Book Title: Shatkhandagama Pustak 16
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला टीका - समन्वितः षट्खंडागमः मोक्षादि - चतुर्दशानुयोगव्दाराणि खंड - ५ पुस्तक - १६ प्रकाशक जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापूर. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमन्त सेठ सिताबराय लक्ष्मीचंद्र जैन साहित्योद्धारक सिद्धान्त ग्रंथमालासे प्रकाशनाधिकार प्राप्त जीवराज जैन ग्रंथमाला ( धवला-पुष्प १६ ) श्री भगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलिप्रणीतः षट्खंडागमः वीरसेनाचार्य-विरचित-धवलाटीका-समन्वितः तस्य पंचमखंडे वर्गणानामधेये सत्कर्मान्तर्गतशेष-अष्टादश अनुयोगद्वारेषु हिन्दी भाषानुवाद-तुलनात्मक टिप्पण-प्रस्तावनानेकपरिशिष्टैः सम्पादितानि मोक्षादि-चतुर्दशानुयोगद्वाराणि खंड-५ पुस्तक-१६ - ग्रंथसंपादकः - स्व. डॉ. हीरालाल जैनः - सहसंपादकौ - स्व. पं. फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री स्व. पं. बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री -प्रकाशक: जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर. वीर निर्वाण संवत् २५२१ इ. सन १९९५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक सेठ अरविंद रावजी अध्यक्ष- जैन संस्कृति संरक्षक संघ फलटण गल्ली, सोलापुर-२ संशोधित द्वितीय आवृत्ति- १९९५ (११०० प्रतियाँ) संशोधन सहाय्यकस्व. डॉ. आ. ने. उपाध्ये स्व. पं. ब्र. रतनचन्दजी मुख्तार, सहारनपुर पं. जवाहरलालजी जैन शास्त्री, भिण्डर ग्रंथमाला संपादकपं. नरेंद्रकुमार भिसीकर शास्त्री, सोलापुर. (न्यायतीर्थ, महामहिमोपाध्याय ) डॉ. पं. देवेंद्रकुमार शास्त्री, नीमच मुद्रककल्याण प्रेस, सोलापुर. मूल्य- १२० रुपये (सर्वाधिकार सुरक्षित) . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rights to Publish Received from Shrimant Seth Sitabrai Lakshmichandra Jain Sahityoddharaka Siddhanta Granthamala Jivaraj Jain Granthamala Vol. 5 Dhavala-16 THE SHATKHANDAGAMA OF PUSHPADANTA AND BHOOTABALI WITH THE COMMENTARY DHAVALA OF VEERASENA Varganakhanda The Last Fourteen Anuyogadwaras, Moksha etc. Edited With introduction, translation, notes and indexes By Late Dr. Hiralal Jain Assisted by Late Pt. Phoolachandra Siddhanta Shastri Late Pt. Balachandra Siddhanta Shastri Veera Nirvana Samvat- 2521 Published by Jain Samskriti Samrakshaka Sangha SOLAPUR. Book- 16 A- D. 1995 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by Seth Aravind Raoji President Jaina Samskriti Samrakshaka Sangha Phaltan Galli, SOLAPUR-? Revised Second Edition, 1995 (1100 Copies ) Research Assistants Late Dr. A. N. Upadhye Late Pt. Dr. Ratanchandji Mukhtar, Saharanpur Pt. Jawaharlalji Jain Shastri, Bhindar Editors of GranthamalaPt. Narendrakumar Bhisikar Shastri Solapur (Nyayateertha, Mahamahimopadhyaya ) Dr Devendrakumar Shastri, Neemach Printed byKalyan Press, Solapur. Price: Rs. 120/ ( Copyright Reserved) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Daggggggggggggggggg10000000000 ganggagaganaananaananaananaananaanana Connaganaganannaganag0000000000000000000 स्व. ब. जीवराज गौतमचंद दोशी संस्थापक जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापूर Doggggggggggggggggggggggggggg Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार्दिक अभिनंदन ! धवला षट्खंडागमके भाग १० से १६ तक के पुनर्मुद्रण के लिए धर्मानुरागी, धवला परम संरक्षक, रबकवी (कर्नाटक) के श्री. डॉ. अप्पासाहेब कलगोंडा नाडगौडा पाटील और उनकी धर्मपत्नी सौ. डॉ. त्रिशलादेवी अप्पासाहेब नाडगौडा पाटील इन्होंने आर्थिक सहयोग देकर जिनवाणीकी सेवाका जो महान् आदर्श उपस्थित किया है उसके लिए उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुए हम उनके प्रति अनेकशः धन्यवाद प्रकट करते हैं। विश्वस्त मंडलजैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रकाशकीय निवेदन - षट्खंडागम धवला सिद्धान्त ग्रंथके पंचम खण्डमें ( वर्गणाखण्ड ) अर्थात् सोलहवें पुस्तकमें मोक्षादि चौदह अनुयोगद्वारोंका वर्णन किया गया है । इस ग्रंथका पूर्व प्रकाशन श्रीमंत सेठ लक्ष्मीचन्द्र जैन साहित्योद्धारक सिद्धान्त ग्रन्थमाला, विदिशा द्वारा हुआ है। उसे मूल ताडपत्र ग्रंथसे मिलानकर उसकी संशोधित पाठसहित द्वितीयावृत्ति प्रकाशनाधिकार प्राप्त जीवराज जैन ग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित करने में हम अपना सौभाग्य समझते है । स्व. ब्र. रतनचंदजी मुख्तार । सहारनपुर) तथा पं. जवाहरलालजी सिद्धान्त शास्त्री (भिंडर) इनके द्वारा भेजे हुए संशोधनका भी इस संशोधनकार्यमें हमें सहयोग मिला जिसके लिए हम सभी सज्जनोंके अतीव आभारी है। इस ग्रंथका प्रूफ संशोधन कार्य जीवराज जैन ग्रंथमालाके संपादक श्री पं. नरेंद्रकुमार भिसीकर शास्त्री तथा श्री. धन्यकुमार जैनी द्वारा संपन्न हुआ है । तथा मुद्रणकार्य कल्याण प्रेस, सोलापुर इनके द्वारा संपन्न हुआ है। हम इनके भी आभार प्रदर्शित करते हैं। ___ धर्मानुरागी श्रीमान् डॉ. अप्पासाहेब कलगोंडा नाडगौडा पाटील तथा उनकी धर्मपत्नी डॉ. सौ. त्रिशलादेवी नाडगौडा पाटील इन महानुभावोंने षखंडागम धवला पुस्तक १० से १६ तकके पुनर्मुद्रण के लिए आर्थिक सहयोग देकर जिनवाणीकी सेवाका जो महान् आदर्श उपस्थित किया इसके लिए उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुए हम उनके सहयोग के लिए अनेकशः धन्यवाद प्रकट करते हैं। रतनचंद सखाराम शहा मंत्री . Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवराज जैन ग्रंथमालाका परिचय सोलापुर निवासी श्रीमान् स्व. ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी कई वर्षोंसे संसारसे उदासीन होकर धर्मकार्यमें अपनी वृत्ति लगाते रहे । सन १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनी न्यायोपाजित संपत्तिका उपयोग विशेषरूपसे धर्म और समाजकी उन्नतिके कार्यमें करें। तदनुसार उन्होंन समस्त भारतका परिभ्रमण कर जैन विद्वानोंसे इस बातको साक्षात् और लिखित संमतियां संग्रह की कि कौनसे कार्यमें संपत्तिका उपयोग किया जाय । स्फुट मतसंचय कर लेनेके पश्चात् सन १९४१ ग्रीष्म कालमें ब्रह्मचारीजीने श्रीसिद्धक्षेत्र गजपंथ की पवित्र भूमिपर विद्वानोंका समाज एकत्रित किया और ऊहापोहपूर्वक निर्णयके लिये उक्त विषय प्रस्तुत किया। विद्वत्संमेलनके फलस्वरूप ब्रह्मचारीजीने जैन संस्कृति तथा साहित्य के समस्त अंगोंके संरक्षण, उद्धार और प्रचारके हेतु ‘जैन संस्कृति संरक्षक संघ' की स्थापना की और उसके लिए ३०, ००० रुपयोंके दानकी घोषणा कर दी । उनको परिग्रह निवृत्ति बढती गई । सन १९४४ में उन्होंने लगभग दो लाख की अपनी संपूर्ण संपत्ति संघको ट्रस्टरूपसे अर्पण की । इसी संघ के अन्तर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' का संचलन हो रहा है। प्रस्तुत ग्रंथ, श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचंद्र जैन साहित्योद्धारक सिद्धान्त ग्रंथमालाके द्वारा प्रकाशनाधिकार प्राप्त जीवराज जैन ग्रंथमालाके धवला विभागका सोलहवाँ पुष्प है। - रतनचंद सखाराम मंत्री Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ संपादकीय २ विषय - परिचय ३ विषय-सूची १ प्रस्तावना ११ मोक्ष - अनुयोगद्वार २ संक्रम - अनुयोगद्वार ३ लेश्या-अनुयोगद्वार ४ लेश्याकर्म- अनुयोगद्वार ५ लेश्यापरिणाम - अनुयोगद्वार २ मूल अनुवाद और टिप्पण ५ ग्रंथकारोल्लेख ६ परंपरागत उपदेश ६ सातासात - अनुयोगद्वार ७ दीर्घ-हस्व - अनुयोगद्वार ८ भवधारणीय - अनुयोगद्वार ९ पुद्गलात्त - अनुयोगद्वार १० निधत्त अनिधत्त - अनुयोगद्वार १९ निकाचित-अनिकाचित- अनुयोगद्वार १२ कर्मस्थिति - अनुयोगद्वार १३ पश्चिमस्कन्ध-अनुयोगद्वार १४ अल्पबहुत्व - अनुयोगद्वार १ धवलाकार - प्रशस्तिः २ पुस्तक प्रदातृ - प्रशस्तिः ३ अवतरणगाथा - सूची ४ ग्रंथोल्लेख ३ परिशिष्ट विषय - सूची ७ उपदेश भेद ८ पारिभाषिक शब्दसूची ९ षट्खंडागमसूत्र व धवलाटीकाके सोलहों भागोंकी सम्मिलित पारिभाषिक शब्दसूची 粥粥粥 For Private Personal Use Only पृष्ठ १ - २ ३-१४ १५-१८ ३३७-५९३ ३३७-३३८ ३३९-४८३ ४८४-४८९ ४९०-४९२ ४९३-४९७ ४९८-५०६ ५०७-५११ ५१२-५१३ ५१४-५१५ ५१६ ५१७ ५१८ ५१९-५२१ ५२२-५९३ १-५४ १ १-३ ४ ४-५ ५-६ ६ ६-७ ७- १० ११-५४ . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय मुझे आज बडी प्रसन्नता है कि जिस षखंडागम और उसकी टीका धवलाका सम्पादन प्रकाशन कार्य आजसे बीस वर्ष पूर्व सन् १९३८ में प्रारंभ हुआ था, वह आज प्रस्तुत भागके साथ संपूर्णताको प्राप्त हो रहा है । किन्तु ज्ञानकी दृष्टिसे यह कार्य केवल हमारे कर्तव्यकी प्रथम सीढी मात्र है। इस प्रकाशनके द्वारा इस महान शास्त्रीय रचनाका मूल पाठ, उसका मूलानुगामी अनुवाद, यत्र तत्र विशेष स्पष्टीकरण व तुलनात्मक टिप्पण तथा कुछ ऐतिहासिक विवेचन व पारिभाषिक शब्दोंकी सूचियाँ मात्र प्रस्तुत की जा सकी हैं । हमारे विचारके अनुसार अभी इसके सम्बन्धमें विशेष रूपसे निम्न कार्य अवशिष्ट है: १-इसके मूल पाठका एक बार सावधानीसे मूडबिद्रीकी तीन उपलभ्य ताडपत्रीय प्रतियोंसे मिलान व पाठभेदोंका अंकन । इस कार्यके लिये उक्त प्रतियोंके फोटोका भी उपयोग किया जा सकता है। २-इसके विषयका समस्त जैन कर्मसिद्धान्तसम्बन्धी दिगम्बर और श्वेताम्बर तथा वैदिक व बौद्ध साहित्यके साथ तुलनात्मक अध्ययन व पाश्चात्यदर्शन प्रणालीसे उसका विवेचन । ३-सूत्रों और टीकाका प्राकृत भाषासम्बन्धी अध्ययन । मुझे आशा है कि वर्तमान युगकी बढ़ती हुई ज्ञानपिपासा तथा विशेष अध्ययनकी ओर अभिरुचि व प्रोत्साहन को देखते हए उक्त प्रवत्तियोंको हाथ लगाने में विलंब न हो यद्यपि प्रत्येक भागके साथ भूमिकामें ग्रन्थसम्बन्धी ऐतिहासिक विवरण व विषय परिचय दिया गया है एवं परिशिष्टोंमें शब्द सूचियाँ, तथापि मेरा विचार था कि प्रस्तुत अन्तिम भागमें उक्त समस्त सामग्रीका पुनरावलोकन सहित संकलन दे दिया जाय । तदनुसार पारिभाषिक शब्दसूची संकलित करके इस भागके साथ प्रस्तुत की जा रही है। प्रस्तावनात्मक सामग्रीका भी संकलन कार्य चालू किया गया था। किन्तु इसी बीच मेरा स्वास्थ्य गिरने लगा और मुझे डाक्टरों का आदेश मिला कि कुछ कालके लिय कठोर मानसिक व शारीरिक परिश्रम त्यागकर विश्राम किया जाय, नहीं तो प्रकृति और अधिक बिगडनेका भय है। इस कारण उस सुविस्तृत भूमिकाका विचार छोड़कर एवं इस प्रकाशनमें अधिक विलंब उचित न समझकर इस भागको प्रकाशित किया जा रहा है । यदि विधि अनुकूल रहा तो उक्त कार्य भविष्यमें कभी पूर्ण करने का प्रयत्न किया जायगा । आवश्यक ऐतिहासिक व विषय-परिचयसंबंधी जानकारी भिन्न भिन्न भागोंमें संगृहीत है ही। __ इस समय स्वभावत: मेरी स्मृति इस संपादन प्रकाशनके गत बीस वर्षके इतिहास पर जा रही है । सफल और धन्य है वह श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जी, भेलसा, की संपत्ति जिसके थोडेसे दानसे यह महान् शास्त्रोद्धारका कार्य हो सका । वे गजरथ महोत्सव कराने जा रहे थे कि मेरे परम सुहृत् बैरिस्टर जमनाप्रसाद जैनने इटारसी परिषद्के अधिवेशनके समय उनको सद्बुद्धिको यह मोड़ दिया । गजरथ आज भी चलाये जा रहे हैं और उनमें अपरिमित धन व्यय किया जा रहा है। पाठक विचार कर देखें कि आज दानकी प्रवृत्ति किस दिशामें सार्थक है । पश्चात् भेलसानिवासी श्रीमान् स्वर्गीय सेठ राजमलजी व श्रीमान् तखतमल जी ( वर्तमान मध्य प्रदेशी मंत्रि-मण्डलके सदस्य ) ने सेठ लक्ष्मीचन्द जी की उस Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्बुद्धिको सुदृढ़ और व्यवस्थित करके दानकी रजिस्ट्री करा दी । सम्पादन कार्यके प्रारम्भमें अमरावती निवासी श्रीमान् स्वर्गीय सेठ पन्नालालजीका साहाय्य व प्रोत्साहन कभी भूला नहीं जा सकता । उन्होंने मानो इसी कार्यके लिये अपने मन्दिर जीके शास्त्र भंडारमें इस आगमकी पूर्ण प्रतिलिपि कराकर मँगा रखी थी। उसे तुरन्त उन्होंने मेरे सुपूर्द कर दिया। उनका यह कार्य उस समय कम साहसका नहीं था, क्योंकि भ्रान्तिवश हमारी विद्वत्समाजका एक दल इन ग्रन्थोंके प्रकाशन ही नही किन्तु किसी गृहस्थके द्वारा इनके अध्ययनका भी कट्टर विरोधी था और उस विरोधने क्रियात्मक रूप धारण कर लिया था। सेठ पन्नालालजी व अमरावती जैन पंचायतके अनुसार कारंजा जैन आश्रम तथा सिद्धान्त भवन, आरा, के अधिकारियोंने भी हमे उनकी प्रतियोंका उपयोग करनेकी सुविधा प्रदान की। प्रकाशन सम्बन्धी कागज, छपाई आदि विषयक कठिनाइयोंके हल करने में पं० नाथराम जी प्रेमीका वरद हस्त सदैव हमारे ऊपर रहा। यही नहीं, बीच में आर्थिक कठिनाईको दूर करने मुद्रण कार्य बम्बईमें कराने व अपने घर पर इसका दफ्तर रखने में भी वे नहीं हिचकिचाये। मेरे सम्पादक सहयोगियों में से डा० ए० एन० उपाध्ये प्रारम्भसे अभी तक मेरे साथ हैं । पं० फूलचन्द जी शास्त्रीका सहयोग भी आदिसे, बीच में कुछ वर्षोंके विच्छेदके पश्चात्, अभी भी मुझे मिल रहा है । पं० बालचन्द्र जी शास्त्रीका भी जबसे सहयोग प्राप्त हुआ तबसे अन्त तक निरन्तर निभता गया । स्वर्गीय पं० देवकीनन्दन जी शास्त्रीका भी आदिसे उनके देहावसान होने तक मुझे पूर्ण सहयोग मिलता रहा । पं० हीरालाल जी शास्त्रीका सहयोग इस कार्यके प्रारम्भमें बहुमूल्य रहा । किन्तु खेद है वह सहयोग अन्त तक न निभ सका । मैंने इन सब व्यक्तियों और घटनाओंका केवल संकेत मात्र किया है । तत्तत् सम्बन्धी आज सैकडों प्रियअप्रिय एवं साधक बाधक घटनाएँ मेरे स्मृति-पटल पर नाच रही हैं। किन्तु जिसका 'अन्त भला, वह सर्वांग भला' की उक्तिके अनुसार उस समस्त इतिहासमें मुझे माधुर्य ही माधुर्यका अनुभव हो रहा है। जिन पुरुषोंका मैं ऊपर उल्लेख कर आया हूँ उन्हें किन शब्दोंमें धन्यवाद दूँ ? बस यही एक भावना और प्रार्थना है कि जिन-वाणीको सेवामें उन्होंने अपना जैसा तन, मन, धन लगाया है, वैसा ही वे आजन्म लगाते रहे जिससे उनके ज्ञानावरणीय कर्मोका क्षय हो और वे निर्मल ज्ञान प्राप्त कर पूर्ण आत्मकल्याण करने में सफल हों। १-५-१९५८ हीरालाल जैन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय- परिचय कर्म प्रकृतिप्राभृतके कृति आदि २४ अनुयोगद्वारों में से प्रथम ९० अनुयोगद्वारों का संक्षिप्त परिचय यथास्थान कराया जा चुका है। यहाँ मोक्ष अनुयोगद्वारसे लेकर शेष १४ अनुयोगद्वारोंका परिचय कराया जाता है । ११ मोक्ष- मोक्ष अनुयोगद्वारका विचार नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों द्वारा करने की प्रतिज्ञा करके मात्र कर्मद्रव्यमोक्षका विशेष विचार प्रकृतमें किया गया है और शेष निक्षेपोंके व्याख्यानको सुगम बतलाकर छोड़ दिया गया है । कर्मप्रकृतियाँ मूल और उत्तरके भेद से दो प्रकारकी हैं, इसलिए कर्मद्रव्यमोक्षके दो भेद हो जाते हैं-मूलप्रकृतिकर्मद्रव्यमोक्ष और उत्तरप्रकृतिकर्मद्रव्यमोक्ष । ये दोनों भी देशमोक्ष और सर्वमोक्ष के भेदसे दो दो प्रकारके हैं । किसी मूल या उत्तर प्रकृतिके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा एकदेशका अभाव होना देशमोक्ष है और किसी मूल या उत्तर प्रकृतिका प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा सर्वथा अभाव होना सर्वमोक्ष है, इसलिए देशमोक्ष और सर्वमोक्ष ये दोनों ही प्रकृतिमोक्ष, स्थितिमोक्ष, अनुभागमोक्ष और प्रदेशमोक्ष इन चार भागोंमें विभक्त हो जाते हैं | खुलासा इस प्रकार है- विवक्षित प्रकृतिको निर्जरा होना या उसका अन्य प्रकृतिरूप से संक्रमित होना प्रकृतिमोक्ष कहलाता है । प्रदेश मोक्षका बिचार प्रकृतिमोक्ष के ही समान है। किसी भी प्रकृतिकी विवक्षित स्थितिका अभाव चार प्रकारसे होता है - अपकर्षण द्वारा, उत्कर्षण द्वारा, संक्रमणद्वारा और अधः स्थितिगलन द्वारा ; इसलिए इन चारोंमेंसे किसी एकके आश्रयसे विवक्षित स्थितिका अभाव होता स्थितिमोक्ष कहलाता है । स्थितिके जधन्यादि सब विकल्पों में स्थितिमोक्षका विचार इसी प्रकार कर लेना चाहिए । अनुभागमोक्ष भी स्थितिमोक्षके समान चार प्रकारसे होता है, इसलिए अनुभाग के भी उत्कृष्टादि सब भेदों में उक्त प्रकारसे अनुभागमोक्षको घटित करके बतलाया गया है | यहाँ यह स्पष्ड कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि कर्मद्रव्यमोक्ष अनुयोगद्वार में सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके द्वारा जीवके बन्धसे मुक्त होने मात्रका विचार न करके प्रति समय बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मोकी प्रकृति आदिका अभाव किस किस प्रकारसे होता रहता है इसका भी विचार किया गया है। जीवका कर्मोंसे छूटने का क्रम एक प्रकारका ही है । यदि सम्यग्दर्शनादि गुणोंके द्वारा कर्मसे छुटकारा मिलता है तो नवीन बन्ध न होने से वह सर्वथा मुक्तिका कारण होता है इतना मात्र यहाँ विशेष है । इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर नोआगमद्रव्य मोक्ष के मोक्ष, मोक्षकारण और मुक्त ये तीन भेद किये गये हैं । जीव और कर्मोंका वियुक्त हो जाना मोक्ष है । सम्यग्दर्शन आदि मोक्षके कारण हैं और समस्त कर्मोंसे रहित अनन्त गुण युक्त शुद्ध बुद्ध आत्मा मुक्त है । मोक्ष अनुयोगद्वार में इसका भी विस्तार के साथ विचार किया गया है । १२ संक्रम- संक्रमका छह प्रकारका निक्षेप करके उसके आश्रयसे इस अनुयोगद्वार में विचार किया गया है । क्षेत्र संक्रमका निर्देश करते हुए बतलाया है कि एक क्षेत्रका क्षेत्रान्तरको प्राप्त होना क्षेत्र संक्रम है । इस पर यह शंका की गई कि क्षेत्र निष्क्रिय होता है, इसलिए उसका अन्य क्षेत्र में गमन कैसे हो सकता है । इसका समाधान वीरसेनस्वामीने इस प्रकार किया है कि जीव और पुद्गल सक्रिय पदार्थ हैं, इसलिए आधेयमें आधारका उपचार करनेसे क्षेत्र संक्रम बन जाता | कालसंक्रमका निर्देश करते हुए बतलाया है कि एक काल गत होकर नवीन कालका Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) प्रादुर्भाव होना कालसंक्रम है । लोकमें हेमन्त ऋतु या ग्रीष्म ऋतु संक्रान्त हुई ऐसा व्यवहार भी देखा जाता है । यहाँ विवक्षित क्षेत्र और विवक्षित कालमें स्थित द्रव्यको क्षेत्र और काल संज्ञा रख कर भी क्षेत्रसंक्रम और कालसंक्रम घटित कर लेना चाहिए, ऐसा वीरसेनस्वामीने सूचित किया है। इस प्रकार संक्षेपसे छह निक्षेपोंका विचार करनेके पश्चात् विवक्षित अनुयोगद्वारमें कर्मसंक्रमको प्रकृत बतलाकर उसके चार भेद किये हैं-प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम, अनुमागसंक्रम और प्रदेशसंक्रम । एक प्रकृतिका अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रान्त होना यह प्रकृतिसंक्रम है । इस विषयमें विशेष नियम ये हैं । यथा-किसी भी मूलप्रकृतिका अन्य मूलप्रकृतिरूपसे संक्रमण नहीं होता । उदाहरणार्थ, ज्ञानावरणका दर्शनावरण रूपसे संक्रमण नहीं होता। इसीप्रकार अन्य मूल प्रकृतियोंके विषयमें भी जानना चाहिये। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा जिस मूल कर्मकी जितनी उत्तर प्रकृतियाँ हैं उनमें परस्पर संक्रमण होता है। उदाहरणार्थ, ज्ञानावरणकी पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं, इसलिए उनका परस्परमें संक्रमण होता है। इसी प्रकार अन्य मूल प्रकृतियोंमसे जिसकी जितनी उत्तर प्रकृतियाँ हों उनके परस्पर संक्रमणके विषयमें यह नियम जानना चाहिये । मात्र दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयमें और चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयमें संक्रमण नहीं होता तथा चार आयुओंका भी परस्पर संक्रमण नही होता इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। भागहारकी दृष्टिसे संक्रमके पाँच भेद हैं-अधप्रवृत्तसंक्रम, विध्यातसंक्रम, उद्वेलनासंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम । इनमें से प्रकृतमें इन अवान्तर भेदोंकी दृष्टिसे संक्रमका विचार न करके वीरसेन स्वामीने बन्धके समय होनेवाले इस संक्रमका स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, काल, अन्तर और अल्पबहुत्व इन अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर उत्तरप्रकृतिसंक्रगका विचार किया है। स्वामित्वका निर्देश करते हुए बतलाया है कि पाँच ज्ञानवरण, नौ दर्शनावरण, बारह कषाय और पाँच अन्तरायका अन्यतर सकषाय जीव संक्रमक होता है । असाताका बन्ध करनेवाला जीव साताका संक्रामक होता है और साताका बन्ध करनेवाला सकषाय जीव असाताका संक्रामक होता है । दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका परस्पर संक्रम नहीं होता यह तो स्पष्ट ही है । दर्शनमोहनीयका संक्रमके विषयमें यह नियम है कि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका संक्रामक नहीं होता । सम्यक्त्वका मिथ्यादृष्टि जीव संक्रामक होता है। मात्र सम्यक्त्वका एक आवलि प्रमाण सत्कर्म शेष रहने पर उसका संक्रम नहीं होता। मिथ्यात्वका सम्यग्दष्टि जीव संक्रामक होता है। मात्र जिस सम्यग्दष्टिके एक आवलिसे अधिक सत्कर्म विद्यमान है ऐसा जीव इसका संक्रामक होता है। यही नियम सम्यग्मिथ्यात्वके लिये भी लागू करना चाहिए। पर इसका संक्रामक मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दष्टि दोनों होते हैं। स्त्रीवेद और नपंसकवेदका उपशम और क्षय क्रियाका अन्तिम समय प्राप्त होने तक कोई भी जीव संक्रामक होता है। पुरुषवेद और तीन संज्वलनका उपशम और क्षयका प्रथम समय प्राप्त होने तक कोई भी जीव संक्रामक होता है। संज्वलन लोभका ऐसा जीव संक्रामक होता है जिस उपशामक और क्षपकने संज्वलन लोभके अन्तरका अन्तिम समय नहीं प्राप्त किया है । तथा जो अक्षपक और अनुपशामक है वह भी इसका संक्रामक होता है । चारों आयुओंका संक्रम नहीं होता ऐसा स्वभाव है । यशःकीतिको छोडकर सब नामकर्मकी प्रकृतियोंका सकषाय जीव संक्रामक होता है । मात्र जिसके एक . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) आवलिसे अधिक सत्कर्म विद्यमान हैं ऐसा जीव इनका संक्रामक होता है। यशःकीर्तिका संक्रामक तब तक होता है जब तक पर भवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंका बन्ध करता है। उच्चगोत्रका संक्रामक नीचगोत्रका बन्ध करनेवाला अन्यतर जीव होता है। मात्र एक आवलिसे अधिक सत्कर्मके रहते हुए उच्चगोत्रका संक्रामक होता है। नीचगोत्रका संक्रामक उच्चगोत्रका बन्धा करनेवाला अन्यतर जीव होता है। इस प्रकार सब प्रकृतियोंके स्वामित्वको जान कर काल आदि अनुयोगद्वारोंका विचार कर लेना चाहिए । मूलमें इनका विचार किया ही है, इसलिए विस्तार भयसे यहाँ उनका अलग अलग निर्देश नहीं करते हैं। इस प्रकार प्रकृतिसंक्रमका विचार कर आगे प्रकृतिस्थानसंक्रमकी सूचना करते हुए . बतलाया गया है कि ज्ञानावरणीय, वेदनीय, गोत्र और अन्तरायका एक एक ही संक्रमस्थान है। दर्शनावरणके नौ प्रकृतिक और छह प्रकृतिक ये दो संक्रमस्थान हैं। मोहनीयके संक्रमस्थानोंका विचार कषायप्राभूतमें विस्तारके साथ किया है। नामकर्मकी पिण्डप्रकृतियोंके आश्रयसे स्थानसमुत्कीर्तना करनी चाहिए । इस प्रकार अलग अलग प्रकृतियोंके संक्रमस्थान जानकर उनके आश्रयसे स्वामित्व और काल आदि सब अनुयोगद्वारोंका विचार करनेकी सूचना करके यह प्रकरण समाप्त किया गया है। आगे स्थितिसंक्रमका निर्देश करके उसकी प्ररूपणा इस प्रकार की है। स्थितिसंक्रम दो प्रकारका है-- मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम। स्थितिसंक्रम तीन प्रकारसे होता है। यथा-- स्थितिका अपकर्षण होने पर स्थितिसंक्रम होता है, स्थितिका उत्कर्षण होने पर स्थितिसंक्रम होता है और स्थितिके अन्य प्रकृतिको प्राप्त कराने पर भी स्थितिसंक्रम होता है। अपकर्षण की अपेक्षा संक्षेपमें स्थितिसंक्रमका विचार इस प्रकार है-- उदयावलिके भीतरकी सब स्थितियोंका अपकर्षण नहीं होता। उदयावलिके बाहर जो एक समय अधिक उदयावलिप्रमाण स्थिति है उसका अपकर्षण होता है। अपकर्षण होकर उसका एक समय कम आवलिके दो बटे तीन भागप्रमाण स्थितिको अतिस्थापनारूपसे रखकर एक अधिक तृतीय भागमें निक्षेप होता है। इससे आगेकी स्थितियोंका अपकर्षण होने पर एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना प्राप्त होने तक उसकी वृद्धि होती है और निक्षेप उतना ही रहता है। इससे आगे अतिस्थापना अवस्थितरूपसे एक आवलिप्रमाण ही रहती है और निक्षेप उत्तरोत्तर बढता जाता है। उत्कर्षणके विषयमें यह नियम है कि उदयावलिके भीतरकी सब स्थितियोंका उत्कर्षण नहीं होता। एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिका उत्कर्षण होता है। किन्तु उसका नहीं बँधनेवाली स्थितिमे निक्षेप न होकर बँधनेवाली जघन्य स्थितिसे लेकर ऊपरकी सब स्थितियोंमें निक्षेप होता है। यह विधि उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाली नीचेकी स्थितियोंकी कही है। ऊपरकी स्थितियोंका उत्कर्षण किस प्रकार होता है इसका विगर करने पर यदि यह जीव सत्कर्मसे एक समय अधिक स्थितिका बन्ध करता है तो पूर्वबद्ध कर्मकी अन्तिम स्थितिका उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि, यहाँ पर अतिस्थापना और निक्षेपका अभाव है। पूर्वबद्ध कर्मकी द्विचरम स्थितिका भी उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि, यहाँ पर भी अतिस्थापना और निक्षेप सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार पूर्वबद्ध कर्मकी एक आवलि और एक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिके नीचे जाने तक जितने भी स्थितिविकल्प हैं उनका उत्कर्षण सम्भव नहीं। कारण वही है। हाँ उससे नीचे एक स्थितिके जाने पर जो स्थितिविकल्प स्थित है उसका उत्कर्षण हो सकता है और वैसी अवस्थामें एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना होती है तथा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष आवलिका असंख्यातवां भाग निक्षेप होता है। इस प्रकार संक्षेपमें उत्कर्षणका निर्देश करके आगे निक्षेप और अतिस्थापनाका अल्पबहुत्व बतलाया गया है । आगे उत्तरप्रकृतिसंक्रमके प्रमाणानुगमका निर्देश करते हुए वह उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यके भेदसे चार प्रकारका बतलाया है। उदाहरणार्थ मतिज्ञानावरणका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम दो आवलि कम तीस कोडाकोडी सागर प्रमाण होता है, क्योंकि, किसी भी प्रकृतिका बंध होने पर एक आवलि काल तक उसका संक्रमण नहीं होता, इसलिए एक आवलि तो यह कम हो जाती है। इसके बाद उदयावलिको छोडकर शेष स्थितिका अन्य बंधको प्राप्त होनेवाली प्रकृतिमें संक्रमण होता है, इसलिए एक आवलि यह कम हो जाती है। इस प्रकार उक्त दो आवलियोंको छोडकर शेष सब स्थिति संक्रमणसे प्राप्त हो सकती है, इमलिए मतिज्ञानावरणको उत्कृष्ट संक्रमस्थिति दो आवलि कम तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण कही है। पर उस समय उस कर्मकी स्थिा आवलि कम तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण होती है, इसलिए उसका यत्स्थितिसक्रम एक आवलि