग्य वस्त्रोने धरतो, तेमज पांसुपि|शाच भूत-धूळ्थी आखु शरीर खरडायेलु होवाथी पिशाच जेबो लागतो, एवो आ कोण-संकर दृष्य उकरडा उपर कोइए नाखी दीधेलं होय तेवू वस्त्र कंठे पहेरीने पिशाच सदृश भमतो आ कोण अत्रे आवे छे? जोके साधुनुं वस्त्र कयु. हरिकेशी साधु पण पातानुं उपकरण मुकतो नथी किंतु सघल्लु वस्त्रोपकरणादिक साथे लइनेज भिक्षा वगेरेने माटे भमे छे-एपो भावार्थ मूचव्यो छे.६ कयरे तुमैं इये अदसणिजो । का एवं आसा इहमागतोसि ॥ ओमचेलगी पंसुपिमायभूया । गच्छ खलाहि किमि ठिओसि ॥७॥ (इ) आ प्रमाणे (अदसणिज्जे) आंखने गमे नहिं तेवो [तुम] [कयरे] कोण छे? (काएव) कइ [आसा आशाथी (इदमागओसि) आ यज्ञमां आव्यो छे? [ओमचेलगा] गदा यखादित [पंसुपिसायभूए] भूत जेवा साधु (गच्छ) अहीं थी जा. (खलादि) मोदन 150 देखाउ! (किमिह) केम अहीं (ट्रिओसि) उभो रह्यो छे. ७ व्या०-पुनस्ते किमूचुरित्याह-रे इति नीचामंत्रणे, अवमचेलकः सटितस्फटितवस्त्रधारी धूलीधूसरभूतकल्पस्त्व For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ।।६६९ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | कोऽसि ? कया आशया इह यज्ञपाटके आगतोऽसि ? 'का एव आसा' इति प्राकृतत्वात् मकारोऽपि लाक्षणिकः कीदृशस्त्वं ? 'इथ अदंसणिज्जे' अनेन मलिनवस्त्रादिधारणेन अदर्शनीयः, दृष्टुमयोग्यः, त्वदर्शनादेवास्माकं धर्मो विलीयते. अब गाथायां 'ओमचेलगा पंसुपिसावभूया' इति पुनरुक्तिरत्यंतनिर्भर्त्सनाथ, रे भूतप्राय! गच्छ इतो यज्ञस्थानाद व्रज? 'क्लाहित्ति' देशीयभाषया अपसर दूरं दृष्टमार्गात् किमिह स्थितोऽसि ? त्वया सर्वाच न स्थातव्यमित्यर्थः. तैर्ब्राह्मणैरित्युक्ते सति स साधुस्तु किमपि न अबादीत् तदा तद्भक्तस्य यक्षस्य कृत्यमाह ||७|| पुनः तेओ शु बोल्या- 'रे' (ए नीचामन्त्र छे.) सडेल फाटेल वस्त्रोवाळा तथा धूळे भर्यो होवाथी पिशाच भूत जेवो जणातो तुं | कोण छो? कइ आशाए अहीं यक्षवाट आयो छो? आ मलिन वस्त्रादि धारणने लीये अदर्शनीय= सामुं जोवाने अयोग्य; तारा दर्शनथी अमारो धर्म विलय पागे छे. आ गाथामां पूर्वोक्त 'मलिनवख' वगेरे विशेषणो फरीथी कयां छे ते अत्यंत तिरस्कार अर्थ सूचवे छे. हे भूत तुल्य! जा आ यक्षस्थानथी 'खलाहि ' शब्द देशी भाषानो छे, जातो रहे, नजरथी आघो था, शा सारुं अहिं उभो छे.? सर्वथा तारे अहीं न उभवु आम ते ब्राह्मणो बोल्या त्यारे साधुतो कंइ न बोल्या पण तेनो भक्त यक्ष हतो ते बोल्यो. ७ जक्खो तेहि क्खिवासी । अणुकंपओ तैस्समहामुणिस्स || पच्छावत्ता नियंगे सरीरं । इमाई वयणाइमुदीहरित्थां ॥ ८ ॥ (तिद्दि) ते वखते [तिदु अरुक्खवासी] तिंदुकवृक्षाश्रित (जक्खो ) यक्ष [निअय ] पोताना ( तस्स मद्दामुणिस्स) ते महामुनिनो [ अणुकंपाओ] सेवक [जक्खो] यक्ष (निअय) पोताना ( सरीरं) शरीरने [ पिच्छायरता ] सताडीने (इमाई ) आ [वयणाई] वचनो For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१२ ।।६६९ ।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काले नियुकावासी पक्ष, माधुशारीरे प्रवेश करवाए, महान निकडनी भाषांतर अध्य०१२ ॥६७०॥ (उदाहरित्था) गोल्यो. ८ उत्तराध्य व्या-तस्मिन् काले तिदुकवृक्षवासी यक्ष इमानि वक्ष्यमाणानि वचनान्युदाहार्षीदवोचदित्यर्थः किं कृत्वा? यनसूत्रम् | निजकं शरीरं प्रच्छाद्य, स्वशरीरं प्रच्छन्नं विधाय, साधुशरीरे प्रवेशं कृत्वा, कथंभूतः स यक्षः तस्य मुनेरनुकंपकः, ॥६७०॥ अनुरूपं कंपते चेष्टते इत्यनुकंपकः. साधोः सेवक इत्यर्थः. तिंदुकवनमध्ये एको महान तिकदृक्षोऽस्ति, तस्य वृक्षस्याध | स्तस्य चैत्यमस्ति, तत्र साधुः कायोत्सर्गेण तिष्टति, तस्य साधोधर्मानुष्ठानं दृष्ट्वा गुणरागी सेवकः संजातोऽस्तीति DEभावः. स यक्ष इत्यवादीत् ॥ ८ ॥ | ते काळे तिदुकवृक्षवासी यक्ष आवां (हवे पछी कहेवामां आवशे ते) वचनो बोल्यो. केम करीने? पोतानुं शरीर छार्नु राखाने Tad अर्थात् साधु शरीरमा प्रवेश करीने; यक्ष केवो? ते मुनिनो अनुकंपक-अनुरूप चेष्टा करनारो-साधुनो सेवक-तिदुकवनमा एक | महोटा तिदुकानी नीचे ते यक्षनु चैत्य स्थान हतुं. त्यां साधु कायोत्सर्ग करी रहेता ते साधुनां धर्मानुष्ठान जोइने ए यक्ष साधुना| | गुणोथी अनुरागी थइ सेवक बन्यो; ए यक्ष बोल्यो ते कहे छे. ८ समणो अहं संजयो बंभयारी । विरओ अहं धणेपयणपरिग्गहाओ। परप्पवत्तस्स उ भिक्खकाले । अन्नस्स अट्टा इहमोगओमि ॥९॥ | (अह) हु [समणो] श्रमण-तपस्वी तथा हु (सजमो) संयत [भयारो] ब्रह्मचारी छु (धणपणपरिग्गहाओ विरओ) धन आदिक परिग्रहथी विरक्त [3] पुन: भिक्खकाले) भिक्षावसरे (परप्पवित्तस)परनो माटे पकावेलां [अन्नस्स अट्ठा] अन्न अर्थे [इहमागओम्हि। For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मा अहीं यश पाटकने विपे आव्यो छु.९ उत्तराध्यघनमन्त्रम व्या०-स यक्षः किमवोचत् ? तदाह-भो ब्राह्मणाः भवद्भिरुक्तं कोऽसि रे त्वं? तस्योत्सरं-अहं श्रमणोऽस्मि, भाषांतर श्राम्यति तपसि श्रमं करोतीति भ्रमणस्तपस्वी. पुनरहं संयतः सावधव्यापारेभ्यो निवर्तितः. पुनरहं ब्रह्मचारी, ब्रह्मणि 6 अध्य०१२ ॥६७१॥ IRE | भौगत्यागे चरति रमते इत्येवंशीलो ब्रह्मचारी. पुनरहं धनपचनपरिग्रहाद्विरतः, तत्र धनं गोमहिष्यश्वादिचतुःपद ॥६७११ः रूपं, पचनमाहारादिपाकः, परिग्रहो गणिमधरिममेय्यपरिच्छेद्यादिद्रव्यरूपः. कया आशया इहागतोऽसि? अस्योत्तर र भो ब्राह्मणाः! भिक्षाकाले भिक्षावसरेऽन्नस्यार्थायात्रागतोऽस्मि, कीदृशस्यान्नस्य? परप्रवृत्तस्य, परस्मै परार्थ प्रवृत्तं पक्कं परप्रवृत्तं, गृहस्थेनात्मार्थ राद्धं ॥ ९॥ Jll ते यक्ष शुं बोल्यो? ते कहे छे-हे ब्राह्मणो? तमे कह्यु-'तुं कोण छो?' तेनुं उत्तर-९ श्रमण छ तपमा श्रम ले छे ते श्रमण = | तपस्वी, वळी हुं संयत सदोष व्यापारथी निवृत्त छु, ब्रह्मचारी ब्रह्म एटले भोग त्याग, तेमां रमनारो छु; तेमज धन-गाय भम all घोडां वगेरे, पचन आहार पकाववो तथा परिग्रहगणिम, धरिम, मेय, परिछेद्य इत्यादि द्रव्य रूप; एनाथी विरत छु; 'कइ आशाये | अत्रे आव्यो छो?' एर्नु उत्तर-'हे ब्राह्मणो ! भिक्षा अवसरे अन्नने अर्थे अत्रे आव्या छ. केवा अन्नने माटे ? परप्रवृत्त परने माटे पकावेलां गृहस्थे पोता माटे रांधेलां. ९ वियरिजा खजइ भुजह य । अन्नं पभूयं भवयोणमेयं । जाणाहि म जाणजीवणु ति सेसावसेसं लहउ तवस्सी ॥ १०॥ For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [भवयाण'] तमार' [प] आ देखा (पभू) घणु [अन्म'] अन्न (विअरिजइ) अनाथने आपवामां आवे छे तथा [खजइ] बाजा उत्तराध्य- (भुजइ) तथा दाळ भात (मे)मने जायणजीविणो] भिक्षावडे आजीविका चलावनार [जाणहि] जाणो (त्ति] आ कारणथी [तवस्ती] भाषांतर यनसूत्रम् हु एक तपस्वी [सेसावसेस] वधेला आहारने [लहऊ पामु. १० अध्य०१२ ॥६७२॥ व्या०- अत्र 'भक्याण' इति भवतां एतत् समीपतरवर्ति अन्नं प्रभूतं, अद्यते इत्यन्नं भक्ष्यं प्रभूतं प्रचुरं विद्यते. | ॥६७२।। तदेव प्रचुरत्यं दय॑ते, 'वियरिज्जइ' इति वितीर्यते दीनहीनानाथेभ्यः सर्वेभ्यो पितीयते विशेषेण दीयते, पुन. खाद्यते ||JEII | खज्जकघृतपूरादिकं सशब्द भक्ष्यते, पुनर्भुज्यते संडुलमुद्गदाल्यादि सवृतमाकंठं अभ्यवहायते. इत्यनेन अत्र काचि | कस्यापि भक्ष्यवस्तुनी न्यूनता न दृश्यते. यूयं मे इति मा याचनजीविन जानीत? याचनेन भिक्षया जीविन जीवि२६तव्यं अस्येति याचनजीवी; तं, इति अस्मात्कारणात तपस्वी मल्लक्षणो मुनिरपि; अत्र शेषावशेष शेषादपि शेवं | शेषावशेषमुद्धरितं प्रतिप्रायमाहारं लभतां प्रामोतु, इत्यपि यूयं जानीत. कोऽर्थः? स मुनिरवादीत ; अत्र अन्नं यत्र तत्र परिष्टाप्यते, भवद्भिरेतादृशी बुद्धिः करणीया, अयं तपस्वी आहारार्थमागतोऽस्ति; अयमपि शेषावशेषमाहारं प्रामोतु, | | इति विचार्य मह्यं शुद्धमाहारं दीयतामिति दीयतामिति यक्षेणोक्ते सति ते ब्राह्यणाः किं प्राहुरित्याह ॥१०॥ तमारुं आ=पांसे पडेलु खावा योग्य पुष्कळ अन्न छे; (पुष्कळपणुं दर्शावे छे. दीन, हीन, अनाथ वगेरे सर्वेने अपाय छे; फरा | खाजा वगेरे खवाय छे तेमज दाळ भात आदिक घी नाखीने जमाय छे, अर्थात् अहीं कोइ जातनी न्यूनता नथी तो पछी याचन| जीवी याचन-भिक्षा उपर जीववावाळा मारा जेयो तपस्वी पण, शेषमाथी पण बलु प्रांत माय आहार भले पामे' एम जाणो. For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | भाषांतर ते मुनि एम बोल्या के-अत्रे अन्न तो ज्यां त्यां नखाय छे तो तमारे एवी बुद्धि राखवी के-आ तपस्वी आहार माटे आव्यो छे | उत्तराध्य-18 यनसूत्रम् | तो ए पण अवशेष आहार भले पामे-आम विचारीने मने शुद्ध आहार दीओ-एम यक्षे का त्यारे ते ब्राह्मणा शुं बोल्या ते कहे छे | अध्य०१२ उचक्खडं भोयणमाहणाणं । अत्तट्टियं सिद्धं इहे पपखं ॥ ॥६७३॥ AG६७३।। न उ यं एरिर्समरूपाय । दाहाभु तुम्भ किमिदं ठिओसि ॥ ११ ।। [माहणाण] ब्राह्मणोनु (अत्तद्विअ) पोताना माटेज थयेलु (उवक्खड) संस्कार करेलु (भाअण) भोजन (इइ) अहीं [सिद्धि] सिद्ध कर्यु छे ते (एगपक्ख) फक्त एक पक्ष माटे अर्थात् ब्राह्मणो माटे छे. (परिस) आवी जातनु (अशा पाण') अन्न पाणी (वय) अमे (तुभं) तने [न हु दाहामु] नहींज आपीए [किमिह] केम अहीं (ठिओ सि) तु उभो रह्यो छु. ११ ___व्या०-रे भिक्षो ! इहास्मिन् यज्ञपाटके भोजनं यदुपस्कृतं घृतहिंग्वाधान्यकमिरचलवणजीरकादिभिः कृतोपDell स्कारं शाकादि, पुनरिह सिद्धं चतुर्विधाहारं राद्धं वर्तते. एकः पक्षो ब्राह्मणो यस्य तत् एकपक्ष, एतदाहारं शूद्रेभ्यो न देयमस्ति, ब्राह्मणानां वर्तते, पुनरिदमाहारमार्थिकं, आत्मार्थे भवमात्मार्थिक, ब्राह्मणैरप्यात्मा नैव भोज्यं, न त्वन्यस्मै कस्मैचिद्देयमित्यर्थः. तु इति तेन हेतुना वयमेतादृशं ब्राह्मणभोज्यमनपानं तुभ्यं न दास्यामः. इह त्वं किं स्थितोऽसि? अस्माकं धर्मशास्त्र उक्तमस्ति-न शूद्राय मति दया-नोच्छिष्टं न हविःकृतं ॥ न चास्योपदिशेद्धर्म । न चास्य व्रतमादिशेत् ॥१॥ ११ ॥ तदा यक्षः पुनः पुनरवादीत् हे भिक्षु! अहीं आ यज्ञवाटमां जे भोजन घी, हींग, धाणा, मरिच, लवण, जीरे इत्यादिकथी वघारेल शाकादिक तथा सिद्ध For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राधेल चतुर्विध आहार वगेरे छे ते एक पक्ष=मात्र ब्राह्मणोनाज अर्थनुं छे. शूद्रोने न देवाय, तेवू ब्राह्मणतुं छे वळी आ आत्माउत्तराध्य-DE भाषांतर र्थिक ब्राह्मणोये पण पोतेज जमवानुं अन्यने कोइने देवाय नहिं तेवु छे ए कारणथी अमे ब्राह्मण भोज्य अन्नपान तने नहि आपी यनसूत्रम् P अध्य०१२ शकीए. अहीं तुं शा माटे उभो छे? अमारा धर्म शास्त्रोमां कडं छे के-'शूद्रोने आत्मज्ञान न आपq, हविष्यनुं शेष न देवू, तेने | ॥६७४॥ धर्मोपदेश न करवो तेम तेने कोइ व्रतादेश पण न करवो'. ११ त्यारे यक्ष फरीने बोल्यो के.-. ॥६७४॥ थलेसु बीयाई वति कासया । तहेवै निन्नेसु य आससाए ॥ एयाइ सद्धाइ दलाहि मॅज्ज्झ । आराहए पुण्णमिणं खु खेतं ॥ १२ ॥ (कासगा) खेडुतलोको (बीआई) धान्यबीजने (थलेसु) भूमिने विषे तेहेव तेमज (निन्नेसु अ) नीची भूमिने विषे [आससाए] आशाए करीने विपति वावे छे माटे [आइ आवा (सद्धाइ) श्राद्धवडे करीने (मज्झ) मने (दलाहि) आपो. (इण) आ-हुं [पुण्ण] पुन्य (खित्त) क्षेत्ररूप छु खु] अवश्य (आराहर) आराधो. १२ । व्या०-एतया अनया उपमया श्रद्धया भावनया मह्यं दध्वं? खु इति निश्चययेन इदं मल्लक्षणं पुण्यं शुभं क्षेत्रमाराधयत? एतया इति कया उपमया? तामुपमामाह-कर्षकाः क्षेत्रीकारका नरा आशंसया विचारणया काले वर्षा | काले स्थलेषु उच्चप्रदेशेषु, तथैव निम्नेषु निम्नभूमिप्रदेशेषु बीजानि वपंति. कोऽर्थः? वर्षाकाले क्षेत्रोकारका बीजं वपंत | | एवं चिंतयंति, यदि प्रचुरा वर्षा भविष्यंति, तदा स्थलेसु फलावाप्तिर्भविष्यति, यदि चाल्पा वर्षा भविष्यति, तदा | निम्नप्रदेशेषु फलावाप्तिभविष्यति. उभयत्रोच्चनीचप्रदेशेषु बीजं वपंति, न पुनरेकत्रैव बीजं वपंति. यदि यूयं ब्राह्मणा For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६७५॥ निम्नभूमिसदृशास्तदाहं स्थलभूमिसदृशो गण्यः मह्यमपि दातव्यं, न केवलं यूयमेव क्षेत्रप्रायाः, किंत्वहमपि पुण्यक्षेत्रमस्मीति भावः ॥ १२ ॥ इति श्रुत्वा ते ब्राह्मणास्तं प्रत्यूचुस्तदाह JE भाषांतर TAG अध्य०१२ आ उपमा-श्रद्धाभावना राखी मने दीपो. ते उपमा कहे छे-कर्षक-खेती करनार नरो आशंसा धारणाथी काले वर्षासमये EJ स्थळ उंचा प्रदेशोमां तथा निम्न=नीचा भूमिपदेशोमां पण बीजो वावे छे. प्रयोजन शुं? वर्षाकाले खेडुत बीज वावतां एम विचारे छे | Jell के जो पुष्कळ वृष्टि थशे तो स्थलभूमिमां फळ प्राप्ति थशे, कदि अल्प वृष्टि थइ तो नीची भूमिमां फळ माप्ति थशे आम धारी उंचा | नीचा बन्ने प्रदेशोमां बीज वावे छे. हवे तमे जो निम्न भूमिसमान हो तो मने स्थल प्रदेश जेवो गणीने कंइक देवू जोइए. कंड तेमज एकला क्षेत्र तुल्य छो एम नथी किंतु हुँ पण पुण्य क्षेत्र छं. १२ आ वचन सांभळी ब्राह्मणो तेना प्रति बोल्या ते कहे छे. खेत्ताणि अम्हं विहयाणि लोए । जेहिं पकिणी विरुहंति पुण्णा ॥ जे माहेणा जाइविजोववेया । ताई सुखित्ताइ सुपेसैलाइ ॥ १३ ॥ | [अम्ह'] अमो (लोए) लोकोने (खेत्ताणि) क्षेत्रा [वइआणि] जाणेला छे [जहिं] जे क्षेत्रोमां [पकिण्णा] वावेलां बीज [पुण्णा] परिपूर्ण | | (विषहति) उगे छे. कारणके (जे माहणा) जे ब्राह्मणो (जाइविजोववेआ) चतुर्दशविद्या संपन्न छे [ताई] तेओज सुपेसलाई] | उत्तम (खित्ताई) क्षेत्र छे. १३ व्या०-अरे पाखडपाश तानि क्षेत्राण्यस्माभिनिदितानि वर्तते इति अध्याहारः. जहिमित्यत्र क्षेत्रेषु प्रकीर्णान्यु-| | सानि बीजानि प्रदत्तानि दानानि पूर्णानि विरुहंति विशेषेणोद्गच्छंति, फलदानि भवंति, विभक्तिलिंगव्यत्ययस्तु प्राकृ For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यनसूत्रम् 3] तत्वात. ये ब्राह्मणा जातिविद्योपपेतास्ते तु ब्राह्मणाः,सुतरानतिशयेन पेशलानि मनोहराणि क्षेत्राणि ज्ञेशानि. तत्र | J0 उत्तराध्य-BE जातिाह्मणत्वं, विद्या वेदाध्ययनं, जातिश्च विद्या च जातिविद्ये, ताभ्यामुपपेताः सहिता जातिविद्योपपेताः. 'उपअ भाषांतर अध्य०१२ पइताः' इत्यत्र शकंध्वादिषु पररूपमिलनेनोपशब्दस्याकारलोपे पश्चाद्गुणेन सिद्धिः, यदुक्तं-सममश्रोत्रियदानं । ॥६७६॥ द्विगुणं ब्राह्मणं वे ॥ समस्त्रगुणमाचार्य । अनंतं वेदपारगे॥ १ ॥ इत्युक्तत्वाद्वेदपारगा ब्राह्मणाः पुण्यक्षेत्राणि. ॥१३॥ अथ यक्षः प्राहJI अरे पाखंड पाश! ते क्षेत्रों अमे जाणेला ; जे क्षेत्रामा प्रकीर्ण-चावेलां बीज (दीधेलां दान) पूर्ण रीते उगे छे-फळदेनारा BET नीवडे छे. (माकृत होवाथी विभक्ति तथा लिंगनो व्यत्यय थाय छे.) जे ब्राह्मणो जाति ब्राह्मण कुळमां जन्म तथा विद्या वेदाध्ययन आ बन्नेवडे सदित हो, (उप अब इत, अहीं शकंवादि मानी पररूप थतां 'उपपेत' पद थाय छे) तेओज सुतरां पेशल मनोहर क्षेत्र जाणवां. कधु छ के-अश्रोत्रियने आपलं दान, दीधेल पदार्थ जेटलुंज फळ आपे छे, सदाचारने आपेलं द्विगुण फळ दीये तथा | आचार्यने आपलं सहस्रगुण फळदायक थाय अने वेदना पारने पामेलाने आपलं दान अनंतगुण फळ आपे छे, भाटे वेदपारग ब्राह्मणो पुण्यक्षेत्ररूप छे. १३ कोहो ये माणा य बहा य जेसि । मासं अदर्स च परिग्गहं च ।। ते माहेणा जाइविज्जाविहीणा। ताई तु खित्ताई सुपावगाई ॥ १५ ॥ (जेसि) जेओने (कोहो अ) क्रोध छे (माणाओ) मान आदि के तथा (वहो अ) वध छे (मोस) मृषावाद छे तथा (अदचं) चोरी छे لالالالالالالالالالالالالالالعااااده For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [परिग्गडो अ] गोभूमि आदिक परिग्रह स्वीकारे छे (ते माहणा) तेवा ब्राह्मणो [जातिविजाविहीणा जाति अने विद्या एR उत्तराध्यबन्नेथी रहित छे. १४ भाषांतर यनसश्रम अध्य०१२ व्या०-भो ब्राह्मणाः येषां भवतां मध्ये क्रोधो वर्तते, च पुनर्मानमायालोभाश्च वर्तते, चकारान्मानादीनां BE ॥६७७|| IBE ग्रहणं, च पुनर्वधो जीवहिंसा वर्तते, मृषावादश्चास्ति, अदत्तमदत्तादानमप्यस्ति, च शब्दान्मैथुनं कामासक्तिरस्ति, RE ॥६७७|| च पुनः परिग्रहो वर्तते, यूयं के ब्राह्मणाः? जातिविद्याविहीनाः, क्रियाकर्मविशेषेण चातुर्वर्ण्य व्यवस्थितमिति वच| नात् , ब्राह्मणत्वजातिमान ब्राह्मणः, ब्राह्मणब्राह्मणीभ्यामुत्पन्नो ब्राह्मणो नोच्यते, किंतु ब्रह्मणत्वेन ब्राह्मणः क्रिया| निष्टत्वेन ब्रह्मणि स्थितेन जातिधर्येण विशिटो ब्रह्मग उच्यते. तस्माद्युप्मासु ब्रह्मक्रियानिष्टत्वब्राह्मणत्वस्याभावान्न जातिरस्ति, ब्राह्मणा ब्रह्मचर्येणेति लक्षणोक्तित्वात्. न पुनर्ययं विद्यायुक्ताः, विद्यायास्तु विरतिरूपफलाभावात्. विद्या| वानपि विरतिमान् सन् यावदाश्रवान् संवरबारेण न रुणद्वितावत्स विद्यावानोच्यते, विद्या अपि परमार्थतस्ता एवोच्यते, यासु पंचाश्रवपरिहार उक्तः, तस्मान्न भवतो विद्यवंतः, भवत्सु भवदुक्तमेव जातिविद्योपपेतत्वं ब्राह्मणलक्ष क्षणं सर्वथा नास्त्येव, तत्मात्तानि सुपापकान्येव क्षेत्राणि भवंतः, न पुण्यक्षेत्राणि यूयं. ॥ १४ ॥ अथ कदायित्ते एवं Jtवदेयुः, वयं वेदविदो वर्तामहे इत्याह यक्ष कहे छे-हे ब्राह्मणोः जेओमां क्रोध, मान, माया लोभ. ('च' पद छे तेथी मानादिकनुं ग्रहण थाय छे.) तथा वधजीव-DE * हिंसा वगेरे होय; मृपावाद=असत्यभाषण, अदत्तादानचौर्य तथा कामासक्ति अने परिग्रह होय तेवा तमे ब्राह्मणो जातिविधाविहीन Rahe For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१२ ||६७८॥ क्रियाकर्म विशेषथी चातुर्वर्ण्य व्यवस्थित छे, ब्राह्मणत्व जातिमान् ब्राह्मण, ब्राह्मण ब्राह्मणी युग्मथी उत्पन्न थवाथीज मात्र ब्राह्मण उत्सराध्य-06 न कहेवाय किंतु ब्राह्मणत्वब्रह्म क्रियानिष्ठत्व वडे करीने-ब्रह्ममां स्थित पामेलो जातिधर्मे करी विशिष्ट होवाथी ब्राह्मण कहेवाय; पनमूत्रम् माटे तमारामां ब्रह्मक्रियानिष्ठत्व न होय तो जाति न मनाय, ब्राह्मणो तो ब्रह्मचर्यचडे लक्षित कहेवाय छे. तमे विद्यायुक्त नथी जणाताता ॥६७८॥ विद्यानुं फळ विरति नर्थी देखाती. विद्यावान् जो विरतिवाळो थइ यावत्पर्यंत आश्रवोनो संवर द्वारा निरोध न करे त्यां सूची विद्वान् न कहेवाय. परमार्थतः विद्या एज कहेवाय के जेमां पंचआश्रवोनो परिहार कहेल छे; ते कारणथी तमे विद्यावान जणाता | नथो. तमारामां तमे कहेलं जातिविद्योपपेतत्व ब्राह्मणलक्षण सर्वथा नथी तेथी तमे पापक क्षेत्र छो पुण्यक्षेत्र नथी. १४ 'अमे वेदवित् छइए' एम कदाच तेओ कहे तो ते संबंधे कहे - तुप्भस्थ भो भारहरा गिराणं । अट न जाणाह अहिज वेऐ ।। उच्चावयाई मुंणिणो चरंति। ताई तु खिताई सुपेसलाइं॥१५॥ (भो) हे ब्राह्मणो! [इत्थ] आ जगतमा तुम्भ) तमो मात्र (गिराणं) बाणीना (भारधरा) भारने धारण करनारा छो कारण के [ए] वेदविद्याने [अहिज] भणीने पण (अट्ठ) तेनो अर्थ [न याणाह तमो जाणता नथी हवे उत्तम क्षेत्र क्यु? (मुणिणो) ने मुनिओ (उच्चावयाई) भेदभाव विना भिक्षा माटे (चरति) अटन करे छे तेथी [ताई'तु] तेओज (सुपेसलाई) उत्तम (खित्ताइ) क्षेत्रो छे. १५ व्या०-भो इत्यामंत्रणे, भो ब्राह्मणाः ! ययं गिरां वेदवाणीनां भारहरा भारोदाहकाः, यतो यूयं वेदानधील वेदानामर्थ न जानीथ. तथाहि-आत्मा रे ज्ञातव्यो मंतव्यो निदध्यासितव्यः, पुनरयं समो मशके नागे च, न हिंस्यात् सर्वभूतानीत्यादिवेदवाक्यान्यधीतानि. अथ पुनर्भवद्भिर्जीवहिंसास्वेव अवार्यते, तस्मादत्र यागः पृथक् एव उच्यते, مناناناناناتلاف انشالا لاند For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१२ ॥६७९॥ यत्र चात्मनामग्नी दाहः, स चात्र वेदे याग एव न स्यात् , यदि च स एव आत्मा एव भवद्भिन ज्ञातस्तदा किमर्थ उत्तराध्य यागं कुर्वीध्वं ? प्रथम यागोऽपि न भवद्भिातः. कानि तहि क्षेत्राणीत्याह-हे ब्राह्मणाः! मुनीन् सुपेशलान्यत्यंत यनसूत्रम सुंदराणि क्षेत्राणि जानीथ. ये मुनय उच्चावचगृहाण्युत्तमाधमानि कुलानि भिक्षार्थ चरंति. अथवा 'उच्चावयाई' उच्चानि ॥६७९|| महांति व्रतान्युच्चव्रतानि येषां तान्युच्चनतानि, अकारः प्राकृतत्वात् , महाव्रतधराणि तानि क्षेत्राणि भव्यानि ज्ञेयानी | त्यर्थः ॥ १५ ॥ तदा छात्राः किं प्राहुः___भो' ए पद आमंत्रणार्थ छे. हे ब्राह्मणो ! तमे वेदवाणीना भारने वहन करनारा छो कारण के तमे वेदन अध्ययन करीने ते | वेदोना अर्धने जाणता नथी. जेमके-'आत्मा जाणवा योग्य छे, मनन करवा योग्य छे निदिध्यासन करवा योग्य छे.' वळी ते Bell 'मशलामां तेमज हाथीमां समान छे' 'सर्व भूतनी हिंसा न करवी' इत्यादि वेदवाक्यो जाणीने जीवहिंसामा प्रवृत्ति कराय तो ए याग | जुदाज प्रकारनो कहेवाय. ज्यां आत्मानो अग्निमां दाह थाय ते यागज न कहेवाय, ज्यारे तमे ए आत्माने न जाण्यो तो पछी याग | शा माटे करो छो? प्रथम तो याग पण तमे बराबर नथी जाण्यो त्यारे क्या क्षेत्र जाणवा? ते कहे छे, हे ब्राह्मणो! जे मुनियो उंच P नीच घरो=उत्तमाधम कुळोमां भिक्षा अर्थे चरे छे–फरे छे, ते मुनियोने सुंदर क्षेत्र जाणो. अथवा उच्चावच-उंचां महाबत जे धारे छे JE ने भव्य क्षेत्र समजवां. १५ अज्झावयाणं पडिकूलभासी । पभासते किंतु सगासि अम्हं ॥ अवि एय विणस्सउ अन्नपाणं । न येणं दामो य तुमं नियंठा ॥ १६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (अज्झावपाण') अमारा उपाध्यायनी (पडिकलभासी] प्रतिकूळ बोलनारो एयो तु (अम्ह) अमारी (सगासि) समक्ष (किनु] केम उत्तराध्य- आयु [पभाससे असंबद्ध (प) अप्रत्यक्ष [अन्नपाण] अन्न अने पाणी [विणस्सउ अवि भले विनाश पामो [निअंठा] हे निग्रंथा 36 भाषांतर यनसूत्रम् ॥ [तुम'] तने (न य) नहींज [दाहासु) आपीए. हवे यक्ष कहे छे. १६ अध्य०१२ ॥६८०॥ व्या०-किंत्विति शब्दौ निंदाक्रोधवाचकौ, अरे नियंठा! अरे दरिद्र ! त्वमुपाध्यायानां प्रतिकूलभाषी सन, |॥६८०॥ अस्मत्पाठकानां प्रतिकूलभाषी सन, अस्मत्पाठकानां सन्मुखवादी सन्नस्माकं सकाशेऽस्माकं प्रत्यक्ष प्रभाषसे, प्रकर्षण यथा तथा भाषसेऽसंबद्धं वचनं ब्रूते, तस्मादरे एतदन्नपानं विनश्यतु. एतदाहारं सटतु पतत्वप्येतदाहारं तुभ्यमुपाध्या| यप्रतिकूलवादिने न दद्मः ॥ १६ ॥ तदा यक्ष आह किंतु ए वे शब्दो निंदा तथा क्रोधना मूचक छे. अरे निग्रंथ! दरिद्र! तुं अमारा अध्यापकोने सामे प्रतिकूळ भापण करनारी, अमो पाठकोने सामे अमारी आगल प्रत्यक्षमा प्रकृष्टपणे असंबद्ध वचन बोले छे, तेटला माटे भले आ अन्नपान विनाश पामो, एटले ए आहार भले सडीजाओ पडी जाओ तथापि उपाध्यायने प्रतिकूल बोलनार तुं, तेने तो नहिंज दइये. १६ समिइहिं मज्झं सुसनाहियस्स । गुत्तिहि गुत्तस्स जिइंदियस्स ।। जई मन दाइज्जह एसणिजे किमंज जन्माण लभित्) लाभ ॥ १७ ॥ (मझ) मने [समाहि] पांच समिति वडे सुसमाहिअस्स सारी समाधिवाळा (गुत्तीहि) त्रण गुप्तिवडे (गुत्तस) गुप्त एवा [जीई दिअस्स) जीतेन्द्रीय एवा [मे] मने [जइ जो [अहरसणिज] विशुद्ध एवो आहार (न दाहित्थ) नहीं आपो तो (अज) आजे For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (जण्णाण) यशोनो [लाभं] लाभ [कि'] शु[लहित्य] पामश? हवे उपाध्याय जवाय आपे छे.१७ उत्तराध्य B भाषांतर पनसूत्रम् च्या०-यदि मे ममेहारिमन् यज्ञपाट के शुद्ध मेषणीयमाहारमस्मिन्नवसरे न दास्यथ, तदा यज्ञानां लाभ पुण्य- अध्य०१२ प्राप्तिरूपं फलं किं लप्स्यथ? अपि तु न किमपीत्यर्थः. पात्रदानं विना किमपि न फलमित्यर्थः कथंभूतस्य मम? तिम॥६८२॥ भिर्गुप्तिभिर्गुप्तस्य, पुनः कीदृशस्य मम? पंचभिः समितिभिः सु अत्यंतं समाहितस्य युक्तस्य, पुनः कीदृशस्य मम? ॥६८१॥ जितेन्द्रियस्य, जितानींद्रियाणि येन स जितेन्द्रियस्तस्य. अत्र चतुर्थीस्थाने षष्टी, एतादृशाय पात्राय मा येन यूयं पासुकमाहारं न दास्यथ तदा भवतां सर्वमपि वृधा, फलस्याभावात्. ॥ १७ ॥ अथोपाध्याय आह यदि जो मने अहीं आ यक्षबाटमां शुद्ध एपणीय आहार आ अवसरे देशो नहि तो पछी यक्षानो लाभ-पुण्यपाप्तिरूप फळ शु मेळवशो? कइ पण नहि. हुं केवो? पांच समितिवढे अत्यंत युक्त तथा जितेंद्रिय जेणे इंद्रियो जितेल छे एवो, (अहीं चतुर्थीने Jtil स्थाने षष्ठी विभक्ति छे) आवा पात्ररूप मने जो पासुक आहार आपशो नहिं तो पछी तमा सर्व वृथा छेकंड पण फळ नथी थवानुं. के इत्थ खप्ता उवजोइया वा । अज्झाया वा सह खंडिएहि ।। एवं तु दंडेग फलेण हता। कंटंमि धितूंण खलिज तो णं ।। १८॥ [इत्थ] अहीं (के) कया [खत्ता] क्षत्रियो छे? (उवजोइ। वा) अथवा गंधवानु काम करनार कोण छे? अथवा [ख डिएदि सह] | विद्यार्थीओ सहित (अज्झावयवा) अध्यापको कोण छे? [जोण] जे कोइ होय ते (एअतु) आ साधुने (दडेण) लाकडीथी [फलेण] बीला आदिक फलथी (हता) मारीने [क ठम्मि] कंठने विषे [वित्तूण पकडीने खलेज तेने स्थलना पमाडो. १८ For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् शयष्ट्या भाषांतर ॥६८२॥ व्या०-केचिदशास्मिन् यज्ञपाटके क्षत्राः क्षत्रिया उपज्योतिषः, अग्नेरुप समीपेऽग्निसमीपवर्तिनः पाकस्थानस्थाः, | वाथवाध्यापका वेदपाठकाः संतीध्यव्याहारः, कथंभूताः पाठकाः? खंडितश्छात्रैः सहिताः, ये एनं मुंडं दंडेन वंशयष्ट्या अध्य०१२ फलेन विल्वादिना हत्वा, कंठं गृहीत्वा गलहस्तं दत्वा स्खलयेयुः, इतो यज्ञपाटकान्निष्कासयेयुः, तो इत्युक्तं तत्प्रा| कृतत्वात, ये इति वक्तव्यं, प्राकृतत्वाद्वचनव्यत्ययः ॥ १८ ॥ ॥६८२॥ ___कोइपण आ यज्ञबाटमां क्षत्र-क्षत्रियो तथा उपज्योति व अग्निनो समीपे वर्त्तनारा रसोया अथवा अध्यापको वेदपाथका तेओना खंडिक-विद्यार्थिओ सहित होय ते आ मुंडने दंडवती-बांसनी लाकडीथी अथवा बीलां वगेरे फलो वढे हणी. कंठे पकडी गळे हाथ दइ स्खलित करी आ यक्षवाटमाथी निकाली मेले. ये एम लखवु जोइये तेने बदले तो का ते पाकृत होवाथी वचन | Jel व्यत्यय थइ शके छे. १८ अज्झावयाणं वयणं सुणित्ता । उद्धाइया तत्] बहुकुमारा ॥ दंडेहि वेत्तेहिं कैसे हि चेव । समागया तं इसि साडयंति।।१९/5 (अज्झावयाण) उपाध्यायन बियण'] बचन (सुणित्ता) सांभळीने (बहूकुमारा) घणा कुमारो (तत्थ) त्यां (उद्धाइआ) दोड्या अनेक | (समागया) एकत्र थया एम धारी तुरत (त' इसि) ते ऋषिने (दडेहि) लाकडीओ बडे (बेतेहि) नेतरनी सोटीथी (कसेहि चेव) चाबुकवडे (तालपति) ताडन करवा लाग्या. १९ व्या-तत्र तस्मिन् यज्ञपाटके यहवेः कुमारास्तरुणाश्छात्रा उद्धाविताः संता दंडेवेशयष्टिभित्रैजलवंशेः कर्मचर्मवरकैस्तमृषि ताडययंति, कीदृशास्ते कुमाराः? समागताः संजील्यैकीभूयागताः. अहो क्रीडनकं समागतमिति Fer Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पनसूत्रम ||६८३ || www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1路 वदंतो यष्टयादि सर्व गृहीत्वा समागता इत्यर्थः तं मुनिं ताडयंति, किं कृत्वा ? उपाध्यायानां वचनं श्रुत्वा ॥१९॥ त्यां ते यक्षवाट स्थानमां बहुवणाय कुमारो तरुण छात्रो ( विद्यार्थिओ) दोडता आवीने दंड =वासनी लाकडीयो वती तथा | वेत्र = नेतरनी सोटीयोथी अने कशा = चामडाना चाबुकवडे ते ऋपिने ताडन करवा लाग्या. केवा ते कुमारो ? समागत= मळीते आवेला, 'अहो रमत्रानुं मळयूँ' आम बोलता लाकडीओ वगेरे सर्व साधनो लइने आन्या. अने ते मुनिने ताडन करवा लाग्या, केम करीने? अध्यापकोनां वचन सांभळीने. १९ रैण्णो तेहि कोसलियेस्स धुआ । भद्दत्ति नामेण अजिंदिगी || पासिया संजयं समाणं । कुद्धे कुमारे परिनिव्वे ॥ २० ॥ (हि) ते यने विषे (अणि दिअगी) आनंदित अंगवाळी [भद्द त्ति नामेण] भद्रा एवी नामनी (कोसलिअस्स) कौशलिक नामना [रण्णो] राजानी [धूआ] पुत्री (त) ते [संजय'] मुनिने [हम्ममाण ] हणाता (पासिभा) जोइने (कुद्धे कुमारे) क्रोध पामेला छात्रोने (परिनिव्ववेद) शांत करवा लागी. २० व्या०—तत्र कौशलिकस्य राज्ञः 'धूआ' इति सुता भद्रा वर्तते सा भद्रा तं साधुं तैर्ब्राह्मणकुमारैर्हस्यमानं दृष्ट्वा क्रुद्धान् मारणोद्यतान् कुमारान् ब्राह्मणबालान् परिनिर्वापयति, वचनैरुपशमयतीत्यर्थः कीदृशं तं साधु ? संयतं संय मावस्थाय स्थितं कीदृशी सा भद्रा ? अनिंदितांगी, अनिंदितमंग यस्याः साऽनिंदितांगी शोभनशरीरा- ॥२०॥ त्यां कौशलिक राजानी धूआ=सुता भद्रा हती ते भद्रा ते साधुने ते ब्राह्मण कुमारोए हस्यमान=विडंबना कराता जोइने ऋद्ध For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१२ ॥६८३॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | भाषांतर अध्य०१२ ॥६८४|| | मारवाने उद्यत थयेला कुमार ब्राह्मण बालकोने वचन वडे उपशांत करवा लागी. केवा ते साधु? संयत संयमावस्थामां स्थित. उत्तराध्य-NE केवी ते भद्रा? आनिदित छे अंग जेनां एवी; शोभन शरीरा. २० यनसूत्रम् देवाभिओगेण निओइएणं । दिण्णा पुरण्णा भनसा न झाया । ॥६८४|| नरिंददेविदेभिवृदिएणं । जेणा मिहि वंतो इसिं स ऐसो ॥ २१ ॥ (देवामिभोगेण) यक्षनाअभियोगवडे निओइराण'] प्रेरायला पया (रपणा) मारा पिताए (दिण्णसु) मने एमने आपी हती [मणसा] मनबढे पण (न झीया) न इच्छी अने [नरिददेविंदभिव दिएण] नरेंद्र अने देवेन्द्रोथी वंदना करायला एवा [जेण] जे-आ (इसिणा) G| ऋषिए [वता] त्याग करेली [मि] हु छु [स एसो] तेज आ मुनि छे. २१ व्या-सा भद्रा किम वादीत्तदाह-भी ब्राह्मणाः! एष स ऋषिर्वर्तते, येनर्षिणाहं यांताहं त्यक्तारिम, कथंभूतेनर्षिणा? नरेन्द्र देवेन्द्राभिवंदितेन, कीदृश्यह? राज्ञा पुरा दत्तारमै अर्पिता, अनेमर्षिणाहं राज्ञा पुरा दीयमानापि मनसापि न ध्याता नाभिलषिता, कीडशेन राज्ञा? देवाभियोगेन नियोजितेन, देवस्य यक्षस्याभियोगो बलात्कारो देवाभियोगस्तेन यक्षदेवहठेन नियोजितेन प्रेरितेनेत्यर्थः. एतादृशोऽयं त्यागी मुनिरस्ति, तस्माद्भवद्भिर्न कदर्थ्यः, इति भद्रा राजकन्या ब्राह्मणानवादीत्. ॥ २१ ॥ पुनः सा किमाह ते भद्रा शुं बोली? ते कहे डे-हे ब्राह्मणो ! आते ऋषि छ के जे ऋषिए मने वमन करी नाखी अर्थात् मारा त्याग करी नाख्यो हतो. केवो ऋषि? नरेन्द्र तथा देवोए अभिर्वदित हुँ केवो ? रानाए पूर्वे आने अर्पण करेली, आ ऋषिए राजाए अर्पण For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Id करेली मने छतां मनथी पण अभिलाप न करता त्यजी दीधी. के राजाए? देव यक्षना अभियोगबलात्कारवडे घेरायेला. एवा आ 6 उत्तराध्य-I | भाषांतर पनमन्त्रम| त्यागी मुनि हे, माटे तमारे तेने कचवावा नहि आम भद्रा राजकन्याए ब्राह्मणोने कयु. २१ अध्य०१२ ऐसो हु सो उगतवो महप्पा । जिइंदियो संयोबभयारी ।। ॥६८५॥ | ॥६८५॥ जो में तया नेच्छई दिजनाणि पिउणा सयं कोसलिएण रण्णा ॥ २२ ॥ विउणी] मारा पिता कोसलिएण रणा] कोशलिक राजाए [सय] पोतेज [दिज्जमाणि] देवाती एवी (मे) मने [तया) ते बखते ril (जो) जे मुनि (निच्छद) नहि इच्छना [सो हु एसो तेज आ (उग्गतवो) उग्र तपवाळा (महप्पा) महात्मा [जीइदिओ] जीतेन्द्रिय [सजओ] संयमी अने (वभयारो) ब्रह्मचारी छे. २२ व्या०-४ इति निक्षयेनोपलक्षितो मयेषः, स उग्रनपा महात्मा वर्तते, उग्रं तपो यस्य स उग्रतपाः, महान् प्रशस्य आत्मा यस्य स महात्मा महापुरुषः, स इति कः? यस्तपस्वी कोशलिकेन पित्रा मम जनकेन राज्ञा स्वयमा. स्मना तदा दीयमानां मां नैच्छत न वांछतिस्म. कीदृश एषः? जितेंद्रियः, पुनः कीदृशः? संयतः सप्तदशविधसंयम| धारी, पुनः कीदृशः? ब्रह्मचारि ब्रह्मचर्यवान् ॥ २२ ॥ हुनिश्चयपूर्वक में जाणेला आ ते महात्मा छ, अर्थात् उग्र जेर्नु तप छे एवा महान् मशस्य जेनो आत्मा छे तेवा महापुरुष छे. ते क्या? जे तपस्सीए कौशलिक पिता=मारा जनकराजाए स्वयं-पोते ते वख्ते देवा मांडेली मने इच्छी णहिं. मारी वांछना नन | करी. आ केवा छे? नितेंद्रिय तथा प्रयत सत्तर पकारना संयमने धारण करनार अने ब्रह्मचर्यवात्. २२ Fer Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् भाषांतर अध्य०१२ ॥६८६॥ ॥६८६॥ महायसो एस महाणुभावो । धोरचओ घोरपरक्कमो य॥ भा एवं हील हे अहीलणिज्ज । मा में सेवाण दहिज्जें एस ॥ २३ ॥ [एस] मा महामुनि (महाजसो) महाशवाळा छ, [महाणुभागो] महानुभाग छे [घोरब्वओ] घोर तपस्वी छे [घोरपरकमो अ] महापराक्रमी छे (अहीलणिज्ज) हीलना नहि करवाने लायक [ए] आ मुनिना [मा हीलह] हीलना तमे न करो (मे सब्वे) तमने | सर्वने (तेएण] पोताना तेजबडे [मा निद्दहिजा म बाळो २३ । व्या-पुनरेष साधुर्महायशो वर्तते, पुनर्महानुभावोऽचित्यातिशयः, पुनरेष घोरव्रतो दुर्धरनहाबतधारा, पुनघोरपराक्रमो रौद्रमनोयलः, क्रोधादिचतुःकषायाणां जये रौद्रसामर्थ्यस्तस्मादेनं तपस्विनं मा हीलयथ? कथंभूतमन? 15 'अहीलणिज्ज' अवगणनायायोग्यं स्तवनाहमित्यर्थः, एष भे इति भवतो युष्मान् सर्वान्मानिर्धाक्षीन्न भस्मसात्कु ति, इति यदा नृपपुत्र्योक्तं, तदा यक्षः किमकार्षीदित्याह| बळी आ साधु महायशस्वी छे तेम महानुभावअचिंत्य अतिशयवाळा छे, तथा घोर व्रत बीजाओर्थी न धारी शकाय तवां महाव्रत धारण करनारा छे घोर पराक्रम रौद्रमनोवळवाळा एटले क्रोधादि चार कपायनो जय करवामां रौद्र अग्रसामर्यवान् छे तेधा आ तपस्वीने तमे तिरस्कारो मां. ए केवा छे? अबहेलन करवा योग्य (स्तुति योग्य) छे तो आ ताने सर्वेने बाळी भस्म मा करो. एवी रीते ज्यारे राजपुत्रीए कई त्यारे यक्षे शुं कर्यु ते कहे हेएथाई तीसे वयणाइ सुच्चा । पत्तीई भद्दाइ सुभासियाई ॥ For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर उसराध्ययनसूत्रम् ॥६८७॥ इसिस बेयावडियट्ठायाए । जैक्खा कुमारे विनिवारयति ॥ २४ ॥ [पत्तीइ] कद्रदेवनी पत्नी (तीसे) ते (भद्दाइ) भद्ना (एताई') उपरोक्त कह्यां ते (सुभासिआइ) सारां कहेला (वयणाई] वचनोने (सुच्चा) सांभळीने (इसिस्स) ऋपीनी [वआवडिअठ्ठाघाए वैयावश्च माटे (जक्खा) यक्षो (कुमारे) ते छात्रोने [विनिवारयति नीवारे छ.BE अध्य०१२ व्या०-यक्षाः परिवारसहिता ऋषयावृत्यर्थ कुमारान् ब्राह्मणवालकान् विशेषेण निवारयंति, किं कृत्वा? BE ॥६८७ | तस्याः सोमदेवस्य यज्ञाधिपस्य पुरोहितस्य पल्या भद्राया वचनानि श्रुत्वा, कीदृशानि वचनानि? सुभाषितानि सुष्टु भाषितानि. ब्राह्मणेभ्यः शिक्षारूपाणि प्रकाशितानि. ॥ २४ ॥ यक्षो-परिवार सहित एकठा थइ ऋपिना वैयावृत्य माटे कुमारो ब्राह्मण बाळकोने विशेषताथी निबारे छे, केम करीने? ते ए | सोमदेय यज्ञाधिप पुरोहितनी पत्नी भद्राना, सम्यकमकारे उच्चारेला ब्राह्मणोने शिक्षणरूपे प्रकाशित करेलांबचनो श्रवण करीने.२४ ते" घोररूवा ठिइयंतरिक्खे । अयुग्गा तेहिं तं जणं तालयंति ॥ भिन्नदेहे कहिरं वेमंते । पासितुं भंदा इणमाह जो ।। २५॥ घोररूवा] घोर रूपवाळा तथा (अंतलिक्खे) आकाशमा (ठिअ) रहेला तथा (असुरा) राक्षस जेवा (ते) यक्षो तहि) त्यां (तंजण) ते लोकोने [तालयति मारे छ, पछी (भिन्न देहे) मेदेलां अंगवाळा (रुहिरवमते रुधीरने वमन करतां एवा [ते छात्रोने [पासिनु | जोइने [भद्दा] भद्रा (भुजो) फरीवार (इणमाहु) आ प्रमाणे बोली. २५ व्या-ते यक्षास्तदा तस्मिन् काले तान् जनांस्तान ब्राह्मणांस्ताडयंति चपेटादिभिननि, कीदृशास्ते यक्षाः? For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra INTEI www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घोररूपाः, पुनः कीदृशास्ते? अंतरिक्षे आकाशे स्थिताः, पुनः कीदृशास्ते? अत्युग्रा अत्युग्रपरिणामयुक्ताः. उत्प्रेक्षतेउत्तराध्यऽसुरा इवेत्यर्थः. ते हि यस्मिन् यज्ञपाटके ते इति तान् भग्नदेहान् दृष्ट्वा भद्रा भूयः पुनरपि वचनं प्राहुरित्याह व्रते, EL भाषांतर यनसूत्रम् प्राकृतत्वावचनव्यत्ययः. तान किं कुर्वतः? रुधिरं वर्मत इति. ॥ २५ ॥ ॥६८८॥ ते यक्षो ते समये ते जनोनेब्राह्मणोने थपाट वगेरे महारथी ताडन करे छे. ते यक्षो केवा? घोर भयंकर रुपाळा, तथा अंत ॥६८८॥ | रिक्ष आकाशमां स्थित तथा अति उग्र अति उग्र परिणाम युक्त, ( उत्प्रेक्षा करे छे.) असुर जेवा ते यक्षो, ते यक्षबाट म्यान में तेओने भन्नदेह भांगेल छे देहावयव जेना एवाजोइने भद्रा फरीने पण वचन बोली; ते केवा? रुधिरने बमता. (माकृतमा | वचन व्यत्यय थाय छे) २५ गिरि महेहि खगह । अयं दतर्हि ग्वायहे ।। जायवेयं पाएहि हेणह । जें भि अवमन्नह ।। २६ ॥ DEI (जे) जे तेम भिक्ख] आ भिक्षकनी [अवमन्नह) अवधीरणा करो छो, ते तेम (गिरि) पर्वतने (नहेहि) नखबडे [खणह] खोदया | 36 जेवु करो छो [अय] लोढाने [दतेहिदांतवडे खायह] चाववा जेवु करो छो (जायते) अग्निने (पारहि) पगवडे [हणह SEहणवा जेवु करो छो. २६ व्या०-अरे वराका इत्यध्याहारः, यूयं नखः कररहेगिरि पर्वतं खनथ इव, इवशब्दस्य सर्वत्र ग्रहणं कतेब्यं. | पुनर्दतेरयो लोहं ग्वादथ भक्षयथ इव, पुनर्जातवेदसमग्निं पादैर्हथ इव, अग्निं चरणैः स्पर्शथ इव, ये यूयं भिक्षु साधु| मवमन्यथ, अस्य भिक्षोरपमानं कुरुथ. गिरिलोहानीनामुपमानमनर्थफलहेतुत्वादुक्तं. ॥ २६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरे रांकडाओ! तमे नखबडे गिरिपर्वतने खोदवा जेवू करो छो. सर्व वाक्योमा इव शब्द लेवो.] बळी दांतवडे अयः= hd उत्तराध्य लोढाने खाता हो ते करो छो. तेमज जातवेदा=अग्नि पगवडे हणो छो अग्नि पगथी स्पर्शवा जेवू करो छो. जे तमे आ भिक्षुर्नु भाषांतर पनसूत्रम् अवमान करो छो. [गिरि, लोह, अग्नि, घणे उपमान अनर्थ फल हेतु कयां.] २६ अध्य०१२ | आसीविसो उगलवा महेसी। घोरचओ घोरपरकमो य ।। अगणिव पक्खंदपयंगसेणा। भिक्खुअं भत्तकाले बैदेह B ॥६८। (आसीविसो शाप आपवामां समर्थ [उग्गतयो] उग्र तपस्वी (महेसी) महा ऋषो छ (घोरब्यओ) घोर व्रतवाळा छे [अ] तथा (घोरपराक्रमी छे (जे) जे तमे (भत्तकाले) भोजन समये ( भिबु) भिक्षा आपता नथी. उलटा (बहेह) मारो छो (पय गसेणाव) पतगीयाना जरथनी जेम (अगणि') अग्रिने (पक्ख'द) आक्रमण करो छो. २७ ___व्या०-भो मूर्खा इति अध्याहारः, एषस्तपस्वी आशीविषः शापदाने समर्थः, आशीविषः सर्प उच्यते, यथा al सर्पः पादादिना अवमन्यमानो मारणाय स्यात, तथा अयमपि शापविषेण मारयति, पुनरयमुग्रतापा महर्षिः, पुन रसौ घोरवतः, पुनर्घोरपराक्रमः, ये पुनयं भक्तकाले भोजनकाले भिक्षुकं पूर्वोक्तलक्षणं मुनि वध्यथ, यष्टयादिभि|स्ताडयथ. ते यूयं पतंगसेनाः शलभसमृहा अग्नि प्रस्कंदथ इव, आक्रमथ इव. कोऽर्थ.? यथा पतंगसेना अग्नि बधाय | प्रविश्यमाना नियंते, तथा यूयं मरिष्यथ इत्यर्थः ॥ २७ ॥ रे मृर्यो ! (एटलो अध्याहार छे.) आ तपस्वी आशीविष शाप देवा ममर्थ छे आशीविप सर्प कहेवाय छे. (जेम सर्पने पग वगेरेथी छंछेडे तो मृत्युज करे छे तद्वत् आ पण शापरूपी विषयी मारे एवा छे.) वळी आ उग्र तपा: उग्रतपवाळा छे, घोर व्रत For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Achange Shokalassagarsuri Gyanmandie www.kobatirth.org | तथा घोर पराक्रम छ, तमे जे भोजन काळे पूर्वोक्त लक्षण युक्त आ मुनिने मारो छो लाकडी वगेरेथी ताडन करो छो ते तमे, पतं-150 उत्तराध्यगनां टोळां जेम अग्निने आक्रमण करे तेवू करो छो, [जेम अग्नि उपर पडता पतंगिया मरे छे तेम तमे पण मरशो.] २७ भाषांतर यनसूत्रम् अध्य०१२ सीसेण एयें सरणं अवेह । समागया सबैजणेण तेभे ॥ ॥६९०॥ ॥६९०॥ जइ इच्छई जीवियं वा धणं वा । लोगंपि" ऐसो कुविओ डहिजा ।। २८॥ R(तुप्मे) तमे [जह] जो (जीवित्र वा) जीवितने अथवा धण वा धनने [इच्छह] इच्छता हो तो [सव्वजणेण] सर्व जनोनी साथे [समागया] एकत्र थया थका [सीसेण] मस्तक नमावी [ए] आ महर्षिनु (सरण) शरण [उबेह] अंगीकार करो. (पसा) आ महर्षि [कुविओ] कोप पाम्या थका [लोअपि] आखा जगतने पण (डहेजा) बाळी नाखे, २८ व्या०-भो ब्राह्मणाः! तुभ इति यूयं सर्वजनेन सर्वकुटुंबेन समागताः संमिलिताः संत एन तपस्विनं शीर्षण मस्तकेन शरणं उपेत? शिरःप्रणामपूर्व सर्वेऽप्यागत्यायमेवास्माकं शरणमित्युक्त्वा अभ्युपागच्छत? यदि यूयं जीवितं वाथवा धनमिहेच्छथ, यत एषः साधुस्तपस्वी कुपितः सन् लोकं समस्तं नगरादिकं दहेत्. ॥ २८ ॥ हे ब्राह्मणो! तमे सर्व जन=सर्व कुटुंबीजनाथी संमिलित थइने आ तपस्वीने मस्तकवडे शरणे प्राप्त थाना मस्तकथी प्रणाम करी| JE सर्वे आवीने 'आज अमारुं शरण छे.' एम बोलता समीपे आबो; जो तमे जीवित अथवा धनने इच्छता हो तो; कारण के आ साधु= तपस्वी जो कुपित थाय तो तमाम नगर आदिक लोकने दहेवाळी नाखे एवा छे. २८ अवहेडियपिसत्तमंगे । पसारिया बाहु अकम्मचिट्टे ॥ شلالات الفن الاعمالی تعاون اور Fer Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassaqarsuri Gyanmandir निप्भेरियच्छे रुहिरं वर्मते । उद्धंमुहे निग्गयजीहनत्ते ॥ २९ ॥ उत्तराध्य. भाषांतर यनसूत्रम ते पासिंआ खंडिअ कट्ठभूए । विगो विचिनो अह माहणो सो॥ अध्य०१२ इसि पैसाएइ सभारियाओ। हीलं च मिदं च खमाह भंते ॥ ३०॥ ॥६९॥ (अवहेडिअपिट्ठसउत्तमगे) पीठसुधी नमेला मस्तको (पसारिआ बाहु अकम्मचि) पहोळा हाथ तथा (निम्भेहिताछे) फाटी ||" | गया छे नेत्रजेमनां (रुहिर' वमते) रुधिरनु वमन करे छे तथा (उद्धमुहे) उंचा मुखवाळा (निग्गयजीहनेत्ते) बहार नीकळेल जीभ तथा आंख जेमना (कट्ठभूए) तथा काष्ट जेवा (ते खडिअ) ते छात्रोने (पासिआ) जोइने (अह) त्यारपछी (विमणो) व्याकुळ चित्तP५ वाळो थयेलो अने (धिसण्णो) विषाद पामेलो (सो माहणो) ते ब्राह्मण (समारिआओ) पोतानी भार्या सहित (इसि) ऋषिने (पसा- |BE BE देति) प्रसन्न करवा माटे कहेवा लाग्यो के (मते) हे भगवान् (हीलच) अवज्ञा करी तथा (निंदच) निंदा करी तेनें (खमाह) | तमे क्षमा करो. २९-३० व्या०-अथानंतरं स ब्राह्मण ऋषि प्रसादयति. कीदृशः स ब्राह्मणः? सभायः पत्नीसहितः, सह भार्यया भद्रया वर्तत इति सभार्यः. कथं प्रसादयति? तदाह-हे भदंत पूज्य ! हीलामस्मत्कृतमपमान, च पुननिन्दा, अस्माभिर्भवतां निंदा कृता, तो निंदां यूयं क्षमध्वं? कीदृशो ब्राह्मणः? विमना विदूनमनाः, पुनः कीदृशः? विखिन्नो विशेषेण दीनः.BE किं कृत्वा? तान खंडिकान् छात्रान काष्टभूतान् काष्टसदृशान्निश्चेष्टितान् दृष्ट्वा, पूनः कीदृशान् तान? अवहेठितपृष्टसदु|त्तमांगान, अवहेठितानि पृष्टयावत् नामितानि, पृष्टिं गत्वा लग्नानि संति शोभनान्युलमांगानि मस्तकानि येषां ते For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् भाषांतर अध्य ॥६९२॥ ॥६९ अवहेठितपृष्टसदुत्तमांगास्तान, पश्चाद्भग्नपृष्टदेशसंलग्नमस्तकान्. पुनः कीदृशान? प्रसारितवाहकर्मचेष्टान्, प्रसारिताः प्रलंबीकृता याहयो यैस्ते प्रसारितवाहवः, न विद्यते कर्मणि अग्निविषये इंधनघृतादिनिक्षेपणे चेष्टा सामर्थ्य येषां ते अकर्मचेष्टाः, प्रसारितबाहवश्च ते अकर्मचेष्टाश्च प्रसारितबाहकर्मचेष्टास्तान, बाहुप्रसारणत्वेन दूरे पतितें धनदीकानित्यर्थः, पुनः कीदृशान्? निर्भरिताक्षान् , निर्भरितानि प्रसारितानि अक्षीणि यैस्ते निर्भरिताक्षास्तान, तरलितनेत्रान्. | पुनस्तान किं कुर्वनः! रुधिरं वमतो मुखाद्रक्तं श्रवतः, पुनः कीदृशान्? ऊर्ध्वमुखानू_वदनान , पुनः कीदृशान् , निर्गतजिहानेबान् जिढा च नेत्रं च जिहानेत्रे, निर्गते जिहानेत्रे यषां ते निर्गतजिहानेत्रास्तान्. ॥२९ ॥ ३० ॥ अथ स | ब्राह्मणो हरिकेशऋषि कीदृशैर्वचनैः प्रसादयति? तानि वचनान्याह अथ त्यारपछी, ते ब्राह्मणा ऋपिने प्रसन्न करया बोल्यो. केवो ब्राह्मण? सभार्य-पत्नी सहित; केम प्रसादन करतो? ते कहे छे-'हे नदंत=पूज्य! हीला अमें करेल अपमान तथा निंदा; अमें जे तमारी निंदा करी ते निदाने पण तमें क्षमा करो.' ब्राह्मण | केवो? विमना=मन जेनु दवायेल छे, बळी विखिन्न विशेषे दीन. केम करीने? ते खंडिक छात्रोने काष्ठभूत लाकडा जेवा निश्चेष्ट | जोइने; फरी केवा? पीठ सूधी नमावेल छे उत्तभांग-मस्तक जेणे तथा प्रसारित भुजवाळा अने कर्मचेष्टा रहित बनेला=अग्निमां इंधनादि नाखवा सामर्थ्य जेमां नथी तेवा; वळो प्रसारित छे नेत्र जेनां एवा अने रुधिरन बमन करता, उंचा मुखवाळा तेमज जीहा तथा नेत्र जेनां नीकलां छे तेवा. २९-३० बालेहिं मूढेहिं आयाणएहिं । जे हीलिया तस्स खमाह भते ॥ For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महप्पसाया इसिणो हवंति । हुँ मुंगी कोपरा हेवंति ॥ ३१ ॥ उत्तराध्य- [भते] हे भगवान् (मूडेहि) मूढ (अयाणएहि) अज्ञानी [बलेहि] आ बाळकोए [ज'] जे (हीलीमा) तमारी हीलना करी [तस्स] यनसनम BET भाषांतर ते (खमाह) क्षमा करो. कारण के (इसिणो) ऋषिओ (महप्पसाग) महा प्रसादवाळा (हवं ति) होय छे. (हु) परतु (मुणी) मुनिश्री अध्य०१२ [कोवपरा] कोपयुक्त [न हवं ति] होता नथी. ३१ al व्या०-भो पूज्याः! भो भदंताः! एभिर्यालैः शिशुभिमूढः कषायमोहनीयवशगेमबंहिताहितविवेकविकलैः ॥