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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥८०१ ॥ منستان www.kobatirth.org केनी पेठे ? जेम जे वृक्षनी फळ संपत्ति क्षीण थड़ जाय त्यारे ते द्रुमने पक्षियो यजी दे छे तेम भोगो पुरुषने त्यजे छे. ३१ जह तंमि भोगे च असत्तो । अजाइ कमाइ करेहि रायं ॥ धम्मे टिओ सपयाणुकंपी। तो होहिसि देवो इओ बिउब्वी ॥ ३२ ॥ कदाच तमे भोगोने तजवा अशक्त हो तो हे राजा ! आर्य कर्म करो. धर्ममां स्थित रही सर्व प्रजा उपर दयाभाववाळा थाओ तेथी तमे आ भव पछी विकुर्वी वैकिय देहवाळा देव थशो. ३२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या०-हे राजन् ! यदि त्वं भोगांस्वक्तुमशक्तोऽपि, असमर्थोऽसि, तदा हे राजन्! आर्याणि शिष्टजन योग्यानि कर्माणि कुरु ? पुनर्धर्मस्थितः सर्वप्रजानुकंपी भवेति शेषः सर्वप्रजापालको भव ? सर्वाच ताः प्रजाश्च सर्वप्रजाः, तास्व| नुकंपते इत्येवंशीलः सर्वप्रजानुकंपी. हे राजन! आर्यकर्म करणात् त्वं वेब्बी वैक्रिशक्तिमान् देवो निर्जर इतो भवादग्रे भविष्यसि ॥ ३२ ॥ हे राजन् ! जो तमे भोगोनो त्याग करवा असमर्थ हो तो हे राजन् ! आर्य-शिष्टजनोने उचित कर्मों करो, वळी धर्ममां स्थित रही सर्व प्रजानुकंपी ' थाओ' (एटल शेष लेबुं.) सर्व प्रजामां अनुकंपा - दया जेने के एवा शीलवाळा=सर्व मजनुकंपी, हे राजन् आर्य कर्म करवाथी तेम विकुर्वी वैक्रियशक्तिवाळा देव-निर्जर, आ भवने अंते शो. ३२ ॥ न तुझ भोगे चऊग बुद्धी । गिद्धस आरंभपरिग मोह कओ इत्तिओ विपलावो । गच्छामि राधं आमंतिओसि ॥ ३३ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ॥ ८०१ ॥
SR No.020856
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1936
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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