कम तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण कहा है। इस प्रकार मूलमें मात्र मतिज्ञानावरणका उदाहरण देकर शेष कर्मोके विषयमें उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाके समान उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमके जानने की सूचना की है और जिन कर्मों में उत्कृष्ट स्थिति उदीरणासे भेद है उनका अलगसे निर्देश कर दिया गया है सो विचार कर उसे घटित कर लेना चाहिए। स्वतन्त्ररूपसे विचार किया जाय तो उसका तात्पर्य इतना ही है कि जो बन्धसे उत्कृष्ट स्थितिवाली प्रकृतियाँ हैं उनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम दो आवलिकम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है और उत्कृष्ट यस्थितिसंक्रम एक आवलि कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है। परन्तु जो बन्धोत्कृष्ट स्थितिवाली प्रकृतियाँ न होकर संक्रमोत्कृष्ट स्थितिवाली प्रकृतियाँ हैं उनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम तीन आवलि कम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है और उत्कृष्ट यत्स्थितिसंक्रम दो आवलि कम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है। मात्र दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंमें तथा आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृति में जो विशेषता है उसे अलगसे जान लेना चाहिए। चारों आयुओंका जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है वही उनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम है, क्योंकि, एक आयुका अन्य आयुमें संक्रम नहीं होता। मात्र इनकी यत्स्थिति एक आवलि कम उत्कृष्ट आबाधासहित अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कही है । इनकी उत्कृष्ट यत्स्थिति इतनी कैसे कही है इस विषयको श्वेताम्बर कर्मप्रकृतिके टीका में स्पष्ट किया है। उसका भाव यह है कि आयुबंध होते समय बन्धावलिप्रमाण काल जानेपर आयुबन्धके प्रथम समयमें बँधे हुए कर्मका उत्कर्षण होने पर उसकी आबाधासहित उत्कृष्ट यस्थिति उक्त कालप्रमाण प्राप्त होती है। यह एक समाधान है। तथा 'अथवा' कहकर दूसग समाधान इसप्रकार किया है कि बंधावलिके बाद आयुको निाघातरूप अपवर्तना (अपकर्षण भी सर्वदा संभव है, इसलिए उसकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रमाण यस्थिति जान लेनी चाहिए। अभिप्राय इतना ही है कि पूर्वकोटि की आयुवाले मनुष्यके प्रथम विभागम परभव संबंधी उ कृष्ट आयुका बंध होने पर उसकी निषेक रचना तो नरकायु और देवायुकी तेतीस सागरप्रमाण तथा तिर्यंचायु और मनुष्यायुकी तीन पल्यप्रमाण ही रहती है । आबाधाकाल पूर्वकोटिका त्रिभाग इससे अलग है इसलिए इनका जो स्थितिबन्ध है वही स्थितिसंक्रम है। पर इनके बन्धके प्रथम समयसे लेकर एक आवलि काल जानेपर इन निषेकस्थितियोंमें बन्ध होते समय उत्कर्षण और बन्ध होते समय या बन्ध समयके बाद भी अपकर्षण होने लगता है। यतः इस उत्कर्षण और अपकर्षणमें एक स्थितिसे प्रदेश समूह उठकर दूसरी स्थितिमें निक्षिप्त होते Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय स्थितिके परिणाममें अबाधाकाल भी गभित है । पर यह उत्कर्षण और अपकर्षण बंधके प्रथम समयसे लेकर एक आवलिकाल तक सम्भव नहीं है। यही कारण है कि आयुकर्मकी यस्थिति कहते समय नरकायु आदिकी अपनी उत्कृष्ट स्थिति में एक आवलिकम उत्कृष्ट आबाधाकाल भी सम्मिलित कर लिया है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमके प्रमाणका अनगम करने के बाद जघन्य स्थितिसंक्रमके प्रमाणका निर्देश किया है । खुलासा इसप्रकार है- पाँच ज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण आदि चार दर्शनावरण, सम्यक्त्व, संज्वलन लोभ, चार आय और पाँच अन्तराय इनकी एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थिति शेष रहने पर उदयावलिसे उपरितन एक समयमात्र स्थितिका अपकर्षण होता है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम एक स्थितिप्रमाण है और यस्थितिसंक्रम समयाधिक एक आवलिप्रमाण है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, नरकगतिद्विक, तिर्यंचगतिद्विक, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इनकी क्षपणा होने के अन्तिम समयमें जघन्य स्थिति पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम उक्त प्रमाण कहा है । परन्तु क्षपणाके अन्तिम समयमें इनके उदयावलिमें स्थित निषेकोंका संक्रम नहीं होता. इसलिए उक्त कालमें उदयावलिके मिला देनेपर इनकी यस्थिति उदयावलि अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी यस्थिति उदयावलि अधिक न कहकर अन्तर्महर्त अधिक कहनी चाहिए, क्योंकि, इन दोनों प्रकृतियोंकी क्षपणाकी समाप्ति अन्तरकरण में रहते हुए होती है और अन्तरकरणका काल उस समय अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, इसलिए यह स्पष्ट है कि अन्तरकरणमें इनके प्रदेशोंका अभाव होनेसे यस्थिति इतनी बढ़ जाती है । निद्रा और प्रचलाकी स्थिति दो आवलि और एक आवलिका असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर इनकी मात्र उपरितन एक स्थितिका संक्रम होता है ऐसा स्वभाव है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम एक स्थिति और यस्थितिसक्रम आवलिका असंख्यातवाँ भाग अधिक दो आवलि होता है। हास्यादि छहकी क्षपणाके अन्तिम समय में जघन्य स्थिति संख्यात वर्षप्रमाण होती है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम संख्यात वर्षप्रमाण होता है। पर इनकी क्षपणाकी समाप्ति भी अन्तरकरणमें रहते हुए होती है और उस समय अन्तरकरणका काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, इसलिए इनकी यस्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक संख्यात वर्ष होती है। क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध दो महिना प्रमाण होता है, मानसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध एक महिनाप्रमाण होता है, मायासंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध अर्ध मासप्रमाण होता है और पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध आठ वर्षप्रमाण होता है। इन प्रकृतियोंके उक्त स्थितिबन्धमेंसे अलग अलग अन्तर्महर्तप्रमाण आबाधाकालके कम कर देनेपर उनके जघन्य स्थिति संक्रमका प्रमाण आ जाता है जो क्रमश: अन्तर्मुहूर्त कम दो माह, अन्तर्मुहूर्त कम एक माह, अन्तर्मुहूर्त कम अर्ध मास और अन्तर्मुहुर्त कम आठ वर्षप्रमाण होता है । तथा इनका यस्थितिसंक्रम क्रमसे दो आवलि कम दो माह, दो आवलि कम एक माह, दो आवलि कम अर्धमास और दो आवलि कम आठ वर्षप्रमाण होता है, क्योंकि, अपना अपना जघन्य स्थितिबन्ध होनेपर उसका एक आवलि काल तक संक्रम नहीं होता, इसलिए अपने अपने जघन्य स्थितिबन्धमेंसे एक आवलि तो यह कम हो गई और संक्रम प्रारम्भ होने पर एक आवलि काल तक रहता है, इसलिए एक आवलि यह कम हो गई। अत: इन प्रकृतियोंके जघन्य Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) यस्थितिसंक्रमका प्रमाण अपने अपने जघन्य स्थितिबन्धमेंसे दो आवलि कम करने पर जो प्रमाण शेष रहे उतना प्राप्त होता है। अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो उनकी जघन्य स्थिति सयोगिकेवलीके अन्तिम समयमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है, इसलिए वहाँ पर उसमें से उदयावलिप्रमाण स्थितिको छोडकर शेष स्थितिका संक्रमण सम्भव होने से उनका जघन्य स्थितिसंक्रम उदयावलि कम अन्तर्मुहुर्तप्रमाण और यत्स्थितिसंक्रम उदयावलिसहित अन्तर्मुहुर्तप्रमाण होता है। यहाँपर मूलमें इन प्रकृतियोंकी यत्स्थिति तथा स्त्यानगद्धित्रिक आदि बत्तीस प्रकृतियोंकी यस्थिति नहीं बतलाई गई है। किन्तु वह सम्भव है, इसलिए हमने उसका अलगसे निर्देश कर दिया है । तथा मूलमें देवगति आदिका जघन्य स्थितिसंक्रम बतलाते समय जो प्रकृतियाँ परिगणित की गई हैं उनमें तीन अंगोपांग भी परिगणित किये जाने चाहिए, क्योंकि, इनका जघन्य स्थितिसंक्रम भी सयोगिकेवलीके अन्तिम समयमें होता है। आगे जो जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामित्व कहा है उससे भी यह बात स्पष्ट हो जाती है। इस प्रकार प्रमाणानुगमका निर्देश करने के बाद जघन्य और उत्कृष्ट भेदोंका आश्रयकर स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर और अल्पबहत्वका निर्देश करके भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि इन अनुयोगद्वारोंका संक्षेपमें निरूपण किया है। __ इस प्रकार स्थितिसंक्रमका विचार कर आगे अनुभागसंक्रमका प्रकरण प्रारम्भ होता है। इसमें सब कर्मोको देशघाति, सर्वघाति और अघाति इन भेदोंमें विभक्तकर इनके आदि स्पर्धक परस्परमें किनके समान हैं और किनके किस क्रमसे प्राप्त होते हैं यह बतलाकर उत्कर्षणसे प्राप्त होनेवाला अनुभाग अनुभागसंक्रम है, अपकर्षणसे प्राप्त होनेवाला अनुभाग अनुभागसंक्रम है और अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमण होकर प्राप्त होनेवाला अनुभाग अनुभागसंक्रम है इस अर्थपदका निर्देश किया गया है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि मल प्रकृतियोंमें उत्कर्षण और अपकर्षण इन दो प्रकारोंसे और उत्तर प्रकृतियोंमें यथासम्भव तीनों प्रकारोंसे अनुभागसंक्रम होता है। आगे अपकर्षणसे प्राप्त होनेवाले अनुभागसंक्रमका निर्देश करते हुए बतलाया गया है कि आदि स्पर्धकका अपकर्षण नहीं होता, क्योंकि, इसके नीचे जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाका अभाव है। इसी प्रकार जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाके अंतर्गत जितने स्पर्धक हैं उनका अपकर्षण नहीं होता। मात्र इनके ऊपर जो स्पर्धक अवस्थित हैं उनका अपकर्षण होता है, क्योंकि, इनकी अतिस्थापना और निक्षेप पाये जाते हैं। इतना निर्देश करने के बाद यहाँ प्रकृत विषयमे उपयोगी अल्पबहुत्व दिया गया है। आगे उत्कर्षणके विषयमें यह नियम दिया गया है कि चरम स्पर्धक की स्थापना और निक्षेप का अभाव है, इसलिए जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापना प्रमाण स्पर्धक नीचे सर ककर जो स्पर्धक अवस्थित है उसका उत्कर्षण होता है। इसके आगे अपकर्षण और उत्कर्षणकी अपेक्षा निक्षेप और अतिस्थापनाका अल्पबहुत्व देकर अर्थपद समाप्त किया गया है । आगे प्रमाणानुगम, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, संन्निकर्ष, स्वस्थान अल्पबहुत्व और परस्थान अल्पबहुत्वका निर्देश करके कुछ अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धिका विचारकर अनुभागसंक्रमप्रकरण समाप्त होता है । __ आगे संक्रमस्थानोंको सत्कर्मस्थानोंके अनुसार जानने की सूचना कर प्रदेशसंक्रमके विषयमें Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा है कि एक उत्तर प्रकृतिके प्रदेशोंका अन्य सजातीय प्रकृतिमें संक्रमित होना प्रदेशसंक्रम कहलाता है। प्रदेशसंक्रम भी मलप्रकृतियोंमें न होकर उत्तर प्रकृतियोंमें होता है। तदनुसार उत्तर प्रकृतिसंक्रमके पाँच भेद हैं- उद्वेलनसक्रम, विध्यातसंक्रम, अधःप्रवृत्त संक्रम गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम । आगे ये संक्रम किस अवस्थामें और कहाँ होते हैं तथा किन प्रकृतियोंके कितने संक्रम होते हैं यह बतला कर इन संक्रमोंके अवहारकालके अल्पबहत्वका निर्देश किया गया है। आगे स्वामित्व आदि अनयोगद्वारोंका आश्रय लेकर भजगार, पदनिक्षेप और वृद्धिसंक्रमका निर्देश करते हुए इस प्रकरणको समाप्त किया गया है। १३ लेश्या- लेश्याका निक्षेप चार प्रकारका है- नामलेश्या, स्थापनालेश्या, द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । यहाँ इन नामलेश्या आदि इन निक्षेपोंका स्पष्टीकरण करते हुए तद्व्यतिरिक्त द्रव्यलेश्याके विषयमें लिखा है कि चक्ष इन्द्रियद्वारा ग्राह्य पुद्गलस्कन्धोंके कृष्ण आदि छह वर्णोंकी द्रव्यलेश्या संज्ञा है। यहाँ इनके उदाहरण भी दिये गये हैं। भावलेश्याके आगम और नोआगम ये भेद करके नोआगम भावलेश्याका वही लक्षण दिया है जो सर्वत्र प्रसिद्ध है । प्रकृतमें नैगमनयकी अपेक्षा नोआगमद्रव्यलेश्या और भावलेश्या प्रकृत है यह कहकर द्रव्यलेश्याके असंख्यात लोकप्रमाण भेद होने पर भी छह भेद ही क्यों किये गये हैं इसका स्पष्टीकरण किया गया है। आगे शरीरके आश्रयसे किन जीवोंके कौन लेश्या होती है यह बतला कर छह शरीरोंकी द्रव्यलेश्याओंका अलग अलग विचार किया गया है। यद्यपि कृष्णादि द्रव्यलेश्याओंमें एक एक गुणकी मुख्यतासे नामकरण किया जाता है पर इसका यह अभिप्राय नहीं है कि इनमेंसे प्रत्येकमें एक एक गुण ही होता है, इसलिए आगे किस लेश्यामें किस क्रमसे कौन कौन गुण होते हैं इसका स्पष्टीकरण तालिका द्वारा कराया जाता है-- लेश्या नाम कृष्णले. शक्ल पीत लाल नील कृष्ण नीलले० शुक्ल | पीत लाल । कृष्ण नील कापोतले० शक्ल पीत कृष्ण लाल नील कापोतले. - शक्ल कष्ण पीत नील लाल कापोतले० कृष्ण शक्ल नील पीत लाल पीतले० कृष्ण नील शुक्ल पीत लाल पद्मले० कृष्ण नील लाल पीत पद्मले० कृष्ण नील लाल शुक्ल पीन पद्मले० कृष्ण न.ल पीत शुक्ल शुक्लले० कृष्ण नील पीत । शुक्ल Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०) इन लेश्याओंमेंसे जिसमें सर्व प्रथम गुणका निर्देश किया है वह उसमें सबसे स्तोक है और आगेके गुण उस लेश्यामें उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं । कापोत और पद्मलेश्या तीन तीन प्रकारसे निष्पन्न होती हैं। शेष लेश्यायें एक ही प्रकारसे निष्पन्न होती हैं। तथा कापोत लेश्याम द्विस्थानिक अनुभाग होता है और शेष लेश्याओंमें विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु:स्थानिक अनुभाग होता है। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगसे उत्पन्न हुए जीवके संस्कारविशेषका नाम भावलेश्या है । द्रव्यलेश्याके समान ये भी छह प्रकारकी होती हैं। उनमें से कापोत लेश्या तीव्र होती है, नीललेश्या तीव्रतर होती है और कृष्ण लेश्या तीव्रतम होती है । पीतलेश्या मन्द होती है, पद्मलेश्या मन्दतर होती है और शुवललेश्या मन्दतम होती है । ये छहों लेश्यायें षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिको लिए हुए होती हैं । तथा इनमें भी कापोतलेश्या द्विस्थानिक अनुभागको लिए हुए होती है और शेष पाँच लेश्यायें द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक अनुभागको लिए हुए होती हैं । इस प्रकार इस अधिकारमें लेश्याओंका उक्त प्रकारसे वर्णन करके अन्त में तीव्रता और मन्दताकी अपेक्षा अल्पबहुत्व बतला कर यह अधिकार समाप्त किया गया है । १४ लेश्याकर्म-कृष्णादि लेश्याओंमेंसे जिसके आलम्बनसे मारण और विदारण आदि जिस प्रकारकी क्रिया होती है उसके अनुसार उसका वह लेश्याकर्म माना गया है। उदाहरणार्थ कृष्लेश्यासे परिणत हुआ जीव निर्दय, कलहशील, रौद्र, अनुबद्धवैर, चोर, चपल, परस्त्रीमें आसक्त, मधु, मांस और सुरामें विशेष रुचि रखनेवाला, जिनशासनके सुननेम अतत्पर और असंयमी होता है । इसी प्रकार अन्य लेश्याओंका अपने अपने नामानुरूप कर्म जानना चाहिए । इस प्रकार इस अधिकारमें लेश्याकर्मका विचार किया गया है। १५ लेश्यापरिणाम- कौन लेश्या किस रूपसे अर्थात् किस वृद्धि या हानिरूपसे परिणत होती है इस बात का विचार इस अधिकारमें किया गया है । इसमें बतलाया है कि कृष्णलेश्याम षट्स्थानपतित संक्लेशकी वृद्धि होने पर उसका अन्य लेश्या में संक्रमण न होकर स्वस्थानम ही संक्रमण होता है। मात्र विशुद्धिकी वृद्धि होने पर उसका अन्य लेश्यामें भी संक्रमण होता है और स्वस्थानमें भी संक्रमण होता है। इतना अवश्य है कि कृष्णलेश्यामेंसे नीललेश्यामें आते समय नियमसे अनन्तगुणहानि होती है । नीललेश्यामें संक्लेशकी वृद्धि होने पर स्वथानसंक्रमण भी होता है और नीलसे कृष्णलेश्यामें भी संक्रमण होता है । तथा विशुद्धि होने पर स्वस्थान संक्रमण भी होता है और नीललेश्यासे कापोतलेश्यामें भी संक्रमण होता है । मात्र नीललेश्यासे कृष्ण लेश्यामें जाते समय संक्लेशकी अनन्तगुणी वृद्धि होती है और नीलसे कापोत लेश्यामें आते समय संक्लेशको अनन्तगुणी हानि होती है । इसी प्रकार शष चार लेश्याओंमें भी परिणामका विचार कर लेना चाहिए । इस प्रकार इस अधिकार में परिणामका विचार कर तीव्रता और मन्दताको अपेक्षा संक्रम और प्रतिग्रहके अल्पबहुत्वका विचार करते हुए इस अधिकारको समाप्त किया गया है। १६ सातासात- इस अनुयोगद्वारका यहाँ पर पांच अधिकारोंके द्वारा विचार किया गया है । वे पाँच अधिकार ये हैं-समुत्कीर्तना, अर्थपद, पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व। समुत्कीर्तनामें बतलाया गया है कि एकान्त सात और अनेकान्त सातके भेदसे सात दो प्रकारका है । तथा इसी प्रकार एकान्त असात और अनेकान्त असातके भेदसे असात भी दो प्रकारका है। अर्थपदका निर्देश करते हुए बतलाया है कि जो कर्म सातरूपसे बद्ध होकर यथावस्थित | Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहते हुए वेदा जाता है वह एकान्त सातकर्म है और इससे अन्य अनेकान्त सातकर्म है । इसी प्रकार जो कर्म असातरूपसे बद्ध होकर यथावस्थित रहते हुए वेदा जाता है वह एकान्त असात कर्म है और इससे अन्य अनेकान्त असातकर्म है। पदमीमांसामें इनके उत्कष्ट, अनत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य पदोंके अस्तित्वकी सचना मात्र की कई है। स्वामित्वमें इन उत्कष्ट आदि भेद रूप एकान्त सात आदिके स्वामित्वका निर्देश किया गया है। तथा अन्त में प्रमाणका विचार कर अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए इस अनुयोगद्वारको समाप्त किया गया है। १७ दोघं-ह स्व- इसमें दीर्घको प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका बतला कर उनका बन्ध, उदय और सत्त्वकी अपेक्षा विचार किया गया है । सर्व प्रथम मूलप्रकृतिदीर्घके प्रकृतिस्थानदीर्घ और एकैकप्रकृतिस्थानदीर्घ ये दो भेद करके प्रकृतिस्थानका विचार करते हुए बतलाया है कि आठ प्रकृतियोंका बन्ध होने पर प्रकृतिदीर्घ और उससे न्यून प्रकृतियोंका बन्ध होने पर नोप्रकृतिदीर्घ होता है । इसी प्रकार उदय और सत्त्वकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ और नोप्रकृतिर्द घंको घटित करके बतला कर उत्तर प्रकृतियोंमेंसे किस मूल कर्मकी उत्तर प्रकृतियोंमें बन्धादिकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ सम्भव नहीं है और किसकी उत्तर प्रकृतियोंमें प्रकृतिदीर्घ और नोप्रकृतिदीर्घ सम्भव है यह बतलाया गया है । आगे स्थितिदीर्घ, अनुभागदीघ और प्रदेशदीर्घको भी बतलाया __ आगे दीर्घके समान ह.स्वके भी चार भेद करके उनका विचार किया गया है । उदाहरणार्थ बन्धकी अपेक्षा प्रकृतिह स्वका निर्देश करते हुए बतलाया है कि एक एक प्रकृतिका बन्ध करने वाले के प्रकृतिह स्व होता है और इससे अधिकका बन्ध करनेवालेके नोप्रकृतिह स्व होता है। इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियोंका आलम्बन लेकर बन्ध, उदय और सत्त्वकी अपेक्षा दीर्घ और ह,स्वके विचार करने में इस अनुयोगद्वारकी प्रवृत्ति हुई है। १८भवधारणीय- इस अनयोमद्रारमें भवके ओघभव. आदेशभव और भवग्रहणभव ये तीन भेद करके बतलाया है कि आठ कर्म और कर्मोंके निमित्तसे उत्पन्न हुए जीवके परिणामको ओघभव कहते हैं । चार गति नामकर्म और उनसे उत्पन्न हुए जीवके परिणामको आदेशभव कहते हैं। इसके अनुसार आदेशभव चार प्रकारका है- नारकभव, तिर्यञ्चभव, मनुष्यभव और देवभव । तथा भुज्यमान आयु गलकर नई आयुका उदय होने पर प्रथम समयम उत्पन्न हुए व्यञ्जन संज्ञावाले जीवके परिणामको या पूर्वशरीरका त्याग होकर नूतन शरीरके ग्रहणको भवग्रहणभव कहते हैं। प्रकृतमें भवग्रहणभवका प्रकरण है । यद्यपि जीव अमूर्त है फिर भी उसका कर्मके साथ अनादि सम्बन्ध होनेसे संसार अवस्थामें वह मूर्तभावको प्राप्त हो रहा है, इसलिए अमूर्त जीवका मूर्त कर्मके साथ बन्ध बन जाता है । ऐसा यह जीव शेष कर्मोके द्वारा न धारण किया जाकर आयुकर्म के द्वारा धारण किया जाता है, अतएव भवधारणीय आयुकर्म ठहरता है । इसका पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्वको आलम्बन लेकर विस्तारसे विचार वेदना अनुयोगद्वारमें किया है, इसलिए उस सब व्याख्यानको वहाँसे जान लेना चाहिए। इस प्रकार भवग्रहणभवके व्याख्यान करने में यह अनुयोगद्वार चरितार्थ है। १९ पुद्गलात्त- इसमें पुद्गलके चार निक्षेप करके प्रकृतमें नोआगमतद्व्यतिरिक्त द्रव्यपूदगलका विचार करते हए बतलाया गया है कि पूदगलात्त अर्थात पूदगलोंका आत्मसात्कार छह प्रकारसे होता है-ग्रहणसे, परिणामसे, उपभोगसे, आहारसे, ममत्त्वसे और परिग्रहसे । इसका खुलासा करते हुए बतलाया है कि हाथ और पैर आदिसे ग्रहण किये गये Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) दण्ड आदि पुद्गल ग्रहणसे आत्तपुद्गल हैं । मिथ्यात्व आदि परिणामोंसे अपने किये गये पुद्गल परिणामसे आत्तपुद्गल हैं । उपभोगसे अपने किये गये गन्ध और ताम्बूल आदि पुद्गल उपभोग से आत्तपुद्गल हैं। खान-पानके द्वारा अपने किये गये पुद्गल आहारसे आत्तपुद्गल हैं । अनुराग ग्रहण किये गये पुद्गल ममत्वसे आत्तपुद्गल हैं और स्वाधीन पुद्गल परिग्रहसे आत्तपुद्गल हैं । इन सबका वर्णन इस अनुयोगद्वार में किया गया है । अथवा पुद्गलात्तका अर्थ पुद्गलात्मा है । पुद्गलात्मासे रूपादि गुणवाला पुद्गल लिया गया है । अतः उसके गुणोंकी षट्स्थानपतित वृद्धि आदिका इस अनुयोगद्वार में विचार किया गया है । २० निधत्त - अनिधत्त - इस अनुयोगद्वार में बतलाया है कि जिस प्रदेशाग्रका उत्कर्षण और अपकर्षण तो होता है पर उदीरणा और अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमण नहीं होता उसकी निधत्त संज्ञा है । प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे निधत्त भी चार प्रकारका है और अनिधत्त भी चार प्रकारका है। इस विषय में यह नियम है कि दर्शनमोहनीयकी उपशामना या क्षपणा करते समय मात्र दर्शनमोहनीय कर्म अनिवृत्तिकरण में अनिधत्त हो जाता है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते समय मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्क अनिवृत्तिकरण में अधित हो जाता है और चारित्रमोहनीयकी उपशामना और क्षपणा करते समय अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में सब कर्म अनिधत्त हो जाते हैं । तथा अपने अपने निर्दिष्ट स्थानके पूर्व दर्शन मोहनीय, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और शेष सब कर्म निघत्त और अनिधत्त दोनों प्रकार के होते हैं । यह अर्थपद हैं, इसके अनुसार चौबीस अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर इस अनुयोग - द्वारका कथन करना चाहिए । २९ निकाचित-अनिकाचित- इस अनुयोगद्वार में बतलाया है कि जिस प्रदेशाग्रका न तो अपकर्षण होता है, न उत्कर्षण होता है, न अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है और न उदीरणा होती है। जिसके ये चारों नहीं होते उसकी निकाचित संज्ञा है । यह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेदसे चार प्रकारका है। इसके विषय में भी यह नियम है कि पूर्वोक्त प्रकारसे अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करने पर सब कर्म अनिकाचित हो जाते हैं । किंतु इसके पूर्व वे निकाचित और अनिकाचित दोनों प्रकारके होते हैं। इन निकाचित और अनिकाचित प्रदेशाग्रोंकी भी चौबीस अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे प्ररूपणा करनी चाहिए । यहाँ उपशान्त, निधत्त और निकाचितके सन्निक का कथन करते हुए बतलाया है कि जो प्रदेशाग्र अप्रशस्त उपशामनारूपसे उपशान्त है वह न निधत्त न निकाचित है। जो निधत्त प्रदेशाग्र है वह न उपशान्त है और न निकाचित है । तथा जो निकाचित प्रदेशाग्र है वह न उपशान्त और न निधत्त है । आगे अधःप्रवृत्तसंक्रमके साथ इन तीनों अल्पबहुत्वका निर्देश करके यह अनुयोगद्वार समाप्त किया गया है । २२ कर्म स्थिति- इस अनुयोगद्वारके विषय में दो उपदेशोंका निर्देश करके यह अनुयोगद्वार समाप्त किया गया हैं । पहला उपदेश नागहस्तिके मत के अनुसार निर्दिष्ट किया है और दूसरा उपदेश आर्यमक्षुके मतका निर्देश करता है । नागहस्तिक्षमाश्रमणका कहना है कि कर्मस्थिति अनुयोगद्वार में कर्मों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिके प्रमाणका कथन किया जाता है और आर्यका कहना है कि इसमें कर्मस्थितिके भीतर सञ्चित हुए सत्कर्मकी प्ररूपणा की जाती है । २३ पश्चिमस्कन्ध - इस अनुयोगद्वार में तीन भवों में से भवग्रहणभवको प्रकृत बतला कर चरम भवमें जीवके सब कर्मोंकी बंत्रमार्गणा, उदयमार्गणा, उदीरणामार्गणा, संक्रममार्गणा और . Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) सत्कर्ममार्गणा इन पाँच मार्गणाओंका विचार किया जाता है यह बतलाया गया है। इसके आगे जीव सिद्ध होता है उसकी अंतर्मुहर्त आयु शेष रह जाने पर तेरहवें गुणस्थानमें कर्मोकी और आत्मप्रदेशोंकी किस क्रमसे क्या क्या क्रिया होती है तथा चौदहवें गुणस्थानमें यह जीव किस रूपसे कितने काल तक अवस्थित रहकर कर्मोंसे मुक्त होकर सिद्ध होता है यह बतलाया गया है । इस प्रकार इन सब बातोंका विवेचन करने के बाद यह अनुयोगद्वार समाप्त किया गया है। २४ अल्पबहुत्व- इस अनुयोगद्वारके प्रारम्भमें यह सूचना की गई है कि नागहस्ति भट्टारक इसमें सत्कर्मका विचार करते हैं। वीरसेन स्वामीने इस उपदेशको प्रवृत्तमान बतला कर इसके अनसार सत्कर्म के प्रकतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म ये चार भेद करके सर्वप्रथम मल और उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा सत्कर्मका विचार किया है। उससे भी मूल प्रकृतियोंके स्वामित्वकी सूचना मात्र करके उत्तर प्रकृतियोंके स्वामित्वको विस्तारसे बतला कर एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और स्वामित्वको स्वामित्वके बलसे जान लेने की सूचना करके स्वस्थान और परस्थान दोनों प्रकारके अल्पबहुत्वोंमें से परस्थान अल्पबहुत्वका ओघसे और चारों गतियोंके साथ असंज्ञी मार्गणामें विचार किया है । भजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि यहाँ पर नहीं हैं, अत: इनके विषयमें इतनी मात्र सूचना देकर प्रकृतिस्थानसत्कर्मके विषयमे लिखा है कि मोहनीयका कषाय. प्राभृतके अनुसार जानना चाहिए और शेष कर्मोकी प्रकृतिस्थानप्ररूपणा सुगम है । ___ स्थितिसत्कर्मका विचार करते हुए मूलप्रकृतिस्थितिसत्कर्मका वर्णन सुगम कहकर उत्तर प्रकृतियोंके स्थितिसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अद्धाच्छेद तथा जघन्य और उत्कृष्ट स्वामित्वका विस्तारसे विचार कर तथा एक जीवकी अपेक्षा काल आदि अनुयोगद्वारोंको स्वामित्वके बलसे जानने की सूचनामात्र करके अल्पबहत्व दिया गया है। यहाँ पर अद्धाच्छेदका विचार करते हुए ‘जट्टिदि' और 'जाओ द्विदीओ' ये शब्द आये हैं। प्राय: अनेक स्थानों पर 'जं ट्ठिदि' भी मुद्रित है। पर उससे 'जटिदि' का ही ग्रहण करना चाहिए। इन शब्दों द्वारा दो प्रकारकी स्थितियोंका निर्देश किया गया है । 