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भाषांतर अध्य०११
॥६२०॥
व्या-हे जंबू! संयोगाद विप्रमुक्तस्य अनगारस्य भिक्षोः आचारं साधुयोग्यक्रियां बहुश्रुतपूजारूपं बहुश्रुतउत्तराध्य
| स्वरूपज्ञानं आनुपूर्त्या अनुप्रामेण प्रादुःकरिष्यामि प्रकटीकरिष्यामि, मे मन कथयिष्यतस्त्वं शृणुः । १।। अथवा साधोयन सूत्रम
राचार आकार बहुश्रुतस्य आकारं, बहुश्रुतः कीदृग् स्यात् ! तत्वकटीकरिष्यामि. ॥१॥ प्रथमं तत्परिज्ञानार्थ अबहुश्रु. ॥६२०॥ रतस्य लक्षणमाह
__अथ बहुश्रुत पूजा नामर्नु अगीयारमुं अध्ययन दशमा अध्ययनमा प्रमाद परिहारार्थ उपदेश दीधी पण ए प्रमाद परिहरवो ए तो विवेकीथीज थइ शके अने विवेकी बहु| श्रुतज होय एटला माटे आ एकादश अध्ययन बहुश्रुत नामर्नु अर्थात् बहुश्रुतनाज वर्णन वाळू कहेवाय छे.
हे जंवू ! संयोगथी विममुक्त, सांसारिक संबंधधी छुटो थयेलो तथा अनागर=ग्रह रहित एवा भिक्षु संयमी साधुनो आचार साधु| योग्य क्रिया, अर्थात् बहुश्रत पूजारूप आचार माटे नियत बहुश्रुतस्वरुप ज्ञान, आनुपूर्वीथी एटले अनुक्रमे प्रकट करीश, जे मे कहेवाशे ते तुं श्रवण कर. अथवा साधुनो आचार आकार, एटले बहु श्रुतनो आकार, बहुश्रुत केवो होय? ते हुं प्रकट कही देखाडीश.१ बहुश्रुतनुं निरुपण करता पहेलां, बहुश्रुतर्नु यथार्थ स्वरुप परिज्ञान थवा माटे अबहुश्रुतनुं लक्षण कही देखाडे छे.
जे यावि होह निविजे । थद्धे लुद्धे अणिग्गहे ॥ अभिक्खणं उल्लवइ । अविणीए अबहुस्सुए ॥ २॥
[जे जे कोइ [निग्विज्जे] अविद्य [होइ] होय [अधि] अपि (थद्धे) अहकारी होय [लुद्धे लुब्ध होय [अणिग्गहे] इद्रिय अने मनना निग्रह रहित होय (अभिक्खण) वारंवार [उल्लबह उल्लाप करतो होय (अ) तथा [अविणीए विनय रहित होय ते (अब
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