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उत्तराध्ययनसूत्रम्
॥६७५॥
निम्नभूमिसदृशास्तदाहं स्थलभूमिसदृशो गण्यः मह्यमपि दातव्यं, न केवलं यूयमेव क्षेत्रप्रायाः, किंत्वहमपि पुण्यक्षेत्रमस्मीति भावः ॥ १२ ॥ इति श्रुत्वा ते ब्राह्मणास्तं प्रत्यूचुस्तदाह
JE भाषांतर
TAG अध्य०१२ आ उपमा-श्रद्धाभावना राखी मने दीपो. ते उपमा कहे छे-कर्षक-खेती करनार नरो आशंसा धारणाथी काले वर्षासमये EJ स्थळ उंचा प्रदेशोमां तथा निम्न=नीचा भूमिपदेशोमां पण बीजो वावे छे. प्रयोजन शुं? वर्षाकाले खेडुत बीज वावतां एम विचारे छे | Jell
के जो पुष्कळ वृष्टि थशे तो स्थलभूमिमां फळ प्राप्ति थशे, कदि अल्प वृष्टि थइ तो नीची भूमिमां फळ माप्ति थशे आम धारी उंचा | नीचा बन्ने प्रदेशोमां बीज वावे छे. हवे तमे जो निम्न भूमिसमान हो तो मने स्थल प्रदेश जेवो गणीने कंइक देवू जोइए. कंड तेमज एकला क्षेत्र तुल्य छो एम नथी किंतु हुँ पण पुण्य क्षेत्र छं. १२ आ वचन सांभळी ब्राह्मणो तेना प्रति बोल्या ते कहे छे.
खेत्ताणि अम्हं विहयाणि लोए । जेहिं पकिणी विरुहंति पुण्णा ॥
जे माहेणा जाइविजोववेया । ताई सुखित्ताइ सुपेसैलाइ ॥ १३ ॥ | [अम्ह'] अमो (लोए) लोकोने (खेत्ताणि) क्षेत्रा [वइआणि] जाणेला छे [जहिं] जे क्षेत्रोमां [पकिण्णा] वावेलां बीज [पुण्णा] परिपूर्ण | | (विषहति) उगे छे. कारणके (जे माहणा) जे ब्राह्मणो (जाइविजोववेआ) चतुर्दशविद्या संपन्न छे [ताई] तेओज सुपेसलाई] | उत्तम (खित्ताई) क्षेत्र छे. १३
व्या०-अरे पाखडपाश तानि क्षेत्राण्यस्माभिनिदितानि वर्तते इति अध्याहारः. जहिमित्यत्र क्षेत्रेषु प्रकीर्णान्यु-| | सानि बीजानि प्रदत्तानि दानानि पूर्णानि विरुहंति विशेषेणोद्गच्छंति, फलदानि भवंति, विभक्तिलिंगव्यत्ययस्तु प्राकृ
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