'जटिदि ' शब्द 'यस्थिति' का द्योतक है और 'जाओ ट्रिदीओ' से स्थगित निषेकोंका परिमाण लिया गया है। उदाहरणस्वरूप पाँच निद्राओंकी उत्कृष्ट यतिस्थति पूरी तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण बतलाई है और निषेकोंके अनुसार स्थितियाँ एक समय कम तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण बतलाई हैं। अभिप्राय इतना है कि पाँच निद्राओंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होते समय उदय नहीं होता, इसलिए पूरी स्थिति तीस कोडाकोडी सागर होकर भी उस समय सब निषेक एक कम तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण होते हैं, क्योंकि, अनुदयवाली प्रकृतियोंका एक निषेक उदय समयके पूर्व स्तिवुक संक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिरूप परिणत होता रहता है, इसलिए इनकी यत्स्थिति तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण होकर भी निषेकोंके अनुसार स्थिति एक समय कम होती है। यहाँ बन्धके समय आबाधा कालके भीतर प्राक्तनबद्ध कर्मोके निषेकका सत्त्व होनेसे एक समय कम तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण निषेक बन जाते हैं इतना विशेष जानना चाहिए। यहाँ पर विशेष नियम इस प्रकार जानना चाहिए। १- जिन कर्मों का स्वोदयसे स्थितिबन्ध होता है उनकी यस्थिति और निषेकोंके परिमाणके अनुसार स्थिति समान होती है। बन्धोत्कृष्ट स्थितिके समान ही उनका दोनों प्रकारका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म होता है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २- जिन कर्मोका परोदयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है उनकी उत्कृष्ट यस्थिति तो बन्धोत्कृष्ट स्थितिके ही समान होती है। मात्र निषेकोंके परिमाणके अनुसार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म बन्धोत्कृष्ट स्थितिसे एक समय कम होता है । ३- जिन कर्मोका स्वोदयमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमसे उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म प्राप्त होता है उनकी उत्कृष्ट यत्स्थितिसत्कर्म और निषकोंके परिमाणके अनुसार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म तज्जातीय कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे एक आवलि कम होता है । मात्र सम्यक्त्वका उक्त दोनों प्रकारका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहुर्त कम जानना चाहिए, क्योंकि, मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व प्राप्त होनेपर मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिका सम्यक्त्वरूपसे संक्रमण होता है। ४- जिन कर्मोंका परोदयमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमसे उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म प्राप्त होता है उनकी उत्कृष्ट यस्थिति तज्जातीय कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे एक आवलि कम होती है और निषेकोंके परिमाणके अनुसार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म तज्जातीय कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे एक समय अधिक एक आवलि कम होता है । मात्र सम्यग्मिथ्यात्वका उक्त दोनों प्रकारका उत्कृष्ट सत्कर्म मिथ्यात्वके उत्कष्ट स्थितिबन्धसे अन्तर्महर्त कम जानना चाहिए । कारणका कथन स्पष्ट है। ५- चारों आयुओंका उत्कृष्ट आबाधा काल सहित उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट यत्स्थितिसत्कर्म होता है और अपने अपने निषेकोंके परिमाणके अनुसार निषेकगत उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म होता है। __इसी प्रकार जघन्य स्थितिसत्कर्मके विषयमें भी अलग अलग प्रकृतियोंको ध्यान में रखकर नियम घटित कर लेने चाहिए। अनुभागसत्कर्मका विचार करते हुए पहले क्रमसे स्पर्धकप्ररूपणा, घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञाका प्ररूपणा करके जघन्य और उत्कृष्ट स्वामित्व और कुछ मार्गणाओंमें अल्पबहुत्वका विचार किया गया है। अनुभागसत्कर्मके पश्चात् प्रदेशउदीरणाके आश्रयसे अल्पबहुत्व बतलाते हुए मूल और उत्तर प्रकृतियोंका आलम्बन लेकर वह बतलाया गया है । आगे उत्तरप्रकृतिसंक्रम, मोहनीय सम्बन्धी प्रकृतिस्थानसंक्रम, जघन्य स्थितिसंक्रम, अनुभागसंक्रम, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिके आश्रयसे प्रदेशसंक्रम और स्वतन्त्ररूपसे प्रदेशसंक्रमके अल्पबहुत्वका विचार करके प्रदेशसंक्रम अधिकारको पूर्ण किया गया है। इसके पश्चात् पहले कहे गये लेश्या, लेश्यापरिणाम, लेश्याकर्म, सात-असात, दीर्घह स्व, भवधारण, पुद्गलात्त, निधत्त-अनिधत्त, निकाचित-अनिकाचित, कर्म स्थिति और पश्चिमस्कन्ध इन अनुयोगद्वारोंका पुनः पृथक्-पृथक् उल्लेख करके अलग अलग सूचनाएँ दी गई हैं। अन्तमें महावाचक क्षमाश्रमणके अभिप्रायानुसार अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारके आश्रयसे सत्कर्मका विचार करते हुए उत्तरप्रकृतिसत्कर्म अल्पबहुत्वदण्डक, मोहनीय प्रकृतिस्थानसत्कर्म अल्पबहुत्व, उत्तरप्रकृतिस्थितिसत्कर्म अल्पबहुत्व, उत्तरप्रकृतिअनुभागसत्कर्म अल्पबहुत्व और उत्तरप्रकृतिप्रदेशसत्कर्म अल्पबहुत्व देकर अल्पबहुत्वके साथ चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त करनेके साथ धवला समाप्त होती है । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ | विषय विषय पृष्ठ ३४७ ३४७ ३४८ ३४९ ३५२ ३६२ ३३७ मोक्ष-अनुयोगद्वार ३३७-३३९ उस विषय में अर्थपद मल्लिजिन की स्तुति अपकर्षणका स्वरूपनिर्देश मोक्ष अनुयोगद्वार कहने की प्रतिज्ञा उत्कर्षणका स्वरूपनिर्देश मोक्षका चार प्रकारका निक्षेप और उत्तरप्रकतिके आश्रयसे प्रमाणानुगम उनकी व्याख्या ३३७ स्वामित्वविचार कर्मद्रव्यमोक्षके चार भेद एक जीवकी अपेक्षा काल प्रकृतिद्रव्यमोक्षके दो भेद तथा प्रत्येकके एक जीवकी अपेक्षा अन्तर दो दो उत्तर भेद ३३७ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय प्रकृतिमोक्षका अर्थपद नाना जीवोंकी अपेक्षा काल स्थितिमोक्षके दो भेद और अर्थपद नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर अनुभागमोक्षका अर्थपद ३३८ अल्पबहुत्व प्रदेशमोक्षका अर्थपद ३३८ भुजगारसंक्रमविचार नोकर्मद्रव्यमोक्षके तीन भेद और एक जीवकी अपेक्षा काल उनकी व्याख्या एक जीवकी अपेक्षा अन्तर संक्रम-अनुयोगद्वार ३३९-४८३ अल्पबहुत्व मुनिसुव्रत नाथकी स्तुति ३३९ पदनिक्षेप संक्रमकी सूचना वृद्धिसंक्रम संक्रम अनुयोगद्वार कहनेकी प्रतिज्ञा ३३९ अनुभागसंक्रमविचार संक्रमका छह प्रकारका निक्षेप आदिम्पर्धकनिर्देश और उनकी व्याख्या ३३९ अर्थपद कर्मसंक्रमका प्रकरण है यह सूचित प्रकृतोपयोगी अल्पबहुत्व कर उसके चार भेदोंका निर्देश प्रमाणानुगम प्रकृतिसंक्रमका अर्थपद स्वामित्व मूलप्रकृतिसंक्रमका निषेध एक जीवकी अपेक्षा काल उत्तरप्रकृतिसंक्रमका स्वामित्व एक जोवकी अपेक्षा अन्तर एक जीवकी अपेक्षा काल नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा काल नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा काल ३४४ सन्निकर्ष अल्पबहुत्व ३४४ अल्पबहुत्व प्रकृतिस्थानसंक्रमका विचार ३४६ भुजगारसंक्रमका अर्थपद स्थितिसंक्रमके दो भेद ३४७ । एक जीवकी अपेक्षा काल GG GM ००० Mr mm x mm x mm ir mr mr mr mm mm in ३७३ ३७३ ३७४ ३७४ ३७५ ३७६ ३७७ ३७७ ३८२ ३८७ ३८८ ३८९ ३९१ mr m m mr mr ३९२ m r ३९२ ३९८ ३९२ Fol Private & Personal use only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठ | विषय पष्ठ ४८५ ४२१ अल्पबहुत्व ४०० | तद्वयतिरिक्त द्रव्यलेश्याके छह पदनिक्षेपमें स्वामित्व ४०१ भेदोंका विचार अल्पबहुत्व ४०५ प्रकृत में नैगमनयकी अपेक्षा नोआगम वद्धिसंक्रममें स्वामित्व ४०६ | द्रव्यलेश्या और नोआगम भावलेश्या एक जीवकी अपेक्षा काल ४०६ का प्रकरण है इसकी सूचना एक जीवको अपेक्षा अन्तर ४०६ | छह द्रव्यलेश्याओंका वर्णन ४८५ अल्पबहत्व ४०७ |किस लेश्यामं किस क्रमसे कितने प्रदेशसत्कर्ममें अर्थपद ४०८ प्रमाणमें कौन कौन रंग होते हैं उत्तरप्रकृतिसंक्रमके पाँच भेद इसका विचार ४८७ कितनी प्रकृतियोंके कितने संक्रम भावलेश्याओंका विचार | ४८८ होते हैं इसका विचार ४०९ | लेश्याकर्म-अनुयोगद्वार ४९०-४९२ उद्वेलनप्रकृतियोंके उद्वेलनक्रमका निर्देश ४१९ कुंथुजिनकी स्तुति ४९० पाँच संक्रमभागहारोंका अल्पबहुत्व ४२१ | किस लेश्याका क्या कर्म है इसका विचार ४९० उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका लेश्यापरिणाम-अनुयोगद्वार ४९३-४९७ स्वामित्व | अभिनन्दनजिनकी स्तुति ४९३ जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व लेश्यापरिणाम अनुयोगद्वारके उत्तरप्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका कथनकी सार्थकता ४९३ काल ४४१ छह लेश्याओंके परिणमनकी विधि ४९३ जघन्य प्रदेशसंक्रम तथा अन्य अनुयोग- जघन्य और उत्कृष्ट संक्रम और द्वारोंके जाननेकी सूचना ४४२ प्रतिग्रहोंका तीव्र-मन्दताकी अपेक्षा उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश संक्रमका अल्पबहुत्व ४९५ अल्पबहुत्व ४४२ सातासात-अनुयोगद्वार ४९८-५०६ उत्तर प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशसंक्रमका अजितजिनकी स्तुति ४९८ अल्पबहुत्व ४४८ सातासातके पाँच अनुयोगद्वार ४९८ भुजगारसंक्रममें स्वामित्व ४५३ समुत्कीर्तना ४९८ एक जीवकी अपेक्षा काल ४५४ अर्थपद ४९८ अल्पबहुत्व ४५९ पदमीमांसा ४९८ पदनिक्षेपमें स्वामित्व ४६१ स्वामित्व ४९९ अल्पबहुत्व ४७९ प्रमाणानुगम ५०१ वृद्धिसंक्रम ४८१ अल्पबहुत्व ५०२ दीर्घ-ह स्व-अनुयोगद्वार लेश्या-अनुयोगद्वार ५०७-५११ ४८४-४८९ सम्भवजिनकी स्तुति भरजिनकी स्तुति ४८४ | दीर्घके चार भेद ५०७ लेश्याका चार प्रकारका निक्षेप विचार ४८४ | प्रकृतिदीर्घका विचार ५०७ ५०७ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) पृष्ठ | विषय विषय पृष्ठ ५१९ ५१४ ५२२ स्थितिदीर्घका विचार ५०८ पश्चिमस्कन्ध-अनुयोगद्वार ५१९-५२० अनुभागदीर्घ और प्रदेशदीर्घका विचार भवके तीन भेद करके भवग्रहणभव ह,स्वके चार भेद ५०९ प्रकृत है इसका निर्देश प्रकृतिह स्वका विचार पश्चिमस्कन्धमें बन्धमार्गणा आदि पाँच स्थितिह स्वका विचार मार्गणाओंका विचार किया जाता है अनुभागह स्वका विचार ५११ | इस बातका निर्देश प्रदेशह स्वका विचार ५११ सिद्ध होनेवाले जीवकी अन्य प्ररूपणा ५१९ भवधारणीय-अनुयोगद्वार ५१२-५१३ आवजितकरणके बाद केवलिसमुद्घातमें सुमतिजिनकी स्तुति ५१२ होनेवाले कार्य विशेषका निर्देश भवके तीन भेदोंका स्वरूपनिर्देश __५१२ योगनिरोध आदि कार्य विशेषोंका निर्देश ५२० अमूर्त जीवका मर्त पुद्गल के साथ कैसे अपूर्वस्पर्धक करने की प्रक्रिया ५२० सम्बन्ध होता है इसका विचार ५१३ कृष्टिकरणकी प्रक्रिया और क्षपणका प्रकार ५२१ भवग्रहणभवका विशेष विचार ५१३ अल्पबहुत्व-अनुयोगद्वार ५२२-५९३ पुद्गलात्त-अनुयोगद्वार ५१४-५१५ पदमप्रभजिनकी स्तुति । नागहस्तिभट्टारकके अनुसार सत्कर्मका विचार ५२२ पूदगलात्तका चार प्रकारका निक्षेप और उनका विशेष विचार सत्कर्मके चार भेद पूदगलात्तका स्पष्टीकरण और उसका पाँच प्रकृतिसत्कर्म के भेद करके उनमें प्रकारसे विचार स्वामित्वका विचार पुद्गलात्तका दूसरा अर्थ पुद्गलामा शेष अनुयोगद्वारोंकी सूचना करके ५२४ करके विचार अल्पबहुत्वका विचार ५१४ निधत्त-अनिधत्त अनुयोगद्वार प्रकृतिसत्कर्मके भेद करके उत्तरप्रकृति सत्कर्मके अद्धाच्छेदका विचार सुपार्वजिनकी स्तुति ५२८ ५१६ निधत्तके चार भेद स्वामित्वविचार ५३१ ५१६ अर्थपद अल्पबहुत्वविचार निधत्त और अनिधत्तका विशेष विचार ५१६ अनुभागसत्कर्ममं आदिस्पर्धकका विचार ५३८ निकाचित-अनिकाचित अनुयोगद्वार ५१७ घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञाका विचार ५३९ चन्द्रजिनकी स्तुति ५१७ स्वामित्वविचार ५४० निकाचितके चार भेद ५१७ | अल्पबहुत्व ५४४ अर्थपद ५१७ | प्रदेश उदीरणामें मूलप्रकृतिदण्डक व अन्य निकाचित-अनिकाचितका विशेष विचार ५१७ | प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ५५२ अल्पबहुत्व ५१७ | उत्तरप्रकृतिसंक्रममें अल्पबहुत्व ५५५ कर्मस्थिति-अनुयोगद्वार ५१८ मोहनीय प्रकृतिस्थानसंक्रमका अल्पबहुत्व ५५६ पुष्पदन्तजिनकी स्तुति ५१८ | जघन्य स्थितिसंक्रम अल्पबहुत्व ५५६ दो उपदेशोंका निर्देश ५१८ | जघन्य अनुभागसंक्रम अल्पबहुत्व ५५७ ५२२ ५१४ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ॥ विषय पृष्ठ | विषय पृष्ठ जवन्य व उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अल्पबहुत्व ५५७ निधत्त-अनिधत्त अनुयोगद्वारमें विशेष लेश्या अनुयोगद्वार में आठ अनुयोग विचार ५७६ द्वारोंका निर्देश निकाचित-अनिकाचित अनुयोगद्वारमें लेश्यापरिणाम अनुयोगद्वार में दस विस्तार- विशेष विचार ५७६ पदोंका निर्देश ५७२ कर्मस्थितिअनुयोगद्वारमें विशेष विचार ५७७ लेश्याकर्म अनुयोगद्वारमें पञ्चविधिक पश्चिमस्कंधमें विशेष विचार ५७७ पदोंका निर्देश ५७२ महावाचक क्षमाश्रमणके मतानुसार सातासात अनुयोगद्वारमें विशेष विचार ५७४ सत्कर्मका अल्पबहुत्व ५७९ दीर्घ-ह,स्व अनुयोगद्वारमें विशेष विचार ५७५ मोहनीयके प्रकृतिस्थानसत्कर्मका भवधारण अनुयोगद्वारमें विशेष विचार ५७५ | अल्पबहुत्व ५८० पुद्गलात्त अनुयोगद्वारमें विशेष विचार ५७५ | उत्तरप्रकृतिस्थितिसत्कर्मका अल्पबहुत्व ५८१ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्खादिसेसअणुयोगद्दाराणि Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ मोक्खाणुयोगद्दारं महुवरमहुवरवाउलवियसियसियसुरहिगंधमल्लेहि । मल्लिजिणमच्चियूण य मोक्खणुयोगो परूवेमो ॥ १ ॥ मोक्खो त्ति अणुयोगद्दारे मोक्खो णिक्खिवियवो--णाममोक्खो दवणमोक्खो दव्वमोक्खो भावमोक्खो चेदि मोक्खो चउन्विहो । णाममोक्खो ढवणमोक्खो आगमदो दव्वमोक्खो आगम-णोआगमभावमोक्खो च सुगमो। जो सो णोआगमदो दव्वमोक्खो सो दुविहो कम्ममोक्खो णोकम्ममोक्खो चेदि । णोकम्ममोक्खो सुगमो। कम्मदव्वमोक्खो चउन्विहो पयडिमोक्खो टिदिमोक्खो अणुभागमोक्खो पदेसमोक्खो चेदि । पयडिमोक्खो दुविहो मूलपयडिमोक्खो उत्तरपयडिमोक्खो चेदि । तत्थ एक्केक्को दुविहो देसमोक्खो सव्वमोक्खो चेदि । तत्व अट्ठपदं-- जा पयडी णिज्जरिज्जदि अण्णपडि वा संकामिज्जदि एसो पयडिमोक्खो णाम । एसो पयडिमोक्खो सुगमो, पयडिउ*दय-पयडिसंकमेसु अंतब्भावादो। ठिदिमोक्खो दुविहो उक्कस्सो जहण्णो चेदि । एत्थ अट्टपदं । तं जहा-- ओकड्डिदा वि उक्कड्डिदा वि अण्णपडि संकामिदा मधुको करनेवाले भ्रमरोंसे व्याकुल ऐसे विकसित, धवल और सुगन्धित पुष्पमालाओंके द्वारा मल्लि जिनेन्द्रकी पूजा करके मोक्ष-अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा करते हैं ।। १ ।। मोक्ष इस अनयोगद्वार में मोक्षका निक्षेप करना चाहिये-- वह मोक्ष नाममोक्ष, स्थापनामोक्ष, द्रव्यमोक्ष और भावमोक्षके भदसे चार प्रकारका है। इनमें नाममोक्ष, स्थापनामोक्ष आगमद्रव्यमोक्ष, आगमभावमोक्ष और नोआगमभावमोक्ष; य सुगम हैं। जो नोआगमद्रव्यमोक्ष है वह दो प्रकारका है-- कर्ममोक्ष और नोकर्ममोक्ष । इनमें नोकर्ममोक्ष सुगम है। कर्मद्रव्यमोक्ष चार प्रकारका है.- प्रकतिमोक्ष, स्थितिमोक्ष, अनभागमोक्ष और प्रदेशमोक्ष। प्रकतिमोक्ष दो प्रकारका है-- मलप्रकतिमोक्ष और उत्तरप्रकतिमोक्ष । उनमें प्रत्येक देशमोक्ष और सवमोक्षके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें अर्थपद बतलाते हैं-- जो प्रकृति निर्जराको प्राप्त होती है अथवा अन्य प्रकृति में सक्रान्त होती है, यह प्रकृतिमोक्ष कहलाता है। यह प्रकृतिमोक्ष सुगम है, क्योंकि, उसका अन्तर्भाव प्रकृति-उदय और प्रकृतिसंक्रममें होता है । स्थितिमोक्ष उत्कृष्ट और जघन्यके भेदसे दो प्रकारका है। यहां अर्थपद बतलाते हैं । वह इस प्रकार है-- अपकर्षणको प्राप्त हुई, . मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु णोआगमदव्वमोक्तो' इति पाठः । *मतिपासोऽयम । अप्रतौ 'णाम सो सुगमो पपडि', का रतौ 'णान पयडि, ' तातो 'णान एसो सुगमो, पयडि ' इति पाठः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ) छक्खंडागमे संतकम्म वि अघट्टिदीए* णिज्जरिदा वि द्विदी द्विदिमोक्खोव । एदेण अटुपदेण उक्कस्साणुकस्स-जहण्णाजहण्णट्ठिदिमोक्खो परूवेयव्वो । अणुभागमोक्खे अट्ठपदं । तं जहाओकड्डिदो उक्कड्डिदो अण्णपर्याड संकामिदो अधदिदि गलणाए णिज्जिण्णो वा अणुभागो अणुभागमोक्खो। एदेण अट्ठपदेण उक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्णअणुभागमोक्खो परूवेयन्वो। पदेसमोक्खे * अट्टपदं। तं जहा- अधदिदि गलणाए पदेसाणं णिज्जरा पदेसाणमण्णपयडीसु संकमो वा पदेसमोक्खो णाम । एसो वि उक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्णभेदेण यन्वो।। णोकम्मदत्वमोक्खो सुगमो। अधवा, णोआगमदो दव्वमोक्खो मोक्खो मोक्खकारणं मुत्तो चेदि तिविहो । जीव-कम्माणं वियोगो मोक्खो णाम । णाण-दसणचरणाणि मोक्खकारणं । सयलकम्मवज्जियो अणंतणाण-दसण-वीरिय-चरण-सुहसम्मत्तादिगुणगणाइण्णो णिरामओ णिरंजणो णिच्चो कयकिच्चो मुत्तो णाम। एदेसि तिण्णं पि णिक्खेव-णय-णिरुत्तिअणुयोगद्दारेहि हेउगन्भेहि परूवणा कायव्वा । एवं कदे मोक्खाणुओगद्दारं समत्तं होदि । . उत्कर्षणको प्राप्त हुई, अन्य प्रकृति में संक्रान्त हुई, और अधःस्थितिके गलनेसे निर्जराको भी प्राप्त हुई स्थितिका नाम स्थितिमोक्ष है। इस अर्थपदके आश्रयसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिमोक्षकी प्ररूपणा करना चाहिये। अनुभागमोक्षके सम्बन्ध में अर्थपदका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है- अपकर्षणको प्राप्त हुआ, उत्कर्षणको प्राप्त हुआ, अन्य प्रकृति में संक्रान्त हुआ, और अधःस्थितिगलनके द्वारा निर्जराको भी प्राप्त हुए अनुभागको अनुभागमोक्ष कहा जाता है । इस अर्थपदके आश्रयसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागमोक्ष की प्ररूपणा करना चाहिये । प्रदेशमोक्षके विषयमें अर्थपद कहते हैं। वह इस प्रकार है- अधःस्थितिगलनके द्वारा जो प्रदेशोंकी निर्जरा और प्रदेशोंका अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमण होता है उसे प्रदेशमोक्ष कहा जाता है । इसको भी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यके भेदसे ले जाना चाहिये। नोकर्मद्रव्यमोक्ष सुगम है। अथवा नोआगमद्रव्यमोक्ष मोक्ष, मोक्षकारण और मुक्तके भेदसे तीन प्रकारका है । जीव और कर्मका पृथक् होना मोक्ष कहलाता है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये मोक्षकारण हैं। समस्त कर्मोसे रहित; अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तवीर्य, चारित्र, ख और सम्यक्त्व आदि गुणगणोंसे परिपूर्ण; निरामय, निरंजन, नित्य और कतकत्य जीवको मक्त कहा जाता है। इन तीनोंकी ही प्ररूपणा हेतुर्गाभत निक्षेप, नय और निरुक्ति अनुयोगद्वारोंसे करना चाहिये । ऐसा करनेपर मोक्ष-अनुयोगद्वार समाप्त होता है । * ताप्रती · अवट्ठिदा वि ' इति पाठः। O ताप्रतौ 'वि द्विदी ए (ट्ठि) दिमोक्खो' इति पाठः । ४ अ-का त्योः 'अणुभागमोक्खो,' ताप्रती ' अणुभागमोक्खो (खे ) ' इति पाठः। अ-ताप्रत्योः अवटिदि' इति पाठः । *काप्रतौ 'पदेसमोक्खो' इति पाउ। अ-ताप्रत्योः 'अवट्रिदि' इति पाठः। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ संकमाणुयोगद्दारं मुणिसुव्वयदेसयरं पणमिय मुणिसुब्वयं जिणं देवं । संकममणुओगमिणं जहासुअं वण्णइस्सामो ॥१॥ संकमे त्ति अणुओगद्दारे संकमो णिक्खिवियवो । तं जहा--णामसंकमो ट्ठवणसंकमो दवियसंकमो खेत्तसंकमो कालसंकमो भावसंकमो चेदि छविहो संकमो । तत्थ संकमसद्दो णामसंकमो णाम । सो एसो त्ति अण्णस्स सरूवं बुद्धीए णिधत्तो ट्ठवणसंकमो णाम । दवियसंकमो दुविहो आगम-णोआगमदवियसंकमो चेदि । आगमदवियसंकमो सुगमो। णोआगमदवियसंकमो जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तदवियसंकमभेदेण तिविहो । जाणुगसरीर-भवियदव्वसंकमा सुगमा । तव्वदिरित्तसंकमो दुविहो णोकम्मसंकमो कम्मसंकमो चेदि । णोकम्मसंकमो जहा मट्टियाए घडसरूवेण परिणामो। कम्मसंकमो थप्पो।। एगक्खेत्तस्स खेत्तरगमणं खेत्तसंकमो णाम। किरियाविरहिदस्स खेत्तस्स कधं संकमो ? ण, जीव-पोग्गलाणं सक्किरियाणं आधेये आधारोवयारेण लद्ध* खेत्तववएसाणं संकमुवलंभादो। ण च खेत्तस्स संकमववहारो अप्पअिद्धो, उड्ढलोगो संकेतो त्ति मुनियोंके उत्तम चरित्रका उपदेश करनेवाले मुनिसुव्रत जिनेन्द्रको नमस्कार करके श्रुतके अनुसार संक्रम-अनुयोगद्वारका वर्णन करते हैं ।। १ ।। संक्रम इस अनुयोगद्वारमें संक्रमका निक्षेप किया जाता है । वह इस प्रकारसे- नामसंक्रम, स्थापनासंक्रम, द्रव्यसंक्रम, क्षेत्रसंक्रम, कालसंक्रम और भावसंक्रमके भेदसे संक्रम छह प्रकारका है। उनमें 'संक्रम' यह शब्द नामसंक्रम कहलाता है । ' वह यह है ' इस प्रकार अन्यके स्वरूपको बुद्धिमें स्थापित करना, यह स्थापनासंक्रम है । द्रव्यसंक्रम दो प्रकारका हैआगमद्रव्यसंक्रम और नोआगमद्रव्यसंक्रम। इनमें आगमद्रव्यसंक्रम सुगम है। नोआगमद्रव्यसंक्रम ज्ञायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त द्रव्यसंक्रमके भेदसे तीन प्रकार है । इनमें ज्ञायकशरीर और भव्यद्रव्यसंक्रम सुगम है । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यसंक्रम दो प्रकारका हैनोकर्मसंक्रम और कर्मसंक्रम । नोकर्मसंक्रम- जैसे मिट्टीका घट स्वरूपसे परिणमन । कर्मसंक्रमको अभी स्थगित किया जाता है। एक क्षेत्रके क्षेत्रान्तरको प्राप्त होने का नाम क्षेत्रसंक्रम है ।। शंका- क्षेत्र तो क्रियासे रहित है, फिर उसका क्षेत्रान्तरमें गमन कसे सम्भव है? समाधान- नहीं, क्योंकि, आधेयमें आधारका उपचार करनेसे सक्रिय जीव और पुद्गलोंकी क्षेत्र' संज्ञा सम्भव है और उनका संक्रम पाया ही जाता है। दूसरे, क्षेत्रके संक्रमका व्यवहार अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, ऊर्ध्वलोक संक्रान्त हुआ, ऐता व्यवहार पाया जाता है। * अ-कापत्योः ' बद्ध', ताप्रती ' ब ( ल ) द्ध इति पाठः । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ) छक्खंडागमे संतकम्म ववहारुवलंभादो। कालस्सपुव्वस्स पादुब्भावो कालसंकमो णाम। ण च एसो असिद्धो, संकेतो हेमंत्तो ति* ववहारुवलंभादो। संपहि उप्पण्णस्स कधं संकमो ? ण, पोग्गलाणं उप्पाद-वय-धुवभावाणमवयारेण पत्तकालववएसाणं एयंतेण उष्पादाभावादो। अधवा, एगखेत्तम्हि द्विददव्वस्स खेत्तरगमणं खेत्तसंकमो। एगकालम्मि द्विददव्वस्स कालंतरगमणं कालसंकमो। कोधादिएगभावम्हि द्विददव्वस्स भावंतरगमणं भावसंकमो। तत्थ कम्मसंकमे पयदं। सो चउन्विहो पयडिसंकमो टिदिसंकमो अणुभागसंकमो पदेससंकमो चेदि। तत्थ पयडिसंकमे अट्ठपदं- जा पयडि अण्णपर्याड णिज्जदि एसो पयडिसंकमो। एदेण अट्टपदेण संकमे भण्णमाणे तत्थ मूलपयडिसंकमो णत्थि। कुदो? साभावियादो। उत्तरपयडिसंकमे * सामित्तं-बंधे सकमो, अबंधे णत्थि । कुदो? साभावियादो। पंचण्णं णाणावरणीयाणं संकामओ को होदि ? अण्णदरो सकसाओ? णवणं दसणावरणीयाणं पंचण्णमंतराइयाणं च णाणावरणभंगो। सादस्स संकामओ को होदि ? जो असादस्स बंधओ। असादस्स संकामओ को होदि ? जो सादस्स बंधओ अपूर्व कालके प्रादुर्भावका नाम कालसंक्रम है। यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, हेमन्त ऋतु संक्रान्त हई, ऐसा व्यवहार पाया जाता है। शंका-- उत्पन्नका संक्रम कैसे हो सकता है ? समाधान--- नहीं, क्योंकि, उपचारसे काल संज्ञाको प्राप्त हुए पुद्गलोंके उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यके एकान्ततः उत्पादका अभाव है। अथवा एक क्षेत्रमें स्थित द्रव्यके क्षेत्रान्तर गमनको क्षेत्रसंक्रम, एक काल में स्थित द्रव्य के कालान्तर गमनको कालसंक्रम, और क्रोधादिक एक किसी भावमें स्थित द्रव्यके भावान्तर गमनको भावसंक्रम समझना चाहिये। उनमें यहां कर्मसंक्रम प्रकृत है। वह चार प्रकारका है- प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम, अनुभागसंक्रम और प्रदेशसंक्रम । इनमेंसे प्रकृतिसंक्रमके विषयमें अर्थपदका कथन करते हैं-- नो एक प्रकृति अन्य प्रकृतिस्वरूपताको प्राप्त करायी जाती है, यह प्रकृतिसंक्रम कहलाता है। इस अर्थपदके अनुसार संक्रमका कथन करनेपर मलप्रकतिसंक्रम सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। उत्तरप्रकृतिसंक्रममें स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है-- बन्धके होनेपर संक्रम सम्भव है, बन्धके अभाव में वह सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियोंका संक्रमक कौन होता है ? उनका संक्रामक अन्यतर सकषाय जीव होता है। नौ दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायके संक्रमणकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीयका संक्रामक कौन होता है ? जो असाताका बन्धक है वह साताका संक्रामक होता है। असाताका संक्रामक कौन होता है ? जो सकषाय जीव साताका बंधक होता * काप्रतौ 'णाम एसो असिद्धो संकंतो होतो त्ति' इति पाठः। * अ-काग्त्योः 'संकपो', ताप्रती 'संकमो (मे)' इति पाठः। 6 अप्रतौ ' संकमओ', का-ताप्रत्योः 'संकमो' इति पाठः। * मप्रतौ ‘संकमओ' इति पाठः । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४१ संकमाणुयोगद्दारे पयडिसंकमो सकसाओ। दसणमोहणीयं चरित्तमोहणीए ण संकमदि, चरित्तमोहणीयं पि दंसणमोहणीए ण संकमदि। कुदो? साभावियादो। सम्मामिच्छाइट्ठी दंसणमोहणीयस्स असंकामगो। एवं सासणो वि*। सम्मत्तस्स णियमा मिच्छाइट्ठी संकामगो जस्स आवलियबाहिरंसंतकम्ममत्थि। मिच्छत्तस्स संकामओ को होदि ? सम्माइट्ठी जस्स आवलियबाहिरं मिच्छत्तस्स संतकम्ममत्थि । सम्मामिच्छत्तस्स संकामगो को होदि? सम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी वा जस्स आवलियबाहिरं संतकम्ममत्थि । बारसण्णं कसायाणं णाणावरणभंगो। इथिवेदस्स संकामओ को होदि ? जाव इत्थिवेदो चरिमसमयअणुवसंतो चरिमसमयअक्खीणो वा। णqसयवेदस्स इत्थिवेदभंगो। पुरिसवेदस्स संकामगो को होदि ? जाव पुरिसवेदो पढमसमयउवसंतो पढमसमयखीणो वा । तिण्णं संजलणाणं पुरिसवेदभंगो। लोहसंजलणाए संकामओ को होदि ? उवसामया खवगा च जाव अंतरं चरिमसमयअकदं ति अक्खवय-अणुवसामओ च । चदुण्णमाउआणं संकमो णत्थि। कुदो ? साभावियादो। सव्वासि पि णामपयडीणं है। दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीयमें संक्रान्त नहीं होती और चारित्रमोहनीय भी दर्शनमोहनीयमें संक्रान्त नहीं होती, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका असंक्रामक होता है । इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि भी दर्शनमोहनीयका असंक्रामक होता है। सम्यक्त्वप्रकृतिका संक्रामक नियमसे मिथ्यादृष्टि जीव होता है, जिसके कि उसका सकर्म आवलीके बाहिर होता है। मिथ्यात्वका संक्रामक कौन होता है ? उसका संक्रामक सम्यग्दृष्टि होता है, जिसके मिथ्यात्वका सत्कर्म आवलिके बाहिर होता है। सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रामक कौन होता है ? उसका संक्रामक सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि होता है, जिसके उसका सत्कर्म आवलोके बाहिर होता है। बारह कषायोंके संक्रमणकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। स्त्रीवेदका संक्रामक कौन होता है ? स्त्रीवेदके अनुपशान्त रहनेके अन्तिम समय तक अथवा उसके अक्षीण रहने के अन्तिम समय तक जीव उसका संक्रामक होता है। नपुंसकवेदके संक्रमणकी प्ररूपणा स्त्रीवेदके समान है । पुरुषवेदका संक्रामक कौन होता है ? पुरुषवेदके उपशान्त होने के प्रथम समय तक अथवा उसके क्षीण होने के प्रथम समय तक जीव उसका संक्रामक होता है । तीन संज्वलनोंके संक्रमणकी प्ररूपणा पुरुषवेदके समान है। संज्वलन लोभका संक्रामक कौन होता है ? उसके संक्रामक उपशामक और क्षपक जीव अन्तर न किये जानेके अन्तिम समय तक होते हैं, अक्षपक व अनुपशामक जीव भी उसके संक्रामक होते हैं। चार आयु कर्मोका संक्रम नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। यशकीतिको छोडकर मोहदुगाउग-मूल ग्यडीण न परोप्परंमि संकमणं । संकम-बंध दउब्वट्टणा (णव) लिगाईणकरणाई। क प्र. २, ३. * मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'सामगो वि ' इति पाठः । तथा सासादनाः सम्यग्मिथ्यादष्टयश्च न किमपि दर्शनमोहनीयं क्वापि संक्रमयन्ति, अविशद्धदष्टित्वात । बन्धाभावे हि दर्शनमोहनीयस्य संक्रमो विशुद्धदृष्टेरेव भवति, नाविशुद्धदृष्टः। क. प्र. (मलय.) २, ३. ताप्रतौ 'तिसंजलणाणं' इति पाठः। