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(अज्झावपाण') अमारा उपाध्यायनी (पडिकलभासी] प्रतिकूळ बोलनारो एयो तु (अम्ह) अमारी (सगासि) समक्ष (किनु] केम उत्तराध्य- आयु [पभाससे असंबद्ध (प) अप्रत्यक्ष [अन्नपाण] अन्न अने पाणी [विणस्सउ अवि भले विनाश पामो [निअंठा] हे निग्रंथा 36
भाषांतर यनसूत्रम् ॥ [तुम'] तने (न य) नहींज [दाहासु) आपीए. हवे यक्ष कहे छे. १६
अध्य०१२ ॥६८०॥ व्या०-किंत्विति शब्दौ निंदाक्रोधवाचकौ, अरे नियंठा! अरे दरिद्र ! त्वमुपाध्यायानां प्रतिकूलभाषी सन,
|॥६८०॥ अस्मत्पाठकानां प्रतिकूलभाषी सन, अस्मत्पाठकानां सन्मुखवादी सन्नस्माकं सकाशेऽस्माकं प्रत्यक्ष प्रभाषसे, प्रकर्षण यथा तथा भाषसेऽसंबद्धं वचनं ब्रूते, तस्मादरे एतदन्नपानं विनश्यतु. एतदाहारं सटतु पतत्वप्येतदाहारं तुभ्यमुपाध्या| यप्रतिकूलवादिने न दद्मः ॥ १६ ॥ तदा यक्ष आह
किंतु ए वे शब्दो निंदा तथा क्रोधना मूचक छे. अरे निग्रंथ! दरिद्र! तुं अमारा अध्यापकोने सामे प्रतिकूळ भापण करनारी, अमो पाठकोने सामे अमारी आगल प्रत्यक्षमा प्रकृष्टपणे असंबद्ध वचन बोले छे, तेटला माटे भले आ अन्नपान विनाश पामो, एटले ए आहार भले सडीजाओ पडी जाओ तथापि उपाध्यायने प्रतिकूल बोलनार तुं, तेने तो नहिंज दइये. १६
समिइहिं मज्झं सुसनाहियस्स । गुत्तिहि गुत्तस्स जिइंदियस्स ।।
जई मन दाइज्जह एसणिजे किमंज जन्माण लभित्) लाभ ॥ १७ ॥ (मझ) मने [समाहि] पांच समिति वडे सुसमाहिअस्स सारी समाधिवाळा (गुत्तीहि) त्रण गुप्तिवडे (गुत्तस) गुप्त एवा [जीई दिअस्स) जीतेन्द्रीय एवा [मे] मने [जइ जो [अहरसणिज] विशुद्ध एवो आहार (न दाहित्थ) नहीं आपो तो (अज) आजे
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