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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandi JEE भाषांतर अध्य०१४ ॥८२९॥ उत्सराध्य जहा वयं धम्ममयाणमाणा । पावं पुरा कम्ममकासि मोहा॥ओरुज्झमाणा परिरक्खियंता। तं नेव भुजो वि समायरामो यनसूत्रम् जेम अमे पहेला धर्मने न जाणता तथा अबरोध पामता अने सर्व रीते रक्षित रहेता मोद्दथी पाप कमों कयां तेयां पाप कमोने हवे भूयोऽपि फरीने पण नहींज आचरीये-नहींज करीशु. २० ॥८२९|||DEL __ व्या०-हे तात! यथा पुरा पूर्व मोहात्तत्वस्थाऽज्ञानादावां पापं पापहेतुक कर्माका. आयां किं कुर्वाणी ? धर्म | सम्यक्त्वादितत्वमजानानी, पुनः कथंभूतो? अवरुध्यमानौ गृहानिःसरणमप्राप्यमाणी. पुनरावां कथंभूती ? परिरक्ष्यमाणौ साधुदर्शनाद्वार्यमाणो. पुरा ईशावावामज्ञाततत्वो पापकर्मपरायणावभूव, तत्पापं कर्म भूयः पुनर्नैव समाचरावो न कुर्व इत्यर्थः ॥ २० ॥ हे तात ! जेम पूर्वे मोडथी तत्त्वना अज्ञानथी अमो बन्ने जणाए पाप हेतुक कर्मो की. अमे शुं करता ? धर्म जे सम्यक्त्वादि El तत्त्व तेने नहिं जाणता, तथा अवरुध्यमानन्धरथी बहार नीकळवामां रोकता निषेध कराता, बळी परिरक्ष्यमाण, अर्थात् कोइ साधु adl: दर्शनादिकथी वारण कराता; आवीरीते अमे अज्ञात तत्व होवाथी पूर्व पापकर्मपरायण थया हता, ते पापकर्म हवे फरी नहीं आचरीयें अभ्याइयंमि लोगंमि । सबओ परिवारिए । अमोहाहिं पडंनीहिं । गिहसि न रइ लभे ॥ २१ ॥ अमोघ-खाली न जाय तेबी पडती (शस्त्रधारा तुल्य) विपत्तिओवडे अभ्याहत-चारेकोरथी हणाता तथा सर्वतः-फरता विटायेला आ लोकां घरने विषये अमने रनिम्धीति नथी मळती. २१ व्या०-भो तात! अस्मिन लोके जगत्लामावां गृहे गृहवासे रतिं न लभावहे. कथंभूते लोके ? अमोघाभिरवश्यं For Private and Personal Use Only
SR No.020856
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1936
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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