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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ad माणो) मित्रभाव दर्शावतो ७, तथा [सुभ] शास्त्र ज्ञान (लढुं) मेळववामा [न मजद] मद न करे. ८, ११ उत्तराध्य भाषांतर यनसूत्रम् व्या-पुनर्योऽल्पं अधिक्षिपति, अल्पशब्दोऽत्र अभावार्थः, कमपि न अधिक्षिपति. कमपि कठिनथेचमेन निर्भ- 1 136 अध्य०११ सयतीत्यर्थः ५. च पुनः प्रबंधं न करोति, प्रचुरकालं क्रोधं न रक्षति, वीर्घरोपी न स्यादित्यर्थः ६. मित्रीयनाणं भजते । ॥६३१॥ | मित्रत्वकर्तारं सेबते, कोऽर्थः? यः कथित् स्वस्मै विद्यादानानापकारं कुर्यात्तस्मै स्वयमपि प्रत्युपकारं करोति, कृतनो ॥६३२॥ CI न स्यादित्यर्थः ७. पुनः श्रुतं लब्ध्वा न मायति, मदं न करोति ८. इत्यटनस्थान. ॥११॥ बळी जे अल्प अधिक्षेप करे अहीं अल्प शब्द अभाव अर्थमा छे अर्थात जे कोइनो अधिक्षेप-तिरस्कार न करे (५) तेमज | प्रबंध पण न करे-एटले लांबा काळ मधी क्रोध न राखे, अर्थात दीर्घ रोपी न थाय, (६) अने कोइ तेने मित्र करवा इच्छे तो ||| तेने भजेअनुकूळ वर्ते, (७) अर्थात् जे कोइ पोताने विद्यादानादि उपकार करे तेनो पोते पण प्रत्युपकार करे पण कृतघ्न न थाय; NEI अने श्रुत शास्त्र ज्ञान संपादन करी मद धारण न करे. (८) ११ न य पावपरिवखेवी । न य मित्तेसु कुप्पई ॥ अप्पियत्सावि मित्तस्स । रहे कल्लाण भामई ॥१२॥ [य] तथा [पावपरिक्खेवी] पापनो परिक्षेप करनार (न) न होय ९. (य) तथा (मित्तेसु) मित्र उपर (न कुप्पइ) कोप करे नदि १० तथा [अप्पिअस्सावि अप्रिय एवा (मित्तस्स) मित्रनु [रहे एकांतमां [कल्लाण कल्याण (भासइ) बोले ॥१२॥ व्या०-च पुनः पापपरिक्षेपी न भवति, पापेन परिक्षिपति तिरस्कगेतीत्येवंशीलः पापपरिक्षेपी, समितिगुप्त्यादिषु स्वयं स्खलनं कृत्वा आचार्यादिभिः शिप्यमाणः सन् आचार्यादीनामेव मर्मोद्घाटको न भवति ..न च For Private and Personal Use Only
SR No.020856
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1936
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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