६९३॥ जं इति यस्मात्कारणात् गूयमवहीलिता अवगणिताः, तस्स इति तस्य अवहीलनस्यापराध क्षमध्वं? ऋषियो महाप्रJEJ सादा भवंति, अतीवनिर्मलचेतसो भवति. न पुनर्मुनयः कोपपराः क्रोधपरायणा भवंति, मुनयः क्षमावतो भवंति.३१DE तदा मुनिः किमवादीदित्याह हे पूज्य भदंत ! कपाय महोहनीयने परवश बनेला तथा पोताना हित अहितना विवेक वगरना आ मूढ बाळ कोये तमारी जे हेलना अवगणना करी तेना अपराधने क्षमा करो. ऋपिओ महाप्रसाद अत्यंत निर्मल चित्त होय छे, मुनियो क्रोधपरायण धता नथी. किंतु क्षमावारा होय छे. ३१ पुचि च इहि च अणागयं च । मणप्पओसोने मे अस्थि कोइ ।। जक्खा उ वेयावडियं करेंति । तम्हा हु ऐए निहंया कुमारा ॥ ३२ ।। [पुयि च पहेला [इण्डि' च) तथा हमणा (अणागय च) भविष्यमां (मे) मारे [कोइ] कांदपण (मणप्पभोसो) मननो प्रदेष यमनी Fer Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१२ ॥६९४॥ उपर [न अस्थिी नधी (हु) जे कारण माटे (जन्या) यक्षो वेभावडिभ] अमारी चैयावृत्य [करे ति करे छे (तम्हा हु] ते कारउत्तराध्य- णथी (एए) आ (कुमारा) छात्रो निहया] हणाया छे, ३२ पनसूत्रम् व्या०-भो ब्राह्मगाः! मे मम पूर्वमतीतकाले च पुनरिण्डि इदानीं वर्तमाने काले, च पुनरमागत आगामिनि ॥६९४॥ काले मनःप्रद्वेषो नास्ति, अतीतकाले नासीत् , इदानी प्रद्वेषो नास्ति, अग्रेऽपि न भविष्यतीत्यर्थः. कोऽयल्पोऽपि नास्ति, हु पुनरर्थे, येन यक्षा वैयावृत्त्यं साधुतर्ज फनिवारणां साधुभक्ति कुर्वति, तस्मात् हु इति निश्चयेन एते कुमार, JE] यौनिहताः. ॥३२॥ अथ सर्वे उपाध्यायादयस्तद्गुणाकृष्ठचित्ता एवमाहुः हे ब्राह्मणो ! मन पूर्व भूतकाळमां, तेम हमणां के अनागत=भविष्यकाळमां मनःपद्वेष नथी. अर्थात् अतीत काळमां हतो नहिं, वर्तमानकाळमा प्रद्वेष छे नहिं तेम आगळ पण थशे नहि. कोइ पण अल्प पण नथी. ('हु' पुनः शब्दना अर्थमां छे.) जे आ यक्षो वैयावृत्य-साधुने तरछोडनारापोर्नु निवारण करी साधुमक्ति करे छे तेथी आ कुमारो यक्षोये हणाया छे. ३२ ते पछी उपाध्यायादि तेना गुणोथी आकर्याय आम बोल्या. अत्थं च धम्मं च वियाणमाणा । तुम्भे नवि कुप्पह भूईपन्ना ।। तुम्भ तु पाए सेरणं उवेमो । समागया सव्वजणेण अम्हे ॥ ३३ ॥ (अत्थं च) शास्त्रोना अर्थने [विआणहाणा] जाणनारा (भूति प्रज्ञावाळा (तुष्भे) तमे [ण वि कुप्पह] कदी पण कोप नज पामो. [सव्वजणेण] सर्व परिवार साथे [समागमा एकत्र थइने आवेला (अम्हे) अमे (लुब्भ'तु) तमाराज [पाए पादने [सरण] शरणरूप For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । (उवेमो) अंगीकार करीए छीए. ३३ उत्तराध्य ___व्या०-हे स्वामिनः! ययमपि निश्चयेन न कुप्यथ, कोपं न कुरुथ. कथं नृता यूयं? अर्थ सर्वशास्त्राणां तत्त्वं, च पनमूत्रम् I भाषांतर पुनर्धर्म वस्तृनां स्वभावं, अथवा धर्म दशविध साध्याचारं विजानानाः, अर्थधर्मज्ञा इत्यर्थः, पुनः कथंभूना यूयं? भूतिः | अध्य०१२ ॥६९५॥ सर्वजीवरक्षा तत्र प्रज्ञा येषां ते भूतिप्रज्ञाः, तस्मादयं तुभं इति युष्माकं चरणयोः शरणमुपेम उपागताः स्म. अम्हे ॥६९५॥ शब्देन वयमिति ज्ञेयं, कोशा व? सर्वजनेन समागताः सर्वकुटुंबपरिवारेण समागता मिलिताः. ॥ ३३ ॥ हे स्वामी ! तमे निश्चये नन कोप करो. केवा तमे? अर्थ सर्व शास्त्रोना तच्चने तथा धर्म-वस्तुस्वभावने; अथवा धर्म एटले Ra| दशविध साधुभोना आचारने विशेषे जाण नारा, तथा भूति=सर्व जीव रक्षा, तेमां जेनी प्रज्ञा बुद्धि वर्ते छे तेवा छो ते कारण माटे २५) सर्व जन=कुटुंब परिवार सहित अत्रे मळेला अमे तमारा चरणने शरणे आव्या छइए. ३३ अनेम ते महाभाग । नेते किंचिन अश्चिमो ॥ भुंजाहि सालिभं करें । नाणावंजणसंजुयं ॥ ३४॥ (महाभाग) हे महाभाग ! [ते] तमारी (अच्चेमु अमे पूजा करीए छीए (ते) तमारी [कि चि] पादनी रज पण [न अञ्चिमो] अमे| नहें पूजीए एम (न) नहीं [नाणावजण संजु] दहीथी युक्त एया (सालिच) शालिमय [करं] ओदनने [मुजाहि] अहीं थी ग्रहण करी तमे जमो. ३४ व्या०-हे महा भाग! ते तव सर्वमप्यर्चयामः, ते तव सर्वमपि श्लाघयामः, न ते तव किमपि चरणधुल्यादिकमपि यद्वयं नार्चयामः, के वयं ये त्वां नाचगामः, त्वं तु देवानां पूजाह, वयं तव कां पूजां कुर्मः? एतादृशी का For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१२ ॥६९६॥ पूजास्ति? या तव योग्या, परंतु वयं दासभावं कुर्म इत्यर्थः. 'सालिम' इति शालिमयं सम्यग्जातिशुद्धं शालिनिष्पन्न उत्तराध्य-HE कूरं तंडुलभोज्य भुंजाहि मुंश्व? कथंभूतं कूरं? नानाव्यंजनसंयुत, बहुविधैर्यजनैर्दध्यादिभिः सहितं. ॥ ३४ ॥ यन सूत्रम् हे महाभाग ! तमारा सर्नु अमे अर्चन कराये छइये; अर्थात् तारा सकळ पदार्थने अमे वखाणीये छइए. तमारं कंइ पण एवं ॥६९६॥ नथी के जे अमे नपूजीए तमारा चरणनी रज पण अमे अर्चीचे छइए. तगे तो देवोये पूजवा योग्य छो. एवी कोइ तमारे योग्य पूजा नथी परंतु दास भावे कहीये छीये के-बहु प्रकारना दही वगेरे त्यां जनोथी मुक्त सारी जातना शाळना चोखानो कूर=भात (तंदुल भोज्य) भोजन करो. ३४ इमं च में अत्थिं पभूधमन्नं । तं भुंजमू अम्ह अणुग्गहट्ठा ॥ बाद से पडिच्छेइ भत्तपाण । मासस्सउ पारणए मैहप्पा३५/ (च) वळी [इमआ देखातु (मे] मारु (पभू' अन्न) पुष्कळ अन्न [अस्थि] छे, (त) ते [अम्ह] अमारा (अणुग्गहठ्ठा) अनुग्रहने माटे (भुजस्) आप ग्रहो त्यारे (बाद') बहु सारु' (ति) ए प्रमाणे बोलता (महप्पा) ते महात्माए (मासस्स उ) माण खमणनाज JE[पारणाम] पारणाने विषे [भत्तपाण] भात पाणी (पडिच्छद) ग्रहण कर्या. ३५ व्या०-हे स्वामिन ! मे मम इदं प्रत्यक्षं खंडमंडकादिकं अन्नं प्रभूतं वर्तते, प्रचुरं वर्तते, पूर्वमपि शालिमयं करग्रहणं कृतं, अत्र च पुनरन्नग्रहणं तत्सर्वानप्राधान्यख्यापनार्थ तद्भोज्यं मुंश्वास्माकमनुग्रहार्थ लाभार्थ, इतिव्राह्मणैः | प्रोक्ते सति मुनिः प्राहयादं इत्युक्त्वा, तथास्तु, बादशब्दोंगीकारे, एवमेव करोमि, गृहीष्यामीत्युक्त्वा साधु सस्य पारणके भक्तपानमाहारपानीयं प्रतीच्छत्यंगीकरोति. कथं नूतः स मुनिः? महात्मा, महान् निर्मलो निःकषाय आत्मा For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यस्य स महात्मा महापुरुषः ।। ३५ ॥ उत्तराध्य IBE भाषांतर हे स्वामिन् ! मारूं आ प्रत्यक्ष सामु पडेलु खंडमंडकादिक पुष्कळ अन्न हाजर छे. पूर्वे पण शाळना चोखानो कूर=भात स्त्रीपनमत्रम TRE अध्य०१२ | कार्यो, बळी अहीं पण फरी 'अन्न' पदनुं गृहण सर्व अन्ननुं ख्यापन करवा माटे करेल . ते भोज्य पदार्थो अमारो अनुग्रह करवा जमो. आम ब्राह्मणोये कर्यु त्यारे मुनि बोल्या-बाढं=तथा स्तु, [बाढंशब्द अंगीकार अर्थमां छे] 'एमज करुं छु.' 'गृहण करीश' JE ॥३९॥ Je आम बोलीने साधुए एक मासना पारण विधानमा आहार तथा पाणी अंगीकार कर्यां मुनि केवा? महात्मा महान्=निर्मळ कपाय रहित छे आत्मा जेनो अर्थात् महापुरुष. ३५ तहि ये गंधोदयपुप्फवासं । दिव्वा तहि बसुहारा ये वुटा । पहायों उदुंदुदिओ सुरेहिं । आगासे अहो दाणं च धुठं॥३६॥ तिमि ते यशपाठकने विषे [अगासे] आकाशमा रहेला [सुरेहि] देवोए [गधोदयपुप्फवास] गंधोदक पुष्प वृष्टि करी [य] JE तथा (तहि) त्यां (दिव्या) दीव्य [बसुहारा] वसुधारा (बुट्टा) वरसावी तथा [दुदुहीओ] देवदंदुभिओ (पहयाओ) वगड्या (च) तथा Eml [अहो दाणं] अहो दान ए प्रमाणे [घुड] घोषणा करी. ३६ । व्या०-तहि तस्मिन् यज्ञपाटके मुनिना आहारे गृहीते सति गंधोदकपुष्पवर्षमभूदिति शेषः, सुगंबपानीयकुसुमवर्षा आसन इत्यर्थः. च पुनस्तस्मिन् स्थाने दिव्या प्रधाना देवैः कृता वसुधारा वृष्टां, स्वर्णदीनाराणां वृष्टिरभूत्. JE| वसु द्रव्यं तस्य धारा सततपातजनिता वसुधारा, सा वृष्टा देवैः पातिता इत्यर्थः. तु पुनराकाशे सुरैनुभयः प्रहताः, | देवराकाशे वादित्राणि वादितानी, च पुनराकाशे अहोदानमहोदानमिति घुष्टं देवैः शब्दितं. ॥ ३६ ॥ तदा च विजा For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 विस्मिताः किमाहुस्तदाहउत्तराध्य भाषांतर यनसूत्रम् त्यां यज्ञबाट प्रदेशमां-मुनिये आहार लीधो त्यारे गंधोदक-मुगंधयुक्त जळ तथा सुगंधी पुष्पोनी वर्षा थइ वळी ते स्थाने | अध्य०१२ दिव्य एटले प्रधान देवताओए करेली वसुधारा-सुवर्णादिद्रव्यनी धारा-वर्षी, अविच्छिन्न सुवर्ण धारा वर्षवा लागी तथा आका॥६९८॥ P | शमां देवोए दुदुभिओ महता वगाड्या, देवोए आकाशमां वादित्र वगाडवा मांड्या, अने आकाशमा 'अहो दानं' 'अहो दान' ||g ॥६९८॥ एवा शब्दोनी देवोए घोषणा करी. ३६ त्यारे विस्मय पामेला द्विज शृं बोल्या ते कहे छे. सक्ख खुदीसह वोबिसेसी । न दीसा जइविसेसो कोई । सोवागपुत्तं हरिएससाहुं । जस्सेरिसा इदि महागुंभागा३७ ३६ (तबोविसेसो) तपनु विशेष महात्म्य (सक्व खु साक्षात् देखाय छे (कोइ) कांड पण [जाइ बिसेसु] जातिनु विशेषपणु (न दीसई देखातुनथी. (सोबागपुत्त) मा चांडाळपुत्र (हरिएससाहु) हरिकेश साधुने जुभो (जस्त) जेनी (एरिसा) भावो (महाणुभागा) मोटा भाग्यवाळी (इट्ठि) समृद्धि छे. ३७ व्या०-खु इति निश्चयेन तपोविशेषः साक्षाद् दृश्यते, जातिविशेषः कोऽपि न दृश्यते, तपोमाहात्म्यं दृश्यते. D] जातिमाहात्म्यं किमपि न दृश्यते. श्वपाकपुत्र चांडालपुत्रं तं हरिकेशसाधुं पश्यत इति शेषः. तमिति कं? यस्य हरि-JE केशस्य साधोरेतारशी सर्वजनप्रसिद्धा ऋद्वितते, देवसाहाय्यरूपा संपर्तते, कीदृशी ऋद्धिः? महानुभागा महाननु|भागोऽतिशयो यस्याः सा महानुभागा, महामाहात्म्यसहिता इत्यर्थः ॥ ३७ ।। अथ मुनिस्तान ब्राह्मणानुपशांतमि| ध्यात्वान् दृष्ट्वा धर्मोपदेशमाह For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'खु' निश्चये=तपो विशेष साक्षात् देखाय छे; जाति विशेष कोइ पण नथी दीसतो. तपोमाहात्म्य देखाय छे, जातिमाहात्म्य | भाषांतर उत्तराध्यकंइ पण देखातुं नथी. आ चांडाल पुत्र हरिकेश साधुने='जुओ' [एटलं शेष उमेरवानुं छे.] ने कोण? हरिकेश साधुनी आवी सर्व ID अध्य०१२ यनसूत्रम| BE | जन प्रसिद्ध ऋद्धि-देव सहायरूपा संपत्ति केवी ऋद्धि! महानुभागा=महोटा माहात्म्य सहित छे. ३७ ॥६९९॥ मुनि तेओने उपशांत मिथ्यात्व जाणीने धर्मोपदेश कहे छे. ॥६९९॥ कि माहणा जोइसमारभंता । उदएण सोहिं बहियां विमग्गह ॥ जं मैग्गहा बाहिरियं विसोहिं । न त सुदिठ्ठ कुसेला बयंति ॥ ३८ ॥ KAII [माहणा] ब्राह्मणो! [जाइस आर भता] अग्निनो आरभ करता सता (उदएण) जळवडे (बहिआ) बहारनी [सोहिं] शुद्धिने तमे JE(कि) केम (विमग्गह) शोधो छो! कारण के (ज) जे (बाहिरि) बहारनी (विलोहि) विशुद्धने (मग्गहा) तमे शोधो छा त] तेने (कुसला) पंडित पुरुषो (सुदिट्ठ) सारु जोयेलु (न वयंति) कहेता नर्थी. ३८ व्या०-किमितिशब्दोऽधिक्षेपे. भो ब्राह्मणा यूयं शृणुत? ज्योतिरग्नि समारभंत., अग्नीनां समारंभं कुर्वतः किं ब्राह्मणा भवति? अपि तु न भवंति. भो ब्राह्मणाः! उदकेन शोधि कुर्वतो बायां शुद्धि विनायथ जानीथ. यागं कुर्वतः नानं कुर्वतश्च ब्राह्मणा न भवंतीत्यर्थः. यां यागलानादिकां बाह्यां विशुद्धि विमार्गयथ विचारयथ, तां बाह्यो विशुद्धि कुशला ज्ञानतत्वाः सुदृष्टं सम्यग्दृष्टं न वदंति, यत् यज्ञादावग्नीनां तेजस्कायस्थजीवानां विराधना, अथ च स्नानादी अप्कायस्थजीवानां विराधना विशुध्ध्यर्थ विधीयते तत्त्वज्ञैर्न सम्यग्दृष्टं, सम्यग न कथितमित्यर्थः. यदुक्तं-स्नानं मनो For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यघनसूत्रम् ॥७०० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलत्यागो | यागचेंद्रियरोधनं । अभेददर्शनं ज्ञानं । ध्यानं निर्विषयं मनः ॥ १ ॥ इति ॥ ३८ ॥ ('किम् इति' शब्द अधिक्षेप अर्थमा छे.) हे ब्राह्मणो ! तमे सांभळो; ज्योतिः अग्निना समारंभ करनारा शुं ब्राह्मणो थाय छे ? नहि उदक वडे शुद्धि करता बाह्य शुद्धि जाणो छो=याग अथवा स्नान करवाथी ब्राह्मण नथी थवातुं जे याग स्नानादिक बाह्य शुद्धिने गोतता फरो छो ते बाह्य शुद्धिने कुशल पंडित पुरुष सुट्ट=सम्यकदृट नथी कहेता. जे अग्निमां तेजःकायस्थ जीवोनी विराधना तथा स्नानादिकमां अकायस्थ जीवोनी विराधना कराय ते तत्वज्ञ जनो सारुं नथी कहेता. कछु छे के - 'मनोमलनो त्याग ए स्नान छे; इन्द्रियोनो निरोध कराय ते याग छे, अभेद दर्शन एज ज्ञान अने मनने निर्विषय कराय एज खरं ध्यान छे.' कुसंच जून तक मग्गिं । सायं च पार्थ उदयं फुसंता | पाणाई भूयाई विहेडयंता । भुजोवि मंदा पकेरेह पाव३९ [कुस' च] कुश=दर्भ तथा (जूत) यशस्तंभ (तणकट्टे) तृण तथा (अग्गि) अग्नि वळी (सायं च) सायंकाळे अने [भूआइ] धनस्पतिकायने (विजयता) विविध प्रकारे पीडा करता तमे ब्राह्मणो (भुजो वि) फरीने पण (मंदा) मंद (पाव) पापकर्म'ने (पकरेह] करो छो. ३९ व्या० - भो ब्राह्मणाः ! मंदा यूयं भूयोऽपि पुनरपि शुद्धिकरणप्रस्तावेऽपि पापं प्रकुरुय. पूर्वमपि संसारकार्यकर प्रस्तावे आरंभं कृत्वा प्राणान् भूतानि विनाश्य पातकमुपार्जितं, पुनर्धर्मकरणप्रस्तावे तदेव क्रियते इत्यर्थः किं कुर्वतः ? कुशं दर्भ, यूपं यज्ञस्तंभं, तृणं वीरणादिनडादिकं, काष्टं शनीवृक्षस्यैधनं, अग्निं च एतत्सबै प्रतिगृह्णनः, एतत्सायं संध्याकाले, च पुनः प्रातः प्रभाते उदकं पानीयं स्पृशंत आचमनं कुर्वतः, अत एव प्राणान् द्रोंद्रियत्रींद्रियचतुरिन्द्रि For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१२ ||७०० || Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | यान भूतान, असून पृथिव्यादीनपि तदाधारभूतान विहेडयंतो विशेषेण हिसंत इत्यर्थः. एतेषामेव प्राणभूतसत्वानां उत्तराध्य- विराधनेन हिंसा भवति. पुनरेतेषामेव शुद्धिकरणकाटेऽपि विराधना विधीयते, कुतोऽस्माकं शुद्धिर्भवित्री? इति न IBE भाषांतर पनमत्रम 1 अध्य०१२ | जाति, अत एव मंदा मूर्खाः, यत उक्तं-दृष्टिपूर्व चरेन्मार्ग । वस्त्रपूतं पिवेज्जलं ॥ ज्ञानपूत सजे धर्म । सत्यपूर्व वदे॥७०१॥ | वचः॥ १॥ ३९ ॥ अथ प्रत्युत्पन्नशंकास्ते ब्राह्मणा धर्म पप्रच्छु: ॥७०१॥ हे ब्राह्मणो! मंद एवा तमे फरीने पण शुद्धि करवामां पाप करो छो. पूर्वे पण संसार कार्य करता आरंभमांज प्राण तथा KI भूतोनो विनाश करी पातक कर्य पार्छ धर्म करवाना प्रसंगे पण एज कराय छे. शुं करीने? कुश-दर्भ; यूप=यज्ञस्तंभ, तृण-पीरण खड | आदिक, काष्ठ-शमी वृक्षनी समिध तथा अग्नि; आ मगळु लइने सायं-संध्याकाळे सेमज प्रातः प्रभाते उदक जलनो स्पर्शाच|| मन वगेरे करता, माण=द्वींद्रिय, त्रीद्रिय तथा चतुरिद्रिय भूत प्राण तथा तेना आधाररूप पृथिव्यादिकने पण विशेषे करी हिंसता; [ए प्राणभूत सत्वोनी विराधनाथी हिंसा थाय छे.] वळी एओनी शुद्धि करती वेळाये पण विराधना कराय छे, 'अमारी शुद्धि केम || यशे' ए तेओ नथी जाणता तेथी मंद-मूर्ख कह्या. का छे के–मार्गमां चालतां आगळ दृष्टिथी प्रदेश जोइने पगलुं भरवू; जळ | वस्त्रथी गाळीने पीy; ज्ञानथी पवित्र जाणीने धर्म करवो तथा सत्यथी पवित्र वचन बोलवु. ३९ पछी ब्राह्मगोने शंका थतां धर्म पूछवा लाग्याकह चरे भिवरेखु वयं यजामो । पावाई कम्माई पणुल्लयामो ॥ आखाहिणो संजय जैक्वपूइया । केहं सुई कुसला वयंति ॥ ४० ॥ Fer Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषातर अध्य०१२ ७०२॥ (भिक्खु) भिक्षु [चय] अमे [कह] केवीरीते (चरे) यज्ञ माटे प्रवर्तीए (यजामो) के जेना वडे (पावाई) अशुभ पवां [कम्माई] कोने उत्तराध्य-IRE | (पणोल्लयामो दूर करीए (संजय) हे संयत [जक्खपूइभा] हे यक्षोवडे पूजित (णो) अमने [अक्खाहि] तमे कहो, [कुसला तत्त्वज्ञा- यनसूत्रम् नीओ (कह) कोने (सुइट) सारो यज्ञ (वयंति) कहे छ. ४० ॥७०२॥ व्या०-हे भिक्षो ! वयं कथं चरेमहि? कस्यां क्रियायां प्रवर्तेमहि? हे भिक्षो! पुनर्वय कथं यजामो यागं कुर्मः? ३) पुनर्वयं पापानि पापहेतृनि कर्माणि कथं प्रणुल्लयामः प्रणुदामः प्रकर्षण स्फेटयामः? हे यक्षपूजित! हे संयत! जितें | द्रिय! कुशला धर्ममर्मज्ञा विद्वांसः कथं केन प्रकारेण सुइट इति सुष्टु शोभनं इष्टं स्विष्टं शोभनयजनं वदंति! तत् | शोभनयज्ञं नोऽस्मान् आख्याहि ? कथय ? इत्यर्थः ॥ ४० ॥ अथ मुनिराह हे भिक्षो ! अमे कइ क्रियामा प्रवर्तीए? तेम अमे केवी रीते याग करीये? तथा अमे अभारा पाप कर्मोने केवी रीते तद्दन RE] फेडी दइये? हे यक्षपूजित ! संयत जितेंद्रिय ! कुशल-धर्मने जाणनारा विद्वान् जनो कया प्रकारे करेलाने सारं यजन शोभनयाग कहे छे ते शोभन यक्ष अमने कहो. ४० छज्जीवकाय असमारंभता । मोसं अदत्तं च असेवमाणा । परिग्गहं इथिओ माणमयं । ऐयं परिन्नाय रंति देत४१ IBE [छज्जीवकाए छकायनो (असमारंभता) आरंभ नहि करता तथा [मोस] मृपावादने [च अने [अदत्त] अदत्तादानने (असेवमाणा) नहिंसेवता तथा (परिग्गह) परिग्रह (इथिओ) खीओ [माण] मान अने (माय) माया (प) ए सर्वे (परिमाय परिझायडे | करीने [दता] दांत-दमनारा (चरति) प्रवते छे ४१ द (इन्धिमानहि करता तथा [मोसाही इथियो माणमेयं ।। For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या०-पूर्व ब्राह्मगैत्यं प्रश्नो विहितः, कथं वयं प्रवर्तेमहि? तस्योत्तर-भो ब्राह्मणाः! दांता जितेंद्रिया एतत्पूर्वोक्तं उत्तराध्य- पापहेतुकं परिज्ञाय चरंति प्रवर्तते. साधवो ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया आरंभान्निवर्तते इति भावः. दांताः IBE भाषांतर यनमूत्रम किं कुर्वाणाः? पद्जीवकायान् असमारंभमाणा अनुपमर्दयंतः, पुनर्मषावादं च पुनरदत्तं असे वमानाः, पुनः परिग्रह अध्य०१२ ॥७०३॥ Be उपकरणमूछी, सचित्ताचित्तद्रव्यग्रहणरक्षणात्मकं, पुनः स्त्री, तु पुनर्मान्नमभिमान, पुनर्मायां परवंचनात्मिकां असेव. ॥७०३॥ मानाः, मानमाययोः सहकारित्वेन क्रोधलोभयोरपि त्यागो ज्ञेयः. एतान् सर्वान् पापहेतून् ज्ञात्वा, पुनस्त्यक्त्वा साधवो यतनया चरंति, अतो भवद्भिरपि एवं चरितव्यमित्यर्थः ॥४१॥ अथ द्वितीपप्रश्नस्य कथं यजाम इत्यस्य उत्तरमाह पूर्वे ब्राह्मणोये आ प्रश्न कर्यो हतो के अमे केम बीए? तेनुं उत्तर-हे ब्राह्मणो ! दांत=जितेंद्रिय पुरुषो, आ पूर्वोक्त पाप हेतु JL/] जाणीने प्रवर्ने छे. साधुओ ज्ञपरिज्ञा बडे जाणी प्रत्याख्यान परिज्ञावडे आरंभथी निवृत्त थाय छे. ए दांत केम करीने विचरे छे? । छ जीवकायने उपमर्द न करता, वळी मृषावाद तथा अदत्तने न सेवनारा अने परिग्रह-सचित्त अचित्त आदि द्रव्योनुं गृहण तथा avi रक्षणरूप उपकरण मूर्छा तथा स्त्रीयो, अभिमान, परवंचन रूप माया; इत्यादिकने नहिं सेवता,-अहीं मान तथा मायाना सहकारी क्रोध तथा लोभनो पण त्याग जाणी लेवो-ए सर्व पाप हेतुओने जाणीने तेमज जाण्या पछी त्यजीने साधुओ यतनापूर्वक विचरे छे | माटे तमारे पण एवी रीते वर्तवू. ४१ हवे 'केम यजन करीये? ए वीजा प्रश्न उत्तर कहे छे. सुसंबुडा पंचहि संवरेहिं । इह जीवियं अणवकर्खमाणा ॥ वोसहकाया सुई चत्तदेहा । महाजयें जैवइ जैनसिट्ठ॥४२॥ पंचहि] पांच (सघरेवि) सवरवडे [सूसंबुडा] सारो रीते संवृत तथा [इह] आ भवने विषे [जीविभ'] जीवितने (अणयक खमाणा) For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१२ 11७०४॥ नहि इच्छता [बोसहकाया परीपहो तजी दीधा छे तथा सुइचत्तदेहा] शुचि रहित त्यक्त देह [महाजय'] मोटा पराभव छ जेमा || उत्तराध्य पवा [जन्नसिट्ट] धेष्ट यज्ञने [जयइ] यजे छे. ४२ पनमूत्रम् व्या०-भो ब्राह्मणाः ! पंवभिः सबहिंसामृषाऽदत्तमैथुनपरिग्रहविरमणैः सुसंवृताः सुतरामतिशयेन संवृता ॥७०४॥ आच्छादिताश्रवा निरुद्धपापागमनद्वाराः सुसंवृताः संयमिनः जन्नसिष्ठं यज्ञश्रेष्टं यजति कुर्वतीत्यर्थः. यज्ञेषु श्रेष्टो यज्ञ श्रेष्टस्तं, अथवा श्रेष्टो यज्ञः श्रेष्टयज्ञस्त, प्राकृतत्वात् यज्ञश्रेष्टमिति ज्ञेयं. कीदृशं श्रेष्टयज्ञं? महाजयं महान् जयः कर्मारीणां विनाशो यस्मिन् स महाजयस्तं. कीदृशाः सुसंवृताः? इहास्मिन् मनुष्यजन्मनि जीवितं, प्रस्तावादमयनजीवि. तव्यं अनवकांक्षमाणाः, असंयममनीप्संत इत्यर्थः. पुनः कीदृशाः सुसंवृताः? व्युस्मृष्टदेहाः, विशेषेण परीषहोपसर्गसहने उत्कृष्टः कल्पितः कायो यैस्ते व्युत्कृष्टदेहाः. पुनः कीदृशाः? शुचयो निर्मलव्रताः, पुनः कीदृशाः? त्यक्तदेहाः, त्यक्तो निर्ममत्वेन परिचर्याभावेन अवगणितो देहो यैस्ते त्यक्तदेहाः, एतादृशाः साधवः स्विष्टं यज्ञं कुर्वति एष एव कर्मप्रस्फेटनोपाय इत्युक्तं. ततो भवंतोऽप्येवं यजंतामिति भावः ॥ ४२ ॥ यजमानस्य कान्युपकरणानीति पुनर्लाह्मणाः पृच्छतिस्म हे ब्राह्मणो! पांच संबर-हिंसा, मृपा, अदत्त, मैथुन तथा परिग्रह; आ पांचथी विराम पामवारूप संवर पंचमहाव्रतवडे सम्यक्Ravकारे संवृत=आश्रयद्वारने बंध राखता संयमी पुरुषो यज्ञश्रेष्ठ यज्ञोमां श्रेष्ठ यज्ञ करे छे, [पाकृतमा पूर्वनिपात थतां यज्ञ श्रेष्ठ पद था शकेकेवो यज्ञ श्रेष्ठ ? महाजय, एटले कर्मरूप अरिनो जेमां विनाश थाय तेवा महोटा जयने पामे छे. वळी ते का? आ मनुष्य 'संत इत्यर्थः सचताः? इहारिमय कीदृशं श्रेष्टा For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य जन्ममा जीवित प्रसंगमां साधारण जीदित न किंतु असंवृत जीवितनी आकांक्षा न राखनारा असंयम दशाने नहिं इच्छनारा, IOS पनसूत्रम भाषांतर | तेमज व्युत्सृष्ट देह विशेषतः परीपह उपद्रवादिक सहन करवामांज जेणे देह समर्पण करेल छे एवा तथा शुचि-निर्मळाचरणी अने अध्य०१२ ॥७०५॥ त्यक्त देह, अर्थात् ममता छुटी जवाथी परिचर्या न करतां देहनी अवगणना करनारा, आवा साधुओ सम्यकप्रकारे इष्ट यन्न करे छे. ३६ कर्मोने फेडवानो एज उपाय कहेलो छे, तेथी तमे पण एज प्रकारे यजन करो. ४२। ७०५॥ यजमानमां उपकरणो क्या? ए ब्राह्मगोनो प्रश्न कई छे. के ते जोई के च ते जोइठाणं । का ते सुया किं च ते कारिसंगं ।। एहा य ते कपरा संति भिक्खू । कयरेण होमेण हृणामि जोह ।। ४३ ।। JI तमार' ज्योतिः पय? पुनः ते ज्योतिः स्थान क्य? तमारी ऋचा कयी? तथा तमार्ग अडायां क्या? तथा तमारा धाकाष्ठ क्या? हे भिक्षो क्या होमबडे करी तमे ज्योति-अग्निमां होम करो छो?,४३ मूल गाथा ४३थी ४७ सुधी गाथानो मूलार्थ संक्षेपथीज आपेल छे कारण के टीकामां संपूर्ण अर्थ छे. __ व्या०-हे मुने! ते तव किं ज्योतिः? कोऽग्निः? च पुनस्ते तव किं ज्योतिःस्थानमग्निस्थानं? अग्निकुंड किमस्ति? JE| ते तव काः पुनः शुचो घृतादिप्रक्षेपका दर्यः? च पुनस्ते तव करीषांगं अन्युद्दीपनकारणं किमस्ति? विध्याप्यमानोDESग्निनोदीप्यते संयुक्ष्यते तत्करोषांगं तव किं विद्यते? च पुनरेधाः कतराः काः समिधः? याभिरग्निः प्रज्वाल्यते ताः काः संति? च पुनः शांतिदुरितोपशमहेतुरध्य पनपद्धतिस्तव कतरा कास्ति? हे मिक्षो ! त्वं कतरेणेति केन होमेन हव For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यघनसूत्रम् ॥७०६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नविधिना ज्योतिरग्नि जुहोषि ? अग्नि प्रीणयसि ? षड्जीवनिकायविराधना विना हि यज्ञो न स्यात्. हे भिक्षो ! भवता पड्जीवनिकायविराधना तु पूर्व निषिद्धा एवं ते ब्राह्मणा मुनये यज्ञं यज्ञोपकरणसामग्रीं पप्रच्छुः ॥ ४३ ॥ अथ मुनिर्योग्यं यज्ञनाह हेमुने! तमारुं ज्योति: क्यूं? अर्थात् अग्नि क्यों? तेमज तमारुं ज्योतिः स्थान= अग्निकुंड क्युं छे? सळगावात अग्नि जेनावती | संघरुखाय ते करीपांग=शुष्क गोमय एटले आडायां तमारे अडायां क्या? वळी जेनावडे अग्नि प्रज्वलित थाय तेवां समिध=काष्ठ क्या ? अने दुरितना उपशम अर्ये भणाती अध्ययनपद्धतिरूप शांति कइ ? हे भिक्षो ! तमे केवा प्रकारना होम हवन विधियी ज्योतिः= अग्निने होमो छोप्रीणन करो छो? पट्जीवकायनी विराधना विना यज्ञ न थाय. हे भिक्षो मे पड़जीवकायनी विराधना तो मथमीज निषिद्ध करी. [आम ए ब्राह्मणोए मुनिने यज्ञ तथा यज्ञनी तमाम सामग्री पूछतां हवे पछीनी गाथामां मुनि उत्तर क दे छे. ४३ तवो जोई जीवो जोइठाणं । जोगा सुया सरीरं कारिसंग || कम्मं एहा संजमजोग संती । होमं हुणानि इसिगं पसत्थं तपः ए ज्योतिः =अग्नि, जीव छे ते ज्योतिः स्थान- अग्निकुंड, योग स्रुच, शरीर हे ते करीपांग पटले अडायां छाणां कर्मों पधा= काष्ठ, संयमे योग शांति पाठ एवी रोते ऋपिओने माटे प्रशस्त वखाणवा लायक होम होमीये छइप. ४४ व्या० - भो ब्राह्मणाः ! अस्माकं तपो ज्योतिः, तप एवाग्निरस्ति, कर्मेन्धनदाहकत्वात्. द्वादशविधं हि तपः सकलकर्मकाष्टानि प्रज्वालयति, जीवो ज्योतिःस्थानं जीवोऽग्निकुंड, तपसो आधारत्वात्. मनोवाक्काययोगास्ते स्रुचो दय ज्ञेयाः मनोवाक्काययोगैः शुभव्यापारा घृतस्थानीयास्तपोऽग्निज्वालनहेतवो वर्तते. शरीरं करीषांगं, तेनैव शरीरेण For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१२ ।।७०६ ।। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir K] तपोऽग्निर्दीप्यते, शरीरसाहाय्येन तपः स्यादित्यर्थः, शरीरमायं खलु धर्मसाधनमित्युक्तेः. कर्माप्येधा इंधनानि कम-RE पनसूत्रम् धनानि तपोग्निः प्रज्वालयति, महादृष्टकर्मकारिणोऽपि तपसा निर्मलाः संजाताः, संयमयोगः शांतिः, संयमस्य सप्त- भाषांतर दशभेदस्य योगः संबंधः स शांतिः, सर्वजीवानामुपद्रवनिवारकत्वात. अनेन होमेनाहं तपोऽग्नि जुहोमि. कथंभूतेन INE अध्य०१२ ॥७०७|| | होमेन? ऋषीणां प्रशस्तेन, मुनीनां योग्येन, साधवो ह्येतादृशं यज्ञं कुर्वति, न अपरे एतादृशं यज्ञं कर्तुं समर्था ७०७॥ भवंति. ॥५४॥ यज्ञस्वरूपं तु साधुनोक्तं, अथ ब्राह्म गाः स्नानस्वरूपं पृच्छंति हे ब्राह्मणो ! अमारुं तपः एन ज्योति: अग्नि छे, कारण के ते कर्मरूप इंधन-काष्ठ=ने बाळे छे; द्वादश पकारनां तपो सकल कर्मरूपी काष्ठोने वाळे छे, जीव एज ज्योतिः स्थान तपनो आधार होवाथी अग्नि कुंड छे; मन वाणी तथा कायाना योग एन स्रुच | होम करवानां काष्ठपात्र छे मन वाणी तथा कायाना योगे शुभ व्यापार घृतरूप बनी तपोरूप अग्निना प्रज्वालन हेतु थाय छे शरीर करीपांग अडायांरूप संधूक्षण छे; ते शरीर वडेज तपोरूप अग्नि प्रदीप्त थाय हे; शरीर सहायथीज तप थाय. का छे के-'शरीर ए पहेलुं धर्म साधन छे.' कर्मो एज इंधन काष्ठ समिध छे. केम के कर्मरूपी इंधणां तपरूपी अग्निर्नु प्रज्वालन करे छे. महादुष्ट कर्म करवावाळा पण तपोनुष्ठानवडे निर्मल थाय छे. संयम योग-संयमना सत्तर भेदनो योग-संबंध, एज सर्व जीवोना उपद्रवोना निवाJE] रक होवाथी शांति पाठ समजवा, आ होमवडे हुँ तपरूपी अग्निमां हवन करुं छु. केवा होमवडे? ऋषिओना प्रशस्त अर्थात् मुनि| जनोने योग्य, साधुओ तो आवाज यज्ञो करे छे अन्य जन एका यज्ञ करवा समर्थ थता नथी. ४४ साधुए यज्ञस्वरूप का हवे ब्राह्मणो स्नानस्वरूप पूछे छे. For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के ते हरए के य ते संतितित्थे । कहिंसि हाओ य रयं जहासि ॥ उत्तराध्य भाषांतर आयख णो संजय जक्खपूइया । इच्छामु नाउं भवओ सगासे ॥ ४५ ॥ यनसूत्रम् Jअध्य०१२ हे यक्ष पूजित संयत-संयमिन् ! तमारो हृद-पाणीनो घुन्दो कयो! तमा शांति आपनाई तीर्थ कयु? तमे क्यों नाहीने रजः॥७०८३६ कर्ममलने त्यजो छो? आ सघलुमने कही देखाडो. तमारा पासेथी आ बधु हु जाणवाने इच्छुछु. ४५ ॥७०८॥ व्या०-हे ऋषे यक्षपूजित! त्वं नोऽस्मान् आचश्व बहि? वयं भवतः सकाशाद् ज्ञातुमिच्छामः, हे मुने! ते तव | को हृदः? कः स्लान करणयोग्यजलाधारः? किं पुनस्तव शांतितीर्थ? शांत्यै पापशांतिनिमित्ततीर्थ शांतितीर्थ पुण्यक्षेत्रं यस्मिन् तीर्थे दानादिबीजमुसं पातकशमन पुण्योपार्जकं च स्यात् , कुरक्षेत्रादिसदृशं किं तीर्थ वर्तते? पुनर्हे मुने! त्वं कस्मिन् स्थाने नातः सन् रजःकर्ममलं जहासि लजसि? त्वं निलो भवसि! एतत्सर्वेषां प्रश्नानामुत्तरं वदेत्यर्थः ॥४॥ | इति पृष्टे मुनिराह हे ऋषे ! यक्ष पूजित ! तमे अमने कहो, अमे तमारा पांसेथी जाणवाने इच्छीये छइये. हे मुने! तमारो हृद-न्हावा लायक जळाशय-वयो? तेम तमारं शांति तीर्थ क्यु? अर्थात् पाप शांति निमित्त भूत तीर्थ पुण्यक्षेत्र, जे तीर्थमां वावेल दानादि बीज पातकर्नु शमन करी पुण्यनु उपार्जन लाभ करावे छे एवं कुरुक्षेत्र समान क्यु तीर्थ छे? बळी हे मुने ! तमे कये स्थाने स्नान करी रजोरूप कर्म मळनो त्याग करो छो=मळमुक्त थइ शको छो? आ सर्व प्रश्नानां उत्तर कहाँ ४५ आम पूछ्यु त्यारे मुनि कहे छे धम्मे हरए बंभे संतितित्थे । अगाविले अत्तरसन्नलेस ।। For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य - पनसूत्रम् 1100911 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जहिसि हाओ विमलो विसुद्धो । सुमीयभूओ पजहामि दोसं ।। ४६ ।। धर्म एज हृद, ब्रह्मचर्य र अनाविल-डोळ वगरनु निर्मळ-शांति तीर्थ छे, जे आरमानी प्रसन्न लेश्यावाळा होवाथी जेने विषये स्नान करना, विमळ, विशुद्ध, तथा सारी रीते शीतल बनेलो हुं दोप=आत्माने दुषित करनारां कर्माने त्यजु छु, ४६ व्या० - भो ब्राह्मणाः ! धर्मो हिंसाविरमणो दद्याविनयमूलो हृदो वर्तते, कर्ममलापहारकत्वात्. ब्रह्मचर्य मैथुनत्यागः शांतितीर्थ, तस्य तीर्थस्य सेवनात् सर्वपापमूलं रागद्वेषौ निवारितावेव यदुक्तं - ब्रह्मचर्येण सत्येन । तपसा | संयमेन च ॥ मातंगर्षिर्गतः शुद्धि । न शुद्धिस्तीर्थयात्रा ||१|| कीदृशे ब्रह्मचर्य नीर्थे ? अनाविले निर्मले, पुनः कीदृशे ब्रह्मचर्यतीर्थे? आत्मप्रसन्नलेइये, आत्मनः प्रसन्ना निर्मलत्वकारणं लेश्या यस्मिन् स आत्मप्रसन्न लेश्यस्तस्मिन्, आत्मनिर्मलत्वकारणं तेजःपद्मशुकादिलेश्यात्रयं तेन सहिते इत्यर्थः यत्र यस्मिन् ब्रह्मचर्यतीर्थे नानोऽहं विमलो भावमलरहितो विशुद्धो गतकलंक: सुशीतीभूतो रागद्वेषादिरहितः सन् दोषं कर्म ज्ञानावरणीयादिकमष्टप्रकारकं प्रकर्षेण जहामि त्यजामि ॥। ४६ ।। हे ब्राह्मणो ! हिंसाविरमणरूप धर्म एज दयाविनय मूलक हृद छे केमके ते कर्गमक्रोनुं अपहरण करे छे, ब्रह्मचर्य= मैथुन त्याग शांति तीर्थ छे ते तीर्थना सेवनथी सर्व पापना मूलभूत रोग तथा द्वेषनुं निवारण थाय छे, वधुं छे के - ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा संयमेन च ॥ मातंगर्षिर्गतः शुद्धिं न शुद्धिस्तीर्थ सेवया ॥ १ ॥ ब्रह्मचय सत्य तथा तप अने इंद्रियांना संयमवडे मातंग ऋषि शुद्धि पाम्या, कंइ तीर्थ सेवन मात्रथी शुद्धि थती नयी ॥१॥ ए ब्रह्मचर्य तीर्थ के ? अनाविल= निर्मळ, तथा आत्मानी प्रसन्न = निर्मळत्वनी For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१२ ।।७०९ ।। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपनसूत्रम् भाषांतर अध्य०१२ ॥७१०॥ ॥७१०॥ कारणभूतत्वलेश्या जेमा छे तेवू; आत्मनिर्मळतानां कारण तेजः पद्म शुक्कादि लेश्यात्रय छे ते सहित ए तीर्थ छे, जे ब्रह्मचर्यतीर्थमा न्हायेलो हुँ विमळ=भाव मळ रहित, विशुद-गतकलंक तथा सुशीतीभूत रागद्वेषादि रहित थइ दोष ज्ञानावरगोयादि अष्टविध कर्मने मकर्षे करी त्यजूं छु.४३ एवं सिणाणं कुसलेहि दिई । महासिणाणं इसिणं पसत्यं ।। जहि सिण्हाया विमला विसुद्धा । महारिसी मुलमं ठाग पत्तेत्ति वेमि ॥४७॥ आ पूर्वोक्त स्नान कुशल पुरुषोर दीछे, अने ए ऋषिओर वखाणेलु महास्नान कहेवाय; जेने विपरो न्हायेला विमळ विशुद्ध महर्षिो उत्तम स्थानने प्राप्त थया छे. 'पम हुँ बोलु छु.४७ व्या-पूर्वमुक्त कर्मरजोविनाशकं स्नान, तस्योत्तरमाह-भो ब्राह्मणाः कुशलैस्तत्वज्ञैः केवलिभिरेतत् स्नानं दृष्ट, परेभ्यश्च प्रोक्तं, कथंभूतमेतत्स्नानं? महास्नानं सर्वेषु स्नानेवृत्तम. पुनः कीदृशं तत्स्नानं? ऋषीणां प्रशस्तै, मुनीनां योग्यं, येन स्नानेन स्नाताः कृतशौचा विमलाः कर्ममलरहिताः, अत एव विशुद्धा निष्कलंका महर्षयो मुनीश्वरा उत्तम प्रधान स्थानमन्मोक्षस्थान प्राप्ता इति अहं ब्रवीमि, जंबूस्वामिनंप्रति श्रीसुधर्मास्वामी पाह. ॥ ४७॥ इति हरिकेशीयमध्ययनं द्वादशं संपूर्ण. ।। १२ ।। इति श्रीमदत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मी कीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवलभगणिविरचितायां हरिकेशीयाध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥ १२॥ पूर्वे कहेलुं कर्मरूपी रजनुं विनाशक स्नान छे [उत्तर कहे छे] हे ब्राह्मणो ! कुशल तत्वज्ञ= केवलि भोये ए स्नान दीटुंबरा ان الان الا ان الفنان التنقل انتقال فكلنا للكافية ا لاسالیانه مانند البابا ليالييلافانيا For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CAN उत्तराध्य-10 पनसूत्रम ॥७११॥ वर जाण्यु छे, तेम परने पण उपदेश्यं छे. ए स्नान के छे? सर्व स्नानोमां उत्तम होवाथी महास्नान कडेवाय छे तेमन ऋषियोए ||NE भाषांतर प्रशस्त मुनिने योग्य ए स्नान छे जेना बडे स्नान-हायेला पवित्र थयेला विमळ कर्म मळ रहित थवाथी विशुद्ध निष्कलंक बनेला अध्य०१३ महर्षि मुनीश्वरी उत्तम स्थानमोक्षस्थानने प्राप्त थया छे. 'एम हुं बोलु छ' [आ छेलं वाक्य मुधर्मास्वामीए जंबूस्वामी प्रति ॥७११॥ कहेल छे. ४७ हरिकेशीय नामक बार अध्ययन पूर्ण थयु. एवी ते उपाध्याय लक्ष्मीकीर्तिगणिना शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणिविरचित उत्तराध्ययनमूत्रनी अर्थ दीपिका नामनी वृत्तिमा बारमुं हरिकेशीयाध्ययन पूर्ण थयु. ॥ अथ त्रयोदशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ अथ चित्रसंभूतीय नामक त्रयोदशाध्ययन. तपः कुवेता पुरषेण लिदान न कार्यमित्याह. इतिहादशत्रयोदशयोः संबंधः, चित्रसंभूतमाध्वोः संबंधमाह तपः करनार पुरुषे निदान न करवू एम कही, बारमा तथा तेरमा अध्ययननी पूर्वोतर संगति दर्शाचीने चित्र तथा संभूत | JK | साधुना संबंधमां कहेछे के For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandi साकेतनगरे चंद्रावतंसकस्य राज्ञः पुत्रो मुनिचंद्रनामा यभूव, स च निवृत्तकामभोगतृष्णः सागरचंद्रस्य मुनेः ३६ राध्य- समीपे प्रबजित., गुरुभिः समं विहरन्नन्यदा एकस्मिन् ग्रामे प्रविष्टः, सार्थेन सह सर्वेऽपि साधुवश्चलिताः, सार्थभ्र भाषांतर यनसूत्रम् अध्य०१३ टोऽसौ मुनिचंद्रोऽदव्यां तितः, तत्र चत्वारो गोपालदारकास्तं क्षुत्तृषाक्रांतं पश्यंति, शुद्धरशनादिभिः प्रतिजापति, ॥७१२॥ यतिना तेषां पुरो देशना कृता, ते गोपालदारकाः प्रतिबुद्धास्तदंतिके प्रत्रज्यां गृहीतबंतः, तैः सर्वैः शुद्धा दीक्षा पालिता, ७१२।। द्वाभ्यां तु दीक्षा पालितैव, परं मल क्लिन्नवस्त्रादिजुगुप्सा कृता, ते चत्वारोऽपि देवलोकं गताः, तत्र जुगुप्साकारको दो देवलोकच्युतौ दशपुरनगरे सांडिल्यब्राह्मणस्य यशोमत्या दास्याः पुत्रत्वेनोत्पन्नौ युग्मजातो बभूवतुः. साकेत नगरने विषये चंद्रावतंसक राजानो पुत्र मुनिचंद्र नामे हतो ते कामभोगनो तृष्णा निवृत्त थवाथी सागरचंद्र मुनिने (समीपे जइ प्रबजित थयो. गुरुनी साथे विहार करतो एक समये एक गाममा पेठो, साथमां सर्वे साधुओ चाल्या, ते सार्थमांथी छुटो पड़ी गयेलो मुनिचंद्र अटवी जंगलमा आवी पड्यो; त्यां चार गायोना पालक बालकोए तेने भूख तथा तरसथी पीडातो जोयो. Be|ज्यारे ते गोपाल बालको ये शुद्ध आहार तथा जळवडे तेनी बरदास्त करो त्यारे यतिए तेओनी आगळ धर्मोपदेश कर्यो जे शांभळीने II ते चारे गोपाल बालको प्रतिबुद्ध थया अने चारेये मुनिचंद्र पांसे प्रवज्या लीधी. ते सर्वे दीक्षा पाळता हता पण तेमाना वे जणाए दीक्षा तो पाळी पण मेला लुगडा वगेरेनी जुगुप्सा मनमा घृणा करी, ते चारे देवलोक गया. पेला जुगुप्सा करनार ये जणा देव| लोकथी च्युत थया ते दशपुर नगरमा सांडिल्य ब्राह्मगनो यशोमती दासीथी जोडलांरूपे उत्पन्न थया. अतिक्रांतवालभावौ तौ यौवनं प्राप्तौ, अन्यदा क्षेत्ररक्षणार्थ तावटव्यां गती, रात्रौ च वटपादपाधः सुप्तौ, तत्रैको For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JGI दारको बटकोराहिगतेन सर्पण दट, द्वितीयः सर्पोपलं भनिमित्तं भ्रमंस्तेनैव सर्पण दष्टः, ततो द्वावपि मृतौ कालिंजरपनसूत्रम् | पर्वते मृगीकुक्षौ समुत्पन्नौ युग्मजातो मृगौ जातो, कालक्रमेण तो दो मात्रा समं भ्रमंती एकेन व्याधेनैकशरेणैव हतौर | भाषांतर मृतौ, ततस्तौ हावपि गंगातीरे एकस्या राजहंस्याः कुक्षौ समुत्पन्नौ, जातौ क्रमेण हंसौ, मात्रा समं भ्रमंतावेकेन मत्स्य-IBE DE अध्य०१३ ॥७१३॥ | बंधकेन गृहीतो मारितोच. ७१३॥ । चाळभाव ओळंगी युवान थया त्यारे एक वखते क्षेत्र रक्षण माटे अटवीमां गया; रात्रे बडना झाड तळे बन्ने मृता त्यां बढना कोतरमाथी नीकळेला सर्प ए बेगाना एकने दंश कर्यो, बीजो पण उठीने ते सर्पनी शोधमां फरतो हतो त्यां तेने पण तेज सर्प | डस्यो, आ सर्पदंसना विपथी बेय मरण पामी कालिंजर पर्वतमा मृगलीना उदरथी युग्मरूपे जोडला मृग उत्पन्न थया. कालक्रमे मानी साथे भमता ए बन्ने बच्चांने एक व्यापपराधिए एकज बाण वती हणातां मरण पाम्या. ते पछी ते बन्ने गंगातीरे एक | राजहंसीनी कखे जन्मी क्रमे करी हंस थया. पोतानी मानी साथे फरता ए बन्ने एक मच्छीमारे पकडीने मारी नाख्या. ततो वाराणस्यां नगयो महर्दिकस्य भूतदिनाभिधस्य चांडालस्य पुत्रत्वेन समुत्पनौ, फ्रमेण जातयोस्तयोः चित्रश संभूतश्चेति नामनी कृते. तो चित्रमभूतौ मिथः प्रीतिपरौ जातो. इतश्च तस्मिन्नवसरे वाराणस्यां नगर्या शंखनामा राजा, तस्य नमुचिनामा मंत्री, अन्यदा तस्य किंचित् झुगा जातं, कुपितेन राज्ञा स वधार्थ भूतादिनचांडालस्य दत्तः, भूतदिनचांडालेन तस्यैवमुक्तं, भो मंत्रिन् ! त्वामहं रक्षामि, यदि मद्गृहांतभूमिगृहस्थितो मत्पुग्नौ पाठयसि, जीवितार्थिना तेन तत्प्रतिपन्नं, भूमिगृहस्थः स चित्रसंभूतौ पाठयति चित्रसभूतमाता तु मंत्रिपरिचर्या कुरुते, मंत्री तु For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir او भाषांतर अध्य०१३ IBE ॥७१४॥ ३ तस्यामेवव्यासक्तोऽभूत, निजपत्नीव्यभिचारिचरितं चांडालेन ज्ञातं, नमुचिमारणोपायस्तेन चितितः, पितुरध्यवसायउत्तराध्य |स्ताभ्यां ज्ञातः,उपकारप्रीतिचरिताभ्यां स नमुचि शितः,ततो नष्टःस क्रमेण हस्तिनागपुरे सनत्कुमारचक्रिणो मंत्रीजातः. पनसूत्रम् ॥७१४॥ PE तदनंतर वाराणसी पुरीमा महोटी समृद्धिवाळा भूतादिन्न नामना चांडालना पुत्र थइ अवतर्या. क्रमे उत्पन्न ययेला ए बेयना चित्र तथा संभूत एवा नाम राख्यां. आ बेय चित्र तथा संभूत बेय भाइओ एक बीजा परस्पर प्रीतिवाळा हता. आ समये वारा|णसी नगरीमां शंख नामे राजा राज्य करता हता तेनो मंत्री नमुचि नामे हतो, तेणे एक वखते राजानो अपराध कर्यो तेथी कोपेला | रजाए ए मंत्रीनो वध करवा भूतादिन्न चांडालने सोंप्यो, भूतदिन चांडाले ते मंत्रीने कह्यु-'हे मंत्रिन् ! जो तमे मारा घरना भोंय रामां रही मारा बे पुत्रो छे तेने भणावो तो तमने हुं बचावू अने मारु नहिं? मंत्री जीवदानी खातर आ वात कबूल राखी. Jहवे चांडालना घरमा भायरामां रही ते मंत्री चित्र तथा संभूतने भणावया लाग्यो; चित्र तथा संभूतनी माता मंत्रीनी परिचर्या करे तेमांत्री ए बाइमां आसक्त थयो. मंत्रीनी साथे पोतानी स्त्रीनुं व्यभिचार चरित चांडालना जाणवार्मा आवतां तेणे मंत्रीने and मारवानो उपाय चितव्यो. पोताना पितानो आ विचार बेय पुत्रो जाणी गया. पोताना उपर भणाववाना उपकारने लीधे तेना प्रति प्रीतिवाळा ए बन्ने चांडाल पुत्रोए नमुचिने भागी जवानी प्रेरणा करी आ उपरथी नमुचि मंत्री त्यांथी नाठो ते क्रमे करी हस्तिनागपुरमा जइ सनत्कुमारचक्रीनो मंत्री थयो. इतश्च ताभ्यां मातंगदारकाभ्यां चित्रसंभूताभ्यां रूपयौवनलावण्यनृत्यगीतकलाभिर्वाराणसीनगरीजनः प्रकामं له داود العليا للاعمال يعود بعد علاقة For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यघनसूत्रम् ॥७१५ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चमत्कारं प्रापितः, अन्यदा तत्र मदनमहोत्सवो जातः सर्वेषु लोकेषु गीतनृत्यवादिनादिविनोदप्रवृत्तेषु सत्सु तौ मातं गदारकौ वाराणसीनगर्यतः समागत्य सर्वाः स्वकलाः दर्शयितुं प्रवृत्तौ तयोर्विशेषकलाचमत्कृता लोकास्तरुणीप्रमुखास्तत्समीपे गताः, एकाकारो जातः, अस्पृश्यत्वादिकं न जानंति सर्वेऽपि लोकास्तन्मयतां गताः ततश्चतुर्वेदविद्भिब्रह्मणैर्नगरस्वामिन एवं विज्ञप्तं. अहीं पेला वे चित्र तथा संभूत चांडाल बाळको रूप लावण्य संपन्न होइ, मंत्री पांसेथी तालीम लइ नृत्य तथा गायननी कळामां प्रवीण थया, तेओ ए वाराणसी नगरीना जनोने अत्यंत चमत्कार पमाड्या. एक वखते वाराणसी नगरीमां मदनमहोत्सव थयो. सर्वे लोको गायन वाद नृत्य वगेरेमां प्रवृत्त थया ते समये पेला बेय मातंग बाळको पण वाराणसी नगरीमां आवीने पोतानी सघळी कळाओ दर्शावत्रा लाग्या. ते बेयनी विशिष्ट कळाथी चमत्कार पामेला लोको स्त्रीओ सहित ते बेयनी पांसे आवी सांभळतां एकाकार थयो, अस्पृश्यतादिक कोइ न जाणतां सर्वे लोको तन्प्रयताने पाम्या; त्यारे चार वेदना जाणनारा ब्राह्मणो भेळा थइ नगर स्वामी पासे जड़ विज्ञप्ति करी के राजन्नेताभ्यां चित्रसंभूताभ्यां चांडालाभ्यां सर्वोऽपि नगरीलोक एकाकारं प्रापितः राज्ञा तयोर्नगरीप्रवेशो वारितः, कियत्कालानंतरं पुनस्तत्र कौमुदीमहोत्सवो जातः, तदानीं कौतुकोत्तालौ तौ राजशासनं विस्मार्य नगरीमध्ये प्रविष्टौ, तत्र स्वच्छवस्त्रेण मुखमाच्छाद्य प्रेक्षणानि प्रेक्षमाणयोस्तयो रसप्रकर्षोद्भवेन मुखाद गीतं, निर्गतं, सर्वे लोका वदति, केन किन्नराणुकारेणेदं कर्णसुखमुत्पादितमिति वस्त्रं पराकृत्य लोकैस्तयोर्मुखमीक्षितं, उपलक्षितौ तौ मातंगदारकौ, For Private and Personal Use Only 19 भाषांतर अध्य०१३ ।।७१५ ।। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७११ | राज्ञोऽनुशासनभंजकत्वेन जनैयष्टिमुष्टयादिभिहन्यमानी तो नगर्या बहिनिष्कासिती प्राप्ती बहिरुधाने, भृशं उत्तराध्य- खिन्नावेवं चिंतयतः. भाषांतर यनसूत्रम् 13 अध्य०१३ 'हे राजन् ! आ चित्र तथा संभृत नामना चे चांडाळ वाळकोए सर्व नगरीना लोकोने एकाकार करीनाख्या.' आ सांभळाने ॥७१६॥ राजाए ए बे चांडाल बाळकोने नगरीमा प्रवेश करवानी मना करी. थोडाक समय पछी त्यां फरी कौमुदी महोत्सव थयो. आ | वखते पाछा ए चांडाळ बालको मेलामा जवानी उत्सुकतामा राजाना मनाइ हुकमने भूली जइ नगरीमा पेठा; स्वच्छ वस्त्रवडे | पोतार्नु मुख ढांकीने जीणां जोतां जोतां मनमां रस उभरावाथी मुखमाथी गायन नीकली गयुं तेटलामां पांसे उभेला लोको बोलवा | लाग्या के-'आ किन्नरतुं अनुकरण करनार अमारा कानने सुख देनार गायक कोण हशे?' आम बोलतां ते लोकोये तेओना मोढां उपरथी छेडो खसेहतां मुख जोयुं, 'आ तो ते बन्ने चांडाल बालको' एम ओलख्या. राजानी आज्ञानो भंग करनारा जाणी | लाकडीवती तेमन मुट्ठी वगेरेथी मारी नगरीनी बहार काढी मूक्या तेथी तेओ बन्ने बहारना उद्यान वागमा जइ अत्यंत खिन्न Jथयेला विचार करे छे के धिगस्त्वस्माकं रूपयौवनसौभाग्यलावण्यसकलाकौशल्यादिगुणकलापस्य, यतोऽस्माकं मातंगजत्वेन सर्व दूषित, | लोकपराभवस्थानं वयं प्राप्ताः, एवं गुरुबैराग्यमागतौ तौ स्वबांधवादीनामनापृच्छयैव दक्षिणदिगभिमुखौ चलितो. दूर | गताभ्यां ताभ्यामेको गिरिवरो दृष्टः, तत्र भृगुपातकरणार्थमधिरूढी, तत्र तो शिलातलोपविष्टं तपःशोषितांगं शुभ| ध्यानोपगतमातापनां गृह्णतमेकं श्रमणं ददृशनुः. हर्षितौ तौ तत्समीपे जग्मतुः, भक्तिबहुमानपूर्व ताभ्यां स वंदितः, For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुना धर्मलाभकथनपूर्वकं तयोः स्वागतं पृष्ट, ताभ्यां पूर्ववृत्तांतकथनपूर्वकं स्वाभिप्रायः साधोः कथितः, साधुना उत्तराध्य HE भाषांतर यनसूत्रम् कथितं न युक्तमनेकशास्त्रावदातबुद्धीनां भवादृशानां गिरिपतनमरणं. सर्वदुःखक्षयकारणं श्रीवीतरागधर्म गृहंतु, इति । अध्य०१३ पंचमहावतरूपः श्रीवीतरागधर्मस्तयोः कथितः, ततस्ताभ्यां तस्य मुनेः समीपे दीक्षा गृहीता, कालक्रमेण तो गीतार्थी ॥७१७॥ जातो, ततः स्वगर्वाज्ञया पहाटमदशमहादशार्धमासक्षपणादितपोभिरात्मानं भावयंतौ ग्रामानुग्राम विहरतौ काला- ॥७१७॥ | तरेण हस्तिनागपुरं प्राप्ती, बहिरूद्याने च स्थिती.. 