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ) छक्खंडागमे संतकम्म जसकित्तिवज्जाणं ताव संकमो जाव सकसाओ जाव आवलियबाहिरं च संतकम्ममथि। जसकित्तीए ताव संकामगो जाव परभवियणामयपडीणं बंधदि। उच्चागोदस्स संकामओ को होदि ? जो णीचागोदस्स बंधओ जाव आवलियबाहिरं संतकम्ममत्थि । णीचागोदस्स संकामओ को होदि? जो उच्चागोदस्स बंधओ सकसाओ। एवं सामित्तं समत्तं। एयजीवेण कालो--पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-पणुवीसमोहणीय-अणुव्वेल्लमाणसव्वणामपयडीणं पंचंतराइयाणं च संकमो केवचिरं कालादो होदि ? अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो वा । जो सो सादिओ सपज्जवसिदो जहण्णण अंतोमुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियट्टं। सादासादाणं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जह० अंतोमुत्तं, उक्क० बेछावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । णवरि मिच्छत्तस्स छावट्टिसागरो० सादिरेयाणि । सम्मत्तस्स जह० अंतोमुत्तं, उक्कस्सेण पलिदो० असंखे० भागो। णिरयगइ-देवगइणामागं तदाणुपुव्वीणामाणं वेउब्वियसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवंगबंधण-संघादाणं च जह० अदुवस्साणि सादिरेयाणि अंतोमुत्तं वा, उक्क० बेसागरोववमसहस्साणि सादिरेयाणि । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुत्वीणं जह० अट्ठवस्ताणि शेष सभी नामप्रकतियोंका तब तक संक्रप होता है जब तक कि जीव सकषाय है और जब तक उनका सत्कर्म आवलीके बाहिर रहता है । यशकीर्तिका संक्रामक तब तक होता है जब तक परभविक नामप्रकृतियोंको बांधता है । उच्चगोत्रका संक्रामक कौन होता है ? जो नीचगोत्रका बन्धक होता है वह उच्चगोत्रका तब तक संक्रामक होता है जब तक उसका आवलीके बाहिर सत्कर्म रहता है । नीचगोत्रका संक्रामक कौन होता है ? जो सकषाय जीव उच्चगोत्रका बन्धक होता है वह नीचगोत्रका संक्रामक होता है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है--पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, पच्चीस मोहनीय, उद्वेलित न की जानेवाली सब नाम प्रकृतियां और पांच अन्तराय; इनका संक्रमण कितने काल होता है ? उनके संक्रमणका काल अनादि अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्ययसित भी है । इनमें जो सादि-सपर्यवसित है उसका प्रमाण जधन्यसे अन्तमहर और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिबर्तन है । साता व असाता वेदनीयके संक्रमणका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तमुहुर्त मात्र है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रमणका काल जधन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ अधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। विशेष इतना है कि मिथ्यात्वका वह काल साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। सम्यक्त्व प्रकृतिके संक्रमणका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। ___ नरकगति, देवगति, नरकगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकबन्धन और वैक्रियिकसंघात नामकर्मोंके संक्रमणका काल जघन्पसे साधिक आठ वर्ष या अन्तर्मुहूर्त, और उत्कर्षसे साधिक दो हजार सागरोपम मात्र है । मनुष्यगति और मनष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के संक्रमणका काल जघन्यसे साधिक आठ वर्ष या अन्तर्मुहुर्त और D अ-काप्रत्योः ' पयडि' इति पाठः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पयडिसंकमो ( ३४३ सादिरेयाणि अंतोमुहत्तं वा, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । उच्चागोदस्स जह० अंतोमुत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । आहारसरीर-आहारसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। तित्थयरणामाए जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । णीचागोदस्स जह० अंतोमुहुतं, उक्क० बेछावद्धिसागरोवमाणि तिहि पलिदोवमेहि अब्भहियाणि । एवं कालो समत्तो। __ अंतरं- जेसि कम्माणं तिभंगीयो कालो तेसिं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । एवं सादासादाणं। वेउव्वियछक्कस्स जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । मणुसगइ-मगुसगइपाओग्गाणुपुवी-उच्चा-णीचागोदाणं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। आहारसरीर-आहारसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं जह० एगसमओ, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियट्टं। तित्थयरणामाए सादभंगो। सम्मत्त. मिच्छत्ताणं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क • उवड्ढपोग्गलपरियढें । एवं सम्मामिच्छत्तस्स । णवरि जह० एगसमओ। अणंताणुबंधिचउक्क० जह० अंतोमु० उक्क० बेछावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवं अंतरपरूवणा समत्ता। उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। उच्चगोत्रके संक्रमणका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग, आहारकबन्धन और आहारकसंघातके संक्रमणका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। तीर्थंकर नामकर्मके संक्रमणका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है । नीचगोत्रके संक्रमणका काल जघन्यसे अन्तमुहूर्त और उत्कर्षसे तीन पल्योपम अधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। इस प्रकार कालका कथन समाप्त हुआ। अन्तर- जिन कर्मोंके संक्रमका काल तीन भंग रूप है उनके संक्रमका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। इसी प्रकार साता व असाता वेदनीयके विषयमें कहना चाहिये। वैक्रियिकषट्का प्रकृत अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र और नीचगोत्रका वह अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र है । आहारशरीर, आहारशरीरांगोपांग, आहारशरीरबन्धन और आहारशरीरसंघातका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। तीर्थंकर प्रकृतिका अन्तरकाल सातावेदनीयके समान है। सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका वह अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी अन्तरकाल जानना चाहिये । विशेष इतना है कि उसका वह अन्तरकाल जघन्यसे एक समय मात्र है। अनन्तानुबन्धिचतुष्कका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है । इस प्रकार अन्तरप्ररूपणा समाप्त हुई । ४ ताप्रतौ ' आहारसरी रस्स' इति पाठः । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ) छक्खंडागमे संतकम्म णाणाजीवेहि भंगविचओ। अटुपदं--जेसिं संतकम्ममत्थि तेसु पयदं । एदेण अटुपदेण पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सम्मामिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसायतेरसणामपयडि-पंचंतराइयाणं च सिया सव्वे जीवा संकामया, सिया संकामया च असंकामओ च, सिया संकामया च असंकामया च । सादासाद-सम्मत्त-मिच्छत्त-सेसणामपयडि-उच्च-णीचागोदाणं संकामया च असंकामया च णियमा अस्थि । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो । ___णाणाजीवेहि कालो-सव्वकम्माणं संकामया सव्वद्धा। अंतरं णत्थि णाणाजीवप्पणादो। अप्पाबहुअं। तं जहा--आहारसरीरणामाए संकामया थोवा । सम्मत्तस्स असंखे० गुणा। मिच्छत्तस्स असंखे० गुणा। सम्मामिच्छत्तस्स विसेसा० । देवगइणामाए असंखे० गुणा। णिरयगइ० विसेसा० । वेउव्विय० विसे० । णीचागोदस्स अणंतगुणा। असादस्स संखे० गुणा । सादस्स संखे० गुणा । उच्चागोदस्स विसे० । मणुसगइ० विसे० । अणंताणुबंधि० विसेसा० । जसकित्ति० विसे० । अट्टण्हं पि कसायाणं विसे। णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-तेरसणामपयडीणं संकामया विसे०लोहसं० विमे०। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका कथन करते हैं। उसमें अर्थपद--जिन कर्मोंका सत्कर्म है वे यहां प्रकृत हैं । इस अर्थपदके अनुसार पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तेरह नामप्रकृतियां और पांच अन्तराय; इन प्रकृतियोंके कदाचित् सब जीव संक्रामक होते हैं, कदाचित् बहुत संक्रामक व एक असंक्रामक, तथा कदाचित् बहुत संक्रामक व बहुत असंक्रामक भी होते हैं। साता असाता वेदनीय, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, शेष नामप्रकृतियां, उच्चगोत्र और नीचगोत्र; इनके नियमसे बहुत संक्रामक व बहुत असंक्रामक भी होते हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है--सब कोंके संक्रामकोंका काल नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है । सत्र कर्मोंके संक्रामकों का अन्तर नहीं होता, क्योंकि, नाना जीवोंकी विवक्षा है। . अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है--आहारशरीर नामकर्मके संक्रामक स्तोक हैं । सम्यक्त्वके संक्रामक असंख्यात गुणे हैं । मिथ्यात्वके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामक विशेष अधिक हैं। देवगति नामकर्मके संक्रामक असंख्यातगणे हैं । नरकगतिके संक्रामक विशेष अधिक हैं । वक्रियिकशरीरके संक्रामक विशेष अधिक हैं। नीचगोत्रके संक्रामक अनन्तगुणे हैं । असातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगुणे हैं। सातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगुणे हैं । उच्चगोत्रके संक्रामक विशेष अधिक है। मनुष्यगतिके संक्रामक विशेष अधिक हैं। अनन्तानुबन्धोके संक्रामक विशष अधिक है। यशकीर्तिके संक्रामक विशेष अधिक है। आठों भी कषायोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगद्धि और तेरह नामप्रकृतियोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं। संज्वलनलोभके संक्रामक विशेष अधिक हैं। प्रतिष 'णाणाजीवप्पमाणादो' इति पाठः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं माणुयोगद्दारे पडकमो ( ३४५ 1 । 1 उस ० विसे० । इत्थि० विसे० । छष्णोकसायाणं विसे० । पुरिस० विसे० । कोध० विसे० | माण० विसे० । माया० विसे० । पंचणाणावरण - णवदंसणावरण-सेसणामपयडिपंचं तराइयाणं संकामया तुल्ला विसेसाहिया । एवमोघसंकमदंडओ समत्तो । णिरयगईए आहारसरीरणामाए संकामया थोवा । सम्मत्तस्स संकामया असंखे ० ० गुणा । मिच्छत्तस्स असंखे० गुणा । सम्मामिच्छत्तस्स विसेसा० । णीचागोदस्स असंखे० गुणा । असादस्स संखे० गुणा । सादस्स संखे० गुणा । उच्चागोदस्स विमे० । अताणुबंधि० विसेसा० । सेसाणं कम्माणं संकामया तुल्ला विसेसा० । एवं णिरयोघसंकम दंडओ समत्तो 1 तिरिक्खगईए आहारसरीरणामाए संकामया थोवा । सम्मत्तस्स असंखे ० गुणा | मिच्छत्तस्स असंखे० गुणा । सम्मामिच्छत्तस्स विसेसा० । देवगई. असंखे ० गुणा । रिगई० विसेसा० । वेउव्वियसरीर० विसे० | णोचागोदस्स अनंतगुणा । असादस्स संखे० गुणा । सादस्स संखे० गुणा । उच्चागोदस्स विसेसा० । मणुस गई० विसे । अताणुबंधि० विसे० । सेसाणं कम्माणं तुल्ला विसेसाहिया । एवं तिरिक्खगइदंडओ समत्तो । नपुंसकवेदके संक्रामक विशेष अधिक हैं । स्त्रीवेदके संक्रामक विशेष अधिक हैं। छह नोकषायों के संक्राक्रम विशेष अधिक हैं । पुरुषवेदके संक्रामक विशेष अधिक हैं । ( संज्वलन ) क्रोध संक्रामक विशेष अधिक हैं। मानके संक्रामक विशेष अधिक हैं । मायाके संक्रामक विशेष अधिक हैं। पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, शेष नामप्रकृतियों और पांच अन्तराय कर्मों के संक्रामक तुल्य व विशेष अधिक हैं। इस प्रकार ओघ संक्रमदण्डक समाप्त हुआ । नरकगति में आहारशरीर नामकर्मके संक्रामक स्तोक हैं । सम्यक्त्वके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । मिथ्यात्व के संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रामक विशेष अधिक हैं । नीचगोत्रके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । असातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगुणे हैं । सातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगुणे हैं । उच्चगोत्रके संक्रामक विशेष अधिक हैं । अनन्तानुबन्धिचतुष्कके संक्रामक विशेष अधिक हैं । शेष कर्मोंके संक्रामक तुल्य व विशेष अधिक हैं । इस प्रकार नरकगति में सामान्यसे संक्रमदण्डक समाप्त हुआ । तिर्यंचगति में आहारकशरीर नामकर्मके संक्रामक स्तोक हैं । सम्यक्त्वके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । मिथ्यात्व के संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रामक विशेष अधिक हैं | देवगति संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । नरकगतिके संक्रामक विशेष अधिक हैं । वैक्रिकशरीर के संक्रामक विशेष अधिक हैं । नीचगोत्रके संक्रामक अनन्तगुणे हैं । असातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगुणे हें | सातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगुणे हैं । उच्चगोत्र के संक्रामक विशेष अधिक हैं । मनुष्यगतिके संक्रामक विशेष अधिक हैं । अनन्तानुबन्धि चतुष्क के संक्रामक विशेष अधिक हैं । शेष कर्मोंके संक्रामक तुल्य व विशेष अधिक हैं । इस प्रका तिर्यंचगति में संक्रमदण्डक समाप्त हुआ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ) छवखंडागमे संतकम्म देवगईए णिरयगइभंगो। मणुस्सेसु आहारसरीरणामाए संकामया थोवा । मिच्छत्तस्स संकामया संखे० गुणा। सम्मत्तस्स संका० असंखे० गुणा। सम्मामिच्छत्तस्स विसेसा० । देवगई० असंखे० गुणा । णिरयगई० विसे । वेउविय० विसे । णीचागोदस्स असंखे० गुणा। असाद० संखे० गुणा। साद० संखे० गुणा। उच्चागोद० विसे । अणंताणुबंधि० विसे० । उवरि ओघं । एवं मणुसगइदंडओ समत्तो । बेइंदिएसु आहार० संकामया संखेज्जजीवा थोवा । सम्मत्तसंकामया असंखे० गुणा। सम्मामिच्छत्त० विसे० । देवगई० असंखे० गुणा। गिरयगई० विसे० । वेउविय० विसे० । णीचागोद० असंखे० गुणा । असाद० संखे० गुणा । साद० संखे० गुणा। उच्चागोद० विसे० । सेसाणं कम्माणं तुल्ला विसेसा० । तेइंदियचरिदिय-असण्णिपंचिदियाणं बेइंदियभंगो। भुजगारो पदणिक्खेवो वढिसंकमो च एगेगपयडिसंकमे णस्थि । पयडिट्ठाणसंकमे ढाणसमुक्कित्तणा। तं जहा- णाणावरणपयडिसंकमस्स एक्कं चेव ट्ठाणं। एदेण टाणेण सव्वाणि ओगद्दाराणि णेदव्वाणि । दसणावरणस्स बे टाणाणि । तं जहा- णवण्णं छण्णं संकमो चेदि । एदेहि बेट्ठाणेहि* चदुवीसअणुओगद्दाराणि देवगतिमें संक्रमके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है। मनुष्योंमें आहारशरीर नामकर्मके संक्रामक स्तोक हैं। मिथ्यात्वके संक्रामक संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्वके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामक विशेष अधिक हैं। देवगतिके संक्रामक असंख्यातगण हैं। नरकगतिके संक्रामक विशेष अधिक हैं। वैक्रियिकशरीरके संक्रामक विशेष अधिक हैं। नीचगोत्रके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। असातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगण हैं। सातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगणे हैं। उच्चगोत्रके संक्रामक विशेष अधिक हैं। अनन्तानुबन्धिचतुष्कके संक्रामक विशेष अधिक है। आगेकी प्ररूपणा ओघके समान है। इस प्रकार मनुष्यगतिमें संक्रमदण्डक समाप्त हुआ । द्वीन्द्रिय जीवोंमें आहारशरीरके संक्रामक जीव संख्यात हैं जो स्तोक हैं। सम्यक्त्वके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामक विशेष अधिक है। देवगतिके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। नरकगतिके संक्रामक विशेष अधिक हैं। वैक्रियिकशरीरवेः संक्रामक विशेष अधिक हैं। नीचगोत्रके संक्रामक असंख्यातगणं हैं। असातावेदनीयके संक्रामक संख हैं। सातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगणे हैं। उच्चगोत्रके संक्रामक विशेष अधिक हैं। शेष कर्मोके संक्रामक तुल्य व विशेष अधिक हैं। त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंमें संक्रमके अल्पबहुत्वको प्ररूपणा द्वीन्द्रिय जीवोंके समान है। भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिसंक्रम एक एक प्रकृतिके संक्रममें नहीं हैं। _प्रकृतिस्थानसंक्रम में स्थानसमुत्कीर्तनाकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- ज्ञानावरणके प्रकृतिसंक्रमका एक ही स्थान है। इस एक स्थानके द्वारा सब अनुयोगद्वारोंका ले जाना चाहिये। दर्शनावरणके दो स्थान हैं। यथा- नौ प्रकृतियोंका संक्रम और छह प्रकृतियोंका . अप्रतौ 'एदेण बेदाणाणि' इति पाठः। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे टिदिसंकमो ( ३४७ भुजगार-पदणिक्खेव-वड्ढिसंकमा च णेदव्वा। मोहणीयस्स जहा कसायपाहुडे वित्थरेण ढाणसमुक्कित्तणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा । वेयणीय-गोदंतराइयागं एक्केक्कं चेव ढाणं । णामस्स पुध पुध पिंडणामट्ठाणसमुक्कित्तणा कायव्वा । तं जहा- गदिणामाए एक्किस्से दोण्णं तिण्णं चदुण्णं संकमो। उज्वेल्लणं पडुच्च जासु जासु पिंडपयडीसु संकमट्ठाणाणि अस्थि तेहि सव्वअणुयोगद्दाराणि यव्वाणि । एवं पयडिसंकमो समत्तो। ठिकिसंकमो दुविहो मुलपयडिदिदिसंकमो उत्तरपयडिदिदिसंकमो चेदि। एत्थ अट्ठपदं । तं जहा- ओकड्डिदा वि द्विदी डिदिसंकमो, उक्कड्डिदा वि द्विदी द्विदिसंकमो, अण्णपडि णीदा वि द्विदी टिदिसंकमो होदि । एत्थ ओकड्डणाए ताव किंचि सरूवपरूवणं कस्सामो। तं जहा- उदयावलियब्भंतरद्विदीयो ण सक्का ओकड्डे, * उदयावलियादो जा समउत्तरटिदी सा सक्का ओकड्डेदुं* । सा ओकड्डिज्जमाणिया आवलियाए समऊणाए बेत्तिभागे अधिच्छाविदूण रूवाहियतिभागे णिक्खिवदि। तदो समउत्तरियाए ट्ठिदीए तत्तियो चेव णिक्खेवो, अधिच्छावणा वड्ढदि । एवं ताव अधिच्छावणा संक्रम। इन दो स्थानोंके द्वारा चौबीस अनुयोगद्वारों, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिसंक्रमको भी ले जाना चाहिये। मोहनीयकी स्थानसमुत्कीर्तना जैसे कसायपाहुडमें विस्तारसे की गयी है वैसे यहां भी उसे करना चाहिये । वेदनीय, गोत्र और अन्तरायका एक एक ही स्थान है । नामकर्म की पृथक् पृथक् पिण्ड नामप्रकृतियोंकी स्थानसमुत्कीर्तना करना चाहिये। वह इस प्रकारसे-- गति नामकर्म सम्बन्धी एक, दो, तीन और चारका संक्रम होता है। उद्वेलनाके आश्रयसे जिन पिण्ड प्रकृतियोंमें संक्रमस्थान हैं उनके द्वारा सब अनुयोगद्वारोंको ले जाना चाहिये । इस प्रकार प्रकृतिसंक्रम समाप्त हुआ। स्थितिसंक्रम दो प्रकार है- मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृति स्थितिसंक्रम । यहां अर्थपद इस प्रकार है- अपकर्षणप्राप्त स्थितिको स्थितिसंक्रम कहा जाता है, तथा उत्कर्षणप्राप्त और अन्य प्रकृतिको प्राप्त करायी गयी भी स्थितिको स्थितिसंक्रम कहा जाता है। यहां पहिले अपकर्षण के स्वरूपकी कुछ प्ररूपणा की जाती है। यथा- उदयावलीके भीतरकी स्थितियां अपकर्षणकी प्राप्त नहीं करायी जा सकतीं, किन्तु उदयावलीसे जो एक समय अधिक स्थिति है वह अपकर्षणको प्राप्त करायी जा सकती है। अपकर्षणको प्राप्त करायी जानेवाली उस स्थितिका निक्षेप एक समय कम ऐसी आवलीके दो त्रिभागोंको अतिस्थापना करके एक समय अधिक आवलीके त्रिभागमें किया जाता है। आगे उत्तरोत्तर एक एक समय अधिक स्थितिका निक्षेप तो उतना मात्र ही होता है, किन्तु अतिस्थापना बढती जाती है। इस प्रकार अतिस्थापना आवली प्राप्त होने " क. पा. सु पृ. २६०-३०९. .ताप्रती 'टा (णा) णं' इति पाठः। Oताप्रती ' एक्केकिस्से' इति पाठः । * टिदिसंकमो दुविहो मूलपयडिटिदिसंकमो च। तत्थ अट्ठपदं-जा दिदी ओकडिज्जदि वा उक्कडिज्जदि वा अण्णपडि संकामिज्जइ वा सो द्विदिसंकमो, सेसो दिदिअसंकमो। क. पा..." सु. प. ३१०, १-२. ठिइसंकमो त्ति वच्चइ मलत्तरपगईउ जा हि ठिई । उव्वट्रियाउ ओवट्रिया व पगई निया वाऽण्णं । क. प्र. २, २८. * अप्रतौ 'संकामओकट्टेदं ', काप्रती 'संका ओकड़ेदं ' इति पाठः । * अ-का-ताप्रत्योः 'संकामओकडेदं' इति पाठः । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं वड्ढदि जाव आवलिया त्ति । तेण परं णिक्खेवो चेव वड्ढदि । जहण्णओ णिक्खेवो थोवो । जहणिया अधिच्छावणा दोहि समएहि ऊणिया दुगुणा । उक्कस्सिया अधिच्छावणा असंखे० गुणा । उक्कस्सयं टिट्ठदिखंडयं विसेसाहियं । उक्कस्सओ णिक्खवो विसेसाहिओ, जेण कम्मट्ठिदी दोहि आवलियाहि समउत्तराहि ऊणिया । उक्कडुणा णाम कथं होदि ? बुच्चदे । तं जहा - उदयावलियब्भंतरष्ट्ठिदी ण सक्का उक्कड्डेदुं । कुदो ? साभावियादो । समउत्तरउदयावलियादिट्ठिदी उक्कडिज्जदि । सा उक्कड्डुिज्जमाणिया: वि अबज्झमाणीसु ट्ठिदीसु ण णिविखवदि, बज्झमाणियाणं जहणट्ठिदिमादि काढूण उवरिमासु सव्वासु ट्ठिदीसु णिक्खिवदि । एस * विही हेट्ठिमाणं ट्ठिदीणं उक्कडिज्जमाणियाणं । संपहि उवरिमाणं द्विदीणं उक्कड्डणविहाणं वुच्चदे । तं जहा- द्विदिसंतकम्मादो तक बढती है । इसके पश्चात् निक्षेप ही बढता है । जघन्य निक्षेप स्तोक है । जघन्य अतिस्थापना दो समयोंसे कम दुगुणी है । उत्कृष्ट अतिस्थापना असंख्यातगुणी है । उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक विशेष अधिक है । उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है, कारण कि वह एक समय अधिक दो आवलियोंसे हीन कर्मस्थितिके बराबर है । उत्कर्षण कैसे होता है ? इसका उत्तर देते हैं। यथा- उदयावलीके भीतरकी स्थिति उत्कर्षणको प्राप्त नहीं करायी जा सकती है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । एक समय अधिक उदयावली आदि रूप स्थितिका उत्कर्षण किया जा सकता है। उस उत्कर्षणको प्राप्त करायी जानेवाली स्थितिका भी निक्षेप अबध्यमान स्थितियोंमें नहीं किया जाता है, किन्तु बध्यमान स्थितियों में जघन्य स्थितिको आदि करके आगेकी सब स्थितियोंमें किया जाता है। यह विधान उत्कर्षणको प्राप्त करायी जानेवाली अधस्तन स्थितियोंके लिये है । अब उपरिम स्थितियों के उत्कर्षणका विधान कहते हैं। यथा- स्थितिसत्कर्म से समयाधिक तिस्से उदयादि जाव आवलियतिभागो तावणिक्खेवो, आवलियाए बेत्तिभागा अइच्छावणा । उदए बहुअं पदेसग्गं दिज्जद्द, तेण परं विसेसहीणं जाव आवलियतिभागोति । तदो जा बिदिया द्विदी तिस्से कि तत्तिगो चैव कखेवो, अइच्छावणा समयुत्तरा । एवमच्छात्रणा समयुत्तरा, णिक्खेवो तत्तिगो चेव उदयावलियबाहिरादो आवलियति भागतिमद्विदि त्ति । तेण परं क्खेिवो वड्डर, अइच्छावणा आवलिया चेव । क. पा. सु. पृ. ३११, ५-९, उव्वतो य ठिई उदयावलिबाहिरा ठिइविसेसा । निक्खिवइ तइयभागे समयहिए सेसमइवईय || वड्ढद्द तत्तो अतित्थावणा उ जावलिगा हवइ पुन्ना । ता निक्खेवो समयाहिगालिग दुगूणकम्म ट्टिई || क. प्र. ३, ४-५. D तदो सम्वत्थोवो जहण्णओ लिक्खेवो । जहणिया अच्छावणा दुसमपूणा दुगणा णिव्वाघादेण उक्कस्सिया अइच्छावणा विसेसाहिया । वाघादेण उक्कस्सिया अइच्छावणा असंखेज्जगुणा । उक्कस्यं द्विदिखंडय विसेसाहियं । उक्कस्सओ णिक्खेवो विसेसाहिओ । उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । क. पा. सु पृ. ३१५, १८-२३. अ-काप्रत्योः '-वलियादि उक्रुड्डिज्जदि', ताप्रतौ ' वलियादि ( यद्विदि ) उक्कडिज्जदि ' इति पाठः । * अन्ताप्रत्यो: 'ओकडुिज्जमाणिया ' इति पाठः । उव्वट्टणा ठिईए उदयावलियाए बाहिरठिईणं । होइ अबाहा ' * ताप्रती 'एसा ' इति पाठ: । अइत्थावणाउ जा वलिया हस्ता ।। क. प्र. ३, १. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो ( ३४९ समउत्तरटिदि बंधमाणस्स जा पुव्वबद्धस्स चरिमट्टिदी सा ण उक्कड्डिज्जदि, दुचरिमट्टिदी वि ण उक्कड्डिज्जदि । एवं जाव एगा आवलिया अण्णो आवलियाए असंखे० भागो च ओदिण्णोति णेदव्वं । तदो जा हेट्ठिमा अणंतरट्टिदी सा उक्कड्डिज्जदि। तिस्से उक्कडिज्जमाणियाए आवलिया अधिच्छावणा, आवलियाए असंखे० भागो णिक्खेवो। उक्कड्डिज्जमाणीणं द्विदीणं जहण्णओ णिक्खेवो थोवो । जहणिया अधिच्छावणा एगावलिया, सा असंखे० गुणा। उक्क० अधिच्छावणा संखेज्जगुणा । उक्कस्सओ णिक्खेवो असंखे० गुणो, जेण कम्मट्टिदी उक्कस्सियाए आबाहाए समतराए आवलियाए च उणिया*। एसा अट्ठपदपरूवणा । एत्तो पमाणाणुगमो वुच्चदे- उत्तरपयडिसंकमे पयदं । सो चउव्विहो उक्कस्सओ अणुक्कस्सओ जहण्णओ अजहण्णओ चेदि। मदिआवरणस्स उक्कस्सओ द्विदिसंकमो तीसं स्थितिको बांधनेवालेके जो पूर्वबद्ध कर्मकी चरम स्थिति है उसका उत्कर्षण नहीं किया जाता है, द्विचरम स्थितिका भी उत्कर्षण नहीं किया जाता है, इस प्रकार एक आवली और अन्य आवलीके असंख्यातवें भाग नीचे आने तक ले जाना चाहिये। उसे नोचेकी जो अधस्तन अनन्तर स्थिति है उसका उत्कर्षण किया जाता है। उत्कर्षणको प्राप्त करायी जानेवाली उक्त स्थितिकी अतिस्थापना आवली प्रमाण और निक्षेप आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । उत्कर्षणको प्राप्त करायी जानेवाली स्थितियोंका जघन्य निक्षेप स्तोक है। जघन्य अतिस्थापना एक आवली मात्र होकर उससे असंख्यातगुणी है। उत्कृष्ट अतिस्थापना संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट निक्षेप असंख्यातगुणा है, क्योंकि, वह उत्कृष्ट अबाधा और एक समय अधिक आवलीसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण है । यह अर्थपदकी प्ररूपणा हुई। ___ यहां प्रमाणानुगमका कथन करते हैं- उत्तरप्रकृतिसंक्रमका अधिकार है। वह चार प्रकारका है- उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य। मतिज्ञानावरणका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम ० प्रतिषु ' उदिण्णो' इति पाठः । * वाघादेण कधं ? जह संनकम्मादो बधो समयुत्तरो तिस्से दिदीए णत्थि उक्कडणा । जइ सतकम्मादो बंधो दुसमयुत्तरो तिस्से वि संतकम्मअग्गदिदीए णस्थि उक्कडणा। एत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागो जहणिया अइच्छावणा । जदि जत्तिया जहणिया अइच्छावणा तत्तिएण अब्भहिओ संतकम्मादो बंधो तिस्से वि संतकम्मअग्गट्रिदीए णत्थि उक्कडणा। अण्णो आवलियाए असंखेज्ज हो जहण्णओ मिक्खेवो। जइ जहणियाए अइच्छापणाए जहण्णएण च णिक्खेवेण एत्तियमेत्तेण सतकम्मादो अदिरित्तो बंधो सा संतकम्मअग्गट्ठिदी उक्कड्डिज्जदि । तदो समयुत्तरे बंधे णिक्वेवो तत्तिओ चेव, अच्छावणा वढदि । एवं ताव अइच्छावणा वड्डइ जाव अच्छावणा आवलिया जादा ति । तेण परं णिक्खेवो वड्डइ जाव उक्कस्सओ णिक्खेवो त्ति । क. पा. सु.