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उत्तराध्ययनमूत्रम्
॥६०३।।
लध्धृण वि आयरियत्तणं । अहीणपंचेंदिअया हुदुल्लहा ।। विगलिदिअया हुदीसह । समयं गोयम मा पमायए।॥१७॥
भाषांतर [अरिअत्तण] आर्यपणु [लध्धूण वि] पामीने पण [अहीण पंचे दिअया पंचेंद्रियपणु [दुल्लहा हु] प्राप्त थषु दुर्लभ छे कारण के AC अभ्य०१० (विगलि दिअया) विकले द्रियता होय [हु] बहोळताए [दीसइ] जोवामां आवे छे तेथी (गोयम) गौतम! (समय) १७
व्या०-आर्यत्वमार्यदेशोत्पत्तिभावमपि लब्ध्वा, हु इति निश्चये, अहीनपंचेंद्रियता पुनर्लभा, हु इति बाहुल्येन बहूनां विकलेंद्रियता दृश्यते, विकलानि रोगा|पहतानींद्रियाणि येषां ते विकलेंद्रियास्तेषां भावो विकलेंद्रियता, सा | दृश्यते. बहवो हि दुःकर्मवशादोगोद्रेकेग विगतनेत्रश्रवणरसनस्पर्शनचरणवीर्या दृश्यंते, ते च धर्मानुष्ठानकरणेऽसमर्था भवंति, तस्मात्त्व समयमात्रमपि हे गौतम ! प्रमादं मा कुर्याः? ॥१७।।
आर्यत्व एटले आर्यदेशमा उत्पन्न थइने पण सपेन्द्रिय संपन्न होवू अति दुर्लभ छे केम के घणा जणोमा कोइने कोइ इंद्रियनी विक| लता जोवामां आवे छे, अर्थात् घणाय रोग शीतळाइत्यादिकथी आंख, कान, जीभ, स्पर्शेन्द्रिय, पग हाथ हलावबार्नु सामर्थ्य जेनां नष्ट ययां होय तेवा जोवामां आवे छे अने तेथी तेो धर्मानुष्ठान करवामां अशक्त वनी जाय छे तेथी हे गौतम! तमे समय काळमात्र पण प्रमाद वश थशोमां. १७
अहीणपंचिंदियत्तं पि से लहे । उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा ।। कुतिथिनिसेवए जणे | समयं गोयम मा पमायए ॥१८॥ | [अहीणपचि दित्त] अन्यून पचेंद्रियपणाने पण [से ते जीव कदाच (लहे) पामे तो पण (उत्तमधम्मसुद) उत्तम धर्म श्रवण (दुल्लहा हु) दुर्लभछे कारण के (जणे) घणा लोको (कुतिस्थिनिसेवए) कुतीर्थीओने सेवनारा होय छे. तेथी (गोयम) हे गौतम! (समय)
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