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भाषांतर अध्य०१०
॥५८८॥
शुरतरोऽस्मीति नाहं संयमाद्विभेमीति वदंतं कंडरीकं पुंडरीको राजा संयमायानुज्ञातवान. पुंडरीककारितमहामहः उत्तराध्य-10
पूर्वकं कंडरीकः संयमं गृहीतवान् ; क्रमेण स्थविरांतिके स एकादशांगानि पपाठ. चतुर्थषष्टाष्टमादितपांसि चकार. यन सूत्रम
Inf| एकदा तस्य तपस्विनस्तपःपारणके तुच्छाहारैर्दाघज्वरादयो रोगाः प्रादुर्भूताः, तथाप्यसौ स्थविरैः समं विहारं चकार. ॥५८८॥
"आ संयम सत्य छे, सर्व दुःखनो क्षयकारक छे किंतु वेळुना कोळीया चाखवा जेवो तेमन गंगा आदि महा नदीना प्रवाह hd सामे धसवा जेवो अति दुःख साध्य छे, वळी हाथ वती समुद्र तरवा जेवो कष्ट अनुष्ठानवाळो छे. जेमा बावीश परीपहो सहन कर- | रवाना होय छे ते आ सुकुमार शरीरे तमाराथी ए संयम पाळी शकशे नहिं माटे घरे रहो अने राज्यसुख भोगवा' आम पुंडरीके ||
कई ते सांभळी कंडरीक बोल्यो-परलोकथी विमुख तथा आ लोकना विषय सुखोनी तृष्णावाला कायर पुरुषोए आ संयम पाळी |न शकाय ए वात ठीक छे पण हुँ तो विषय सुखोथी पराङ्मुख होइ परलोक संमुख थवामां शूरतर छु तेथी ए संयमनी कठिनता | DE] सांभळी डरतो नथी ? आम ज्यारे कंडरीक बोल्या त्यारे पुंडरीक राजाए संयमनी अनुज्ञा आपी अने पुंडरीके करायेला महोत्सव
पूर्वक कंडरीके संयम ग्रहण कर्यो. पछी ते स्थविर साधुओ पांसे रही कंडरोके क्रमे करी एकादश अंगर्नु अध्ययन कर्यु, चोथा छठा तथा आठमा आदिक नपर्नु आचरण कयु. आम करतां ते कंडरीक तपस्वीने तपना पारणामां तुच्छ आहार करवाथी दाहज्वर आदिक रोगो थया तो पण ते रोगजन्य दुःख सहन करता ए स्थविर साधुओनी साथे विहार करता रह्या.
एकदा ते स्थविराः कंडरीकेण समं विहरंतः पुंडरीकिण्यां नगर्या समायाताः, नलिनीवने समवस्ताः, पुंडरीक
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