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अणगारा । भोगसूरा चक्कवटी य ॥ १॥ वासुदेवो हि स्वशरीरेण युद्धं कृत्वा शत्रून् जयतीत्यर्थः. एवं बहुश्रुतोऽपि उत्तराध्यवासुदेववत् कीदृशो बहुश्रुतः? शंखचक्रगदातुल्यानि रत्नत्रयाणि ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाणि धरतीति शंखचक्रगदा
भाषांतर यनसूत्रम्
अध्य०११ | धरः. पुनः कीदृशो बहुश्रुतः? योधोंतरंगशत्रुघातकः. अत्र बहुश्रुतस्य वासुदेवोपमानं ॥ २१ ॥ ॥६४२।। जेम ते प्रसिद्ध वासुदेव अप्रतिहत बळ छे; अर्थात् कोइनाथी निवाराय नहिं एबुं जेनुं वळ छे, एम बहुश्रुत पण कोइ परमत ।
॥६४२॥ वाळाथी हठावाय नहिं एवा शास्त्रवळवाळा होय छे, वासुदेव शंख, चक्र तथा गदा धारण करे छे, वासुदेव ने सात रत्न छे-जेवां के|चक्र, धनुष, खड्ग, मणि, गदा तथा वनमाला अने शंख; आ वासुदेवनां सात रत्नो छे. तेमांना त्रणमुंज अत्रे ग्रहण करेलुं छेद BE] कारण के सातेमां त्रणनुं प्राधान्य होवाथी बहुश्रुतनी समानता दर्शाववामां ए त्रणनोज अत्रे उपयोग छे. वासुदेव केवा? योध:=JE | युद्ध करनारा, शत्रुना संहार करनार; का छे के-युद्धमां शूर वासुदेव, क्षमामां शूर अरिहंत, तपः शूर अनगार=भिक्षु, अने भागमांशुर चक्रवर्ती; १ वासुदेव जेम स्वशरीरें शंख चक्र गदाधारी युद्ध करी शत्रुने जीते छे, तेम बहुश्रुत पण शंख चक्र गदा समान ज्ञानदर्शनचारित्ररूप रत्नत्रय धारण करी अंतरंगशत्रु क्रोधादिकनो घात करे छे. आमां बहुश्रुतने वासुदेवर्नु उपमान आपेल छे. २१
जहा से चाउरते । चक्कवट्टी महदिए । चउद्दसरयणाहिबई । एवं हवइ बहुस्सुए ।। २२ ।। [जहा] जेम (से) ते (चाउरते) चार प्रकारना शत्रुनो नाश करनार [चक्कवट्टी] चक्रवर्ती (महिट्ठिए) मोटी समृद्धिवाळो अने (चउ. दसपणाहिंचई) चौद रत्न अधिपति होय छे. [एवं एज प्रमाणे [बहुस्सुए भवइ] २२
व्या०-यथा स इति प्रसिद्धश्चक्रवर्ती विराजते इत्यध्याहारः, तथा बहुश्रुतोऽपि विराजते. कीदृशश्चक्रवर्ती?
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