'आपणा आ रूप, यौवन, सौभाग्य तथा लावण्य तेमज सर्वकळामां कुशलता आदिक गुण समुदायने धिक्कार छे. आ वधु मात्र चांडाळपणाथी दुषित थयु. आपणे लोकोना पराभवपात्र बन्या; आम घणा वैराग्यने पामी पोताना बांधवादिकने पूछया विनान | दक्षिण दिशा भणी चाली नीकल्या; दूर जतां तेओए एक पर्वत दीठो, तेना उपर भृगुपात भेरवझंप करवा चड्या; त्यां तो एक शिलातल उपर बेठेला, तपोनुष्ठानथी शोपायलुं छे अंग जेनुं एवा, शुभध्यान परायण आतापना लेता एक श्रमणने तेओए दीठा. hd आ श्रमणने जोइ हर्प पामता ए बन्ने श्रमणनी समीपे गया. भक्ति तथा बहुमानपूर्वक तेओए ए श्रमणने वंदन कयु त्यारे साधुए र धर्मलाभ कथन पूर्वक ते बन्नेने स्वागत पूछ्यु, तेओए पोतानो पूर्ववृत्तांत कही देखाडी पोतानो अभिप्राय साधुने कह्यो. साधुए कछु के-अनेक शास्त्रथी निर्मळ बुद्धिमान थइ तमारा जेवाने आ पर्वत उपरथी पडी मरवू अयोग्य छे, तमे सर्व दुःख क्षयना कारण | रूप श्रीवीतराग धर्मनुं ग्रहण करो. आम कहीने ते श्रमणे ए बन्ने चांडाळ बाळकोने पंचमहाव्रतरूप श्रीवीतरागधर्म कह्यो; तेथी ते बन्ने ये ते मुनिनी समीपे दीक्षा ग्रहण करी अने कालक्रमे करी ए बन्ने गीतार्थ थया. ते पछी गुरुनी आज्ञाथी छछ, अष्टम, दशम, For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie I द्वादश, अर्धमास, मास वगेरे तप वडे आत्मानुं भावन करता, एक गामथी बीजे माम विहरता कालांतरे हस्तिनागपुर आवीने बहा उत्तराध्य भाषांतर रना बमीचामां स्थित थया. J6 अध्य०१३ पनसूत्रम् अन्यदा मासक्षपणपारणके संभूतसाधुनगरमध्ये भिक्षाथै प्रविष्टः, गृहानुगृहं भ्रमन् राजमार्गानुनो गवाक्षस्थेन ॥७१८॥ नमुचिमंत्रिणा दृष्टः, प्रत्यभिज्ञातश्च. चिंतितं च स एष मातंगदारको मध्यापितो मच्चरित्रमशेषमपि जाननस्ति, कदा ॥७१८॥ चिच्च लोकाग्रे वक्ष्यते, तदा मन्महत्वभ्रंशो भविष्यतीति मत्वा दृतैः स मुनिर्यष्टिमुष्टयादिभिर्मारयित्वा नमुचिना नगराहहिनिष्कासयितुमारब्धः, निरपराधस्य हन्यमानस्य तस्य कोपकरालितस्य मुखान्निर्गतः प्रथमं धूमस्तोमः, तेन सर्वमपि नगरमंधकारित, भयकुतूहलाक्रांता नागरास्तत्रायाताः, क्रोधाभ्मातं तं मुनि दृष्ट्वा सर्वेऽपि प्रसादयितुं प्रवृत्तः, सनत्कुमारचक्रवर्त्यपि तत्रायातः, तं प्रसादयितुं प्रवृत्त एवं बभाण, भगवन् ! यदस्मादशैरज्ञानरपराद्धं तद्भवद्भिः क्षनणीयं, संहरंतु तपस्तेजःप्रभावं, कुर्वतु ममोपरि प्रसादं सर्वनागरिकजीवितप्रदानेन. पुनरेवंविधमपराधं न करिष्यामः, इत्यादि चक्रिणाप्युक्तोऽसौ यावन्न प्रशाम्यति, तावदुधानस्थश्चित्रसाधुर्जनापवादात्तं कुपितं ज्ञात्वा तस्य समीपमागत एवमुवाच. भो संभूतसाधो ! उपशाम कोपानलं, उपशमप्रधानाः श्रमणा भवंति, अपराधेऽपि न कोपस्थावकाशं aci ददति, क्रोधः सर्वधर्मानुष्टाननिष्फलीकारकोऽस्ति, यत उक्तं एक बखते मासक्षपणना पारणा अर्थ संभूत साधु भिक्षा माटे नगर मध्ये पेसीने एक घरेथी बीजे घरे फरे छे तेटलामा गन-5 मार्ग उपर पडता गोखमां बेठेला नमुचि मंत्रीए तेने दीठो अने ओळख्यो पण. तेणे विचार्यु के-'आ चांडाळ बाळकने में भणा-15 For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपनसूत्रम् भाषांतर ॥७१९॥ | व्यो छे तेथी मारु सघलं चरित्र ए जाणे छे. कदाच ते लोकोनी आगळ कही देशे तो मारी महत्तानो भ्रंश थशे? आम मानीने नमुचिये ए मुनिने लाकडी तथा मुठी वगेरेथी मार मरावीने नगरनी बहार कहाढी मूकवा तजवीज करी, निरपराध ते साधु ज्यारे 15 आवी तेि हणवा लाग्यो त्यां ते कोपे कराळ बन्यो अने तेना मुखमाथी धूमनो जथ्यो जे प्रथम नीकळ्यो तेनाथी आखंय नगर । NEअध्य०१३ अंधकारमय थइ गयु. भय तथा आश्चर्य पामता नगरना लोको या आव्या, क्रोधमां धंधवाता ते मुनिने जोइ सर्वे तेने शांत करवा ॥७१९॥ लाग्या, तेटलामा सनत्कुमार चक्रवर्ती पण त्यां आव्या अने ते मुनिने प्रसन्न करवा बोल्या के-'हे भगवन् ! जे अमारा जेवा यक्षजनोए अपराध को होय तो ते आपे क्षमा करवो. आपना तपस्तेजना प्रभावने शमावीने अमारा आ बधा नगरनिवासी जनोने जीवितदान करी अमारा प्रति प्रसन्न थाो. फरीने अमे आवो अपराध करीशुं नहि.' आम चक्रीए कहेता छतां पण ज्यारे ते प्रशांत KI] न यया ते वखते उद्यानमां स्थित चित्र साधु जनापवादथी ते संभूतने कुपित जाणीने तेनी समीपे आवीने आवीरीते बोल्या के'हे संभूत साधो ! तमारा कोपाग्निने शांत करो, श्रमण तो उपशम प्रधानन होय, कोइ अपराध करे तो पण तेओ कोपने अवकाश देता नथी. क्रोध तो सर्व धर्मानुष्ठानने निष्फळ करनारो छे कायुं छे के मासुववासु करेइ । नित्त वणवासु निसेवे ॥ पढइ नाणु सुष्माणु । निच्च अप्पाणं भावइ ॥ १ ॥ धारइ दुद्धरबंभचेरं । भिक्खासणं मुंजइ ।। जासु रोस तासु सयलु । धम्म निष्फलु संपज्जइ ॥२॥ इत्यादिकैश्चित्रसाधूपदेशः संभूतस्योपशांतः क्रोधः, तेजोलेश्या संहृता, ततस्तौ द्वावपि तत्प्रदेशानिवृत्तौ गतौ तदुद्यान, चितितं चैताभ्यामावाभ्यां संलेखना कृता, सांप्रतमावयोर्युक्तमनशनं कर्तु, इति विचार्य ताभ्यामनशनं विहितं, For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | भाषांतर अध्य०१३ ॥७२०॥ महीनाना उपवास करे, नित्य वनवास सेवे, शोभन ज्ञान पठन करे, नित्य आत्मानु भावन करे, १ दुर्धर ब्रह्मचर्य धारण करे, उत्तराध्य भिक्षाशन भोजन करे; तथापि ज्यां रोप थाय के धर्म निष्फळ नीवडे छे, २ आवा विचित्र उपदेशोबडे संभूतना क्रोधने उपशांत यनसूत्रम् कयो. तेजोलेश्या संहृत थतां ते बन्ने ए प्रदेशथी नीकळी ते उद्यानमां गया. ए बन्ने ये विचार्यु के–'आपणे संलेखना करी हवे ॥७२०॥ आपणे अनशन ग्रहण कर योग्य छे' आम विचारीने ते बन्ने ये अनशन आदर्यु. सनत्कुमारचक्रिणा नमुचिमंत्रिणो वृत्तांतो ज्ञातः, दृतैः सह रज्जुबद्धः कृतः. प्रापितश्च तदुद्याने तयोः समीपे | ताभ्यां स मोचितः, सनत्कुमारोऽपि तयोर्वदनार्ध सांतापुरपरिवारस्तत्रायातः, सर्वलोकसहितश्चक्री तयोः पादयुग्मे प्रणतः, चक्रिणः स्त्रीरत्नं सुनंदापि औत्सुक्यात्तयोः पादे प्रणता, तस्था अलकस्पर्शानुभवेन संभूतयतिना निदानं कर्तुमारब्धं, तदानीं चित्रमुनिनैवं चितितमहो दुर्जयत्वं मोहस्य ! अहो दुर्दीततेंद्रियाणा, येन समाचरितविकृष्टतपोनिक रोऽपि विदितजिनवचनोऽप्ययं युवतिवालाग्रहस्पर्शणेत्थमध्यवस्पति. ततः प्रतियोधितुकामेन चित्रमुनिना तस्य संभू१६ तमुनेरेवं भणितं, भ्रातरेतध्यवसायानिवृत्ति कुरु? एते हि भोगा असाराः, परिणामदारुणाः, संसारपरिभ्रमणहेतवः JE संति. एतेषु मा निदानं कुरु? निदानात्तव घोरानुष्टानं नैव तादृक् फलदं भविष्यति. अहीं सनत्कुमार चक्रीए नमुचि मंत्रीनो वृत्तांत जाग्यो तेथी दुतोने हाथे ते मंत्रीने दोरडांवती बंधाव्यो अने ज्या उद्यानमां ते साधुओ छे तेनी समीपे पहोंचायो. आ साधुओये नमुचिमंत्रीने छोडावी मूक्यो. सनत्कुमार चक्री पण आ वे साधुओने वंदन करवा पोताना जनाना सहित आव्यो. पोताना परिवारजन सहित चक्री ते साधुभोना पगमां पडयो आ चक्रीनी स्त्रीरत्न राणी सुनंदा पण For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सुकताथी बन्ने साधुना पगा पडी प्रणाम करे छे त्यां तेना केशनो स्पर्श थयो तेथी संभूत यतिने केश स्पर्श जन्य आनंदनो उत्तराध्यपनमूत्रम | अनुभव थतां मनमां निदान करवानी शरुआत था. चित्र मुनि जाणी गया तेथी तेणे विचार्यु के-'अहो !! मोह केवो दुर्जय छे? भाषांतर | अरे! इंद्रियो केवां दुर्दम्य छे? जेने लीधे जेणे अति कष्ट तपः समूह आचरण करेल छे तेमज जिनवचनो जाण्यां छे छतां ते मात्र IDE अध्य०१३ ॥७२१॥ युवतिना वाळना अग्रमात्रनो स्पर्श थतां आ केवा निश्चय करे छे?' ते पछी ए संभूतने प्रतिबोध देवानी इच्छायी चित्रमुनिए संभूत | ॥७२ मुनिने आ प्रमाणे कहां के–'हे भ्रातः! आ संकल्पथी मनने निवृत्त करो. आ सांसारिक भोग बधा असार छे, परिणामे दारुण= भयंकर छे, अने वळी आ संसारमा परिभ्रमण करावनारा हेतुभूत छे; ए भोगने विपये निदान मा करो. ए निदानथी तमारं घोर अनुष्ठान तेवा फळनु देनार थशे नहि.' एवं चित्रमुनिना प्रतियोधितोऽपि संभूतो न निदान तत्याज, यद्यस्य तपसः फलमस्ति, तदाहं भवांतरे चक्रवर्ती भूयासमिति निकाचितं निदानं चकार. ततो मृत्वा सौधर्मदेवलोके तौ द्वावपि देवी जातो. ततश्च्युतश्चित्रजीवः पुरमतालनगरे इभ्यपुत्रो जातः, संभूत जीवस्ततश्च्युतः कांपिल्यपुरे ब्रह्मनामा राजा, तस्य चुलनीनानी भार्या, तस्थाः कुक्षी चतुर्दशस्वमसूचित उत्पन्नः क्रमेण जातस्य तस्य ब्रह्मदत्त इति नाम कृतं, देहोपचयेन कलाकलापेन च वृद्धिं गतः | आवी रीते चित्रमुनिए प्रतिबोधित कर्या छतां पण संभूतमुनिए निदान त्यज्यु नहिं. 'जो आ तपनुं फळ छे तो हुं भवांतरमा JE D| चक्रवर्ती थाउं' आ प्रमाणे संभूते निकाचित निदान कयु. ते बन्ने मरण पामी प्रथम तो सौधर्म देवलोकमां देवो थया त्यांथी च्युत | १ दृढ निश्चयथी बांधेल कर्म के जेनो फळरूप भोग विना नाश न थाय. २ तपना फळनी अगाउथी मागणी करवी ते (निया ) For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् | भाषांतर अध्य०१३ ॥७२२॥ ॥७२२॥ | धतां चित्र जीव पुरमताल नगरमां धनाढ्य श्रेष्ठीनो पुत्र थयो. संभूतनो जीव देवलोकथी च्युत थइने कांपिल्यपुरमा ब्रह्म नामे राजा | हतो तेनी चुलनी नामनी भार्यानी कुंखे अवतो. आनो जन्म थतां पहेलां चुलनीने चउद स्वप्न आव्यां ते उपरथी आ बाळक चक्रवर्ती थाय तेवु मृचन हतुं. जन्म पामेला ए बालकनुं क्रमे करी ब्रह्मदत्त एवं नाम राख्थु. आ बाळक देहथी तथा कळा कलापथी अदाडे वृद्धि पामतो गयो. तस्य ब्रह्मराक्ष उत्तमवंशसंभूताश्चत्वारः सुहृदः संति, तद्यथा-काशीविषयाधिपः कटकः, गजपुराधियः कणेरदत्तः, कौशलदेशाधिपतिर्दीर्घः, चंपाधिपतिः पुष्पलश्चेति. तेऽत्यंतस्नेहेन परस्परविरहमनिच्छंत. समुदिताश्चैव एकमेकं वर्ष परिपाट्या विविधक्रीडाविलासरेकस्मिन् राज्ये तिष्टंति. अन्यदा ते चत्वारोऽपि समुदिताश्चैव ब्रह्मराज्ये स्थिताः संति. तस्मिन्नवसरे ब्रह्मराज्ञो मंत्रतंत्रौषथाद्यसाध्यः शिरोरोग उत्पन्नः, ततस्तेन कटाकादिचतुर्णा मित्राणामुत्संगे ब्रह्मदत्तो मुक्तः, उक्तं च यथैष मद्राज्य सुखेन पालयति तथा युष्माभिः कर्तव्यमिति राज्यचिंता कारयित्वा ब्रह्मराजा कालं गतः. मित्रस्त प्रेतकर्म कृतं, मिथश्चैवं भणितं, एष कुमारो यावद्राज्यधुरा) भवति तावदस्माभिरेतद्राज्यं रक्षणीयमिति विचार्य सर्वसंमतं दीर्घराजानं तत्र स्थापयित्वा कटककणेरदत्तपुष्पचुलाः स्वस्वराज्ये जग्मुः. आ ब्रह्मराजाना चार मित्रो हता. एक तो काशी देशो अधिपति कटक, बीजो गजपुरनो अधिप कणेरदत्त, त्रीजो कोशलदेशनो राजा दीर्घ अने चोथो चंपानो अधिपति पुष्पचुळ आबधा मित्रो अत्यंत स्नेहने लीधे एक बीजाथी विमुक्त थवा न इच्छता सर्व साथेज एक एक वर्ष वारा फरती एकनी राजधानीमा विविध क्रोडाविलासोमा समय वीताडता हता. एक समये ए चार मित्रा For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir THE भाषांतर मळीने ब्रह्मराजाना राज्यमां आवीने रखा हता तेवामां ब्रह्मराजाने मंत्र तंत्र औषध आदिकथी न मटी शके एवो माथानो व्याधि उत्तराध्यपनमन्त्रम थयो त्यारे ब्रह्मराजाये पोताना बाळक पुत्र ब्रह्मदत्तने कटक वगेरे चारे मित्रोना खोळामां मूकी का के-'आ मारो पुत्र मुखे मारा RS अध्य०१३ राज्यनु पालन करे तेम तमारे कर आम राज्पनी चिंता पळाबीने ब्रह्मराजा मरण पाभ्या. मित्रोए तेनुं सघळु प्रेत कर्म करावी, ॥७२३॥ मळीने एम काके आ कुमार ज्या मूधी राजनी धूसरी उपाडवा लायक थाय त्यां सुधी आपणे तेना राज्यनी रक्षा करवानी छे, ॥७२३॥ आम विचारी सर्वेए संमत थइ दीर्घराजाने त्यां स्थापीने कटक, कणेरदत्त तथा पुष्पचल; त्रणे राजाओ पोतपोताना राज्यमां गया. सदीर्घराजा सकलसामग्रीकं तद्राज्यं पालयति, भांडागारं विलोकयति, प्रविशत्यंतःपुरं, चुलिन्या समं मंत्रयति. K/ तत इंद्रियाणां दुर्निवारत्वेन ब्रह्मराज्ञो मत्रीमवगणय्य, वचनीयतामवमन्य 'युलन्या समं संलग्नः एवं प्रवर्धमानविष- यसुखरसयोस्तयोर्गच्छंति दिनानि. __अत्रे दीर्घराज सकल सामग्रीवाळं राज्य चलावा लाग्या. भांडागार खजानो तपासे; अंत:पुर जनानामां पण जाय; चुलिनी । साथे वातचीत करे; एम करतां इंद्रियो निवारवां दुष्कर छे तेथी ब्रह्मराजानी मैत्रीनी अवगणना करी, लोकमां खोटुं कहेवाशे तेनी पण दरकार न करतां दीर्घराना चुलनीराणी साथे प्रेममा पड्या. आम बन्नेना दिवसो प्रतिदिन वधता जता विषयमुखाभिJलापमा वीतया लाग्या. ततो ब्रह्मराजमंत्रिणा धनुर्नाम्ना तघोस्तत्स्वरूपं ज्ञात, चिंतितं च य एवंविधमकार्यमाचरति, स किं कुमारब्र. |मदत्तस्य हिताय भविष्यति? एवं चिंतयित्वा तेन धनुर्नाम्ना मंत्रिणा स्वपुत्रस्य वरधनुनाम्नः कुमारस्यैवं भणितं, For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ पुत्र ! ब्रह्मदत्तस्य माता व्यभिचारिणी जातास्ति, दीर्घराज्ञा भुज्यमानास्ति, अयं समाचार एकांते त्वया ब्रह्मदत्तकुउत्तराध्यमारस्य निवेदनीयः, तेन च तथा कृतं. भाषांतर यनसूत्रम् JU अध्य०१३ ब्रह्मराभाना धनु नामना मंत्रीनी जाणमां ज्यार आ वात आधी त्यारे तेणे विचायु के-जे आबु अघमाचरण सेवे ते ब्रह्म॥७२४॥ | दत्तनु शुं हित करशे? एम धारी धनुमंत्रीए पोताना पुत्र वरवधनु नामना कुमारने एम कडं के–'हे पुत्र आपणा राजकुमार ब्रह्म ॥७२४॥ दत्तनी माता व्यभिचारिणी थइ गइ; दीर्घराना तेने भोगवे छे.' आ समाचार एकांतमां ब्रह्मदत्तकुमारने तारे निवेदन करवा. | तेणे ते प्रमाणे कयु. ___ ब्रह्मदत्तकुमारोऽपि मातुर्दुश्चरितमसहमानस्तयोर्तापनार्थ काककोकिलामिथुनं शूलाप्रोतं कृत्वा चुलनीमातृदीर्घIc| नृपयोर्दर्शितं, एवं प्रोक्तं च, य ईदृशमनाचारं करिष्यति, तस्याहं निग्रहकरिष्यामीत्युक्त्वा कुमारो बहिर्गत:. एवं वित्रि-5 भिदृष्टांतदिनत्रयं यावदेवं चकार उवाच च. ततो दीर्घतृपेण शंकितेन चुलन्या एवमुक्त, कुमारेगावयोः स्वरूपं ज्ञातं. ३६ अहं काकस्त्वं कोकिलेति दृष्टांतः कुमारेण ज्ञापितः. तयो के बालोऽयं यत्तदुल्लपति, नात्रार्थे काचिच्छंका कार्या. तता| धृष्टेन दीर्घेणोक्तं, त्वं पुत्रवात्सल्येन न किमपि स्वहितं वेत्सि, अयमवश्यमावयोरतिविघ्नकरः, तदवश्यमयं मारPणीयः, मयि स्वाधीने तवान्ये पुत्रा बहवो भविष्यं ते. एतादृशं दीर्घनृपवचस्तयांगीकृतं. यत उक्तं-महिला आलकु लहरं । महिला लोयंमि दुचरियखितं । महिला दुग्गइदारं । महिला जोणी अणत्थाणं ॥१॥ मारेड य भतारं । हणेइ रसुअंपणासए अत्थं ॥ नियगेहिपि पीलावै । णारी रागाउरा पावा ॥२॥ चुलन्या भगितं, कथमेष मारणीयः? कथं For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir च लोकापवादो न भवति? दीर्घनृपेणोक्तं सांप्रतमस्य विवाहः क्रियते, पश्चात्सर्वमावयोचिंतितं भविष्यति, ततस्ताभ्यां उत्तराध्य ब्रह्मदत्तस्य मित्रस्य कस्यचिद्राज्ञः कन्यायाः पाणिग्रहणं कारितं, तयोः शयनार्थमनेकस्तंभशतसन्निविष्टं गूढनिर्गन- Bभाषांतर पनसूत्रम् JE द्वारं जतुगृहं कारितं. अध्य०१३ ॥७२॥ । ब्रह्मदत्तकुमार मातानुं दुश्चरित्र सहन न थवाथी एक वखते कागडो तथा कोयल आ बेतुं जोडुं शूलना अग्र उपर परोवीने ॥७२५॥ माता तथा दीर्घराजाने बताव्यु अने कह्यु के-'जे कोइ आधु आचरण करशे तेनो हुँ निग्रह करीश,' आटलं बोली कुमार बहार Ka गयो. आवां वे त्रण दृष्टांतो वडे ऋण दिवस सुधी तेणे ए प्रमाणे कयु अने कह्यु ते उपरथी दीर्घ राजाए शंकित बनी चूलनीने र | कयु के-'आपण बन्नेनुं स्वरूप कुमारे जाण्यु छे, हुं कागडो अने तुं कोयल ए दृष्टांत कुमारे जणाव्यो.' चुलनी बोली के-'ए वाळक तो जेम तेम बोले बके. आ बाबतमां कंइ शंका करवानी नथी.' त्यारे घृत-निर्लज-दीर्घराजा बोल्यो के-'तुं तारा पुत्रना DE BE वात्सल्यने लीधे पोतानुं कंइ पण हित नथी जाणी शकतो. आ कुमार अवश्य आपण बन्नेमां विघ्न करनार होवाथी ए अवश्य Filमरावी नाखवा योग्य छे. हुं तारे आधीन छ तो पुत्रो घणाय थइ रहेशे.' आ प्रमाणे दीर्घ नृपर्नु वचन ते राणीए अंगीकार कयु. कयु छ के-महिला स्त्री आळतुं कुळ घर छे, महिला लोकमां दुश्चरितनुं क्षेत्र छे, महिला दुर्गतिनुं द्वार छ भने महिला सर्व अनभानुं जन्म स्थान छे. १ ए भर्ताने मारे, सुतने हणे, अर्थनो प्रणाश करे, रागातुर पापा महिला पोताना घरने पण परजाळे. २ चुलनी बोली के ए पुत्रने केम मारवा? अने लोकापवाद केम न थाय? त्यारे दीर्घतृपे कयु के-'इमणां तो तेना विवाह करीये पछी || | आपणुं धारेलु वधुं यइ रहेशे.' ते पछी ए चुलनी तथा दीर्घराजा बन्नेये मली कोइ मित्र राजानी कन्या साथे ब्रह्मदत्तना विवाह For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ॥७२६|| ३] कर्या. हवे ए वरबहूने सूवा माटे सेंकडो रतभवाळ, तथा छुपां निकलवानां द्वारवाडं एक जतु लाखनु घर बनाव्यु. उत्तराध्य इतश्च धनुमत्रिणा दीर्घनपायैवं विज्ञप्तं एष मम पुत्रो वरधनुरेतद्राज्यकार्यकरणसमर्थो वर्तते, अहं पुनः परलोपनमूत्रम कहितं करोमि. दीर्घनृपेणोक्तमिह स्थित एव त्वं दानादिधर्म कुरु! तस्यैतद्वचः प्रतिपद्य धनुमैत्रिणा गंगातीरे महती ॥७२६॥ प्रपा कारिता, तत्र पथिकपरिव्राजकादीनां स यथेटदानं दातुं प्रवृत्तः. दानोपचारावर्जितैः परिव्राजकादिभिर्दिगव्यूतप्र |माणा सुरंगा जतुगृहं यावत्खानिता. जतुगृहांतः सुरंगद्वारि शिला दत्ता. | आ तरफ धनुमंत्रीए दीर्घराजाने विज्ञप्ति करी के-'आ मारो पुत्र वग्धन आ राज्यनु कामकाज करवा समर्थ थयो छे तो | तमे तेनाथी काम ल्यो भने हुं हवे कंइक मारु परलोक हित साधन करूं' दीर्घराजाए कधु के-'अहीं रहीनेज तमे दानादि धर्म | करो? आ तेनुं वचन स्वीकारी धनुमंत्रीए गंगातीरे महोटी प्रपा-पाणीनी परब करावी त्यां पथिक-मुसाफर तथा परिव्राजक संन्यासी | वगेरे जे आवे तेने यथेष्ट दान देवा माल्या. दानादिक उपचारोथी अनुकूळ थयेला पथिकजन पांसे बे गाउ प्रमाणवाळी सुरंग ठेठ पेला जतुगृह मृधी खोदावी तैयार करावी. जतुगृहनी अंदर सुरंगना द्वार आडी एक शिला दइ दीधी. इतश्च चुलन्या महताडंबरेण वधूसहितः कुमारस्तत्र प्रवेशितः, ततः समग्रः परिवारो विसर्जितः, वरधनुः कुमारपाचे स्थितः. एवं स्वपित्रा गदितवृत्तांतानुसारेण स सावधानो जाग्रन्नेव सुप्तः. ब्रह्मदत्तकुमारस्त्वेकशय्यायां तया वध्ध्वा सह सुप्तः, गतं रात्रिप्रहरयुग्मं, तदा तत्र चुलन्या स्वहस्तेन अग्निकंदुको न्यस्तः. तेन तद्गृहं समंतादह्यमानं | दृष्ट्वा विनिद्रो ब्रह्मदत्तः स्वमित्रं वरधनुं पप्रच्छ, किमेतदिति. वरधनुना सर्व चुलनीस्वरूपं कथितं. पुनः कथितमियं m For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनमत्रम ॥৩৩। च कन्या राजपुत्री न, किंतु काप्यन्या, तस्मादस्यां मोहो मनागपि न कार्यः. त्वमस्यां शिलायां पादप्रहारं कुरु? येनावां IBE भाषांतर | निर्गच्छावः. वरधनूक्तं सर्व ब्रह्मत्तेन कृतं. ततो द्वावपि निर्गत्य सुरंगाबहिर्देशे समायातो. तत्र च धनुमत्रिणा पूर्वमेव अध्य०१३ द्वी तुरंगमौ पुरुषौ च मुक्तौ स्तः, ताभ्यां पुरुषाभ्यां तयोः संकेतः कथितः, तुरंगाधिरूढौ तौ द्वावपि कुमारौ ततश्चलितो. एकेन दिवसेन पंचाशद्योजनमात्रं भूभागं गतो. दीर्घमार्गखेदेन तुरंगमौ व्यापन्नौ. ७२७॥ ril अहीं चुलनीए महोटी धामधूम साथे तेनी बहू साथे कुमार ब्रह्मदत्तने ए जतुगृहमा प्रवेश कराव्यो; ते पछी तमाम परिवा रने रजा दीधी. वरधन कुमार पांसे उभो रह्यो. आम पोताना पिता धनुमंत्रीए कहेला वृत्तांतने अनुसरी ते सावधानताथी जाग| तोज मूतो. ब्रह्मदत्तकुमार तेनां वध साथे एक शय्यामां मृताने वे पहोर रात्र गइ तेटलामा चुलनीये पोताने हाथे अग्निनो गोळो नाख्यो तेनाथी ते जतुगृह चारे कोरथी बळवा मंडयु ते जोइने निद्रा भंग थतां जागेला ब्रह्मदत्ते पोताना मित्र वरधनुने पूछ्यु केआशुं थयु?' वरधनुए सघळु चुलनी चरित्र कही संभळाव्यु, अने कधु के-'आ तमने जे परणावी ते राजकन्या नथी किंतु कोइ अन्यज छे माटे एमां आपे मोह जराय न राखतो. हवे तमे आ शिला पर पाद प्रहार करो जेथी आपणे चेय नीकळी जइये.' वरधनुना कहेवा प्रमाणे ब्रह्मदो शिलाने लात मारतां सुरंगनुं द्वार देखाणुं तेमां थइने बेय जणा मुरंगमांथी बहार ज्यां आन्या त्यां धनुर्मत्रीये पहेलेथीज बे माणस बे घोडा साथे राखेला जोया. ए पुरुषोए कहेला संकेत प्रमाणे घोडा उपर सवार थइने बेय कुमारो | चालता थया अने एक दिवसमां पचाश योजन रस्तो ओळंगी आव्या त्यां बहु लांबा मार्गना खेदथी बन्ने घोडा मृत थया. ततः पादचारेण गच्छंती तौ कोहाभिधानग्रामं गतौ, कुमारेण वरधनुर्भणितः, मां क्षुधा बाधते. वरधनुः कुमारं For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir J अध्य०१३ ॥७२८॥ 15 बहिरेवोपवेश्य स्वयं ग्राममध्ये प्रविष्टः, नापितं गृहीत्वा तत्रायातः, कुमारस्य मस्तकं मुंडापित, परिधापितानि कषाउसराध्य | यवस्त्राणि, चतुरंगुलप्रमाणपट्टबंधः कुमारस्य श्रीवत्सालंकृते हृदि बद्धः, वरधनुनापि वेषपरावर्तनः कृतं, तादृग्वेषधरी यनसूत्रम् द्वावपि ग्राममध्ये प्रविष्टी, तावता एको द्विजः स्वमंदिरानिगत्वाभिमुखमागत्य कुमारौपत्येवमाह, आगच्छतामस्नग्रहे, ॥७२८ भुजता च. तेनेत्युक्ते तो द्वावपि तदगृहे गतो. ब्राह्मणेन राजरूपप्रतिपत्तिपूर्वक तौ भोजितो. भोजनांते चकाप्रवरम हिला बंधुमती नानी कन्यामुद्दिश्य ब्रह्मदत्तकुमारमस्त केऽक्षतान् प्रक्षिपति, भणति चैषोऽस्याः कन्याया वरोऽस्त्विति. वरधनुना भणितं, किमेतस्य मूर्खस्य बटुकस्य कृते एतावानायासः क्रियते? ततो गृहस्वामिना भगितं भ्रूयतामस्मदायासवृत्तांत: ते पछी बेय जणा पगे चालता कोट्ट नामना गामे पहोंच्या. ब्रह्मदत्त कुमारे वरधनुने कयु के-'मने क्षुधा लागी छे' वरधनु, कुमारने गामबहारज एक स्थानके बेसाडीने पोते गाममा पेठो, गाममांथी एक वाणंदने तेडी आवी कुमार माथु मुंडावी नाख्यु अने तेने कषाय भगवां वस्त्रो पहेराव्यां; चार आंगळनो वस्त्रनो पाटो कुमारना श्रीवत्स चिन्ह वाळा वक्षःस्थळ उपर बांध्यो, | वरधनुए पोते पण वेषवदलो करी बेय जणा गाममा पेठा. गाममा पेसतांन एक ब्राह्मणे पोताना घरमांथी नीकली सामा आवीने | कुमारोने कहा के-'तमो बन्ने अमारे घरे आचो अने भोजन करो.' तेणे आम कहेतां वेय कुमारो तेने घरे गया. ब्राह्मणे राजाना जेवी खातिर बरदास्तथी तेओने जमाइया. जमीने वेठा त्यारे एक स्वरूपवती बंधुमती नामनी कन्या आगळ लावी ब्रह्मदत्तकुमारना मस्तक उपर अक्षत प्रक्षेप करीने भणवा लाग्यो के-'आ कन्याना आ वर थाओ' आ जोइने वरधनु बोल्यो 'अरे आ मूर्ख For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendr www.kobatirth.org Achana Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुपयेश्य वरना मत्याः स्वरूपं कथयित्वा स्याक्तमावाभ्यां दूरे गंतव्ययक | बटुकनी खातर आटलो पयो प्रयाप का करो छो?' ते सांभळी ते घरधणी बोल्यो के-'अमारा आ प्रयासनो वृत्तांत सांभळो'उत्तराध्य । पूर्व सुवृत्तनैमितिकेनाख्यातं यथास्या बालिकायाः पट्टाच्छादितवक्षःस्थलः समित्रो भवद्गृहे भोजनकारी वरोर पनसनम | भाषांतर अध्य०१३ ३ भविष्यति, सोऽस्या योग्यो वर इति. तस्मिन्नेव दिने तस्याः कन्यायाः कुमारेण पाणिग्रहणं करितं. मुदितो गृहस्वामी, ॥७२९॥ it कुमारस्त्वेकरात्रौ तत्र स्थितः. द्वितीय दिने वरधनुना कुमारस्योक्तमावाभ्यां दूरे गंतव्यं, दीर्घराजासत्रत्वेनात्र स्थातु. ॥७२९॥ मावयोरयुक्तमिति तो द्वावपि बंधुमत्याः स्वरूपं कथयित्वा निगतो. गच्छंती तावेकदा कस्मिंश्चिदुरग्रामे गती, तृषा| क्रांतं कुमारं यहिरुपवेश्य वरधनुः सलिलमानेतुं ग्राममध्ये प्रविष्टः त्वरितमेव पश्चादागत्यैवं कुमारस्योक्तवान्. अत्र । ईदृशो जनापवादो मया श्रुतः, यदीनृपेग ब्रह्मदत्तमार्गः सर्वत्र सैन्यैर्वद्धोऽस्ति. ततः कुमार ! आवामितो नश्यावः. || नष्टौ ततो हावपि उन्मार्गेण व्रजंती महाटवीं प्राप्ती. DEL पूर्व कोइ एक सदाचरणी ज्योतिषीए कहेलु के-कपडांना पटवती वक्षःस्थळ ढांकीने मित्र सहित जे पुरुष तमारे घरे आवी Hd If भोजन करशे तेज आ बालिकानो योग्य वर थशे. तेज दिवसे ए कन्यानो ब्रह्मदत्तकुमारनी साथे पाणिग्रहण=विवाह थयो. घर-Ibe 31 धणी बहु हर्ष पाम्यो. ब्रह्मदत्तकुमार तो एक रात्रि त्यां रहीने बीजेज दिवसे वरधनुए कधु के-आपणे घणे दर जवानुं छे, कारण के दीर्घराजा आसन्न होय त्या आपणे रहे, अयोग्य छे. आम कही बन्ने जणा बंधुमती पांसे जइ पोतानी हकीकत तेने कही समJEI जावी त्यांची नीकल्या ते कोइ एक दूरने गामे आवी चड्या. ब्रह्मदत्त कुमारने तपा लागी हती तेने गाम बहार बेसाडीने वरधनु | जळ लेवा गाममा पेठो, तरतन उतावळो पाछो आवी कुमारने कहे छे के-में अहीं लोक वायका एवी सांभळी के-'दीर्घराजाए | For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥७३०॥ "美美號號 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चारे कोर सैन्य राखी ब्रह्मदत्तना मार्ग रोक्या छे, तो पछी हे कुमार! आपणे अहींथी नासी जवं उचित छे, आम कहीने बन्ने जा मार्ग विना आडे घड चाली एक महोटा जंगलमां आवी लाग्या. तत्र कुमारं वटा उपवेश्य वरधनुर्जलमानेतुमितस्ततो बभ्राम दिनावसाने वरधनुदिनृप भटैर्दृष्टः, प्रकामं यष्टि| मुष्टयादिभिर्हन्यमानः कुमारं दर्शयेति प्रोच्यमानः कुमारासन्नप्रदेशे प्रापितः तावता वरधनुना कुमारस्य केनापल| क्षिता संज्ञा कृता, भटैरदृष्ट एव ब्रह्मदत्तो नष्टः पतितश्चैकां दुर्गा महादवीं, क्षुधातृषाभ्यामानं, कुमारस्तृतीये दिने तामटवीमतिक्रांतस्तापसमेकं ददर्श दृष्टे च तस्मिन् कुमारस्य जीविताशा जाता. कुमारेण स तापसः पृष्टः, भगवन् ! क भवदाश्रमः? तेनासन्न एवास्मदाश्रम इत्युक्त्वा कुलपतिसमीपं नीतः, कुमारेण प्रणतः कुलपतिः, कुलपतिना भणितं वत्स! कुत इह भवदागमनं ? कुमारेण सकलोऽपि स्ववृत्तांतः कथितः कुलपतिनोक्तं त्यां एक वडला नीचे कुमारने बेसाडी वरधनु पाणी लेवा आम तेम फरतो हतो, सांज पडवा भावी हती तेटलामां दीर्घराजाना जासुसोए वरधनुने दीठो, तेने लाकडीथी तथा मुठी बती मार मारवा मांड्यो भने 'ब्रह्मदत्तकुमारने देखा. एम कहेता कुमारनी | नजदीक आव्या ते वखते वरधनुए कोइ न देखे तेम कुमारने इशारो कर्यो के तेज क्षणे पेला जानुसो न देखे तेवी रीते ब्रह्मदत्तकुमार त्यांथी नाठो ते चाळतां चालतां एक अघोर अरण्यमां आवी पड्यो. भूख तरसथी पीडातो कुमार बीजे दिवसे ए महाटवीने छेडे आव्यो त्यां एक तपस्त्रीने दीठा. तेने जोइने कुमारना मनमां 'हवे जीवाशे. एवी आशा आवी. कुमारे ते तापसने पूछयुं केआपनो आश्रम क्यां छे? सुनिएका के-आ समीपमांज अमारो आश्रम रह्यो आम कही कुलपति पांसे ते कुमारने लइ गयो. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ॥७३० ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर - अध्य०१३ ॥१३॥ Id| कुमारे ए कुलपतिने प्रणाम कर्या त्यारे बु.लपति बोल्या-'वत्स ! तमारुं क्यांथी अहिं आवतुं धयुं?' आना उत्तरमा कुमारे पोतानो उत्तराध्य र तमाम दृष्टांत कहेतां कुलपति बोली उठ्या केयनमत्रम अहं भवजनकस्य क्षुल्लभ्राता, ततस्त्वं निज चैवावासं प्राप्तोऽसि, सुखेनात्र निष्ट? इत्यभिप्राय तापसस्य ज्ञात्वा ॥७२॥ कुमारस्तत्रैव सुखं तिष्ठन्नस्ति. अन्यदा तत्र वर्षांकालः समायातः. तदानीं निश्चितेन कुमारेण तत्र तापसांतिके सकला धनुर्वेदिकाः कला अभ्यस्ताः. अन्यदा शरत्काले फलमूलकंदादिनिमित्तं तापसेषु गच्छत्सु ब्रह्मदत्तकुमारोऽपि तेःसमं बने गतः. वनश्रियं पश्यता तेन एक महाहस्ती दृष्टः, कुमारस्तदभिमुखं चलितः, कुमारं दृष्ट्वा हस्तिना गलगजिरव: कृतः, कुमारेण तस्य पुरो निजमुत्तरीयं वस्त्रं निक्षिप्तं, कारिणापि तत्क्षणात् शुंडादंडेन गृहीतं. क्षिप्तं च गगनतले, यावत्स क्रोधांधो जातस्तावत् कुमारेण उलं कृत्वा तद्वस्त्रं स्वकराभ्यां गृहीतं, ततस्तेन नानाविधक्रीडया परिश्रम नीत्वा करी मुक्तः, स पश्चाद्गंतुं प्रवृत्तः, तत्ष्टौ कुमारोऽपि चलित'. इतश्चाग्रे गच्छन् कुमारः पूर्वापरदिग्विभागे परिभ्रमत् गिरिनदीतटसन्निविष्टं जीर्णभवनभित्तिमात्रोपलक्षितं जीर्ण नगरमेकं ददर्श. 'हुं तो तारा पितानो नानो भाइ छ माटे तुं हवे तारा पोतानाज आवासमां आव्यो छे, अहीं सुखेथी रहो.' तापसनो आवो अभिप्राय जाणीने कुमारतो त्यां नीरांते रह्या. एम करतां वर्षाकाळ आव्यो त्यारे निश्चितपणे राजकुमारे त्यां तापस पांसे सकल |JE J धनुर्वेदनी कलाओनो अभ्यास कर्यो, एक वखते शरदऋतुना समयमां तापसो तथा फळ मूळ कंद वगेरे लेवा वनमा जता हता तेओनी साथे ब्रह्मदशकुमार पण वनमां गया. बननी शोभा जोता आगळ जाय छे त्यां एक महोटो हाथी दीठो, कुमार तो तेना For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पनसूत्रम् | भाषांतर अध्य०१३ ॥७३२॥ सामा चाल्या. कुमारने जोइ हाथीए गळानी गर्जनानो अवाज को. कुमारे ते हाथी आगळ पोतार्नु ओढवातुं वस्त्र फेंक्यु, तेज उत्तराध्य क्षणे हाथीए ते वस्त्र पोतानी मूढथी पकडी उचे आकाशमां उछाब्यु. ए हाथी क्रोधांध थयो तेटलामां तो छल करी कुमारे ते वस्त्र पोताना बे हाथ बती झीली लीधुं. ते पछी घणा प्रकारथी रमाडीने हाथीने थकव्यो त्यारे ते हाथी चालतो थयो, कुमारे ते हाथींनी ॥७३२॥ | पाछळ जवा मांडयुं आगळ चालतां पूर्व दिशामा फरतां पर्वतमाथी नीकळेली नदीना किनारा पर आवेलुं जुनां घरोनी मात्र भीतोज जेमां शेष रहेल छे तेवु एक जूनुं उन्नड नगर दी?... तन्मध्ये प्रविष्टश्चतुर्दिक्षु दृष्टि क्षिपन् पार्श्वपरिमुक्तखेबकखड्गं विकटवंशकुडगं ददर्श. कुमारेण तत्खड्ग तथैव कौतुकावाहितं. एकप्रहारेण निपतितं वंशकुडंग, वंशांतरासस्थितं च निपतितं रुडमेकं, स्फुरदोष्ट मनोहराकारं शिर:कमलं दृष्ट्वा संभ्रांतेन कुमारेणैवं चितितं, हा धिगस्तु मे व्यवसितस्य, धिग्मे बाहुबलस्येति कुमारः स्वं निनिंद. पश्चातापाक्रांतेन तेन कुमारेण दृष्टं धूमपानलालसं कबंधं समधिकमधृतिस्तस्य पुनर्जाता. तेनी अंदर प्रवेश करीने चारेकोर नजर नाखे छे तो-पडखामां ढाल तथा तलवार पडेला छे एवो एक बांसनो झुड जोयो. | कुमारे ते खड्ग उपाडी चकासी जोवानी इच्छाधी वांसना झुंड उपर घा को त्यां वांस कपाया ते साथे वांसना वचगाळामां कपाइ DE] गयेल फर फरता होठवाळु मनोहर आकृतिनुं एक मस्तक पडयुं ते जोइ संभ्रम पामेला ए राजकुमारे विचायु के-'मारा आ उद्यो गने धिक्कार छे अने मारा बाहुबळने पण धिक्कार छे' आम पोताना आत्मानी निंदा करी पश्चात्ताप करता ते कुमारने धूमपान कर|वानी लालसावाळो कबंध धड जोइ मनमां अधिक अधैर्य आव्यु. افتاتيانا مللنا لللنالنا فيليباليابان الليالي يا لالة For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इतस्ततः पश्यता कुमारेण पुनः प्रवर उद्यानं दृष्टं, तत्र भ्रमन्नशोकतरुपरिक्षिप्तमेकं सप्तभूमिकमावासं कुमारो उत्तराध्यदृष्टवान्. तन्मध्ये प्रविष्टः कुमारः क्रमे ग सप्तमभूमिकामारूढः, तत्र विकसितकमलदलाक्षी प्रवरां महिलां पश्यतिस्म. IBE भाषांतर पनसत्रम अध्य०१३ कुमारेण सा प्रष्टा कासि त्वमिति. ततः मा स्वसगावं कथयितुं प्रवृत्ता, महाभाग! मन व्यतिकरो महान् वर्तते, तत॥७३३॥ UEस्त्वमेव प्रथमं स्ववृत्तांतं वद? कस्त्वं? कुतः समायातः? एवं तया पृष्टे कुमार आख्यत् पंचालाधिपतिव्रह्मराजपुत्रो ब्रह्म- ||७३३० दत्तोऽस्मीऽति. कुमारोक्तिश्रवणानंतरं हर्षोत्फुल्लनयना सा अभ्युत्थाय तस्यैव चरणे निपल्य रोदितुं प्रवृत्ता. ततः सकामण्यहृदयेन कुमारेण सा पुनरेवं भणिता, मुखमुन्नतं कुरु? मा रुदेति चाश्वासिता सा. ततः कुमारेग त्वं स्ववृत्तांत वदेत्युक्ता साचण्यौ, कुमार! अहं तव मातुलस्य पुष्पचूलस्य राज्ञः पुत्री, तवैव पित्रा दत्ता, विवाहदिवसं प्रतीक्षमाणा निजगृहोद्यानदीपिकापुलिने क्रीडती दुष्टविद्याधरेणात्रानीता. यावदहं स्वजनविरहाग्निसंतप्ता इह तिटामि, तावत्वमतर्कितवृष्टिसमोऽत्रायातः, अथ मम जीविताशा संजाता, यवं मया दृष्टः कुमारे णोक्तं स मम शत्रुः कास्ति? येन तलं पश्यामि. । आम तेम नजर करतां वळी एक उत्तम बगीचो कुमारनी नजरे पड्यो. तेमां जइ फरतां आसुपालवनां वृक्षोथी चारे कोर घेरायेलो सात भोंवाळो एक महेल जोयो. तेमां कुमार जेबा जाय छे त्यां ठेठ सातमी भों उपर जतां विकसित कमळनी पांखडी 30 जेवा जेनां नेत्र छ एनी एक उत्तम रूपवती महिलाने जोइ. कुमारे तेणीने पूछ्यु के-'तमे कोण छो?' त्यारे ते स्त्री पोतानो वृत्तांत | सद्भाव सहित कहेवा लागी. 'हे महाभाग! मारी कथनी तो घणी महोटी छे माटे प्रथम आपज पोतानो वृत्तांत कहो. आप कोण ठो For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir UE | अने क्याथी आको छो?' आम तेणीये पूछ्यु त्यारे कुमार बोल्या के–'पंचाळदेशना अधिपति ब्रह्मराजानो ब्रह्मदत्त नामनो हुँ | राध्य- पुत्र छु,' आठलु कुमार वचन सांभळतांज हर्षथी विकसित छे नेत्र जेनां एवी ते स्त्री उभी थइने कुमारना चरणमा पडीने रोबा || भाषांतर यनसूत्रम् अध्य०१३ लागी. त्यारे करुणा युक्त हृदयवाळा कुमारे फरी तेणीने कयु के-'मुख उचुं करो अने रुओ मां'-आम बोली आश्वासन दीg, ॥७३४॥ | अने हवे तमाएं वृत्तांत कही' एम कुमारे कधु त्यारे पोतार्नु वृत्तांत ते कहेवा लागी. 'कुमार! हुं तमारा मामा पुष्पचूल राजानी पुत्री ॥७३४॥ | मारा पिताए तमनेज वाग्दानथी मने आपेली, विवाह दिवसनी वाट जोती मारा आवासना बगीचामां वाचने कांठे रमती हती त्यांथी एकाएक दुष्ट विद्याधरे मने अहीं आणी त्यारथी हुं स्वजन वियोगना संतापथी बळती अहीं रही छ; तेटलामा अणधारेल | दृष्टि जेवा तमे अहीं आवी चडया. हवे मने जीववानी आशा थइ छे; कुमारे का-ते पारो शत्रु कोण छे ? अने ते क्यां छे? हमने कहे तो हुं तेनुं बळ जोउं तो खरो. तया भणितं स्वामिन ! ममानेन शंकरीनाम्री विद्या दत्ता, कथितं चेयं विद्या पठिनमात्रा तव दासदासीसखीपरिवाररूपा भूत्वा आदेशं करिष्यति, तवांतिकमागतं प्रत्यनीकं निवारयिष्यति, दूरस्थस्यापि मन चेष्टितं पृष्टा सती | इयं तव कथयिष्यति. साद्य मया प्राप्ता, स्मृता सती मम तच्चेष्टितं प्राह. यथा स उन्मत्तनामा विद्याधरः पूर्णपुण्यायास्तव बलात्स्पर्श तेजश्च सोदुमशक्तस्त्वामत्र मुक्त्वा निजभगिनी ज्ञापनाय ज्ञापिकी विद्या प्रेषयित्वा च स्वयं विद्यां साधयितुं वंशकुडंगे गतोऽस्ति. ततो निर्गतमात्रस्त्वां परिणेभ्यतीति ममाद्य तया विद्यया कथितं. एततस्या वचः श्रुत्वा | ब्रह्मदत्तेनोक्तं वंशकुडंगस्थस्य तस्य विद्याधरस्य मया सांप्रतमेव शिरश्छिन्न. तयोक्तमार्यपुत्र! शोभनं कृतं, यस For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुरात्मा निहता. ततः सा कुमारेण गंधर्व विवाहेन परिणीता; तया समं विलसन् कुमारः कियत्कालं तत्र स्थितः. उत्तराध्य||३| अन्यदा कुमारेण तत्र दिव्यवलयाना शब्दः श्रुतः. कुमारेणोक्तं कोऽयं शब्दः श्रूयते! तयोक्तं IBE भाषांतर पनसूत्रम् ते स्त्री बोली के-'हे स्वामिन् ! ए विद्याधरे मने शांकरी विद्या आपेली छे ने कहेल छ के-आ विद्या मात्र पाठ करवाथीज 26 अध्य०१३ OF तारा दास दासी परिवाररूप थइने तारी आज्ञा उठावशे; तारी पांसे आवेला तारा विरोधीओने निवारशे रोकशे. हुं गमे तेटलो ।।७३५॥ hrii दूर होइश तो पण पूछवाथी ते तने मारी बधी प्रवृत्ति कद्देशे. ते मने आजे मळी. में स्मरण करतांज तेनं तमाम चेष्टित मने का | के-'ते उन्मत्त नामनो विद्याधर, तुं पूर्ण पुण्यवाळी होवाथी बलात् तने स्पर्शवा तथा तारुं तेज सहन करवा शक्तिमान् नथी तेथी ३) तने अहीं मूकीने पोतानी बहेनने जणाववाने ज्ञापिकी विद्या मोकलीने पोते विद्या साधवा माटे वांसना झुडमां उधे माथे धूमपान AE करे छे त्यांथी नीकलीने तने परणशे, आम मने आजे ते विद्याए कह्यु' आq तेणीनुं वचन सांभळीने ब्रह्मदते फयु के-'ए वासना | झुडमा रहेला ते विद्याधरनुं मस्तक में हमणांज छेधुं.' ते बोली-'आर्यपुत्र ! बहु सारु कयु, ते दुरात्माने हण्यो,' ते पछी कुमारे गंधर्व विवाहविधियी ते स्त्रीने परण्या अने तेनी साये विलास करता केटलोक समय त्यां रह्या. एक वखते कुमारे त्यां दिव्यवलय का कंकणोनो नाद सांभळ्यो अने कहा के आ शब्द शेनो संभळाय छे ? तेणीये कधु के कुमार! एषा तव वैरिभगिनी खंडशाखानानी विद्याधरकुमारीपरिवृता स्वभ्रातृनिमित्तं विवाहोपकरणानि BE गृहीत्वा समायाता, त्वमितस्त्वरितमपक्रम? यावदेतासामहमभिप्रायं वेनि. यद्येतासांतवोपरि रागो भविष्यति, तदाहं प्रासादोपरि स्थिता रक्तां पताकां चालयिष्यामि, अन्यथा तु श्वेतामिति. कुमारस्तद्गृहावहिर्गत्वा दूरे स्थित ऊध्र्व For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit | विलोकते, तायञ्चालितां धवलपताकां दृष्ट्वा शनैः शनेस्तत्प्रदेशादपक्रांतः कुमारः प्राप्तो गिरिनिकुंजमध्ये. तत्र भ्रमता उत्तराध्य| कुमारेणक सरोवरं रष्टं, तब लानं कृत्वा सर:पश्चिमतीरे उत्तीर्णेन कुमारेण दृष्टैका वरकन्या, चितितं चाहो मे पुण्य भाषांतर पनसूत्रम् अध्य०१३ परिणतिः! यनैषा कन्या मे दृग्गोचरमागता, तयाप्यसौ कुमारः स्नेहनिर्भरं विलोकितः, कुमारं विलोकयंती साग्रे ॥७३६॥ प्रस्थिता. स्तोकया बेलया तया कन्यया एक दासी प्रेषिता, तया कुमाराय वस्त्रयुगलं पुष्पतांबूलादिकं च दत्त, उक्तं ॥७३६|| च, या युप्माभिः सरस्तीरे कन्या दृष्टा, तया सर्वमिदं प्रेषितं, लावण्यलतिकानाम्न्यहं तस्या दासी अस्मि. Je हे कुमार ! आ तमारा वैरीनी खंडा तथा शाखा नामनी व्हेनो विद्याधर कुमारिकाओथी वीटळायली पोताना भाइने माटे विवाJE | हनो सामान लइने आवे छे माटे तमे अत्रेयी जरा खसी जाओ जेथी हुँ एओनो अभिमाय जाणु, जो तेभोनी तमारा प्रति प्रीति | हशे तो हु आ महेल उपर राती धजा चडावीश अने जो तेम नहिं होय तो धोळी धजा फरकावीश कुमार ते घरमांथी बहार जइ थोडे दूर जइ उभा ने उंचे जोइ रह्यो त्यांतो धोळी धजा चडी ते जोइने धीमे धीमे ते प्रदेशथी चाल्यो जतो एक पर्वतनी झाडीमां 15 जइ चल्यो. त्यां फरतां कुमारे एक सरोवर दीठं तेमां स्नान करी ए तळावना पश्चिम नीरे उतर्यो त्यो तेणे एक सारी कन्या दीठी. JE] विचार्यु के-'अहो! मारा पुण्यनो परिणाम, जेथी आ कन्या मारी नजरे पडी.' ते कन्याए पण आ कुमार सामु घणाज स्नेह सहित JE | जोयु. कुमारने जोती जोती ते आगळ चाली अने थोडीज बारमा तेणीये एकाद दासीने मोकली जेणे चे वस्त्रो पुष्पहार तथा तांबूKलनुं बीडु कुमारने दीधां अने का के--जे आपे तळावने कांठे कन्या जोइ तेणीए आ सर्व मोकलाव्युं छे हुँ तेनी लावण्यलतिका | नामनी दासी छ. For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तया च ममेदमादिष्टं, यदेनं महानुभावं कुमारं मम तातमहानंत्रिणो मंदिरे शरीरस्थिति कराय? ततस्तत्र कुमार उत्तराध्यपनसूत्रम यूयमागच्छत? ततः कुमारस्तया सह तदैवासात्यमंदिरे गतः. तत्र दास्या मंत्रिग एवमुके, मंत्रिन् ! त्वत्स्वामिपुत्र्याय IPE अध्य०१३ प्रेषितोऽस्ति, प्रकाममस्यादरः कर्तव्यः, मंत्रिणा तथैव कृतं. द्वितीयदिने कुमारो मंत्रिमा राज्ञः सभायां नीतः, अभ्यु॥७३७|| 6 स्थितेन राज्ञा कुमारस्य धुरि आसनं दत्तं, पृष्टश्च वृत्तांतः, कुमारेण सर्वोऽपि कथितः. IPE ||७३७॥ arj तेमणे मने आज्ञा करी छे के-ए महोटा अनुभवबाला कुमारने मारा पिता महामंत्रीने मंदिरे तेडी जइ शरीर स्थिति कराव, ते माटे हे कुमार! आप त्यां आवो.' आ पछी तेनी साथे कुमार तेज वखते अमात्यने घरे गया. त्यां दासीए मंत्रीने एम का के२८// 'हे मंत्रिन् ! तमारा स्वामिनी पुत्रीए आने मोकल्या छे आनो सारी रीते आदर करजो. मंत्रीए तेने घणा सत्कारथी राख्या. बीजे दिवसे मंत्री कुमारने राजानी सभामा लइ गया त्या राजाए उभा थइ स्वागत करी अग्रासन दीधुं अने वृत्तांत पूछतां कुमारे सर्व | | वृत्तांत कही देखाइयो. अथ विविधभंग्या भोजितस्य कुमारस्य एवमुक्तं राज्ञा, कुमार! तव भक्तिरस्मादृशः कापि कर्तु न पार्यते, परमियमेवास्माकं भक्तिः, यदियं कन्या तव प्राभृतीकृता, सुमुहर्ने तयोविवाहो जातः, कुमारस्तया समं विलासं कुर्वन् सुखेन तत्र तिष्टति. अन्यदा कुमारेण तस्याः प्रिययाः पृष्टं. किमर्थमेकाकिने मह्यं त्वं नृपेण दत्ता ? सेवाच आर्यपुत्र! JE JE एष मदीयः पिता बलवत्तरवैरिसंतापित इमां विषमपल्लिं समाश्रितः. अत्र तातपत्न्याः श्रीमत्याश्चतुणी पुत्राणामुप यहं पुत्री जाता, अहमतीव पितुर्वल्लभा, यौवनवस्था अन्यदा पित्रा उक्ता, पुत्रि ! मम सर्वेऽपि राजानो विरुद्धाः For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ॥७३८॥ | संति, तेन त्वमिह स्थितैव योग्यं वरं गवेषय? ततोऽहं ग्रामाद्वहिस्तस्य सरसस्तीरे समायातान् पथिकान् विलोकउत्तराध्य | यंती स्थिता. तदानीं त्वं तत्रायातो मया भाग्यात् प्राप्तश्चेति परमार्थः. यनसूत्रम् विविध कारनां भोजन जमाडी राजाए कुमारने कह्यु के-'अमारा जेवा आपनी कंइ पण भक्ति शुं करी शके! पण अमारी ॥७३८॥ | तो एज भक्ति छे के आ कन्या आपने उपायन करीए छोए. सारं मुहूर्त जोइ बेयनो विवाह थयो. हवे ए कन्यानी साथे कुमार | विलास करता सुखे ला रह्या. एक समये कुमारे ते कन्याने पूछ्यु के-'राजाए मने एकलाने झट लइने केम तने आपी दीधी? ते PE कन्या बोली के-'हे आर्यपुत्र ! आ मारा पिताने अधिक बळवाळा शत्रुओए संतापत्राथी आ विषमपल्ली भिल्लना गाममा आवी रह्या छे, अहीं मारी मा श्रीमतीने चार पुत्रोनी उपर हु एक पुत्री थइ, हुं मारा वापनी अति व्हाली पुत्री छ. मने युवावस्थावाळी जाणी एकवार पिताए कह्यु के-'हे पुत्री ! मारा सर्वे राजाओ विरोधी छे तेथी तुं अहीं रहीनेज योग्य वर गोती लेजे, ते पछी हुँ गामनी बहार तळावने कांठे आवता पथिकजनोने जोया करुं छु तेमां तमे त्यां आव्या अने मारा सद्भाग्यथी मने प्राप्त थया; आ सघळी खरी हकीकत छे. । ततस्तया श्रीकांतया समं विषय सुखमनुभवतस्तस्य सुखेन वासरा यांति. अन्यदा स पल्लीपतिस्तेन कुमारेण | समं निजसैन्यवेष्टितः स्वविरोधिनृपदेशभंगाय चलितः. मार्गे गच्छतस्तस्य काचित्सरस्तीरे वरधनुर्मिलितः. कुमारेणोपलक्षितः. कुमारं दृष्ट्वा स रोदितुं प्रवृत्तः, कुमारेण बहुप्रकारं वारितः स्थितः. कुमारेण पृष्टं मतो दूरीभूतेन त्वया किमनुभूतं? वर धनुः प्राह कुमार! तदानीं त्वां वटाध उपवेश्याहं जलाथै गतः, सर एकं च दृष्टवान्. ततो जलं गृहीत्वा انت النقاشات البلاكا القرار JLAUREAUCAUthpande For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-14 तवांतिके यावदहमागंतुं प्रवृत्तस्तावत्सनबद्धकवचैदर्घनपभरैः सहसा मिलितैरहमुपलक्षितस्ताडितश्च,उक्तं च क ब्रह्मदत्त इति. मयोक्तमहं न जानामि, ततो दृढतरं ताडितोऽहमवदं ब्रह्मदत्तो व्याघ्रग भक्षितः तैरुक्तं तं देशं दर्शय? तैौर्यपनसूत्रम् BE भाषांतर A अध्य०१३ २५माणोऽहं तवांतिकदेशमागत्य तदानीं तां संज्ञामकार्ष. त्वयि ततो नष्टेऽहं पुनस्तै श ताड्यामानः स्वमुखे परिव्राजक॥७३९॥ J) दत्तां गुटिकां क्षिप्तवान्. तत्प्रभावादहं निश्चे यो जातः. ततस्ते मृतोऽयमिति ज्ञात्वा सर्वेऽपि भटा गताः. ||७३०॥ । त्यारपछी ए श्रीकांता नामनी राजकन्या साथे विषयमुखोने अनुभवतां कुमारना दिवसो सुखे बीतता हता. एक बखते ए G पल्लीपति पोताना सैन्यने लइ पोताना विरोधी राजाना देशनो भंग करवा चाल्यो ते साथे ब्रह्मदत्तकुमार पण चाल्या. मार्गमां चालतां एक सरोवरने तीरे वरधनु मल्यो तेने कुमारे ओळखी काढ्यो. कुमारने जोइ ते रोवा लाग्यो त्यारे कुमारे घणे प्रकारे | समजावी रोतो राखीने पूछयु के-'माराथी विखूटा पडीने तमे शुं शुं अनुभव्यु? ते कहो' वरधनु बोल्यो-'हे कुमार! ते वखते तमने वडला नीचे बेसाडीने हुं जळ लेवा गयो त्यां एक तळाव दीर्छ तेमांथी जळ लइने हुँ आवतो हतो तेटलामा दीर्घनृपना कवचन बद्ध भटो मळीने मने ओळखीने मारवान मांड्या' अने 'ब्रह्मदत्त क्यां छे ते कहें' में कयु 'हुँ नथी जाणतो' तेम तो वधारे मारवा लाग्या. मने बहु मार्यो खारे में कह्य 'ब्रह्मदत्तने वाचे मारी नाख्यो' त्यारे कहे 'ते ठेकाणुं देखाड ज्यां वावेब्रह्मदत्तनुं भक्षण कर्य? एटले हुँ मार खातो तमारा नजदीक प्रदेशमा आचीने ते वखते तमने इशारो कर्यो ते उपरथी तमे नासो गया अने ए भटो मने Jt/ मारतान रह्या त्यारे मने एक परिव्राजके गुटिका आपेली ते गुटिका में मोढामा नाखी तेना प्रभावथी हु निश्चेष्ट बन्यो एटले 'आ | तो मरी गयो' एम मानीने ए भट चाल्या गया. For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१३ ॥७४०॥ जलजलजला لتلك الفعاليات الثلاثة ॥७४०॥ तेषां गमनानंतरं चिरकालेन मया गुटिका मुखानिष्कासिता. ततः सचेतनोऽहं त्वां गवेषयितुं प्रवृत्तः. न मया दृष्टस्त्वं, ततोऽहमे ग्रामं गतः, तत्र दृष्ट एकः परिव्राजका, तेनोक्तमहं तव तातस्य मित्रं सुभगनामा, तव पिता धनुनष्टः, माता तु दीर्पण गृहीता, मातंगपाट के च क्षितास्तीति श्रुत्वाहमतीव दुःखितः कांपिल्यपुरे गतः, कापालिकवेषं | कृत्वा मातंगमहत्तरं च वंचयित्वा मातंगपाटकान्मातरं निष्कासितवान्. एकस्मिन् ग्रामे पितृमित्रस्य देवशर्मब्राह्मणस्य गृहे मातरं मुक्त्वा त्वामन्वेषयन्नहमिहायातः. इत्थं यावत्तौ वरधनुब्रह्मदत्तौ वार्ता कुरुतस्तावेदकः पुरुषस्तत्रागत्यैवमुवाच, यथा महाभाग ! भवता कचिदितस्ततो न पर्यटितव्यं, त्वद्गवेषणार्थ दीर्घनियुक्ता नरा इहागताः संतीति श्रुत्वा | तो द्वावपि ततो बनान्नष्टौ, भ्रमंती च कौशांब्यां गतो. तत्र बहिरुद्याने द्वयोः श्रेष्टिसुतयोः सागरदत्तबुद्धिलनानोः | कुर्कुयुगलं लक्षपणकरणपूर्वकं योध्धुं प्रवृत्तं दृष्टुं कौतुकेन तो तत्रैव स्थिती. ते गया पछी पेली गुटिका मुखमांथी काढी लीधी के तरत हुं सचेतन थयो अने तमने गोतवा नीकल्यो. क्यांय तमने दीठा नहि तेथी हुँ एक गाममा गयो त्यां एक परिव्राजक संन्यासी दीठो तेणे का-हुँ तारा बापनो मित्र छ मारुं नाम सुभग छे. तारा |पिता धनु नष्ट थया, तारीमाने दीर्घराजाए पकडीने वेढवाडामा राखी छे. आ वात सांभळी मने बहु दुःख थयु तेथी हुँ कांपिल्यपुरमा गयो त्यां कापालिक अघोरी-नो वेश लइ ए ढेढोना महेतरने छेतरी ए ढेढवाडांमांथी मारी माने मुकाबी एक गाममां मारा बापना मित्र देवशर्मा ब्राह्मणने घरे मारी माने राखीने पाछो तमारी शोधमा हुँ अहिं आव्यो, आवी रीते वरधनु तथा ब्रह्मदत्तकुमार न्यां वातो करे छे त्यां एक पुरुषे आधीने कयु के-'हे महाभाग ! तमारे आम तेम पर्यटन न करवू कारण के तमने गातका الفعال فعل المالي قال For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पसराय-158माटे दीर्घराजाए मोकलेला मनुष्यो अहीं आवी पहोंच्या छे.' आ सांभळीने बेय जणा त्यांथी नाठा ते फरता फरता कौशंबी नगपनसूत्रम् २६रीमां गया. त्यां बहारना बगीचामां सागरदत्त तथा बुद्धिबल नामना बे शेठीयाना दीकरा एक लक्ष रुपैया हारे ते आपे एवी शर Je भाषांतर AE अध्य०१३ ३६ तथी पोताना वे कुकडाने लढावता हता त्यां आ चे 'जगा कौतुकथी जोबा उभा. |७४१॥ बुद्विलकुर्कुटेन सागरदत्तकुकुटः प्रहारेण जर्जरीकृतो भन्नः, सागरदत्तेन प्रेर्यमागोऽपि स्व लुटो बुद्धिल कुकुंटेन ॥७४१॥ समं पुनर्योध्धुं नाभिलषति. हारित लक्ष सागर दसेन. अत्रांतरे वरधनुनो भो सागरदत्त ! एष सुजातिरपि कुकुरः कथं भग्नः ? ममात्रार्थे विस्मयोऽस्ति. यदि कोऽपि कोपं न करोति तदा वुद्धिलकर्कटमहं पश्यामि. सागरदत्तो भगति Rभो महाराज! विलोकय? नास्त्यत्र मम कोऽपि दृष्यलोभः, किंत्वभिमानसिद्धिमात्रप्रयोजनमस्तीति. ततो वरधनुना विलोकितः स कुर्कुटः, तदरगनियद्धः स ची कलापो दृष्टः, बुधिलोऽपि वरचनुप्रति शनैरेबमाह यदि त्वं सूचीकलाप न वक्ष्यसि, तदाहं तव लक्षार्थ दास्यामि. ततो घरधनुनोक्तं विलोकितो यत्कुकुटो नात्र किंचि दृश्यते, एवमुक्त्वापि || यथा बुद्धिलो न जानाति तथा सूचीकलापमाकृष्य सागरदत्तस्य तद्वयतिकरः कथितः. सागरदसेन पुनः म्बकुकुटः प्रेरितो बुद्धिलकुटेन समं युद्धं प्रववृते. सागरदत्त कुकुटेन जितो वुद्धिकरः, हारितं बुद्धिलेन लक्षं. तुष्टः सागरदन एचमाह आर्यपुत्र ! गृहे गम्यते, इत्युक्त्या छावपि कुमारौ रथे निवेश्य सागरदत्तः स्वटहे गतः, सागरदत्तस्तो परमप्रीत्या पश्यति, सागरदत्तस्नेहनियंत्रितौ तारतीयाग्रहानगृह एव तस्थतुः. बुद्धिलना कुकडाए सागरदत्तना कुकडाने महारथी खोखरो करी नाख्यो. ते वखते सागरदत्ते पोताना कुकडाने घणो उमेरका For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ पनसूत्रम् ३८ ॥७४२॥ ७४० 3 मांढयों पण ते बुद्धिलना कुकडा साथे फरी लडबा नज मंडयो. सागरदत्त लक्ष रुपैया हारी गयो. आ वखते वरनुए कह्यु-हे साग-1 रदत्त ! तमारो आ कुकडो जातवान् छतां केम भग्न थयो? मने आ बाबत विस्मय थाय छे. जो गुस्से न थाो ता बुद्धिल शेठनो शेठनो कुकडो मारे जोवो के. सागरदत्ते का हे महाराज भले जुओ मने आमां कोई प्रकारनो द्रव्य लोभ नयी किंतु अभिमान सिद्धि मात्र प्रयोजन छे. ते पछी वरधनुए बुद्धिलनो कुकडो तपास्यो तो तेना पगमां बांधेल सोयोनो जथ्थो दीठो. बुद्धिले पडखे चडीने धीरेथी वरधनुने कयु के मारु पोकळ उघाई न करशो हुँ मने जे लक्ष रुपैया मळशे तेमां अर्ध लक्ष तमने आपीश. परधनुए को-जोयो कुकडो एमां कांइ नथी. आम बोलतां पण बुद्धिल न जाणे तेवी रीते तेना कुकडाना पगमांनी सोईयो खेंची लीधी अने ए हकीकत सागरदत्तने जणाबी दीधी. सागरदत्ते फरीथी पोताना कुकडाने प्रेरणा करी अने बुद्धिलना कुकडा साथे लडावतां | सागरदशना कुकडाए बुद्धिलना कुकडाने जीत्यो एटले बुद्धिल एक लक्ष रुपैया हार्यो. आधी सागरदत्त प्रसन्न थइ-'चालो आपणे घर' एम कही आ वेय कुमारोने पोताना रथमां बेसाडी घरे तेडी गयो. त्यां आ धन्नेने सागरदने परम भीतिथी सत्कार पूर्वक राख्या, सागरदनना प्रेमथी बंधायेला तेना आग्रहथी बेय कुमारो तेना घरमा रहे या लाग्या. कियदिनानतरमेको दासस्तत्रायातः, तेनैकांते वरधनुकुमाराय, तव तदानीं सूचीव्यतिकरद्रव्य स्वमुखोतं, बुद्धि लेन तद्रव्यार्पणायायं हारः प्रेषितोस्ति, इत्युक्त्वा हारकरंडिका तेन यरधनवे दत्ता, दासः स्वगृहे गतः, वरधनुरपि हारकरंडिकां गृहीत्वा ब्रह्मदत्तांतिके गतः, स्वरूपं कथयित्वा हारकरंडिकातो हारं निष्कास्य दर्शितवान. हारं पश्यता ब्रह्मदत्तेन हारैकदेशस्थो ब्रह्मदत्तनामांकितो लेखो दृष्टः पृष्टं च मित्र ! कस्यैष लेखः ? वरधनुर्भणति को जानाति ? ब्रह्मद لالالالالالا لالا دو، چون For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य घनसश्रम ॥७४३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | नामकाः पुरुषा बहवः संति ततो दूरे गत्वा धरधनुनोत्कीर्णो लेखः, तन्मध्ये इयं गाथा दृष्टा-पत्थिज्जद जड़ बिजए । जणेग संजोयजणियज सेणं ॥ तहांवे तुमं चित्र धणिअं । रयगवई मुणे माणेउं ॥ १॥ सूक्ष्मबुध्ध्या ध्यायता वरघनुनास्या गाथाया अर्थोऽवगतः. केला दिवस पोयां एक दास आव्यो तेणे बरपनुने एकांतमां बोलावाने कथं के 'बुद्धिल शेडे तमने सीइओ संत्रे जे | द्रव्य पोताने मुखे आपवानुं कहेल ते द्रव्य आपत्रा आ हार तेओए मोकल्यो छे' आटलं बोली हानो करंडीयो तेणे वरधनुने | दइने दास घरे गयो. वरधनु पण हारनो करंडीयो लड़ ब्रह्मदत्तनी पांसे जइ पोतानी हकीकत कही करंडीयामांची काहीने हार | देखाड्यो, ब्रह्मदत्ते हार जोतां हारना छेडामां बांबेल पोताना नामनो लेख जोयो भने पूछ के - 'हे मित्र ! आ लेख केनो छे ?' वरधनु कहे केम खबर पढे? ब्रह्मदत्तनामना तो घणाय पुरुषो होय. ते पछी जरा दूर जाने वरधनुए ते लेख उखेडतां मां आ | गाथा लखेली जोइ - 'यद्यपि संयोग जनित यत्न वडे आ जननी बहुये प्रार्थना करे छे तथापि रत्नवती तो पोताना चित्तना स्वामी | तमनेज करवा चाहे छे.' मूक्ष्मबुद्धिधी विचारी वरधनुये आ गायानो अर्थ जाणी लीधो. द्वितीयदिने एका परिव्राजिका तत्रायाता, सा कुमारशिरसि कुसुमाक्षतानि प्रक्षिप्य कुमार ! त्वं शतसहस्रायुर्भवेत्याशिषं ददौ ततः सा वरधनुमेकांते नयति, तेन समं किंचिन्मंत्रयित्वा सा प्रतिगता. कुमारेण वरधनुर्जल्पितः, अनया विमुक्तं ? वरधनुर्भणति अनयैवमुक्तं यत्तव बुद्धिलेन करंडे हारः प्रेषितोऽस्ति, तेन समं च यो लेखः समागतोऽस्ति तत्प्रतिलेखं समर्पय मयोक्तमेष लेखो ब्रह्मदत्तराजनामांकितो वर्तते, ततस्त्वमेव वद? कोऽसौ ब्रह्मदत्तः ? For Private and Personal Use Only भाषा अध्य०१३ ॥७४३ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ मारकर ॥७४४॥ तयोर्क श्रूयतां, परं कस्यापि त्वथा न वक्तव्यं. इह नगर्यो श्रेष्टिपुत्री रत्नवतीनाम्नी कन्यकास्ति. सा बालभावादारउत्तराध्य भ्यालोब मन स्नेहानुरक्ता यौवनमनुप्राप्ता. पनसूत्रम् बीजे दिवसे एक परिव्राजिका त्यां आवी कुमारना मस्तक उपर पुष्प तथा अक्षत नाखी 'हे कुमार ! तमे सेंकडो वर्षना आयु-1 ॥७४४॥ Eष्यवाळा थाओ' एम आशीष आपीने वरधनुने एकांतमां लइ जइ तेनो साथे कंद वार्तालाप करीने चाली गइ. कुमारे वरधनुने | पूछयु के-'तेणीए शुं कडं? वरधनु बोल्यो-'ते एम चोली के-युद्धिले तमने जे करंडीयामां हार मोकल्यो ते साथे एक लेख | आवेल छे तेनो प्रविलेख जबाबलखी आपो' में कई-ए लेख तो ब्रह्मदत्तराजाना नामनो छे तो तुज कहे के ते ब्रह्मदत्त क्या? त्यारे ते बोली के-हुँ तमने कहूं ते सांभळो, आ बात तमारे कोइने कहेवी नहि. आ नगरीमा एक महोटा शेठीयानी पुत्री रत्न| वती नामनी छे ते बाळपणथीज अत्यंत मारा प्रति स्नेहथी अनुरक्त छे, ते यौवनावस्थामां आयी छे. अन्यदिने सा किंचिध्यायंतो मया दृष्टा, पृष्टा च पुत्रि! त्वं किं ध्यायसीति. सा किमपि नेव वभाग. परिजनेनोक्तनियं वहन प्रहरान याबदीदृश्येव किंचिदातध्यानं कुर्वती दृश्यते, परमत्या हार्द न ज्ञायते. ततः पुनरपि तस्याः JE प्रष्टं, परं सा किंचितोवाच. तत्संख्या भियगुलतिकया उक्तं, हे भगवति! तव पुरः सा लज्जया किंचिदक्तुं न शक्नोति, 6 अहं तावत्कथयानि, इयं गतदिने क्रीडार्थमुद्याने गता, तत्रानया स्वभ्रातुर्बुद्धिलटिनः कुर्कुटयुद्ध कारयतः समीपे |एको वरकुमारो दृष्टः, तं दृष्ट्ववैषा एतादृशी जाता. कुमारीसख्याः प्रियंगुलतिकाया एतद्वचः श्रुत्वा मयोक्तं पुत्रि ! कथय सद्भाव, पुनः पुनरेवं मयोक्ता सा कथमपि सद्भावमुक्त्वा प्राह भगवति! त्वं मम जननीसमानासि, न किंचि For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब भाषातर अध्य०१३ |७४५॥ उत्तराध्य तवाकथनीयं. अनया प्रियंगुलतिकया कथितो यो ब्रह्मदत्तः कुमारः, स मे पतिभविष्यति तदा वरं, अन्यथाहं मरिपनसूत्रम् ष्यामि. सा मया भणिता वत्से! धीरा भव? अहं तथा करिष्ये, यथा तव समीहितं भविष्यति. ततः सा किंचित् स्वस्था जाता. ॥७४५॥ एक दिवसे उंडा विचारमा पडेली में शेने जोड़ त्यारे तेणीने में पूछ्यु के-'हे पुत्रि तुं शा विचारमां पड़ी छो? तेणीये कंड | ri पण प्रत्युत्तर न दीधो पण तेना परिजन दासी वर्ग का के-घणीवार आवीन रीते कंडक आध्यान-चिंता करती देखीये छोये Rai पण एर्नु हार्द जाणी शकातुं नथी. त्यारे फरीथी में तेणीने पूछयु परंतु ते कंइज न बोली पण तेनी एक आभ्यंतर सखी प्रियंगुJलतिका नामनी हती तेणीये का के-'हे भगवति ! तमारी आगळ शरमने लीधे कंड़ बोली नथी शकती, हुंज तमने कही दर at// 'आ गइ काल बगीचामां क्रीडा अर्थे गइ हती त्यां एणे पोताना भाइ बुद्धिल शेठ कुकडा बढाडता हता तेनी समीपे एक उत्तम कुमार दीठो तेने जोइनेज आवी बनी गइ छे.' कुमारीनी सखी प्रियंगुलतिकाना आ वचन सांभळीने में का'-'हे पुत्रि ! तारा मननो भाव कही नाख. आम में ज्यारे वारंवार कहेबा मांडयु त्यारे तेणीये बहुज खंचाइने का के-'हे भगवति ! तमे तो मारा जननी समान छो. तेथी तमने कंइ पण न कहेवाय तेवू नज होय. आ प्रियंगुलतिकाए जे ब्रह्मदत्त कुमार कह्यो ते मारो पति थाय तोज सारु, अन्यथा हुं मरी जइश.' त्यारे में तेणीने कह्य के-'हे वत्से ! धीरी था, हुं तेम करीश के जेथी तार धार्यु सिद्ध थशे.' ते JE पछी ते कंडक स्वस्थ थइ. कल्यदिने पुनरेवं मया तस्या विशेषाश्वासनकरणाथै कल्पितमेवोक्तं, वत्से स ब्रह्मदत्तकुमारो मया दृष्टः, नयापि For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ॥७४६॥ समुच्छ्वसितरोमकूपया भणितं, भगवति ! तव प्रसादेन सर्व भव्यं भविष्यति, किंतु तस्य विश्वासनिमित्तं वुद्धिलउत्तराध्य व्यपदेशेन इमं हाररत्नं करंडके प्रक्षिप्य ब्रह्मदत्तराजनामांकितलेखसहितं कृत्वा कस्यचिद्धस्ते प्रेषय? ततो मया कल्ये पनमूत्रम् तथा विहितं, एष लेखव्यतिकरः सर्वोऽपि मया तव कथितः, सांप्रतं प्रतिलेखं देहि ? ततो मपापि तस्याः प्रतिलेखो ॥७४६॥ दत्तः, तन्मध्ये चेदृशी गाथा लिखितास्ति-गुरुगुणवरधणुकलिओ । तं माणिओ मुणइ बंभदत्तोवि ।। रयणवई रयण मई । चंदोवि य चंदमा जोगो ॥१॥ इदं वरधनूक्तमाकर्ण्य अदृष्टायामपि रत्नवत्यां परमप्रेमवान् कुमारो जात.. तदर्शनसंगमोपायमन्वेषमाणस्य कुमारस्य गतानि कतिचिदिनानि. गइ काले वळी तेने विशेष आश्वासन देवा में कल्पित वचनज कही दीधु के-'हे वत्से ! ते ब्रह्मदत्त कुमार दीठो' त्यारे | तेना रुंबाडांना कळीया खीली गया अने बोली के-'भगवति ! तमारा प्रसादथी सर्व सारंज थशे, किंतु तेने विश्वास बेसाडवा बुद्धिलना नामथी आ हाररत्न करंडियामां नाखी ब्रह्मदत्तराजाना नामवाळा लेख सहित कोइना हस्तक तेने पहोंचडावो. आ उप रथी में काले ते प्रमाणे कयु. आ में तमने लेख संबंधी सर्व हकीकत कही देखाडी हवे ए लेखनो जवाव लखीने आपो.' ते पछी JE पण तेणीने प्रतिलेख लखीने दोधो; तेमां आ गाथा लखी-'गुणवान वरधनुना कहेवाथी ब्रह्मदत्त पण रत्नमयी रत्नवताए मानित थइ चंद्रिकाने चंद्रमा योग्य माने छे. १' आ वरधनुए कहेलुं सांभळी हजु दीठी नथी तो पण ए रत्नवतीमां ब्रह्मदत्तकुमार el परमप्रेमवान् बन्यो; अने तेणीना दर्शन तथा संगमना उपायनी शोधमां कुमारना केटलाक दिवसो वीत्या... अन्यदिने समागतो नगरबाह्याबरधनुरेवं वक्तुं प्रवृत्तः, यथा एतन्नगरस्वामिनो दीर्घनृपेण स्वकिंकरा आवयागे For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥७४७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | वेषणाय प्रेषिताः संति, नगरस्वामिना चावयोर्ग्रहणोपायः कारितोऽस्ति, एतादृशी लोकवार्ता वहिः श्रुता सागरद| तेन एतद्वयतिकरं श्रुत्वा तौ द्वावपि भूमिगृहे गोपितो. रात्रिः पतिता, कुमारेण सागरदत्तस्य भणितं तथा कुरु ? यथावामपक्रमावः एतदाकर्ण्य सागरदत्तस्ताभ्यां द्वाभ्यां सह नगरावहिर्निर्गतः स्तोकां भूमिं गत्वाऽनिच्छंतमपि सागरदतं बलान्निवर्त्य कुमाररधनु द्वावपि गंतुं प्रवृत्तौ पथि गच्छद्द्भ्यां ताभ्यां यक्षायनमोद्यानपादपांतरालस्थिता प्रह | रणसमन्वितरथवरसमीपस्था एका प्रवरमहिला दृष्टा ततस्तया समुत्थाय सादरं तौ भणितो, किमियत्यां वेलायां भवतौ समायाती? इति तस्या वचः श्रुत्वा कुमारः प्राह, भद्रे ! को आवा? तयोतं त्वं स्वामी ब्रह्मदत्तोऽयं च वरधनुः कुमार इति. एक दिवसे बहारथी आवीने वरधनुए कछु के- आ नगरना राजा पांसे दीर्घनृपे पोताना नोकरीने आपणने गोतवा माटे मोकल्या छे अने आ नगरना स्वामीये आपणने पकडवा माटे उपायो योज्या छे. आवी लोकवार्त्ता में बहारथी सांभळी. सागरदत्त | शेठे आ हकीकत सांभळीने बन्ने कुमारीने पोताना घरना भोंयरामां संताड्या. रात्र पडी त्यारे कुमारे सागरदत्तने का' 'तमे एवी गोठवण करो के अमे अहींथी भागी नीकळीए. आ वचन सांभळीने आ बेय कुमार साथै नगरनी बहार नीकल्या, थोडेक दूर जतां पाछा वळवा न इच्छता सागरदत्त ने बलात् = पराणे = पाछा वाळी कुमार तथा वरधनु बेय चालता थया. मार्गमां आगळ चालतां तेओए यक्षस्थानना उद्याननी अंदर वृक्षोना वचमां हथीयार युक्त रथना समीपमां बेठेली एक उत्तम स्त्री दीठी. ते स्त्रीए उभा थइ आदर पूर्वक ते बेय कुमारोने कहां के केम आटलीज वारमां आप बन्ने अहीं आवी पहोंच्या? आबुं तेणीनुं वचन सांभळी कुमार For Private and Personal Use Only 毛毛羌美美美美美的 भाषांतर अध्य० १३ 1.68611 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥७४८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोल्या के- 'अमे कोण छइए?' ते बोली के 'तमे स्वामी ब्रह्मदत्त अने आ वरधनु कुमार.' कुमार उवाच कथमेतदवगतं त्वया ? सा उवाच श्रूयतां ? इहैव नगर्यो धनप्रवरो नाम श्रेष्टी वर्तते, तस्य धनसंचिया भर्या वर्तते, तया अष्टपुत्राणामुपर्येका पुत्री प्रसूता सा चाहमेव मम च कोऽपि पुरुषो न रोचते, ततो मातुरनुज्ञयाहं यक्षमाराधितुं प्रवृत्ता. तुष्टेन यक्षेणैवमुक्तं, वत्से ! तव भर्ता भविष्यचक्रवर्ती ब्रह्मदत्तो भविष्यति, स वर| धनुमित्रसहितो ब्रह्मदत्तकुमार उपलक्ष्यः ततः परं मया हारलेखप्रेषणादिकं यत्कृतं, तत्सर्वं तव सुप्रतीतमेवास्तीति | कुमारीवाक्यमाकण्य सानुरागः कुमारस्तया सह रथमारूढः सा कुमारेण दृष्टा, इतः क गंतव्यं ? रत्नवत्या भणितं, | अस्ति मगधपुरे मम पितुः कनिष्ठभ्राता धनसार्थवाहनामा श्रेष्टी, स ज्ञातव्यतिकरो युवयोर्मम च समागमनं सुन्दरं | ज्ञास्यति, ततस्तत्र गमनं क्रियते, पश्चाद्यथा युवयोरिच्छा तथा कार्यमिति रत्नवतीवचसा कुमारो मगधपुराभिमुखं गतुं प्रवृत्तः, वरधनुस्तदा सारथिर्वभूव ग्रामानुग्रामं गच्छतो तो कौशांबीदेशान्निर्गतो. कुमारे कतमे अमने केम ओळख्या?' ते बोली के 'सांभळो, आ नगरीमां धनमवर नामना शेठ के तना धनसंचया नामनी भार्या छे तेणीए आठ पुत्र उपर एक पुत्रीने जन्म आप्यो ते आ हूं. मने कोइ पुरुष गमतो नहि तेथी मारी मातानी आज्ञाथी में यक्षनी आराधना करवा मांडी. ए यक्षे तुष्ट थड़ने मने कथ्रु के - 'हे वत्से! हवे पछी ब्रह्मदश नामे चक्रवर्ती थशे ते तारो भर्त्ता थशे, | ते पोताना मित्र वरधनु सहित हशे ते उपरथी ब्रह्मदनकुमार ओळखी लेवो. ते पछी में हार तथा लेख माकलबानुं जे कर्यु ते सगळं तो आपना जाणवामांज छे.' आवा कुमारीना वाक्य सांभळीने ब्रह्मदत्त कुमार प्रेमाधीन बनी ते कन्यानी साथे रथमां चन्दा; For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ||७४८ ।। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kende www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य कुमारे ते कन्याने पूछयु के-अहींथी क्या जवान छे?' रत्नवतीए उत्तरमा कयु के-'अहीं मगधपुर जवान छे, त्यां मारा बापना पनसूत्रम् न्हाना भाइ धनसार्थवाह नामना शेठ रहे के तेमने आ वधी वातनी खबर छे तेथी ते तमारु तथा मारुं समागमन सुंदर रीते जाणशे, भाषा र त्यां आपणे जइये छीये, पछी आपनी जेम इच्छा होय तेम करवू.' रत्नवनीना आवां वचन सांभळी कुमार ब्रह्मदत्त मगधपुर भणी INE अध्य०.३ ॥७४९॥ जवानी प्रवृत्ति करी, त्यारे वरधनु सारथि वन्या, आम गामे गाम थतां तेओ कौशांची प्रदेशमाथी नीकळी गया. ७४९॥ ___अन्यदागती गिरिगुहाटव्यां, तत्र कंटकसुकंटकाभिधानौ दो चौरसेनापती तं प्रवरं रथ विभूषितं स्त्रीरत्नं च प्रेक्ष्य तद्रक्षकं च कुमारद्वयमेव सन्नद्धौ सपरिवारौ प्रहतुमायातो. अत्रावसरे कुमारेग तथा प्रहर गशक्तिर्दर्शिता, यथा सर्वेऽपि चौरसुभटाः कुमार प्रहाराजर्जराः सर्वासु दिक्षु गताः. कुमारस्ततो रथारुढश्चलितः, वरधनुनोक्तं कुमार! यूयं दृढश्रांताः, ततो मुहर्तमानमत्रैव रथे निद्रासु वमनुभवत ? ततो रत्नवल्या सह कुमारः प्रसुप्तः, गिरिनदी एका मार्गे समायाता, तावत्तुरंगमाः श्रमखिन्ना नाग्रे चलंति, ततः कथंचित्प्रतिवुद्धः कुमारः अमखिन्नांस्तुरंगमान् पश्यन् रथाग्रे allच वरधनुमपश्यन् जल निमित्तं वरधनुगतो भविष्यतीति चिंतितवान. इतस्ततः पश्यन् कुमारो रथाग्रभागं रुधिरा वलिप्तं ददर्श. ततो ब्यापादितो वरधनुरिति ज्ञात्वा हा हा ! हतो मे सुहदिति शोकातःकुमारो रथोत्संगात्पपात, मूछी च प्राप्तवान्. JET आगळ चालतां तेओ गुफाओवाळा पर्वतयुक्त अरण्यमां प्राची चडचा, त्यां कंटक तथा सुकंटक नामना बे चोर सेनापति, ए| शणगारेला श्रेष्ठ रथने तथा तेमां बेठेल स्त्री रत्नने जोड तेमज एनी रक्षा करनारा थे कुमारज छे एम धारी परिवार सहित तयार For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥७५०॥ UE] थइ हणवा आव्या; आ प्रसंगे कुमारे एवी तो पोतानी प्रहार करवानी शक्ति देखाडी के ए बधाय चोर लडपैयाओ कुमारना महा-1101 उत्तराध्यरथी जाजरा बनी चारेकोर दिशाओमां जीव लइ भागी नीकळ्या. त्यार पछी रथ उपर चढो कुमार चालता थया. वरधनुए कुमा भाषांतर पनसूत्रम् अध्य०१३ रने कयु तमे बहु श्रम लीधो तेथी थाक्या हशो माटे मुहूर्त मात्र ( वे घडीज ) आ रथमां जरा निद्रामुख अनुभवो-एटले कुमार || ॥७५०11 रत्नवतीनी साथे रथमा मूता. मार्गमा एक पर्वतना वचमां नदी आवो त्यां मूधीपां तो घोडा थाकीने लोथ जेवा थइ गया हता अने आगळ जराय चालता नहोता ते वारे कंइ कारणथी कुमार जागी उठ्या, जुए छे तो घोडा छेक थाकी गयेला छे अने रथनी आगळ वरधनुने न जोया तेथी 'वखते जळ लेवा गयेल हशे.' एम धार्यु. आम तेम नजर फेरवतां कुमारे रथनो आगलो भाग रुधिरथी खरडायेलो जोयो ते उपरथी 'वरधनु मराणो' एम जाणी 'हायरे मारो सुहृद् हणाणो' आम शोक पीडित थइ बोलता कुमार रथमाथी मूर्छा खाइने पडी गया. पुनरपि लब्धचैतन्यः स एवं विललाप, हा भ्रातः! हा वरधनुमित्र! त्वं क गतोऽसीति बिलपन कुमारः कथमपि | रत्नवत्या रक्षितः. कुमारो रत्नवतींप्रत्येवमाह सुंदरि! न ज्ञायते वरधनुर्मृतो जीवन् वास्तीति. ततोऽहं तदन्वेषणार्थ पश्चाद् व्रजामि. तया भणितमार्यपुत्र ! अवसरो नास्ति पश्चाद्वलनस्य, येनाहमेकाकिनी, चौरश्वापदादिभोमं चारण्यमिदं, अत्र च निकटवर्ती सीमावकाशोऽस्ति, येन परिम्लानाः कुशकंटका दृश्यंते. एतद्रत्नवतीवचः प्रतिपद्य रत्नवत्या सह कुमारः पथि गंतु प्रवृत्तः. मगधदेशसंधिसंस्थितमेकं ग्रामं च प्राप्तः, तत्र प्रविशन् कुमारः सभामध्यस्थितेन ग्रामा|धिपतिना दृष्ट.. दर्शनानंतरमेव एष न सामान्यः पुरुष इति ज्ञात्वा सोपचार प्रतिपच्या पूजितो नीतश्च स्वग्रहं. दस PaperDroजाक Fer Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Indस्तत्र सुखावासः, तत्र सुखं तिष्टन स एकदा ग्रामाधिपतिना भणितः, कुमार ! त्वं विखिन्न इव कि लक्ष्यसे? कुमापनसनम रेणोक्तं मम भ्राता चौरेण सह भंडनं कुर्वन् न जाने कामप्यवस्था प्राप्तः, नतो मया तदन्वेषणार्थ तत्र गंतव्यं. HEभाषांतर थोडीवारे शुद्धिमां आवतां पाछा 'हे भाइ ! हे वरधनु मित्र ! तुं क्यां गयो ?' आम विलाप करता कुमारने रत्नवतीए केमे ॥७५१॥ करीने छाना राख्या. कुमारे रत्नवतीने कयु के-'हे सुंदरि! वरधनु जीवे छे के मरी गयो ते नथी नणातुं तेथी हुं तेने गोतवा | arh पाछो जश. त्यारे रत्नवती कहे 'आर्यपुत्र ! पाछा वळवानो आ अवसर नथी कारणके हुँ एकली छ तेम चोर तथा सिंहव्याघ्र जेवां हिंसक माणिथी भयानक एबुं आ अरण्य के अहींथी सीमाडो नजीक होय एम जणाय छे केमके आ वधा कुश कंटक छेक करमाइ गयेला देखाय छे.' आq रत्नवतीनुं वचन मान्य करीने रत्नवती सहित कुमारे आगळ चालवा मांडयु. एम करतां मगधदेशने सीमाडे आवेला एक गाममां आव्या. गाममा पेसतांज कुमारने सभामध्यमां बेठेला ग्रामधणीये जोया. देखतांवेतज 'आ कोइ सामान्य पुरुष नथी' एम जणातां विनय वचनथी सत्कारी कुमारने पोताने घरे लइ गयो. अने तेने मुख मले एर्यु रहेवाने स्थान आप्यु. त्यां | सुखे रहेता हता तेवामा एक वखते ए ग्रामाधिपतिए कुमारने कह्यु के-'तमे खिन्न केम देखाओ छो?' त्यारे कुमारे कह्यु-मारो भाइ चोरनी साथे वढवाड करतां न जाणे कइ दशाने पाम्यो तेथी मारे तेने गोतवा पार्छ त्यां जq छे. प्रामाधिपेनोक्तमलं खेदेन, यद्यस्यामटव्यां स भविष्यति तदावश्यमिह प्राप्स्यामः, इति भणित्वा तेन प्रेषिता निजपुरुषा अटव्यां गत्वा समायाताः कथयंति, यदस्माभिः सर्वत्र स पुरुषो गवेषितः, परं कचिन्न दृष्टः, किंतु प्रहारापतितो याण एवैष दृष्टः ततः कुमारो वरधनुर्पत इति चिरकालं शोकं चकार. एकदा रात्रौ तस्मिन् ग्रामे चौरधाटिः For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | पतिता, सा च बाणैः कुमारेण जर्जरीकृता नष्टा. अर्थ हर्षितो ग्रामाधिपतिमश्च. अथ ग्रामाधिपतिमापुच्छय ततश्च-JE उत्सराध्य| लितः कुमारः क्रमेण राजगृहं प्राप्तः, तत्र नगराहाहः परिव्राजकाश्रमे रत्नवती मुक्त्वा स्वयं नगराभ्यंतरे गतः. तत्रै भाषांतर यनसूत्रम् अध्य०१३ कस्मिन प्रदेशे तेन धवलगृहं दृष्टं तदंत:प्रविष्टेन कुमारेण हे कन्ये दृष्टे, ताभ्यां कुमारं दृष्ट्वा प्रकटितानुरागाभ्यां भणितं, ॥७५२॥ | कुमार! युष्मादृशामपि पुरुषाणां रक्तजनमुत्सृज्य भ्रमितुं किं युक्तं? कुमारेणोक्तं स जनः कः? येनैवं यूयं भणथ. ॥७५२ | ताभ्यामक्तं प्रसादं कृत्वासने निविशंतु भवंतः. तत उपविष्ट आसने कुमारः. ताभ्यां कुमारस्य मज्जनलानाशुपचार | कृत्वोक्तं, कुमार ! श्रूयततामस्मवृत्तांत: गामधणीए का के-'जराय खेद न करवा. जो आ जंगलमा हशे तो अवश्य गोती काढY? आम कहाने तेणे पोताना माणसो 56 अटवीमां गोतवा मोकल्यां ते तपास करीने पाछा आवीने बोल्या के-अमे बधे ठेकाणे ते पुरुषनी गोता करी पण क्यांय दोठो नहि पण कोइने मारीने पडेलो आ बाण जडयो छे. कुमार ब्रह्मदत्त तो वरधनु मरी गयो मानीने घणा वखत मूधी शोक करवा लाग्या. बन्यु ए के-एक रात्रे एज गाममां चोरोए धाड पाडी त्यारे आ कुमारे बाणवृष्टिथी सर्व चोरोने खोखरा करी नसाड्या तेथी BEगामनां लोक तथा गामधणी बहु हर्ष पाम्या. बीजे दिवसे गामधणीनी रजा लइ कुमार चाल्या अने क्रमे क्रमे चालतां राजगृह नगर आवी पहोंच्या, त्यां नगरनी बहार एक परिव्राजकना आश्रममा रत्नवतीने मूकी पोते नगरनी अंदर जाय छे त्यां एक प्रदेशमा ते Raमारे धोळु घर जोयु. जेमा प्रवेश करता कुमारे बे कन्याओ दीठी. आ वेय कन्याओए कुमारने निरखी पोतानो तेना प्रतिनो अनु राग-स्नेह प्रकट सूचवीने का के-'हे कुमार! आप जेवा पुरुषोने अनुरक्तजननो परित्याग करी भमवू शुं युक्त छ? कुमारे पूछयु के For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 6 भाषांतर अध्य०१३ 11७५३॥ उत्तराध्या IT'ए जन कोण? के जेने माटे तमे आq बोलो छो? बन्ने कन्यकाो बोली के-अमारा उपर प्रसाद करीने अंदर आची जरा आसने पनसत्रम ए| आप बेसो तो बधुं कहेवाय, ते पछी कुमार अंदर जइने आसने बेठा तदनंतर ए कुमारने स्नानादिक उपचार कर्या बाद ए कुमा | रिकामओए का के-'हे कुमार! सांभळो अमारो वृत्तांत॥७५३॥ REL इहैव भरतक्षेत्रे वैतादयगिरिदक्षिणश्रेणिमंडने शिवमंदरे नगरे ज्वलनशिखो राजा, तस्य विशुच्छिखानान्नी arदेवी, तस्या आवां दे पुत्र्यो, अस्मभ्राता उन्मत्तो नाम वर्तते. अन्यदास्मत्पिताग्निशिखाभिधानेन मित्रेग समं याव गोष्ट्यां प्रविष्टस्तिष्टति, तस्मिन्नवसरेऽष्टापदपर्वताभिमुखं व्रजंतं सुरासुरसमूहं पश्यति. राजापि पुत्रीसहितस्तत्र गंतुं प्रवृत्तः, अष्टापदे प्राप्तो जिनप्रतिमाश्च वंदिताः, कर्पूरागुरुधूपाद्युपचारो महान कृतः. प्रदक्षिणात्रयं गृहीत्वा निर्गच्छता राज्ञाऽशोकपादपस्याध उपविष्टं चारणमुनियुगलं दृष्टं प्रणतं च. तत्रोपविष्टस्य राज्ञः पुरस्ताद गुरुणवं धर्मदेशना कर्तुमारब्धा-असार संसारः, शरीरं भंगुरं, शरदभ्रोपमं जीवितं, तडिद्विलसितानुकारि यौवनं, किंपाकफलोपमा भोगाः, संध्यारागसमं विषयसुखं, कुशाग्रजलबिंदुचंचला लक्ष्मीः, सुलभं दुःखं, दुर्लभं सुखं, अनिवारितप्रसरो मृत्युः, तस्मा देवं स्थिते सति भो भव्याः! मोहप्रसरं छिदंतु, जिनेंद्रधम मनो नयंतु. एवं चारणश्रमणदेशनां श्रुत्वा सुरादयो Jt यथाजगतास्तथा गताः तदा लब्धावसरेणाग्निशिखिना भणितं, यथैतयोः बालिकयोः को भर्ता भविष्यति? चारणश्रमणाभ्यामुक्तमेते द्वे कन्ये भ्रातृवधकारिणो नाn भविष्यतः. तयोरेतद्वचः श्रुत्वा राजा श्याममुखो जातः. आ भरतक्षेत्रमाज वैताख्य पर्वतना दक्षिण प्रदेशना मंडनरुप शिवमंदर नामे नगर छे तेमां ज्वलनशिख नामनो राना छे जेनी For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | विद्युच्छिखा नामे राणी छे तेनी अमे बेय पुत्रीओ छइए, अमारो भाइ उन्म नामनो एक समये अमारा पिता पोताना मित्र अनि उत्तराध्य भाषांतर शिखनी साथे गोष्ठी विनोदमां बेठा हता तेटलामा अष्टापद पर्वत फरता जता सुर तथा असुरना समूहने जोइ राजा पण पुत्री सहित पनसूत्रम् २८ अध्य०१३ त्यां जवा नीकच्या. अष्टापद पहोंचीने जिन प्रतिमाओने बंदना करी कपूर अगुरु धूप इत्यादिक महान उपचार समर्पो त्रण प्रद॥७५४॥ क्षिणा करीने नीकळतां राजाए अशोक वृक्ष नीचे बेटेला ये चारण मुनि दीठा तेने वंदन करी यां बेठा त्यारे राजाने गुरुए आ ॥७५४|| | प्रमाणे धर्मदेशना करवा मांडी 'संसार असार छ; शरीर क्षणभंगुर छे; शरदऋनुना वादळां जेवू जीवित छे. आ यौवन ता वोजबीना चमकारा समान छे, आ सर्व विषयोपभोग किंवाक-सडाना फळ जेवो परिणाम विरस छे विषय जन्य सुख तो संध्याना राग तुल्य क्षणिक छे. लक्ष्मी तो दर्भनी अणि उपर टकेला जळकण जेवी चपळ छे. दुःख सुलभ छे पण सुख तो अत्यंत दुर्लभ छे. oil अने मृत्यु तो कोइथी रोकी के अटकावी शकाय नहि तेयो छे. ज्यारे आम छे तो हे भल्य जीवो ! मोहना फेलावाने छेदो, जिनेंद्र धर्ममा मन राखो; आवां चारण श्रमणनां उपदेश वचनो सांभळी सुर आदिक जेम आव्या हता तेम चालता थया. आ वखते अवकाश मळवाथी अग्निशिखे पूछयु के-'हे महाराज ! आ वे बाळकीओने कोण वर मलशे?' चारण श्रमणे का-आ बेय कन्यानो ए कन्याना भाइनो वध करनारो वर थशे, अर्थात् ए कन्याना भाइने मारनारनी आ बेय कन्याओ भार्या थशे. आ साभळी राजा, मुख श्याम थइ गयु. अस्मिन्नवसरे आवाभ्यामुक्तं, तात ! सांप्रतमेव साधुभ्यामुक्तं संसारस्वरूपं, तत आवयोरल मेवंविधावसानेन | विषयसुखेन आवयोरेतद्वचस्तातेन प्रतिपन्नं. आवाभ्यां च भ्रातृस्नेहेन स्वदेहसुखकारणानि स्यक्तानि. भ्रातुरेव स्ना For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य- नभोजनादिचिंतां कुर्वत्यावावां तिष्टावा. अन्यदास्नभ्रात्रा पृथिवीं भ्रमता दृष्टा, कुमार! भवन्मातुलपुत्री पुष्पवती पनमूत्रम कन्यका. तद्रूपाक्षिप्तचित्तस्तां हत्या आगतः, परं तदृष्टि सोदुमक्षमः, स विद्या साधयितुं गतः. अतःपरं वृत्तांता र भाषातर अध्या ॥७५५ युष्माकं ज्ञानगोचरोऽस्ति. तस्मिन् काले भवदंतिकादागत्य पुष्पवत्या आवयोतवधवृत्तांतः कथितः. ततः शोकभरेग आवां रोदितुं प्रवृत्ते, मधुरवचनैश्च पुष्पवत्या रक्षिते. तदा आवां शंकरीविद्यया एवं वक्तुं प्रवृत्ता, असौ भ्रातृवधकारी 1७५५ ब्रह्मदत्तश्चक्रवर्ती भविष्यति, युवां मुनिवचनं किं न स्मरथः? एतचनमाकार्य आवाभ्यां जातानुरागाभ्यां मानितं, परं पुष्पवत्या बालिकया स्नेहरसंभ्रांतया रक्तपताकां विहाय श्वेतपताका चालिता. तदर्शनानंतरं त्वमन्यत्र कुत्रापि गतः, नानाविधनामाकरनगरादिषु भ्रमंतीभ्यामावाभ्यां त्वं चिन्न दृष्टः ततो विखिन्ने आवामिहागते. सांप्रतमतर्कितहिरण्यसमं तव दर्शनं जातं. ततो हे महाभाग ! पुष्पवतीव्यतिकरं स्मृत्वा कुरु अस्मत्समीहितं. एवं श्रुत्वा कुमारेण || | सहर्ष मानितं. गंधर्व विवाहेन तयोः पाणिग्रहणं कृतं. ___आ वखते अमे येय बेनोए कहा के-हे तात ! हमणांज आ साधुओए संसारनुं स्वरूप तो का, माटे जे विषयसुखनो आगो परिणाम आवे तेवा सुखथी कंद भयोजन नथी. पिताए अमो बन्ने नुं वचन कबूल राख्यु. भ्रातृस्नेहने लीधे अमे बन्ने बेनोए स्वJ6/देह सुखनां कारणो त्यज्यां अने भाइनांज स्नान भोजनादि चिंतामा लागी रह्यां एक समये ए अमारा भाइए पृथिवीमां फरतां फरतां JE JE | हे कुमार! तमारा मामानी पुत्री पुष्पवती कन्या दीठो तेना रूपथी विक्षिप्त चित्त बनी तेनुं हरण करी उपाडी आव्यो, परंतु ते कन्यानी दृष्टिनुं तेज सहन न थइ शकबाथी तेने स्ववश करवा ते विद्या साधवा माटे गयो. हवे पछीनो वृत्तांत तो सपळो आपनी For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Je जाणमांज छे. ते समये आपनी पांसेथी आचीने पुष्पवतीए अमारा भाइना वधनो वृत्तांत अमने कह्यो तेना शोकना आवेगथी अमेJE उत्तराध्य भाषांतर | रोबा मांडयुं त्यारे पुष्पवतीये मधुर वचनो बडे अमने रोता राख्या, पछी शांकरी विद्याना बळथी तेणे अपने कबुके-आ तमारा पनसूत्रम्। अध्य०१३ भाइनो वध करनार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती थशे, तमने पेला चारण मुनिमां वचन याद नथी आवतां? आ वचन सांभळतांज अमारा अंतः॥७५६॥ करणमां प्रेम संचार थवाथी अमे तेनी बात मानी. पण स्नेहरसमा भ्रांत बनेली पुष्पवती बालिकाये राती पताका न लेतां धोळी र ॥७५६|| JE पताका चलावी ते जोतांज तमे क्यांक अन्यस्थाने जता रह्या. नानाविध गामोमां आकरोमां नगरोमां अमे भम्यां पण क्यांप तमने न दीठा तेथी अत्यंत खिन्न बनी अमे अहीं आबी रह्यां. आ टाणे अतर्कित सुवर्ण लाभ समान आपनुं दर्शन थयु; माटे-हे महाभाग्यवान् ! पुष्पवतीना प्रसंगने याद करी अमाउं पण अभीष्ट सिद्ध करो. आवां वचन सांभळी कुमारे हर्षपूर्वक तेओनी प्रार्थना मान्य करी गांधर्व विवाहथी ते बन्नेनुं पाणिग्रहण कयु. एकरात्रो ताभ्यां सममुषित्वा प्रभाते कुमारस्तयोरेवमुवाच, युवां पुष्पवत्या समीपं गच्छतं, तया समं च ताव. JE स्थातव्यं यावन्मम राज्यलाभो भवति. एवं श्रुत्वा ते गते. तावत्कुमारो न तद्भवलगृहं न तं परिजनं च पश्यति, चितितवांश्च एषा विद्याधरीमायेति चितयन रत्नवत्तीगवेषणनिमितं स तापसाश्रमाभिमुखं गतः. न च तत्र तेन रत्न वती दृष्टा, न चान्यः कोऽपि पुरुषो दृष्टः. ततः कं पृच्छामीति विचार्य स इतस्ततः पश्यति, तावदेको भद्राकृतिः पुरु5षस्तत्रायाता, कुमारेण स पृष्टः, भो महाभाग! एवंविधरूपनेपथ्या एका स्त्री मयात्र मुक्ता, कल्येऽद्य वा त्वया सा | दृष्टा! तेन भणितं पुत्र! त्वं किं तस्या रत्नवत्या भर्ता? कुमारो भणति एवं. तेन भणितं कल्ये सा मया रुदंताटा, For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य | अपराहकाले च तस्याः समीपे गतः, पृष्टा च सा मया पुत्रि! कासि त्वं ? कुतः समागता? किं ते शोककारणं? का पनसनम वा त्वया गंतव्यं तया किंचित्कथिते सा मया प्रत्यभिज्ञाता, मम त्वं दोहित्री भवसीत्यदित्वा मया तस्य लघु पितुःभाषांतर समीपे गत्वादिष्टा. तेनाप्युपलक्ष्य सा विशेषादरेण स्वमंदिरे प्रवेशिता. In अध्य०१३ ॥७५७॥ अहीं आ वे विलासिनीओनी साथे एक रात्र रहीने प्रभात कुमार बेय स्त्रीयोने वोल्या के-तमे बेय पुष्पवती पांसे जाओ, तेनी ७५॥ arti साये ज्यां सुधी मने राज्य प्राप्ति थाय त्यां मूधी तमारे बन्नेये रहेवार्नु छे, आ वचन सांभळी ते बन्ने पुष्पवती पांसे गया. तेटली वारमा कुमार जुए छे तो ते धोको महेल के परिजन कशुं न देखाणुं तेथी जाण्यु के आ बधी विद्याधरी माया हती एम विचारी रत्नवतीनी शोधमां तापसाश्रम तरफ चाल्या. त्यां जइ जुए छे तो रत्नवती दीठी नहिं तेम बीजो कोइ पुरुष पण न दीठो, हवे केने पूछ? एम विचारतां आम तेम जुए छे तो एक मुंदर आकृतिवाळो पुरुष त्यां आव्यो तेने कुमारे पूछ्यु के-'हे महाभाग ! आवां आवां रूपवाळी तथा आवां वस्त्र आभूषणवाळी एक स्त्री में अत्रे राखी हती ते काले के आजे तमे दीठी छे? तेणे कड्यु-'पुत्र ! ते | रत्नवतीनो भर्ता तु ? कुमारे कड्डा-'एमज' त्यारे ते पुरुष बोल्यो के-काले में तेणीने रोती दीठी नमते पहोरे हुँ ते पासे गयो अने पूच्यं के-'पुत्रि! तुं कोण छो अने क्याथी आवे छे ? आ शोकन कारण छे? अने तारे क्या जवानुं छे? तेणीए कइंक का | तेटलाथी में तेणीने ओळखी लीधी; 'तुं मारी दौहित्री थाय छे' एम कही में तेणीना बापना न्हाना भाइनी पांसे जइ खबर दीधा ते उपरथी तेणीना ए काकाए पण ओळखी तेणीने घणा आदरथी पोताने घरे लइ जइ राखी. सर्वत्र त्वं गवेषितः परं न क्वचिद् दृष्टः, सांप्रतं सुंदरं जातं यत्वं लब्धः. एवमुक्त्वा नीतः कुमारस्तद्गृहे, उप For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ॥७२८॥ | चारः कृतः, तत्र महोत्सवेन रत्नवतीपाणिग्रहणं कुमारः कृतवान् , तया सह विषयसुखमनुभवंश्च कियत्कालं तस्थौ. उत्तराध्य-BE अन्यदा वरधनुवर्षदिवसोऽयेत्युक्त्वा तद्गृहे कुमारेण ब्राह्मणादयो भोजिताः. अस्मिन्नवसरे वरधनुः कृतब्राह्मगपनसूत्रम् वेषो भोजननिमित्तमागतः, एवं भणितुं प्रवृत्तश्च. भो ज्ञापयंतु तस्य भोज्यकारिणो यथा यदि मम भोज्यं प्रयच्छथ ॥७५८॥ | तदा तस्य परलोकवर्तिन उदरे भोज्यं संक्रामति. गृहपुरुपैस्तद्वचः कुमाराय शिष्टं, कुमारोऽपि गृहादहिनिर्गतः, दृष्टो 35 वरधनुः प्रत्यभिज्ञातच. गाद कुमारेणालिंगितो गृहमध्ये प्रवेशितन, लानमज्जनभोजनादिभि स्कृतश्च. अनंतरं कुमा रेण पृष्टो वरधनुः स्ववृत्तांत जगौ, यथा तस्यां रात्रौ निद्रावशमुपागतेषु युष्मासु सत्सु पृष्टतो धावित्वा चौरे गेंकेन कुडंगांतरिकेन मम पादे याणप्रहारः कृतः, तवेदनापरवशोऽहं निपतितो महीतरे, परमपायभीरुत्वेन मया युष्माकं न निवेदितं, रथस्त्वग्रे चलितः. ___सर्व स्थळे तम ने गोत्या पण क्यांय दीठा नहि, हवे बहु सरु थयुं के तमे मळ्या ? आम कहीने कुमारने ए पुरुष, रत्नवतीना काकाने त्या लइ गयो लां सारी बरदास्त करावी. त्यां महोटा उत्सव साथे रत्नवतीनुं पाणिग्रहण कुमारने कराव्युं अने त्यां कुमार JE विषयसुखोनो अनुभव लेता केटलोक काळ स्थिति करी रद्या. एक दिवस कुमारे 'आज मारा मित्र वरधनुनो जन्मदिन छे' एम कहां पानाने त्या ब्राह्मणो जमाड्या तेमां ब्राह्मण वेप लइ वरधनु पोते जमवा आव्यो-आवीने एम बोल्या के-आ भाजन करावनारने Ka जइने कहो के-जो मने भोजन करावे तो ते परलोकवर्तीना उदरमा ए सघळू भोज्य पहोंचशे. घरना माणसोए आवीने कुमारने आ वात करी तेथी कुमार पोते बहार आवी जुए छे तो वरधतुने दीठो अने ओळख्यो पण; कुमारे तेने आलिंगन करी घरमा लइ For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य | आव्या, स्नान भोजनादि सत्कार कर्या पछी कुमारे तेनो वृत्तांत पूछतां वरधनु बोल्या के-आप ते रात्रीए निद्रावश थया त्यारे | पनसनम | पाछळथी दोडता आवीने एक चोरे झाडना झुडनी आडमां रहीने मारा पगमा बाणनो प्रहार कर्यो, तेनी वेदनाथी पराधीन जेवो भाषांतर स मान अध्य०१३ JE बनेलो हुँ पृथ्वीतल उपर पडी गयो, परंतु तमने फिकर थाय एनी व्हीकथी तमने जाहेर न कयु अने रथ तो आगळ चालतो थयो.BE ॥७५९॥ ____अहं तु शनैः शनैः पतितवृक्षांतराले चलन् महता कष्टेन तस्मिन् ग्रामे प्राप्तो यत्र यूयं स्थिताः, तेन ग्रामाधिप- ७५९॥ REतिना सत्कृतः. युष्माकं प्रवृत्ति श्रुत्वाहमद्य प्रगुणीभूतो भोजनप्रस्तावे समागतः. यूयमद्य मद्भाग्याम्मिलिताः. अथ तयोस्तत्राऽवियुक्तयोः सहर्ष दिवसा यांति. अन्यदा ताभ्यां परस्परमेवं विचारितं, यथावाभ्यां कियत्कालं मुक्तपुरुषाकाराभ्यां स्थातव्यं? एवं च चितयतोस्तयोर्गतः कियान कालः, अन्यदा तत्र समायातो मधुमासः, मदनमहोत्सवे जायमाने सर्वलोको नगराहिः क्रीडितुमायातः, वरधनुकुमारावपि कौतुकेन नगराबहिर्गतो. ते पछी हुं धीमे धीमे पडेला वृक्षना वचगाळामां अति कष्टथी चालतो. जे गाममा तमे रह्या हता ते गामे पहोंच्यो, ए गामना धणीए मारी बरदास्त करी तेना पांसेथी तमारा समाचार सांभळी आज हुँ बमणा उत्साहथी भोजन प्रसंगे आव्यो मारा सद्भाग्यने लीधे आजे तमे सर्व मने मळ्या, अहीं बेयना वियोगनो अंत आवतां बन्नेना दिवसो अत्यंत हर्षमां व्यतीत थता हता. एक समये बेय मित्रो परस्पर विचार दर्शावता इता तेमां कुमारे का 'आपणे आमने आम केटलाक काळ पर्यंत पुरुषार्थ रहित पड्या रहे ?' JU आम चिंता करता करतां पण तेओनो केटलोक समय व्यतीत थयो. तेटलामां मधुमास आव्यो, मदनमहोत्सव चालु थतां सर्वे लोको गामथी बहार रम्मत गम्मत करवा नीकळ्या. वरधनु तथा कुमार पण कौतुकथी जोवा नगर बहार नीकळ्या. For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यघनसूत्रम् ॥७६० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . निर्भरक्रीडार सनिमग्ने लोकेऽतर्कित एव पातितमिठो निरंकुशो राज्ञो हस्ती तत्रायातः समुच्छलितकोलाहलो भाकीडारसो नष्टः समेतान्नारीनिकरः, एकाच बालिका समुन्नतपयोधरा नइयंती तस्य हस्तिनो दृष्टौ पतिता, सा शरणं मार्गयंती इतस्ततः पश्यति, तस्याः परिजनाः पूत्कुर्वन्ति भयभ्रांतायास्तस्याः पुरो भूत्वा कुमारेण स करी | हक्तिः, एपाच मोचिता. सोऽपि करी तां मुक्त्वा रोषवशविस्तारितलोचनः प्रसारितशुण्डादण्डः शीघ्रं कुमाराभिमुखं धावितः कुमारेणाप्युत्तरीयवस्त्रं गजाभिमुखं प्रक्षिप्तं गजेन तद्वस्त्रं शुण्डया गृहीत्वा गगने प्रक्षिप्तं, गगनाच पुनर्भूमौ निपतितं तद्ग्रहणाय यावत्करी पुनर्भूम्यभिमुखं परिणमति, तावदुत्प्लुत्य कुमारस्तत्स्कंध मारूढः, स्वकरतलाभ्यां तत्कुंभस्थलमास्फालितवान् मधुरवचनैश्च संतोषितः सन् करी स्ववशं नीतः समुच्छलितः साधुकारः, जयति कुमार इति पठितं बंदिजनैः कुमारेण स करो आलानस्तंभसमीपं नीतो बद्रश्च. लोको क्रीडासमा निमग्न छे तेवामां अकस्मात मावतने पछाडी अंकुश विनानो राजानो हाथी घसी आग्यो. लोकामा कोलाहळ उछयो, रम्मतमां भंगाण पडयुं स्त्रीओनां टोळां चारेकोर भागनाश करवा लाग्यां. एक बाळा प्राप्त यौवना भागती हवी तेना पर हाथीनी नजर पडतां हाथी तेना भणी दोडयो. ते विचारी गमराटमां आम तेम जोतां शरण न जडवाथी भयभ्रांत थइ गइ अने तेनां संबंधीओ पोकार करे छे तेटलामां कुमारे आगळ थड़ने हाथीने हांक्यो अने ए बाळाने मुकावी एटले हाथी सुंढ लंबावतो, आंखो फाड़ी रोपे भराइने, बाळाने छोडीने कुमार उपर घयो, आ वखते कुमारे पोतानुं ओढवानुं वस्त्र हाथी सामे फेक्युं, हाथीए ते वस्त्र ढवती उपाडीने आकाशमां उछाळ ते वस्त्र पाहुं पृथ्वीपर पडयुं तेने उठाववा हाथी फरी भूमि तरफ जरा नीचो नमतो For Private and Personal Use Only 无毛美菲 भाषांतर अध्य०१३ ॥७६०॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डी ठेकीने माने तेणे संतोप्या अने कुमारे भाषांतर अध्य०१३ ॥७६१॥ उत्तराध्य- तो त्यां तेनी मूह पकडी ठेकीने कुमार हाथीनी कांध उपर चडी बेठो. पोताना बेय हायवती ते हाथीना कुंभस्थळ उपर थावडीने पनसनम तथा धीमा धीमा अनुकूळ अवाज करीने तेणे संतोष्यो तेथी ते हाथी ते कुमारने वश बनी गयो. जन समुदायमा कुमारनी वाह वाह कहेवाइ गइ बंदीजनो कुमारनो जय पोकारवा लाग्या अने कुमारे ते हाथीने तेनी अगडमां लइ जइ आलान-बांधवाना स्तंभ ॥७६२॥ माथे बांधी दीयो. ___नरपतिस्तमनन्यसदृशं दृष्ट्वा परमं विस्मयं प्राप्तः स्वमंत्रिणं पप्रच्छ, क एष? ततः कुमारस्वरूपाभिज्ञेन मंत्रिSणोक्तं, एष ब्रह्मराज्ञः पुत्रो ब्रह्मदत्तकुमार इति. ततस्तुष्टेन राज्ञा नीतः कुमारः स्वभुवनं, सत्कृतश्च स्नानमन्जनभोज नादिभिः, ततः कुमारदत्तकुमार इति. ततस्तुष्टेन राज्ञा नीतः कुमारः स्वभुवनं, सत्कृतश्च स्नानमन्जनभोजनादिभिः, J0 ततः कुमारस्याष्टौ स्वपुत्र्यो दलाः, महोत्सवपूर्वकं तासां पाणिग्रहणं कुमारेण कृतं. तत्र कियदिनानि वरधनुकुमारी सुखेन स्थिती, अन्यदां एका स्त्री कुमारसमीपमागत्य भणितुं प्रवृत्ता, यथा कुमार! अस्ति किंचिद्वक्तव्यं तव, कुमाollरेणोक्तं वद? सोवाच अस्यामेव नगर्या वैश्रमणो नाम सार्थवाहः, तस्य पुत्री श्रीमत्यस्ति, सा मया बालभावादारभ्य पालिता, या त्वया तदानीं हस्तिसंभ्रमाद्रक्षिता. हस्तिसंभ्रमोद्धरिता सा तदानीं जीवितदायकं त्वां स्नेहेन विलोकयंती त्वदेकचित्ता त्वद्रूपलावण्यकलाकौशलमोहिता त्वामेव स्मरंती परिजनेन कथमपि स्वमंदिरं नीता, तत्रापि सा न मजJEI नभोजनादिदेहस्थिति करोति. तदानीं मया तस्या उक्तं, कथं त्वमकांडे ईदृशी जाता यावन्ममापि प्रतिवचनं न ददासि? हसित्वा सा एवमुवाच, हे अंब! भवत्याः किमकथनीय ? परं लज्जया किंचिद्वक्तुं न शक्रोमि, पुनर्मया सा ग्रह पृष्टा For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उस राध्यपनसूत्रम् ॥७६२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोवाच, येनाहं हस्तिसंभ्रमाद्रक्षिता, तेन समं यदि मम पाणिग्रहणं न स्यात्तदा मेऽवश्यं मरणं, एवमुक्त्वा तया तव समीपे प्रेषिता, अंगीकुरु तां बालिकां ? कुमारेण तद्वचोंगीकृतं प्रशस्तदिवसे तस्याः पाणिग्रहणं कुमारेण कृतं. वरधनुना तु सुबुद्धिनामामात्यपुत्र्या नंदननाम्न्याः पाणिग्रहणं कृतं. एवं च द्वयोरपि विषयसुखमनुभवतोस्तयोर्गताः कियंतो वासराः, तयोः सर्वत्र प्रसिद्धिर्जाता. राजा पण तेनी असाधारणता अवलोकी परम विस्मय पाम्यो, अने पोताना मंत्रीने पूछयुं के 'आ कोण छे?' मंत्री कुमारना स्वरूपनी जाणकार हतो तेणे कछु के- 'आ ब्राह्मराजाना ब्रह्मदत्त कुमार छे' आ वचन सांभळी तुष्ट थयेला राजाए कुमारने पोताने भवने लड़ जड़ स्नानमज्जन भोजन वगेरेथी सारो सत्कार कर्यो अने पोतानी आठ पुत्रीओ कुपरने आपी महोटा उत्सव पूर्वक कुमार साथे तेओना विवाह कर्या, त्यां केटलाक दिवस वरधनु तथा कुमार मुखथी रह्या. एक समये कोइ स्त्री कुमार पांसे आवीने बोली के - 'हे कुमार ! मारे आपने कंद कहेवानुं छे.' कुमारे क - 'जे कहेवानुं होय ते कहो' त्यारे ते स्त्री बोली के- 'आज नगरीमां वैश्रमण नामनो एक सार्थवाह रहे छे, तेनी पुत्री श्रीमती नामे छे तेने में बाळपणाथीज पाळी महोटी करी छे जेने तमे ते दाणे झपाटामाथी बचावी. ज्यारथी तमे तेणीनो हाथीना संभ्रममांथी उद्धार कर्यो. त्यारथी जीवितदान आपनार तमने मानी तमने Feet नीळती तमारामां एकाग्रचित्तवाळी ए कन्या तमारा रूप, लावण्य, तथा कला कौशलथी मोह पामीने तमारुज ध्यान करती परिजने घरे पहोंचाडी त्यां पण ते नहावुं भोजन करवुं, इत्यादि शरीर स्थिति पण करती नथी. में तेणीने कधुं के आम एकदम तुं आवी केम थइ गइ जे मने पण जवाब नथी देती.' त्यारे हसीने ते बोली- 'हे मा! तमने न कहेवानुं भुं होय ? पण लाजने लीवे For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ 1198211 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit भाषांतर ॥