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K] तपोऽग्निर्दीप्यते, शरीरसाहाय्येन तपः स्यादित्यर्थः, शरीरमायं खलु धर्मसाधनमित्युक्तेः. कर्माप्येधा इंधनानि कम-RE पनसूत्रम् धनानि तपोग्निः प्रज्वालयति, महादृष्टकर्मकारिणोऽपि तपसा निर्मलाः संजाताः, संयमयोगः शांतिः, संयमस्य सप्त- भाषांतर दशभेदस्य योगः संबंधः स शांतिः, सर्वजीवानामुपद्रवनिवारकत्वात. अनेन होमेनाहं तपोऽग्नि जुहोमि. कथंभूतेन
INE अध्य०१२ ॥७०७|| | होमेन? ऋषीणां प्रशस्तेन, मुनीनां योग्येन, साधवो ह्येतादृशं यज्ञं कुर्वति, न अपरे एतादृशं यज्ञं कर्तुं समर्था
७०७॥ भवंति. ॥५४॥ यज्ञस्वरूपं तु साधुनोक्तं, अथ ब्राह्म गाः स्नानस्वरूपं पृच्छंति
हे ब्राह्मणो ! अमारुं तपः एन ज्योति: अग्नि छे, कारण के ते कर्मरूप इंधन-काष्ठ=ने बाळे छे; द्वादश पकारनां तपो सकल कर्मरूपी काष्ठोने वाळे छे, जीव एज ज्योतिः स्थान तपनो आधार होवाथी अग्नि कुंड छे; मन वाणी तथा कायाना योग एन स्रुच | होम करवानां काष्ठपात्र छे मन वाणी तथा कायाना योगे शुभ व्यापार घृतरूप बनी तपोरूप अग्निना प्रज्वालन हेतु थाय छे शरीर करीपांग अडायांरूप संधूक्षण छे; ते शरीर वडेज तपोरूप अग्नि प्रदीप्त थाय हे; शरीर सहायथीज तप थाय. का छे के-'शरीर ए पहेलुं धर्म साधन छे.' कर्मो एज इंधन काष्ठ समिध छे. केम के कर्मरूपी इंधणां तपरूपी अग्निर्नु प्रज्वालन करे छे. महादुष्ट कर्म
करवावाळा पण तपोनुष्ठानवडे निर्मल थाय छे. संयम योग-संयमना सत्तर भेदनो योग-संबंध, एज सर्व जीवोना उपद्रवोना निवाJE] रक होवाथी शांति पाठ समजवा, आ होमवडे हुँ तपरूपी अग्निमां हवन करुं छु. केवा होमवडे? ऋषिओना प्रशस्त अर्थात् मुनि| जनोने योग्य, साधुओ तो आवाज यज्ञो करे छे अन्य जन एका यज्ञ करवा समर्थ थता नथी. ४४
साधुए यज्ञस्वरूप का हवे ब्राह्मणो स्नानस्वरूप पूछे छे.
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