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उत्तराध्ययनसत्रम्
भाषांतर अध्य०११ ॥६३५॥
॥६३५॥
आटलां लक्षणो बडे युक्त मुनि शिक्षा पामवा योग्य थाय छे. १५
हवे बहुश्रुतनी पतिपत्ति खात्री करावे एवो आचार स्तुतिरूपे कहे - संखमि पयं निहितं । दुहाओवि विगयई ।। एवं बहुस्सुए भिख्खू । धम्मो किसी तहा सुयं ॥१५॥ [जहा जेम [संखम्मि] संखमा [निहित] नाखेलु [पय] दृध (दुहओ वि) बन्ने प्रकारे शोभे छे (एव) तेम (वहुस्सुए) बहुश्रुतवाळा | (भिखवू) मुनिने विषे [धम्मो] धर्म (कित्ती) कीति तहा] तथा (सुर्य) शास्त्र शोभे छे. ॥१५॥
__ व्या०-यथा शंखे निहितं पयो दुग्धं द्विधापि विराजते, उभयप्रकारेण शोभते, पयो धवलं, अथ च पुनः | शंखेऽपि धवलेऽत्यंतधवलत्वेन वर्णो विराजते, एवममुना प्रकारेण शंखमध्यदुग्धदृष्टांतेन पहुश्रुते भिक्षौ धर्मो पतिधर्मस्तथा कीर्तिः श्रुतं च, एतत्पदार्थत्रयं स्वत एव भासते, बहु प्रचुरं श्रुतं श्रुतज्ञानं यस्य स बहुश्रुतः, तथा एवं गुरुकुलवामिनि साधौ बहुश्रुते आश्रयविशेषादत्यंत शोभते. बहुश्रुते स्थितो धर्मः कीर्तिर्यशश्च मालिन्यं न प्रामोति. | अन कीनिर्गुणश्लाघा, यशः सर्वत्र प्रसिद्धत्वं, इत्यनयोः कीर्तियशसोर्लक्षणं ज्ञेयः ॥ १५ ॥ | जेम शंखने विषये भरेलु द्ध द्विधा उभय प्रकारे शोभे छे, अर्थात् ध धोडं तेम शंख पण घोळो होवाथी बन्ने शुभ्रताथी
शोभे छे तेज प्रकारे शंखमां भरेला दुग्धना दृष्टांत प्रमाणे बहुश्रुत भिक्षुमां धर्म=यति धर्म, कीर्ति, तथा श्रुत: पत्रणे पदार्थ स्व| तःज शोभी नीकळे छे. बहु-पुष्कळ जेनुं श्रुतज्ञान होय ते बहुश्रुत कहेवाय; एवा गुरुकुळवासी तथा बहुश्रुत साधुनो आश्रय विशेष पामी धर्म कीर्ति तथा श्रत मालिन्य नथी पामतुं, अहीं कीर्ति एटले गुणनी प्रशंसा तथा यशः एटले प्रसिद्धि समजवी आम कीर्ति
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