७६३॥ उत्तराध्य-11 कइ पण बोली शकती नथी.' फरी पण में आग्रहथी पच्यु त्यारे तेणे का के-'जेणे मने हाथीना झपाटामांथी बचावी तेनी साथे पर पनसूत्रमा जो मारुं पाणिग्रहण न थाय तो अवश्य मारु मरण थशे? आम कहीने तेणीये मने आपनी पांसे मोकली छे माटे ते बालानो अंगी- ॥७६३॥ कार करो.' कुमारे तेनं वचन स्वीकार्य. सारो दिवस जोड कुमार ते बालाने परण्या. वरधनए पण सुवृद्धि नामना मंत्रीनी नंदना | PE नामनी पुत्री- पाणिग्रहण कयु. एम वेय मित्रो विषयसुख अनुभवतां केटलाक दिवसो बीत्या तेवामां ते बन्नेनी लोकमां प्रसिद्धि पण थइ. | तावन्यदा गतो वाराणस्यां, ब्रह्मदत्तं पहिः स्थापयित्वा वरधनुर्नगरस्वामिकटकसमीपं गतः, एष हर्षितः सबलवाहनः संमुखो निर्गतः, कुमारं च हस्तिस्कंधे समारोप्य नगरीप्रवेशोत्सवो महान् कृतः. स्वभवने नीतस्य कुमारस्य स्नानमज्जनभोजनादिसामग्री कृत्वा, प्रकामं सत्कारं कृत्वा च स्वपुत्री कनकवती अनेकहयगजरथद्रव्यकोशसहिता दत्ता, प्रशस्तविवाहो जातः, तया समं विषयसुग्वमनुभवतस्तस्य सुखेन कालो याति. ततो दुतसंप्रेषणेनाकारिताः सबलवा हनाः पुष्पचूलराजधनुमंत्रिकणेरदत्तभवदत्तादयोऽनेके राजमंत्रिणः समायाताः.तैः सर्वैः कुमारो राज्येऽभिषिक्तः. arl वरधनुन्तु सेनापतिः कुतः. एक समये वरधनु तथा कुमार ब्रह्मदत्त बेय वाराणसी गया त्या ब्रह्मदत्तने बहार बेसाडीने वरधनु नगराधिपति कटक राजानी पांसे गया, तेने जोइ हर्ष पामेला राजाए ब्रह्मदत्त आव्याना समाचार सांभळी पोताना सैन्य तथा वाहनो सहित सामा आवी कुमाJE| रने हाथी उपर बेसाडी नगर प्रवेश कराव्यो पोताना महेलमा लइ जइ कुमारने माटे स्नान भोजनादि तैयारी करावी अत्यंत सत्कार all कर्यो, अने पोतानी पुत्री कनकवती, अनेक हाथी घोडा रथ तथा द्रव्यभंडार सहित कुमारने आपी महोटी धामधूमथी विवाह कर्यो, For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ॥७६४॥ अहीं आ राजकुमारी साये वैभव सुख माणतां आनंदमा केटलोक काळ वीत्यो. त्यार पछी दुतो मोकली पुष्पचूळ राजा, धनुमंत्री, राध्या कणेरदत्त तथा भवदत्त वगेरेने तेमना सैन्य तथा वाहन सहित बोलाव्या तेथी अनेक राजमंत्रीओ आव्या ते सर्वेए मळी कुमारने पनसूम Jaye| राज्याभिषेक कर्यो अने वरधनु सेनापति थया. ॥७६४॥ ब्रह्मदत्तः सर्वसैन्यसहितो दीर्घनृपोपरि चलितः, अविच्छिन्नप्रयाणैश्च कांपिल्यपुरे माप्तः. दीर्घनृपेणापि कटका दीनां दुतः प्रेषितः, परंतस्तु नित्सितः स दृतः स्वस्वामिसमीपे गतः; ब्रह्मदत्तसैन्येन कोपिल्यपुरं समंतादेष्टितं ततो दीर्घनृपेणैवं चिंतितं. कियत्कालमस्माभिर्थिलप्रविष्टैरिव स्थेयं? साहसमवलंब्य नगरात्स्वसैन्यपरिवृतो दीर्घनृपो निर्गत्य #समुखमायातः. ब्रह्मदत्तदीर्घपसैन्ययोोरः संग्रामः प्रवृत्तः. क्रमाद् ब्रह्मदत्तसैन्येन दीर्घपसैन्यं भान. अथ दीनृपः स्वयमुत्थितः, ब्रह्मदत्तोऽपि तमायातं वीक्ष्य प्रदीप्तकोपालनस्तदभिमुख चलितः, तयोईयोयुद्धं लग्नं. अनेकैरायुधैनि क्षिप्तन तयोः संग्रामरसः संपूर्णो बभूव. ब्रह्मदत्तेन ततश्चक्रे मुक्तं. चक्रेण दीर्घवृपमस्तकं छिन्नं. ततो जयत्येष चक्रवJोत्युच्छलितः कलकलः, सिद्धागंधर्वदेवेमुक्ता पुष्पवृष्टिः, उक्तं च उत्पन्नोऽयं द्वादशश्च क्री.. तदनंतर सर्व सैन्य सहित ब्राह्मदत्ते दीर्घराजा उपर चडाइ करी, सतत प्रयाण करता कांपिल्यपुर पहोंच्या. दीर्घनृपे पण कटक | राजा वगेरेने दूत मोकली केण कहेवराव्यु पण तेश्रोए दुतने तरछोडी काठ्यो ते पाछो पोताना स्वामी पांसे गयो, ब्रह्मदत्तना सैन्ये कांपिल्यपुरने फरतो घेरो घाल्यो त्यारे दीर्घनृपे विचार्यु के-आपणे आम दरमां भराइ रह्या जेवा क्यां मृधी रहेबाशे ? माटे हवे तो बहार पड; आम निश्चय करी साहस स्वीकारी पाताना तमाम सैन्य साथे लइ नगरमांथी नीकळी दीर्घनृप संमुख आव्यो अने For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-IAL साम सामा वेय सैन्यनो घोर संग्राम चाल्यो, आ मामलामां ब्रह्मदत्तना योद्धाओए दीर्घराजाना सैन्यने नष्ट कर्यु त्यारे दीर्घनृप पोते | यनसत्रम उठ्यो; ब्रह्मदत्ते जेवो तेने सामो आवतो जोयो के तेनो कोपाग्नि प्रज्वलित थयो तेथी ते कुमार तेनी सामे धस्या, आ बेयर्नु युद्ध भाषांतर CINE अध्य०१३ मंडाणुं. घणां आयुधोनो उपयोग थतां पण संग्रामरस पूरो न थयो त्यारे ब्रह्मदो चक्र मूकी ते चक्रवती दीर्घराजानुं मस्तक छेदी BE ॥७६५॥ नाख्यु, तेज क्षणे सैन्यमां 'चक्रवर्ती जीत्या' एवो कोलाहल थयो. सिद्धदेव गंधर्व आदिके आकाशमाथी 'बारमो चक्रवर्ती उत्पन्न ॥७६५॥ थियो' आम बोली पुष्पनी दृष्टि करी, ततो जनपदलोकैः स्तूयमानो नारीश्रृंदकृतनंगल: कुमारः स्वमंदिरे प्रविष्टः, कृतश्च सकलसामंतैब्रह्मदत्तस्य चक्रवर्त्यभिषेकः. चक्रवर्तित्व पालघन ब्रह्मदत्तः सुखेन कालं निर्गमयति. अन्यदा चक्रवर्तिनः पुरो नटेन नाटयं कर्तुमारब्धं, स्वदास्या अपूर्व कुसुमदामगंडं हरते हौकितं. तच प्रेक्षतो गीतविनोदं शृण्वतश्चक्रवर्तिन एवं विमर्शो जाता. एवंविधो नाव्यविधिया कचिद् दृष्टः, कचिच्चैतादृशं पुष्पदामगंडमपि घातं. एवं चिंतयतस्तस्य जातिस्मरणमुत्पन्नं. ril दृष्टाः पूर्वभवाः, तत्र सौधर्म पद्मगुल्मविमानेऽनुभूतं नाट्यदर्शनदिव्यपुष्पाघ्राणादिकं तस्य स्मृतिपथमाययो. देवसुख स्मरणेन मूछौं गतः पतितो भूमौचक्री, पार्श्ववर्तिभिर्वातोत्क्षेपादिना स्वस्थीकृतः. यतश्चक्रवर्तिना पूर्वभवभ्रातृशुध्ध्यर्थ Jश्लोकार्थमिदं रचितं, यथाJ ते पछी नगरना लोकोए स्तुति करी तथा नारीओनां टोळां मळीने मंगळ गीत गातां ब्रह्मदशकुमारे पोताना महेलमा प्रवेश 6कर्यो. सकल सामंतोए भेळा थइ ब्रह्मदराने चक्रवर्ती तरीके अभिषेक कर्यो; आम चक्रवर्ती तरीके राज्यपालन करतां ब्रह्मदराने For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ॥७६६॥ Jघणोक काळ वीत्यो, एक समये चक्रवर्ती आगळ नटीए नाद्य प्रयोगनो आरंभ कर्यो, तेटलामा तेमनी दासीए एक अपूर्व उत्तराध्य पुष्पनो गुच्छो लावीने चक्रवर्तीना हाथमां आप्यो, आ पुष्पगुच्छ सुंघता तथा नाधमांना गीतविनोद सांभळतां राजाना मनमां एवो पनसूत्रम् विचार आव्यो के-'में आवाज प्रकारनो नाट्यप्रयोग क्यांक जोयेलो छे अने ते साथे आवाज पुष्पोनो गुच्छ पण क्यांक मृधेलो छे.' ॥७६६॥ आम विचार करतां राजाने जातिस्मरण थइ आव्यु तेथी पूर्वभवोर्नु स्मरण थयु, सौधर्म पद्मगुल्म विमानमा पूर्व अनुभवेलुं नाद्य दर्शन तथा दिव्य पुष्प मुघलां ते वधुं याद आव्यु; देव सुखना स्मरणथो क्षगवार मूर्छा आधी, तेथी चक्री भूमि पर पडी गया; पांसे | बेठेला परिजने पवन नाखवा बगेरे उपचारथी स्वस्थ थया, त्यारे चक्रवर्तिए पूर्वभवना भाइनी शुद्धि अर्थे आस्व दासा मृगा हंसो । मातंगावमरौ तथा ॥ इदं श्लोकाधे कृत्वा चक्रिणा वरधनुसेनापतेरुक्तं, इदं श्लोकाध सर्वत्र निर्घोषय? एतत्पश्चिमाधं यः पूरयति तस्य राजा राज्या ददाति. इदं श्लोकाध सर्वलोकैः शिक्षितं, ते यत्र तत्र निर्घोषयंति. अत्रावसरे स पूर्वभवसंबंधी भ्राता चित्रजीवः पुरिमतालनगरे इभ्यपुत्रो भूत्वा संजातजातिस्मरणो गृही. ततस्तत्र नगरे मनोरमाभिधाने आरामे समवस्तः. तत्र प्रासुके भूभागे पात्रोपकरणानि निक्षिप्य धर्मध्यानोपगतः कायोत्सर्गेण स्थितः, अत्रांतरे आरघटिकेन पञ्यमानं तत् श्लोकार्ध मुनिना श्रुतं. ज्ञानोपयोगेन स्वभ्रातृस्वरूपं सर्वमनगम्य मुनिनोत्तरचरणद्वयं पूरितं-एषा नौ षष्टिका जाति-रन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः ॥ १॥ ततोऽसावारघट्टिकस्तत् श्लोकाध लिखित्वा प्रफुल्लास्यपंकजो गतो राजकुलं, पठिनश्चक्रिणः पुरः संपूर्णः श्लोकः. 'आपणे दास, मृग, हंस, मातंग तथा अमर देव पण थया.'आ अर्थो श्लोक रचीने वरधनु सेनापतिने कडा के-आ अर्धा For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्लोकने उत्तरार्ध बनावी पूरो करे तेने राजा पोतानुं अर्थ राज्य आपशे' आधी सर्वत्र घोषणा करावो. जाहेर पडो वाजता ए अध उत्तराध्य-IBE पनसूत्रम् इस श्लोक तो सर्व लोक शीखी गया अने तेओए ज्यां त्यां एनी प्रसिद्धि करवा मांडी. आ अवसरे ते पूर्वभव संबंधी भाइ चित्रनो जाँच, TRAIL भाषांतर Be पुरिमताल नगरमा कोइ एक धनाढय शेठना पुत्र अवतरी जातिस्मरण थवाथी व्रत ग्रहण करीने एज नगरमा मनोरम नासना बगी INE अध्य०१३ ॥७६७॥ चामां समवसन संनिविष्ट थया हता, त्यांकणे पामुक भूमिप्रदेशमा पात्र उपकरणादि राखीने धर्मध्यानमा प्रवण धइ कायोत्सर्गथी ||७६७॥ or स्थित हता. एटलामा कुवामाथी घटमाळ काढनारा एक पुरुपना मुखथी ते अर्ध श्लोक मुनिए सांभळ्यो. ज्ञानना उपयोगवडे पोताना | भाइ स्वरूप वधू जाणीने मुनिए पाछळनांबे चरणो पूरां करवा का के-'एक बीजाथी विखटा पड्या ने आपणो आ छट्ठो भव छ' It आ सांभळी पेला घटमाळ खेंचनाराए अ! श्लोक गोखी लखी लीयो अने प्रसन्न थतो हसते मुखे राजकुळमां जइ चक्रवर्ती आगळ आखो शोक बोल्यो ___ततः पूर्वभवभ्रातृस्नेहातिरेकेण चक्री मूछी गत., क्षुभिता सभा, रोपवशंगतेन सेवकवर्गेग आरघटिकश्चपेटाभि6 हेतुमारब्धः, हन्यमानेन तेनोचे, इदं पदवयं मया न पूरितं किंतु वनस्थितेन मुनिनेति विलपन्नमो मोचितः. गतमू छैन चक्रिणा पूर्वभवभ्रातृमुनि समागतं श्रुत्वा तद्भक्तिस्नेहाकृष्टचित्तो ब्रह्मदत्तचक्रो सपरिकरो निर्ययो. उद्याने तं मुनि JE ददर्श, बंदित्वा चाग्रे उपविष्टः, मुनिना प्रारब्धा धर्मदेशना, दर्शिता भवनिर्गुणता, वर्णिताः कर्मबंधहेतवः, श्लाधितो | मोक्षमार्गः, ख्यापितः शिवसौख्यातिशयः, इमां देशनां श्रुत्वा पर्षत्संविग्ना जाता. ते सांभळी पूर्वभवना भाइनो अति स्नेह स्मरण थतां राजा मूर्छा पाम्या सभा वधी क्षोभ पामी गइ, सेवको बधा गुस्से थइ ते For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir 13 घटमाळ कर्षकने थपाट मारवा मांड्या त्यारे मार खातो ते आरपट्टिक-वोल्यो के-आ वे पद कंइ में नथी पूर्वी किंतु वनस्थित ne भाषांतर उत्तराध्य एक मुनिए उच्चार्या ते हु बोल्यो .' 'आ माणस कंइ पलाप करे छे' एम मानी तेने काढी मूक्यो. राजाने ज्यारे मूर्छा उतरी त्यारे पनसूत्रम् अध्य०१३ पूर्वभवनो भाइ मुनि थइ अत्रे आव्यो छे एम सांभळी तेनी भक्ति तथा स्नेहथी जेनुं चित्र आकर्षायेल छे एवा चक्रवर्ती पोताना ॥७६८॥ | परिकर सहित नगर बहार नीकल्या. उद्यानमा आवी ते मुनिने जोइ वंदन करी आगळ बेठा. मुनिए धर्मदेशना शिरु करी-संसारनी ॥७६८॥ निर्गुणता दर्शावी, कर्मोनुं बंध हेतुत्व वर्णव्यु. मोक्षमार्गनी प्रशंसा करी तथा शिव सौख्य-मुक्तिसुखनो अतिशय कह्यो. आ देशना | | सांभळी सभा छक थइ गइ... ब्रह्मदत्तस्त्वभावित एवमाह, भगवन् ! यथा स्वसंगसुखेन वयमाहादितास्तथा राज्यस्वीकारेण सांप्रतमस्मानाहादयंतु. पश्चादावां तपः स्वयमेव करिष्यावः, एतदेव वा तपसः फलं. मुनिराह युक्तमेवेदं वचो भवतामुपकारोद्यतानां. परिमयं मानुष्यता दुर्लभा, सततं पतनशीलमायुः, श्रीश्च चंचला, अनवस्थिता धर्मबुद्धिः, विषया विपाककटवः, विषJE यासक्तानां च ध्रुवो नरकपातः, दुर्लभं पुनर्मोक्षबीजं विरतिरत्नं, तयागान्नरकपातहेतुः कतिपयदिनभावि राज्याश्रPEवणं न विदुषां चित्तमाहलादयति. ततः परित्यज्य कदाशयं प्राग्भवानुभूतदुःखानि स्मर? पिय जिनवचनामृतरस? संचर तदुक्तमार्गेण? सफलीकुरु मनुष्यजन्मेति. । ब्रह्मदत्तने कंइ असर न थइ, ते बोल्या के-'हे भगवन् ! जे आपे आपना समागम सुखे करी अमने आढादित कयों तेम ३ राज्य स्वीकारीने हमणा अमने हर्षित करो, पश्चात् आपणे बेय स्वयं तप करीशू, आ राज्य पण तपनुंज फळ छे.' मुनि वोल्या For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य. 'आपर्नु आ वचन तो युक्त छे कारण के आप तो मारा पति उपकार भावनायी कहो छो, परंतु आ मनुष्यता अति दुर्लभ छे, IK पनसनम आयुष्य ते हमेशां पडतुज जाय छे लक्ष्मी चंचळ छे धर्म बुद्धि पण अनवस्थित हमेशां एक सरखी न रहे तेवी-छे. विषयो परिणामे | अति कडवा हे, वळी विषयासक्त जनोने नरकपात निश्चितज छे अने मोक्षनुं परमवीनभूत विरतिरुपी रत्न अनि दुर्लभ छे, एनो JE अध्य०१३ ॥७६९॥ त्याग तो नरकपातनो हेतु छे माटे भाइ! गण्या तण्या दिवसोना राज्यनु आश्रयण करवु ए विद्वान् तत्त्वदर्शीना चित्तने आडाद | ॥७६९॥ arliनहीं आपी शके तेथी कुत्सित अभिप्रायनो परित्याग करी पूर्वभवे अनुभवेला दुःखोने याद करो, जिनवचनरूपी अमृत रसनुं पान | करो, अने तेणे दर्शावेला मार्गे चाली मनुष्य जन्मने सफळ करो.' . । स प्राह भगवन्नुपनतत्यागेनाऽदृष्टसुखवांछाऽज्ञानतालक्षणं, तन्मेवमादिश? कुरु मत्समीहित? मुनिराह संसार| सुख भुक्तं परभवे महते दुःखाय भावीति तत्यागः कार्यते. एवं मुनिना वारंवारमुक्तोऽपि यदा चक्रवर्ती न प्रतिधु| ध्यते, तदा मुनिना चिंतितं, आः ज्ञातं, पूर्वभवे सनत्कुमारचक्रिस्त्रीरत्नकेशसंस्पर्शनजाताभिलाषातिरेकेण संभूतभवेallsमुना मया निवार्यमाणेनापि चक्रवर्तिपदवीप्राप्तिनिदानं कृतं, तस्येदृशं फलं. अतः कारणादसौ दुष्टाध्यवसायो जिन वचनानामसाध्य इत्युपेक्षितः, मुनिस्ततो विजहार, क्रमेण च मोक्षं गतः. चक्रिणोऽपि प्रकामं सुखमनुभवतः कियान कालोऽनीतः. आ वचनो श्रवण करी चक्री बोल्या के-'हे भगवन् ! माप्त थयेला सुखनो परित्याग करी अदृष्ट सुखनी वांछा करवी एतो अज्ञान लक्षण कहेवाय माटे एवो उपदेश मा करो अने मारी मरजी प्रमाणे करो तो ठीक.' मुनि कहे-'भोगवेलु संसारमुख परभवे For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir ॥७७०॥ ३ महोटुं दुःखदायी नीवडे; एटला माटे हुँ तो तेवा मुखनो त्याग करवा मागु छ.' आवी रीते मुनिये वारंवार कह्या छतां पण ज्यारे ३८ उत्तराध्य BE चक्रवर्ती प्रतिबुद्ध न थया त्यारे मुनिये धार्यु के-हवे में जाण्यु पूर्वभवमा सनत्कुमार चक्रवर्तीनी सुन्दररत्नभूत राणीना केश स्पर्श Je यनसूत्रम् JE अध्य०१३ थवाथी अंतःकरणमा उद्भवेला उत्कट अभिलाषने लीधे आपणे संभृत भवमां में वार्या छतां चक्रवत्तिनी पदवीन निदान [नियाj] ॥७७०11]EE कयु तेनुंज आ फळ थयुं छे ए कारणथीज आनो दृढ दुष्ट अध्यवसाय छे के जे जिनवचनोथी असाध्य छे.' आम मनमा विचारी राजानी उपेक्षा करी मुनिए बिहार कर्यो, अने क्रमे करी मोक्षे गया. चक्रीनो पण राज्य सुखो अनुभवतां केटलोक काळ व्यतीत थयो.स ___अन्यदैकेन पूर्वपरिचितेन द्विजातिनोक्तोऽसौ, भो राजाधिराज! ममेदृशी वांछा समुत्पन्नास्ति यच्चक्रिभोजनं JE जे. चक्रिणोक्तं भो द्विज! मामकं भोजकं भोक्तुं त्वमक्षमः, यतो मां विहाय मोजनमन्यस्य न परिणमिति. ततो ब्राह्मणेनोक्तं धिगस्तु ते राज्यलक्ष्मीमाहात्म्यं, यदनमात्रदानेऽप्यालोचयसि. नतश्चक्रिणा तस्य भोजनमंगीकृतं. स्वगृहे निमंध्य भोजनदानेन भोजितवासी भार्या पुत्रस्नुषादुहितपौत्रादिकुटुंबान्वितः. भोजनं कृत्वा स स्वगृहे गतः. रामावत्यंतजातोन्मादप्रसरोऽनपेक्षितमातृस्नुषाभगिनीव्यतिकरो महामदनवेदनानष्टचित्तः प्रवृत्तोऽकार्यमाचरितुं द्विजः. JEद्वितीये दिने मदनोन्मादोपशांतः परिजनस्य निजमास्यं दर्शितुमपारयन् निर्गतो नगरात्स द्विज एवं चिंतयामास. अनि मित्तवैरिणा चक्रिणाहं विडंचित'. अमर्ष वहता तेन द्विजेन वने भ्रमता एकोऽजापालको दृष्टः, स कर्करिकाभिरश्वत्थपत्राणि काणीकुर्वन् लक्ष्यवेधी वर्तते. द्विजेन चितितं मद्विवक्षितकार्यकरोऽयमिति कृत्वोपरितस्तेन दानसन्मानादिभिः, कथितस्तेन स्वाभिप्रायोऽस्य रहसि. तेनापि प्रतिपन्नः, अन्यदा गृहानिर्गच्छतो ब्रह्मदत्तस्य कुड्यंतरिततनुनानेन अमोघ For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेधिना निक्षिप्तगोलिकया समकालमुत्पाटिने लोचने. उत्तराध्य IBE भाषांतर पनसूत्रम् एक वखत पूर्वना परिचयवाळा द्विजे आवी का के-'हे राजाधिराज ! मने चक्रिनुं भोजन खावानी इच्छा थइ छे,' चक्रिए ID अध्य०१३ का मा भोजन खावा तुं समर्थ नथी कारण के ए भोजन मारा विना बीजाने पचेज नहिं द्विजे का-तारी राज्यलक्ष्मीने धिक्कार छे ॥७७१॥ BF के मात्र अन्न देवामां पण आवो विचार करे .' आ सांभळी चक्रीए तेनी भार्या, पुत्रवधु, पुत्री, पुत्र, पौत्र वगेरे तमाम कुटुंब सहित ॥७७१॥ भोजन कराव्यु, जमीने ते घरे जइ रात्रीगां अत्यंत उन्मादमां भान भूली घरनाने गमे तेम बोलवा मांड्यो. बीजे दिवसे उन्माद उपशांत थतां परिजनने मोढुं शुं बतावु' एवा भयथी गाम बहार नीकली गयो त्यां एक बकरांना टोळानो पाळक रवारी कांकरीभो वती निशान ताकी पीपळाना पानमां छींडा पाडतो जोयो. द्विजे विचार्य के-आ जण मारा धारेला कार्यने पारपाडे तेवो छ, आम | | विचारी तेने पोताने घरे लइ जइ वस्तुओ दइने तथा सारां सारां खबरावीने राजी कर्यो. पछी एकांतमां तेने पोतानो अभिप्राय El जणाव्यो ते पेला रबारीए कबूल कई एक वखते ब्रह्मदत्त राजमांयी बहार नीकळता हता त्यां भींत पाछळ संताइ रहेला वारीए बराबर ताकीने बे कांकरीनी गोळीओवती तेनी बेय आंखो फोडी नारखी. राज्ञा तवृत्तांतमवगम्य उत्पन्नकोपेनासौ सपुत्रयांधवो घातिता. ततश्चक्रिणान्येऽपि द्विजा घातिताः. अशांतकोपेन च चक्रिणा मंविण एवमुक्तं, यथा ब्राह्मणानामक्षीणि कर्षयित्वा स्थाले निक्षिप्य स्थालं मम पुरो निधेहि? यतोऽहं तानि स्वहस्तेन मर्दयित्वा वैरलालनसुखमनुभवामि. मंत्रिणा तस्य चक्रिणः क्लिष्टकर्मोदयवशतामयगम्य शाखोटतरुफलानि स्थारे निक्षिप्य अर्पितानि. सोऽपि रौद्राध्यवसायस्तानि फलान्यक्षिवुध्ध्या मर्दयित्वा सुखमनुभवति. एवं For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit स प्रत्यहं करोति. ततः सप्तशतानि षोडशोत्तराणि वर्षाणि आयुरनुपाल्य प्रवर्धमानरौद्राध्यवसायः सप्तमनरकपृथिव्यां | उत्तराध्य भाषांतर प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुर्नारको बभूव. सांप्रतं सूत्रमनुष्टीयतेपनसूत्रम् JC अध्य०१३ राजाए ते वृत्तांत जाण्यो तेथी तेने कोप चड्यो एटले तेणे पेला द्विजने सकुटुंब मरावी नाख्यो ते साथे वीजा पण ब्राह्मणो | ॥७७२।। Live मराव्या. एटलाथी पण कोप शांत न थयो तेणे पोताना मंत्रीने का के-रोज आ थाळ भराय तेटली ब्राह्मणोनी आंखो लाववी ते हुं मारा हाथथी चोळीने वेर वाळवानो संतोष लइश. मंत्रीये जाण्यु के आ राजानां क्लिष्ट कर्मोनो उदय थयो देखाय छे के ज़ेथी JE तेने आवा संकल्प थाय छे, आम जाणी शाखोर वृक्षनां फळनो थाळ भरी तेना आगळ मुके एटले ते राजा नेत्रो मानीने चोळी JE नाखतो. आवी रीते घोर अध्यवसायवाळो राजा रोज करवा लाग्यो. एम करतां तेणे सातसेने सोळ वर्ष आयुष्य भोगव्यु. प्रति-JE दिन रौद्र अध्यवसाय वधतो जबाथी अंते सातमी नरक भूमिमां तेंत्रीश सागरोपम आयुष्य पर्यंत नारकी रह्यो. हवे अहींथी मूत्र ग्रंथनो आरभ छेजाईपराजिओ खलु । कासि नियाणं तु हथिणपुरंमि ।। चुलगीइ बंभदत्तो । उनो पउमगुम्माओ ॥१॥ [जाइ पराजिओ खलु] चंडाळनी जातिथी पराभव पामेलो-संभूत [इत्थिणपुरम्मि] हस्तिनागपुरमा [निआणतु] नियाणाने [कासि] करतो हवो पछी (पउम गुम्माओ] पद्मगुल्म थकी चवीने [चुलणीइ चुलनीने विषे [वंभदत्तो] ब्रह्मदत्त चक्रीपणे (उब्वनो) उत्पन्न थयो व्या-खलु इति निश्चये अलंकारे वा, जात्या चांडालाख्यया पराजितः पराभूतः सवतो निर्धाटितो गृहीतदीक्षः संभृतश्चित्रस्य लघुभ्राता हस्तिनापुरे चक्रवर्तिस्त्रीरत्नवंदनात् केशपाशसंस्पर्शात चक्रवर्तिपदप्रार्थनारूपनिदानमकार्षीत. - - For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Tarl ततः स संभूतसाधुः पद्मगुल्मविमाने नलिनगुल्मविमाने उत्पन्नः. ततश्च नलिनगुल्मविमानात् संभूतजीवो ब्रह्मराज्ञो उत्तराध्य भार्या चुलनी, तयोः पुत्रत्वेन ब्रह्मदत्त इति नान्ना उत्पन्नः. इति ॥१॥ पनसनम 1B भाषांतर अध्य०१३ ___खलु-निश्चये जाति-चांडालजातिथी पराजित पराभव पामेलो सर्वे ठेकाणेथी काही मेलातो चित्रनो न्हानो भाइ संभूत, दीक्षा ॥३७३॥ ग्रहण करी हस्तिनापुरमां चक्रवर्तीनी स्त्रीना केशनो वंदन करता स्पर्श थवाथी तेणे चक्रवर्ती पदनी प्रार्थनारूप निदान [निया[] ॥७७३॥ | कर्यु. ते पछी ते संभूत साधु पद्मगुल्म विमानमाथी च्युत थइने चुलनी नामनी ब्रह्मराजानी भार्यामां पुत्ररूपे ब्रह्मदत्त एवा नामInsi वाळो उत्पन्न थयो. १ ___कंपिल्ले संभूओ। चित्तो पुण जाओ पुरिमतालमि ॥ सिडिकुलंमि विसाले । धम्म सोउँण पब्वैइओ॥२॥ (कपिल्ले) कांपील्यनगरमा (स'भूओ) संभूतनो जीव थयो, (पुण) वळी (चित्तो) चित्रनो जीव (पुरिमतालम्मि) पुरिमताल नगरीने | विषे (विसाले) विशाळ एवा (सिट्टिकुलम्मि) श्रेष्टीना कुळमां (जाओ) उत्पन्न थयो स्यां (धम्म) धर्म (सोऊण) सांभळीने (पब्वarll इओ) प्रव्रज्या लीधी. २ व्या०-कांपिल्ये नगरे ब्रह्मराजा, तद्भार्या चुलनी, तयोः पुत्रः संभूतजीवो ब्रह्मदत्तः. संजातः. चित्रश्चित्रजीव: पुनः पुरिमतालनगरे विशाले विस्तीर्णे एकस्मिन् श्रेष्टिनः कुले श्रेष्टिपुत्रः संजातः. स च चित्रजीवस्तत्र प्रेष्टिपुत्रत्वेन समुत्पद्य अनुक्रमेण तारुण्ये धर्म श्रुत्वा प्रव्रजितः प्रव्रज्यामग्रहीत. ॥२॥ कांपिल्य नगरने विषये ब्रह्मराजा, तेनी भार्या चुलनी, ते बेयनो पुत्र संभूत जीव ब्रह्मदत्त थइ अवतो. चित्र जीव वळी For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ॥७७४॥ पुरिमताल नगरने विषये विशाळ विस्तारवाळा एक श्रेष्ठि शेठीयाना कुळमां श्रेष्ठीनो पुत्र थइ जनम्यो अने तेणे प्रव्रज्या गृहण करी. उत्सराध्ययनसूत्रम् कैपिल्लंमि य नयरे । समागों दोवि चित्तसंभूगा ॥ सुहदुक्खफलविवागं । केहंति ते इक्कमिकस्म ॥ ३ ॥ | (कपिल्लम्मि अ) कांपील्य (णयरे) नगरमा (चित्तसंभूया) चित्र अने संभूत (दो वि) बन्ने (समागया) एकठा थयां त्यां (ते) ते बन्ने | ॥७७४|| FI(इकमिकस्स) एक बीजाने (सुहदुक्खफल विवर्ण) सुखदुःखना फळना विपाकने (कहति) कहे छे, ___ व्या०-अथ स चित्रजीवो गृहीतदीक्षः समुत्पन्नजातिस्मृत्यादिज्ञानो बिहरन् कांपिल्ये नगरे समागतः. तत्रैव | कांपिल्ये ब्रह्मदत्तोऽपि लब्धचक्रवर्तिपदस्तिष्टति. एकदा स देवोपनीतमंदारकल्पवृक्षाणां मालासाधर्म्य दृष्ट्वा समुत्पन्नजातिस्मृतिरभूत्. तदा च ब्रह्मदोन-आस्व दासौ मृगौ हंसौ । मातंगावमरौ तथा ।। इति श्लोकाध स्वबंधुसंबंधगर्भित कृत्वा नगरे उद्घोषणा कारिता, यः कश्चिदग्रेतनं श्लोकाध पूरयति, तस्मै वांछितं ददामि, राज्याधं ददमि. अस्मिन्नेBalवावसरे भ्रातृयोधनार्थ समागतेन चित्रजीवसाधुना-इमा नौ षष्टिका जाति-रन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः॥१॥ इति श्लोकोत्तरार्ध पूरितं. तद्वनमध्ये अरघभ्रामकेण आरामिकेण साधुमुखेन श्रुत्वा राज्ञोऽग्रे उक्तं. राजापि श्रुत्वा मूछी JE प्राप. ततो राज्ञा पृष्टेन कुहितेन च तेनोक्तं मया श्लोकाध पूरितं नास्ति. किंत्वारामे कायोत्सर्गस्थितेन एकेन साधुना पूरितं. ब्रह्मदत्तचक्रधरेण श्लोकपूरणात् ज्ञातोऽयं साधुर्मम भ्राता. ततो राजा मुनिसमीपे गतः, अत एव सूत्रकारेणोक्तं, कांपिल्ये नगरे द्वावपि चित्रसंभूतजीवी चक्रवर्तिमुनीश्वरी समागतो, एकत्र मिलितो तो च सुखदुःखफलविपाकं सुकृरतस्कृतकर्मानुभावरूपं एकैकस्य परस्परं कथयताम इत्यध्याहार्य ॥ ३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #205 --------------------------------------------------------------------------  Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्यपनसूत्रम् ॥७७६॥ ध्या०-ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती भ्रातरं बहुमानेन मनसो रोगेण इदं वचनमब्रवीत्. कधंभूतः चक्रवर्ती? महद्धिकः संप्रा- 17 भाषांतर तषड़खंडराज्यः, पुनः कथंभूतो ब्रह्मदत्तः? महायशाः, महद् यशो यस्य स महायशा भुवनत्रयप्रसिद्धः ॥ ४ ॥ अध्य०१३ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती भ्राताने बहुमान-मनना अनुरागथी आ वचन बोल्या. केवा चक्रवत्तों? महर्द्धिक छ खंडर्नु राज्य जेने माप्त थयेल छे तेवा. वळी ते ब्रह्मदत्त केवा ? महायशा=जेनुं यश महोटुं छे; अर्थात् त्रणे भुवनमा प्रसिद्ध. ४ ॥७७६॥ • आसि मो भायरा दोविं। अन्नमन्वसाणुगा ।। अन्नमन्नमणुरत्ता । अन्नमाहिएसिणो ॥ ५॥ (दो वि) आपणे बन्ने [भायरा] भाइओ (अन्नमन्नवसाणुगा) परस्पर एकबीजाने वशवर्ती (आसीमो) हता, तथा (अन्नमन्नमणुरत्ता) परस्पर प्रीतियुक्त हता तथा (अन्नमन्नहिएसीणो) परस्पर हितैषी इता. ५ मो इति आवां द्वावपि भ्राततिरौ आसि आस्व, पूर्वजन्मन्यावामुभौ भ्रातरावभवावेत्यर्थः कथंभूतो दौ? अन्योन्यवशानुगौ, अन्योन्यं परस्परं वशमनुगच्छत इत्यन्योन्यवशानुगावन्योन्यवशवर्तितावित्यर्थः. पुनः कथंभूतो? अन्योन्यमनुरक्तौ परस्परं स्नेहवतो. पुनः कीदृशौ? अन्योन्यं हितैषिणौ परस्परं हितवांछको, एतादृशावभवावेत्यर्थः. अत्र मुहर्मुहरन्योन्यग्रहणं चित्ततुल्यतात्यादरख्यापनार्थ. ॥ ५॥ मो आपणे बेय-पण भाइओ हता; पूर्व जन्ममां आपणे बन्ने भाइओ हता. केवा भाइओ? अन्योन्यवशानुग, एक बाजाने वश्य रही एक बीजानी पाछळ अनुसरनारा पुनः केवा ? अन्योन्य अनुरक्तपरस्पर स्नेहवाळा तथा अन्योन्य हितैषी, एक बीजानु |हित बांछनारा, आपणे बेय आवा हता. आमां वारंवार अन्योन्य शब्द आव्या तेनुं तात्पर्य एवं छे के-आपण बन्ने एक चित्र हतं Uploadलालाखालाका تكليفيا والاشكال انه لالا لاكتشافاة الشلالات For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा परस्पर आदरभाव हतो. ५ उत्तराध्यदासा दसन्ने अण्णे । मिया कालिंजरे नगे ॥ हंसा मयंगतीराए । सोवाग कासिभूमिए ॥ ६॥ भाषांतर पनसनम अध्य०१३ BELI दस ने] दशार्ण देशमा [दासा) आपणे दास [आसि] हता, कालिजरे नगे] कालिजर पर्वत उपर (मिमा) मृगो थया [मयंगती॥७७७॥ राए मृतगगा नदीने काठे (हसा) हसो थया हता. [कासभूमिए] काशी देशमा (सोवागा) चंडाळ थया हता. ६ ॥७७७॥ व्या-कच अभूतां तत्स्थानमाह-आवां दशार्णदेशे दासो आस्व, कालंजरनाम्नि नगे पर्वते मृगौ आस्व, पुन- TH मृतगंगानदीतटे हंसी आवां आस्व. काशीभूम्यां वाराणस्यां चांडालावभूवाव. क्यां थया हता? ते स्थानको कहे छे-आपणे बेय दशार्णदेशमां दास थया कालंजर नामना पर्वतमां बेय मृग थया, फरी | मृतगंगा नदीने तटे आपणे हंसो अवतर्या अने काशी भूमि-वाराणसीमां चांडाळ थया हता, ६ देवा य देवलोगंमि । आसि अम्हे महदिया । इमा णो छहिया जाई । अन्नमन्त्रेण जाविणा ॥ ७॥ [य] त्यारपछी (देवलोगम्मि) देवलोकमां (अम्हे) आपणे [महहि आ] महद्धिक [देवा] देवो (असि) थया हता (इमा) आ (अनमनेण) परस्परवडे (जा) जे (विणा) वियोगवाली (णो) आपणी (छडिआ) छट्ठी (जाइ) जाति थइ छे ७ ___ व्या०-पुनस्ततश्चांडालजन्मनः परं भो भ्रातः 'अम्हे' आवां देवलोके सौधर्मदेवलोके महर्दिको देवावभूव. हे of भ्रातः णो इत्यावयोरन्योन्ययावनिका परस्परसाहित्यरहिता परस्परवियोगसहिता षष्टिका जातिरियं प्रत्यक्षा जाता. | इति श्रुत्वा मुनिराह For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ॥७७८॥ फरी ते चांडाळजन्म पछी हे भाइ ! आपणे देवलोक-सौधर्म देवलोकमां महोटी ऋदि युक्त देव थया. हे भाइ ! आपण बन्नेनी उत्तराध्य BE| अन्योन्य विनानी अर्थात् जे जातिमां आपणे साये रहेवानुं न यतां एक बीजाना वियोगवाळी आप्रत्यक्ष छट्ठी जाति-जन्म-. | पनसूत्रम् आ सांभळी मुनि बोल्या॥७७८॥ कम्मा नियाणप्पगडा । तुमे राय विचितिया ॥ तेसिं फलविवागेण । विपओगमुवागया ॥ ८॥ (राय) हे राजा (तुमे) तमे [कम्मा] कमों (निआणप्पगडा) नियाणावडे कर्या छे (विचितिआ) चिंतव्या छ [तेसि] ते कर्मोनो [फलविवागेण] धळपो विपाके करीने आपणे (विप्पओग) परस्पर वियोगने (उवगया) पाम्या छीए, ८ व्या०-हे राजन् ! त्वया कर्माणि विचिंतितानि, आर्तध्यानरूपाणि ध्यानानि, ध्यातानि आध्यानहेतुभूतानि are कर्माणि विचिंतितानीत्यर्थः कीदृशानि कर्माणि? निदानप्रकृतानि निदानेनोपार्जितानि, निदानेन भोगप्रार्थनावशेन | प्रकृतानि निदानप्रकृतानि प्रकर्षेण बद्धानि तेषां कर्मणां फलविपाकेन फलोदयेन आवां विषयोगमुपागतो वियोगं माप्ती.॥८॥ अथ चक्री प्रश्नं करोति हे राजन् ! तमे कर्मोनु विचितन कर्यु; आर्तध्यानरुप कर्मो चिंतव्यां; केवां कर्मो? निदानप्रकृत अर्थात् नियाणा [भोग मार्थना] बढे प्रकर्षथी बद्ध एवां ते कर्मोना फलविपाक-फळना उदय-बडे आपणे बेय वियुक्त थया. ८ संचसोअप्पगडा । कम्ता मेए पुग कडा ॥ते अज परिभुजामो । किंY चित्तवि से तेहा ।। ९॥ (मए) में (पुरा) पूर्वभवमा (सचसोअप्पगढा) सत्य भने शौच करनार अनुष्ठान (कम्मा) कर्मो कडा कर्या हता (ते) ते कर्मोना For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ॥७७१॥ | फळने (अज) आजे (परिभुजामो) हु अनुभव॒छु (से) ते शुभ कमाने (किं नु) शु(चित्तो विचित्र नामना तमे पण (तहा) भोगयो छो. उत्तराध्य व्या०-हे साधो! हे भ्रातर्मया पुरा पूर्वजन्मनि कर्माणि कृतानि. कथंभूतानि कर्माणि? सत्यशोचप्रकटानि, पनसत्रम JE सत्यं मिथ्याराहित्यं, शीचमात्मशुद्धिकारकं धर्ममयमनुष्ठान. सत्यं च शौचं च सत्यशौचे, ताभ्यां प्रकटानि प्रसिद्धानि, ॥७७९॥ HEL एतादृशानि मया सुकर्माणि कृतानि. तानि शुभकर्माणि अद्यास्मिन् जन्मनि परि समंतात भंजे, स्त्रीरत्नभोगद्वारेण तेषां फलं विषयसुखान्यनुभवामि. हे चित्र! यथाहं राज्यसुखं भुजे. तथा किंचित्रोऽपि भवानपिनु भुक्ते? नु इति वितर्के. कोऽर्थः? चक्री वदति यथाहमिदानी पूर्वोपार्जितानां सुकृतानां फलानि परिभुंजे, तथा किं चित्रो भवान् परिभुंक्त? अपि तु भवान् न परिभुक्ते एव, भवतस्तु भिक्षुकत्वात् तानि सुकृतानि निष्फलानि जातानीत्याशयः ॥९॥ अथ मुनिराह__ हे साधो ! हे भाइ ! में पुरा-पूर्वजन्ममा कर्मो का छे; केवा कर्मो? सत्य-मिथ्या रहित पणुं तथा शौच आत्मशुद्धिकारक धर्ममय अनुष्ठान एवां सत्यशौचवडे प्रकट प्रसिद्ध कर्मों की छे ते शुभ कर्मों आजे आ जन्ममा भोग, छु; स्त्रीरत्न भोग द्वारा ते कर्मोनां विषय सुखानुभवरुप फळो हुँ भोगवू छं. हे चित्र ! जेम हुँ राज्यमुख माणुं हुं तेम शुं चित्र [तमे] पण भोगवे छे? अर्थात् चक्री कहे छे के जेम हुँ पूर्वे करेलां सुकृतनां फळोने भोगq छु तेम शुं आप भोगवो छो? तात्पर्य ए छे के तमे नथीज भोगवता, तमे तो भिक्षुक छो तेथी ते सुकृतो निष्फळज बन्यां ९ सव्वं सुचिण्णं सफल नराणं । कडाण कम्माण न मुक्ख अस्थि ।। For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्थेहि कामेहिं उ उत्तमेहिं । अप्पाया मम पुण्णफलोवैवेए ॥ १० ॥ उसराध्य-DEL HEI (सव्व) सर्व (सुचिण्ण) शुभ आचरण (नराण) मनुष्योने [सफल] सफळज छ (कडाण) करेला (कम्माण) कर्मोथी (मुक्खु) मोक्षBE भाषांतर यनसूत्रम् EVI(न अत्थि) थतोज नथी तेथी (म) मारो [आषा] आत्मा (उत्तमेदि) उ-म एवा (अत्थेहि) अर्थवडे (य) तथा (कामेहि) कामभोग अध्य०१३ 3८| बडे (पुग्नफलोववेए) पुण्यना फळवडे युक्तज हता. १० ॥७८०॥ ॥७८०॥ ___ व्या०-हे राजन् ! नराणां सुचीर्ण सम्यक्प्रकारेण कृतं संयमतपःप्रमुखं सर्व सफलमेव वर्तते, नराणामित्युप-10 लक्षणत्वान् सर्वेषामपि सफलं भवति. यतः कृतेभ्यः कर्मभ्यो मोक्षो नास्ति जीवैः कृतानि कर्माण्यवश्यं भुज्यंते, प्राकृतत्वात् पंचमीस्थाने षष्टी. कृतानां कर्मणां मोक्षो नास्ति, युटुक्त-कृतकर्मक्षयो नास्ति । कल्पकोटिशतैरपि ॥ अव श्यमेव भोक्तव्यं । कृतं कर्म शुभाशुभं ॥१॥ तस्मान्ममाप्यात्मा अथव्यैः पुनः कामविषयसुग्वैः पुण्यफलैरुपेतो Je वर्तते. कीदृशैरथैः कामैः? ऊत्तममनोहरैः. अथवा कीदृशैः कामैः? अयं प्रार्थनीयैः, अर्थ्यते प्रार्थ्यते जनैरित्याः , तेरथ्यरित्यनेन चित्रजीवेन साधुनोक्तं मयापि सर्वेन्द्रियाणां सुखानि द्रव्याणि च पुण्यफलानि प्राप्तानीति. इति त्वया न ज्ञातव्यं यदनेन किमपि सुकृतफलं न लब्धमस्तीति भावः ॥ १० ॥ तदेव सूत्रकारो गाथया आहRa हे राजन् ! नर-मनुष्योए सम्यमकारे आचरेलुं तपःसंयमादि सर्व सफळज होय छे. नर पद उपलक्षण मात्र छे एटले सर्वे जीवोनुं पण सफळज होय, कारण के-कृत कर्मथी मोक्ष नथी; अर्थात् जीवोए करेलां कर्म अवश्य भोगवबांन पडे, [पाकृतमा JE पंचमी स्थाने षष्ठी विभक्ति छे.] करेलां कर्मोनो एमने एम छुटकारो थतो नथी. कह्युछे के–'करेलां कर्मोनो करोडो कल्पे पण For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ser भाषांतर अध्य०१३ ॥७८१॥ उत्तराध्य. Joril क्षय थतो नथी. करेलुं शुभ अथवा अशुभ कर्म अवश्य भोगवयु पडे छे? ते कारण माटे मारो पण आत्मा अर्थ-द्रव्यो तथा काम पनसूत्रम विषयसुख इत्यादि कर्मफळोवडे उपेत युक्त छे. अर्थ तथा काम केवा? मनोरम सुंदर; अथवा अर्थ्यलोकोए इच्छवा योग्य एवा काम-विषय मुखोपभोग; चित्र साधुए कयु के-में पण सर्वंद्रियोने सुखोत्पादक द्रव्यरूप पुण्य फळो प्राप्त कर्या छे. एटले तें एम न ॥७८१॥ समजवु के-आपणे तो मुकृत फळ कंइज नथी मेळव्यु. १० एज अर्थ सूत्रकार गाथावडे निरूप करे छे. जाणासि संभूय महाणुभागं । महट्टियं पुण्णफलोवेयं ॥ चित्तंपि जाणोमि तहेव रायं । इदी जुई तस्सवि य प्पभूया ॥ ११ ॥ (संभूअ) हे संभूत ! (महाणुभाग) मोटा महात्म्यवाळो (महिट्टिय) मोटी ऋद्धिवाळो (पुण्णफलोव) पुण्यफळवाळो (जाणासि) | मानो छो (तहेव) तेज प्रमाणे (राय) हे राजा (चित्तं पि) मने चित्रने (जाणाहि) जाणो (अ) कारण के (तस्ल वि) तेने तेमज मारे (डी) ऋद्धि (जुर) कांति (प्पभूआ) धणी हती. ११ all पूर्वनाम्ना ऋषिर्वदति-हे संभूतमहाराज! यथा त्वमात्मानं महानुभागं तथा महद्धिकं तथा पुण्यफलोपपेतं जानासि, तथा चित्रमपि मामपि तादृशमेव जानीहि? महान अनुभागो यस्य स महानुभागस्तं महानुभागं बृहन्माहात्म्यं. तथा महती ऋद्धिर्यस्य स महद्धिः, महदिरेव महर्द्धिकस्तं महार्दिकं विशाललक्ष्मीकं, पुण्यफरेन उपपेतस्तं एतादृशं. ऋद्धिविपदचतुष्पद्धनधान्यादिसंपत्तिः, द्युतिर्दीप्तिस्तस्य चित्रस्यापि, अर्थान्ममापि प्रचुरा वर्तते इति जानीहि? चशब्दोऽत्र यस्मादर्थे. इह वृद्धसंपदाया-यथा निदानसहितः संभूतसाधुश्चक्रवर्त्य भूत, तथा चित्रसाधुनिदानरहित एकस्य श्रेष्टि-11 For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्यघनसूत्रम् भाषांतर l अध्य०१३ ॥७८२॥ ॥७८२॥ महर्द्धिकस्य कुले पुत्रत्वेनोत्पन्नः, तत्र चक्रवर्तिवत्तस्य ऋद्धिरासीत् , प्रतिदिनं सुवर्णदीनाराणां कोटिं याचकेभ्यो ददान | आसीत्. निरंतरं च षट्ऋतुसुखदायकेषु मनोहरोच्चैस्तरप्रासादेषु भोगान् भुंजानोऽनेकगजतुरगरथयानादिकऋद्धिमान् सुरूपकामिनीनां परिकरेण परिवृतो द्वात्रिंशद्विधं नाटकं पश्यन् सदा सुखनिमग्नो बहुधा भोगरसयुक्तो बभूवैति | कथानकं ज्ञेयं. ॥ ११॥ [पूर्व भवना नामथीज ऋषि संबोधे छे.] हे संभूत ! महाराज ! जेम तमे पोतागे महानुभाग तथा महर्द्धिक अने पुण्य फळोपेत | जाणो छो तेम चित्रने [मने] पण तेवोज जाणो. महोटो अनुभाग जेनो छे ते महानुभाग, एटले महोटा महात्म्यवाळो, तथा महोटी ऋद्धि-जेने होय ते महर्दिक पुष्कळ लक्ष्मीवाळो तेमज पुण्य फळवडे संपन्न, एवो जाणो. 'च' शब्द हेतु अर्थमा अत्रे प्रयुक्त छे, जे कारणथी-चित्रने (मने) पण ऋद्धि एटले द्विपद-नोकर चाकर, चतुष्पद=गायो भेसो घोडां वगेरे, धनधान्यादि सकळ संपत्ति al अने युति दीप्ति, प्रचुर-पुष्कळ जाणजो. अहिं वृद्ध संप्रदाय एम छे के-जेम निदान सहित संभूत साधु चक्रवती थया तेम चित्र साधु निदान रहित एक समृद्ध शेठना कुलमां पुत्र थइने अवतर्या, त्यां तेने चक्रवर्तीना जेवी समृद्धि हती, प्रतिदिन एक कोटि सुवर्ण दीनार याचकोने देता हता, निरंतर छये ऋतुओमां सुखदायक मनोहर उंचा महेलोमां नाना प्रकारना भोगो भोगवता अनेक हाथी घोडा रथ वाहनादिक ऋद्धिमान् इता तथा मुरुप कामिनीओथी घेरायेला बत्रीश प्रकारनां नाटको जोता, सदाय मुखमां निमग्न रही अनेक विध भोगरस लेता हता. (आ कथानक परंपरा श्रुत छे) ११ महत्थरूवा वयणप्पभूआ । गाह। णुगीया नरसंगमज्झे ।। For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य धनसूत्रम् ७८३१ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया । देहं जयंते सेमणोमि जाओ ॥ १२ ॥ (महत्वा) महान स्वरूपी तथा ( वयणप्पभूआ ) अल्प अक्षरोयाळी (गाडा) गाथा ते [नरसंघमज्झे] मनुष्योना समूह मध्ये [ अणुगीआ] अनुकूळ [ज] जे गाथाने सांभळीने [भिक्खुणो] साधुओ (सीलगुणोववे आ) शील आदि गुणोप युक्त [ह] आ धर्मने विषे [[जयते] यत्न करे छे, ते [समणो] साधु [जाओम्हि ] थयो छु. १२ व्या० - अथ चेदेतादृशी ऋद्धिस्तव आसीत्, तहि कथं त्यक्ता ? हे भ्रातः सा गाथा साधुभिर्नर संघमध्ये, नराणां मनुष्याणां संघो नरसंघस्तस्य मध्ये मनुष्य सभामध्येऽनुगीता उक्ता, मया श्रुतेति शेषः गीयते इति गाथा धर्माभिभिधायिनी सूत्र पद्धतिर्मया स्थविरमुखात्कर्णगोचरीकृता, कथंभूता गाथा ? महार्थरूपा, महान द्रव्यपर्यायभेदसहितो निश्रयव्यवहारसहितश्च अर्थो यस्य तन्महार्थ, तादृशं रूपं यस्याः सा महार्थरूपा पुनः कीदृशा गाथा ? वयणप्पभूआ, वचनैर्नयभेदैः प्रभूता वचनप्रभूता, अल्पाक्षराबद्दर्थेत्यर्थः सा इति का गाथा ? यां गाथां श्रुत्वा इत्यध्याहारः, यां धर्माभिधायिनीं सूत्रपद्धति श्रुत्वा, भिक्षवः साधवः शीलगुणोपपेताः संत इह जिनप्रवचने यतंते मुनयः, शीलं चारित्रं, गुणो ज्ञानं, शीलं च गुणश्च शीलगुणौ, ताभ्यामुपेताः शीलगुणोपपेताः क्रियाज्ञानसहिताः संतोऽहमते स्थिरा भवंतीत्यर्थः तां गा श्रुत्वाहमपि श्रमणस्तपसि निरतो जातोऽस्मि, न तु दुःखात्साधुः संजातोऽस्मिति भावः ॥ १२ ॥ ज्यारे तमारे एवी ऋद्धिहती तो तमे ते केम तजी? तेना उचरमां कहे छे. हे भ्रातः ! ते गाथा साधुओए नर संघमध्ये = मनुप्योना संघ=समुदाय, अर्थात् मनुष्य सभाना मध्यमां गवायेली; (में सांभळी छे' पटलं शेष लेवानुं छे) गवाय ते गाथा, अर्थात् For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० १३ | ॥ १८३॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥७८४॥ ॥७८४॥ | धर्म कहेनारी सूत्र पद्धति, में स्थविरोना मुखथी काने सांभळी छे. ते गाथा केवी? महार्थरुपा महोटो एटले द्रव्यपर्याय भेद सहित भाषांतर तथा निश्चय व्यवहार सहित छे अर्थ जेनो ते महार्थ, तादृश जेनुं रुप छे एवी महार्थरुपा गाथा वळी ते गाथा वचनप्रभूता एटले Se अध्य०१३ वचनम्नयभेदवडे प्रभूता, अर्थात् वचन शब्द करतां विस्तीर्ण अर्थवाळी. अल्प अक्षरो छतां जेनो अर्थ बहु थाय तेवी, जे गाथा सांभळीने (आटलो अध्याहार छे) एटले धर्माभिधान करनारी जे सूत्र पद्धतितुं श्रवण करीने भिक्षु साधुओ शीळ चारित्र तथा गुण= ज्ञानादि सहित थइने अर्हन्मतमा स्थिर थाप छे, ते गायाने सांभळीने हुँ पण श्रमण=तपोनिष्ठ थयो छु. कंइ दुःखथी साधु नथी थयो; एत्रो भावार्थ छे. १२ उच्चोदए महु कके ये बंभे । पवेड्या आवसहा य रम्मा ॥ इम गिहै चिसँधणप्पभूयं । पसहि पंचालगुणोयवेयं ॥ १३ ॥ o (उचोदए) उच १ उदय २ (महु) मधु ३ (क) कर्क ४ (अ) अने (ब) ब्रह्म ५५ पांच (य) तथा (रम्मा) रमणीय (आवसहा) महलो (पवेहआ) भोगवो तथा (चित्तधणखभूभ) आश्चर्यकारक धणु धन, (पंचालगुणोववेभ) पंचालदेशोना गुणो युक्त (इम) आ (गिद्द) घर छेतेने तमे (साहि) पालन करो. १३ ज्या०-अथ ब्रह्मदत्तः पुनः साधुं निमंत्रयति, पूर्वनाम्ना संबोधनं कृत्वा वदति, हे चित्र! त्वमिममिदं प्रभूतधनं गृहं, पचुरधनसहितं गृहं प्रसाधि प्रतिपालय? गृहे स्थित्वा सुखं भुंश्वैत्यर्थः. अथवा 'चिराधणप्पभूयं' इत्येकमेव पदं । | गृहविशेषणं. चित्रं नानाप्रकारं, प्रभूतं प्रचुर धनं यस्मिन् तच्चित्रप्रभूतधनं, एतादृशं मम मंदिरं गृहाणेल्यर्थः पुनः कीदृशं For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृहं ? पांचालदेशनां गुणा इंद्रयविषयाः शब्दरूपरसगंधस्पर्शास्तैरुपपेतं पांचालगुणापपेतं. च पुना रम्या रमणीया उत्तराध्या भाषांतर ममावसथाः प्रासादाः प्रवेदिताः प्रकर्षेण वेदिताः प्रवेदिताः प्रकटाः संति. तानपि त्वं प्रशाधीति शेषः. मम वाकिपनसत्रम DEअध्य०१३ रत्नपुरस्सरैर्देवैरुपनीताः प्रसादाः, ते के प्रासादाः ? उच्च १, उद्य २, मधु ३, कर्क ४, ब्रह्म ५, एते पंच प्रासादा यत्र ॥७८५।। चक्रिणो रोचंते तत्रैव वार्धकिरत्नेन चक्रिसूत्रधारेण विधीयते इति वृद्धा आहः. तस्मादत्रेदं गृहमिति पृथगुक्तमस्ति. ॥७८५॥ पांचालानां गुणग्रहणं तु अत्युदीर्णत्वात. अन्यथा भरतक्षेत्रस्य सारं तदगृहेऽस्त्येव. ॥ १३ ॥ वळी ब्रह्मदत्त चक्री साधुने निमंत्रण करे छे-पूर्वनामथीज संबोधोने कहे छे-हे चित्र ! तमे आ मारा प्रभूत-पुष्कळ धन सहित गृह प्रतिपालन करो; घरमा रहीने सुख भोगवो. अथवा 'चित्रधनप्रभूत' एक पदमानी नाना प्रकारनां प्रभूत-पुष्कळ धन जेमां | भरेल छे एवं, (घरर्नु विशेषण) मारुं मंदिर छे ते तमे स्वीकारो. गृह के छ ? पांचाल देशना गुण-विविध भोगपदार्थोथी उपेत= संयुक्त; तथा रम्य मनोहर मारा आवसथ मासाद-महेलातो छे तेने पण तमे साचवो अने उपयोगमा ल्यो; [एटलं शेष उमेरg.] Pel मारे माटे वार्धकिरत्न प्रभृति देवोए तैयार करी आणी आपेला प्रमादो जेवा के-उच्च १, उदय २. मधु ३, कर्क ४ तथा ब्रह्म ५, ए पांच प्रासादो छे. जे चक्रीने गमे त्यां वार्धकिरत्न चकि मूत्रधार निर्मे छे, एम वृद्धो कहे छे. तेथीज अहीं 'आ घर' एम पृथक् | | कहेलं छे. पांचाळना गुणोनुं गृहण उत्कृष्टता देखाडवा करेलुं छे अन्यथा आखा भरतक्षेत्रनी सारभूत वस्तुओ चक्रिना घरमां होयज. JE नहिं गीएहिं ये वाइएहिं । नारीजगाइं परिवारयते ॥ भुंजाहि भोगाइ इमाइ भिक्खु । मम रोयेई पञ्चजा हु दुक्खं (नहेहि) नाटकोबढे (गीएहि अ) संगीतवडे (वाइपहि) वाजिनीवडे तथा (नारीजणाइ) स्त्रीजनोवडे (परिवारयता) परिवारेला एवा For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ال (भिक्खू) हे मुनि ! (इमाई) आ (भोगाई) भोगोने (भुजाहि) भोगयो कारणके (मम) मने (रोयई) भासें छे के (पवजा) प्रवज्या 0 उत्तराध्य- पाळवी (दुक्ख हु) दुःखज छे १४ भाषांतर यनसूत्रम् अध्य०१३ ___व्या०-भो चित्र! हे भिक्षो! हे साधो ! ममैतद्रोचते, एतद् हृदये प्रतिभाति. हु इति निश्चयेन प्रव्रज्या दुःखं ॥७८६॥ वर्तते इति शेषः. दीक्षायां सुखं किमपि नास्ति. तस्मात् हे साधो! त्वमिमान् प्रत्यक्ष श्यमानान् भोगान भुंक्ष्व ? ||७८६॥ कथंभूतः सन ? नाटकै त्रिशद्विधैः, गीताधर्वशास्त्रोक्तः, वादित्रैर्भरतशास्त्रोक्तम॒दंगादिभिस्तथा नारीजनैः परिवृतः सन् विषयसुखान्यनुभव ? अत्र नारीजनानामेव ग्रहणं कृतं, अन्येषां गजाश्ववस्त्रासनद्रव्यादीनां ग्रहणं न कृतं, तत्तु तस्य स्त्रीलोलुपत्वात् , मर्वविषयेषु स्त्रीणामेव प्राधान्यात. ॥ १४ ।। हे चित्र ! हे भिक्षा ! हे साधो ! मने तो आ रुचे छमारा हृदयमा एम भांसे छे के निश्चये प्रवज्या दुःखज छे. दीक्षामा सुख कंह पण नथी; ते माटे हे साधो ! तमे आ प्रत्यक्ष देखाता भोगाने भोगवो. केवा थइने? वत्रीश प्रकारना नाद्यो, गांधर्व शास्त्रोक्त 16 गीतो गायनो, भरत शास्त्र वर्णित मृदंगादि वादिनो तथा नारीजनोवडे परिवारित बनीने विषयसुखोने अनुभवो. अत्रे नारीजनो-JE मुंज ग्रहण कर्यु, अन्य हाथी घोडा वस्त्र आसन इत्यादिक द्रव्योनुं ग्रहण न कर्यु ते तो तेना स्त्रीलोलुप पणाने लीधे, केमके सर्व विषयोमा स्त्रीओमुंज प्राधान्य छे. तं पुव्वनेहेण कयाणुरायें । नराहिवं कामगुणेसु गिद्धं ॥ धम्भस्सिओ तस्स हिआणुपेही । चित्तो इमं बयणेमुदाहरित्या (पब्वनेहेण) पूर्वना स्नेहे करीने [कयाणुराग] रागयुक्त [गिद्धि] लुब्ध थयेला [त] ते (नराहिय) नराधिपने धम्मस्सिओ] धर्ममा الاعلان الشكايات في في الحاشا قناتنا For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | भाषांतर अध्य०१३ ॥७८॥ | स्थिर थयेला तथा (तस्स) ते चक्रवर्तीना [हिआगुपेहि] हितानुप्रेक्षा एवा (चित्तो) चित्र मुनि (इम) आगळ (वयण) वचन उत्तराध्य 30](उदाहरित्था) बोलता हवा. १५ यनसूत्रम व्या०-यदा तु ब्रह्मदत्तन संभृतजीवेन चित्रजीवं साधु प्रत्युक्तं, तदा चित्रजीवः साधुश्चित्र इदं वचनं तं ब्रह्म॥