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पण क्रोध त्यजे नहिं एटलो क्रोधने स्थिर राखे; तेने कोइ 'आ मारो मित्र थाओं' एम धारे तो तेने पण पाछळयी त्यजी दीये, उत्तराध्यअत्रे 'वमति' पदनो प्रयोग करवानो आशय एत्रो छे के-प्रथम मित्रभाव करीने पाछळथी मैत्री संबंधने तरतज तोडी नाखे तेवो.
भाषांतर यन सूत्रम अत्रे एवी शंका करे हे के-साधुओ क्यांय भैत्री स्नेहभाव नन करे एम पूर्वे 'संयोगा विष्पमुक्कस्स.' इत्यादिकथी कहेवाय गg.
अध्य०११ ॥६२८॥ तो पछी 'मित्रीयमाणो वमति' ए केम कर्जा? तेना समाधानार्थ कहे छे के-अत्रे षट्नीवनिकायोने विषये व्रत ग्रहण समये भैत्री
॥६२८॥ धारण करीने पाछळथी पोते आचार पाळवानी शिथिलताने लोधे ते भैत्रीने त्यजे ए आ ठेकाणे विवक्षित छे. अथवा कोइये पण धर्मशिक्षा तथा शास्त्रार्थ दानादिक द्वारा उपकार को होय तो ते हितकारक होवाथी मित्र जेबो गणाय तेवाना उपकारनो लोप करी कृतघ्न बनी मित्रत्वनुं वमन करे छे, अत्रे वपन शब्द त्यागना अर्थमा छे एटले मित्रभाव छोडी दीये छे एवो अभिप्राय छे, वळी जे श्रुत शास्त्र ज्ञान पामीने मद धारे छे=ज्ञानाभ्यासथी अहंकार करे छे विद्या मदथी उन्मत्त बने छे आ अविनीतर्नु लक्षण को. अपि शब्द संभावना अर्थमां छे-जे पापपरिक्षेपी-पापवडे निंदा करनारों पण थाय एटले समिति गुप्ति विराधक पति तिरस्कार | करे अर्थात्-कोइ वखते कोइ समितिगुप्तिमा अज्ञानिपणाने लीधे स्खलित थाय त्यारे तेना प्रति धिक्कार दर्शावे; छिद्र जोइने अन्यनी
निंदा करे; तेम मित्रोने विषये पण कोपे-मित्ररूप शिक्षादाता संघादिक पति पण क्रोधे भराय अथवा संघादिकने कुपित करे-वळी JE Sad सुभतिशये हितवांछना करनार प्रिय मित्र तुल्य गुरु वगेरेना पण रहा एकांतमां पापक-न बोलवा जेवां दुर्वचनो वोले; मतलब के
पांसे होय त्यारे तो प्रिय बोले पण परपुंठे दोष भांखे. पुनः प्रकीर्णवादी असंबद्ध प्रलाप करनारो अथवा 'आ हुँ कहुं हुं एमज छ JE आम प्रतिज्ञापूर्दक निश्चय भाषणनी देववाळो अने बधायनो द्रोह करनारो तथा स्तब्ध अहंकारी 'हुं तपस्वी छ' इत्यादिक पोतानी
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