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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥५९९।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहे छे, (एव) तेज प्रमाणे [मणुआण] मनुष्योनु [जीविअ ] जीवीत छे, तेथी करीने [गोयम] हे गौतम! [समय ] एक समय मात्र [मा पater] प्रमाद न करवो, २ व्या०—हे गौतम! समयमात्रमपि मा प्रमादी : ? तत्र हेतुमाह- कुशस्याग्रेऽवश्यायविंदुर्लयमानः सन् स्तोकं | स्तोककालं तिष्ठति, वातादिना प्रेर्यमाणः सन् पतति, तथा मनुष्याणां जीवितमायुरस्थिरं ज्ञेयं एवमायुषोऽनित्यत्वं ज्ञात्वा धर्मे प्रमादो न विधेय इत्यर्थ. हे गौतम! समयमात्र प्रमादन करशो. तेमां हेतु कहे छे, जेम दर्शना अग्र भाग उपर लटकतो झाकळनो बिंदु अत्यंत स्वकल्पकाळ स्थित थइ वायु आदिकथी मेराइ झट पडी जाय छे तेम मनुष्योनुं जीवित आयुष्य पण एना जेवुंज अस्थिर जाणवु आम | आयुष्यनी अस्थिरता = अनित्यता याद राखी धर्माचरणमां सर्वथा प्रमाद करवो नहि. २ इइन्तरियंमि आऊँए । जीविएं अ बहुपचवायाए । विहुणाहि रयं पुरेकडं । समयं गोयम मा पमायए ॥ ३ ॥ [x] आ प्रमाणे [आ] आयुष्य [ इत्तरिअम्मि] अल्पकाळनु छते [जीविआए] जीवित [ बहुपश्च्चवायम् ] घणा विघ्नवाळु [[पुरेकड] पूर्वे करेला [रयं] कर्मरूपी रजने (विटुणाहि) तुं दूर कर? (गोयम) हे गौतम! (समय) एक समय पण (मा पमायण) प्रमाद न करवो. ३ व्या०—- इत्युक्तदृष्टांतेनेत्वरे स्वल्पकालपरिमाणे मनुष्यस्यायुषि भो गौतम! पुराकृतं रजः प्राचीनकृतं पातकं For Private and Personal Use Only भाषांतर 'अध्य०१० ।। ५९९ ।।
SR No.020856
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1936
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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