७८७|| दत्तनराधिपं चक्रिणप्रति उदाजहार अवादीत्. कथंभूतं तं ब्रह्मदत्तं? पूर्वस्नेहेन कृतानुरागं, पूर्वभवबांधवप्रेम्णा विहिसप्रीतिभावं. पुनः कथंभूतं नराधिपं ? कामगणेषु विषयसुखेषु लोलुपं. कीदृशश्चित्रजीवसाधुः? धर्माश्रितो धर्ममाश्रितः. पुनः कीदृशश्चित्रः ? तस्य ब्रह्मदत्तस्य हितानुप्रेक्षी हितवांछका, हितमनुप्रेक्षते इत्येवंशीलो हितानुप्रेक्षी.॥१५॥ 30 किमुदाजहारेत्याह । ज्यारे संभूत जीव ब्रह्मदते चित्रजीव साधु प्रत्ये वचन कह्यां त्यारे चित्रजीव साधु आ वचन ते ब्रह्मदत्त नराधिप चक्री प्रत्ये | बोल्या. ते ब्रह्मदत्त केवो? पूर्व स्नेहे करी कृत छे अनुराग जेणे एवो, अर्थात् पूर्वभवना बांधव प्रेमने लइ आ टाणे प्रीतिभाव देखाडतो तथा काम गुण-विषयोने विषये लोलुप. भित्र साधु केवा ? धर्मनो आश्रय करीने वर्त्तता तथा ते ब्रह्मदत्तना हितवांछक; हित जोवाना स्वभावबाळा. १५ शुं वचन उच्चाय ? ते कहे छे सच विलवियं गीय । सवंनद विडत्रियं ।। सब्वे आभरणा भारी । सब्वे कैंमा दुहाहा ॥१६॥ JE| हे राजा! (सव्य) सर्व प्रकारनु (गी) गीत [विलवि] विलापतुल्य छे तथा (सव्व नह) सर्व प्रकारनु नृत्य [विड विम] वीटबणारूप छे (सब्वे) सर्व [भाहरणा] अलंकारो (भारा) भारभूत छे, (सव्वे) सर्व प्रकारना (कामा) काम भोगो (दुहावहा) For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JE दुःख आपनारा छे १६ उत्तराध्य-BE Indlभाषांतर व्या०-हे राजन् ! गीतं सर्व विलपितं विलापतुल्यं, सर्व नाटधं नाटकं विडंबितं, भूतावेष्टितपीतमद्यादिजनां-IJI पनसूत्रम् अध्य०१३ गविक्षेपतुल्यं सर्वाण्याभरणानि भारतुल्यानि. सर्वे कामा दुःखावहा दुःखदायकाः, गजपतंग गमीनकुरंगादीनामिव ॥७८८॥ बंधनमरणादिकष्टदा इत्यर्थः ॥ १६ ॥ ॥७८८॥ हे राजन् ! गीत गायन तमाम विलपित=विलापतुल्य जाणो. सर्व नाट्य नाटको विडंबित छे अर्थात् भृताविष्ट अथवा मद्यपीजनना चाळा समान छे, सर्व आभरणो भार बोजारूप छे अने सर्व काम दुःखावह दुःखदायक छे, गज, पतंग, भृग, मीन, हरिण आदिनी पेठे बंधन तथा मरणादि कष्ट देनारा छे. स्पर्शथी हाथी, रुपथी, पतंग, गंधयी भ्रमर, रसथी मीन-मत्स्य, अने शब्दी हरिण कष्टमा फसाय छे. १६ बालाभिरामेसु दुहावहेसु । नंतसुहं कामगुणेसु राय ।। विरत्तकामाण तबोधणाणं । जे भिक्खुणं सीलगुणेरयाणं॥१७ (राय) राजा [विरत्तकामाण] कामभोगथी विरक्त (तबोधनाण) तपरूपी धनवाळा [सीलगुणे रयाण] शीलादि गुणमां आसक्त JE (भिक्खुण') साधुओने (ज) जे सुख होय छे [त' सुह] ते सुख [भालाभिरामेसु] मूढ पुरुषोने मनोहर [दुद्दावहेसु] दुःखने आप-||JE 36 नारा (कामगुणेसु) कामभोगोने विषे [न] होतुं नथी. १७ व्या०-हे राजन् ! विरक्तकामानां विरक्ता कामेभ्य इति विरक्तकामास्तेषां निर्विषयिणां भिक्षूणां साधूनांक यत्सुखं वर्तते, तत्सुखं कामगुणेषु शब्दादिषु इन्द्रिपसुखेषु कामिनां पुरुषाणां नास्ति. कीदृशेषु कामगुणेषु ? वालाभि For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra JU Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गमेषु बालानां निर्विवेकाणामभिरामा बालाभिरामास्तेषु, मूर्खा हि विषयेषु रज्यंते. पुनः कीदृशेषु कामगुणेषु? दुःखाउत्सराध्यवहेषु दुःखदायकेषु. कीदृशानां भिक्षुणां? तपोधनानां तप एव धनं येषां ते तपोधनास्तेषां. पुनः कीदृशानां ? शील INE भाषांतर यनमश्रम Jt गुणे रतानां, शीलस्य गुणा गुणकारिणो नवविधगुप्तयस्तेषु रता आसक्तास्तेषां. ॥ १७ ॥ अध्य०१३ ॥७८९॥ हे राजन् ! विरक्त काम-कामथी विरक्त थयेला, अर्थात् निर्विषय भिक्षु साधुओने जे मुख होय छे ते सुख कामगुण-शब्दादि ७८९॥ IG: इन्द्रिय मुखोमा कामी पुरुषोने होतुं नथी. काम गुणो केवा? बाल-विवेकहीन जनोने अभिराम मनोहर लागता; तेवा विषयोमां मूर्ख जनोज अनुराग राखे छे. वळी ते कामगुणो केवा ? दुःखवाइ दुःखदायक भिक्षु केवा ? तपोधन एटले जेओने तप एज धन छे IN// बळी ते केवा ? शीलगुण गुणकारी नवविध गुप्तिश्रोमां रत=निरंतर आसक्त रहेनारा. १७ नरिंद जाई अहमा नराणां । सोवागजाई दुहओ गयाणं । जहिं वयं सर्वजणस्सवेसा । वसीय सोगनिवेसणेसु॥१८DE (नरिद) हे राजा! (सोवागजाइ) चंडाळनी जातिने [गयाण] प्राप्त थयेला (दुद्दओ) बन्नेनी (नराण) मनुष्यो मध्ये (अहमा) अधम (जाइ) 06 जाति हती (जहि) जे जातिमा (सव्वजणस्सवेसा) द्वेषी [वयं आपणे चन्ने [सोबाग निवेसणेसु चंडाळना घरे (वसीम) वस्या हता. ____ व्या०-हे नरेंद्र ! नराणां मनुष्याणां मध्ये अधमा निद्या जातिः श्वपाकस्य चांडालस्य जातिवर्तते, सा जातिईBE योरपि आवयोगता प्राप्ता, णं इति वाक्यालंकारे, यस्यां जातौआवां सर्वजनस्य देष्यौ अभूय. श्वपाकनिवेशनेषु DE1 चांडालगृहेषु वसीग आवामवसाव. ॥ १८ ॥ हे नरेन्द्र ! नर-मनुष्योना मध्यमां अधमनिंद्य जाति श्वपाक-चांडालनी छे ते जाति आपण वेयने गत-माप्त घइ हती ने ! For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥७९० ॥ 美美美 www.kobatirth.org जे जातिमां आपणे सर्व जनोना द्वेषपात्र थया हता अने चांडालना घरोमां वास कर्यो हतो. १८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीसे ये जाईइ उ पावियाए । वैच्छाभु सोवागेनिवेसणेसु ॥ सव्वस्स लोगस्स दुर्गे छणिज्जा । इहंतु कम्मे पुरे कैडाई (अ) तथा (पाविआर) पापी एवी (तीसे) ते [जाइड] जातिने विषे [सव्यस] सर्व (लोगस्स) लोकने [दुगु छणिजा ] जुगुप्ता करवा (मु) आपणे [सोवागनिबेसणेसु] चंडाळना घरने विषे [बुच्छा] वस्या हता [तु] अहीं [पुरे कडाइ ] पूछें कहेलां [कम्माइ] कर्मों प्रगट थया छे. १९ व्या० तस्यां च जतौ तु पापिकायां पापिष्टायां श्वपाकनिवेशनेषु चांडालगृहेषु वच्छामु इति उषितो निवासमका. कीदृशौ आवां ? सर्वस्य लोकस्य जुगुप्सनीयौ होलनीयौ . इह तु अस्मिन् जन्मनि पुराकृतानि कर्माणि प्रकटीभूतानीत्यर्थः. प्राचीनजन्मनि सम्यगनुष्ठानरूपाणि कृतानि तेषां फलानि जातिकुलबलैश्वर्यरूपाणि इह प्रकटितानि. तस्माद्धर्मकरणे प्रमादो न विधेय इत्यभिप्रायः ।। १९ ।। For Private and Personal Use Only 美美美美 ते पापिका=अति पापिष्ठ जातिमां तो आपणे श्वपाकनिवेशन=चांडालना घरोमां निवास करता हता. त्यारे आपणे केवा छता? | सर्व लोकोना जुगुप्सनीय = मूगथी तिरस्कार करवा योग्य हता, अहीं=आ जन्ममां तो हवे पूर्वे करेलां=प्राचीन जन्ममां सारी रीते अनुष्ठित=सारां कर्मोनां फळो=जाति, कुळ, बल, ऐश्वर्य; इत्यादि आ टाणे प्रकट थतां ते भोगवो छो. माटे धर्म करवामां जराय | प्रमाद करबो नहिं आवो अभिप्राय छे. १९ सोदांणिसि राय महाणुभागो । महदिओ पुनफलो वै वेभ ॥ चइन्तु भोगाई औसासयाई । आदाणहेउं अभिनिक्वमोहि भाषांतर अध्य०१३ ॥७९० ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य (सो) ते (दाणिसि) हमणां (महाणुभागो) मद्योटा प्रमाणवान तथा (महिद्वियो) महोटी ऋद्धिवाळा (पुण्णफलोववेओ) पुण्यना फळे HEभाषांतर यनसूत्रम करी सहित (राय) राजा छो. (आयाण हेऊ) ओदान (असासयाइ) अशाश्वत (भोगाई) भोगोने (चइतु) तजीने (अभिनिखमाहि) अध्य०१३ सर्वथा जाओ-दीक्षा ग्रहण करो. २० ॥७९॥ व्या०-हे राजन् ! यस्त्वं संभूतः पुरा आसीः, सोदाणिसिं स त्वमिदानी राजा चक्रधरो महानुभागो माहा- G ॥७९॥ म्यसहितो जातोऽसि. कीदृशो राजा ? महद्धिको विशाल लक्ष्मीकः, पुनः कीदृक् ? पुण्यफलोपपेतः पुण्यफलसहितः. तस्मादादान हेतोः आदानस्य चारित्रधर्मस्य हेतोः आदीयते सविवेकैरीलादानं चारित्र धनस्तस्य हेतोः अभिनिक्खमाहि अभिनिःक्रम ? अभि समंतानि:क्रम ? गृहपाशात्वं निस्सर ? साधुर्भवेत्यर्थः किं कृत्वा ? अशाश्वतान् भोगान त्यक्त्वा. पुराकृतस्य धर्मस्य फलं चेत्त्वयेदानी भुज्यते, तदेदानीमपि धर्ममंगीकुम? यतोऽग्ने शाश्वतसुखभाक् स्या इति भावः ॥ २०॥ धर्मस्य अकरणे दोषमाह हे राजन् ! जे तमे पूर्व संभूत हता ते आ टाणे राजा चक्रधर महानुभाग-माहात्म्य सहित थया छो. केवा राजा? महर्दिक= पुष्कळ लक्ष्मी युक्त तथा पुण्य फळसहित. माटे आ दान हेतुथी एटले चारित्र्यधर्मना हेतुथी विवेकी पुरुषो जेनुं आदान गृहण करे छे ते आदान, तेना अनुष्ठानार्थ अभिनिष्क्रममत्रतः नीकळी जवू; अर्थात् घरना पाशमांथी नीसरी जाओ, साधु थाओ. केम | Dt. करीने ? अशाश्वत=क्षणिक भोगोने त्यजीने, पूर्वे करेला धर्मनुं फळ जो तमे आ वखते भोगवोछो तो हमणा पण धर्म अंगीकार ३६ करो जेथी आगळ उपर पण शाश्वत सुखभागी थाओ; एवो भाव हे. For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ||७९२॥ इह जीविए रोय असासयंमि । धणिय तु पुण्णाई अकुव्वभाणो । उत्तराध्य मे सोअह मच्चु मुहोवणीए । धुम्म' अकाऊण परम्मि लोए ॥ २१॥ यनसूत्रम् BEI(गय) हे राजा! (ह) आ (जीविए) मनुष्यनु जीवित (घणि) अत्यंत (सासयम्मि) अशाश्वत (पुनाई) शुभ अनुष्ठानने (अकु. ॥७९२॥ व्यमाणो) नहि करतो एवो (से) ते (मच्चुमुद्दोवणीए) मृत्यु नजीक आवते सते (सोभइ) शोक करे छे तथा (धम्म) धर्मने (अकाऊण) नहि करीने (परम्मिलोप) परलोकमां जइने शोक करे छे. २१ व्या०-हे राजन् ! इहास्मिन् मनुष्यजीविते मनुष्यायुषि पुण्यान्यकुर्वाणोयो मनुष्यः सुकृतानि न करोति, स dil दुःकर्मभिर्मृत्युमुखपनीतः सन् धर्ममकृत्वा परस्मिन् लोके गतः शोचते पश्चात्तापं कुरुते. मरणसमये एवं जानाति हा कमया मनुष्यजन्म प्राप्य धर्मो न कृतः, इति चिंतां करोति. कथंभूते जीविते? धणियं तु अत्यंतमशाश्वते. ॥ २१ ॥ हे राजन् ! अहीं आ मनुष्य जीवित मनुष्यना आयुष्यमा पुण्य कर्म न करनारो पुरुष सुकृत नथी करातो ते दुष्कर्भवडे मृत्युJEL मुखे माप्त थइने धर्म न करीने परलोकमा जइने पण शोक-पश्चात्ताप करे छे, मरण समये एम जाणे छे के-'अरे ! में मनुष्यजन्म पामीने धर्म न कर्यो' आम चिंता करे छे. जीवित केवं? अतिशय अशाश्वत अत्यंत क्षणिक. २१ जहेहे सीहो य मियं गिहाय । मच्चू नर नेई हु अंतकाले । तस्स माया व पिया व भाची । कोलंमितम संहरा हवंति ॥ २२॥ (जहा) जेम (पह) आ (सीहो ब) सिंह (मिअ) मृगने (गद्दाय) ग्रहण करोने तेज प्रमाणे (मच्चु) यमराज [ ] निश्चे (अतकाले) For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंतकाळे पूर्ण थाय त्यारे (नर) मनुष्यने [तेइ पोताने वश (तम्मि कालम्मि) ते वखते (तस्स) ते [माया व माता के (पि व) उत्तराध्यपिता (भाया) भाइ (असहरा) अंशधर (न भयंति) थता नथी. २२ BE भाषांतर यनसूत्रम व्या०-यथेह संसारे सिंहो मृगं गृहीत्वा स्ववशं नयति, अत्र चशब्दः पदपूरणे, एवमनेनैव प्रकारेण, अनेनैव | IN अध्य०१३ ॥७९॥ दृष्टांतेन मृत्युमरणं, ह इति निश्चयेनांतकाले नरं मनुष्यं गृहीत्वा स्ववशं नपनि. तस्मिन् मनुष्यस्य मरणकाले माता, ॥७९३॥ च पुनः पिता, च पुनता, एते सर्व अंशधरा न भवंति, अंशं स्वजीवितव्यभागं धारयंति, मृत्युना नीयमानं नरं hd रक्षतोत्यंशधराः, स्वजीवितव्यदायका न भवतीत्यर्थः ॥ २२ ॥ पुनःखादपि न बायंते इत्याह जेम आ संसारने विषये सिंह मृगने झालीने पोताने वश करे छे (अहीं 'च' शब्द पादपूरणार्थ छे) एवीज रीते, आज दृष्टांतथी मृत्यु-मरण निश्चये अंतकाळ समये नर-मनुष्यने पकडीने पोताने वश्य करे छे ए मनुप्यना मरण टाणे तेनी माता के पिता अथवा भाइ ए सर्वे अंशधर थइ शकता नथी. पोताना आयुष्यनो अंश आवीने मृत्युए दोरी जबाता पाणीनुं रक्षण करे ते अंशधर. अर्थात् पोतानुं जीवित देवावाळा कोइ थता नथी. २२ मृत्युथी तो रह्य' किंतु दुःखथी पण रक्षण नथी आपी शकता. न तस्स दुक्खं विभजति नाइओ। न मित्तबग्गा न सुया न बंधवा ॥ इको सयं पचणुहोइ दुक्खं । कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ॥ २३ ।। Je (तस्स) ते मनुष्यना [दुक्ख दुःसने (नाइओ) दूरना स्वजनो [न विभय ति विभाग करी शकता नथी, तथा [मित्तबम्गा] मित्रवों न] विभाग करी शकता नथी [सुआ न] करी शकता [वधया न बंधुओ [दुख्ख] दुःखने [पच्चणुद्दोर] अनुभवे छे [कम्म] कर्म For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ॥७९४॥ 1JEजे ते [कत्तारमेवं कर्त्तानेज (अणुजाइ) अनुसरे छे. २३ उत्तराध्ययनसूत्रम् व्या-पुनः हे राजन् तस्य मनुष्यस्य अर्थात् दुःखार्तस्य नरस्य दुःखं शारीरिक मानसिकं च दुःखं ज्ञातयः स्वजना न विभजति, दुःखस्य विभागिनो न भवंति. पुनर्मित्रवर्गा मित्रसमूहाः, पुनः सुता अंगजाः, पुनर्वाधवा ॥७९४॥ भ्रातरोऽपि न दुःखं विभजति. तदा किं भवतीत्याह-एकोऽयं जीवोऽसहायी स्वयमेव दुःखां प्रत्यनुभवति, एकाकी स्वयमेव दुःख असातावेदनीयं भुक्त. कथं स्वजनादिवर्गे सति एको दुख भुक्ते ? तत्राह-कर्म शुभाशुभरूपं कर्तारमेव अनुघाति अनुगच्छति. यः कर्मणां कर्ता स एव कर्मणां भोक्ता स्यादिति भावः. यदुक्तं-यथा धेनुसहस्रेषु । वत्सो विंदति मातरं । तथा पुरा कृत कर्म । कारमनुगच्छति ॥ १ ॥ २३ ॥ पुनरपि हे राजन् ! ते मनुष्यनु-अर्थात् दुःखपीडित नर दुःख-शारीरिक तथा मानसिक दुःखमां ज्ञाति बननो विभाग लइ शकतां नथी दुःखनां विभागी थतां नथी. तेम मित्र वर्ग=मित्रना समूहो बळी सुत=अंगथी उत्पन्न थयेला पुत्रों के बांधवो भाइओ पण दुःखमां विभाग लेता नथी, त्यारे केम थाय छे! ते कहे छे-एक आ जीव असहायी पातेन दुःखोने अनुभवे छे. एकलो पोतेज आसाता वेदनीय दुःख भोगवे छे. स्वजनादि वर्ग छतां केम एकलोज भोगवे छे ? त्यां कहे छ के-जे कंइ शुभ या अशुभ JE कर्म कराय ते कर्त्तानी पाछळज जाय छे, जे कर्मनो का तेज कर्मना फळोनो भोक्ता थाय; एवो भावार्थ छे. कडुं छे के-'जेम हजारो धेनुमा बाछडो पोतानी पाने गोती लइ तेनी पांसे रहे छे तेम पूर्व करेलु कर्म कर्त्ताने खोळी काढी तेनी पाछळ जाय छे.२३ चिचा दपयं च चउप्पयं च । खितं गिहं धणं धनं च सव्वं ॥ सकम्मप्पयीओ अवसो पयाइ । परं भवं सुंदरं पावगं वा For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ।।७९५|| www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [सम्मपनीओ] कर्म संघाते है एवो तथा [असो] पराधीन एवो [सम्ब] सर्व [दुपय च] द्विपदने तथा [चउप्पय' [च] चतुष्पदने तथा [खित '] क्षेत्र [ग] घरने [धण] धनने [धन्न च] शाळी विगेरे धान्यने [चिवा] तजीने [सुंदर ] सारा [वा] अथवा [पावग' ] अशुभ एवt [पर भव] परभव प्रत्ये [पयाइ] जाय हे २४ व्या० - अशरण भावनामुक्त्वा एकत्वभावनां वदति - अयं स्वकर्मात्मद्वितीयो जीवः, स्वस्य कर्म स्वकर्म, | स्वकर्म एवात्मनो द्वितीयं यस्य स स्वकर्मात्मद्वितीयः, स्वकर्मसहितोऽयं जीवः सुंदरं देवलोकादिस्थानं वाऽथवा पापकं नरकादिस्थानं, एवंविधं परं भवमन्यलोकं अवशः सन् प्रयाति किं कृत्वा ? द्विपदं भार्यादि च पुनश्चतुःपदं गजाश्वादि, क्षेत्रं ईक्षुक्षेत्रादि, गृहं सप्तभौमिकादि, धनं दीनारादिरजतस्वर्णादि, धान्यं तंडुलगोधूमादि, नशब्दाद्वस्त्राभर णसाररत्नादि, एतत्सर्वं त्यक्त्वा हित्वा जीवः परभवे व्रजतीत्यर्थः ॥ २४ ॥ अथ मरणानंतरं पश्चात्तस्य पुत्रकलत्रादयः किं कुर्वतीत्याह अशरण भावना कहीने हवे एकत्वभावना कहे छे-आ, पोताना कर्म रूप जेने बीजो सहाय छे एवो जीव=पोतानुं कर्म एन | जेने द्वितीय छे एवो जीव; सुंदर-देवलोकादि स्थान अथवा पापक नरकादि स्थान, एवा प्रकारना परभव-अन्यलोकने अवश बनीने पामे छे. केम करीने? द्विपद-भार्यादिक मनुष्योने तथा चतुष्पद हाथी घोडा वगेरेने, क्षेत्र - शेरडीना खेतरो, गृह-सात सात माळनी महेलातो, धन- सोनारूपाना नाणां, धान्य-घडं चोखा वगेरे; 'च' शब्दयी वस्त्र आभरण रत्न इत्यादि सर्वने खजीने जीव परभवे जाय छे. २४ हवे मरणने अनंतर तेना स्त्रीपुत्रादिक शुं करे छे ? ते कहे छे For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ।।७९५ ।। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥७९६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तं इगं तुच्छसरीरगं से । चिईगयं दहिय उ पावगेणं ॥ भज्जा य पुत्तोवि य नायआ य । दायारमनं अणुसंकनंति ||२५| | ते मृत थयेलानु एकक एकलु तुच्छ शरीर चितिगत चितामां पडेलु' करीने पावक = अग्निवडे बाळीने पछी तेनी भार्या तथा पुत्र अने ज्ञातिभ, अन्य दातार तेमनुं भरणपोषण देनार कोइ बीजाने अनुसरे छे. २५ व्या० - से इति तस्य मृतस्य पुरुषस्य तत् एककं जीवरहितं, अत एव तुच्छ असारं शरीरं, किं ? चितोगतं इमसानाग्निप्राप्तं पावके दग्ध्वा भस्मसात् कृत्वा, पश्चात्तस्य भार्या च पुनः पुत्रोऽपि च पुनर्ज्ञातयः स्वजनाः, एते सर्वे|ऽपि अन्यं दातारं सनु संक्रमंति कोऽर्थः ? यदा कचित्पुरुषो म्रियते, तदा तच्छरीरं प्रज्वाल्य तस्य स्त्रीपुत्रबधवा अन्यं स्वनिर्वाहकर्तारं धनादिदायकं सेवते, सर्वेऽपि स्वार्थसाधनपरायणा भवंति. २५ से=ते मृत थयेला पुरुषनुं ते एकक-जीवरहित होइ तुच्छ असार शरीरने चितामा राखीने, स्मशानानि गत करी, पावकवढे दाह करी - भस्मीभूत करीने पश्चात् तेनां भार्या, पुत्र तथा ज्ञाति=स्वजनो, ए बधाय अन्य दाताने गोती तेना अनुयायी बने छे. शुं का ? ज्यारे कोई पुरुष मरे त्यारे तेना शरीरने सळगावी तेना स्त्री पुत्र बांधव वगेरे पोताना निर्वाहने माटे धनादि देनारा कोइ अन्यने गोती तेने सेवे छे. सर्वे स्वार्थ साधनमां तत्पर थाय छे. २५ उवणिजइ जीवियमप्पमायं वण्णं जरा हरइ नरस्स राया || पंचालराया वगणं सुणाहि । माकासि कम्माई महालयाई हे राजा! नरनु जीवित वगर प्रमादे मृत्यु पांसे कमोंज लइ जाय छे, अने जरा वर्ण-रुपने हरे छे माटे हे पंचाळ देशना राजन् ! आ मारं वचन सांभळो, महालय-मद्दोटा महेल बंधाववा वगेरे कर्मों मा करशो, २६ For Private and Personal Use Only 我儿儿儿 भाषांतर अध्य०१३ ॥७९६॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ॥७९७॥ हे राजन् ! नरस्य प्राणिनो जीवितमायुःप्रमाणमप्रमादं यथा स्यारथा कर्मभिर्मत्यवे उपनीयते. पुनर्जीविते सत्यपि उत्तराध्ययनसूत्रम् | नरस्य वर्ण शरीरसौंदर्य जरा हरति, वृद्धावस्था रूपं विनाशयति. तस्माद्ध पंचालराज! हे पंचालदेशाधिप! वचनं मम वाक्यं शृणु ? महालयानि महांति मांसभक्षणादीनि कर्माणि त्वं मा कार्षीः? ॥ २६ ॥ अथ नृपतिराह॥७९७॥ हे राजन् ! नरमाणीना जीवित आयु प्रमाणने जरा पण प्रमाद गफलत न थाय तेची रीते कर्मोए मृत्यु समीपे लइ जवाय छे, जीवित छतां पण मनुष्यना वर्ण शरीर सौंदर्यने जरा हरी ले छे. वृद्धावस्था रुपनो विनाश करे छे, माटे हे पांचाल देशाधिप ! वचन मारुं वाक्य सांभळ. महालय महोटां मांस भक्षणादि कर्मो तुं मा करीश. २६ आ सांभळी राजा बोल्योअहंपि जाणामि जहेह साह । जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं ॥ भोगा इमे संगकरा हवंति । जे दुजया अज्ज अम्हारिसेहि हे साधो ! आ संसारमा जेम छे ते हुपण अधुजाणुछु, के जे तमे मने आ वचनवडे शीखव्यु. आ गधा भोग संगकर संसार | पंधनकारक होय छे के जे आजे अमारा जेवाये दुर्जय होय छे. २७ व्या०--हे साधो ! इह जगति यथा वर्तते तथाहमपि जानामि, यत्त्वं मे मम एतद्वाक्यं साधयसि शिक्षांस, J| शिक्षारूपेण साधु कथयसि, परं किं करोमि? इमे प्रत्यक्ष भुज्यमाना भोगाः संगकरा भवंति बंधनकरा भवंति. कीदृशा इमे भोगाः? हे आर्य ये भोगा अस्मादृशैर्गुरुकर्मभिर्दुर्जया दुस्त्याज्या:. ॥ २७ ॥ BEL हे साधो ! आ जगत्ने विषये जेम व छे तेम हुँ पण वधुं जाणुं हूं, जे तमे मने आ वाक्य शीखवो छो, शिखामणरूपे सारं | | कहो छो. पण शुं करूं? आ प्रत्यक्षभोगवाता भोगो संगकर थाप हे बंधनकारक बने छे. केवा ? आर्य जे भोगो अमारा जेवा गुरु For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | कर्मी जनोए दुर्जय दुस्त्याज्य होय छे. २७ उत्सराध्य-DE भाषांतर हत्थिणापुरमि चित्त । दणं नखई महद्रियं ।। कामभोगेसु गिद्धेणं । नियाणमसुहं कडं ।। २८॥ पनसूत्रम् अध्य०१३ हे चित्र! हस्तिनागपुरमा महोटी ऋद्धिवाळा नरपतिने जोइने कामभोगमा लोलुप बनेला में अशुभ निदान [नियाणु"] कथु हतुं. २८116 ॥७९८॥ व्या०-हस्तिनागपुरे भो चित्र! मया निदानं कृतं. कीदृशं निदानं ? अशुभं भोगाभिलाषत्वादशुभं. किं कृत्वा? bel ॥७९८॥ नरपति सनत्कुमारचक्रिणं दृष्ट्वा. कीदृशं चक्रि गं ? महर्दिकं. कीदृशेन मया? कामभोगेषु गृद्धेन, इंद्रियसुखलोलुपेन.२८३ | हस्तिनापुरने विषये हे चित्र ! में निदान कर्यु. केवु निदान ? अशुभ, एटले भोगाभिलापने लांधे अशुभ. केम करीने ? महोटी JE) ऋद्धिवाळा नरपति सनत्कुमार चक्रीने जोइने हुँ ते वरुते कामभोगमां गृद्ध-इंद्रिय जन्य सुखमा लोलुप बनेल हतो. २८ तस्स मे अप्पडितस्स । इमं एयारिसं फलं ॥ जाणमाणोविजं धम्मं । कामभोगेसु मुच्छिओ ॥ २९ ॥ ते अप्रतिकांत=नियाणाथी निवृत्त न थयेला मने आ आवा प्रकारनु फळ मळ्यु': जे धर्मने जाणतो छतो हु कामभोगमा मूछित थयो.२९|| व्या-तस्य निदानस्य प्राग्भवकृतभोगाभिलाषस्य इदं प्रत्यक्ष भुज्यमानं एतादृशं वक्ष्यमाणं फलं जातं. कथंभू-| JE तस्य तस्य निदानस्य ? अप्रतिक्रांतस्य अनालोचितस्य. यस्मिन्नवसरे हस्तिनागपुरे आवां अनशनं कृत्वा प्रसप्ती, तदा चक्रधरस्य स्त्रीरत्नस्य केशपाशो ममचरणे लग्नः, तदा मया निदानं कृतं, तदा त्वयाहं निवारितः, भो भ्रातस्त्वं निदान माकार्षीः, चेन्निदानं कृतं स्यात्तदा मिथ्यादुष्कृतं दातव्यं, त्वया इत्युक्तेऽप्यहं निदानान्न निवृत्त इत्यर्थः. जं इति यस्मा- | कारणात् अहं जिनोक्तं धर्म जानन् अपि कामभोगेषु सुतरामतिशयेन मूर्छितोऽस्मि, इंद्रियसुखेषु लुब्धोऽस्मि. नोचेद् For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir यनसूत्रम् ॥७९९|| उत्तराध्य- | ज्ञानस्य एतदेव फलं, ज्ञानी विषयेभ्यो विरक्तः स्यात् , अहं ज्ञाने सत्यपि विषयेषु रमामि, तन्निदानस्यैव फलमित्यर्थः. IDEभाषांतर ते निदान-एटले पूर्वभवमा करेला भोगाधिलापनुं आ प्रत्यक्ष अनुभवातुं (आगळ कहेवाशे तेवू) फळ थयु. ते निदान केQ? Ra अपतिक्रांत=अनालोचित=अविचारित; जे टाणे हस्तिनागपुमा आपणे बेय अनशन करवा मृता त्यारे चक्रधरनी स्त्रीनो केश अंबोडो Je! मारा पगने अड्यो तेज वखते मे निया' कयु, त्यारे तमे मने वार्यो-हे भाइ ! नियाj मा करो, कदाच थइ जाय तो मिथ्या दुष्कृत ॥७२९॥ D. देवु ? आम तमे का तो पण हुं निदानथी निवृत्त न थयो जेथी हुँ जिनोक्त धर्म जाणतां छतां पण कामभोगमा अतिशय मूर्छित छु; इन्द्रियमुखोमां लुब्ध बन्यो. ज्ञान- फल एज के ज्ञानी विषयोथी विरक्त थाय; हुँ तो ज्ञान छतां विषयोमा रमु छ, ए नियाणानुंज फळ छे.२० नानो जहा पंकजलावसण्णो दर्छ थलं नाभिसमेह तीरं ।। एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा । न भिक्खुणो मग्गमणुब्वयामो जेम कीचडवाला पाणीमां खूचेलो हाधी स्थल सामे देखाता तीरप्रदेशने जोवाने तीरे आवी शकतो नथी एम अमे कामगुणोमां लोलुप होइने भिक्षुना मार्गने अनुस। शकता नथी ३० __व्या०-हे साधो ! यथा नरागो हस्ती पकजलावसक्तः, अल्पजले यहुपंके अवसन्नोऽत्यंतं निमग्नस्तीरं दृष्ट्वापि न समेति, तीरस्य तटस्य अभिमुख सोऽपि तटं न प्रामोति, तीरं तुदूरतः परंतु स्थलमपि दृष्ट्वा न उच्चभूमि प्रामोति. एवममुना प्रकारेण अनेन दृष्टांतेन वयमित्यस्मादृशाः कामगुणेषु शब्दरूपरसगंधस्पर्शादिषु गृद्धाः लोभिनो भिक्षोर्मार्ग साधुमार्ग साध्वाचारं नानुव्रजामो न प्राप्नुमः, तस्मारिक कुर्मः? वयं विषयिणो जानंतोऽप्यजानंत इव जाता इत्यर्थः. For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् भाषांतर अध्य०१३ ॥८००॥ ॥८.०॥ हे साधो ! जेम कोइ थोडं जळ अने घणा कादवाळा जलाशयमा गग्न चेलो हाथी तीर देखे छे तो पण कोठे आवतो नथी | तीर सामे छे छतां तटने प्राप्त नथी थतो. वीर तो दूर रापण वचमा स्थळ जेवी उंची भूमि उपर पण नथी आवी शकतो एम आ दृष्टांतथी अमे=अमारा जेवा काम गुण शब्द स्पर्श रूप रस गंधादिकमां गृद्ध-लोलुप बनेला भिक्षु-साधुना मार्ग-साधुना आचारने नथी अनुसरता, शुं करीये ? अमे विषयी थया तेथी जाणता छतां पण अजाण जेबा रह्या. ३० अचेइ काला तुरयंति राईओ। नयावि भोगा पुरिसाण निचो॥ उचिच्च भोगा पुरिसंचयंति। दुमंजहा खीणफलं वपक्खी काळ चाल्यो जाय छे. रात्रीयो उतावळ करे छ; पुरुषोना भोगो पण नित्य नथी कारणके भोगो पुरुषो पांसे आवीने पाछा पुरुषने त्यजी दीये छे. जेम वृक्षमा रहेता पंखी ए वृक्षनां फळ क्षीण थाय त्यारे ते द्रुम वृक्षने त्यजे छे. ___ व्या०-अथ मुनिः संसारस्य अनित्यत्वेन उपदेशं ददाति. हे राजन् ! कालोऽत्येति अतिशयेन गच्छति. कालस्य किं याति? आयुर्यातीत्यर्थः. रात्रयस्त्वरयंति उत्तालतया व्रजति. हे राजन् पुरुषाणां भोगा अपि अनित्याः, भोगाः पुरुषमुपेत्य स्वेच्छया आगत्य पुरुषं त्यजंति. पुरुषा यद्यपि भोगांस्त्यक्तुं नेच्छंति, तथापि भोगाः स्वयमेव पुरुषांस्त्यजंतीत्यर्थः के किं यथा ? पक्षिणः क्षीणफलं वृक्षं यथा त्यति. ॥३१॥ हवे मुनि संसारना अनित्यत्वनो उपदेश करे छे-हे राजन् ! काळ तो अत्यंत वह्यो जाय छ; (काळ एटले आयुष्य चाल्यु जाय छे.) रात्रीयो उतावळी थाय छे, झडपथी चाळी जाय छे. हे राजन् ! पुरुषोना भोगो पण अनित्य छे, भोगो पुरुषने मळोने स्वेच्छाथी आवीने पाछा पुरुषने त्यजी दीये छे जोके पुरुषो तो भोगने तजवा इच्छता नथी पण भोगो पोतेज पुरुषाने तजी दे छे For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥८०१ ॥ منستان www.kobatirth.org केनी पेठे ? जेम जे वृक्षनी फळ संपत्ति क्षीण थड़ जाय त्यारे ते द्रुमने पक्षियो यजी दे छे तेम भोगो पुरुषने त्यजे छे. ३१ जह तंमि भोगे च असत्तो । अजाइ कमाइ करेहि रायं ॥ धम्मे टिओ सपयाणुकंपी। तो होहिसि देवो इओ बिउब्वी ॥ ३२ ॥ कदाच तमे भोगोने तजवा अशक्त हो तो हे राजा ! आर्य कर्म करो. धर्ममां स्थित रही सर्व प्रजा उपर दयाभाववाळा थाओ तेथी तमे आ भव पछी विकुर्वी वैकिय देहवाळा देव थशो. ३२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या०-हे राजन् ! यदि त्वं भोगांस्वक्तुमशक्तोऽपि, असमर्थोऽसि, तदा हे राजन्! आर्याणि शिष्टजन योग्यानि कर्माणि कुरु ? पुनर्धर्मस्थितः सर्वप्रजानुकंपी भवेति शेषः सर्वप्रजापालको भव ? सर्वाच ताः प्रजाश्च सर्वप्रजाः, तास्व| नुकंपते इत्येवंशीलः सर्वप्रजानुकंपी. हे राजन! आर्यकर्म करणात् त्वं वेब्बी वैक्रिशक्तिमान् देवो निर्जर इतो भवादग्रे भविष्यसि ॥ ३२ ॥ हे राजन् ! जो तमे भोगोनो त्याग करवा असमर्थ हो तो हे राजन् ! आर्य-शिष्टजनोने उचित कर्मों करो, वळी धर्ममां स्थित रही सर्व प्रजानुकंपी ' थाओ' (एटल शेष लेबुं.) सर्व प्रजामां अनुकंपा - दया जेने के एवा शीलवाळा=सर्व मजनुकंपी, हे राजन् आर्य कर्म करवाथी तेम विकुर्वी वैक्रियशक्तिवाळा देव-निर्जर, आ भवने अंते शो. ३२ ॥ न तुझ भोगे चऊग बुद्धी । गिद्धस आरंभपरिग मोह कओ इत्तिओ विपलावो । गच्छामि राधं आमंतिओसि ॥ ३३ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ॥ ८०१ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ ८०२॥JE ॥८०२॥ भोगोने त्याग करवानी तमारी बुद्धि थती नथी किंतु आरंभ परिग्रहने विषये तमे गृद्ध-लोलुप छो. में आटलो विप्रलापः-वाणीनो उत्तराध्य- व्यय-व्यर्थ कयों. हे राजा! हुं जाउहु. तमारी रजा में लीधी छे. ३३ ।। यनसूत्रम् व्या-हे राजन्नहं गच्छाम्यहं ब्रजामि, मया त्वमामंत्रितोऽसि, मया त्वं पृष्टोऽसि, धातृनामनेकायस्वात्. हे राजन् । तुज्झ इति नव भोगांस्त्यक्तुं बुद्धिर्नास्ति, अनार्यकार्याणां भोगा एव कारणानि संति. अतो भोगाननार्यकार्याण्यपि त्यक्तुं मतिर्नास्ति. पुनरारंभपरिग्रहेषु त्वं गृद्धोऽसि लुब्धोऽसि, आरंभपरिग्रहान्न त्यजसीत्यर्थः एतावान् विप्रलापो विविधवचनोपन्यासो मोघः कतो निरर्थकः कृतः, जलविलोडनवव्यों जातः. तस्मात्कारणादथाहं त्वत्सः शकाशादन्यत्र व्रजामि. तवाज्ञास्तीत्युक्त्वा मुनिर्गतः ॥ ३३ ॥ अथ भुनौ गते सति ब्रह्मदत्तस्य किमभूत्तदाह हे राजन् ! हवे हुँ जाउँ छ. में तने आमंत्रित कर्यो छे अर्थात् मे तमने पूछी लीधुं छे धातुना अनेक अर्थ होय छ तेथी आमं-11 | त्रित एटले में तारी रजा लइ लीधी छे; हे राजन् ! तारी भोगोनो त्याग करवानी बुद्धि नथी थती, अनार्य कार्यनां कारणो भौगोज DR. थाय छे; आथी भोगरूप अनार्य कार्यो त्यजवा मति नथी यती. फरी तुं तो आरंभपरिग्रहमां गृद्ध छो आरंभपरिग्रहने पण तुं त्यजतो PE नथी. माटे आटलो में विमलाप-विविध वचनोना उपन्यास में मोघ निरर्थक कर्यो. पाणी बलोचवा जेवो व्यर्थज थयो. तेथी हवे all हुं तमारी आगळथी अन्यस्थाने जाउं छं. तमारी आज्ञा छेज-आटलुं बोली चित्रमुनि गया. ३३ मुनि गया पछी ब्रह्मदत्तनुं शुं थयु ? ते कहे छे.पंचालरायावि य बमदत्तो । साहुस्स तस्सा वयणं अकाउ ॥ अणुत्तरे भुंजिय कामभाए । अणुत्तरे सो नरए पविष्टो॥ For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१३ | ॥६०३॥ पंचाल देशनो राजा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ते साधुना वचनो न करीने-न स्वीकारीने, अनुत्तर कामभोगी भोगवीने अनुतर नरकमा प्रविष्ट उत्तराध्ययनसूत्रम् 19 थया. [सेना कर्म भारे होवाधी साधुना वचनने अवकाश न मळ्यो.] ३४ ।। _ व्या०-पांचालदेशानां राजा पांचालराजो ब्रह्मदनश्चक्रवर्तिरप्यनुत्तरे सकलनरकावासेभ्य उत्कृष्टे अप्रतिष्टान1८०३|| 26 नाम्नि प्रविष्टस्तत्रोत्पन्न इत्यर्थः. किं कृत्वा ? अनुत्तरान् सर्वोत्कृष्टान् कामभोगान् भुंक्त्वा. पुनः किं कृत्वा ? तस्य चित्रजीवसाधोर्वचनुमुपदेशवाक्यमकृत्वा. निदानकारकस्य नरकगतिरेव. तस्य गुरुकर्मत्वान्न साधोरुपदेशावकाशो जात इत्यर्थः ॥ ३४॥ पांचालदेशना राजा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती अनुतर=सकळ नरकवास करतां उत्कट अप्रतिष्ठान नामना नरकमा उत्पन्न थयो. केप करीने ? अनुत्तर सर्वोत्कृष्ट कामभोगो भोगवीने बळी | करीने ? ते चित्र साधुनां वचन उपदेश वाक्यो न करीने निदानकारPF कने नरकगतिज मळे. ३४ . चित्तोवि कामेहिं विरत्तकामो । उदग्गचारित्ततवो महेसी।। अणुत्तरं संजम पालइत्ता । अणुत्तरं सिद्धिगई गओत्ति बेमि कामभोगथी जेनी अभिलापण निवृत्त थइ छे तथा उदन-मुण्य साधुओ चार अने तपवाळा महर्षि चित्रमुनि पण अनुत्तर-सवोत्कृष्ट समय पाळीने अनुत्तर-सर्वाधिक सिद्धि गतिने पाम्या. ३५ व्या-चित्रोऽपि पूर्वभवचित्रजीवसाधूरपि महर्षिर्महामुनिरनुत्तरं सर्वोपरिवर्तिसिद्धिस्थानं गतः. किं कृत्वा ? अनुत्तरं जिनाज्ञाविशुद्धं सप्तदशविधं संयम पालयित्वा. कथंभूतः स साधुः कामेभ्यो विरक्तकामः, भोगेभ्यो विर For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥८०४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्ताभिलाषः पुनः कीदृशः सः ? उदग्रचारितपाः, उदयं प्रधानं साध्वाचारे सर्वविरतिलक्षणं दशविधरूपं चारित्रं, | तपो द्वादशविधं यस्य स उदग्रचारित्रतपाः एतादृशः सन् मोक्षं प्राप्तवित्रजीवमुनिरिति सुधर्मास्वामी जंत्रस्वामिनं | ब्रवीति. हे जंबू ! अहं तवाग्रे इति ब्रवीमि ॥ ३५ ॥ इति चित्रसंभृतीयं त्रयोदशमध्ययनं संपूर्ण ॥ १३ ॥ इति | श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्यायश्रीलक्ष्मी कीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां चित्रसंभूतीयम|ध्ययन संपूर्ण ॥ १३ ॥ चित्रमुनि पण = पूर्वभवना चित्रजीव साधु पण महर्षि=महामुनि, अनुत्तर सर्वनी उपर वर्त्तता सिद्धिस्थाने गया. केम करीने ? अनुत्तर=जिनाज्ञा विशुद्ध सत्तरमकारनो संयम पालीने, केवा ते साधु ? कामभोगथी विरक्त = निवृत्ताभिलाष तथा उदग्र-प्रधान साधुना आचार, सर्वविरति लक्षण दशविध चारित्र तथा द्वादशविध तपःसंपन्न यह मोक्ष पाम्या चित्रजीव मुनि, एम सुधर्मास्वामी कहे छे के हुं एम बोलुं कुं. ने अहिं चित्रसंभूतीयनामक त्रयोदश अध्ययन पूर्ण थयुं. एवीरीते लक्ष्मी कीर्तिगणिना शिष्य लक्ष्मीवल्लभ मूरिए निर्मित उत्तराध्ययनना तेरमा अध्ययननी वृत्ति समाप्त थाय छे. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ॥ ८०४ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अथ चतुर्दशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ उत्तराध्यअथ हुपुकारीय नामनुं चतुर्दश अध्ययन भाषांतर यनसूत्रम् 36 अध्य०१४ त्रयोदशेऽध्ययने हि निदानस्प दोष उक्तः, चतुर्दशेऽध्ययने हि निर्निदानस्य गुणमाह-अत्र मुख्यतस्तु निदान॥८०५॥ राहित्यमेव मुक्तेः कारणमित्युच्यते. तत्र संप्रदायः-यो तो गोपदारको चित्रसंभूतपूर्वभवमित्रो साधुसेवाकरौ देवलोकं ॥८०६॥ Ill गती, ततश्च्युत्वा क्षितिप्रतिष्टिते नगरे इभ्यकुले दावपि भ्रातरौ जातो. तत्र तयोश्चत्वारः सुहदो जाता. तत्र भोगान् | भुक्त्वा स्थविराणामंतिके च धर्म श्रुत्वा सर्वेऽपि प्रव्रजिताः, सुचिरकालं संयममनुपाल्य भकं प्रत्याख्याय कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे पद्मगुल्मविमाने षडपि सुहृदः पल्योपमायुष्का देवत्वेनोत्पन्नाः, तत्र येते गोपजीववर्जा देवाचत्वारस्ततदच्युत्वा कुरुजनपदे इपुकार पुरे अवतीर्णास्तत्र प्रथम इषुकारराजा जातः. प्रयोदश अध्ययनमा निदान (नियाण)नो दोष कह्यो, हवे आ चतुर्दश अध्ययनमा निनिदान (नियाणा रहित)ना गुण कहेवाशे, Tad आमा मुख्यत्वे तो निदानरहितपणुंज मुक्तिनुं कारण छे एम कहेवाय छे. आ विषयमा संपदाय [परंपराथी चाल्यो आवतो प्रसंग] | 51 | एम छे के-जे वे गोपबाळको चित्र तथा संभूतना पूर्वभवना मित्रो हना अने जे साधु पुरुषोनी सेवा करता तेथी देवलोकने पामेला, त्यांथी च्यवोने क्षितिप्रतिष्ठित नामना नगरमां कोइ धनाढ्यने त्यां बेय भाइभो अवतर्या, त्यां तेओने चार मित्रो थया. आ छये | FE जणा स्थविरोनी समीपे धर्म श्रवण करी सर्व प्रवजित-साधु-थया. घणा काळ सुधी संयम पाळी अन्ननु प्रत्याख्यान लइ काळ पाम्या Dell अने सौधर्मकल्पमा पद्मगुल्म विमानने विषये ए छये मित्रो पल्योपम आयुष्यवाळा देवभावे उत्पन्न थया. त्यां ते वे गोपचालक For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥८०६॥ जीव सिवायना चार देवो त्यांथी च्यवीने कुरु देशमा इपुकारपुरने विषये चारे अवतर्या, तेमा प्रथम तो इषुकारनगरनो राजा थयो. 36 | भाषांतर द्वितीयस्तस्येव राज्ञः पदेवी कमलावती जाता, तृतीयस्तस्यैव राज्ञो भृगुनामा पुरोहितः संवृत्तः, चतुर्थस्तस्यव |JE अध्य०१४ पुरोहितस्य भार्या संवृत्तः, चतुर्थस्तस्यैव पुरोहितस्य भार्या संवृत्ता. तस्या वासिष्टं नाम गोत्रं, यशा इति माम जातं. स च भृगुपुरोहितः प्रकाम संतानलाभमभिलषति, अनेकदेवोपयाचनं कुरुते, नैमित्तिकान् प्रश्नयति. तौ बावपि पूर्व- ॥८०६॥ भवगोपदेवौ वर्धमानावधिना एवं ज्ञातवंती, यथा आवामेतस्य भृगुपुरोहितस्य पुत्रौ भविष्यावः ततः श्रमणरूपं कृत्वा द्वावपि भृगुगृहे समायाती, सभार्येण भृगुणा वंदितो, सुखासनस्थौ धर्म कथयतः. तथोरंतिके सभार्येण भृगुणा श्रावकवतानि गृहीतानि. पुरोहितेन कथितं भगवन् ! अस्माकमपत्यं भविष्यति न वा? इति. साधुभ्यामुक्तं भवतां द्वौ । दारको भविष्यतः, तौ च वालावस्थायामेव प्रत्रजिष्यतः, तयोर्भवद्भ्यां व्याघातो न कार्यः. तो प्रव्रज्य घनं लोकं प्रतिबोधयिष्यतः, इति भणित्वा तौ देवौ स्वस्थानं गतो. ततोऽचिरेण च्युत्वा पुरोहितभाया उदरेऽवती . बीजो जीव ते राजानी पट्टराणी कमलावती नामे थइ त्रीजो तेज राजानो भृगु नामे पुरोहित थयो अने चोथो एज पुरोहितनी भर्या थइ, जेनुं वासिष्ठ गोत्र तथा यशा नाम हतुं. ए भृगु पुरोहित अत्यंत संताननी अभिलाषा राखतो इतो अने संतान माप्ति माटे अनेक देवोनी याचना करतो, कोइ सामुद्रिक जाणनार मळे तो तेने पोतानो हाथ बतावी संतान बाबत पूछतो. पेला बे पूर्वभवना गोपचालक देव थयेला तेओए वृद्धि पामता अवधिज्ञानथी जाण्यु के-'आपणे बेय जणा आ भृगुपुरोहितना पुत्र थइ.' तेथी बन्ने श्रमणरूप धारण करीने भृगुने घरे आन्या, त्यारे पोतानी भार्या सहित भृए तेओने वंदन कयु, सुखासनपर बेसाड्या त्यारे तेआए For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir J उत्तराध्यपनसूत्रम् | भाषांतर अध्य०१४ 11८०७|| 1८०७॥ धर्म कहेवा मांड्यो. भृगु तथा तेनी भार्याए आ बेयनी पासे श्रावकवत ग्रहण कर्या. पुरोहितते का के-हे भगवन् ! अमने अपत्य प्रजाम्यशे के नहिं ? त्यारे साधुए कई के तभने बे पुत्रो थशे पण ते बन्ने बाल्यावस्थामांज प्रव्रज्या ग्रहण करशे तेमां तेओने तमारे व्याघात अडचण=न करवी, तेओ दीक्षा लइने घणां लोकोने प्रतिबोध आपशे; आटलं कहीने ते बन्ने देवो पोताने स्थाने गया, ते पछी योडाज समयमां च्यवीने पुरोहितनी भार्याना उदरमा अवतीर्ण थया. ततोऽसौ पुरोहितः सभार्यो नगरानिर्गत्य प्रत्यंतग्रामे स्थितः, तत्रैव ब्राह्मणी प्रसूता, दारको जाती, लब्धसंज्ञो तो ताभ्यां मुनिमार्गविरक्तताकरणार्थमेवं शिक्षितौ, य एते मुंडितशिरस्काः साधवो दृश्यन्ते, ते बालकान्मारयित्वा तन्मांसं खादंति, तत एतेषां समीपे श्रीमद्भिन कदापि स्थेयं. अन्यदा तस्माद् ग्रामादेतौ क्रीडतो पहिनिर्गतो, तत्र पथश्रांतान साधनागच्छतः पश्यतः. ततो भयभ्रांतो तो दारकावेकस्मिन् वटपादपे आरूढी. साधवस्तु तस्यैव वटपादपस्थाधः पूर्वगृहीताशनादिभोजनं कर्तुं प्रवृत्ताः वटारूढौ तौ कुमारौ स्वाभाविकमन्नपानं पश्यतः. ततचिंतितुं प्रवृत्ती, नैते यालमां. साशिनः, किंतु स्वाभाविकाहारकारिणः, कचिदेतादृशाः साधवोऽस्माभिष्टा इति चिंतयतोस्तयोर्जातिस्मरणमुत्पनं. ततः प्रतिवुद्धौ साधून वंदित्वा गतौ मातृपितृसमीपं. अध्ययनोक्तवाक्येस्ताभ्यां मातापितरौ प्रतियोधितो. तद्धनलिप्सुं राजानं च राज्ञी प्रतियोधितवती. एवं पडपि जीवा गृहीतप्रव्रज्याः केवलज्ञानमासाद्य मोक्षं गताः. अथ सूत्रं व्याख्यायते आ पुरोहित पोतानी भार्याने साथे लइ नगरमांथी नीकळीने पांसेना गामडामां जइने स्थिति करी. त्या ब्राह्मणीने प्रसव थयो For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥८०८ ॥८०८॥ अनेचे बाळको जोडलारूपे जन्म्या. आ बाळको जरा समजणा थया लारथी तेओनां मावापे ते भोने मुनिमार्गथी विरक्त करवा | PC माटे शिखवव मांडयु के-'आ जे मूडेलां माथांवाळा साधुओ देखाय छे ते बाळकोने लइ जइ तेने मारीने खाय छे तेथी तेओने भाषांतर अध्य०१४ | हुकडा पण कदापि न ज. एक समये ते ग्रामथी बहार आ बे बाळको रमता रमता नीकळ्या त्यां चालीने थाकी गयेला साधु| ओने आवता जोया; आ साधुओने जोइ भवथी वेबाकळा ययेला बे बाळको दोडीने एक वडना झाड उपर चढी गया, एज वडना झाड तळे साधुओ आचीने बेठा अने प्रथम लावेल अन्ननुं भोजन करवा लाग्या. पेला वड उपर चडेला बे वाळको उपरथी जुए छे तो स्वाभाविक अन्नपान जोयुं तेथी ते विचारवा मांड्या के-'आ साधुओ तो स्वाभाविक अन्नादिकनुं भोजन करे हे एमनी पांसे | बाळमांस जेवू तो कंइ देखातु नथी. क्यांय आपणे आवा साधुओ जोया छे' आम विचारता तेश्रोने जातिस्मरण-पूर्वभवतुं स्मरण थइ आव्यु, तेथी प्रतिबुद्ध थया. नीचे उतरी साधुओने वंदन करी मातापिता पांसे जइने अध्ययनोक्त वाक्योवढे मावापने प्रतिबोध | आप्यो. आ पुरोहितनुं धन लइ लेवा इच्छता राजाने तेनी राणीए प्रतिबोध आप्यो. एम ए छये जणा प्रवज्या ग्रहण करी केवळ| ज्ञान मेळची मोक्षे गया, हवे सूत्रनुं व्याख्यान आरंभाय है; देवा भवित्ताण पुरे भयंमि । केई चुआ एगविमाणवासी ॥ पुरे पुराणे ऊसुयारनामे । खाए समिद्धे सुरलोअरम्म।।१।। सकम्मसेसेण पुरा करणं । कुलेसुदग्गेसु य ते पसूया । निविण्णसंसारभया जहाय । जिणिदमग्गं सरणं पवण्णा॥२॥ | पूर्वभवमा एकज विमानां निवास करनारा केटलाक देवो थइने, पछी ते देवभावथी च्युत थयेला तेओ इषुकार नामे प्रख्यात देवलोक जेवा रमणीय समृद्धिवाळा पुरातन पुरमा पूर्वे करेला पोताना कर्मो अवशेष शुभांशवडे उदग्र-उचा-कुळमा प्रस्त-जन्म्या, For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 5 त्यां संसारना भयधी कंटाळी विषय सुखना त्याग करी जिनेन्द्र मार्गर्नु शरण पाम्या जिनधर्मनो आधय लीधो. २ उत्तराध्य-SER । व्या०-गाथादयेन संबंधः केचिल्जीवाः, येषां केनापि नाम न ज्ञायते. यतो हि पूर्व चतुर्णामपि जीवानां नाम पनसूत्रम् JEभाषांतर अध्य०१४ नोक्तं. यो पुनही चित्रसंभूताभ्यामवशेषावभूती, नाविभ्यव्यवहारिणः सुतत्वेनोत्पनी, तयोः पुनश्चत्वारो मित्रजीवाः, JI ॥८.९|| तेषामपि नाम केनापि न ज्ञायते. एवं षडपि जीवाः पूर्वमनिर्दिष्टनामानोऽभूवन्, अहो! पश्यत धर्मस्य माहात्म्यं ! 13611८०९॥ जीवानां भव्यकर्मपरिपाकत्वं च ! केचिज्जीवाः पूर्वस्मिन् भवे देवीभूय देवत्वं प्राप्य मौधर्मदेवलोके नलिनीगुल्मविमाने एकत्र विनासं कृत्वा स्वकर्मशेषेण, स्वस्य कर्मणः पुण्यप्रकृतिलक्षणस्य शेषेण ते षडपि जीवा इषुकारनाम्नि पुरे पुराणे पुरातने नगरे, पुनः ख्याते सर्वत्र प्रसिद्धे, पुनः समृद्धे धनधान्यपूर्णे, पुनः सुरलोकवत् रम्ये, उदने उत्कटे क्षत्रिया-50 JE दिके कुले प्रसूता उत्पन्नाः कथंभूतेन स्वकर्मशेषेण ? पुरातनेन पूर्वजन्मोपार्जितेन, ते जीवा इषुकारपुरे समुत्पद्य, तत्र संसारभयात् निर्वेद्य निर्वेदं प्राप्य, चतुर्गतिभ्रमणभयादुद्वेगमासाद्य, तदा जहाय इति भोगन् त्यक्त्वा, जिनेंद्रमार्ग जिनेंद्रेणोक्तो मार्गो जिनेंद्रमार्गम्तं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं मोक्षस्य मार्ग शरणं जन्मजरामृत्युभयापहं प्रपन्नाः प्राप्ता इति गाथाद्वयार्थः ॥ २॥ JE केटलाक जीवो के जेना नाम जाण्या नथी; कारण के-पूर्वे चारे जीवोनां नाम न कह्यां, जे चे चित्र तथा संभूतना अवशेषभूत | इता ते इभ्य धनाढ्य व्यवहारीने त्या पुत्र थइ उत्पन्न यया, तेना मित्रो चार, तेनां पण नाम नथी जाण्यां; आ छये जीव पूर्वे | जेना नामनो निर्देश करवामां आव्यो नथी तेवा धया. अहो ! धर्मनुं महात्म्य तो जुओ ! अने ते साचे भव्य कर्मना केवा परिपाक For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit ३६ थाय छे ते पण ध्यान दइ अवलोको, केटलाक जीवो पूर्वभवे देव थइने सौधर्म देवलोकमां नलिनी गुल्मविमानने विपये एकत्र | J& उत्तराध्य भाषांतर यनसूत्रम् | निवास करी पोताना पुण्य प्रकृतिरूप पुराण=पुरातन पूर्वजन्मोपार्जित कर्मना शेषने लीधे ते छये जीवो इपुकार नामथी प्रख्यात, [DE अध्य०१४ अतिसमृद्धि धनधान्यादि पूर्ण देवलोक जेव। रमणीय पुरातन पुरमा उदग्र उत्कट क्षत्रियादि कुळमां उत्पन्न थया. आ छये जीवो 116 ॥८१०॥ इषुकार पुरमा अवतरीने संसारभय चतुर्गतिमां भटकवारूप संसारना भयथी उद्वेग पामीने तेज टाणे भोगोनो त्याग करी जिनेंद्र| |८१०॥ कथित ज्ञानदर्शना चारित्ररूप=मार्ग-जन्मजरा मृत्यु भयने टाळनार मोक्ष मार्गने प्रपन्न पाम्या. ३ पुमत्तमागम्म कुमारदोवि । पुरोहिओ तस्स जसा य पत्ती ।। विसालकित्ती य तहेसुयारो । रायत्य देवी कमलावइ य IIMI पुरुषपणाने पामीने ए बेय कुमार थया, पुरोहित तथा तेमी यशा नामनी पत्नी तथा विशाळ कीर्तिमान् इषुकार राजा तथा आ|| भयमांज देवी [राजानी राणी थपली] कमलावती: एम ए छये जीवो उत्पन्न थया. ३ __ व्या०-तेषां षण्णामपि पृथक भेदं दर्शयति सूत्रकारः-तेषां षण्णां मध्ये द्वौ जीयौ गोपौ तु पुंस्त्वमागम्य पुरुषवेदत्वं प्राप्य कुमारी जाती, भृगुव्राह्मणस्य पुत्रौ समुत्पन्नौ. अत्र कुमारत्वेन एवमुक्तो. यौ हि अपरिणीतावेव दीक्षा जगृहतुः तृतीयो जीवः पुरोहितो भृगुनामा ब्राह्मणश्वासीत्. तद्भार्या यशानाम्नी चतुर्थो जीवः तथा विशाला विस्तीर्णा कीर्तिर्यस्य स विशालकीर्तिः, एतादृशा इपुकारनामा राजा पंचमो जीवः. च पुनरिह राज्ञो भवे एव तस्यैव राज्ञो देवी भ राज्ञी कमलावती जातेति षष्टो जीवः. एते षडपि जावाः स्वस्वायुःक्षये च्युत्वा केचिदग्रतः, केचितत्पश्चात्पूर्वसंबंधेन | एकत्र नगरे मिलिता इत्यर्थः ॥ ३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते छये जणानो पृथक भेद सूत्रकार देखगडे छे-ते छथेना मध्यमा जे चे जीव गोपचाळकना हता ते तो पुरुषपणाने पामीने उत्तराध्य| पुरुषवेदत्व ने प्राप्त थइने=कुमार-अर्थात् भृगु ब्राह्मणना पुत्ररूपे उत्पन्न थया, एटले ए बे कुमारे तो परण्या पहेलांज दीक्षा ग्रहण करी भाषांतर यनसूत्रम् अध्य०१४ IJE लीधुं, बीजो जीव भृगुनामा ब्राह्मण पोते पुरोहित थयो; तेनी भार्या यशा चतुर्थ जीव तथा विशाल कीर्तिमान एवा इषुकार राजा JE 1८१२॥ BE छट्टो जीव; आ छये जीवो पोनपोताना आयुः क्षय थतः च्यवीने कोइ आगळ तो कोइ पाछळ एम पूर्वसंबंधने लीधे एकज नगEl ॥८११॥ | रमा भेळा मल्या. ३ | जाईजरामच्चुभयाभिभूया । बहिविहाराभिनिविट्ठचित्ता ।। संसारचक्कस्स विमोक्खणट्ठा । दाण ते कामगुणे चिरत्ता | जाति जरा मृत्यु इत्यादि भयथी अभिभूत पराभव पामेला तथा बहिविहारादिकमा जेओनु चित्त निविष्ट थयेलु होय छे तेवा पE बेय कुमारो साधुओने संसारचक्रमांथी विमोक्षण-घटकारो थवा माटे कामभोगमा विरक्त थया. ४ ___व्या०-तौ द्वौ कुमारी कामगुणेभ्यः शब्दरूपरसगंधस्पर्शेभ्यो विरक्तौ जातो. किं कृत्वा ? दळूण इति दृष्ट्वा साधून विलोक्य, अथवा शहादिविषयान् मोक्षप्राप्तिविघ्नभूतान् दृष्ट्वा, किमर्थ ? संसारचक्रस्य विमोक्षार्थ, संसारस्य चातुर्गतिकस्य यच्चक्रं योनिकुछभेदात् समूहः, चक्रवभ्रमणं वा, तस्य विमोक्षणार्थ निवारणार्थ. कीशी ती कुमारी? जाजिरामृत्युभयाभिभूतौ जन्मजरामरणभयेन पीडितो. पुनः कीदृशौ तौ कुमारौ? यहिर्विहाराभिनिविष्टचित्तौ, बहिःसंसाराविहारः स्थान बहिविहारो मोक्षस्तस्मिन्नभिनिविष्टं बद्धादरं चित्तं ययोस्ती बहिविहाराभिनिविष्टचित्तौ.४ ते थे कुमारो कामगुण-शब्द, रूप, रस गंध तथा स्पर्श; ए पांचेयमां विरक्त थया, केम करीने? साधुओने जोइने, अथवा For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥८१२॥ भाषांतर अध्य०१४ 11८१२॥ शब्दादि विषयोने मोक्ष प्राप्तिमा विघ्नभूत जोहने; शा माटे ? संसार एटले चतुर्विध गतिरूप चक्र-योनि तथा कुळना भेदथी समूह, 19 | अथवा चक्रनी पेठे भ्रमण होवाथी संसार चक्र; तेमांथी छुटवा माटे, ते कुमारो केवा ? जन्म, जरा, मृत्यु इत्यादि भयवडे परिपा|डित वळी बहिः संसारनी बहारनो विहार-मोक्ष, तेने विषये अभिनिविष्ट छे चित्त जेनुं एवा; अर्थात् मोक्षमा परमादरवाळ जेनुं चित्त छे तेवा. ४ पियपुत्तगा दुनिकि माहणस्स । सकम्मीलस्स पुरोहियस्स ।। सरित्तु पोराणिय तत्थ जाई । तहा सुचिन्नं तवसंजमं च पोताना कर्ममा तत्पर ए पुरोहित ब्राह्मणना बेय प्रिय पुत्रो ते गाममा पौराणिकी-पूर्वभवनी जातिनु स्मरण करीने तथा पूर्वे सम्यकप्रकारे आचरेला तपः तथा संयमने याद करीने कामभोगथी विरक्त थया. (पमा संबध छे) ५ व्य-ब्राह्मणस्य भृगुनाम्नः पुरोहितस्य राज्ञः पूज्यस्य द्वौ प्रियपुत्र को लघुवल्लभपुत्रौ यावास्तां, ताभ्यां द्वाभ्यां पुरोहितस्य वल्लभपुत्राभ्यां तथा तेन प्रकारेण तपो द्वादशविधं, च पुनः संयम सप्तदशविधं सुचीर्ण सुतरामतिशयेन निदानादिशल्यरहितेनाचरितं संचरितं. किं कृत्वा ? तत्र तस्मिन् ग्रामे एव पुरातनी जाति स्मृत्वा, जातिस्मरणं प्राप्य, कीदृशस्य पुरोहितस्य ? स्वकर्मशीलस्य, स्वकीयं ब्राह्मणस्य यजनादिकं षड्विधं कर्म स्वकर्म, तदेव शीलमाचारो यस्य स स्वकर्मशीलस्तस्य, राज्ञः शांतिपुष्ट्यादिकारस्य. ॥५॥ ब्राह्मण-भृगुनामना राजना पूज्य मनाता पुरोहितना बे पियपुत्र लघुवल्लभ पुत्रो जे हता तेमणे तपः बार प्रकार तथा संयम सत्तर प्रकारनो जे सुचीर्ण हता-अर्थात् सम्यकप्रकारे नियाणा आदिक शल्य हितरुपे जे आचरेलां. केम कराने ? द गाममाज For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य धनसूत्रम् ॥८१३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्वनी जाति स्मरीने = जातिस्मरण पामीने पुरोहित केवा ? स्वकर्म शीळ = पोतानुं = त्राह्मणनुं यजनादिक छ प्रकार कर्म एज स्वकर्म, तेने आचरवानुं जेतुं शील छे ते स्वकर्म शील, राजाना शांतिक पौष्टिक करवावाळा. ते कामभोगे असज्जनाणा | माणुस्सएस जे आवि दिव्वा ॥ मुक्खाभिकखी अभिजायसड्ढा । तातं उवागम्म इमं उदाहु || ६ || ते मनुष्य संबंधि कामभोगमां आसक्त न थरला तेमज दिव्य-देव संबंधी भोगने पण नहि चाहनारा, कि तहि मात्र मोक्षनीज अभिकांक्षावाला भने अभिजात श्रद्धा=अर्थात् जेओने तत्त्वरुचि उत्पन्न थह चूकी है एवा बन्ने कुमारो तात पिता पांसें जइने आ प्रमाणे बोल्या. ६ व्या० तो द्वौ पुरोहितकुमारौ नातं स्वजनकमुपागम्य तातसमीपे आगत्य इदमग्रे वक्ष्यमाणं वचनमुदाजहतुः. वाक्यमूचतुरित्यर्थः कीदृशौ तो कुमारौ ? मानुष्यकेषु कामभोगेषु असजमाणा इति असजो अनादरो अपि तु पुनर्ये दिव्याः कामभोगास्तेष्वप्यसज्जौ. एतावता मनुष्यदेवसंबंधिकामसुखेषु त्यक्तोद्यमौ पुनः कीदृशी तो ? मोक्षाभिकांक्षिणी सकलकर्मक्षयाभिलाषिणौ इत्यर्थः पुनः कीदृशौ तौ ? अभिजातश्रद्धौ उत्पन्नतत्वरुची इत्यर्थः ।। ६ ।। | किं ऊचतुरित्याह ते बेय पुरोहितना कुमारो तात= पोताना बापने पांसे जइ = पितानी समीपे आवीने आ ( हवे तरतज कहेवाशे ) वचन बोल्या. केवा ते कुमारो ? मानुष्यक = मनुष्यना कामभोगमां अनासक्त तेम दिव्य=देवलोक संबंधी काम भोगमां पण निःस्पृह अर्थात् मनु For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० १४ ॥ ८१३॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१४ ॥८१४॥ प्यलोक तथा देवलोक बन्नेना कामसुखोने विषये त्यक्त छे अभिलाष जेणे एवा वळी अभिजातश्रद्ध, एटले जेने तत्त्वरुचि उत्तराध्य उत्पन्न थइ छे तेवा. ६ यनसूत्रम् 36 असासयं दटु इमं विहारं । बहु अंतरायं न य दीहआउं ।। ॥८१४॥ तम्हा गिहिसिन रई लभानो । आमंतयामो चरिस्सामु मोणं ।। ७ ।। Jull [शु बोल्या ते कहे छे,] आ मनुष्यत्व अशाश्वत छे तथा बहु अंतरायवाळो छ एम जोइने तेमज दीर्घ आयुष्य पण नथी ते कारणथी अमे घरमा रति प्रीति नथी पामता माटे आपने आमत्रीये छीये रजामागीयें छीये; के अमें मौन-मुनिधर्मनु आचरण करीप?. व्या०-भो तात! आवां गृहे रति सुखं न लभावहे. तस्मात्कारणात् आवां भवंतमामंत्रयावहे, त्वां पृच्छाबहे, आवां द्वावपि मौनं चरिष्यावः, मुने वो मौनं साधुधर्ममंगीकरिष्याव इत्यर्थः. आवां गृहे रति न लभावहे. तत् किं कृत्वा ? इमं विहारं, इमं मनुष्यत्वावस्थानमशाश्वतमनित्यं दृष्ट्वा इति. कीदृशं विहारं ? यहवंतरायं, बहवोतराया यस्मिन् स बहवंतरायस्तं च पुनस्तत्र विहारे मनुष्यभवे दीर्घ पल्योपमसागरोपमादिकमायुर्नास्ति, मनुष्याणां हि स्वल्पमेवायुबहवोतरायाः संति. तस्माद् गृहे आवयोः सर्वथा प्रीतिर्नास्तीत्यर्थः ॥ ७ ॥ भो तात ! अमे बेय घरमां रति-मुख नथी पामता; ते कारणथी अमे आपने आमंत्रीये पूछी छीयें, अमे बेय मौन=मानभाव-साधुधर्मनो अंगीकार करीशुं. केमके अमने घरमां प्रीति नथी थती. केम ? आ मनुष्यत्वावस्थान मनुष्यरूपे रहेQ अशाश्वत= अनित्यम्छे बळी ते विहारमा घणाय अंतरायो छे तेम ए मनुष्यभवमा पल्योपम के सागरोपम वगेरे आयुष्य पण नथी. केमके | For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१४ | ॥८१२॥ मनुष्योनुं तो स्वल्पज आयुष्य होय छे तेमां वळी अनेक अंतराय नडतरो होय तेथी घरमा अमारा बेयनी सर्वथा प्रीति थती नथी. उत्सराध्य-10E यनसूत्रम् | अह तायगो तत्थ मुणीण तेसि । तवस्स वाघायकरं वयासी ॥ इमं वयं वेदविदो वयंति । जहा न होई असुयाण लोगो अर्थ-ते पछी तातक-पिता ते समये मुनि थया तैयार थयेला ते पुत्रोने तपना व्योधात करनारे बोल्या के-वेदविद्पुरुषो एवु वचन ॥८१५॥ बोले छे के-पुत्रविमाना असुत पुरुषोने परलोक नथी मळतो. ८ व्या०-अथ पुत्राभ्यामेवमुक्ते सति तद्वाक्यानंतरं तातकस्तयोर्जनको भृगुपुरोहितस्तत्रावसरे तत्र ग्रामे वा तेसिमिति तयोस्तपोव्याघातकरमिदं वचनमवादीत्. कथंभूतयोस्तयोः ? मुन्यो वश्रमणयोः, द्रव्यतस्तु ब्राह्मणपुत्रावगृहीतवेषौ, भावतस्तु धृतसंयमोद्यमौ तौ, तस्माद्भावमुन्योरित्यर्थः, किमवादीदित्याह-हे पुत्रौ ! वेदविदो वेदज्ञा इदं वचनं वदंति, यथा येन प्रकारेणासुतानां जनानां लोको गति स्ति. न विद्यते सुतो येषां ते असुताः, तेषामसुताना मपुत्राणां. यतो हि पुत्रं विना पिंडदानाद्यभावात्. क्षुधया म्रियमाणत्वेनार्तध्यानपरायणत्वेनाऽगतित्वं पितृणां स्यात्. २. यदाह स्मृतिः-अपुत्रस्य गतिनास्ति । स्वर्गो नैव च नैव च ॥ तस्मात्पुत्रमुग्वं दृष्ट्वा । पश्चाद्धर्म समाचरेत् ॥ १॥८॥ हवे ज्यारे पुत्रोए आम का स्वारे तेना वचन पछी तातक-ए बेयनो जनक-भृगु पुरोहित ते अवसरे अथवा ते गाममा DE. ते बेय पुत्रोने तपनो व्याघात करनारं आq वचन बोल्या. ते पुत्रो केवा ? मुनि=भावथी श्रमण ययेला द्रव्यथी तो ब्राह्मण DE| पुत्रो, वेश धारण नथी कों. मात्र भावथी संयम धारण करवाने उद्यत थयेला, तेथीज कयुके-भावमुनि तेना पिता शुं बोल्या ? | ते कही देखाडे छे. हे पुत्रो ! वेदवि वेदने जाणनारा आq वचन बोले छे, के-अपुत्र जनोनी लोकगति नथी थती; केमके पुत्र कला DDDDDDDDLS For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्य०१४ ॥८१६॥ JE विना पिंड प्रदानादिना अभावने लीधे भूखेमरवू पढे एवं आध्यान थतां पितृोनी अगति थाय स्मृतिमा लख्यु छ के-'अपुत्रनी | उत्तराध्य गति नथी, तेम तेने स्वर्ग पण नथीज म. माटे पुत्रमुख जोइने पछीथी धर्माचरण कर.८ यनसूत्रम् अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे । पुत्ते परिठप्प गिहसि जाया ।। ॥८१६॥ मुचाण भोगे सह इत्थियाहिं । आरण्णया होइ मुणी पसत्था ॥९॥ हे जात-पुत्रो! वेद अध्ययन करीने, तथा विनोने परिवेषण करीने जमाडीने, तेम घरने विषये पुत्रोने स्थापित करीने अने स्त्रीओनी साथे भोग भोगवीने ते पछी अरण्यमा जइने तमे प्रशस्त मुनि थजो. ९.. व्या०-हे पुत्रो! युवामारण्यको भूत्वा तदनंतरं प्रशस्ती मुनी भूयास्तां. परं किं कृत्वा ? पूर्व वेदान् चतुरोऽधीत्य पठित्वा, पुनर्विवान् परिवेष्य ब्राह्मणान् भोजयित्वा, पुनः पुत्रान परिष्टाप्य कलासु निपुणान् कृत्वा, गृहभारयोग्यान् | पुत्रान् गृहं भलाप्य पुनः स्त्रीभिः सह भोगान् भुंक्त्वा , इति भृगुपुरोहितेनोक्तं. ॥ ९॥ हे पुत्रो ! तमे थेय आरण्यक वानप्रस्थ थइने पछी प्रशस्त मुनि थजो. केम करीने ? पूर्व वेदो चारेने भणीने पाठे करीने वळी विप्र ब्राह्मणोने परिवेषण करीने, अर्थात् जमाढीने तथा पुत्रोने परिस्थित-कलामां निपुण करीने एटले घरनो भार उपाडवा योग्य Gll पुत्रोने घरनो बोजो भळावीने अने स्त्रीओनी साथे भोगो भोगवीने आवी रीते भृगुपुरोहिते पुत्रोने वचन कयां.. will सोअग्गिणा आयगुणधणेणं । मोहानिलपज्जलणाहिएण ॥ संतत्तभावं परितप्पमाणं । लालप्पमाणं यहा पहुंच॥१०॥ पुरोहियं तं कमसो सुणयंतं । निमंतयंतं च सुए धणेणं ।। जहक्कम कामगुणेप्सु चेव । कुमारगा ते पसमिक्ख व॥१२ Fer Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ ८१७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (बे गाथान संबंध मेळो दोवाथी युग्म छे.) आत्मगुण = रागादिक जेमां इंधन-काष्टरूप के वळी मोहरूपी वायुवडे अधिक प्रज्वलनने पामेला शोकानिवडे संतप्तभाव - जेनु अंतःकरण तपी गयुं छे एवा, तथा परिताप्यमान-मनमां अत्यंत संताप करता तेमज अनेक प्रकारे बहुवार लालप्यमान-दोन वचनो बोलता तथा क्रमे क्रमे अनुनय करता=बीनवता, वळी सुत-पुत्रोने धनवडे निमंत्रण करता | तेमज अनुकमे कामभोगवडे पण निमंत्रण करता दवा ते पुरोहित-पिताने मोहावृत बुद्धियाळा जोइने ते कुमारो आप्रमाणे वाक्य बोल्या. १० ११ व्या० - युग्मं द्वाभ्यां गाथाभ्यां ॥ तौ पुत्रौ भृगुपुरोहितं स्वजनकमाहतुः, तौ कुमारौ तं पुरोहितं स्वजनकं वाक्य - मृचतुरित्यध्याहारः किं कृत्वा ? पसमित्रख प्रकर्षेण अज्ञानाच्छादितमति समीक्ष्य नेति द्वितीयगाथया संबंधः किं कुर्वतं तं पुरोहितं ? क्रमशोऽनुक्रमेणानुनयंतं, स्वाभिप्रायेण शनैः शनैस्तौ पुत्रोप्रति ज्ञापयंतं. पुनः किं कुर्वतं ? धनेन सुतौप्रति निमंत्रयंतं च पुनर्यथाक्रमं कामगुणै भोगेनिमंत्रयंतं यथाक्रममिति यथावसरं, पूर्वमित्युक्तं, वेदानधीत्य. ब्राह्मणान् भोजवित्वा, भोगान् भुंक्त्वा, इत्याद्यवसरं दर्शयंतमित्यर्थः इति द्वितीयगाथार्थः अथ पूर्व गाधाया अर्थः'सोयग्गीति पुनः कीदृशं पुरोहितं ? शोकाग्निना संतप्तभावं, शोकवह्निना संतप्त भावं, शोकवहिना प्रज्वलितचित्तं. अत एव परितप्यमानं समंताद्भस्मसाज्जायमानं पुनः कीदृशं पुरोहितं ? बहुधा बहुप्रकारेणवेदादिवचोयुक्त्या बहु वारंवारं यथास्यात्तथा लालप्यमानं, मोहवशाद्दीनहीनवचांस्यतिशयेन भाषमाणं कीदृशेन शोकाग्निना ? आत्मगुणधनेन, आत्मनः स्वस्य शोकाग्नेरेव सहचारित्वेन तद्गुणकारित्वात् शोकानेरेवोद्दीपकत्वाद्गुणा रागादय आत्मगुणास्ते एवं For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१४ ८१७॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JE धनमुदीपनं यस्य स आत्मगुणेधनस्तेन पुनः कीदृशेन ? मोहानिलप्रज्वलताधिकेन, मोहानिलादज्ञानपयनादधिकं प्रज्व-13 उत्तराध्य|लनमस्येति मोहानिलाधिकप्रज्वलनस्तेनाज्ञानपवनाधिकजाज्वल्यमानेन, प्राकृतत्वादधिकशब्दस्य परनिपातः॥१०॥११JE भाषांतर यनसूत्रम् PE अध्य०१४ अथ तौ कुमारावुत्तरं बदनः॥८१८॥ (चे गाथार्नु युग्म छे.) त बे पुत्रो भृगु पुरोहित=तना पिता ने बोल्या. ते चे कुमारो तेना जनक पुरोहितने वाक्य बोल्या; एम ॥८१८॥ अध्याहार छे. केम करीने ? प्रसमीक्ष्य प्रकर्षे करी अज्ञानवडे आच्छादित छे मति जेनी एवा जोइने (आम बीजी गाथामा संबंध छे.) ते पुरोहित केवा ? क्रमशः=क्रमे करी अनुनय करता, अर्थात् पोतानो अभिप्राय प्रकट करता, फरी केवा ? धनवडे पुत्रोने निमंत्रता ||JE MAA तथा कामगुण भोगवडे पण निमंत्रता. यथाक्रम एटले यथा अवसर पूर्वे का तेम-वेद भणीने ब्राह्मणोने भोजन करावीने; भोगो भोगवीने इत्यादिक अवसर दर्शावता एवा; एम बीजो गाथानो अर्थ कह्यो हवे पूर्व गाथानो अर्थ कहेवाय छे. सोअग्गीति=फरी केवल ते पुरोहित? शोकाशिवडे जेनुं अंतःकरण संतप्त छे एवा, शोकवाद्विथी जेनुं चित प्रव्रज्वलित छे एवा, अने तेथीन परितप्य मान-चारेकोरथी अंतर्दाइ अनुभवता फरी केवा? बहुप्रकारे वेदादि वचनोनी युक्तियोबडे वारंवार लालप्यमान-मोहवश बनी दीनवst चनो अतिशय बोलता एवा, शोकामि केवो ? आत्मगुण एटले शोकनाज सहचारी होइ तद्गुणकारी शोकामिना उद्दीपक रागादिक । आत्मगुणोज जेनां इन्धन-उद्दीपन छे; वळी मोहरूपी वायुवडे जेतुं अधिक प्रज्वलन थाय, अर्थात् अज्ञान पवनयी अधिक जाज्वल्यमान थता शोकानिवडे अत्रे प्राकृत होवाथी अधिक पदनो समासमां परनिपात थयो छे. १० ११ वेया अहीया न हवात ताणं । भुत्ता दिया निति तमंतमेणं ।। ES For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्यजया ग पुत्ता न हवंनि ताणं । को नाम ते अणुमनिज एयं ॥ १२ ॥ भाषांतर अधोत चेदो प्राण रक्षण देनार थता नथी, तेम भोजन करावेलो द्विजो पण निश्चये तमतम अंधता मित्र नरकमां ला जाय छै' अध्य०१४ | JE बळी जाया भार्या तथा पुत्रो रक्षण करनार थता नधीः तो तमारा ए वचनने कोण अनुमति आपे? १२ । ॥८१९॥ ___व्या०-पूर्वोक्तस्य वेदानधीत्य प्रबजितव्यमित्येतस्योत्तरं-भो तात ! वेदा अधीतास्त्राणं न भवंति, वेदामरणा-36/८१९॥ वेदपाठिनं न त्रायंते. यदुक्तं वेदविद्भिरेव-शिल्पमध्ययनं नाम । वृत्तं ब्राह्मणलणं शरणं ।। वृत्तस्थं ब्रामणं प्राहु-नैतरान वेदजीवकान् ॥१॥ पुनर्भो तत ! द्विजा ब्राह्मणा भुक्ता भोजिताः 'तमंतमे इति' तमस्तमसि नरकमिभागे राद्र रारवकादिके नयंति प्रापयात. णमिति वाक्यालंकारे. तमसोऽपि यत्तमस्नमस्तमस्तस्मिन् तमस्तमसि, ते हि ब्राह्मणा भोजिताः कुमार्गपशुबधाश्रवसेवनादौ प्रवर्तते. अतस्तड्रोजनदानं नरकहेतुकं. च पुनः पुत्रा जाता उत्पन्नास्त्राणं शरण न भवति, नरकपातान्न रक्षतीत्यर्थः. उक्तं च वेदानुगैरेव-यदि पुत्राद्भवेत् स्वर्गो । दानं धर्मो निरर्थकः । धनधान्यव्ययं कृत्वा । रिक्तं कुर्यान्न मंदिरं ॥ १॥ यह पुत्रादुलीगोधा-स्ताम्रचूडा तथैव च ॥ तेषां च प्रथम स्वर्गः । पश्चाल्लोको गमिष्यति ॥ २॥ तदा भो तात ! तव तद्वचनं को नाम पुरुषोऽनुमन्येत? सविवेकः पुमान् कः सम्यक् कृत्वा जानीने इत्यर्थः. इत्यनेन वेदाध्ययन, ब्राह्मणानां भोजनं, पुत्राणां गृहे स्थापनमेतत्त्रयस्योत्तरं दत्वा भोगान् भुक्त्वा इत्यस्योत्तरं ददतः ॥ १२ ॥ पूर्वोक्त 'वेद भणीने प्रवज्या लेवी' इत्यादि वचन- उत्तर कहे छे. भो तात ! वेदोने भणवाथी ए वेदो त्राण-शरण नथी यता. For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥८२०॥ ८२ | वेदो वेद पाठीने मरणथी नथी रक्षण आपी शकता: वेदविद पुरुषोए कब छ के-'अध्ययन तो कला छे, ब्राह्मणतुं लक्षण तो | आचरण छे आचारमा जे दृढ होय तेनेज ब्राह्मण को छे, बीजा वेद उपर जीविका चलावनार नहि.१' हे तात ! ब्राह्मणो जमाख्या |SET भाषांतर अध्य०१४ होय तो ते तमंतम अंध तमस नरक भूमि भागमा अथवा रौद्र कुंभीपाक रौरवादि नरकमां लइ जाय-पहोंचाडे णं निश्चये तमसनु। पण जे तमस छे ते तमस्त मस कहेवाय छे. जे जमाडेला ब्रामणो कुमार्ग पशुवध आश्रय सेवनादिकमा प्रवृत्त थाय माटे तेवा | Gl ब्राह्मणोने जमाडवु नरक हेतु थाय छे बळी जन्मेला पुत्रो पण त्राण-शरण देनार थइ शकता नथी. नरकपातथी रक्षण नथी करी | शकता. काछे के-'जो पुत्रथीन स्वर्ग मळ होय तो दानादि धर्म निरर्थक छे, तो पछी धन धान्य वगेरेथी शा सारं घरने खाली करवू ? १; 'दुली घो तथा कुकडां, घणा पुत्रोवाळां होय छे तेओने स्वर्गमा पहेलुं स्थान मळे अने वीजा लोको पाछळथी जइ शके.१ त्यारे हवे हे तात ! तमारुं ते वचन क्यो पुरुष माने ? क्यो विवेकवान् पुरुष ठीक माने ? आ उपरथी वेदाध्ययन, ब्राह्मण भोजन, पुत्रोनु घरमा स्थापन; ए त्रणेनुं उत्तर देवाइ गयु; हवे 'भोग भोगवीने जजो' एम जे पिताए कहेल छे तेनुं उत्तर आपे छे. १२ खणमतसुक्खा बहकालावा। पगामइक्वा अनिकामसुक्खा। संसारमुख्खस्स विपक्ख भूया । वाणो अणत्याण उ कामभोगा ॥ १३ ।। कामभोग क्षणमात्र सुख आपनारा अने बहु काळसूधी दुःख देनारा छे; वळी प्रकाम-अत्यंत-दुःखरूप छे अने निकाम-स्वल्प सुखवाळा होवाथी संसार मोक्षना विपक्षकभूत-विरोधि छे अने अनर्थनी खाण छे. व्या०-हे तात! कामभोगा अनर्थानां खानिसहशा वर्तते, अनर्थानामैहिकपारलौकिकदुःखानामुत्पत्तिस्थानसदृशा For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भवंतीत्यर्थः. तदेवाह-कीदृशाः कामभोगाः ? क्षणमात्रसुखाः क्षगमात्र सेवनकाले एव सुखयंतीति क्षगमात्रसुखाः भाषांतर उत्तराध्ययनसूत्रम् पुनः कीदृशाः? बहुकालदुःखाः, बहुकालं नरकादिषु दुखं येभ्यस्ते बहुकालदुःखाः. पुनः कीदृशाः ? प्रकामदुःखाः, प्रका- अध्य०१४ JE ममत्यंतं दुखं येभ्यस्ते प्रकामदुःखाः पुनः कीदृशाः? अनिकामसुखाः, अप्रकुष्टसुखास्तुच्छसुखा इत्यर्थः पुनः कीदृशाः? ॥८२१॥ 26 संसारस्य भवभ्रमणस्य मोक्षः संसारमोक्षस्तस्य विपक्षभृताः शत्रुभूताः, संसारभ्रमणवृद्धिकारिण इत्यर्थः ॥१३॥ हे तात ! कामभोग अनर्थोनी खाण समान छे, अर्थात् आ लोकनां तथा पारलाकिक दुःखरूप अनर्थोना उत्पत्ति स्थान जेवा छे. 138 एज कहे छे-कामभोग केवा छे ? क्षणमात्र भोगवती वेळायेन, सुख आपे तेथी क्षणमात्र सुखरूप तथा बहुकाळ दुःख-घणा काळ पर्यंत नरकादिकमां दुःख भोगवावे तेथी बहुकाळ दुःख कह्या. वळी ते प्रकाम=अतिशय दुःख जेमाथी नीपजे तेवा तथा अनिकाम JE सुख-अप्रकृष्ट (तुच्छ ) सुखवाळा अने संसार भवभ्रमणमांयी मोक्ष मळवामा विपक्ष-शत्रुभूत , अर्थात् संसार भ्रमणनी वृद्धि | | करनाश होवाथी मोक्षना विरोधी छे. १३ ।। परिव्ययंते अनियतकामे । अहो अराओ परितप्पमाणो । अण्णप्पमत्ते धनमेसमाणे । पपुत्ति मच्चु पुरिसो जरं च।। PER चारे कोर भटकतो, जेनी कामना निवृत्त थइ नथी तेवो, दिवस अने रात्री परिताप कर्या करतो तथा अन्य माटे प्रमत्त वनी | धननी एपणावांछा करतो पुरुष, मृत्यु तथा जरा पामे छे. १४ व्या०-एतादृशः पुरुषो मृत्यु प्रामोति, च पुनर्जरां प्राप्नोति. कीदृशः सन् ? परिव्रजन् , परि समंताविषयसुखIm लाभार्थमितस्ततो भ्रमन , पुनः कीदृशः? अनिवृत्तकामः, न निवृत्तः कामोऽभिलाषो यस्य सोऽनिवृत्तकामोऽनिवृत्तेच्छ For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्ययनसूत्रम् ॥८२२॥ सwww इत्यर्थः पुनः कीदृशः ? अह इति अहनि, राओ इति रात्रौ परितप्यमामः, आर्षत्वादहो अराओ इति स्थितिः. अहो भाषांतर रात्रेऽप्राप्तवस्तुप्राप्तिनिमित्तं चिंतामनश्चितया दग्धः. पुनः कीदृशः? अन्यप्रमत्तः अन्यप्रमत्तः, अन्ये स्वजनमातापितृपु-BEL अध्य०१४ कलत्रभ्रात्रादयस्तदर्थ ममत्तस्तत्कार्यकरणासक्तोऽन्यप्रमत्तः पुनः कीदृशः ? धनमेषयन् , विविधोपायैर्धनं वांछन्नित्यर्थः. एवमेव मूढः पुमान् म्रियते, स्वार्थ किमपि न करोति. पुनः स्थिती पूर्णायामेकदा मृत्युत्वा जरा वा अवश्यं ||८२२॥ प्रामोत्येवेति भावः ॥ १४ ॥ ___आवो पुरुष मृत्यु पामे छे वळी जरा पण पामे छ, केवो पुरुष ? परिव्रजन चारेकोर विषयसुख मेळववा माटे आम तेम भटकनारो, तथा अनिवृत्त काम जेना काम=विषयाभिलाष निवृत्त नथी थया तेवो, अने अहः दिवसना तथा रात्रीमां पण अमाप्त वस्तुनी प्राप्ति माटे चिंतामग्न बनी संताप कर्या करतो एवो; ( अहो अराओ आप प्रयोग छे) तथा अन्य जे माता पिता पुत्र भार्या भाइ इत्यादि स्वजन, तेओना कार्य करवामां आसक्त रहेतो होवाथी अन्य मत्त, वळी धननी एषणबाळो, अर्थात् विविध उपायोबडे धन मेळववानी बांछना करनारो पुरुष एमने एम मरे छे, कंइ पण स्वार्थ साधी शकतो नथी अने उमेद पूरी यतामां तो मृत्यु अथवा जरा अवश्य आवी पहोंचे छे. १४ इमं च मे अस्थि इमं च नस्थि । इमं च मे किच्चमिमं अकिञ्च । तमेवमेवं लालप्पमाणं । हरा हरतित्ति कहं पमाहे॥१५॥ आ मारे छे अने आ मारे नथी, आ में कयु अने आ में नथी कराणु, एवी रीते लवारो करनारा ते (प्रमादी)ने हर-आयुष्य हरनारा रात्री दिवसो हरी जाय छे, माटे प्रमाद शा सार कराय छे! १५ For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या०-पुनः पूर्वोक्तमेव दृढयति, हराः कालास्तं मनुष्यं हरंति, हरंति प्राणिनामायुरिति हराः, दिवसरजन्यादयः उत्तराध्य भाषांतर यनसूत्रम् Ra कालाः, तं किं कुवैतं? एवमेव लालप्यमान, व्यक्तं वचनं वदंतं. एवमेवमिति किं ? इदं च मे ममास्ति, इदं प्रत्यक्षं अध्य०१४ Jधान्यादिकं मम गृहे वर्तते, पुनरिदं च रजतस्वर्णाभरणादिकं च मे मम नास्ति. च पुनरिदं मम कृत्यं षड्ऋतुसुखं Je ॥८२३॥ asan८२३॥ गृहादिकं करणीयं वर्तते, इदं च मे ममाकृत्यं, अस्मिन् वाणिज्ये लाभो नास्ति, तम्मान कृत्यमकृत्यमित्यर्थः. इति dil हेतोर्भो तात ! कथं प्रमाद ? कथं प्रमादं कुर्यात् ? प्रमादः कर्तु कथमुचित इत्यर्थः ।। १५ ।। फरीथी पूर्वोक्त विषयने हग करे छे-हर एटले काळ, ते मनुष्यने हरे छे-माणिोना आयुष्यने हरी जाय छे तेथी दिवस | रात्रीरूपी काळ 'हर' कहेवाय हे, केवाने हरे छे? आवी रीते लालप्यमान वचनो बोल्या करतो होय तेवाने, केवी रीते बोलनारो? | आ मने आ प्रत्यक्ष धनधान्यादिक मारा घरमां विद्यमान छे, द्दजी आ सुवर्ण तथा रुपानां घरेणां मारे नथी; वळी आ छये ऋतुमा सुख थाय तेवा घर वगेरे मारे करवानां छे, अने आ व्यापारमा कंइ लाभ जेवू नथी तेथी ए धंधो मारे करवो नथी. एटला माटे हे तात ! केम प्रमाद कराय ? अर्थात् प्रमाद करवो केम उचित कहेवाय. १५ घणं पभूयं सह इत्थीयाहि । सयणा तहा कामगुणा पगामा । तवं कए तप्पइ जस्स लोगो। तं सव्वसाहीणमिहेव तुझं ॥ १६ ॥ | प्रभूत-पुष्कळ धन, स्त्रीओ सहित स्वजनो, तथा प्रकाम-मनमानता कामभोगोः आ सघळ के-जेने सार लोक तप तपे छे सेतो GET सर्व तारे स्वाधीन विद्यमान छे. १६ For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यघनसूत्रम् ॥८२४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या० - अथ पुनः पुनः पुरोहितस्तो लोभयितुमाह-भो पुत्रौ ! यस्य कृते यदर्थं लोको जनस्तपस्तप्यते, तत्सर्वमिहास्माकं गृहे तुझं इति युवयोः स्वाधीनं वर्तते तत् किं किमित्याह - घनं प्रभूतं प्रचुरं वर्तते, धनार्थ हि लोको बहुदुःखं भुंक्ते, तद्धनं प्रभूतं स्त्रीभिः सहितमस्ति, धनादेव स्त्रियः स्वाधीना एव स्युः तथा स्वजना ज्ञातयोऽपि वर्तते, यस्य हि कुटुंबं प्रचुरं भवति स केनापि धर्षितुं न शक्यत इत्यर्थः पुनः प्रकामा भूयांसः प्रचुराः कानगुणा रूपरस| गंधस्पर्शादय इंद्रियविषया वर्तन्ते, तस्मात्किमर्थ तपस्तपनीयं ? ॥ १६ ॥ हवे पुरोहित तेना बे पुत्रांने लोभावना कहे छे हे पुत्रो ! जेने अर्थ लोकां तप तपे छे ते तो सर्वे आपणा घरमां तमारा बन्नेने स्वाधीनज छे, ते भुं ? प्रभूत धन, धनने माटे लोको बहु दुःख बेठे छे ते धन पुष्कळ स्त्रीयो सहित आपणे त्यां छे; धनथीज स्त्रीयां | स्वाधीन थाय छे, तथा स्वजनो = ज्ञातिओ पण छे. जेनुं कुटुंब बहो होप ते कोइथी घर्पण करी शकातो नथी, वळी मकाम = पुष्कळ | कामगुण = रूप रसादिक इन्द्रियांना त्रिषयो आपणे त्यां विद्यमान छे तो पछी तप शा माटे तप ? १६ घणेण किं धम्मधुराहिगारे । सयणेण वा कामगुणेहि चेव ॥ समणा भविस्सामु गुणोहधारी । यहि बिहारा अभिगम्म भिक्वं ॥ १७ ॥ हे पिता ! धर्मनी धुरा = धोंसरी- ( उठाववा) ना अधिकारमां धनथी शुरु प्रयोजन होय ? तेम स्वजनथी अथवा कामगुणोथी पण शुं मतलब ? अमे तो गुण समुदायने धारण करनारा तथा भिक्षा मेलवीने बाहेर विहार करवावाळा भ्रमण साधु थशु. १७ व्या० - अथ पुत्रौ वदतः - भो तात ! धर्मधुराधिकारे दशविधयतिधर्मधूर्वहनाधिकारे आवां श्रमणी भविष्यावः. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० १४ ॥८२४ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य - यनसूत्रम् ॥८२५ ॥ 毛毛能兼 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कीदृशी श्रमणो ? गुणौघधारिणौ ज्ञानदर्शनचारित्ररूपगुणसमूहधारिणौ किं कृत्वा ? बहिर्विहारमधिगम्य, द्रव्यतो | यहिग्रमाकरनगरादिभ्य एकांतमाश्रित्य भावतो वहिः कचिदप्रतिबद्धत्वमाश्रित्य तस्मादावयोर्धनेन किं ? अथवा | स्वजनेन किं ? च पुनः कामगुणैरिन्द्रियसुखैः किं ? धनस्वजनविषया हि न परलोसुखाय स्युरित्यर्थः यदुक्तं वेदेऽपि न प्रजया धनधान्येन त्यागेनैकेनामृतत्वमानशुरित्यादि ॥ १७ ॥ अथ भृगुस्तयोर्धर्मनिराकरणाय परलोकनिराकरणाय च आत्मनोऽभावमाह हवे पुत्रो बोल्या - हे तात! धर्म धुराधिकार = दशविथ यतिधर्मनी घोंसरी वहन करवाना अधिकारमां अमे बन्ने श्रमण थइथं. केवा श्रमण ? गुणौधधारी = ज्ञानदर्शन चारित्ररूप गुण समूहने धारण करनारा. केम करीने? वहिर्विहार = द्रव्यश्री गामनी बहार एकांतस्थाने आश्रय लड्ने, भावथी क्यांयथी अप्रतिबद्धपणाने अवलंबीने तो पछी अमने धनवडे के स्वजनवडे अथवा इन्द्रियसुखजनक कामगुणोवडे शुं करवानुं होय ? धन, स्वजन तथा विषयो कंइ परलोकसुख माटे नज होय वेदमां क छे के 'प्रजा अथवा धनधान्यथी नहिं किंतु केवळ ज्ञानथीज अमृतत्व = मोक्षने पाम्या इत्यादि १७ वे भृगु ते बे पुत्रो धर्म तथा परलोकना निराकरणार्थ आत्मानो अभाव कहे छे - जहा य अग्गी अरणीओ असंतो। खीरे घयं तिलमहातिलेसु । एमेव जाया सरीरंमि सत्ता । संमुच्छई नासह नावचिठ्ठे जेम अनि अरणी [काष्ठ]मां प्रथम नहि छतां उत्पन्न थाय छे तथा क्षीर दूधमां प्रथम न देखातुं घी उत्पन्न थाय छे; वळी जेम तिलमां प्रथम न जणातु तेल उत्पन्न थाय छे. एमने एम हे पुत्रो ! शरीरने विषये पण प्रथम न छता सत्व-जीवो उत्पन्न धाय हे For Private and Personal Use Only भाषांतर मध्य०१४ ||८२५॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ||८२६॥ तथा नाश पामे के अने ते जीवो स्थिर रहेता नथी. १८ उत्सराध्य HE-भाषांतर व्या०-हे जायौ ! हे पुत्रौ ! सत्वा जीवा एवमेव अमुना दृष्टांतेन शरीरे असंतः पूर्वमविद्यमाना एव संमूर्छते यनसूत्रम् अध्य०१४ | उत्पद्यते. पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशानां समुदायसंयोगाचेतना उत्पद्यते. पुनः स जीवो नश्यति नावतिष्टते, शरीरनाशे ॥८२६॥ तन्नाशः. शरीरे सति पंचभूतमेलापे सति स भवेत् , पंचभूतानां पृथग्भावे तस्यापि नाश एव. एवमिति केन प्रकारेण जोवाः पूर्वमविद्यमाना उत्पद्यते ? तदृष्टांतमाह-यथा एव. चशब्दोऽत्र एवार्थे, अग्निररणीओ अरणीतोऽग्निमथन| काष्ठतः पूर्वमदृश्यमानोऽपि संयोगादुपरितनारणिकाष्टेन, अधो घंशवादिकाष्टसंयोगादग्निरुत्पद्यते, न त्वेकाकिनि अरणिकाष्टे पूर्वमग्निदृष्टः. एवं क्षीरे घृतं, क्षीरमपि पूर्वमुष्णीकृत्य पश्चात्तन्मध्ये तक्रं स्तोक प्रिक्षिप्य चतुर्या में स्त्या-01 नीकृत्य पश्चान्मंथानेन विलोड्यते, तदा ततः पूर्वमसदेव घृतमुत्पद्यते. एवं महातिलेवृत्तमतिलेषु, यंत्रादिमथनसंयोगा-y त्तिलेभ्यस्तैलं पूर्वमप्रत्यक्षमविद्यमानमप्युत्पद्यते. अरणिकाष्टादधः काष्टसंयोगाभावे चैतन्यरूपजीवाभाव इत्यर्थः॥१८॥ अथैतरस्योक्तस्योत्तरं तावाहतुः-- हे पुत्रो ! सत्व-जीवो, एवीज रीते=आ दृष्टांत उपरथी शरीरमां न छता=पूर्वे अविद्यमान होवा छतां उत्पन्न थाय छे, पृथ्वी, || जळ, तेज, वायु तथा आकाश; आ पंचभूत समुदायना संयोगथी चेतना उत्पन्न थाय छे अने पाछो ते जीव नाश पामे छे, अव5d स्थित रहेतो नथी; शरीरना नाशनी साथे तेनो पण नाश थाय छे, शरीर होय त्यारे पंचभूतना मेळापथी ते थाय छे अने ए पंचभाभत ज्यारे पृथक पाय त्यारे तेनो पण नाश थाय छे. एम क्या प्रकारे पूर्वे अविद्यमाने जीवो उत्पन्न थाप छे? तेना हटांतो कहे छे For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 561||८२७॥ यथा जेम, (च शब्द एवना अर्थमा छे.) जेवी रीते अग्नि, अरणी अग्निमंथन काष्ठ=मांधी प्रथम न देखाता छतां पण उपरना | उत्तराध्य भाषांतर | उत्तरारणि काष्टना संयोगथी अग्नि उत्पन्न थाय छे. एकला अरणिकाष्ठमां प्रथम क्यांय अग्नि देखातो नथी. एपज क्षीरमां घृतः अध्य०१४ JE दुध पण प्रघम उठें करी पछी तेमां थोडी छाश नाखी चार पहोर मृधी जमावीये अने ते पछी मंथान रवैयावडे बलोवीये त्यारे JE) ॥८२७॥ JE तेमांथी पूर्वे अपतीत घी उत्पन्न थाय छे, एम महातिल सारातलमाथी यंत्रादिमयनना संयोगथी पूर्वे प्रत्यक्ष न देखायेलु तैल उत्पत्र | थाय छे, नीचेना काठनो संयोग न होय तो अरणिकाष्ठमांथी अग्निनी पेठे चैतन्यरूप जीवनो अभावज होय. १८ हवे आ दृष्टांतोथी कहेल अर्थनु उत्तर ते वे पुत्रो आपे छेनो इंदियगिज्झ अमुत्तभावा । अमुत्तभावा विय होइ निच्चो ।। अज्झत्थहेऊ नियओस्स बधो । संसारहे च वयंति बंधं | JI अमूर्तमणाने लीधे आ जारमा इन्द्रियोबडे ग्राह्य धतो नथी. पण अमूर्तपणाने लीधेज ते नित्य छे. आ आत्माने शरीरमा बध | अध्यात्म हेतु-मिथ्यादि हेतुवाळो नियत-निश्चित छे, तेम बंधनेज संसारनो हेतु कहे छे. १९ ____ व्या०-हे तात! आयमात्मा अमूर्तभावादिद्रियग्राह्यो नो इति नास्ति, शब्दरूपरसगंधस्पर्शादीनामभात्वममृतत्वं, तस्मादमूर्तत्वादिद्रियग्राह्यो नास्ति. योऽमूर्तो भवति स इंद्रियग्राह्योऽपि न भवति, य इंद्रियग्राह्यो भवति | सोऽमूर्तोऽपि न संभवति, यथा घटादिः. पुनरयं जीवोऽमूर्तभावादपि नित्यो भवति. यद् द्रव्यत्वे सत्यमूर्त तन्नित्यं, DE] यथा व्योम. अथ कदाचित् कश्चिद्रक्ष्यति चेदयममूर्त आत्मा तदा कथमस्य बंधः ? तत्रोत्तरं वदतः-अस्य जीवस्य शरीरे बंधो नियतो निश्चितोऽध्यात्महेतुर्वर्तते. कोऽर्थः? आत्मन्यधिकृत्य भवतीत्यध्यात्म मिथ्यात्वाविरतिकषाय For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१४ ८२८॥ JE] योगादिक, तदेव हेतुः कारणं यस्य सोऽध्यात्महेतुः. अस्य जीवस्य यः शरीरे बंधो भवति स मिथ्यात्वादिभिहेतु-13 उत्तराध्य भिरेव स्यादिति. यथा अमर्तस्याप्याकाशस्य घटादाविव घटोत्पादनकारणैर्घटे आकाशस्य बंधो जायते. तथात्मनः यनसूत्रम् शरीरे बंध इत्यर्थः. च पुनबुधाः संसारस्य हेतुं भवभ्रमणस्य कारणं संबंधं वदंति. यावच्छरीरेण पद्धस्तावदयं जीवो ॥८२८॥ भवभ्रमणं करोतीत्यर्थः. यदुक्तं वेदांतेऽपि-कर्मबद्धो भवेज्जीवः । कर्ममुक्तो भवेच्छिवः ॥ इति. ॥ १९ ॥ हे तात ! आ आत्मा अमूर्तपणाने लोधे इन्द्रिय ग्राह्य नथी. जेमां शब्द स्पर्श रुप रस गंध इत्यादिकनो अभाव होय ते अमूर्त A कहेवाय, एटले अमूर्त होवार्थी इंद्रियग्राह्य नथी. जे अमूर्त होय ते इंद्रिय ग्राह्य न होय अने जे इंद्रिय ग्राह्य होय ते अमृत्त पण न | All होय. जेवा के घट आदिक पदार्थ. वळी आ जीव तो अमूर्तपणाने लीधे नित्य छे, कारणके-जे द्रव्य होइने अमूर्त होय ते नित्य | vil होय. जेई व्योम आकाश. कदाच कोइ एम कहे के-जो आ आमां अमूर्त छे तो तेने बंध केम होय शके ? तेनुं उत्तर कहे छे आ जीवने शरीरमां बंध तो नियत=निश्चित छे के जे अध्यात्म हेतु छे. शो अर्थ समजायो ? आत्माने उद्देशीने थाय ते अध्यात्म, एटले मिथ्यात्व, अविरति, कषाय योग, इत्यादिक; तेज जेनां हेतु कारण छे ते अध्यात्म, हेतु आ जीवने विषये जे बंध थाय के ते मिथ्यात्व वगेरे हेतुथीन थाय छे. जेम अमूर्त आकाशने पण घट आदिकने विषये घटना उत्पादक कारणोवडे घटमां आकाशने बंध थाय छे तेम आत्माने शरीरमां बंध थाय छे; बुध-विद्वान पुरुषो संसार भवभ्रमण=नुं कारण संबंध कहे छे. ज्यां सूधी शरीRal रथी बंधाणो छे त्यां सूधी ए जीव भवभ्रमण कर्येन जवानो, का छे के-'कर्मथी बद्ध छे तावत् पर्यंत ते जीव छे पण ज्यारे कर्म मुक्त थाय त्यारे ते शिव छे. १९ For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandi JEE भाषांतर अध्य०१४ ॥८२९॥ उत्सराध्य जहा वयं धम्ममयाणमाणा । पावं पुरा कम्ममकासि मोहा॥ओरुज्झमाणा परिरक्खियंता। तं नेव भुजो वि समायरामो यनसूत्रम् जेम अमे पहेला धर्मने न जाणता तथा अबरोध पामता अने सर्व रीते रक्षित रहेता मोद्दथी पाप कमों कयां तेयां पाप कमोने हवे भूयोऽपि फरीने पण नहींज आचरीये-नहींज करीशु. २० ॥८२९|||DEL __ व्या०-हे तात! यथा पुरा पूर्व मोहात्तत्वस्थाऽज्ञानादावां पापं पापहेतुक कर्माका. आयां किं कुर्वाणी ? धर्म | सम्यक्त्वादितत्वमजानानी, पुनः कथंभूतो? अवरुध्यमानौ गृहानिःसरणमप्राप्यमाणी. पुनरावां कथंभूती ? परिरक्ष्यमाणौ साधुदर्शनाद्वार्यमाणो. पुरा ईशावावामज्ञाततत्वो पापकर्मपरायणावभूव, तत्पापं कर्म भूयः पुनर्नैव समाचरावो न कुर्व इत्यर्थः ॥ २० ॥ हे तात ! जेम पूर्वे मोडथी तत्त्वना अज्ञानथी अमो बन्ने जणाए पाप हेतुक कर्मो की. अमे शुं करता ? धर्म जे सम्यक्त्वादि El तत्त्व तेने नहिं जाणता, तथा अवरुध्यमानन्धरथी बहार नीकळवामां रोकता निषेध कराता, बळी परिरक्ष्यमाण, अर्थात् कोइ साधु adl: दर्शनादिकथी वारण कराता; आवीरीते अमे अज्ञात तत्व होवाथी पूर्व पापकर्मपरायण थया हता, ते पापकर्म हवे फरी नहीं आचरीयें अभ्याइयंमि लोगंमि । सबओ परिवारिए । अमोहाहिं पडंनीहिं । गिहसि न रइ लभे ॥ २१ ॥ अमोघ-खाली न जाय तेबी पडती (शस्त्रधारा तुल्य) विपत्तिओवडे अभ्याहत-चारेकोरथी हणाता तथा सर्वतः-फरता विटायेला आ लोकां घरने विषये अमने रनिम्धीति नथी मळती. २१ व्या०-भो तात! अस्मिन लोके जगत्लामावां गृहे गृहवासे रतिं न लभावहे. कथंभूते लोके ? अमोघाभिरवश्यं For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | भाषांतर अध्य०१४ ||८३०॥ भेदिकाभिः शस्त्रधाराकाराभिः पतंतीभिरागच्छंतीभिः शस्त्रधाराभिः कथिते. पुनः कथंभूते लोके? अभ्याहते उत्तराध्य JE आभिमुख्येन पीडिते. पुनः कथंभूते लोके ? सर्वतः सर्वासु दिक्षु परिवारिते परिवेष्टिते, वागुरादौ पतितमृगवद् यनसूत्रम् all दु:खितो स्वः ॥ २१॥ तदा पुरोहितोऽपृच्छत्॥८३०॥ हे तात ! आ लोक जगत्मां अमें घरमा रहेवामां रति नथी पामता केवो लोक ?-अमोघ अवश्य भेद न करे तेवी, शस्त्रधारा समान आकारवाळी पत्ती आवी पडती शस्त्रधाराओथी कथायेल; तथा अभ्याहत सामेथी पण हणायेल, तेमज सर्वतः चारे कोरथी परिवारित घेराइ गयेल. पाशलामा फसायेला मृगना जेवा अमे बेय दुःखित छीये तेथी अमने कृपा करीने जवा घो. २१ केण अभ्याहओ लोओ। वा परिवारिओ। केण वा अमोहा वुत्ता । जाया चिंतापरो हु मे ॥ २२॥ आ लोक केणे अभ्याइत छे तथा केणे परिवारित छे! बळी अमोघ शस्त्रधारा तें कही ते का? हे जात-पुत्रो ! हु। | चितापरायण थर्ड छु. २२ व्या०-हे पुत्रो ! केन लोकोऽभ्याहतः ? वाऽथवा केनायं लोकः परिवेष्टितः ? वाऽथवा का अमोघा अवश्य भेदिका शस्त्रधारोक्ता? हे पुत्रावहमिति चिंतापरो भवामि. ॥ २२ ॥ तदा पुत्रौ प्रत्येक प्रश्नानामुत्तरं वदतः हे पुत्रो ! केणे आ लोकने आघात कयो छे ? अथवा केणे आ लोकने घेरी लीधो छ ? अने ए अमोघअवश्य भेदनारी कही ते शस्त्रधारा कइ ? हुं तो ए चिंतापरायण थाउं छु. २२ त्यारे हवे बेय पुत्रो प्रत्येकमश्ननां उत्तर कहे छे मच्चुणाभ्याहओ लोओ । जरीए परिवारिओ ॥ अमोहा रयणी बुत्ता । एयं ताय वियाणह ॥ २३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१४ ८३१॥ उत्तराध्य आ लोक मृत्युए अभ्याहत छे, जराये परिवारित-धेरेल छे अने रात्री अमोघ व्यर्थ न जाय तेवी प्रहाररूप कही छ र प्रमाणे हे तात! विशेषतया जाणो. २३ यनसूत्रम् ___व्या०-हे तात ! त्वमेवममुना प्रकारेण जगजानीहि ! एवमिति कथं ? तदाह-लोकोऽयं मृगरूपो मृत्युना व्या॥८३१॥ धेनाभ्याहतः पीडितः, स च मृत्युर्हि सर्वस्य जंतोः पृष्टे धावति. जरया वृद्धत्वेन परिवेष्टितः. जीर्यते शरीरमनयेति जरा, पलितमात्रमिह जरा नोच्यते, बलवीर्यपराक्रमाणां हानिरेव जरा, तया सर्व जगत् परिवेष्टितमस्ति. तयैव मृत्युजंगजंतुं घातयति. अमोघाः शस्त्रधारा रात्रय उक्ताः, न केवलं रात्रय एव भवंति. किंतु दिनान्यपि भवंति, परमत्र रात्रिग्रहणं भयोत्पादनार्थ. स्त्रीलिंगशब्दस्य अमोघा इत्यस्योपमा ज्ञेयं. ॥ २३ ॥ हे तात ! तमेज आ प्रकारे जगत् जाणी ल्यो, केवी रीते ? ते कहे छे-आ लोक मृगरूप मृत्युरूप पाराधिवडे अभ्याहत= PE) पीडित छे, अने ते मृत्यु पण सर्व जंतुओनी पूंठे दोडे छे. वळी जरा-वृद्धावस्थावडे सर्व जगत् परिवेष्टित छे, जेनाथी शरीर जरी खळभळी जाय ते जरा अहीं मात्र धोळा वाळना पात्रने जरा नथी कहेवानी; किं तर्हि बळ, वीय तथा पराक्रमनी हानि एज जरा, ए जराये सकळ जगत् परिवेष्टित वेरायेलं छे अने ए जराद्वाराज मृत्यु जगत्ना जंतुओने हणे छे, अमोघ शखधारा रात्रीयोने कही. कंइ रात्रीज मात्र नथी किंतु दिन पण होय छे, परंतु अहीं रात्रीनुं ग्रहण भय उत्पादय करवा माटे छे. स्त्री लिंग अमोघा ए पदनी उपमार्थ छे एम जाणवू. २३ जा जा वच्चइ रयणी । न सा पडिनियत्तई ॥ अहम्मं कुणमाणस्स । अफला जति राईओ॥२५॥ For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥ ८३२ ॥ www.kobatirth.org जे जे रात्रीओ बीते छे ते पोछी आवती नधी, अधर्म करता जीवनी ते रात्रीओ अफळ जाय छे. २४ व्या०-- हे तात! या या रजन्यस्तत्संबंधाद् दिवसाथ व्युत्क्रामंति व्रजति, तास्ता रजन्यो न प्रतिनिवर्तते, पुन व्यघुटय नायांति. अधर्म कुर्वतः पुरुषस्य रात्रयो दिवसाचाफला निरर्थका यांति, तस्माद्धर्माचरणेन सफला विषेश इत्यर्थः ॥ २४ ॥ तदेव पुनरप्याहतुः- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताव ! जे जे रात्रियो, अने तेनी साथ संबद्ध दिवसो पण व्यतीत थाय छे ते ते रजनीओ प्रतिनिवृत्त थती नथी, वळीने | पाछी आवती नथी; एटले अधर्म करनार पुरुषनी ते रात्रियो तथा दिवसो अफळ निरर्थक जाय छे माटे धर्माचरणवडे ते सफळ करवी जोइए २४ पुनरपि तेज कहे छे जा जा बच्चइ रयणी । न सा पडिनियत्तई ॥ धम्मं तु कुणमाणस्स । सहला जंति राईओ ।। २५ ।। जे जे रात्रीयो व्यतीत थाय छे ते पाछी आवती नथी. तेथी धर्मने करनार जीवनी ते रात्रीयो सफळ जाय छे. २५ व्या०-- पूर्वार्धस्यार्थस्तथैव, हे तात ! धर्म कुर्वाणस्य पुरुषस्य रात्रयो दिवसाश्च सफला यांति, धर्माचरणं विना निःफला इत्यर्थः प्राकृतत्वाद्वचनस्य व्यत्ययः नृजन्मनः फलं धर्माचरणं, धर्माचरणं हि व्रतं विना न स्यात्, अतaai तं गृहीष्यावः नृजन्मनि रात्रिदिवसान् सफलान् करिष्याव इति भावः ॥ २५ ॥ तद्वचनालब्धबोधो भृगुपुरोहितः पुत्रप्रत्याह पूर्वाद्धनो अर्थ तो तेज छे एटले हे तात ! जे जे रात्री तथा दिवसां व्यतीत थाय छे ते पाछा वळीने करी आवतां नथी पण For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१४ ||८३२ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BE भाषांतर अध्य०१४ ||८३३॥ धर्मने करनारा पुरुषनी ते रात्रीओ तथा दिवसो सफळ जाय छे. धर्माचरण विना निष्फळ थाय छे, एम तात्पर्य छे. प्राकृत उत्सराध्ययनसूत्रम् | तेथी वचन व्यत्यय छे. नर जन्मनुं फळ धर्माचरण छे, अने धर्माचरण व्रत विना नथी यतुं माटे अमे बेय व्रत ग्रहण करशुं; अने एम करीने मनुष्यजन्मनां रात्री दिवसोने सफळ करशुं. एवो भाव छे. २५ ॥८३३॥ ते पुत्रोनां वचनोथी जे ने बोध प्राप्त थयो एवो भृगुपुरोहित पुत्रों प्रत्ये कहे छे-- एगओ संबसिसाणं । दुहओ संमत्तसंजुया ॥ पच्छा जाया गमिस्सामो। भिक्खमाणा कुले कुले ॥ २६ ॥ | हे जाताः-पुत्रो! सम्यक्त्ववढे संयुक्त एवा तमे तथा अमे बेय एकक-एक ठेकाणे [घरवासमां] साथे पसीने पश्चात् कुले कुले 36 घरे घरे भिक्षा मागता आपणे जइशु. २६ __ व्या०--हे पुत्रौ ! वयं च द्वयं च द्वये, आवां युवां च सर्वेऽपि सम्यक्त्वसंयुताः संत एकल एकत्र गृहवासे | सम्धक सुखेनोषित्वा गृहस्थाश्रमं संसेव्य पश्चाद् वृद्धावस्थायां गमिष्याम, ग्रामनगगरण्यादिषु भासकल्पादिक्रमेण प्रव्रजिष्याम इत्यर्थः. किं कुर्वाणाः ? कुले कुले गृहे गृहे अज्ञाते उंछवृत्त्या गोचर्यया भिक्ष्यमाणा भिक्षां गृहन्तो भिक्षवो | भविष्याम इत्यर्थः ।। २६ ।। तदा तो पुत्रो जनकंप्रत्याहतुः-- हे पुत्रो ! (द्वयं च द्वयं च द्वये.) एटले अमे (धणी धणीयाणी) बे तथा तमे वे (भाइओ) सर्वे पण सम्यक्त्वथी संयुक्त थइने एकत: एकस्थाने घरमा सारी रीते निवास करीने-गृहस्थाश्रम सेवीने पश्चात् वृद्धावस्थामां गमन करीशुं अर्थात्-ग्राम नगर अरण्य | वगेरेमा मासकल्पादि क्रमे करी पत्रज्या ग्रहीने फरशुं. केम करीने ? कुले कुले-घरे घरे अज्ञात उंछवृत्तिथी गोचरीवडे भिक्षमाण= For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandi भिक्षा मागता फरीशुंभिक्षुओ धइ . २६ त्यारे ते पुत्रो पिता प्रत्ये कहे ठे-- उत्तराध्य भाषांतर मनमम JE जस्सस्थि मच्चुणा सक्ख । जस्स बत्थि पलायणं । जो जाणइन मरिस्सामि । सोह कंखे सुए सिया ।। २७॥ 5EER जेने मृत्यु साथे सख्य मैत्री होय, अथवा जेने पलायन-एटले नासी जवान होय, तथा जे जाण तो होय के हुँ मरीश नहि तेज ॥८३४॥ ५५ मनुष्य एम आकांक्षा करे के श्वः आवती काले (आ काम) थशे. २७ । 1 ८३४० व्य०-हे तात ! हु इति निश्चयेन स एव पुरुष इति कांक्षतीति प्रार्थयति. सुए इति श्व आगामिदिने प्रभाते इदं स्यात् , अद्य न जातं तर्हि किं ? कल्ये स्यादित्यर्थः. इति स चिंतयति. स इति कः? यस्य पुरुषस्य मृत्युना सह कालेन cl सह सख्यं मित्रत्वमस्ति, य एवं जानाति मृत्युर्मम सखा वर्तते. च शब्दः पुनरर्थे पुनर्यस्य पुरुषस्य मृत्योः पलायन मस्ति यः पुरुष एवं जानाति मृत्युमें मम किं करिष्यति ? यदा मृत्युरायास्यति तदाहं प्रपलाय्य कुत्रचिदन्यत्र यास्यामि, B अहं मृत्युगोचरो न भविष्यामि. पुनर्य एवं जानाति, अहं न मरिष्यामि, अहं चिरंजीव्यस्मि. ।। २७ ।। हे तात ! हु निश्चये तेज पुरुष एम इच्छे-चाहे-मनमां पार्थन करे के-वावती काले प्रभाते आ थाय. आज न थथु तो शुं ? काले थशे. (एचो अर्थ छे.) एम ते धारे छे; ते कोण ? जे पुरुषने मृत्युना साथे काळनी जोडे सख्य=मित्रता होय, जे एम जाणतो होय के मृत्यु तो मारो सखा छे. ( अत्रे 'च' शब्द 'पुनः'ना अर्थमा छे ) वळी जे पुरुपने मृत्युथी पलायन होय; जे पुरुष एम जाने के मृत्यु मने शुकरशे ? ज्यारे मृत्यु आवशे त्यारे हुँ पालयन करीने क्यांक अन्य ठेकाणे जतो रहीश; मृत्युना झपाटामां आवीश नहि फरी ते एम जाणतो होय के है मरीशज नहिःहै तो चिरंजीवी छ.२७ स For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit उत्तराध्य-DEL 5 अजेव धम्म पडिजवयामो। जहिं पवना न पुणप्भवामो॥ अणागयं नेव य अस्थि किंची। सद्धा खमं ने विणइत्तु रागं भाषांतर यनसूत्रम् | आजेज धर्मने प्रतिपन्न थहए धर्म प्रवृत्तिमा लागी जहए जे धर्मने प्रसन्न प्राप्त थयेला आपणे फरी प्रभव-जन्म पामशुं नहि. आ|JE1 PE अध्य०१४ संसारमा कशु अनागत-आपणने न मळेलु होय तेवुनथी, माटे आपणे राग त्यजीने श्रद्धा योग्य छे. २८ ॥८३५॥ व्या०--भो तात! अद्यैव तं धर्म वयं प्रतिपद्यामहे, आर्षत्वात्. किं कृत्वा ? रागं स्नेहं स्वजनादिषु प्रेम, विण ||८३५॥ | इनु इति विनीय स्फोटयित्वा, कीदृशं धर्म? ने इति नोऽस्माकं श्रद्धाक्षम श्रद्धया तत्वाच्या क्षमो योग्यस्तं, यतो हि साधुधर्मे स्नेहः सर्वथा निवार्यः, तत्वसचिश्च कार्या, तया हीनो हि साधुधर्मो निःफलः, यत्तदोनित्याभिसंबंधात् , तं कं | धर्म? जहिं इति यस्मिन् धर्मे प्रपन्नाः संतो न पुनर्भवामः, पुनः संसारे नोत्पत्स्यामः. यद्भवता पुरोक्तं भोगान् भुक्त्वा पश्चात्मनजिप्यामः, तस्योत्तरं शृणु ? हे तात ! अनागतमप्राप्तवस्तुविषयादिसुखं किंचिन्न चैवास्य जीवस्यास्ति, सर्वेषा भावानामनंतशः प्राप्तत्वात् ॥ २८ ॥ इति स्वपुत्रयोरुपदेशं श्रुत्वा भृगुः प्रतिबुद्धः सन् ब्राह्मणीप्रत्याह-- | हे तात ! आजेज ते धर्मने आपणे पतिपन्न थइए. (आर्ष प्रयोग छे.) केम करीने ? राग-स्वजनादिकने विषये जे प्रेम छे JE तेने फेडी नाखीने शिथिल करीने; केवो धर्म ? 'ने' आपणी श्रद्धाने क्षम-योग्य तत्व रुचिने लायक; कारणके साधुधर्ममां स्नेह Dt सर्वथा निवारवा योग्यज गण्यो छे; अने श्रद्धा तत्त्वरुचि क्षम-योग्य छे; श्रद्धाहीन साधुधर्म निष्फळ छे. यत् तथा तत् ए बेनो नित्य संबंध छे तेथी ते कयो धर्म ? के जे धर्मने विषये प्रपन्न आश्रित थइने फरी पुनर्भव=पुनर्जन्म नयी यतो एटले आपणे संसारमा पुनः उत्पन्न यइ, नहि, जे आपे प्रथम कयु के-भोग भोगवी पश्चात् प्रत्रजित थY; तेनुं उत्तर सांभळो. हे तात ! आ जीरने आ For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ME | संसारनी अंदर अनागत=कंइ पण विषयसुख नहिं आवेलुं छेज नहि. सर्व पदार्थों अनंतवार मळ्या छे. २८ उत्तराध्य-3 आयो पोताना पुत्रोनो उपदेश सांभळी भृगु प्रतिबुद्ध थइ पोतानी स्त्रीने कहे छे-- | भाषांतर चनसूत्रम् अध्य० पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो । वासट्टि भिक्खायरियाइकालो ।। ॥८३६॥ साहाहि रुक्खो लहए समाहिं । छिन्नाहि साहाहिं तमेवठाणुं ॥ २९ ॥ ।।८३६॥ हे वासिष्ठि! पुत्र व्होणा थयेलाने पछेवास-घरमां वसवानुनधी एटळे मारे हवे भिक्षाचर्यानो काळ-समय छे. वृक्ष शाखाओवडे समाधि-शोभा लीये छे, पण ज्यारे तेनी शाखाओ छेदाइ जाय त्यारे तेनेज लोको ढूठ कहे छे. २९ व्या०-हे वाशिष्टि! वशिष्ठमुनिगोत्रोत्पन्ने ब्राह्मणि प्रिये ! प्रहीणपुत्रस्य पुत्राभ्यां त्यक्तस्य हु इति निश्चयेन मम || वासो गृहे वसनं नास्ति, ममेंति पदमध्याहार्य, हे प्रिये ! भिक्षाचर्याया अयं कालोऽयमवसरोऽस्तीति शेषः. उक्तमर्थमर्थातरन्यासेन दृढयति-वृक्षः शाखाभिरेव समाधि स्वास्थ्यं शोभा वा लभते, छिन्नाभिः शाखाभिस्तमेव वृक्षं जनाः स्थाणुं कीलं वदंति. शाखाहीनस्य वृक्षस्य स्थाणुत्वं स्यात, तथा ममापि पुत्राभ्यां वियुक्तस्य गृहे वासे स्थितस्य समाधिर्नास्तीत्यर्थः ॥ २९ ॥ हे वासिष्ठि ! वसिष्टमुनिना गोत्रमा उत्पन्न थयेली ! ब्राह्मण ! पिये ! महीणपुत्र=बे पुत्रोए त्यजायेला मने हवे निश्चये वास= | घरमा बसवं नथी. (अत्रे 'मम मारे' एटला पदनो अध्याहार करवानो छे.) हे मिये ! भिक्षाचर्यायनो आ काळा अवसर छे. (आटलं शेष छे.) उक्त अर्थने अर्थान्तरन्यासवडे दृढ करे छे-वृक्ष शाखाभोवडेज समाधि स्वस्थता पामे शोभे छे; ज्यारे तेनी For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ||८३७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | शाखाओ छेदाइ जाय त्यारे एज वृक्षने लोको स्थाणु=कुंठ=खीतो कहे छे. शाखाहीन वृक्षने जेम स्थाणुत्व आवे तेम पुत्रोथी वियुक्त | बनेला मने घरे रहेबामां सुख नथी. २९ | पंखाविणो व्व जहेब पक्खी । भिचविहीणुव्व रणे नरिंदो । विवन्नसारो वणिउच्व पोए। पहीणपुत्तोमि तहा अहंपि जेवो पांख व्होणो पंखी, जेवो भृत्य योद्धाओ विनानो रणसंग्राममां नरेंद्र-राजा, तथा विपन्नसार जेनी मालमत्ता समुद्रमां वामाइ होय ते वहाणां चडेलो वणिक्, तथा तेयो पुत्र विनानो हु' छु. ३० व्या० शब्दो दृष्टांतसमुच्चये, हे प्रिये ! इहास्मिन् लोके पक्षाभ्यां विहीनः पक्षी यादृशः स्यात्, पक्षहीनो हि | पक्षी आकाशमार्गोल्लंघनायाऽशक्तो येन केनापि हिंस्रेण पराभूयते. पुना रणे संग्रामे भृत्यैः सेवकैर्विहीनो नरेंद्रो नृप| तिरिव रिपुभिः पराभूयते पुनर्वणिक् व्यापारीव, यथा पोते प्रवहणे भग्ने सतीत्यध्याहारः, विपन्नसारो विगतसर्व| द्रव्यभांडो विषादं करोतीति शेषः, तथाहमपि प्रहीणपुत्रः प्रत्रजितपुत्रो विषादवान् भवामीति शेषः ।। ३० ।। इति पुरोहितप्ररूपितं वचनं श्रुत्वा वासियाह 'व' शब्द दृष्टांत समुच्चय अर्थ सूचवे छे. हे प्रिये ! आ लोकने विषये पांखोथी विहीन पंखी जेबो थाय, पांख व्होणो पंखी आकाशमार्गे वा अशक्त बनेलो जेम कोइ हिंस्रमाणीथी पराभव पामे; वळी जेम रणसंग्राममां भृत्य = सेवकोथी विहीन नरेंद्र= नृपति जेम शत्रुओथी पराभव पामे, तथा जेम वणिक् = वेपारी पोत = वहाणमां ('ते वहाण भांगे त्यारे' आटलो अध्याहार लेवो.) | विपन्नसार = सर्व द्रव्य भांड= तमाम मालमत्ता समुद्रमां नष्ट धतां विषाद= खेद करे, तेवी रोते हुं पण महीणपुत्र=पुत्रो मत्रजित थतां खेदयुक्त थ . (एटलं शेष छे.) ३० For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० १४ ||८३७|| Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ||८३८|| www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुसंभिया कामगुणा इमे ते । संपिंडिया अग्गरसप्पभूया । भुंजाम ता कामगुणे पगामं । पच्छा गमिस्सामु पहाणमग्गं ॥ तमारा आ कामगुणो = कामभोगना पदार्थों सुसंभृत-सारी रीते तैयार करेला छे, वळी संपिडित एकत्र भेळा करी मूकेला छे तेम अनरस प्रभूत पटले जेमां पुष्कळ श्रेष्ठ रस छे एवा छे तेथी हमणां तो प्रकामं इच्छा प्रमाणे कामभोगोने भोगवीर ने पछी प्रधानमार्ग=मोक्षमार्गे गमन करशु ३१ व्या०-हे स्वामिस्ते तवेमे प्रत्यक्षं दृश्यमानाः कामगुणाः पंचेंद्रियसुखदाः पदार्थाः सहस्रसरस मिष्टान्नपुष्पचंदनाटकगीततालवेणुवीणादयः सुसंभृताः संति, सम्यक् संस्कृताः सज्जीकृताः संति. पुनः कामगुणाः संपिंडिताः पुंजीकृताः संति, न तु यतस्ततः पतिताः संति, किंत्वेकत्र राशीकृता एव तिष्टंति पुनः कीदृशाः कामगुणाः ? अय्यरसनभूताः, अग्न्यः प्रधानो रसो येभ्यस्तेऽज्यरसाः, शृंगाररसोत्पादका इत्यर्थः, यदुक्तं - रतिमाल्यालंकारैः । प्रियजनगंधर्वकामसेवाभिः ॥ उपवनगमनविहारैः । शृंगाररसः समुद्भवति ॥ १ ॥ इत्युक्तेः, अग्यरसाश्च ते प्रभूतावाग्ज्यरसप्रभूताः प्रचुरा इत्यर्थः अथावाग्ज्यरसेन शृंगाररसेन प्रचुरास्तान् कामगुणान् प्रकामं यथेच्छं भुंजीवहि, पश्चाद् भुक्त भोगसुखौ भूत्वा वृद्धत्वे प्रधानमार्ग प्रब्रज्यारूपं मोक्षमार्ग गमिष्यावः ॥ ३१ ॥ हे स्वामिन् ! तमारा आ= प्रत्यक्ष दीसता = कामगुणो एटले पांचे इंद्रियोने सुख देनारा पदार्थो=सारां वस्त्रो, सरस मिष्टान्न, पुष्प, चंदन, नाटक, गीत, ताल, वेणु, बीणा आदिक वस्तुओ, सुसंभृत छे; अर्थात् सारी रीते सुधारी सुसज्ज करी राखेल छे; ते पण | पिंडित = एक ठेकाणे गोटवी राखेळ छे, ज्यां त्यां छुटी छवाइ कोइ वस्तु पडेल नथी, किंतु एकत्र भेळी तैयार करेली पडो छे. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१४ ॥ ८३८॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | भाषांतर अध्य०१४ | 11८३९॥ राए काम गुण केवा छे ? अय्यरसमभूत श्रृंगाररसना उत्पादक का छे के-'रति भीति, मान्य-पुष्पहार, अलंकार, प्रियजन संसर्ग, उत्तराध्य | मनोभिलषित पदार्थोन सेवन, तथा उपवनमा जर्बु तथा त्यां विहार करवा इत्यादिक सामग्रीथी श्रृंगार रस उद्भवे छे.'१ अय्यरस यनसूत्रम् जेमा प्रचुर होय अथवा जेमां श्रेष्ठ रस आनंद पुष्कळ आवे तेवा कामभोगो हमणां तो प्रकाम परजी प्रमाणे भोगवी लइये, पश्चात् |८३९॥ | भोगमुख खुब भोगवीने वृद्धपणामां प्रधानमार्ग मोक्षमार्गे गमन करीशु. ३१ भुत्ता रसा भोई जहाइ णे वओ। न जीवियट्ठा पजहामि भोए ॥ लाभ अलाभं च सुहं च दुक्खं । संविक्खमाणो चरिस्सामि मोणं ॥ ३२ ॥ हे भगवति! रसो तो घणाय भोगव्या पण आ वय: आयुः आपणने छोडतुजाय छे; माटे हुँ' तो लाभ, अलाभ, सुख, दुःख. | तमामने समभावे जोतो सतो मौन मुनिपणु' आचरीश, हुं कांड जीवितने अर्थे भोगोने तजतो नथी. ३२ व्या०-अथ भृगुाह्मणींप्रत्याह-भोई इति हे भगवति! ब्राह्मणि ! रसाः शृंगारादयो भोगाश्च भुक्ताः संतो न | इति नोऽस्मान् जहति त्यति, वयो यौवनमपि त्यजति. हे ब्राह्मणि ! भोगान् जीवितव्याथै न प्रजहामि, किंतु लाभ, |च पुनरलाभ, च पुनः सुग्वं, च पुनर्दुःखं संविक्खमाणः समतयेक्षमाणः समभावेन पश्यन्नहं मौनं चरिष्यामि, मुनेः | कर्म मौनं, मुनयो हि-लाभालाभे सुखे दुःखे । जीविते मरणे तथा ॥ शत्रौ मित्रे तृणे स्त्रैणे । साधवः समचेतसः॥१॥ ool अस्मिन् साधुधर्मे रसेषु भोगेषु जीवितव्येषु निःस्पृहत्वं तन्मुनित्वमंगीकरिष्यामि ॥ ३२॥ हवे भृगु ब्राह्मणीने कहे छे-हे भगवति ! ब्राह्मणि ! रस शृंगारादिक तथा भोग-नाना प्रकारना पदार्थो भोगव्या, ए भोग For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | वेला भोगोए आपणने तज्यां, तेम वयः यौवन पण आपणने त्यजतुं जाय छे. हे ब्राह्मणि ! हुं आ भोगोने जीवितव्य माटे नथी ८ उत्तराध्य| तजतो किंतु लाभ, (च पुनः) अलाभ, सुख, तथा दुःख; ए सर्वेने समभावे जोतो सतो हुँ मौन=मुनित्रत आचरीश. (मुनिनुं कर्म ते भाषांतर यनसूत्रम् अध्य०१४ | मौन.) मुनियो तो-'लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित, मरण, शत्रु, मित्र, तृण, तथा स्त्री वर्ग; ए तमाममा साधु पुरुपो समान ॥८४०॥ | चित्तवृत्तिवाळा होय छे? १ आ साधु धर्ममां हुँ रसोमां, भोगोमां तथा जीवितमा निःस्पृहत्वरूप मुनिपणानो अंगीकार करीश. ३२50111८४०॥ मा हु तुम सोयरियाण संभरे । जुन्नो व हंसो पडिसुत्तगामी ॥ भुंजाहि भोगाई भए समागं । दुक्खं खु भिक्खायरियाविहारो ।। ३३ ।। प्रतिश्रोतगामी-सामे पूरे चालनार जीर्ण-वृद्ध सनी पेठे तमे सोदर-भाइओने मा संभारशो. माटे मारा समान भोगोने भोगवो. | केमके भिक्षाचर्या तथा बिहार खरेखर दुःखदायक छ. ३३ । व्या-अथ पुनर्ब्राह्मणी प्राह-हे पुरोहित ! त्वं मया समं भोगान् भुंश्व ? हु इत्यलंकारे, इत्यपि. हे स्वामिस्त्वं पुनः सौंदर्याणां सहोदराणां भ्रातृणां स्वजनसंबंधिनां गृहे स्थिताना मा स्मार्षीः. कोऽर्थः ? त्वं मुनिर्भूत्वा DEL पश्चाददुःखितः सन् गृहस्थान स्वबंधन समरिष्यसि, तस्मान्मया साध विषयप्सुखं भुंजानो गृहे तिष्टेत्यर्थः. खु इति | निश्चयेन भिक्षाचर्याविहारो दुःख दुःखहेतुरेवास्ति. भिक्षाचरत्वमसहमानस्त्वं गृहवासं स्मरिष्यसीति भावः, || त्वं क इव सोदरान स्मरिष्यसि ? जीर्णो हंस इव, वृद्धो हंसो यथा प्रतिश्रोतोगानी सम्मुख जलप्रवाहं तरंस्तत्र तरणाशक्तः पश्चादनुश्रोतोजलतरण स्मरति, मनसि खिन्नः सन्निति जानाति मया किमर्थं सन्मुखजलप्रवाहतरणमारब्धं? | रति, मनसि खिदो हंसो यथा प्रतिश्रीता गृहबास मरिष्य For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जलवहनमार्गण सह तरणमेव मम श्रेयस्तथा त्वमपि माभूरित्यर्थः ॥३३॥ अथ भृगुपुरोहित आहउत्तराध्य भाषांतर पनसूत्रम् फरीने ब्राह्मणी कहे छे-हे पुरोहित ! तमे मारी साथे रहीने भोगोने भोगवो 'ह' ए पद अलंकारार्थ छे. 'ण' ए पण अलं- अध्य०१४ BS कारार्थज छे. हे स्वामिन ! तमे पाछा सौदर्यनमारा सगा भाइओने तेमज सहु सहुने घरे बेठेला स्वजन संबंधीओने संभार शोमां. ॥८४१॥ B |८४१॥ शुं का? तमे मुनि थइ पाछळथी दुःखी थइने तमारा गृहस्थ बंधुओने संभारशो. माटे मारी साथे विषयमुखो भोगवता घरेज रहो. कारणके निश्चये भिक्षाचर्या विहार दुःखहेतुज छे. ज्यारे भिक्षाचरपणुं सहन नहि थाय त्यारे तमे गृहवासने याद करशो. (एवो भाव छे.) केनी पेठे तमे सोदरोने याद करशो ? ते कहे ठे-जेम जीर्ण-वृद्ध थयेलो हंस प्रतिस्त्रोतोगामी सामे पूरे तरतो तरतो ज्यारे । तरतां थाके पछी प्रवाह चहेतो होय ते वाजु तरवाने याद करे छे. मनमा खिन्न थइ-'अरे में जलपवाहने सामे तरवानो आरंभ का कर्यो ? जेम जळ बहेतु होय ते मार्गे तरवू एज मारुं श्रेयस्कर छे.' एम जाणे. तेम तमे पण थजोमां. ३३ जहा य भोई तणुजं भुगो। निम्मोयणि हिच्च पलाइ मुतो। एमेए तेहिं जाया पयहनि भोए । कहं नाणुगमिस्ममिको | हे भगवति ! जेम भुजंग-सर्प तनुज-पोताना शरीरधी उत्पन्न थयेल निमोचनी-कांचळीने त्यजीने मुक्त थयेलो पळे छे-चाल्यो जाय छे | एज प्रमाणे पुत्रो भोगने छेक त्यजे छ तो पछी हु ते पुत्रोने एकलो केम न अनुसरु ? ३४ । व्या०-भोई इति हे भगवति! हे ब्राह्मणि ! भुजगः सर्पस्तनुजां शरीरादुत्पन्नां निर्मोचनीं निर्मोचकं कंचुकं THE हित्वा मुक्तः सन् प्रयाति, एवमेती जाती पुत्री भोगान् प्रजहीतः. तो भोगत्यागिनो पुत्रोप्रत्यहमेक की सन् कथं नानुarl गमिष्यामि ? पुत्राभ्यां विहीनस्यैकाकिनो मम कीदृशो गृहवासः? धन्यौ तौ पुत्रौ यौ तरुणावेव कंचुकमिव विषय सर्पस्तनुजां पुत्रौप्रत्यहमेकानिध विषय For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१४ ॥८४२॥ सुखं त्यक्त्वा भुजंगमवद् व्रजत इत्यर्थः ॥३४॥ उत्सराध्ययनसूत्रम् । हे भगवति ! हे ब्राह्मणि ! भुजंग-सर्प तनुजा शरीरथी उत्पन्न थयेली निर्मोचनी निर्मोक-कांचळीने त्यजीने मुक्त छुटो थयेलो चाल्यो जाय छे, एम आ बे पुत्रो भोगोने तद्दन्न त्यजी दे छे; हवे ते भोगत्यागी चे पुत्रोना प्रति हुँ एकलो केम अनुगमन न करूं? ॥८४२॥ ये पुत्रोथी विहीन थयेला एकला माग जेवाने गृहवास केवो ? ते बेय पुत्र धन्य छे के जेओ तरुण अवस्थामांज कांचळीनी पेठे | | विषयसुखोने त्यजी भुजंगनी पेठे चाली नीकले छे. ३४ छिदित्तुं जालं अवलं व रोहिया । मच्छा जहा कामगुणे पहाय ।। धोरेयसीला तवसा उदारा । धीरा हु भिक्वायरियं चरंति ॥ ३५ ॥ जेम रोहित (जातना) माछला अबल-जीर्ण थइ गयेल जाळने छेदीने फरे छे, तेम धीर पुरुषो पण कामगुणोने त्यजीने धौरेयशील रसा धोरीबळदना समान शीळवाळा, तपवडे उदार थइ भिक्षाचर्याने आचरे छे. ३५ ।। व्या०-हे ब्राह्मणि ! धीरा धैर्यवंतो जना हु इति निश्चयेन भिक्षाचर्या भिक्षावृत्ति साधुधम चरंति. कीदृशा धीराः ? तपसा उदाराः, अथवा कीदृशी भिक्षाचर्या ? तपसा उदारां, तपसा प्रधानां, प्राकृतत्वाद्विभक्तिलिंगव्यत्ययः. पुनः कीदृशा धीराः ? धौरेयशीलाः, धौरेयाणां धुरंधराणामिव शीलमुढभारोदहनसामर्थ्य येषां ते धौरेयशीला:. किं Call कृत्वा धोरा भिक्षाचर्या चरंति ? कामगुणान् प्रहाय प्रकर्षण हित्वा. के किं यथा ? यथाशब्द इवार्थे, के किमिव ? | रोहिता मत्स्या रोहितजातीयमीना अबलं जीर्ण जालमिव, यथा बलिष्टमत्स्या जीर्णजालं छित्वा निर्भयस्थाने चरति, For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ord तथा धीराः कामगुणान् पाशसदृशास्त्यक्त्वा भिक्षाचर्यामाद्रियंते, अहमपीत्यमेव चरिष्यामीति भावः ॥ ३५ ॥ इति भाषांतर उत्तराध्ययनसूत्रम् भृगुवचनं श्रुत्वा ब्राह्मण्याह अध्य०१४ JE हे ब्राह्मणि ! धीर धैर्यवान् पुरुषो निश्चये भिक्षाचर्यारूप साधुधर्मने आचरे छे. केवा धीरपुरुषो ? तपबडे उदार; अथवा तपथी ॥८४३॥ ॥८४३॥ प्रधान एवी भिक्षाचर्या, (पाकृत होवाथी लिंग तथा विभक्तिनो व्यत्यय थइ शके छे.) फरी ते धीर केवा ? धौरेय शील.=धुरंधर /BE (वळद)ना जेवू जेतुं शील होय, अर्थात् उपाडेला भारने बहन करवानुं जेमा सामर्थ्य होय तेवा. केवी रीते ? कामगुणोने प्रकर्षे) on करी (छेक) छोडी दइने, (अत्रे यथा शब्द इव अर्थमां छे.) रोहित जातिना माछला अबळजीर्ण थइ गयेली जाळने जेम छेदीने | निर्भय स्थानमा विचरे छे तेम धीरपुरुषो कामगुणो के जे जाळ पाश जेवा छे ते ने खजीने भिक्षाचर्याने आदरे छे. हुं पण एज प्रमाणे विचरीश; ३५. आq भृगुर्नु वचन सांभळी ब्राह्मणी बोलीनहे व कुंचा समइक्कमंता । तयाणि जालानि दलित्तु हंसा ।। पलंति पुत्ता य पई य मज्झं । तेह कहं नाणुगमिस्ममेक्का आकाशमा जेम क्रौंच पक्षीओ तथा हसोते ते स्थानोने उल्लंघन करता करता बच्चे पसारेला जाळ-पाशलाने तोडीने पलायन | करे छे; तेज प्रमाणे मारा पुत्रो तथा आ पति पण जो विचरवा तैयार थया छे; तो हुँ एकली तेओनी पाछळ केम न जाउ? ३६ व्या०-पुत्रौ द्वावपि, पतिभृगुः पुरोहितः, एते त्रयोऽपि मह्यमिति मां दलयित्वा मत्संबंधिस्नेहजालं भोगाभि| वंगजालं छित्वा पलंति परियांति, परि समंताधान्ति संगमाध्वनि चरंतीत्यर्थः. एते के इव ? क्रौंचाः क्रौंचपक्षिणः, हमा हंसपक्षिणो वा, ते इच, यथा क्रौंचपक्षिणो हंसपक्षिणश्च ततानि विस्तीर्णानि जालानि दलयित्वा भित्वा समतिका For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JE मंतो नानाप्रदेशानुल्लंघयंतो नभसि परियांति गगने परियांति, स्वेच्छया विचरंति, अत्र हि विषयसुखं जालोपमं, Je उत्सराध्यनिरुपलेपत्वात्साधुवर्त्म नभाकल्प, उत्तमजीवानां क्रौंचविहंगहसविहंगोपमानं. यदेते त्रयोऽपि मां त्यक्त्वा व्रजंति, BE भाषांतर यनसूत्रम् अध्य०१४ तदाहमेकाकिनी तान् कथं नानुगमिष्यामि ? अपि त्वनुगमिष्याम्येव. ३६ ॥८४४॥ पुत्रो बेय, पति भृगु पुरोहित; ए त्रणे मने दलित करीने अर्थात्-मारा संबंधी स्नेहजाळने तेमन भोगासक्तिरूप जाळने छेदीने ||८४४॥ N/ पलायन करे छे. परियाण करे छे=संयममार्गे संचरे छे. ए केनी पेठे ? जांचपक्षी अथवा सपक्षिभो जेम तत=कोइए पसारेला KE जाळ पाशलाने भेदीने समतिकांत यता-विविधपदेशोने उल्लंघता नभ-आकाशमा परियान करे छे; गगनमा स्वेच्छा प्रमाणे संचार करे छे. अहीं विषयसुखने जाळनी उपमा आपी छे उपलेप रहित होवाथी साधुमार्ग आकाश तुल्य कह्यो, उत्तम जीवोने क्रौंच तथा | हंस पक्षिओनी उपमा आपी. ज्यारे आ त्रणे जण मने त्यजीने जाय छे त्यारे हुं एकली तेओनी पाछळ केम न जाउं ? किंतु जइशन. पुरोहियं तं ससुयं सदारं । सुच्चाभिनिक्खम्म पहाय भोए ॥ कुटुंबसारं विउलुत्तमं तं । रायं अभिक्ख समुवाय देवी ससुत-पुत्रो सहित तथा सदार-स्त्री सहित, भोगोनो त्याग करीने तथा विपुल कुटुंब अने सार-धनादि उत्तम पदार्थाने त्यजीने, Eघर छोडी बहार नीकळेला पुरोहितने सांभळीने ते इषुकार राजाने तेनी देवी-राणो कमलावती अभीक्ष्ण-फरी फरीने कहेवा लागी. अथ यदा चतुर्णा प्रव्रज्याया मनोऽभूत् तदा किं समभूदित्याह-राजानं तमिषुकारिणं देवी कमला अभीक्षणं hall वारंवारं मनुवाच, सम्यक्प्रकारेण शिक्षापूर्वकमुवाच. किं कृत्वा ? पुरोहितं भृगु ससुतं पुत्रसहित, सदारं सपत्नीक भोगान् प्रहाय प्रकर्षण त्यक्त्वा, पुनर्विपुलं विस्तीर्णमुत्तमं तं कुटुंबसारं प्रहाय त्यक्त्वा, कुटुंबं स्वजनवर्ग,सारं धन PRADESH For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१४ |८४५॥ धान्यादिकं, उभयमपि त्यक्त्वा, अभिनिःक्रम्य गृहानिर्गत्य प्रत्रजितमिति श्रुत्वा. तस्य पुरोहितस्य धनादिकं गृहंत उत्तराध्ययनसूत्रम् राजानं गज्ञी प्राहेत्यर्थः ॥ ७ ॥ । पछी ज्यारे चारे जणानुं प्रवज्या लेवा मन थयुं त्यारे शुं थयु ? ते कहे छे-ते इषुकारी राजाने देवी कमला अभीक्षण-वार।।८४५॥ वार सम्यकप्रकारे शिक्षापूर्वक वचन बोल्यां; केम करीने ? पुरोहित भृगुनामा ससुत=पुत्रोसहित तथा सदार-वीसहित भोगोने अत्यंत त्यजीने, वळी विपुल=विस्तारवाळां कुटुंब स्वजन वर्गने अने उत्तम सार=धनधान्यादिकने पण त्यजीने घरमांथी नीकळेला-पत्र| जित थयेला सांभळीने. ते पुरोहितना धनादिक लइ लेता राजाने राणीए कछु. ३० वंतासी पुरिसो रायं । न सो होइ पसंसिओ ।। माहणेण परिचत्तं । धणं आयाउमिच्छमि ॥ ३८ ॥ हे राजन् ! वांताशी-वमन करेला अन्नने खानारा होय ते प्रशंसित थतो नथी. ए ग्रामणे परित्यजेलु घन तमे लेवा इच्छोछो. ३८ व्या०-राज्ञी किमुवाचेत्याह-हे राजन् ! यो वाताशी स पुरुषः प्रशंसनीयो न भवेत्. हे राजन् ! श्लाघ्यो न भवेत्. ब्राह्मणेन परित्यक्तं धनं त्वमादातुमिच्छसि. ब्राह्मणेन त्यक्तं धनं वाताहारसदृशं गृहीत्वा त्वं श्लाघ्यो न भविष्यसीत्यर्थः. वातं वदनादुगतमाहारमश्नातीत्येवंशीलो वाताशी यांनाहारभोक्त्यर्थः. ॥ ३८॥ ते राणी शुं बोल्या! ते कहे छे-हे राजन् ! जे बांताशी थाय ते पुरुष प्रशसनीय चखाणवा योग्य नथी रहेतो. हे राजन् ! BE ब्राह्मणने परित्यक्त-त्यजी दीधेलुं धन तुं लइ लेवाने इच्छे छे ? ब्राह्मणे त्यजेतुं धन वमन करी नाखेला आहार जेवु छे तेने गृढण all करीने नुं श्लाघ्य लोकोमा प्रशंसापात्र थइश नहिं. वात मोढामांथी उछळेला आहारर्नु अशन भक्षण करनार वांताशी, अर्थात् वमन | For Private and Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् |भाषांतर अध्य०१४ ॥८४६॥ |८४६॥ | करेलुं खानारो कहेवाय. ३८ सव्वं जग जइ तुम्हं । सव्वं वावि धर्ण भवे || सव्वंपि ते अपजतं । नेवताणाय त तव ।। ३९ ।। (हे राजन् ! ) कदाचित आ सर्व जगत् तमने होय, तेमज सर्व धन पण तमने होय, तो ते सघळू पण तमने अपर्याप्त तृप्ति न आपना थाघ पूरून थाय तेम तमारा रक्षण माटे पण नज थाय; ३९ हे राजन् ! यदि सबै जगत् समस्तोऽपि भूलोकस्तव भवेत् , तवायत्तः स्यात् , वा अथवा सर्वमपि धनं रजतस्वरत्नादिकमपि तव भवेत्. तत्सर्वं जगत् पुनः सर्वमपि धनं ते तवाऽपर्याप्तं भवेत् , तवेच्छापूरणायाऽसमर्थ स्यात् , यत इच्छाया अनंतत्वात् , पुनस्तत्सर्व जगत् , तत्सर्व धनं च त्राणाय मरणभयाद्रक्षणाय तव न भवेत् . यदि जगद्धनं || तवेच्छापूरणाय, अथ च मरणाद्रक्षणायाऽसमर्थ, तदा किं ब्राह्मणपरित्यक्तधनग्रहणेनेत्यर्थः ॥ ३९ ॥ | हे राजन् ! यदि कदाच जगत्-आ समस्त भूलोक तमने होय, तमारे स्वाधीन थाय; अथवा जगत्नु सर्व धन सोना रूपा | रत्न आदिक तमाम तमने होय, ते पण ते सर्व जगत तथा ते सर्व धन पण तमने अपर्याप्त थाय, अर्थात् तमारी इच्छा परिपूर्ण करवामां पूरु न पढे. केमके इच्छा अनंता छे. वळी ते सर्व जगत् तथा सर्व धन तमने रक्षण देवाने एटले मरणना भयथी बचाववाने पण समर्थ न थाय. ज्यारे आखं जगत् तथा जगतनुं तमाम धन पण तमारी इच्छा परिपूर्ण करवाने अने मरणथी रक्षण आपवा | असमर्थ होय, तो पछी आ ब्राह्मणे त्यजेलु धन लइने थवार्नु हतुं. ३९ मरिहिसि रायं जया तया वा । मणोरमे कामगुणे पहाय ॥ एक्कोहु धम्मो नरदेव ताणं । न विजई अनभिहेह किंचि॥४०॥ For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् भाषांतर अध्य०१४ ॥८४७॥ ॥८४७॥ हे राजन् ! ज्यारे त्यारे पण तमे मनोरम कामभोगोने त्यजीने निश्चये मरशोः ए टाणे हे नरदेव ! एकलो धर्मज पाण-रक्षणरूप छ, अन्य आ संसारमा कंड पण छे नहि. ४० __ व्या०-हे राजन् ! यदा तदा गमिस्तस्मिन् काले मनोरमान् मनोहरान कामगुणान् प्रहाय प्रकर्षण त्यक्त्वा मरिष्यसि, नियमाणस्य पुरुषस्य धनादि साथै न भवति. हे नरदेव ! हु इति निश्चयनैको धर्म एव त्राणं शरणं विद्यते. fll इह जगति, इह मृत्यौ वा जीवस्यान्यत्किचित् त्राणं न विद्यते. ॥४०॥ हे राजन् ! यदा तदाजे ते काळे, मनोरम मनोहर कामगुणोने प्रकर्षे तद्दन त्यजीने निश्चये तमे मरशो, मरनार पुरुषनां धनादिक तेनी साथे नथी जता. हे नरदेव ! 'हु' निश्चये जाणजो जे एकलो धर्मज मात्र त्राण-शरण छे. आ जगत्मां ए मृत्यु टाणे जीवने बीजं कंइ पण त्राण रक्षण नहीं आपी शके. ४० नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा । संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं ॥ अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा। परिग्गहारंभनिअत्तदोसा ।। ४१॥ पांजरामां पूरायेली पक्षिणीनी पेठे हुरमण करती नथी, अर्थात् मने चेन पडतुनधी; माटे हुआ स्नेहबंधोने छेदी नाखीने अकिंचना-कशु पासें न राखतां तेमज सरल रीते कार्य करती अने विषयरूपी मांस रहित तथा परिग्रह भने आरंभ दोपथी निवृत बनीने मौन-मुनिव्रत आचरीश. ४१ व्या०-अहमित्यध्याहारः. हे राजन्नहं न रमे, रति न प्राप्नोमि, वाशब्द इवार्थे, पक्षिणी पंजरे इव, यथा पक्षिणी For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्य०१४ JE पंजरे रतिं न प्रामोति, अहं संतानच्छिन्ना सती मौनं मुनीनामाचार चरिष्याम्यंगीकरिष्यामि. छिन्नः संतानः स्नेहसं-|| उत्सराध्य ततिर्यया सा छिन्नसंताना. पुनः कथंभूता सत्वहं ? अकिंचना सचित्ताचित्तद्विविधपरिग्रहरहिता. पुनरहं कथंभूता सती? यनसूत्रम् ऋजु मायारहितं कृतं तपोधर्म यया सा ऋजुकृता. पुनः? कथंभूता सती, निरामिषा सती, नि:क्रांता आमिषाद्विषया ॥८४८॥ दिपदार्थादिति निरामिषा. विषयादयः पदार्था हि विषयिजीवानां गृद्धिहेतुत्वादामिषोपमा एव. तम्मादहं निर्विषया ॥८४८॥ सती. पुनः कथंभूता सत्वहं ? परिग्रहारंभनिवृत्तदोषा, परिग्रहश्चारंभश्च परिग्रहारंभौ, तौ निवृत्ती दोषौ यस्याः सा परिग्रहारंभनिवृत्तदोषा. ॥ ४१ ॥ ( 'अहं' पदनो अध्याहार छे.) हे राजन् ! हुँ रमती नथी,=मने क्यांय भीति थती नथी. ( 'वा' शब्द 'इव'ना अर्थमां छे.) Jay जेम पक्षिणी पांजरामां रति नथी पामती तेम आ राजभवनरूपी पांजरामां मने पण चेन पडतुं नथी तेथी हुँ तो हवे संतानछिन्ना र छेदी नाखेल छे स्नेह संतति=धनादिकमांनी वासनाधारा जेणे एवी बनीने मौन=मुनिओना आचारने चरीश अंगीकार करीश. पुनः केवी थइने ? अकिंचना-सचित्त तथा अचित्त बेय पकारना परिग्रहथी रहित तथा ऋजु-सरल-माया रहित छे कृत-तपोधर्मा धनुष्ठान जेनुं एवी, तेमज निरामिषा आमिष जे विषयादि पदार्थो तेयी नीकळी गयेली विषयोथी सर्वदा दूरज रहेनारी; विषयादि aell पदार्थो विषयमां रच्या पच्या रहेता विषयि जोरोना आकांक्षा हेतु होवाथी तेने आमिष मांसनी उपमा आपेली छे; माटे हुँ निर्विषया थइने तथा परिग्रह अने आरंभ आ बन्ने दोषो जेना निवृत्त थया छे तेवी बनीने मुनिना आचार स्वीकारवा इच्छु छु. ४१ दवग्गिणा जहाण्णे । डज्झमाणेसु जंतुसु ।। अन्ने सत्ता पमोयंति । रागदोसवसंगया ॥ ४२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥८४९ ॥ 毛毛毛毛毛毛毛毛毛片毛毛 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेम अरण्यमां दावाग्निथी जंतुओ दह्यमान वळता होय त्यारे तेओने जोइ अन्य बीजा राग तथा द्वपने वश थयेला प्राणीओ प्रमोद= हर्ष पामे छे. ४२ (पछीनी गाथा साधे संबंध छे.) व्या० - अपरं च यथारण्ये दवाग्निना जीवेषु दह्यमानेषु सत्स्वन्येऽदग्धाः सत्वाः प्रमोदते हर्षिता भवंति, मनस्येवं | जानंत्येते ज्वलंतु, वयमदग्धास्तिष्टामः कथंभूतास्ते ? रागद्वेषयोर्वशं गता रागद्वेषग्रस्ताः ॥ ४२ ॥ बी पण जे अरण्य विषये दावाशिवडे जीवो दद्यमान=बळता होय त्यारे अन्य=न दाझेला प्राणियो वर्ष पामे छे. मनमां | तेओ एम जाणे छे के 'आ भले बळो, आपणे तो जरा पण दाइया विना आम छेटा उभा छड़ए.' ते केवा ? राग तथा द्वेपने वश थयेला = रागद्वेष ग्रस्त बनेला, ४२ एवमेव वयं मूढा । कामभोगेसु मुच्छिया ॥ उज्झमाणं न बुज्झामो रागदोसग्गिा जगं ॥ ४३ ॥ | एवीज रीते आपणे पण मृढ तथा कामभोगमां मुछित थयेला रागद्वेषरुप अग्निथी दह्यमान-सळगतुं जगत्ने नथी जाणता. ४३ व्या०-- एवमनैव दृष्टांतेन वयं मूढा अविवेकिनः कामभोगेषु मूर्च्छिताः संतो रागाद्वेषाग्निना जगद्दह्यमानं न | बुध्यामहे न जानीमहे वयमिति बहुवचनाद्वह्वोऽस्मादृशा जीवा इति ज्ञापनार्थ ॥ ४३ ॥ एम=आज दृष्टांतथी, आपणे मूढ = अविवेकी तथा कामभोगोमां मूर्च्छित = बेहोश = चनीने रागद्वेषरूपी अग्रिवडे आ जगत् वळे छे | तेने नथी जाणता नथी समजता. अत्रे 'वयम्' ए बहुवचन प्रयोग, आ संसारमां घणा जीवो आपणा जेवाज के एम ज्ञापन करवा माटे करेल छे. ४३ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० १४ ॥८४९ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१४ ८५०॥ भोगे भुच्चा वमित्ता य | लहुभूय विहारिणो || आमोयमाणा गच्छंति । दिया कामकमा इव ।। ४४ ॥ उत्तराध्य- मोगोने भोगवीने तथा ते भोगोनु' वमन करीने अर्थात् ते भोगो पुरुषार्थ नथी पम समजी तेनो त्याग करीने, लघुभूय-हळवा मनीने यनसूत्रम् अर्थात् हृदयमाथी कामभोगनो भार दुर थतां हलका फुल जेवा थइने विहार करता, आमोदमान-मनमां हमेशां हर्षपूर्ण रहेता विवेकी JEL जनो कामक्रम-मरजीमां आवे त्यां फरी शकनारा द्विजम्पक्षियोनी पेठे विचरे छे. ४४ ॥८५०॥ व्या०-धन्यास्ते जीवा इत्यध्याहारः, ये जीवा भोगान् भुक्त्वा, पुनरुत्तरकाले वांत्वा त्यक्त्वा, अर्थात् साधवो भूत्वा, आमोदमानाः साध्वाचरणीयानुष्ठानेन संतुष्टाः संतो गच्छंति विचरंति, वांछितं स्थानं व्रजंति, ते जीवाः, के bollइव ? कामक्रमा द्विजा इव पक्षिण इव, कामं स्वेच्छया क्रमो विचरणं येषां ते कामक्रमाः स्वेच्छाचारिणः, यथा द्विजाः स्वेच्छया अप्रतिबद्धविहारत्वेन यत्र यत्र रोचंते तत्र तत्रामोदमाना भ्राम्यंति, एवमेतेऽप्यभिष्वंगाभावात् यत्र यत्र संयमनिर्वाहस्तत्र तत्र यांतीत्याशयः. पुनः कथंभूतास्ते जीवाः? लघुभूतावहारिणः, लघुर्वायुस्तभृतास्तदुपमाः संतो विहरतीत्येवंशीला लघुभूतविहारिणः. अथवा लघुश्चासौ भूतश्च लघुभूतो वायुस्तददिहरंतीत्येवंशीला लघुभूतविहाhd रिणः, वायुरिवाऽप्रतिबद्धविहारिणः ॥ ४४ ॥ (ते जीवो धन्य छ,' एटले अध्याहार करवानो छे.) जे जीवो भोगोने भोगवी पाछा भोगने अंते ते भोगोने वमन करीत्यजी दइने; अर्थात् साधुओ थइने आमोदमान-साधुए आचरवा योग्य अनुष्ठानवडे संतुष्ट थयेला विचरे छे; वांछित स्थाने जाय छे ते जीवो, कामक्रम, पक्षियोना जेवा, एटले-स्वेच्छा प्रमाणे जेतुं विचरण होय एवा-स्वेच्छाचारी दिज-पक्षियोना जेवा; जेम For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Bal पक्षियो पोतानी इच्छा प्रमाणे अप्रतिबद्ध रोकटोक वगर ज्या ज्यां रुचे त्यां त्यां मोदमान प्रसन्नतापूर्वक भमे छे एम आ मुनि पण उत्तराध्य-EET | अभिष्टांग-कशामां आसक्ति न होवाथी ज्या ज्यां संयम नभी शके त्यां त्यां जाय छे. (एवो आशय छे.) ते जीवो केवा ? लघु% | भाषांतर यनसूत्रम् अध्य०१४ JE/ वायु, तेना समान थइ विहार करता; अथवा वायुनी पेठे विहरण शीळ-बायुवत् अप्रतिबद्ध विहार करनारा. ४४ ॥८५१॥ इमे य बद्धा फंदति । मम हत्थजमागया । वयं च सत्ता कामेसु । भविस्सामो जहा इमे ॥ ४५ ॥ 1८५१॥ dil हे आर्य ! आ मारा हाथमा आवेला (विषयो) गद्ध-पकडायेला होवा छतां पण सरकी जाय छे. अने आपणे तो ए काम-विषय-132 | भोगो मां सक्तम्चोंट्या पड्या छइप, हवे तो आ (पुरोहितादिक)नी पेठे आपणे पण थाशु. ४५ । व्या०-हे आर्य ! इमे च प्रत्यक्षाः शब्दरूपरसगंधस्पर्शादयः पदार्था बद्धा नियंत्रिताः सुदृढीकृता मम हस्ते Dell पुनस्तव हस्ते आगता अपि फंदंति स्पंदंति, अस्थितिधर्मतया गत्वरा दृश्यंते, सुरक्षिता अपि यांतीत्यर्थः. एतादृशेषु च गत्वरेषु कामेष्वज्ञा वयं सक्ताः संजाता लिप्ता जाताः तस्मादेतेषु गत्वरेषु कः स्नेहः? हे स्वामिन्नावां यथेमे पुरोहिII तादयश्चत्वारो जातास्तथा भविष्यामः ॥ ४५ ॥ __ हे आर्य ! आ प्रत्यक्ष प्रतीत थता शब्द स्पर्श रुप रस गंधादि पदार्थो, बद्ध-नियंत्रित-अति दृढताथी मारा तेमज तमारा पण ३. हाथमां आवेला छतां स्पंद पामे छे-अस्थिरता धर्मवाळा होवाथी भागता होय तेवा जणाय छे. सारी रीते साचवतां छतां पण जता Je रहे छे. एवा ए कामभोगने विषये आपणे अज्ञ थइ सक्त-खरडायेला बन्या छइए माटे ए नश्वर कामभोगोमां वळी स्नेह केवो ? हे स्वामिन् ! जेम आ पुरोहितादिक चार थया तेबीज रीते आपणे पण थइशं. ४५ For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit सामिसं कुललं दिस्स । बज्झमाणं निरामिसं ॥ आमिसं सब्वमुज्झित्ता । विहरामि निरामिसा ।। ४६॥ मांस सहित गीध पक्षीने जोर गीजा पक्षिओ माझे छे-अने निरामिष मांस बगरनाने कोइ बाधा करतुनथी तेथी सर्व आमिषपनसूत्रम् ३८ विषयोग्ने त्यजी दइने निरामिष-निराकांक्ष बनीने विदरशु. ४६ । अध्य०१४ ८५२॥ ____ व्या०-हे राजन्नहं सर्वमामिषमभिष्वंगहेतुं धनधान्यादिकं उझिसा त्यक्त्वा निरामिषा त्यक्तसंगा सत्यप्रतिय ॥८५२॥ विहारतया विहरिष्यामि. किं कृत्वा ? सामिपमामिषसहितं कुललं गृद्धमपरं पक्षिणं वा परित्वन्यैर्बध्यमानं पीड्य-JE मानं दृष्ट्वा. सामिषः पक्षी ह्यामिषाहारिपक्षिभिः पीड्यते, अथवा सामिषं सस्पृहं भोजनाद्यर्थे लुब्धं कुललं पक्षिणं परैर्बध्यमानं पीड्यमानं दृष्ट्वा. यतो हि पक्षिणो यदा गृह्यते, तदा तान् भक्ष्यं दर्शयित्वा पाशादिना वध्यंते. आमिषाहारी शकुनिस्तु आमिषदर्शनेनैव लोभयित्वा मीनवध्यते. सह आमिषेण आमिषरसास्वादलोभेन वर्तते इति | सामिषस्तं सामिषं ॥ ४६॥ हे राजन् ! हुं सर्व आमिप-आसक्तिनां हेतुभूत धनधान्यादिकने त्यजीने निरामिषा-त्यक्तसंग थइ मतिबंध रहित विहार G करीश केम करीने? कसामिष-आमिष सहित कुलल-गीध पक्षीने (अथवा जेनी पांसे मांस छे एवा बीजा पक्षीने) अन्य पक्षियोए हणाता जोइ. आमिपाहारी पक्षिओ मांसवाळा पक्षीने तेनी पांसेथी मांस पडावी लेवा बाझे छे-पीडे छ; अथवा सामिष-सस्पृह भोजनार्थे लुब्ध बनेल कुलल पक्षीने परपक्षियोए पीडा करतो जोइने. पक्षियो ज्यारे पकडाय छे त्यारे तेओने कई भक्ष्य देखाडी BC/ पाशलावती तेने बांधी ले छे, मांसाहारी पक्षी तो मांस देखाडीनेज लोभावी माछलानी पेठे बंधाय छे, आमिषे सहित-आमि For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पनसूत्रम् ॥८५३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसास्वादना लोभवाको सामिष कहेवाय. ४६ गिद्धोवमे उनच्चा णं । कामे संसारवणे || उरगो सुवण्णपासेब्व । संक्रमाणो तनुं चरे ॥ ४७ ॥ पूर्व गाथामां कहेला मांस युक्त गोधनी उपमावाळा भोगासक्त जीवने जाणी तथा कामने संसार वधारनारो जाणी सुपर्ण गरुडनी पांसे उरग-सर्प जेम तेम शंकमान-शंकित चित रही तनु धीरे धीरे विचारो ४७ व्या०-हे राजन् ! त्वमपि विषयेभ्यः शंकमानः सन् तनुं स्वल्पं यतनया चरेरिति चरस्व ? विषयेभ्यो भीतिः | पदे पदे विधेत्यर्थः किं कृत्वा ? गृद्धोपमान् पूर्वोक्तसामिषकुललोपमान् विषयलोलुपान् जनान् ज्ञात्वा तु पुनः कामान् संसारवर्धकान ज्ञात्वा, विषयलोलुपाः कामैः पीडिताः संमारे भ्रमंतीति ज्ञात्वा त्वं क इव शंकमानः सन् ? सुवर्ण| पार्श्वे गरुडसमीपे उरग इव सर्प इव यथा गरुडपार्श्वे सर्पः शनैः शनैः शंकमानः सन् चरति, यथा गरुडो न जानाति | तथा अविश्वासी सन् स्वल्पं तनु यथास्यात्तथा चलति, तथा त्वमपि गरुडोपमानां विषयाणां विश्वासं मा कुर्याः अत्र हि विषयाणां गरुडोपमानं संगमरूपजीवितापहारकत्वात्. नरस्य हि भोगलोलुपत्वादुरगोपमानं, यत उरगो भोग्येोच्यते विषयास्तु दृश्यमानाः सुंदराः, गरुडकाराः भोगिनां हि विषयेभ्य एव मृत्युः स्यात्, तस्माद्विषयेभ्यः शंकनीयमित्यर्थः. हे राजन! तमे पण विषयोथी शंकाकुल रही तनु=स्वल्प जतनवडे विचरो विषयोथी पगले पगले भीति राखबी. केम करीने? गृद्धोपम= पूर्वोक्त मांसयुक्त कुलल=गीधनी उपमावाळा विषय लोलुप जनोने जाणीने, तेमज काम बधाय संसारने वधारनारा छे एम जाणीने; विषयलोलुप मनुष्यो कामनाभोथी पीडित थइ संसारमां भगे छे एम जाणीने तमे सुपर्ण गरुडना पांसे उरग= सर्प For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० १४ ||८५३॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य धनसूत्रम् ॥८५४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | जेम तेम शंकमान =शंकितचित्त वनी, धीमे धीमे जेम गरुड न जाणे तेम अविश्वासी रही तनु=स्वल्प जेम थाय ते सर्प चाले तेवी | रीते चालो. अर्थात् नमे पण गरुडनी जेने उपमा कही तेवा विषयोनो विश्वास करशोमां अत्रे विषयोने संयमरूम जीवितना अपहारक होवाथी गरुडोपमान आप्युं, तथा नर = मनुष्योने भोगलोलुप होवाथी सर्पोपमान आपयुं, कारण के सर्प भोगीज कहेत्राय छे. |विषयो तो देखाता सुंदर होवाथी गरुडाकार कहा. भोगीजनोनुं विषयोथीज मृत्यु थाय छे. माटे विषयोथी सर्वदा संकित - चेतता रहे: नागोव्व बंधणं छित्ता । अप्पणो वसहि वए || एवं पत्थं महाराय | इसुयारिति मे सुयं ॥ ४८ ॥ जेम नाग=हाथी बंधन छेदीने पोतानी वसति अरण्यमां जाय, [तेम तमे पण कर्मनां बंधन छेदीने आत्मानी वसति मोक्षगतिर जशो.] हे महाराज इषुकार ! आ पथ्य = हितकारक में जे साभळ्यु तु ते तमने कः ४८ ब्वा०—हे राजन् ! नाग इव हस्तीव बंधनं छित्वाऽात्मनो वसतिं स्वकीयस्थानं विध्याटवीं यांति, तथा त्वमपि बलवत्त्वान्नागो विषयशृंखलां छित्वात्मनः स्थानं मुक्तिं व्रजेः, धीरपुरुषा गजतुल्याः, विषयाः श्रृंखलातुल्याः, मुक्तिर्वि ध्याटवीवात्मगजस्य स्थानमुक्तं, हे इषुकारिमहाराज ! मया साधुमुखादिति पथ्यं हितं श्रुतमस्ति, नाहं स्वबुध्या ब्रवीमीत्यर्थः ॥ ४८ ॥ हे राजन् ! नाग जेम-हाथी जेम बंधन छेदीने आत्मानी वसति-पोतानुं रहेठाण-विध्याटवीमां जाय तेम तुं पण बळवान् होवाथी नाग जेवो छो तो विषयशृंखलारूप बंधनने छेदीने आत्मानुं स्थान- मोक्षे जाओ; धीर पुरुषो हाथी समान अने विषयो श्रृंखला तुल्य तेम मुक्ति विध्याटवी जेवी आत्मा रूपी गजनुं स्थान कछु . हे इषुकारि महाराज ! में साधुओना मुखेधी आवुं पथ्य For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० १४ ॥८५४॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१४ ॥८ ॥ उत्तराध्य-/JE हितकर सांभळेलं ते हैं कई छ. हे कंड मारी बुद्धिथी कल्पीने नथी कहेती. ४८ यनसूत्रम् चइत्ता विउलं रज । कामभोगे य दुचए । निविसया निरामिमा । निन्नेहा निपरिग्गहा ॥ ४९ ।। ॥८५५॥ सम्मं धम्मं विआणित्ता। चिच्चा कामगुणे बरे ॥ तवं पगझहक्खायं । घोरं घोरपरकमा ॥५०॥ एवं ते कमसो वुद्धा । सवे धम्मपरायणा || जम्ममच्चुभओविग्गा । दुक्खस्संतगवेसिणो ॥५१॥ P4 [वणे गाथाओनो संबंध होबाथी कुलक कहेवाय छे.] विपुल-विशाळ राज्यने त्यजीने तथा दुस्त्यज-जेनो त्याग दुष्कर छे एवा कामभोगोने पण त्यजीने निविषय-विषयोथी पर धयेला तथा निरामिष आकांक्षा रहित थयेला वळी निःस्नेह-कशामां स्नेह न करता-सर्व संग रहित बनी अने नि परिग्रह-परिग्रह शून्य रही, सम्यक् धर्मने जाणीने तेमज वर-श्रेष्ठ कामगुणो-विविध भोगोने त्यजीने यथा ख्यात-जीनेश्वरे कह्या प्रमाणे घोर-उग्र तथा ग्रहण गरी घोर पराक्रम-कामादि शत्रु जीतवामां प्रचंड पराकमवाळा ते राजा अने राणी गन्नेये प्रव्रज्या लीधी. एवी रीते ते छये जणा क्रमे करी बुद्ध थया अने ते सर्वे धर्मपरायण रही जन्म तथा मृत्युना भयथी उद्विग्न थयेला; दुःखना अंतनी गवेषणा-शोधखोलमा लाग्या. ४९-५.-५१ व्या०--एवममुना प्रकारेण ते सर्वेऽपि क्रमशोऽनुक्रमेण षडपि जीवा वुद्धाः प्रतिबोधं प्राप्ताः, किं कृत्वा ? विपुलं विस्तीर्ण राज्यं त्यक्त्वा. च पुनर्वस्त्यजान् कामभोगांस्त्यक्त्वा. कथंभूतास्ते? सर्वे निविषा विषयाभिलाषरहिताः, पुनः कथंभूताः ? निरामिषाः स्वजनादिसंगरहिता निःस्नेहाः, पुनः कीदृशाः? निःपरिग्रहा याह्याभ्यंतरपरिग्रहिताः. Eai पुनस्ते जीवाः किं कृत्वा प्रतिबोधं प्राप्ताः ? सम्म सम्यक्प्रकारेण धर्म साधुधर्म विज्ञाय, पुनर्वरान् दुर्लभान प्रधनान | DO For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandi | कामगुणांस्त्यक्त्वा, कामस्य मदनस्य गुणकारित्वात्कामवृद्धिकरत्वाद् गुणाः कामगुणास्तान कामगुणान् दुर्लभान् | २८ उत्तराध्य स्रक्चंदननवीतादीन् कामोद्दीपनौषधादीस्त्यक्त्वा. अत्र पुनः कामगुणग्रहणं तेषामतिशयख्यापनार्थ. पुनः किं कृत्वा ? JE यनसूत्रम् 36 अध्य०१४ घोरमधीरपुरुषैग्नुचरं यथाख्यातं तीर्थकरोद्दिष्टं द्वादशविधं तपः प्रगृह्य भावतोंगीकृत्य. पुनः कथंभूतास्ते सर्वे ? घोर॥८५६॥ पराक्रमाः, घोरं पराक्रमं धर्मानुष्ठानविधिर्येषां ते घोरपराक्रमाः. पुनः कीदृशास्ते सर्वे ? धर्मपरायणा धर्मध्याने तत्परा | ॥८५६॥ इत्यर्थः पुनः कीदृशास्ते ? जन्ममृत्युभयोद्विग्ना जन्ममरणभीतिभीताः. पुनस्ते सर्वे किं कर्तुमिच्छवः? दुःखस्यांत मोक्षं गवेषिणो मोक्षाभिलाषिण इत्यर्थः ॥ ४९-५०-५१ ॥ एम उक्त प्रकारे ते सर्वे क्रमश:-अनुक्रमे छये जीवो बुद्ध थया-मतिबोध पाम्या. केम करीने ? विपुल-विस्तीर्ण राज्यने । त्यजीने तेमज दुस्त्यज-छोटी न शकाय तेवा-कामभोगोने पण त्यजीने ते सर्वे केवा ? निर्विषय-विषयाभिलाप रहित, तथा निरामिष-स्वजनादि संग रहित, निःस्ने-शेमांय स्नेह न करनारा; तथा निष्परिग्रह-बाह्य तथा आभ्यंतर बेय पकारना परिग्रह रहित. | पुनः ते, जीवो शुं करीने प्रतिबोध पाम्या ? ते कहे छे-सम्यक्पकारे धर्म-साधुधर्मने जाणीने, वळी वर-श्रेष्ठ दुर्लभ कामगुणोने त्यजीने काम-मदन, तेना, गुणकारी होयने-कामनी वृद्धि करनारा गुण ते कामगुणो; ते केवा ? दुर्लभ-पुष्पमाळा चंदन माखण Inail इत्यादिकने तथा कामोद्दीपक औपधादिकने पण त्यजीने अहीं पुनः 'कामगुण' पदनुं ग्रहण तेओना अतिशयन ख्यापन करवा माटे छे. शुं करीने ? घोर-अधीर पुरुषे न आचरी शकाय तेवु यथाख्यात-तीर्थकरोए कहेल छे ते प्रमाणे बार प्रकारचं तप भावथी ग्रहण 30 करीने ते सर्वे केवा? घोर पराक्रम-जेनो अनुष्ठान विधि अति घोर-कठिन होय छे तेवा. वळी ते केवा? धर्मपरायण-धर्मध्यानमां For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Jt www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१४ 11८५७॥ | तत्पर, तथा जन्म मृत्युना भयथी उद्विग्न, जन्ममरणनी भीतिथी त्रास पामता. तेश्रो करवातुं इच्छीने तेम करे छे ? दुःखना अंत | उत्तराध्य | मोक्षनी गवेषणा करता; अर्थात् मोक्षनी अभिलापाबाळा. (आम अर्थ छे.) ४२-५०-५१ यनसूत्रम् सासणे विगयमोहाणं । पुच्च भावणभावियया ।। अचिरेणैव्व कालेगं । दुवस्संतमुवागया ।। ५२ ॥ ॥८५७॥ TENE| पूर्व-पूर्वजन्ममा विगतमोह-मोह रहित जिनेश्वरना शासनमा भावे करी भावित संस्कारवान बनेला ते छर अचिर-थोडाज काळमा 7 दुःखना अंतने प्राप्त थया. ५२ व्या०पुनस्ते षडपि जीवा अचिरेणैव कालेन स्तोककालेन दुःखस्य संसारस्यांतमवमानमर्थान्मोक्षमुपागता मोक्षं प्राप्ताः कीदृशास्ते ? विगतमोहानां वीतरागाणां शासने तीर्थ पूर्व पूर्वस्मिन् भवे भावनया सम्यक्रियाभ्यासरूपया द्वादशविधमन:परिणतिरूपया भाविता रंजितात्मानः ॥ १२ ॥ अथ तेषां मर्वेषां षण्णामपि जीवानां नामान्याह पुनः ते छये जीवो अचिरकाळे करी-स्वल्पसमयमांज दुःख-संसारना अंत-अवसानने अर्थात् मोक्षने पाम थया. केवा ते ? | विगतमोह-वीतरागना शासनमा पूर्वभवमा सम्यविक्रयाना अभ्यासरूप भावनावडे-द्वादशविध मनःपरिणामरूप भावनावडे-भावितरंगायेला. ॥५२॥ हवे ते छये जीवोनां नामो कही उपसंहार करे - राया य सह देवीए । माहणो य पुरोहिओ ॥ माहणी दारगा चेव । सवे ते परिनिव्वुडेत्ति बेमि ॥ ५३॥ देवीप सहित राजा, ब्राह्मण पुरोहित, तथा ब्राह्मणी अने दारक-बे तेना पुत्रो ओ सर्वेन्छये जणां परिनिर्वात थया अर्थात्-परितः आत्यंतिक निवृत्तिरूप मोक्ष पाम्यां. एम हु' कहु छु. ५३ - - For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie व्या-राजा इषुकारी, देव्या पदराज्या कमलया सह, ब्राह्मणो भृगुनामा पुरोहितो राज्ञः पूज्य: पुनर्लाह्मणी | उत्तराध्य पुरोहितस्य पत्नी यशा, च पुनरिकी ब्राह्मणब्राह्मण्योः पुत्रौ, एते सर्व परिनिवृता मोक्ष प्राप्ताः, इत्यहं ब्रवीमि. इति JE भाषांतर यनसूत्रम् ३६ अध्य०१४ सुधर्मास्वामी जंबूस्वामिनं प्राह. इतीषुकारीयमध्ययनं चतुर्दशं संपूर्ण. ॥ ५३ ।। इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिका॥८५८॥ RE. यामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायामिषुकारीयस्यार्थः संपूर्णः ॥ १४ ॥ श्रीरस्तु ॥ ॥८५८॥ फरीने ते छये जीवो-जेवा के-राजा इषुकारी, देवी पट्टराणी कमलावती ए सहित, ब्राह्मण भृगु नामनो पुरोहित राजानो J पूज्य, तथा ब्राह्मणी-पुरोहितनी पत्नी यशा, अने तेना वे दारक-ए ब्राह्मण ब्राह्मणीना पुत्रो; ए सर्वे परिनित थया-मोक्षने EC पाम्याः 'एम हुं बोल छु,' आम सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे. ए प्रमाणे इषुकारीयनामक आ चतुर्दश अध्ययन संपूर्ण थयु एवीरीते श्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिना शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि विरचित श्रीमद् उत्तराध्ययन मूत्रनी अर्थदीपिका नामनी वृत्तिमा चतुर्दश इपुकारीय नामना अध्ययननो अर्थ संपूर्ण थयो. ॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रस्य तृतीयो भागः समाप्तः ॥ For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययनसूत्रम् भाषांतर अध्य०१४ निवेदन. ॥८५९॥ ॥८५९॥ DDCDDDDDDDadded उत्तराध्ययनसूत्र प्रथम चार भागमा प्रसिद्ध करवानुं जाहेर करेल, परंतु मूल, मूलार्थ टीका अने भाषान्तर विगेरे विस्तारथी दाखल करवामां आवर्ता ग्रन्थनो विस्तार वधी जतां पांच भागमा प्रसिद्ध थशे छतां किंमतमां कांड वधारो कर्यो नथी. PINSON ली० पं० हीरालाल हंसराज श्री जैनभास्करोदय प्रेसमांमेनेजर-बालचंद हीरालाले छाप्यु-जामनगर. For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यनसूत्रम् भापांतर अध्य०१४ ।।८६०॥ 110221 ॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रे तृतीयो भागः समाप्तः. كانت تلك العلم النافع والعلاقات تلوی For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only