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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०११ ॥६३०|| अचपलः ४. गत्या अचपलः शीघ्रचारी न भवति १, स्थित्या अचपलस्तिष्टन्नपि शरीरहस्तपादादिकं अचालयन । उत्तराध्य- 16 स्थिरस्तिष्टति २, भाषया अचपलोऽसत्यादिभापो न स्यात् ३, भाधेन अचपलः सूत्रे अर्थे अनागते असमाप्ते सत्येव यन मृनम lor अप्रेतनं न गृह्णाति ४, इति अचपल स्यार्थः २. पुनः अमायी, मायास्यास्तीति मायी, शुभनिष्टानाहारादौ आया॥६३०॥ दीनामवंचकः ३. पुनर्योऽकुतहलः, न विद्यते कुत्तृहलं यस्य स असतहला, कुझ्कइंद्रजालभगलविद्यानाटकादीनों न बिलोकक इत्यर्थः. ४ ॥१०॥ हवे पछी पंचदश स्थानावडे 'मुविनीत' एम कहेवाय छ ते पंचदश स्थान अत्रे कदेवाशे, जे ए पंचदश लक्षणोथी युक्त होय BE विनीत समजवो. प्रथम तो नीचावों [१] अनुद्धत वर्तन, अर्थात गुरुनां शव्या तथा आसन वगेरेथी उन्दु न होय तेवा शय्या आसन उपर स्थिति करवानी टेक्वाळो, तथा जे अचपळ (२) चपळ न होय; अचपळता गति, स्थिति, भाषा तथा भाव; एका भेदयी चार प्रकारनी कही छे. गतिथी अचपळ पुरुष उतावळो न चाले; स्थितिथी अचपळ वेठां वेठां हाथ पग वगेरे न हलाये; भापाथी २ अचपळ असत्यादि न बोले; भावथी अपचळ मूत्र अथवा अर्थ न आवढे अथवा समाप्त न थयेल होय त्यां सुधी आगळ न चलाये; | आवी रीते अचपळ पदनो अर्थ समजवा; बळी जे अमायी (३) माया रहित अर्थात् शुभमिष्टान्न आहारादिकमां आचार्यादिकनी | वंचना न करनारो; अकुतूहळ [४] जेने कुतूहळ न होय, अर्थात् जादुखेल, इंद्रजाळ, नाटकादिक, जोवामा उत्कंठा रहित; १० । अप्पं चाहिरिखबई । पञ्च न कुब्बई ॥ मित्तिज्जमाणा भयइ । सुयं लध्धुं न मज्जइ ॥११॥ (च) तथा [अप्पं अहिक्खियद कोइनो तिरस्कार करे नहि ५, [पबंधच] कोपना प्रबंधने (न कुव्यइ) करे नहिं ६, (मितिज For Private and Personal Use Only
SR No.020856
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1936
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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