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भाषांतर अध्य०१३
॥७७१॥
| फळने (अज) आजे (परिभुजामो) हु अनुभव॒छु (से) ते शुभ कमाने (किं नु) शु(चित्तो विचित्र नामना तमे पण (तहा) भोगयो छो. उत्तराध्य
व्या०-हे साधो! हे भ्रातर्मया पुरा पूर्वजन्मनि कर्माणि कृतानि. कथंभूतानि कर्माणि? सत्यशोचप्रकटानि, पनसत्रम
JE सत्यं मिथ्याराहित्यं, शीचमात्मशुद्धिकारकं धर्ममयमनुष्ठान. सत्यं च शौचं च सत्यशौचे, ताभ्यां प्रकटानि प्रसिद्धानि, ॥७७९॥ HEL एतादृशानि मया सुकर्माणि कृतानि. तानि शुभकर्माणि अद्यास्मिन् जन्मनि परि समंतात भंजे, स्त्रीरत्नभोगद्वारेण
तेषां फलं विषयसुखान्यनुभवामि. हे चित्र! यथाहं राज्यसुखं भुजे. तथा किंचित्रोऽपि भवानपिनु भुक्ते? नु इति वितर्के. कोऽर्थः? चक्री वदति यथाहमिदानी पूर्वोपार्जितानां सुकृतानां फलानि परिभुंजे, तथा किं चित्रो भवान् परिभुंक्त? अपि तु भवान् न परिभुक्ते एव, भवतस्तु भिक्षुकत्वात् तानि सुकृतानि निष्फलानि जातानीत्याशयः ॥९॥ अथ मुनिराह__ हे साधो ! हे भाइ ! में पुरा-पूर्वजन्ममा कर्मो का छे; केवा कर्मो? सत्य-मिथ्या रहित पणुं तथा शौच आत्मशुद्धिकारक धर्ममय अनुष्ठान एवां सत्यशौचवडे प्रकट प्रसिद्ध कर्मों की छे ते शुभ कर्मों आजे आ जन्ममा भोग, छु; स्त्रीरत्न भोग द्वारा ते कर्मोनां विषय सुखानुभवरुप फळो हुँ भोगवू छं. हे चित्र ! जेम हुँ राज्यमुख माणुं हुं तेम शुं चित्र [तमे] पण भोगवे छे? अर्थात् चक्री कहे छे के जेम हुँ पूर्वे करेलां सुकृतनां फळोने भोगq छु तेम शुं आप भोगवो छो? तात्पर्य ए छे के तमे नथीज भोगवता, तमे तो भिक्षुक छो तेथी ते सुकृतो निष्फळज बन्यां ९
सव्वं सुचिण्णं सफल नराणं । कडाण कम्माण न मुक्ख अस्थि ।।
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