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भाषांतर अध्य०१२
||६७८॥
क्रियाकर्म विशेषथी चातुर्वर्ण्य व्यवस्थित छे, ब्राह्मणत्व जातिमान् ब्राह्मण, ब्राह्मण ब्राह्मणी युग्मथी उत्पन्न थवाथीज मात्र ब्राह्मण उत्सराध्य-06
न कहेवाय किंतु ब्राह्मणत्वब्रह्म क्रियानिष्ठत्व वडे करीने-ब्रह्ममां स्थित पामेलो जातिधर्मे करी विशिष्ट होवाथी ब्राह्मण कहेवाय; पनमूत्रम्
माटे तमारामां ब्रह्मक्रियानिष्ठत्व न होय तो जाति न मनाय, ब्राह्मणो तो ब्रह्मचर्यचडे लक्षित कहेवाय छे. तमे विद्यायुक्त नथी जणाताता ॥६७८॥ विद्यानुं फळ विरति नर्थी देखाती. विद्यावान् जो विरतिवाळो थइ यावत्पर्यंत आश्रवोनो संवर द्वारा निरोध न करे त्यां सूची
विद्वान् न कहेवाय. परमार्थतः विद्या एज कहेवाय के जेमां पंचआश्रवोनो परिहार कहेल छे; ते कारणथी तमे विद्यावान जणाता | नथो. तमारामां तमे कहेलं जातिविद्योपपेतत्व ब्राह्मणलक्षण सर्वथा नथी तेथी तमे पापक क्षेत्र छो पुण्यक्षेत्र नथी. १४
'अमे वेदवित् छइए' एम कदाच तेओ कहे तो ते संबंधे कहे - तुप्भस्थ भो भारहरा गिराणं । अट न जाणाह अहिज वेऐ ।। उच्चावयाई मुंणिणो चरंति। ताई तु खिताई सुपेसलाइं॥१५॥ (भो) हे ब्राह्मणो! [इत्थ] आ जगतमा तुम्भ) तमो मात्र (गिराणं) बाणीना (भारधरा) भारने धारण करनारा छो कारण के [ए] वेदविद्याने [अहिज] भणीने पण (अट्ठ) तेनो अर्थ [न याणाह तमो जाणता नथी हवे उत्तम क्षेत्र क्यु? (मुणिणो) ने मुनिओ (उच्चावयाई) भेदभाव विना भिक्षा माटे (चरति) अटन करे छे तेथी [ताई'तु] तेओज (सुपेसलाई) उत्तम (खित्ताइ) क्षेत्रो छे. १५
व्या०-भो इत्यामंत्रणे, भो ब्राह्मणाः ! ययं गिरां वेदवाणीनां भारहरा भारोदाहकाः, यतो यूयं वेदानधील वेदानामर्थ न जानीथ. तथाहि-आत्मा रे ज्ञातव्यो मंतव्यो निदध्यासितव्यः, पुनरयं समो मशके नागे च, न हिंस्यात् सर्वभूतानीत्यादिवेदवाक्यान्यधीतानि. अथ पुनर्भवद्भिर्जीवहिंसास्वेव अवार्यते, तस्मादत्र यागः पृथक् एव उच्यते,
مناناناناناتلاف انشالا لاند
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