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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir भाषांतर अध्य०१० ॥६०४॥ व्या०-से इति स जीवोऽहीनपंचेंद्रियत्वमपि चेल्लभेत तदापि हु इति निश्चयेनोत्तमधर्मश्रुतिदुर्लभा, जिनधउत्तराध्य-15 DEमस्य श्रवणं दुःप्राप्यमित्यर्थः. तत्र हेतुमाह-जनो लोकः कुतीथिनां मिथ्यात्विनां निषेवकः, कुतीथिनो हि सत्कारयन मुत्रम यशोलाभार्थिनो भवति, ते च प्राणिनां विषयादिसुखसे वनोपदेशेन वल्लभत्वमुत्पाद्य जनान् रंजयंति, अतस्तेषां सेवा ॥६०४॥ सुकरा, तेषां मुखाद्धर्मवार्ता कुन इत्यर्थः. १८ | 'से' ते जीव अहीन पंचेंद्रियत्व पण कदाच पामे तारे पण 'हु'निश्चये उत्तम धर्म-जिनधर्मनुं श्रवण दुष्पाप्य छे, तेमां हेतु कहे छे जनों लोको कुतीथि निषेधक थाय छ-कुतीथि-मिथ्यात्वीना अनुयायी थइ जाय छे, केमके कुतिथिओ सत्कार यश तथा लाभना अर्थी होय छे तेथी तेओ पाणीओने विषयादिसुख सेववानो उपदेश करी लोकोना वहाला बनी जनोने रंजीत करे छे आथी तेवाओनी सेवा मुकर लागे छे. एवाओना मुखेथी धर्मवार्ता सांभळवानुं क्याथी मळे? माटे हे गौतम! समये प्रमाद न करो. १८ लन्धूण वि उत्तम सुई। सदहणा पुणरवि दुल्लहा ॥ मित्थत्तनिसेवए जणे । समयं गोयम मा पमायए ॥१९॥ (उत्तम) उत्तम धर्मनु (सुई) श्रवण (लब्धूणवि) पामोने पण (पुनरवि) पुनः (सद्दद्दणा) श्रद्धा थवी दिल्लद्दा दुर्लभ छ [जणे] घणा माणसो (मिच्छत्तनिसेवए) मिथ्यात्वने सेबनारा छे तेथी (गोयम) हे गौतम (समय) १९ ___ घ्या -उत्तमधर्मस्य श्रुतिमपि लब्ध्वा पुनः श्रद्धा दुर्लभा । तत्वरुचिर्दुःमाप्या, यतो हि जनो लोका मिथ्यात्वनिषेवकः स्यात् , मिथ्यात्वं हि कुगुरुकुदेवकुधर्मलक्षणं नितरां सेवते इति मिथ्यात्वनिषेवकः, तस्मान्मिथ्यात्वोदयाजिनधर्मरुचिर्दुर्लभा, तस्मात्समयमात्रमपि त्वं मा प्रमादीः? १९ For Private and Personal Use Only
SR No.020856
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1936
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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