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उत्सुकताथी बन्ने साधुना पगा पडी प्रणाम करे छे त्यां तेना केशनो स्पर्श थयो तेथी संभूत यतिने केश स्पर्श जन्य आनंदनो उत्तराध्यपनमूत्रम
| अनुभव थतां मनमां निदान करवानी शरुआत था. चित्र मुनि जाणी गया तेथी तेणे विचार्यु के-'अहो !! मोह केवो दुर्जय छे? भाषांतर | अरे! इंद्रियो केवां दुर्दम्य छे? जेने लीधे जेणे अति कष्ट तपः समूह आचरण करेल छे तेमज जिनवचनो जाण्यां छे छतां ते मात्र
IDE अध्य०१३ ॥७२१॥ युवतिना वाळना अग्रमात्रनो स्पर्श थतां आ केवा निश्चय करे छे?' ते पछी ए संभूतने प्रतिबोध देवानी इच्छायी चित्रमुनिए संभूत | ॥७२
मुनिने आ प्रमाणे कहां के–'हे भ्रातः! आ संकल्पथी मनने निवृत्त करो. आ सांसारिक भोग बधा असार छे, परिणामे दारुण= भयंकर छे, अने वळी आ संसारमा परिभ्रमण करावनारा हेतुभूत छे; ए भोगने विपये निदान मा करो. ए निदानथी तमारं घोर अनुष्ठान तेवा फळनु देनार थशे नहि.'
एवं चित्रमुनिना प्रतियोधितोऽपि संभूतो न निदान तत्याज, यद्यस्य तपसः फलमस्ति, तदाहं भवांतरे चक्रवर्ती भूयासमिति निकाचितं निदानं चकार. ततो मृत्वा सौधर्मदेवलोके तौ द्वावपि देवी जातो. ततश्च्युतश्चित्रजीवः पुरमतालनगरे इभ्यपुत्रो जातः, संभूत जीवस्ततश्च्युतः कांपिल्यपुरे ब्रह्मनामा राजा, तस्य चुलनीनानी भार्या, तस्थाः कुक्षी चतुर्दशस्वमसूचित उत्पन्नः क्रमेण जातस्य तस्य ब्रह्मदत्त इति नाम कृतं, देहोपचयेन कलाकलापेन च वृद्धिं गतः | आवी रीते चित्रमुनिए प्रतिबोधित कर्या छतां पण संभूतमुनिए निदान त्यज्यु नहिं. 'जो आ तपनुं फळ छे तो हुं भवांतरमा JE D| चक्रवर्ती थाउं' आ प्रमाणे संभूते निकाचित निदान कयु. ते बन्ने मरण पामी प्रथम तो सौधर्म देवलोकमां देवो थया त्यांथी च्युत |
१ दृढ निश्चयथी बांधेल कर्म के जेनो फळरूप भोग विना नाश न थाय. २ तपना फळनी अगाउथी मागणी करवी ते (निया )
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