SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१४ ८२८॥ JE] योगादिक, तदेव हेतुः कारणं यस्य सोऽध्यात्महेतुः. अस्य जीवस्य यः शरीरे बंधो भवति स मिथ्यात्वादिभिहेतु-13 उत्तराध्य भिरेव स्यादिति. यथा अमर्तस्याप्याकाशस्य घटादाविव घटोत्पादनकारणैर्घटे आकाशस्य बंधो जायते. तथात्मनः यनसूत्रम् शरीरे बंध इत्यर्थः. च पुनबुधाः संसारस्य हेतुं भवभ्रमणस्य कारणं संबंधं वदंति. यावच्छरीरेण पद्धस्तावदयं जीवो ॥८२८॥ भवभ्रमणं करोतीत्यर्थः. यदुक्तं वेदांतेऽपि-कर्मबद्धो भवेज्जीवः । कर्ममुक्तो भवेच्छिवः ॥ इति. ॥ १९ ॥ हे तात ! आ आत्मा अमूर्तपणाने लोधे इन्द्रिय ग्राह्य नथी. जेमां शब्द स्पर्श रुप रस गंध इत्यादिकनो अभाव होय ते अमूर्त A कहेवाय, एटले अमूर्त होवार्थी इंद्रियग्राह्य नथी. जे अमूर्त होय ते इंद्रिय ग्राह्य न होय अने जे इंद्रिय ग्राह्य होय ते अमृत्त पण न | All होय. जेवा के घट आदिक पदार्थ. वळी आ जीव तो अमूर्तपणाने लीधे नित्य छे, कारणके-जे द्रव्य होइने अमूर्त होय ते नित्य | vil होय. जेई व्योम आकाश. कदाच कोइ एम कहे के-जो आ आमां अमूर्त छे तो तेने बंध केम होय शके ? तेनुं उत्तर कहे छे आ जीवने शरीरमां बंध तो नियत=निश्चित छे के जे अध्यात्म हेतु छे. शो अर्थ समजायो ? आत्माने उद्देशीने थाय ते अध्यात्म, एटले मिथ्यात्व, अविरति, कषाय योग, इत्यादिक; तेज जेनां हेतु कारण छे ते अध्यात्म, हेतु आ जीवने विषये जे बंध थाय के ते मिथ्यात्व वगेरे हेतुथीन थाय छे. जेम अमूर्त आकाशने पण घट आदिकने विषये घटना उत्पादक कारणोवडे घटमां आकाशने बंध थाय छे तेम आत्माने शरीरमां बंध थाय छे; बुध-विद्वान पुरुषो संसार भवभ्रमण=नुं कारण संबंध कहे छे. ज्यां सूधी शरीRal रथी बंधाणो छे त्यां सूधी ए जीव भवभ्रमण कर्येन जवानो, का छे के-'कर्मथी बद्ध छे तावत् पर्यंत ते जीव छे पण ज्यारे कर्म मुक्त थाय त्यारे ते शिव छे. १९ For Private and Personal Use Only
SR No.020856
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1936
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy