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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassaqarsuri Gyanmandir विविता' इत्युक्त।. देवा अधिक पांति रक्षति सेवां कुर्वत्युपद्रवेभ्यो रक्षति हरिकेशवलसाधुवत् वैयावृत्यं कुर्वतीति उत्तराध्य देवाधिपतिः, देवैरपि पूज्यते इत्यर्थः ॥ २३ ।। यनसूत्रम् | Jeभाषांतर अध्य०११ जेम ते प्रसिद्ध शक्र इन्द्र शोभे छे तेवो बहुथत पण शोभे छे शक केवो? सहस्राक्ष जेनां हजार नेपछे, बळी बच शख जेना ॥६४५॥ 13 हाथमा छे, तथा दैत्योनां पुर=नगरोनुं दारण=विध्वंस न करनारो अने देवाधिपति देवोमा अधिक कांतिधारी छे; तेवोज बहुश्रुत "६४५॥ पण सहस्राक्ष-हजारो जेनां श्रुतज्ञानरूपी नेत्र छे तेवो तथा वज्रपाणि =हस्तमा पत्रकार चिन्हवाळा-विद्यावान पूज्य पुरुषोना हाथमा व चिन्ह होय छे-वळी ते बहुश्रुत पुर-शरीरने तपवडे कृश करे तेथी पुरंदर तथा देव सर्व साधुओने अधिक रीते पालेरक्षे तेथी देवाधिपति कहेवाय. 'ऋषिओ तथा देव समान गणाया छे. एवू कहेल छे, देव अधिक पाले छे-रक्षे छे सेवा करे छे; हरिकेशवळ साधुनी पेठे उपयोथी बचावे छेवैयादृत्य करे छे एटले देवाधिपति कहेवाय एवा बहुश्रुत देवोये पण पूजाय छे एवो भावार्थ छे २३ जहा से तिमिरविद्धंसे । उत्तित दिवायरे ।। जलते इव तेएणं एवं हवाई यस्लप ॥२४॥ [जहा] जेम [से ते (तिमिहविद्ध से] अंधकारनो नाश करनार (दिवायरे) सूर्य [उत्तिट्टते) उदय पामतो (तेषण) तेजवढे (जलते घ) जवाळा मूकतो होय तेम (बहुस्सुप) २४ व्या०-यथा स इति प्रसिद्ध उत्तिष्टन उगच्छन् दिवाकरः यस्तेजसा ज्वलन् ज्वालाभिरुत्सर्पन इव विराजते, तथा बहुश्रुतोऽपि राजते. तथा कथंभूतः सूर्यः? तिमिरमंधकारं विध्वंसते इत्येवं शीलस्तिभिरविध्वंसी, अथवा For Private and Personal Use Only
SR No.020856
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1936
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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