पृ. ३१६, २८-३७. णिव्बाघाएणेवं वाघाए संतकम्महिगबंधो । आवलि असंख भागादि होइ आत्थावणा नवरं ।। क. प्र. ३, ३. xxx संप्रत्यल्पबहुत्वमुच्यते- या जघन्याऽतीस्थापना यश्च जघन्यो निक्षेप एतौ द्वावपि सर्वस्तोकौ परस्परं च तुल्यो। यतो द्वावप्येतो आवलिकासत्कासंख्येयतमभागमात्रौ, ताभ्यामसंख्येयगुणोत्कृष्टाऽतीस्थापना, तस्या उत्कृष्टाबाधारूपत्वात् । ततोऽप्यत्कृष्टो निक्षेपोऽसंखयगुणाः, यतोऽसौ समयाधिकावलिकपाऽबाधया च हीना सर्वा कर्म स्थितिः । ततोऽपि सर्वा कमस्थितिविशेषाधिका । मलय. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ) छक्खंडागमे संतकम्म सागरोवमकोडाकोडियो दोहि आवलियाहि ऊणाओ, जट्ठिदिसंकमो आवलिऊणो। जहा उक्कस्सटिदिउदीरणा तहा उक्कस्सटिदिसंकमो सवकम्माणं पि कायवो। तत्तो णाणत्तं वत्तइस्सामो- देवगइ-देव-मणुस्साणुपुवी-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियजादिआदाव-सुहम-अपज्जत्त-साहारणाणं उक्कस्समद्धच्छेदो वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बेहि तीहि आवलियाहि ऊणाओ। सामित्तं पि उक्कस्सट्ठिदि बंधिय पडिभग्गो होदूण एदाओ णामपयडीओ बंधिय तदो आवलियादीदस्स। आदावस्स पुण बंधावलियादीदस्स उक्कस्सओ द्विदिसंकमो । एदं णाणत्तं उक्कस्सट्टिदिउदीरणादो। देव-णिरयाउआणं उक्कस्सटिदिसंकमो तेत्तीसं सागरोवमाणि, जदिदिसंकमो आवलियूणपुवकोडितिभागेणब्भहियतेत्तीसं सागरोवमाणि । मणुस्स-तिरिक्खाउआणमुक्कस्सटिदिसंकमो तिण्णि पलिदोवमाणि, जढिदिसंकमो आवलियूणपुव्वकोडितिभागेणब्भहिय-तिण्णिपलिदोवमाणि । जहण्णद्विदिसंकमपमाणाणुगमो। तं जहा- पंचणाणावरण-चत्तारिदसणावरणपंचंतराइयाणं जहण्णट्टिदिसंकमो एगा दिदी, जट्ठिदिसंकमो समयाहियावलिया। णिद्दा-पयलाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो एगा ट्ठिदी, जट्ठिदिसंकमो दो आवलियाओ दो आवलियोंसे हीन तीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र होता है, जस्थितिसंक्रम एक आवलीसे हीन तीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र होता है। पूर्वमें जैसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा कथन किया गया है वैसे ही सभी कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका भी कथन करना चाहिये । उससे जो यहां जो कुछ विशेषता है उसे बतलाते हैं-- देवगति, देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आतप सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण ; इनका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद दो व तीन आवलियोंसे हीन बीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र है। उसका स्वामी भी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर और प्रतिभग्न होकर फिर इन नामकर्मकी प्रकृतियोंको बांधने के पश्चात् आवली मात्र कालको वितानेवाला जीव होता है। परन्तु आतपका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम जिसने बन्धावलीको बिताया है उसके होता है। यह उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाकी अपेक्षा यहां विशेषता है। देवायु और नारकायुका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम तेतीस सागरोपम और जस्थितिसंक्रम आवली कम पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक तेतीस सागरोपम मात्र होता है। मनुष्यायु और तिर्यगायुका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम तीन पल्योपम और जस्थितिसंक्रम आवली कम पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक तीन पल्योपम मात्र होता है। जघन्य स्थितिसंक्रमके प्रमाणानुगमका कथन करते हैं । यथा- पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायका जघन्य स्थितिसंक्रम एक स्थिति और जस्थितिसंक्रम एक समय अधिक आवली मात्र है। निद्रा और प्रचलाका जघन्य स्थितिसंक्रम एक स्थिति और ४ अप्रतौ 'ठिदिससकम्मो', ताप्रती 'ज ट्रिदिसंकमो' इति पाठः। 4 अप्रतौ 'आवलियादितस्स' इति पाठः । अ-कापत्योः 'संकमो', ताप्रतौ 'संकमो (म)' इति पाठः। आवरण विग्ध-दसणचउक्क-लोमंत-वेयगाऊणं । एगा ठिई जहन्नो जट्ठिई समया हगावलिगा ॥ क. प्र. २, ३२. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो ( ३५१ आवलियाए असंखेज्जदिभागो च*। णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-मिच्छत्तबारसकसाय-सम्मामिच्छत्त-इत्थि-णवंसयवेदाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो पलिदो० असंखे० भागो। सादासादाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो अंतोमुत्तं । सम्मत्त-लोहसंजलणाणं जहण्णट्टिदिसंकमो एगा टिदी। जट्टिदिसंकमो समयाहियावलिया। छण्णं णोकसायाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो संखे० वस्साणि । कोहसंजलणाए जह० टिदिसंकमो बे मासा अंतोमुहत्तूणा* जट्ठिदिसंकमो बे मासा बेहि आवलियाहि ऊणा। माणसंजलणस्स जहण्णटिदिसंकमो मासो अंतोमुहुत्तूणो, जट्ठिदिसंकमो मासो बेहि आवलियाहि ऊणो। मायासंजलणाए जहण्णटिदिसंकमो अद्धमासो अंतोमुहुत्तूणो, जट्ठिदिसंकमो अद्धमासो दोहि आवलियाहि ऊणो। पुरिसवेदस्स जहण्णढिदिसंकमो अदुवस्साणि अंतोमुत्तूणाणि., जट्ठिदिसंकमो अटुवस्साणि दोहि आवलियाहि ऊणाणि । __ आउआणं जहा जहण्ण टिदिउदीरणाए तहा कायव्वं । णिरयगइ-णिरयगइपाओगाणुपुवी-तिरिक्खगइ--तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-एइंदिय-बेइंदिय तेइंदिय-चरिदियजादि-आदावुज्जोव-थावर-सुहुम-साहारणसरीराणं जहण्णगो ट्ठिदिसंकमो पलिदो० जस्थितिसंक्रम दो आवली और एक आवलीके असंख्यातवें भागसे अधिक है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, बारह कषाय, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। साता और असाता वेदनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम सम्यक्त्व और संज्वलन लोभका जघन्य स्थितिसंक्रम एक स्थिति मात्र है। इनका जस्थितिसंक्रम एक समय अधिक आवली मात्र है। छह नोकषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम संख्यात वर्ष मात्र है। संज्वलन क्रोधका जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहुर्त कम दो मास और जस्थितिसंक्रम दो आवलीसे कम दो मास प्रमाण है। संज्वलन मानका जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहुर्त कम एक मास और जस्थितिसंक्रम दो आवली कम एक मास प्रमाण है। संज्वलन मायाका जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहुर्त कम आधा मास और जस्थितिसंक्रम दो आवली कम आधा मास प्रमाण है। पुरुषवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहुर्त कम आठ वर्ष और जस्थितिसंक्रम दो आवली कम आठ वर्ष है। आयु कर्मोकी जिस प्रकार जघन्य स्थितिकी उदीरणा कही गयी है उसी प्रकारसे उनके जघन्य संक्रमको भी कहना चाहिये । नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आतप, उद्योत. स्थावर, सूक्ष्म, * निदादुगस्स एक्का आवलिदुर्ग असंखभागो य । जट्रिxxx क. प्र. २, ३३ मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-इत्थि-णवंसयवेदाणं जहण दिदिसंकमो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कपा. सु ३१९, ४४. क. पा. सु. पृ. ३१९, ४५. . क पा सु. पृ. ३१९, ४९. * का-मप्रत्यो 'अंतोमहत्तणो', अप्रतौ त्रुटितोऽत्र पाठः । क पा सु. पृ. ३१९, ४५. 0 क पा सु पृ. ३१९, ४६. * क पा सु. पृ. ३१९, ४७. . का पा सु पृ. ३१९, ४८. ताप्रतो 'आउआणं जहण्ण-' इति पाठः। Jain Education internationals "Fospritted Personal use only" Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ) छक्खंडागमे संतकम्म असंखे० भागो । देवगई-देवगइपाओग्गाणुपुत्वी--मणुसगइ--मणुसगइओग्गाणुपुवी-- पंचसरीर-पंचसरीरबंधण-पंचसरीरसंघाद-छसंठाण-छसंघडण-पसत्थापसत्थवण्ण-गंधरस-फास--अगुरुअलहुअ--उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-तस-बादरपज्जत्तापज्जत्त-पत्तयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग--दूभग--सुस्सर-दुस्सर - आदेज्जअणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-तित्थयर-णीचुच्चागोदाणं जहण्णढिदिसंकमो अंतोमुहुत्तं । एवं जहण्णुक्कस्सअद्धाच्छेदो समत्तो। एत्तो सामित्तं । तं जहा- जहा उक्कस्सियाए द्विदीए उदीरणाए सव्वकम्माणं पि सामित्तं परूविदं तहा उक्कस्सटिदिसंकमे वि सव्वकम्माणं पि सामित्तं परूवेयव्वं । एवमुक्कस्सछिदिसंकमसामित्तं समत्तं । जहण्णढिदिसंकमसामित्तं वत्तइस्सामो । तं जहा- पंचणाणावरण-चउदंसणावरण-पंचतराइयाणं जहण्णढिदिसंकमो कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थस्स । णिद्दा-पयलाणं जहण्णटिदिसंकमो कस्स ? दोहि आवलियाहि आवलियाए असंखे० भागेण चरिमसमयछदुमत्थस्स। णिहाणिद्दा--पयलापयला--थीणगिद्धीणं और साधारणशरीर नामकर्मोका जघन्य स्थितिसंक्रम पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, पांच शरीर, पांच शरीरबन्धन, पांच शरीरसंघात, छह संस्थान, छह संहनन, प्रशस्त व अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर शभ, अशभ, सभग, दर्भग, सस्वर, दस्वर. आदेय. अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, नीचगोत्र और उच्चगोत्र; इनका जघन्य स्थितिका संक्रम अन्तर्मुहूर्त मात्र है। इस प्रकार जघन्य व उत्कृष्ट अद्धाच्छेद समाप्त हुआ। यहां स्वामित्वका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-- जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणामें सभी कर्मोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकारसे उत्कृष्ट स्थितिके संक्रममें भी सभी कर्मों के स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका स्वामित्व समाप्त हुआ। जघन्य स्थितिसंक्रमके स्वामित्वका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायकी जघन्य स्थितिका संक्रम किसके होता है ? जिसके चरम समयवर्ती छद्मस्थ होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष है उसके उपर्युक्त प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है। निद्रा और प्रचलाका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है? जिसके अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ होने में दो आवली और आवलीका असंख्यातवां भाग शेष रहा है उसके निद्रा और प्रचलाका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिका ४सामित्तं । उकास्सट्ठिदिसकामयस्स सामित्तं जहा उक्कस्सियाए द्विदीए उदीरणा तहा णेदव्वं । __क. पा. सु. पृ. ३१९, ५१-५२. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो जहण्णदिदिसंकमो कस्स ? खवगस्स अपच्छिमट्ठिदिखंडयचरिमसमए वट्टमाणस्स । सादासादाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्स। मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णट्ठिदिसंकमो कस्स ? दसणमोहक्खवगस्स अपच्छिमट्ठि दिखंडयचरिमसमए वट्टमाणस्स* । अणंताणुबंधीणं जहण्णढिदिसंकमो कप्स ? अणंताणुबंधि विसंजोएंतस्स अणंताणुबंधीणं अपच्छिमट्टिदिखंडयचरिमसमए वट्टमाणस्स । अट्ठण्णं कसायाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो कस्स ? अट्ठकसायक्खवगस्स अपच्छिमट्ठिदिखंडयस्स चरिमफालि पादेंतस्स। णवंसय वेदस्स जहण्णढिदिसंकमो कस्स ? णवंसयवेदेण खवगसेडिमुवट्ठियस्स खवगस्स णवंसयवेदचरिमट्टिदिखंडयचरिमफालि संछहमाणस्सD । इथिवेदस्स जहण्णद्विदिसंकमो कस्स ? इत्थिवेदोदएण अणुदएण वा खवगसेडिमारूढस्स खवगस्स इत्थिवेदचरिमद्विदिखंडयचरिमफालि संकममाणस्स। छण्णोकसायाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो कस्स ? छण्णोकसायखवगस्स तेसि चरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालि संकममाणस्स। कोध-माण-मायासंजलणाणं जहण्णछिदिसंकमो कस्स? तेसि खवयस्स अपच्छिमसमयजघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? वह अन्तिम स्थितिकाण्डकके चरम समयमें वर्तमान क्षपकके होता है। साता और असाता वेदनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोगीके होता है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जधन्य स्थितिसंक्रम किसके होता हैं ? वह अन्तिम स्थितिकाण्डकके चरम समयमें वर्तमान दर्शनमोहक्षपकके होता है। अनन्तानुबन्धी कषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? वह अनन्तानुबन्धी कषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकके चरम समयमें वर्तमान ऐसे अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाले जीवके होता है । आठ कषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? वह अन्तिम स्थितिकाण्डककी चरम फालिको नष्ट करनेवाले ऐसे आठ कषायोंके क्षपकके होता हैं। नपुंसक वेदका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? वह नपुंसक वेदसे क्षपकश्रेणिपर उपस्थित हुए उस क्षपकके होता है। जो नपुंसकवेदके चरम स्थितिकाण्डककी चरम फालिका क्षेपण कर रहा है। स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जो क्षपक स्त्रीवेदके उदय अथवा उसके अनुदयके साथ क्षपकश्रेणिपर आरूढ होकर स्त्रीवेदके चरम स्थितिकांडककी चरम फालिका संक्रमण कर रहा है। छह नोकषाययोंका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? वह उनके चरम स्थितिकांडककी चरम फालिका संक्रमण करनेवाले छह नोकषायोंके क्षपकके होता है। संज्वलन क्रोध, मान और मायाका जघन्यस्थितिसंक्रम किसके होता है ? वह उनके क्षपकके होता ह * क. पा. सु. पृ. ३२०, ५४-५५. ४ अणंताणुवंधीणं जहण्णट्टि देसंकमो कस्स ? विसंजोएंतस्स तेसिं चेव अच्छिमट्ठदिखंडयचरिमसमयसंकामयस्स । क. पा. सु. पृ. ३२०, ६०-६१. . अट्ठण्हं कसायाणं जहण्णदिदिसंकमो कस्स ? खवयस्स तेसि चेव आच्छिमदिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमा गयस्स जहण्ण । क. पा सु ३२०, ६२-६३. 0 क पा सू प. ३२१, ७१-७२. इत्यिवेदस्स जहण्णदिदिसंकमा कस्स? ख वयस्स इस्थिवेदोदयक्खवयस्स तस्स अपच्छिमट्ठिदिखंडयं संछहमागयस्स तस्स जहण्णयं । क, पा. सु. पृ. ३२१, ६९-७०. क. पा. सु. पृ. ३२२, ७३-७४. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ) छवखंडागमे संतकम्म पबद्धं चरिमसमयसंछुद्धस्स । लोहसंजलणस्स जहण्णट्ठिदिसंकमो कस्स ? समयाहियआवलियचरिमसमयसुहमसांपराइयखवगस्स। पुरिसवेदस्स जहण्णढिदिसंकमो कस्स? पुरिसवेदखवयस्स सगअपच्छिमट्टिदिबंधो संछुहमाणो संछुद्धो ताधे। सम्मत्तस्स जहण्णो द्विदिसंकमो कस्स? समयाहियावलियचरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स। आउआणं जहण्णदिदिसंकमो कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयतब्भवत्थस्स । णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणपुवी-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणपुवी-एइंदियबीइंदिय-तीइंदिय-चरिदियजादि-आदावुज्जोव-थावर-सुहम-साहारणसरीराणं जहण्णट्ठिदिसंकमो कस्स ? अणियट्टिखवयस्स एदासि पयडीणमपच्छिमट्ठिदिखंडयस्स चरिमफालि संछुहमाणस्स । सेसाणं णामपयडीणं जहण्णट्ठिदिसंकमो कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्स । णीचुच्चागोदाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्स । एवं जहण्णट्ठिदिसंकमसामित्तं समत्तं । एयजीवेण कालो-पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-असाद-मिच्छत्त-सोलसकसायणवंसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं उक्कस्सट्ठिदिसकमो केवचिरं कालादो होदि? जह० जो अन्तिम समयप्रबद्ध के क्षेपण करनेके अन्तिम समयमें वर्तमान है। संज्वलन लोभका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जिसके अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष है। पुरुषवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है? वह पुरुषवेदके क्षपकके उस समय होता है जब निक्षिप्त किया जानेवाला अपना अन्तिम स्थितिबंध पूर्णतया निक्षिप्त हो जाता है। सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जिसके अन्तिम समयवर्ती अक्षीण दर्शनमोह होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष है। आयु कर्मोंका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जिसके अन्तिम समयवर्ती तद्भवस्थ होने में एक समय अधिक आवली मात्र शेष है। नरकगति, नरकगतिप्रायोम्यानपूर्वी, तिर्यग्गति तिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आतप, उद्योत, स्थावर सूक्ष्म और साधारणशरीर; इनका जघन्य स्थिति संक्रम किसके होता है ? वह इन प्रकृतियोंके अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिका निक्षेप करनेवाले अनिवृत्तिकरण क्षपकके होता है। शेष नामप्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोगीके होता है । नीच और ऊंच गोत्रका जघन्य स्थितिसंक्रमण किसके होता है। वह अन्तिम समयवर्ती सयोगीके होता है । इस प्रकार जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामित्व समाप्त हुआ। __ एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है-पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साके उत्कृष्ट स्थिति 0 कोहसंजलणस्स जहण्णट्ठिदिसंकमो कस्स ? खवयस्स कोहरजलणस्ल अपच्छिमट्ठिदिबंधचरिमसमयसंछहमाणस्स तस्स जहण्णयं । एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । लोभसंजलस्स जहण्णट्रिदिसंकमो कस्स? आवलियसमयाहियसकसायस्स खवयस्स। क. पा. सु. पृ. ३२१,६४-६८. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो ( ३५५ एगसमओ, उक्क० अंतमहुतं । पंचणाणावरण-णवदंसणावरण-मिच्छत्त- सोलसकसायअसादावेदणीयाणं अणुक्कस्सट्ठिदिसंकमो जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अधवा, मदि-सुदआवरणाणमणुक्कस्सट्ठिदिसंकमकालो एगसमयमादि कावण जाव असंखे ० पोग्गलपरियट्टमेत्तो । कुदो ? मदि-सुदआवरणाणं संखेज्जपयडीसु अण्णदरपयडीए उक्कस्सट्टिदि बंधिदृण बिदियसमए सव्वासिमणुक्कस्सट्ठिदि बंधिय तदियसमए अवरा पयडीए उक्कस्सट्ठिदि बंधिय आवलियादीदं संकममाणस्स अणुक्कसद्विदीए एगादिसमयकालुवलंभादो । अरदि-सोग-भय-दुगंछा - णवुंसयवेदाणं अणुक्कसिंकमकालो जह० एयसमओ, उक्क ० अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टा । इत्थि - पुरिसवेद-साद-हस्स रदीणं उक्कस्सट्ठि दिसंकमकालो जह० एमओ, उक्क० आवलिया । अणुक्कस्सट्ठिदिसंकमकालो जह० एयसमओ, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । णवरि सादस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखे ० पोग्गलपरियट्टा । देव- णिरयाउआणं उक्कस्सट्ठिदिसंकमो णिसेयट्ठिदिगो णियमा अंतोमुहुत्तो । अक्सट्ठि दिसंकमो देव- णिरयाउआणं # जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि संक्रमका काल कितना है? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अंतर्मुहूर्त मात्र है। पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय और असातावेदनीयके अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । अथवा मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणके अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका काल एक समयको आदि करके असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र तक है । इसका कारण यह है कि मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणकी संख्यात प्रकृतियों में अन्य प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर, द्वितीय समय में सब प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट स्थितिको बांधकर, तृतीय समय में अन्य प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर आवलिकातीत उसका संक्रमण करनेवालेके अनुत्कृष्ट स्थितिका एक आदि समय रूप काल पाया जाता है । अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन रूप अनन्त काल मात्र है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, असातावेदनीय, हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थिति के संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवली मात्र है । इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल है । विशेष इतना है कि सातावेदनीयका उक्त काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गल - परिवर्तन मात्र है । देवायु और नारका की उत्कृष्ट स्थिति के संक्रमकाल निषेकस्थितिस्वरूप है जो नियम से अन्तर्मुहूर्त मात्र है। देवायु और नारकायुकी अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रमका काल जघन्यसे अंतर्मुहूर्त अप्रतौ ' आवलियाए' इति पाठ: । 'णिसेयठ्ठिदिजो (गो)' इति पाठः । अ-काप्रत्योः 'णिसेयठ्ठिदि जो ताप्रतौ अती 'णिरया आणं' इति पाठः । " Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म सादिरेयाणि । मणुस-तिरिक्खाउआणं णिसेयट्टिदिगो उक्कस्सटिदिसंकमो जह० उक्कस्सेण च अंतोमुहुत्तं । अणुक्कस्सटिदिसंकमो जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । उक्कस्सटिदि बंधमाणगो जाओ णामपयडीओ बंधदि तासि उक्कस्सट्ठिदिसंकमकालो जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक्कस्सटिदिसंकमकालो जह. अंतोमु० उक्क० अणुवेल्लिज्जमाणियाणं असंखे० पोग्गलपरियट्टा, उद्वेल्लिज्जमाणियाणं बेसागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि । जासिं णामपयडीणमुक्कस्सटिदिसंकमो बीसं सागरोवमकोडाकोडीओ तीहि आवलियाहि ऊणाओ तासि पयडीणमुक्कस्सट्टिदिसंकमकालो जह० एगसमओ, उक्क० एगावलिया। अणुक्कस्सटिदिसंकमकालो जह० अंतोमुत्तं, उक्क० अणुव्वेल्लिज्जमाणियाणं असंखे० पोग्गलपरियट्टा, उव्वेल्लिज्जमाणियाणं बेसागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि । आहारसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघादाणं उक्कस्सटिदिसंकमकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अणुक्कस्सट्ठिदिसंकमकालो जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। तित्थयरणामाए उक्कस्सछिदिसंकमकालो जहण्णुक्क० एगसमओ। अणुक्कस्सटिदिसंकमकालो जह० संखेज्जवाससहस्साणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है। मनुष्यायु और तिर्यगायुकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल निषेकस्थिति स्वरूप है जो जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्महर्त मात्र है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक तीन पल्योपम मात्र है । उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाला जीव जिन नाम प्रकृतियोंको बांधता है उनकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अनुढेल्यमान प्रकृतियोंका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन तथा उद्वेल्यमान प्रकृतियोंका साधिक दो हजार सागरोपम है। जिन नामप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम तीन आवलियोंसे हीन बीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है उन प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक आवली मात्र है । उनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अनुढेल्यमान प्रकृतियोंका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन तथा उद्वेल्यमान प्रकृतियोंका साधिक दो हजार सागरोपम है। आहारशरीर तथा उसके अंगोपांग, बन्धन और संघातकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कृष्ट से एक समय मात्र है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है । तीर्थंकर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे संख्यात हजार वर्ष और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है । 8 अ-काप्रत्योः ‘णिसेयट्ठिदीजो', ताप्रती 'णिसेय ढदिजो ' इति पाठः। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाणुयोगद्दारे द्विदिसंकमो ( ३५७ सादिरेयाणि । उच्चागोदस्स उक्कस्सट्ठिदिसंकमकालो जह० एगसमओ, उक्क० आवलिया । णीचागोदस्स जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । उच्च णीचागोदाणं अणुक्कस्सट्ठि दिसंकमकालो जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखे० पोग्गलपरियट्टा । एवमुक्कस्सकालो समत्तो । जहणट्ठदिसंकमकालो । तं जहा- पंचणाणावरणीय णवदंसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त- सोलसकसाय णवणोकसाय- पंचंतराइयाणं जहण्णट्ठिदिसंकमकालो जहणुक्क एगसमओ । अजहण्ण # ट्ठिदिसंकमकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो वा । णवरि सोलसकसाय - णवणोकसायाणं अजहण्णस्स तिणि भंगा। जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क उवड्ढपोग्गलपरिय । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णट्ठिदिसंकमकालो जहण्णुक्क० एगसमओ । अहणट्ठि दिसंकमकालो दोष्णं पि जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० बेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । चटुण्णमाउआणं जहणट्ठिदिसंकमकालो जहण्णुक्क० एगसमओ । अजहण्णट्ठिदिसंकमकालो देव- णिरयाउआणं जह० दसवस्ससहस्साणि सादिरेयाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोमाणि साहियाणि । मणुस - तिरिक्खाउआणं अजहण्णद्विदिसंकमकालो जह० उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति के संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवली मात्र है | नीचगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त मात्र है । उच्चगोत्र और नीचगोत्रकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ । जघन्य स्थिति के संक्रमकालकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय और पांच अन्तराय; इनकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल अनादि- अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित भी है । विशेष इतना है कि सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अजघन्य स्थिति संबंधी संक्रमकाल के तीन भंग हैं । उनमें जो सादि सपर्यवसित है वह जघन्यसे अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से उपाधं पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्ष से एक समय मात्र है । अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल दोनों का ही जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छ्यासठ सागरोपम मात्र है । चार आयु कर्मोंकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है । अजघन्य स्थिति के संक्रमका काल देवायु और नारकायुका जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है । मनुष्यायु और तिर्यंच आयुकी अजघन्य स्थिति के अावसाए पयडीणं जहण्णद्विदिसंकमकालो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । वरि इत्थि - णवंसयवेद छण्णोकसायाणं जगणद्विदिसंकमकालो केवचिरं कालादो होदि ? जहष्णुक्कस्सेण अंतत्तं । क. पा. सु. पृ. ३२२, ७८-८१. * अ-काप्रत्योः ' जहण्ण' इति पाठः । प्रतिषु जण इति पाठः । Jain Education Iremation Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ) छक्खंडागमे संतकम्म एगसमी, अंतोमुहत्तं । कुदो मणुसाउअस्स एगसमओ? आउए आवलियाए असंखे० भागेणाहियदोआवलियावसेसे आउअस्स विणट्ठोकड्डणसंकमे अप्पमत्ते दुसमयाहियवलियावसेसपमत्तगुणं पडिवण्णे कयएगसमय अजहण्णसंकमे बिदियसमए जहण्णसंकमुवलंभादो। उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि। णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणपुव्वी-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणपुव्वीएइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय--चरिदियजादि-आदावुज्जोव-थावर-सुहम-साहारणसरीरणामाणं जहण्णट्ठिदिसंकमकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अजहण्णढिदिसंकमकालो अणुव्वेल्लिज्जमाणियाणं अणादियो अपज्जवसिदो अणादियो सपज्जवसिदो वा । उव्वेल्लिज्जमाणियाणं अजहण्णटिदिसंकमकालो जहण्णण अटुवस्साणि सादिरेयाणि, उक्क० बेसागरोवमसहस्साणि साहियाणि । वृत्तसेसाणं णामपयडीणं जहण्णदिदिसंकमकालो जहण्णुक्क० एयसमओ। उव्वेल्लिज्जमाणियाणं अजहण्णट्ठिदिसंकमकालो जह० अटुवस्साणि सादिरेयाणि । उक्कस्सेण मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं असंखेज्जपोग्लगपरियट्टा, देवगइ-देवगइपाओ संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त मात्र है। शंका--- मनुष्यायुका एक समय मात्र उक्त काल कैसे बनता है ? समाधान-- कारण यह कि आयु में आवलीके असंख्यातवें भागसे अधिक दो आवली कालके शेष रहनेपर जिसके आयुका अपकर्षण व संक्रम नष्ट हो चुका है ऐसे अप्रमत्तसंयतके दो समय अधिक आवली मात्र शेष प्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त होकर एक समय अजघन्य संक्रमके करनेपर द्वितीय समयमें जघन्य संक्रम पाया जाता है । ___ उनकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल उत्कर्षसे साधिक तीन पल्योपच मात्र है । नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीर नामकर्मोकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। अजघन्य स्थिति संक्रमका काल अनुद्वेल्यमान प्रकृतियोंका अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित भी है। उद्वेल्यमान प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे साधिक आठ वर्ष और उत्कर्षसे साधिक दो हजार सागरोपम मात्र है। उपर्युक्त प्रकृतियोंके अतिरिक्त जो शेष नामप्रकृतियां हैं उनकी जघन्य स्थिति के संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। उद्वेल्यमान प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे साधिक आठ वर्ष मात्र है। उत्कर्षसे वह मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन तथा देवगति, देवगतिप्रायोग्यानपूर्वी, वैक्रियिक Xअ-का-मप्रत्योः ‘संकमो', ताप्रतो 'संकमो ( मे )' इति पाठः । * अ- काप्रत्योः 'पडिवण्णो कयएगसमय', ताप्रतौ 'पडिवण्णी (णे) क (ए) यसमय' इति पाठः। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो ( ३५९ ग्गाणुपुव्वीणं वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं च बेसागरोवमसहस्साणि साहियाणि । आहारसरीर-आहारसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं जह० अंतोमुत्तं, उक्क० पलिदोवमस्स असंखे० भागो। तित्थयरणामाए जहण्णट्ठिदिसंकमकालो जहण्णुक्क० एगसमओ। अजहण्णहिदिसंकमकालो जह० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सेसाणं कम्माणं अजहण्णछिदिसंकमकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो वा। उच्च-णीचगोदाणं जहण्णट्ठिदिसंकमकालो जहण्णुक्क० एगसमओ। अजहण्णट्ठिदिसंकमकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो वा। णवरि उच्चागोदस्स अजहण्णट्ठिदिसंकमकालो जह० अट्ठवस्साणि सादिरेयाणि, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। एवं कालो सपत्तो।। एगजीवेण उक्कस्संतरं- मदि-सुदआवरणाणं उक्कस्सटिदिसंकामयंतरं जह• एगसमओ, उक्क० असंखे० पोग्गलपरियट्टा। तिण्णिणाणावरण-णवदंसणावरण-सादासाद-मिच्छत्तसोलसकसाय--णवणोकसयाणमुक्कस्सटिदिसंकामयंतरं० जह० अंतोमुहुत्तं उक्क० असंखे०पोग्गलपरियट्टा। णवरि णवणोकसायाणं उक्कस्सट्ठिदिसंकामयंतरं* जह० एग शरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकबन्धन और वैक्रियिकसंघातका साधिक दो हजार सागरोपम मात्र है । आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग, आहारकबन्धन और आहारकसंघातका उक्त काल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त व उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। तीर्थंकर नामकर्मकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है । उसकी अजघन्य स्थिति के संक्रमका काल जघन्यसे संख्यात हजार वर्ष और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। शेष कर्मोंकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित भी है। उच्च और नीच गोत्रकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। उनकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल अनादि-अपर्यवसित और अनादिसपर्यवसित भी है। विशेष इतना है कि उच्चगोत्रकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे साधिक आठ वर्ष और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। इस प्रकार कालप्ररूपणा समाप्त हुई। एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी संक्रमके अन्तरकालकी प्ररूपणा की जाती है- मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । शेष तीन ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। विशेष इतना है कि नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल 0 अप्रतौ 'समयंतरं' काप्रतौ 'सामयंतरं' इति पाठः । अप्रतो 'समयंतरं', ताप्रती 'सं० अंतरं' इति पाठः । Jain Education Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ) छक्खंडागमे संतकम्म समओ। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्सटिदिसंकामयंतरं जह० अंतोमहत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें। पंचतराइयाणं उक्कस्सद्विदिसंकामयंतरं जह० अंतोमहत्तं, उक्क० असंखे० पोग्गलपरियट्टा। देव-णिरयाउआणं उक्क० टिदिसंकामयंतरं जह० अंतोमुत्तं। उक्क० देवाउअरस उवड्ढपोग्गलपरियट्टं णिरयाउअस्स असंखे० पोग्गलपरियट्टा । जििद पडुच्च देवणिरयाउआणं उक्कस्सटिदिसंकामयंतरं जह० समऊणपुव्वकोडी दसवस्ससहस्साणि च, उक्क० तं चेव। मणुस-तिरिक्खाउआणं उक्कस्सद्विदिसंकामयंतरं जह० अंतोमहत्तं, उक्क० असंखे० पोग्गलपरियट्टा। जििद २ पडुच्च जह० पुवकोडी समऊणा। उक्कस्संतरं तं चेव । उक्कस्सदिदि बंधमाणो जाओ णाम पयडीओ बंधदि तासि णामपयडीणं उक्कस्सढिदिसंकामयंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखे० पोग्गलपरियट्टा । सेसागं णामपयडोणं उक्कस्सटिदिसंकामयंतरं जह०एयसमओ, उक्क० असंखेन्पोग्गलपरियट्टा। आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंग-बंधण-सांघादाणं उक्कस्सट्ठिदिसंकामयंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियट्टं। तित्थयरणामाए उक्कस्स डिदिसंकामयंतरं णत्थि । जघन्यसे एक समय मात्र है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। पांच अन्तराय कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र है। देवायु और नारकायुकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है। उत्कर्षसे वह देवायुका उपाधं पुद्गल परिवर्तन तथा नरकायुका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। जस्थितिकी अपेक्षा देवायु और नरकायुकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय कम एक पूर्वकोटि और दस हजार वर्ष तथा उत्कर्षसे भी उतना मात्र ही है। मनुष्याय और तिर्यगायुकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। जस्थितिकी अपेक्षा वह जघन्य से एक समय कम पूर्वकोटिप्रमाण है । उत्कृष्ट अन्तरकाल भी उसका वही है। उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाला जीव जिन नामकर्मकी प्रकृतियोंको बांधता है उन प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तर जघन्यसे अन्तर्महर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। शेष नामप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । आहारशरीर, आहारशरीरांगोपांग. आहारक शरीरबंधन और आहारकशरीरसंघातकी उत्कष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। तीर्थकर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल सम्भव नहीं है। ४ ताप्रती 'जं ट्ठिदि ' इति पाठः । * अप्रतौ — सुणाम' इति पाठः । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो ( ३६१ उच्च-णीचागोदाणं उक्क० द्विदिसंकामयंतरं जह० अंतोमहत्तं, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवमेयजीवेण उक्कस्सद्विदिसंकामयंतरं समत्तं । जहण्णट्ठिदिसंकामयंतरं । तं जहा- आउअवज्जाणं कम्माणं जहण्णट्ठिदिसंका-- मयंतरं णत्थिई । देव-णिरयाउआणं जहण्णदिदिसंकामयंतरं जह० दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि, उक्क० पंयडिअंतरं। तिरिवख-मणुस्साउआणं जह० टिदि० अंतरं जहणेण खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्क० पयडिअंतरं । अणंताणुबंधीणं जह० द्विदि० अंतरं । जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । अवसेसाणं. पयडीणं अजहण्णढिदिसंकामयंतरस्स पयडिअंतरभंगो । एवं जहण्णढिदिसंकामयंतरं समत्तं । णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो उक्कस्सपदभंगविचओ जहण्णपदभंगविचओ * चेदि । तत्थ अट्ठपदं । तं जहा- जो उक्कस्सियाए द्विदीए संकामी सो अणुक्कस्सियाए ट्ठिदीए असंकामओ । जो अणुक्कस्सियाए ट्ठिदीए संकामओ सो उक्कस्सियाए द्विदीए असंकामगो। जेसि पयडिसंतमत्थि तेसु पयदं, जेसि णत्थि तेहि अव्ववहारो। एदेण अट्ठपदेण णाणावरणस्स उक्कस्सियाए द्विदीए सिया सव्वे जीवा असंकामया, ऊंच और नीच गोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तर समाप्त हुआ। जघन्य स्थितिके संक्रामकके अन्तरकालकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- आय कर्मोको छोडकर शेष कर्मोकी जघन्य स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल सम्भव नहीं है। देवायु और नारकायुकी जघन्य स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे प्रकृतिसंक्रमके अन्तरके समान है। तिर्यगायु और मनुष्यायुकी जघन्य स्थितिके संक्रामकका अन्तर जघन्यसे एक समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे प्रकृतिसंक्रामकके अन्तर जैसा है। अनन्तानुबन्धी कषायोंकी जघन्य स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। शेष प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल प्रकृतिसंक्रामकके अन्तर जैसा है। इस प्रकार जघन्य-स्थिति-संक्रामकके अन्तरकी प्ररूपण समाप्त हुई । नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकार है-- उत्कृष्ट पदविषयक भंगविचय और जघन्य पदविषयक भंगविचय । उनमें अर्थपद इस प्रकार है- जो उत्कृष्ट स्थितिका संक्रामक होता है वह अनुत्कृष्ट स्थितिका असंक्रामक होता है। जो अनुत्कृष्ट स्थितिका संक्रामक होता है वह उत्कृष्ट स्थितिका असंक्रामक होता है। जिन प्रकृतियोंका सत्त्व है वे यहां प्रकृत हैं जिनका सत्त्व नहीं है वे यहां अव्यवहार्य हैं। इस अर्थपदके अनुसार ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट, ४ एत्तो जहगणयमंतरं । सव्वासि पयडीणं णत्थि अंतरं । क. पा. सु. पृ. ३२२, ८४-८५. * अप्रती 'ठुिदिअंतरे' इति पाठः। 8 त्ररि अगंगाणुबंधीणं जहण्णढिदिसंकामयतर जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियढें । क. पा. सु. पृ. ३२२, ८६-८७. . अप्रतौ ' उवसेसाणं ' इति पाठः । * प्रतिषु 'जहण्णट्ठिदिभंगविचओ' इति पाठः। * अ-काप्रत्योः 'पदं' इति पाठः। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३६२) छक्खंडागमे संतकम्म 'सिया असंकामया च संकामओ च , सिया असंकामया च संकामया च, एवं तिण्णिभंगा। अणुक्कस्सियाए द्विदीए सिया सव्वे जीवा संकामया, सिया संकामया च असंकामओ च, सिया संकामया च असंकामया च । एवं सव्वासि पयडीणं णाणाजीवेहि भंगविचओ णाणावरणस्सेव णेयव्वो। ___ जहण्णपदभंगविचयस्स उक्कस्सपदभंगविचयभंगो*। णवरि तिरिवखाउअस्स जहण्णाजहण्णट्टिदिसंकामया णियमा अस्थि । णाणाजीवेहि कालो। तं जहा-- सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णिरयाउअस्स च जट्टिदिसंकामओ त्ति कादूण उक्कस्सट्टिदिसंकमकालो जह० एगसमओ, उक्क आवलि. 'असंखे० भागो। मणुस्स-तिरिक्ख-देवाउआणं आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगबंधण-संघाद-तित्थयराणं उक्कस्सटिदिसंकमकालो जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया। सेसाणं कम्माणं उक्कस्सद्विदिसंकमकालो जह० एगसमओ, उक्क० पलिदोवमस्स असंखे० भागो। सव्वकम्माणं पि अणुक्कस्सटिदिसंकमकालो सव्वद्धा । णाणाजीवेहि जहण्णट्ठिदिसंकमकालो। तं जहा-णिरय-मणुस-देवाउआगं अणंताणु 'स्थितिके कदाचित् सब जीव असंक्रामक होते हैं, कदाचित् बहुत असंक्रामक और एक संक्रामक होता है, कदाचित् बहुत असंक्रामक और बहुत संक्रामक होते हैं। इस प्रकारसे यहां तीन भंग हैं। ज्ञानावरणकी अनुत्कृष्ट स्थितिके कदाचित् सब जीव संक्रामक होते हैं, कदाचित् बहुत संक्रामक और असंक्रामक होता है, कदाचित् बहुत संक्रामक और बहुत असंक्रामक भी होते हैं। इस प्रकार नाना जीबोंकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंके भंगविचयको ज्ञानावरणके समान ही ले जाना चाहिए। जघन्य पदभंगविचयकी प्ररूपणा उत्कृष्ट पदभंगविचयके समान है । विशेष इतना है कि तिर्यगायुकी जघन्य व अजघन्य स्थितिके संक्रामक निमयसे बहुत है। नाना जीवोंकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और नारकायुकी जस्थितिके संक्रामक हैं, इस कारण उनकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमकाल जघ से आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है। मनुष्याय, तिर्यगाय, देवाय आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग, आहारकबन्धन, आहारकसंघात और तीर्थंकर; इनकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र है। शेष कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। सभी कर्मोंका अनुत्कृष्ट स्थितिका संक्रमकाल सर्वकाल है। नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य स्थितिके संक्रमकालकी प्ररूपणा की जाती है। यथानारकायु, मनुष्यायु, देवायु और अनन्तानुबन्धी कषायोंकी जघन्य स्थितिका संक्रमकाल : ताप्रतौ 'असंकामओ च संकामया च ' इति पाठः । * प्रतिष 'विचयपदभंगो' इति पाठः। । सव्वासि पयडीणमुक्कस्सटिदिसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण एयसमओ। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमुकास्सट्रिदिसंकमो केवचिरं कालादो होदि? जहण्णण एयसमओ। उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। क. पा. सु. ५. ३२३, ९४-९९. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं माणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो ( ३६३ बंधी च जहण द्विदिसंकमकालो जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे भागो * । तिरिक्खाउअस्स जहण्णट्ठि दिसंकामया केवचिरं० ? सव्वद्धा । परभवियं पडुच्च आवलि० असंखे० भागो । सेसाणं कम्माणं जह० ट्ठिदिसंकामया केवचिरं ? जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । सव्वकम्माणं पि अजहण्णट्ठिदिसंकामया केवचिरं ? सव्वद्धा । एवं णाणाजीवेहि कालो समत्तो । णाणाजीवेहि अंतरं । तं जहा - णिरयाउअस्स उक्कस्सट्ठि दिसंकामयंतरं जट्ठिदिसंकामया त्ति जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । पंचणाणावरणणवदंसणावरण-सादासाद - - सोलस कसाय - णवणोकसाय - मणुस - - तिरिक्ख --- देवाउआणं मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं सव्वासि णामपयडीणं उच्च-णीचगोद-पंचंतराइयाणं च उक्कस्सट्ठिदिसं कामयंतरं जह० एगसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे ० भागो । जीवेहि जट्ठिदिसंकामयंतरं । तं जहा - पंचणाणावरण-णवदंसणावरणसादासाद-मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामिच्छत्त- अट्ठकसाय - छण्णोकसाय -- लोहसंजलणाणंसव्वासि णामपडीणमुच्च णीचागोद-पंचंतराइयाणं च जह० ट्ठिदिसंकामयंतरं णाणाजीवे पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा | अनंताणुबंधि जह० ट्ठिदिसंकामयंतरं जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है । तिर्यगायुकी जघन्य स्थिति के संक्रामकों का कितना काल है ? सर्वकाल है । परभविककी अपेक्षा वह आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है । शेष कर्मोंकी जघन्य स्थितिके संक्रामकों का कितना काल है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से संख्यात समय मात्र है । सभी कर्मोंकी अजघन्य स्थिति के संक्रामकोंका काल कितना है ? सर्वकाल है । इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा समाप्त हुई । नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है । यथा - नारकायुकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका अन्तर, जस्थितिके संक्रामक रहनेके कारण जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, मनुष्यायु, तिर्यगायु, देवायु, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सब नामप्रकृतियां, उच्चगोत्र, नीचगोत्र और पांच अन्तराय; इनकी उत्कृष्ट स्थिति के संक्रामकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका अन्तर इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, आठ कषाय, छह नोकषाय, संज्वलनलोभ, सब नामप्रकृतियां, उच्चगोत्र, नीचगोत्र और पांच अन्तराय ; इनकी जघन्य स्थिति के संक्रामकोंका अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से छह मास प्रमाण होता है । अनन्तानुबन्धी कषायोंकी जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका अन्तर वरि अनंताणुबंधीणं जहण्णट्ठिदिसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एयसमओ । उक्कस्सेण आवलिया असंखेज्जदिभागो । क. पा. सु. पू. ३२४, १०४ - ६. ॐ मप्रतौ ' सव्वसव्वद्धा ' इति पाठः । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म जह० एगसमओ, उक्क० चदुवीसमहोरत्ताणि सादिरेयाणि । तिसंजलण-पुरिसवेदाणं जह० एयसमओ, उक्क० वस्सं सादिरेयं । इस्थि-णवंसयवेदाणं जह० एगसमओ, उक्क० बासपुधत्तं । तिरिवखाउअस्स णत्थि अतरं। तिण्णमाउआणं जह० एगसमओ, उक्क० बारस मुत्ता। एवमंतरं समत्तं । __ अप्पाउहुअं- उक्क० मणुस-तिरिक्खाउआणं जाओ द्विदीओ संकामिज्जति ताओ थोवाओ। जट्टिदीयो विसेसा०* । देव-णिरयाउआणं जाओ द्विदीयो संकामिज्जति* ताओ संखेज्जगुणाओ। जद्विदीओ विसेसाहियाओ। आहारसरीर० संखेज्जगुणाओ। जट्टिदीओ विसे । देव-मणुसगइ-जस कित्ति-उच्चागोदाणं जाओ द्विदीओ संकामिज्जति ताओ संखे० गुणाओ। जहिदीयो विसे० । गिरय-तिरिक्खगइ-अजसकित्ति-चदुसरीरणीचागोदाणं जाओ द्विदीओताओतत्तियाओ चेव। जद्विदीयो विसेसाहियाओ। सादस्स जाओ द्विदीओ ताओ विसेसाहियाओ। जट्ठिदीयो विसे० ओ। पंचणाणावरण-णवदंसपावरण-असाद-पंचंतराइयाणं जाओ द्विदीओ ताओ तत्तियाओ चेव। जट्टिदीयो विसे० ओ० । णवणोकसायाणं जाओ द्विदीयो ताओ विसे० ओ। जद्विदीयो विसे० ओ। जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक चौबीस दिन-रात्रि प्रमाण होता है। तीन संज्वलन कषाय और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक एक वर्ष मात्र होता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उक्त अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व मात्र होता है। तिर्यगायुका वह अन्तर सम्भव नहीं है। शेष तीन आयु कर्मोंका उक्त अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे बारह मुहूर्त मात्र होता है। इस प्रकार अन्तरका कथन समाप्त हुआ। अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है- उत्कर्षसे मनुष्यायु और तिर्यगायुकी जो स्थितियां संक्रमणको प्राप्त होती हैं वे स्तोक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। देवायु और नारकायुको जो स्थितियां संक्रमणको प्राप्त होती हैं वे उनसे संख्यातगुणी हैं। जस्थितियां विशेष अधिक है। आहारशरीरकी संक्रमण को प्राप्त होनेवाली स्थितियां संख्यातगुणी हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं। देवगति, मनुष्यगति, यशकीति और उच्चगोत्रकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे संख्यातगुणी हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। नरकगति, तिर्यग्गति, अयशकीर्ति व चार शरीर नामकर्मोकी तथा नीच गोत्रकी जो स्थितियां संक्रमणको प्राप्त होती हैं वे उतनी मात्र ही हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। सातावेदनीयकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पांच अन्तराय; इनकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे उतनी मात्र ही हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। नौ नोकषायोंकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। ४ अप्रतौ 'अप्पाबहुअ०' इति पाठः। * अप्रतौ 'विसेसाहिओ' इति पाठः । * अप्रतौ 'संकामिजंत' इति पाठः । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो ( ३६५ सोलसणं कसायाणं जाओ द्विदीओ ताओ तुल्लाओ । जट्रिदीओ विसे० ओ। सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं जाओ द्विदीओ ताओ विसे० ओ। जद्विदीओ विसे० ओ। मिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ ताओ विसे० ओ । जद्विदीयो विसेसाहियाओ। णिरयगगईए रइएसु मणुस-तिरिक्खाउआणं जाओ द्विदीओ ताओ थोवाओ । जट्टिदीओ विसेसाहिओ । गिरयाउअस्स जाओ द्विदीओ ताओ असंखे० गुणाओ। जट्ठिदीओ विसे० ओ। आहारसरीरस्स जाओ द्विदीओ ताओ संखे० गुणाओ। जट्टिदीयो विसे० ओ। देवगईए जाओ द्विदीओ ताओ संखे० गुणाओ। जट्टिदी० विसे० । मणुसगइ-जसकित्ति-उच्चागोदाणं जाओ द्विदीओ ताओ विसे० । जट्ठिदीयो विसे० । णिरयगइ-बेउव्वियसरीर-णीचागोदओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-अजसकित्तीणं जाओ छिदीओ ताओ तत्तियाओ चेव। जट्ठिदीयो विसे० ओ। सादस्स जाओ द्विदीओ ताओ विसे० ओ। जद्विदीयो विसे । पंचणाणावरण-णवदंसणावरण-असाद-पंचंतराइयाणं जाओ द्विदीओ ताओ तत्तियाओ चेव । जट्ठिदीयो विसे० ओ। णवणोकसायाणं जाओ द्विदीओ ताओ विसे० ओ। जट्ठिदीयो विसे० ओ । सोलसकसायाणं जाओ ट्ठिदीओ ताओ तत्तियाओ चेव । जद्विदीयो विसे० । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जाओ द्विदीओ सोलह कषायोंकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे समान रूपसे तुल्य होकर उतनी मात्र ही हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं । सम्यक्त्व और सम्यांग्मथ्यात्वकी जो स्थितियां संक्रांत होती हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वकी जो स्थितियां संक्रांत होती हैं वे विशेष अधिक हैं । जस्थितियां विशेष अधिक है । नरकगतिमें नारकियोंमें मनुष्यायु और तिर्यगायुकी जो उक्त स्थितियां हैं वे स्तोक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक है। नारकायुकी जो उक्त स्थितियां हैं वे असंख्यातगुणी हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। आहारशरीरकी जो उक्त स्थितियां हैं वे संख्यातगणी हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं । देवगतिकी जो उक्त स्थितियां हैं वे संख्यातगुणी हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं। मनुष्यगति, यशकीर्ति और उच्चगोत्रकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। नरकगति, वैक्रियिकशरीर, नीचगोत्र, औदारिक, तैजस एवं कार्मणशरीर तथा अयशकीर्तिकी जो उक्त स्थितियां हैं वे उतनी मात्र ही हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं । सातावेदनीयकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं। पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पांच अन्तरायकी जो उक्त स्थितियां हैं वे उतनी मात्र ही हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। नौ नोकषायोंकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। सोलह कषायोंकी जो उक्त स्थितियां हैं वे उतनी मात्र ही हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं। सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी जो उक्त ४ अप्रतौ ' जाओ द्विदीयो', काप्रती 'ज० द्विदीयो' इति पाठः । ताप्रती — विसे० रखे० Jain Educ गुणाओ । णिरयगइ' इति पाठः। * अप्रती जपणद्विदीयो', का-ताप्रत्योः 'ज. ट्ठिदीयो' इति पाठः। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६) छक्खंडागमे संतकम्म ताओ विसे० ओ। जटिदीयो विसे० ओ। मिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ ताओ विसे० । जद्विदीयो विसेसा० । तिरिक्खगईए मणुस्साउअस्स जाओ द्विदीओ ताओ थोवाओ। तिरिक्खाउअस्स जाओ द्विदीओ ताओ विसे० ओ। दोण्णं जट्टिदीओ विसे० ओ। देवाउअस्स जाओ द्विदीओ ताओ संखे० गुणाओ। जट्टिदीयो विसे। णिरयाउअस्स जाओ द्विदीओ ताओ विसे०। जट्टिदी० विसे०। आहारसरीरस्स जाओ द्विदीओ ताओ संखेज्जगुणाओ। जट्ठिदीओ विसे० ओ। मणुसगइ-देवगइ-जसकित्ति-उच्चागोदाणं जाओ द्विदीओ ताओ संखे० गुणाओ। जट्ठिदीओ विसे । णिरयगइ-तिरिक्खगइ-चदुसरीरअजसकित्ति-णीचागोदाणं जाओ द्विदीओ ताओ तुल्लाओ। जट्ठिदीओ विसे० ओ। सादस्स जाओ द्विदीओ ताओ विसे० । जट्टिदीओ विसे० ओ । तीसियाणं जाओ द्विदीओ ताओ तत्तियाओ चेव, जट्ठिदीयो विमे० ओ। णवणोकसायाणं जाओ द्विदीओ ताओ विसे० ओ । जट्टिदीयो विसे० ओ । सोलसण्णं कसायाणं जाओ द्विदीओ ताओ तत्तियाओ चेव । जद्विदीयो विसे० ओ। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जाओ द्विदीओ ताओ विसे० ओ। जट्टिदीयो विसे० ओ। मिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ विसे० ओ। जट्ठिदी विसे० ओ। मणुस्सेसु देवेसु एइंदिएसु च एदेण बीजपदेण यन्वं । स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं । मिथ्यात्वकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। तिर्यंचगतिमें मनुष्यायकी जो स्थितियां संक्रमणको प्राप्त होती हैं वे स्तोक हैं । तिर्यगायुकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। दोनोंकी जस्थितियां विशेष अधिक हैं। देवायुकी जो उक्त स्थितियां हैं वे संख्यातगुणी हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं। नारकायुकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं । आहारशरीरकी जो उक्त स्थितियां हैं वे संख्यातगुणी हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। मनुष्यगति, देवगति, यशकीर्ति और उच्चगोत्रकी जो उक्त स्थितियां हैं वे संख्यातगुणी हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। नरकगति, तिर्यग्गति, चार शरीर, अयशकीर्ति और नीचगोत्रकी जो उक्त स्थितियां हैं वे तुल्य होकर उतनी मात्र ही हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं । सातावेदनीयकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। तीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण स्थितिवाले कर्मोकी जो उक्त स्थितियां हैं वे उतनी मात्र ही हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। नौ नोकषायोंकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। सोलह कषायोंकी जो उक्त स्थितियां हैं वे उतनी मात्र ही हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। मनुष्यों, देवों और एकेन्द्रियों में भी प्रकृतिअल्पबहुत्वकी इस बीजपदसे ले जाना चाहिये । ताप्रतौ नास्तीदं वाक्यम् । अप्रतौ द्विदीओ तत्तियाओ' इति पाठः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पर्याडिसंकमो ( ३६७ जहणण पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय-सम्मत्त - लोहसंजलण चत्तारिआउपंचतराइयाणं जह० द्विदिसंकमो एगा ट्ठिदी । जद्विदीओ असंखेज्जगुणाओ । णिद्दापलाणं जट्ठिदीओ संखे० गुणाओ । कुदो ? आवलि० असंखे० भाएणन्भहियदोआवलिय पमाणत्तादो। देवगइ वे उव्वियसरीर - आहारसरीर अजसकित्ति - णीचागोदाणं जाओ ट्ठिदीओ ताओ संखे० गुणाओ । मणुसगइ ओरालिय- तेजा - कम्मइयसरीरजसकित्ति उच्चागोदाणं जाओ द्विदीओ ताओ विसेसा० । सव्वासि जद्विदीयो विसेसा० । सादासादाणं जाओ द्विदीओ ताओ विसेसा० । जट्ठिदिसंकमो विसे० । मायासंजलण० जाओ द्विदीओ ताओ संखे० गुणाओ । जट्ठिदी विसे० । माणे विसे० । कोधे विसे० । पुरिस० संखे ० गुणाओ । छण्णोकसाय० संखे० गुणाओ । इत्थि णवंसयवेद० असंखे ० गुणाओ # । थोणगिद्धितियस्स जहण्णद्विदी असंखे० गुणा । णिरय-तिरिक्खगईणं असं० गुणाओ । अट्ठकसायाणं जाओ द्विदीओ ताओ असंखे० गुणाओ । सम्मामिच्छत्तस्स असंखे० गुणाओ । मिच्छत्तस्स असंखे० गुणाओ । अनंताणुबंधीणं असंखेज्जगुणाओ । सव्वासि जद्विदीयो विसे० ओ । रिगईए णिरयाउअस्स सम्मत्तस्स य जहण्णद्विदिसंकमो थोवो । जट्ठिदी असंखे ० जघन्य पदकी अपेक्षा पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सम्यक्त्व, संज्वलन लोभ, चार आयु और पांच अन्तराय; इनका जघन्य स्थितिसंक्रम एक स्थितिस्वरूप है । जस्थितियां असंख्यातगुणी हैं । निद्रा और प्रचलाकी जस्थितियां संख्यातगुणी हैं, क्योंकि, वे आवलीके असंख्यानवें भागसे अधिक दो आवली प्रमाण हैं । देवगति, वैक्रियिकशरीर, आहारशरीर, यशकीर्ति और नीचगोत्र इनकी जो जघन्य स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे संख्यातगुणी हैं । मनुष्यगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, यशकीर्ति और उच्चगोत्र इनकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं । सबकी जस्थितियां विशेष अधिक हैं । साता और असातावेदनीयकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं । जस्थितिसंक्रम विशेष अधिक है, संज्वलन मायाकी जो उक्त स्थितियां हैं वे संख्यातगुणी हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं । संज्वलन मानमें विशेष अधिक हैं । संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक हैं । पुरुषवेदकी संख्यातगुणी हैं। छह नोकषायोंकी संख्यातगुणी हैं । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उक्त स्थितियां असंख्यात गुणी हैं। स्त्यानगृद्धि आदि तीनकी जघन्य स्थिति असंख्यातगुणी है। नरकगति और तिर्यग्गतिको उक्त स्थितियां असंख्यातगुणी हैं । आठ कषायोंकी जो उक्त स्थितियां है वे असंख्यातगुणी हैं । सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणी हैं । मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणी हैं । अनन्तानुबन्धी कषा - योंकी संख्यातगुणी हैं। सबकी जस्थितियां विशेष अधिक हैं । नरकगति नारका और सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रम स्तोक है । जस्थिति असंख्यात - अप्रती 'भारणञ्चहियादोआव लिय ' ताप्रती 'मागेण भहियादो आवलिय' इति पाठः अप्रती 'जा' इति पाठः । अ-काप्रत्योः ' गुणा' इति पाठः । अ-काप्रत्योः अष्टकषान-सम्यग्मिथ्यात्व सम्बन्धि सन्दर्भोJain Educsयं त्रुटितोऽस्ति, मप्रतितः कृतसंशोधने च केवलमष्टकषाय सम्बन्धि सन्दर्भों योजितो न तु सम्यग्मिथ्यात्वसम्बन्धी । For Private & Personal Use Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ) छक्खंडागमे संतकम्म गुणा । मणुस-तिरिक्खाउआणं संखेज्जगुणाओ । जद्विदी विसे० । अणंताणुबंधीगं असंखेज्जगुणाओ। जट्ठिदीओ विसे । आहारसरीर० असंखे० गुणाओ। जट्ठिदीओ विसे० ओ। सम्मामिच्छत्तस्स असंखे० गुणाओ। देवगइ-णिरयगइ-वेउब्वियसरीर० असंखे० गुणाओ। उच्चागोदस्स विसे० ओ। मणुसगइ० विसे० ओ। जसकित्ति० विसे० । अजसकित्ति० विमे० ओ। तिरिक्खगई. विसे० ओ । ओरालिय-तेजाकम्मइय० विसे० । सादस्स० विसे० । सेसाणं तीसियाणं विसे० । पुरिसवेद० विसेसा० । इथिवेद० विसे । हस्स-रदि० विसे० । णवंसयवेद० विसे० । अरदिसोग० विसे० । भय-दुगुंछाणं जाओ द्विदीओ ताओ विसे० । बारसकसायाणं जाओ द्विदीओ ताओ विसे० । मिच्छत्तस्स विसे०। सव्वासि पि जट्ठिदीयो विसेसाहियाओ। तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु तिरिक्खाउअस्स सम्मत्तस्स य जो जहण्णढिदिसंकमो (सो) थोवो। जट्टिदिसंकमो असंखेज्जगुणो। मणुस्साउअस्स संखे० गुणाओ। देवाउअस्स णिरयाउअस्स य संखेज्जगुणाओ । अणंताणुबंधोणं असंखे० गुणाओ। णिरयगइ-देवगइ-मणुसगइ-वेउव्विय-आहारसरीर-उच्चागोदाणं जाओ द्विदीओ ताओ असंखे० गुणाओ। सम्मामिच्छत्तस्स० संखे० गुणाओ। जसकित्तीए असंखे० गुणा । अजस गित्तीए गुणी है । मनुष्यायु और तिर्यगायुकी प्रकृत स्थितियां संख्यातगुणी हैं। जस्थितियां विशेष अधिक है । अनन्तानुबंधी कषायोंकी असंख्यातगुणी हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं। आहारशरीरकी असंख्यातगुणी हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगणी हैं। देवगति, नरकगति और वैक्रियिकशरीरकी असंख्यातगणी हैं । उच्चगोत्रकी विशेष अधिक हैं। मनुष्यगतिकी विशेष अधिक हैं। यशकीर्तिकी विशेष अधिक हैं । अयशकीर्तिकी विशेष अधिक हैं। तिर्यंचगतिकी विशेष अधिक हैं। औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरकी विशेष अधिक हैं । सातावेदनीयकी विशेष अधिक हैं। शेष विशिक प्रकृतियोंकी विशेष अधिक हैं। पुरुषवेदकी विशेष अधिक हैं। स्त्रीवेदकी विशेष अधिक हैं। हास्य व रतिकी विशेष अधिक हैं । नपुंसकवेदकी विशेष अधिक हैं । अरति व शोककी विशेष अधिक हैं । भय और जुगुप्साकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक है। बारह कषायोंकी जो उक्त स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वकी जो उक्त स्थितियां हैं विशेष अधिक हैं। सभीकी जस्थितियां विशेष अधिक हैं। तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें तिर्यंचआयु और सम्यक्त्वका जो जघन्य स्थितिसंक्रम है वह स्तोक है । जस्थितिसंक्रम असंख्यातगणा है। मनुष्यायुकी उक्त स्थितियां संख्यातगुणी हैं। देवायु और नारकायुकी संख्यातगुणी हैं । अनन्तानुबंधी कषायोंकी असंख्यातगुणी हैं। नरकगति, देवगति, मनुष्यगति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर और उच्चगोत्रकी जो उक्त स्थितियां हैं वे असंख्यातगुणी हैं । सम्यग्मिथ्यात्वकी संख्यातगुणी हैं । यशकीर्तिकी असंख्यातगुणी हैं । अयशकीर्तिकी अप्रतौ 'सिमाग.', काप्रतौ 'तिसाणं', ताप्रतौ 'तस (तीसि ) याणं.', मप्रती 'तसयाणं.' इति पाठः। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो विसेसा० । तिरिक्खगई० विसे। णीचागोदस्स विमे० । ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीराणं विसे० । सादस्स० विसे० । सेसाणं तीसियाणं विसे० । पुरिसवेदस्स० विसे० । इथिवेदस्स विसे० । हस्स-रदीणं विसे० । अरदि-सोगाणं विसे० । णवंसयवेदस्स० विसे । भय-दुगुंछाणं० विसे० । बारसकसाय० विसेसा० । मिच्छत्तस्स विसे० । तरिक्खजोणिणीणं , एक्कम्हि पदे णाणत्तं- सम्मत्तस्स जहण्णढिदि० पलिदो० असंखे० भागो। उव्वेल्लमाणियाणं णामपयडीणं उवरि संखेज्जगुणो सम्मामिच्छतादो विसेसहीणो । एदं णाणत्तं । ओघभंगो मणुसगईए। णवरि तिसु आउएसु णाणत्तं । देवगईए णिरयगइभंगो। एत्तो भुजगारसंकमे अट्ठपदं भणियूण घेत्तव्वं । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सादासाद-मोहणिज्जाणं अत्थि भुजगार-अप्पदर-अवट्टियसंकमो, अवत्तव्वं णत्थि। णवरि अणंतागुबंधि-सम्मत्त--सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय--णवणोकसायाणं अवत्तव्वसंकमो अत्थि। चदुण्णमाउआणं अस्थि चत्तारि पदाणि । णामपयडीणं उव्वेल्लिज्जमाणियाणं तित्थयर-उच्चागोदाणं च अत्थि अवत्तव्वसंकमो। सेसाणं णामपयडीणं णीचागोदंतराइयाणं च णत्थि अवत्तव्वसंकमो। विशेष अधिक हैं। तिर्यंचगतिकी विशेष अधिक हैं। नीचगोत्रकी विशेष अधिक हैं। औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरकी विशेष अधिक हैं। सातावेदनीयकी विशेष अधिक हैं। शेष त्रिशिक प्रकृतियोंकी विशेष अधिक हैं। पुरुषवेदकी विशेष अधिक हैं। स्त्रीवेदकी विशेष अधिक हैं। हास्य व रतिकी विशेष अधिक हैं। अरति और शोककी विशेष अधिक हैं। नपुंसकवेदकी विशेष अधिक है। भय और जुगुप्साकी विशेष अधिक हैं। बारह कषायोंकी विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वकी विशेष अधिक हैं । तिर्यंच योनिमतियोंमें एक पदमें विशेषता है-- उनमें सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रम पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। उद्वेल्यमान नाम प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रम आगे सख्यात गुणा व सम्यग्मिथ्यात्वसे विशेष हीन है । यह यहां विशेषता है। मनुष्यगतिमें ओघके समान प्ररूपणा है । विशेष इतना है कि तीन आयुओंमें कुछ विशेषता है। देवगतिमें नरकगतिके समान प्ररूपणा है। यहां भुजाकारसंक्रममें अर्थपदको कह करके ग्रहण करना चाहिये । पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय और मोहनीय कर्मोंका भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित संक्रम होता है; अवक्तव्य संक्रन नहीं होता, विशेष इतना है कि अनन्तानुबन्धी, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषाय ; इनका अवक्तव्य संक्रम होता है । चार आयु कर्मोके चार पद हैं। उद्वेल्यमान नामप्रकृतियों, तीर्थंकर और उच्चगोत्रका अवक्तव्य संक्रम होता है। शेष नामप्रकृतियों, नीचगोत्र और अन्तरायका अवक्तव्यसंक्रम नहीं होता। अ-ताप्रत्योः ‘तिरिक्वजोणीणं' इति पाठः । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ) छक्खंडागमे संतकम्मं एयजीवेण कालो- पंचणाणावरणाणं भुजगारस्स कालो जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जाणि समय सहस्साणि । अप्पदरस्त जह० एगसमओ, उक्क० , बेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवट्ठियस्स जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । णवदंसणावरणाणं तिविहो जह० एगसमओ । उक्क० भुजगारस्स एक्कारस समया, सेसाणं णाणावरणभंगो । सादासाद-मिच्छत्ताणं भुजगारसंकमस्स जह० एगसमओ, उक्क० बे समया; अद्धासंकिलेसखयप्पणादो । अप्पदर - अवट्ठियाणं णाणावरणभंगो सोलसकसाय-णवणोकसायाणं भुजगारसंकमस्स जह० एगसमओ, उक्क० सत्तारस समया । सोलसकसाय-णवणोकसायाणमप्पदर अवट्टिदाणं णाणावरणभंगो । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं भुजगार अवट्ठिय- (अवत्तव्व) संकमाणं कालो जहष्णुक्क० एगसमओ । एदेसिमप्पदरस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० बेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि * । चदुण्णमाउआणमवदि-भुजगार संकमाणं कालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । पुव्व एक जीवको अपेक्षा कथन करते हैं- पांच ज्ञानावरण प्रकतियोंके भुजाकार संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से संख्यात हजार पमय है । अल्पतरका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से साधिक दो छ्यासठ सागरोपम मात्र है । अवस्थितका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अईर्मुहूर्त मात्र है। नौ दर्शनावरण प्रकृतियोंके तीन प्रकारके संक्रमका काल जघन्यसे एक समय मात्र है । उत्कर्षसे वह भुजाकारका ग्यारह समय और शेष दोका ज्ञानावरणके समान है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और मिथ्यात्वके भुजाकार संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से दो समय मात्र है; क्योंकि, अद्धाक्षय और संक्लेशक्षयकी प्रधानता है । इनके अल्पतर और अवस्थित संक्रमके कालकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके भुजाकारसंक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से सत्रह समय मात्र है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके अल्पतर और अवस्थित संक्रमके कालकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है । इनके अल्पतरसंक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छ्यासठ सागरोपम मात्र है । चार आयुकर्मोंके अवस्थित और भुजाकार संक्रमोंका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मिच्छत्तस्स भुजगार संकामगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण चतारिसमया । अप्पदरसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? जहणेणेयसमओ । उक्कस्सेण तेवद्विसागरोवमसत्रं सादिरेयं अवद्विदसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेणसमओ । उक्कस्सेणंतोमहुतं । क. पा. सु. पृ. ३२९, १५६-६४. * सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार अवद्विद अवत्तव्वसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? -- हक्क सेयसमओ । अप्पदरसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण बे छावसागरीवमाणि सादिरेयाणि । सेसाणं कम्माणं भुजगारसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहणेणेय - समओ । उक्कस्सेण एगूणवीस समया । सेसपदाणि मिच्छतभंगो । णवरि अवत्तव्वसंकामया जहष्णुक्कस्सेण एगसमओ । क. पा. सु. पृ. ३३०, १६५-७४. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाणुयोगद्दारे ट्ठदिसंकमो ( ३७१ बंधादो समउत्तरं पबद्धस्स जट्ठिदि पडुच्च जट्ठिदिसंकमो त्ति एत्थ घेत्तव्वं । देवणिरयाउआण अप्पदरसंकमस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । तिरिक्ख मणुस्साउआणं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । सव्वासि णामपडणं णाणावरणभंगो । आहारसरीर आहारसरीरंगोवंगबंधण-संघाद-तित्थयराणं भुजगार अवट्टियसंकमो णत्थि । तित्थयर अप्पदरसंकमस्स जह० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । आहारच उक्कस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क ० पलिदो० असंखे० भागो । पंचणं ( अंतराइयाणं) णाणावरणभंगो । णवरि भुजगारस्स संखेज्जा समया । एवं णीचुच्चागोदाणं । णवरि भुजगारस्त बे समया । एवं कालो समत्तो । एगजीवेण अंतरं कालादो : साधेवण णेयव्वो । णाणाजीवेहि भंगविचओ पंचणाणावरणीय णवदंसणावरणीय सादासाद-मिच्छत्त- सोलसकसाय-णवणोकसाय-तिरिक्खाउअ- एइंदियबंधपाओग्गणामपयडीणं णीचुच्चागोद- पंचंतराइयाणं च भुजगार - अप्पदरअवद्विदसं कामया जीवा णियमा अत्थि । चारित्तमोहणीयस्स अवत्तव्व० भजियव्वा । मात्र है । पूर्ब बन्धसे एक समय अधिक बांधे गये आयु कर्मका जस्थितिकी अपेक्षा यहां जस्थि - तिसंक्रम ग्रहण करना चाहिये । वेवायु और नारकायुके अल्पतर संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है । तिर्यंचआयु और मनुष्यायुके अल्पतर संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक तीन पत्योपम मात्र है । सब नामप्रकृतियोंके संक्रमकालकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग, आहारकबन्धन, आहारकसंघात और तीर्थंकर इनके भुजाकारसंक्रम और अवस्थित संक्रम नही होते । तीर्थंकर प्रकृतिके अत्पतरसंक्रमका काल जघन्यसे संख्यात [हजार वर्ष और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है । आहारचतुष्कके अल्पतरसंक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्पोपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। पांच ( अन्तराय ) प्रकृतियोंके संक्रमकालकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि उनके भुजाकार संक्रमका काल संख्यात समय मात्र है । इसी प्रकार नीचगोत्र और ऊंचगोत्रके संक्रमककालकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि उनके भुजाकारसंक्रमका काल दो समम मात्र है । इस प्रकार कालप्ररूपणा समाप्त हुई । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरको कालसे सिद्ध करके ले जाना चाहिये । नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयका कथन किया जाता है- पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यंचआयु, एकेन्द्रियके बन्ध योग्य नामप्रकृतियां, नीचगोत्र, ऊंचगोत्र और पांच अन्तराय; इनके भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामक बहुत जीव नियमसे हैं । चारित्रमोहनीयके अवक्तव्य संक्रामक भजनीय हैं। तीन Xxx अ-ताप्रत्योः ' आहारसरीरस्स' इति पाठः । Jain Education अप्रती ' अंतरकाले ', का ताप्रत्यो: of अंतरं कालो अप्रतो 'संखेज्जसमया' इति पाठः । इति पाठः । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ) छक्खंडागमे संतकम्म तिण्णमाउआणं एइंदियबंधिदपाओग्गणामपयडीणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं च भुजगार-अवट्ठिद-अवत्तव्वसंकामया भयणिज्जा। अप्पदरसंकामया णियमा अत्थि। ___णाणाजीवेहि कालो अंतरं च णाणाजीवभंगविचयादो साहेयव्वं । एत्तो अप्पाबहुअं-पंचणाणावरण-णवदंसणावरण-सादासाद-बावीसमोहणीयाणं (भुजगार)संकामया थोवा। अवट्टिदसंकामया असंखेज्जगुणा। अप्पदरसंकामया संखे० गुणा। सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं अवढिदसंकामया थोवा। भुजगारसंकामया असंखे० गुणा। अवत्तव्वसंकामया असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । अणंताणुबंधीणं अवत्तव्व० थोवा। भुजगार० अणंतगुणा। अवट्टिद० असंखे० गुणा । अप्पदर० संखे० गुणा । *णिरयाउअस्स अवट्टिय० थोवा । भुजगार० असंखे० गुणा । अवत्तव्व०० संखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा। एवं देव-मणुस्साउआणं । तिरिक्खाउअस्स अवत्तव्वसंकामया पदरस्स असंखे० भागो। अवट्ठियसंकामया सव्वजीवाणं पलिदो० आयुकर्म, एकेन्द्रियके बन्धयोग्य नामप्रकृतियों, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामक भजनीय हैं। इनके अल्पतर संक्रामक बहुत जीव नियमसे हैं। नाना जीबोंकी अपेक्षा काल और अन्तरको नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयसे सिद्ध करना चाहिये । यहां अलबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है-- पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय और बाईस मोहनीय प्रकृतियों के भुजाकार संक्रामक स्तोक हैं। इनके अवस्थित संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थित संक्रामक स्तोक हैं । भुजाकार संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। अवक्तव्य संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक असंख्यातगुण हैं। अनन्तानुबन्धी कषायोंके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं। भुजाकार संक्रामक अनन्तगणे हैं। अवस्थित संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतर संक्रामक संख्यातगुणे हैं । नारकायके अवस्थित संक्रामक स्तोक हैं। भुजाकार संक्रामक असंख्यातगणे हैं । अवक्तव्य संक्रामक संख्यातगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार देवायु और मनष्यायके कहना चाहिये। तिर्यंच आयके अवक्तव्य संक्रामक प्रतरके असंख्यातवें भाग हैं। अवस्थित संक्रामक सब जीवोंके पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रतिभाग रूप हैं। भुजाकार *णाणाजीवेहि भंगविचओ। मिच्छत्तस्स सव्वजीवा भुजगारसंकामगा च अप्पयरसंकामया च अवविदसंकामया च। सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं सत्तावीसभंगा। सेसाण मिच्छतभंगो। णवरि अवत्तव्वसंकामया भजियब्बा। क. पा. सु. पृ. ३३३, १९३-९७ . अ-काप्रत्योः 'अवत्त० संखे० गुणा', ताप्रतौ ' अवत्तब्व० असंखे० गुणा' इति पाठः। * सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अवट्ठिदसंकामया । भुजगारसंकामया असंखेज्जगुणा। अवतव्वसंकामया असंखेज्जगुण । अप्पयरसंकामया असंखेज्जगुणा । अणंतागुबधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्बसंकामया। भजगारसकामया अणंतगुणा। अवट्टिदसंकामया असंखेज्जगुणा। अप्पयरसंकामया संखेज्जगुणा। एवं सेसाणं कम्माणं । क. पा. सु पृ. ३३६, २२९-३७.* अ-का-ताप्रतिष्पलभ्यमानोऽयं नारकायु:सबंधी संदर्भो मप्रतितः कृतसंशोधने बहिष्कृतः। ताप्रतौ 'अप्पदर० (अवत्तव०) संखे' इति पाठः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो ( ३७३ असंखे० भागपडिभागो। भुजगारसंकामया सव्वजीवाणमंतोमुहुत्तपडिभागो। अप्पदरसंकामया सव्वजीवाणं असंखेज्जा भागा । एदेण अप्पाबहुअंतिरिक्खाउअस्स साहेयव्वं । णिरयगईए अवत्तव्वसंकामया थोवा । भुजगार० असंखे० गुणा । अवट्टिय० अप्पदर० असंखे० गुणा उज्वेलणकालसंचिदे पडुच्च । एवं देवगइणामाए। मणुसगइणामाए अवत्तव्व० थोवा । भुजागार० अणंतगुणा । अवट्ठिय० असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । तिरिक्खगइणामाए भुजगार० थोवा । अवट्ठिय० असंखे० गुणा । अप्पदर० संखे० गुणा । चदुण्णमाणुपुवीणं सग-सगगइभंगो । ओरालिय-तेजाकम्मइयाणं भुजगार० थोवा । अवट्टिय० असंखे गुणा । अप्पदर० संखे० गुणा । एवं अणादियसंतकम्मणामाणं । णीचागोद-पंचंतराइयाणं णाणावरणभंगो। उच्चागोदस्स मणुसगइभंगो । एवं भुजगारढिदिसंकमो समत्तो। पदणिक्खेवस्स टिदिउदीरणपदणिक्खेवभंगो। वढिसंकमो--पंचणाणावरणीयाणं असंखेज्जगुणहाणीए संकमाया थोवा । संखेज्जगुणहाणीए असंखे० गुणा । संखेज्जभागहाणीए संखे० गुणा । संखेज्जगुणवड्ढीए असंखे० गुणा। संखे० भागवड्ढीए संखे० गुणा । असंखे० भागवड्ढीए अणंतगुणा । अवट्ठिद० असंखे० गुणा । असंखे० भाग संक्रामक सब जीवोंके अन्तर्मुहूर्त प्रतिभाग रूप हैं । अल्पतर संक्रामक सब जीवोंके असंख्यात बहुभाग मात्र हैं। इससे तिर्यगायुके अल्पबहुत्वको सिद्ध करना चाहिये । ___ नरकगतिके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं । भुजाकार संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अवस्थित व अल्पतर संक्रामक उद्वेलनकालसंचितोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार देवगति नामकर्मके सम्बन्धमें अल्पबहुत्व कहना चाहिये । मनुष्यगति नामकर्मके अवक्तव्य कामक स्तोक हैं । भुजाकार संक्रामक अनन्तगुणे हैं । अवस्थित संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतर संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । तिर्यंचगति नामकर्मके भुजाकार संक्रामक स्तोक है । अवस्थित संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतर संक्रामक संख्यातगुणे हैं। चार आनुपूर्वी नामकर्मोंका अल्पबहुत्व अपनी अपनी गतिके समान है । औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरके भुजाकार संक्रामक स्तोक हैं। अवस्थित संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतर संक्रामक संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अनादिसत्कर्मिक नामप्रकृतियोंका अल्पबहुत्व है । नीचगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ज्ञानावरणके समान है । उच्चगोत्रका अल्पबहुत्व मनुष्यगतिके समान है। इस प्रकार भुजाकार स्थितिसंक्रम समाप्त हुआ। ___ यहां पदनिक्षेपकी प्ररूपणा स्थिति उदीरणा सम्बन्धी पदनिक्षेपके समान है । वृद्धिसंक्रमकी प्ररूपणा की जाती है - पांच ज्ञानावरण सम्बन्धी असंख्यात गुणहानिके संक्रामक स्तोक हैं । संख्यातगुणहानिके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । संख्यातभागहानिके संक्रामक संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणवृद्धिके संक्रामक असंख्यातगुणं हैं । संख्यातभागवृद्धिके संक्रामक संख्यातगुणे हे । असंख्यातभागवृद्धिके संक्रामक अनन्तगुणे हैं। अवस्थित संक्रामक असंख्यातगुण हैं । _Jain Education in ताप्रती ' असंखे० गुणबड्ढीए' इति पाठः । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ) छक्खंडागमे संतकम्मं हाणीए संखे० गुणा । एवं णवदंसणावरणीय सादासादाणं । एवं सेसाणं पि कम्माणं । णवरि सम्मत्त सम्मा मिच्छत्त चत्तारिआउआणं च चत्तारिवड्ढि - चत्तारिहाणीयो वत्तवाओ । एवं ट्ठिदिसंकमो समत्तो । अनुभागसंकमे पुव्वं गमणिज्जो कम्माणमादिफद्दयणिद्देसो- चत्तारिणाणावरणीय - - तिष्णिदंसणावरणीय - - चदुसंजलण -- णवणोकसाय -- पंचंतराइयाणि देसघादोणि* । सादासाद--आउच उक्क-सयलणामपयडि- उच्च -- णीचागोदाणि अघादिकम्माणि । एदेसिमघादिकम्माणं पुव्विल्लदेसघादिकम्माणं च आदिफद्द - याणि सरिसाणि । केवलणाणावरणीय-छदंसणावरणीय - बारसकसाय० सव्वघा - सव्वघादीणि इकम्माणि । एदेसि आदिफद्दयाणि परोप्परं सरिसाणि । दारुसमाणाणि देसघादीणमादिफद्दए हितो अनंतगुणाणि । सम्मत्तस्स आदिफद्दयं देघादीणमादिफद्दएण सरिसं । तदो पहुडि सम्मत्तफद्दयाणि देसघादि असंख्यात भागहानिके संक्रामक संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकारसे नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय और असातावेदनीयके सम्बन्ध में कथन करना चाहिये। इसी प्रकार शेष कर्मों के भी सम्बन्ध में कहना चाहिये । विशेष इतना है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और चार आयु कर्मोंकी प्ररूपणामें चार वृद्धियों और चार हानियोंको कहना चाहिये । इस प्रकार स्थितिसंक्रम समाप्त हुआ । अनुभाग संक्रमकी प्ररूपणा में पहिले कर्मोंके आदि स्पर्धकोंका निर्देश ज्ञात कराने योग्य है- चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, चार संज्वलन, नौ नोकषाय और पांच अन्तराय; ये देशघाती कर्म हैं । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार आयु, समस्त नामप्रकृतियां, उच्चगोत्र और नीचगोत्र; ये कर्मप्रकृतियां अघाती हैं । इन अघातिया कर्मोंके तथा पूर्वोक्त देशघाती कर्मों आदि स्पर्धक सदृश होते हैं । केवलज्ञानावरण, छह दर्शनावरण और बारह कषाय सर्वघाती कर्म हैं । इनके आदि स्पर्धक परस्परमें सदृश हैं । सर्वघाती कर्मोंके दारु समान स्पर्धक देशघाति कर्मोके आदि स्पर्धकों की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं । सम्यक्त्व प्रकृतिका आदि स्पर्धक देशघातियोंके आदि स्पर्धक के सदृश है । उससे लेकर सम्यक्त्वके स्पर्धक देशघाति और काप्रतौ ' गमणिज्जे ' ' ताप्रतौ ' गमणिज्ज' इति पाठ: । मति श्रुतावधि मन:पर्ययज्ञानावरण-चक्षुरचक्षुरवधिदशनावरण-संज्वलनचतुष्टय-नव नोकषायान्तराय पंचकलक्षणानां पंचविशति संख्यानां देशघाति प्रकृतीनां देशघातीनि रसस्पर्धकानि भवन्ति । स्वस्थ ज्ञानदेर्गुणस्य देशमेकदेशं मतिज्ञानादिलक्षण घातयन्तीत्येवंशीलानि देशघातीनि । क. प्र. ( मलय ) २- १. • वेदनीयायुर्नाम - गोत्राणां सम्बन्धिन एकादशोत्तरप्रकृतिशतस्याघातिनो रसस्पर्धकान्यघातीनि वेदितव्यानि । केवलं वेद्यमान सर्वघा 'तरसस्पर्धकसम्बन्धातान्यपि सर्वघातीनि भवन्ति । यथेह लोके स्वयमचौराणामपि चौरसम्बन्धाच्चौरता । उस च - जाण न विसओ घाइत्तणम्मि ताणं पि सव्वधाइरसो । जायइ घाइसगासेण चोरया वेहऽचोराणं ॥ क. प्र. ( मलय. ) २-४४. ३ केवलज्ञानावरण- केवलदर्शनावरणाद्यद्वादशकषाय-निद्रापंचक-मिथ्यात्वलक्षणानां विशनिप्रकृतीनां रसवर्धकानि सर्वघातीनि सर्वं स्वघात्यं केवलज्ञानादिलक्षणं गुणं घातयन्तीति सर्वघातीनि । तानि च ताम्रभाजनवत् निश्छिद्राणि, घृतवत् स्निग्धानि, द्राक्षाबत्तनु प्रदेशोपचितानि, स्फटिकाभ्रहारवच्चातीव निर्मलानि । उक्तं च- जो घायइ सविसयं सयलं सो होइ सव्वधाइरसो । सो निच्छिड्डो णिद्धो तणुओ फलिहहर विमलो ॥ क. प्र. ( मलय ) २-४४. * प्रतिषु ' घादि इति पाठः । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभाग संकमो ( ३७५ अघादिकम्मफद्द एहि सह निरंतरं गंतूण दारुसमाणम्हि देसघादिम्हि णिट्टियाणि । सम्मत्त उक्कस्सफद्दयादो सम्मामिच्छत्तस्स पढमफद्दयमणंतगुणं । कुदो ? केवलणाणावरणादिफद्दयस माणत्तादो । तदो निरंतराणि अनंताणि सम्मामिच्छत्त फद्दयाणि गंतूण दारुसमाणफद्दयाणमणंतिम भागे चेव णिट्टिदाणि । तदो उवरिमाणंतरफद्दयं मिच्छत्तस्स जहण्णफद्दयं होदि* । तं च सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सदारुस माणफद्दयादो अनंतगुणं घादिकम्माणमादिफद्दएहि असवाणं । एवं सव्वक्रम्माणं पि आदिफद्दय परूवणा कदा | तो अट्ठपदं - ओडिदो वि अगुभागो अणुभागसंकमो, उक्कडिदो वि अणुभागो अणुभाग कमी, अण्णपर्याड णीदो वि अणुभागो अणुभागसंकमो* । आदिफद्दयं ण ओडिज्जदि । आदिफद्दयादा जत्तियो जहण्णओ णिक्खेवो एत्तियमेत्ताणि फद्दयाणि ओकड्डुिज्जति । तदो उवरिमफद्दयं पिण ओकड्डिज्जदि, अधिच्छावणाभावादो । तदो जत्तियाणि जहणणिक्खेवफद्दयाणि जत्तियाणि जण अधिच्छावणाफद्दयाणि च एत्तियमेत्ताणि फद्दयाणि पढमफद्दय पहुडि उर्वारं चडियूण द्विदं जं फद्दयं तमोकड्डिज्जदि, अघाति कर्मो के स्पर्धकों के साथ निरन्तर जाकर दारु समान देशघातिमें समाप्त होते हैं । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट स्पर्धककी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व का प्रथम स्पर्धक अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह केवलज्ञानावरणके आदि स्पर्धकके समान है । उसके आगे सम्यग्मिथ्यात्व के अनन्त स्पर्धक निरन्तर जाकर दारु समान स्पर्धकोंके अनन्तवें भाग में ही समाप्त हो जाते हैं । उसके आगेक अनन्तर स्पर्धक मिथ्यात्वका जघन्य स्पर्धक होता है । वह सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कष्ट दारु समान स्पर्धककी अपेक्षा अनन्तगुणा होकर घाति कर्मोंके आदि स्पर्धकोंके समान नहीं होता । इस प्रकार सब कर्मों के ही आदि स्पर्धकोंकी प्ररूपणा की गयी है । यहां अर्थपद - अपकर्षणको प्राप्त हुआ भी अनुभाग अनुभागसंक्रम है, उत्कर्षणको प्राप्त हुआ भी अनुभाग अनुभागसंक्रम है, और अन्य प्रकृतिको प्राप्त कराया गया भी अनुभाग अनुभागसंक्रम है। आदि स्पर्धकों का अपकर्षण नहीं होता है । आदि स्पर्धकसे लेकर जितना जघन्य निक्षेप है, इतने मात्र स्पर्धकों का भी अपकर्षण नहीं किया जाता है । उनसे ऊपर के स्पर्धकका भी अपकर्षण नहीं किया जाता है, क्योंकि, अतिस्थापनाका अभाव है । इसलिये जितने जघन्य निक्षेपस्पर्धक हैं और जितने जघन्य अतिस्थापनास्पर्धक हैं इतने मात्र स्पर्धक प्रथम स्पर्धकसे लेकर ऊपर चढकर जो स्पर्धक स्थित है उसका अपकर्षण किया जाता है, क्योंकि, अतिस्थापनारूप व निक्षेपरूप स्पर्धकोंकी सम्भावना पायी जाती है । सव्वेसु देसघासु सम्मत्तं तदुर्वारं तु वा मिस्गं । दाहनमाणसानंतिमोत्ति मिच्छत मुप्पिमओ ॥ क. प्र. २, ४५. * अणुभागो आकडिदो वि संकमो उक्कडिदो वि संकमो अण्गपड णीदो वि सकमो । क पा. सु. पू. ३४५, १ तत्थनयं उब्वाट्टया व ओवट्टया व अविभाषा । अगुभागसंकमो एस अण्णपगइं णिया बावि ॥ क. प्र. २, ४६. प्रति 'आदिकदयागं ओकड्डिज्जदि ' इति पाठः । तातो 'फडवाणि ओडिज्जति ' इति पाठः । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ) छक्खंडागमे संतकम्म तस्स अधिच्छावणा-णिक्खेवफद्दयाणं संभवुवलंभादो। एत्थ अप्पाबहुअं- पदेसगुणहाणिढाणंतरं थोवो । जहण्णओ णिवखेवो अणंतगुणो। जहणिया अधिच्छावणा अणंतगुणा। उक्क० अधिच्छावणा अणंतगुणा । उक्कस्सयमणभागखंडयं विसे० । उक्कस्सओ णिक्खेवो विसेसाहिओल, ओकड्ड. णादो. चरिमफद्दयस्स अधिच्छावणफद्दय-णिक्खेवाणमभावादो। तदो जहण्णय णिक्खेवं जहण्णं च अधिच्छावणं ओसक्किऊण* जं फद्दयं चरिमफद्दयादो ट्ठिदं तमोकड्डिज्जदि*। ओकड्डणादो उक्कडुणादो च जहण्णओ णिक्खेवो तुल्लो, सो थोवो। ओकडुणादो जहणिया अधिच्छावणा, उक्कड्डणादो च अणुक्कस्स-जहण्णाजहण्णअधिच्छावणाए चरिमफद्दयसलागा वि, उक्कड्डुणादो च उक्कस्सओ णिक्खेवो तुल्लो अणंतगुणो*। यहां अल्पबहुत्व- प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं। जघन्य निक्षेप अनन्तगुणा है । जघन्य अतिस्थापना अनन्तगुणी है । उत्कृष्ट अतिस्थापना अनन्तगुणी है । उत्कृष्ट अनुभागकाण्डक विशेष अधिक है। उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है, क्योंकि, अपकर्षणकी अपेक्षा अन्तिम स्पर्धकका जो अतिस्थापना रूप स्पर्धक है और जिसका निक्षेप हुआ है, मात्र इन दोनोंका अभाव है। इसीलिये अन्तिम स्पर्धकसे जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाको छोडकर जो स्पर्धक स्थित है उसका अपकर्षण किया जाता है। __अपकर्षण और उत्कर्षण दोनोंकी अपेक्षा जघन्य निक्षेप तुल्य होकर स्तोक है। अपकर्षणकी अपेक्षा जघन्य अतिस्थापना व उत्कर्षणकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अतिस्थापनाकी अन्तिम स्पर्धकशलाका भी, तथा उत्कर्षणकी अपेक्षा उत्कृष्ट निक्षेप तुल्य व अनंतगुणा है। "कहतयमेत जहण्णानि याणि ४ ओकडणाए परूवणा। पढमफद्दयं ण ओकजिदि बिदियफदयं ण ओकडिज्जदि। एवमणताणि फहयाणि जहणिया अइच्छावणा, तत्तियाणि फयाणि ण ओकड्डिज्जंति । अण्णाणि अणंताणि फट्याणि जहण्णणिक्खेवमेताणि च ण ओकड्डिज्जति। जहण्णओ णिक वो जहष्णिया अइच्छावणा च तत्तियमेत्ताणि फद्दयाणि आदीदो अधिच्छिदूण तदित्थफद्दयमोकडिज्जइ। तेण परं सव्वाणि फद्दयाणि ओकडिज्जति। क.पा.सु.प. ३४६,४-१०. * प्रतिषु 'थोवा' इति पाठः। एत्थ अप्पाबह अं। सव्वत्थोवाणि पदेसगणहाणिट्राणंतरफद्दयाणि । जहण्णओ णिक्खेवो अणंतगणो। जहणिया अइच्छावणा अणंतगणा । उक्कस्सयमणभागकंडयमणंतगुणं। उक्कस्सिया अइच्छावणा एगाए वग्गणाए ऊणिया। उक्कस्सणिक्खेवो विसेसाहिओ। उक्कस्सो बंधो विसेसाहिओ। क. पा.सु. ३४६, ११-१८. थोवं पएसगुणहाणिअंतरे दुसु जहगणणिक्वेवो। कमसो अणंतगुणिओ दुस् वि अइस्थावणा तुल्ला ॥ वावाएणणुभागक्कंडगमेक्काए वग्गणाऊणं । उक्कोसा णिक्खेवो ससंतबंधो य सविसेसो।। क. प्र. ३, ८-९. .ताप्रती 'उक्कड्डणादो' इति पाठः । * अ-काप्रत्योः 'ओकड्डिऊण' इति पाठः । *प्रतिष 'तमक्कडिज्जदि ' इति पाठः। * उक्कडुणाए परूवणा । चरिमफदयं ण उक्क डिज्जदि । दुचरिमफदयं पि ण उक्कड्डिज्जदि । एवमणंताणि फहयाणि ओसक्किऊण तं फदयमक्कडिज्जदि । सम्वत्थोवो जहणओ णिक्खेवो । जहणिया अइच्छावणा अणंतगणा । उक्स्स ओ णिक्वेवो अणंतगणो। उक्कस्सओ बंधो विसेसाहिओ। ओकडुणादो उक्कडुणादो च जहणिया अइच्छावणा तुल्ला। जहण्णओ णिक्खे वो तुल्लो ।। क. पा. सु. पृ. ३४८, जयधवल पू. १ से ११, १९-२८. चरिमं णोव्वट्टिज्जइ जावाणंताणि फड़गाणि ततो। उक्कस्सिय ओकडा (उच्वट्टइ ) एवं उव्वट्टणाईओ।। क. प्र. ३, ७. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंव मो ( ३७७ एदेण अटुपदेण पमाणाणुगमो वुच्चदे । तं जहा- घादिसण्णा ठाणसण्णा * च एत्थ वि परूवेयव्वा । सम्मत्तस्स उक्कस्सओ संकमो देसघादी दुट्ठाणियो। एवं मणुस-तिरिक्खाउआणं । सम्मामिच्छत्तस्स आदावणामाए च सव्वघादी दुट्ठाणियो अणुभागसंकमो* । इत्थि-णवंसयवेदाणमुक्कस्सओ सव्वघादी चदुट्ठाणियो अणुभागसंकमो। सम्मत्त-चदुसंजलण--पुरिसवेदाणं जहण्णसंकमो देसघादी एयढाणियो। सेसाणं कम्माणं जहण्णओ संकमो सव्वघादी दुढाणियां । णवरि मणुव-तिरियाउआणं देसघादी। सामित्तं- मदिआवरणस्स उक्कस्साणुभागसंकमो कस्स होदि ? जो उक्कस्साणुभाग बंधियण आवलियादिक्कतो सो एइंदियो वा अणेइंदियो वा बादरो वा सुमो वा पज्जत्तओ वा अपज्जत्तओ वा णियमा मिच्छाइट्ठी, असंखेज्जवस्साउअमणुस्से तिरिक्खे मणुस्सोववादियदेवे च मोत्तूण जो अण्णो, तस्स उक्कस्साणुभागसंकमो। एवं चदुणाणावरण-णवदंसणावरण--मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय-असादावेदणीय इस अर्थपदके अनुसार प्रमाणानुगमकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- घाति संज्ञा और स्थान सज्ञाकी यहां भी प्ररूपणा करना चाहिये। सम्यक्त्वका उत्कृष्ट संक्रम देशघाती होता हआ विस्थानिक है। इसी प्रकार मनष्याय और तिर्यगायके सम्बन्धमें कहना चाहिये। सम्यग्मिथ्यात्व और आतप नामकर्मका अनुभागसंक्रम सर्वंघाती होकर द्विस्थानिक है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सर्वघाती चतुःस्थानिक है। सम्यक्त्त, चार संज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य संक्रम देशघाती एकस्थानिक है। शेष कर्मों का जघन्य संक्रम सर्वघाती विस्थानिक है। विशेष इतना है कि वह मनुष्याय और तिर्यगायुका देशघाती है। __ स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है-- मतिज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम किसके होता है ? जो उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर एक आवलीको बिता चुका है। वह एकेन्द्रिय हो चाहे अनेकेन्द्रिय हो, बादर हो अथवा सूक्ष्म हो, पर्याप्त हो अथवा अपर्याप्त हो, नियमसे मिथ्यादृष्टि हो ; तथा असंख्यातवर्षायुष्क मनुष्यों, तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले देवों ( आनतादिक ) को छोडकर जो अन्य हो, उसके मतिज्ञानावर गका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम होता है । इसी प्रकार शेष चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषायः * प्रतिष ‘घादिसंठाणसण्णा' इति पाठः। 0 अप्रतौ 'उक्स्स ओ वि संकमो' इति पाठः । * दुविहग्माणे जेट्ठो सम्पत्तदेसघाइ दुटुाणा । णर-तिरियाऊ-आयव-मिस्से वि य सव्वघाइम्मि ।। क. प्र. २, ४७. तत्थ पुव्वं गमणिज्जा घादिसणगाच दाणमण्णा च । सम्मत-चदुसंजलग-पुरिसवेदाणं मोत्तण सेसाणं कम्माणमणुभागसंकमो णियमा सव्वघादी, वेट्टाणिओ वा तिढाणि ओ वा च उट्टाणिओ वा। णवरि सम्मामिच्छत्तस्स वेढाणिओ चेव । अक्ववग-अगुवसामगस्स चदुसंजलग-पुरिसवेदाणमणु भागसंकमा मिच्छतभंगो । खवगवसामगागमणभागसंकमो सन्वधादी वा देसघादी वा, वेट्टाणिओ वा एयटाणिओ वा। सम्मत्तस्स अणुभागसंकमो णियमा देसघादी । एयट्ठाणिओ वेट्ठाणिओ वा। क. पा. सु. पृ. ३४९, ३३-३९. सेसासु चउदाणे मदो सम्मत्त-पुरिस-संजलणे । एगट्टाणे सेसासु सव्वघाइम्मि दुट्टाणे । क. प्र. ३, ४८. STS अ-काप्रत्योः 'सोइंदियो वा अणे इंदियो', ताप्रती 'सो इंदियो वा अणिदियो' इति पाठः । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ) छक्खंडागमे संतकम्म अप्पसत्थणामपयडि--णीचागोद--पंचतराइयाणं । सादस्स उक्कस्साणुभागसंकमो कस्स? चरिमसमयसुहमसांपराइएण खवएण जं बद्धमणुभागं आवलियादिक्कतं संकममाणस्स खीणकसायस्स सजोगिकेवलिस्स वा । जसकित्ति-उच्चागोदाणं सादभंगो। णिरयाउअस्स उक्कस्सओ अणुभागसंकमो कस्स ? जो उक्कस्साणुभागं बंधिदूण आवलियादिक्कतो सो ताव पाओग्गा जाव समयाहियावलियचरिमसमयतब्भवत्थो त्ति । एवं सेसाणमाउआणं । जाओ पसत्थाओ परभवियणामबंधज्झवसाणस्स चरिमसमये बज्झंति तासि बंधज्झवसाणवोच्छेदादो आवलियादिक्कतमादि कादूण जाव चरिमसमयसजोगादो • त्ति उक्कस्साणुभागसंकमोमणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुत्वी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-बंधण-संघाद-वज्जरिसहसंघडणाणमुक्कस्सओ अणुभागसंकमो कस्स ? देवेसु सव्वविसुद्धण पबद्धाणुभागं आवलियादिक्कतं संकममाणस्स। सो कत्थ होदि? देवेसु रइएसु तिरिक्खेसुमणुस्सेसु एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिय-पंचिदिएसु सुहमेसुल असातावेदनीय, अप्रशस्त नामप्रकृतियों, नीचगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके भी उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका कथन करना चाहिये । सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम किसके होता है ? अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके द्वारा जो अनभाग बांधा गया है आवलिकातिक्रान्त उसका संक्रमण करनेवाले क्षीणकषाय अथवा सयोगकेवलीके उसका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम होता है । यशकीर्ति और उच्चगोत्रकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है । नारकायुके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम किसके होता है ? जो उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर बन्धावलीको बिता चुका है वह अन्तिम समयवर्ती तद्भवस्थ होने में एक समय अधिक आवली मात्र कालके शेष रहने तक नारकायुके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमके योग्य होता है। इसी प्रकार शेष आयु कर्मोकी प्ररूपणा है। जो प्रशस्त प्रकृतियां परविक नामप्रकृतियोंके बन्धाध्यवसानके अन्तिम समयमें बंधती हैं उनका बन्धाध्यवसानव्युच्छित्तिसे आवलिकातिक्रान्त समयको आदि लेकर अन्तिम समयवर्ती सयोगी तक उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम होता है । मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकबन्धन, औदारिक संघात और वज्रर्षभसंहननका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम किसके होता है ? वह सर्वविशुद्ध देवके द्वारा बांधे गये अनुभागका बन्धावलोके पश्चात् संक्रम करनेवाले जीवके होता है। वह कहांपर होता है ? वह देवों में, नारकियोंमें, तिर्यंचोंमें, मनुष्योंमें, एकेन्द्रियोंमें, द्वीन्द्रियोंमें, त्रीन्द्रियों में, चतुरिन्द्रियोंमें, पंचेन्द्रियोंमें, 8 सामित्तं । मिच्छत्तस्स उक्कस्साणभागसंकमो कस्स? उस्साण पागं बंधिदूगावलियपडिभग्गस्स अण्णदरस्स । एवं सब्वकम्माणं । णवरि सम्मत्त-मम्मामिच्छताणमुक्कस्साण मागसंकमो कस्स ? सणमोहणीयक्खवयं मोत्तण जस्स संतकम्ममथि त्ति तस्स उक्कस्साणुभागसंकमो। क. पा. सु. पृ. ३५१, ४०-४५. उक्कोसगं पबंधिय आवलियमइच्छिऊण उक्कोसं । जाव ण घागा तगं सकमह य आ महतती ।। असुभाणं अण्णयरो सुहमअपज्जतगाइ मिच्छो य । वज्जिय असंखवासाउए य मणुओववाए य ।। क. प्र. २, ५२-५३. प्रतिष 'संजोगादो' इति गठः । 0 ताप्रतौ 'चउरिदिएसु सुहमेसु' इति पाठः। | Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ३७९ बादरेसु पज्जत्तएसु अपज्जत्तएसु वा होदि । उज्जोवणामाए उक्कस्साणुभागसंकमो कस्स ? सत्तमाए पुढवीए सणमोहुवसामगंतेण अधापवत्तकरणचरिमसमए जं बद्धमणुभागं आवलियादीदं संक्रममाणस्त । सो कत्थ होदि ? णेरइएसु तिरिक्खेसु मणुस्सेसु एइंदिएसु विलिदिएसु सुहमेसु बादरेसु पज्जत्तएसु अपज्जत्तएसु वा होदि । __णिरयगदीए सादस्स उक्कस्साणुभागसंकमो कस्स होदि ? चरिमसमयसुहमसांपराइएण उवसामएण जो बद्धो अणुभागो तमघादेदूण अण्णदरिस्से पुढवीए उववज्जेज्ज तस्स उक्कस्सअणुभागसंकमो। एवं सव्वत्थ वत्तव्वं*। एवमुक्कस्ससामित्तं समत्तं । __ एत्तो जहण्णाणुभागसंकमस्स सामित्तं- कसाए खवेंतस्स जाव अंतरं अकदं ताव अप्पसत्थाणं कम्माणं अणुभागसंतकम्मं सुहमसंतकम्मादो उरि होदि, अंतरं कदे सुहमसंतकम्मादो हेढदो होदि । एदेण बीजपदेण जहण्णसामित्तं कायव्वं । पंचणाणावरण-छदसणावरण-पंचंतराइयाणं जहण्गाणुभागसंकामओ को होदि? जो जहण्णट्टिदिसंकामओ सो चेव जहण्णाणुभागस्स वि संकामओ। एवं सम्मत्त-लोहसंजलणागं । सूक्ष्मोंमें, बादरों में, पर्याप्तकोंमें और अपर्याप्तकोंमें होता है। उद्योत नामकर्मका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम किसके होता है ? सातवी पृथिवीमें दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवके द्वारा अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जो अनुभाग बांधा गया है, बन्धावलीके पश्चात् उसका संक्रम करनेवालेके उद्योतका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम होता है। वह कहांपर होता है ? वह नारकियों में, तिर्यंचोंमें, मनुष्योंमें, एकेन्द्रियोंमें, विकलेन्द्रियोंमें, सूक्ष्मोंमें, बादरोंमें, पर्याप्तकोंमें और अपर्याप्तकों में होता है। नरकगतिमें सातावेदनीयका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम किसके होता है ? अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म साम्पराय उपशामकके द्वारा जो अनुभाग बांधा गया है उसका घात न करके जो अन्यतर पृथिवी में उत्पन्न होने वाला है उसके सातावेदनीयका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम होता है । इसी प्रकारसे सर्वत्र प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। यहां जघन्य अनुभागसंक्रमके स्वामित्वका कथन किया जाता है- कषायोंका क्षपण करनेवाले जीवके, जब तक वह अन्तर नहीं करता है तब तक, अप्रशस्त कर्मों का अनुभागसत्कर्म सूक्ष्म एकेन्द्रियके सत्कर्मसे अधिक होता है। किन्तु अन्तर करनेपर वही सूक्ष्म एकेन्द्रियके सत्कर्मसे नीचे होता है। इस बीज पदके अनुसार जघन्य स्वामित्वको करना चाहिये । पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण और पांच अन्तरायके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन होता है ? जो इनकी जघन्य स्थितिका संक्रामक है वही उनके जघन्य अनुभागका भी संक्रामक होता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और संज्वलन लोभके सम्बन्धमें कहना चाहिये। * सम्बत्याचावुज्जोव-मगुसगइपंचगाग आऊणं । समयाहिगालिगा सेसग त्ति सेसाण जोगता। क. प्र. २-५४. नताप्रतौ 'पा मत्तं कस्स? कसार' इति पाठः। अ-काप्रत्यो: 'अंतरं कथं', ताप्रती ' अंतर कद' इति पाठः। * खवगस्संतकरणे अकए घाईण सूहमकम्मुवरि । क. प्र. २-५५. अप्रती 'संकामओ' का-ताप्रत्योः 'संकमो' इति पाठः । .ताप्रतौ 'लोहसंजलणाणं' इति पाठः। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ) णिद्दाणिद्दा - पयला पयला थी गिद्धीणं जहण्णाणुभागसंकामओ को होदि * ? सुमेइंदियो कदD हदसमुप्पत्तियकम्मो अण्णदरएइंदियो बेइ दियो तेइंदियो चउरदियो पंचिदियो वा । कुदो ? जहण्णाणुभागेण सह सुहुमेइंदियस्स बीइंदियाएसु उप्पत्तिसंभवादो । सम्माइट्ठी पसत्थकम्माणुभागं ण हणदि । अध्पसत्याणं भवोग्गहियाणं कम्माणमणुभागसंतकम्मं जिणे वट्टमाणं पि असण्णिसंतकम्मादो अनंतगुणं । एदेण कारणेण सादासादाणं णामस्स पयडीणं अणादियसंतकम्मियाणं णीचागोदस्स च कदहदसमुत्पत्तियसंतकम्मियस्स सुहुमेइंदियस्स जहण्णसंतकम्मादो हेट्ठा बंधमाणस्स जहण्णाभागसंकमो । एइंदियादि पंचिदिए वि एदेसि जहण्णाणुभागसंकमो होदि 5 जहण्णाणुभागसंतकम्मिय सुहुमेइंदियस्स जहण्णाणुभागेण सह बेइंदियादिसुप्पत्तिदंसणादो । छक्खंडागमे संतकम्मं मिच्छत्त- अट्ठकसायाणं पि सुहुमेइंदियम्हि चेव कदहदसमुप्पत्तियकम्मम्हि जहण्णाणुभागसंकमो । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामगो को होदि ? जो निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन होता है ? जिसने हतसमुत्पत्तिक कर्मको किया है ऐसा सूक्ष्म एकेन्द्रिय अन्यतर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव उनके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । इसका कारण यह है कि जघन्य अनुभागके साथ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवकी उत्पत्ति द्वीन्द्रिय आदि जीवोंमें सम्भव है । सम्यग्दृष्टि जीव प्रशस्त कर्मोंके अनुभागका घात नहीं करता है । भवोपगृहीत अप्रशस्त कर्मोंका अनुभागसत्कर्म जिन भगवान् में वर्तमान होकर भी असंज्ञीके सत्कर्म से अनन्तगुणा होता है । इस कारण सातावेदनीय, असातावेदनीय, अनादिसत्कर्मक नामप्रकृतियों और नीचगोत्रका जवन्य अनुभागसंक्रम हतसमुत्पत्तिकसत्कर्मिक होकर जघन्य सत्कर्मसे नीचे बांधनेवाले सूक्ष्म एकेन्द्रियके होता है । एकेन्द्रियको आदि लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों में भी इनके जघन्य अनुभागका संक्रम होता है, क्योंकि, जघन्य अनुभागसत्कर्मक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवकी जघन्य अनुभागके साथ द्वीन्द्रियादि जीवों में उत्पत्ति देखी जाती है । मिथ्यात्व और आठ कषायों का भी जघन्य अनुभाग संक्रम हतसमुत्पत्तिककर्मको करनेवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके ही होता है । सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य अनुभागका संक्रामक * अ-काप्रत्योः ' संक्रमो होदि', ताप्रती ' सकमो ( को ) होदि ' इतिपाठः । D ताप्रतौ ' सुहुमेई - दियकद-' इति पाठ: । सम्मट्ठी न हणइ सुभाणुभागे। क प्र. २- ५६. केवलिणो णंतगुणं असणओ सेस असुभाणं । क. प्र. २-५५. Q सेसाण सुम हयसतकम्मिगो तस्स हेटुओ जाव | बंधइ तावं एगिदिओ व गिदिओ वावि ।। क प्र. २- ५९. उक्तशेषाणं शभानामशुभानां वा प्रकृतीनां सप्तनवतिसंख्यानां यः सूक्ष्मैकन्द्रियो वायुकायिकोऽग्निकायिको वा हुनकर्मा - हतं विनाशितं प्रभूतमनुभागसत्कर्म येन स हतकर्मास तस्यात्म-सत्कस्यानुभागसत्कर्मणोऽधस्तात् ततः स्तोकतरमित्यर्थः । अनुभाग तावद् बध्नाति यावदेकेन्द्रियस्तस्मिन्नन्यस्मिन् वा एकेन्द्रियभवे वर्तमानोऽनेकेन्द्रियो वेति स एव हतसत्कर्मा एकेन्द्रियोऽन्यस्मिन् द्वीन्द्रियादिभत्रे वर्तमानो यावदन्यं बृहत्तरमनुभागं न बध्नाति तावत्तमेव जघन्यमनुभागं संक्रमयतीति । मलय. * मिच्छत्तस्स जहण्णाण भागसंकामओ को होइ ? सुहुमस्स हृदममुप्पत्तिकम्मेण अण्णदरो । एवंदिओ वा वेइंदिओ वा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ३८१ सम्मामिच्छत्तखवगो अपच्छिमे अणुभागखंडए वट्टमाणओ सो होदि । पुरिसवेदतिसंजलणाणं जहण्णाणुभागसंकामगो को होदि ? एदेसि खवओ* एदेसिल चेव अपच्छिमसमयपबद्धाणं चरिमफालीयो संछुहमाणओ। णवरि पुरिसवेदस्स पुल्लिगेण उवढिदो त्ति वत्तव्वं । णवंसयवेदस्स जहण्णाणुभागसकामओ को होदि ? णवंसयवेदक्खवगो णवंसयवेदोदएणेव खवगसेडिमारूढो णqसयवेदचरिमफालि संछुहमाणगो। इत्थिवेदस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होदि ? इत्थिवेदखवगो अण्णदरवेदोदएण खवगसेडिमारूढो इत्थिवेदचरिमाणुभागखंडय वरिमफालि संछुहमाणओ। छण्णोकसायाणमित्यिवेदभंगो । चदुण्णमाउआणं जहण्णाणुभागसंकामओ को होदि ? अप्पप्पणो जहणियाओ द्विंदीओ णिवत्तेदूण आवलियमदिक्कतो। अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंकामओ को कौन होता है ? जो सम्बग्मिथ्यात्वका क्षपक अन्तिम अनुभागकाण्डकमें वर्तमान है वह उसके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है। पुरुषवेद और तीन संज्वलन कषायोंके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन होता है ? जो इन प्रकृतियोंका क्षपक इन्हींके अन्तिम समयप्रबद्धोंको अन्तिम फालियों का क्षेपण कर रहा हो वह उनके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । विशेष इतना है कि पुरुषवेदका संक्रामक पुल्लिंगसे उपस्थित हुआ जीव होता है, ऐसा कहना चाहिये । नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन होता है ? नपुंसकवेदका क्षपक जो जीव नपुंसकवेदके उदयके साथ ही क्षपकश्रेणिपर आरूढ होकर नपुंसकवेदकी अन्तिम फालिका क्षेपण कर रहा हो वह उसके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन होता है ? जो स्त्रीवेदका क्षपक जीव अन्यतर वेदोदय के साथ क्षपकश्रेणिपर आरूढ होकर स्त्रीवेदके अन्तिम अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालिका क्षेपण कर रहा हो वह स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता हैं। छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागसक्रामककी प्ररूपणा स्त्रीवेदके समान है । चार आयु कर्मोंके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन होता है? अपनी अपनी जघन्य स्थितियोंको रचकर बन्धावलीको वितानेवाला जीव उनके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । अनन्तानबन्धी कषायोंके जघन्य अनभागका संक्रामक कौन होता है ? विसंयोजना करके जो तेइंदियो वा चरिदिओ वा पंचिदिओ वा । एव पट्टणं कसाणं । क. पा. सु. पू. ३५१, ४७-५०. ★ सम्मामिच्छ तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? चरिमाणु भागखंडयं संछहमाणओ। क. पा. सु. पृ. ३५२, ५३-५४. xxxनियगचरमरसखंडे दिदिमोहदुगे । क. प्र. २, ५७. अ-काप्रत्यो: 'खवदि' ताप्रती 'खवदि (ओ,' इति पाठः। 0 अप्रतौ 'एदासि ' इति पाठः। कोहगंजलणस्स जहण्णाणभागसकामओ को होइ ? चरिमाणुभागबंधस्स चरिमसमयअणिल्लेवगो। एवं माण-मापासंजलण-पुरिसवेदाणं । क पा. सु. पृ. ३५३, ५७-५९. . इत्यिवेदस्स जहण्णाणभागसंकामओ को होइ? इत्थिवेदक्खवगो तस्सेव चरिमाणभागखंडए व माणओ। णवूमयवेदस्स जहण्णाणभागसंकामओ को होड? णवंसयवेदक्खवओ तस्सेव चरिमे अणुभागखंडए बट्टमाणओ। छण्णोकसायाणं जहण्णाणभागसंकामओ को होइ ? खवगो तेसिं चेव छण्णोकसायवेदणीयाणं चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणओ। क. पा. सु. पृ. ३५३, ६३-६७. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२) छक्खंडागमे संतकम्म होदि ? विसंजोएदूण जहग्णपरिणामेण पढमसमयसंजुत्तो। णिरयगइणामाए जहण्णाणुभागसंकामओ को होदि ? पढमदाए संजोएमाणओ। जहा णिरयगइणामाए तहा सव्वासिमुवेल्लमाणणामपयडोणं । उच्चागोदस्त जहण्णाणुभागसंकामगो को होदि? संजोजेमाणओ। एवं सामित्तं समत्तं । एयजीवेण कालो। तं जहा- पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-असादावेदणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसायाणं उक्कस्साणुभागसंकामगो जह० अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण वि अंतोमुहुत्तं । अणुक्कस्ताणुभागसंकामओ केवचिरं० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्साणभागसंकामओ जह० अंतोमु०, उक्क० बेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अणुक्कस्साणुभागसंकामओ जहण्णुक्क० अंतोमु०*। जघन्य परिणामसे संयुक्त होने के प्रथम समय वर्तमान है वह उनके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है। नरकगति नामकर्मके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन होता है ? सर्वप्रथम संयोजन करनेवाला जीव उसके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । जैसे नरकगतिके जघन्य अनुभागसंक्रामकका कथन किया है वैसे ही उद्वेल्यमान सभी नामप्रकृतियोंके जवन्य अनुभागसंक्रामकोंका कथन करना चारिये । उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागका सक्रामक कौन होता है ? सर्वप्रथम संयोजन करनेवाला जीव उसका संक्रामक होता है। इस प्रकार स्वामित्वको प्ररूपणा समाप्त हुई। एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषाय' ; इनके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके सक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। उनके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। ४ आऊण जहण्णलिई बंधिय जावत्थि सकमो ताव। उव्वलण-नित्थ-संजोयणा य पढमावलियं गतं ।। क. प्र. २-५८. तथा नरकद्विक-मनजद्विक वैक्रियिसप्तकाहारसप्तकोच्च!त्रलक्षणामेकविंशत्युद्वलनप्रकृतीनां तीर्थकरस्यानन्तानबन्धिनां च जघन्यमनुभागं बद्ध्वा प्रथमावलिका बन्धावलिका क्षणां गत्वातिक्रम्य, बन्धावलिकाया: परतः इत्यर्थः । जघन्यमनुभागं संक्रमयति । कः संक्रमयतीति चेदुच्यते- क्रियिकसप्तकदेवद्विकनरकद्विकानामसंज्ञिपंचेन्द्रियः, मनुष्य द्विकोच्चर्गोत्रयोः सूक्ष्मनिगोदः आहारसप्तकस्याप्रमत्तः, तीथकरस्याविरतसम्यग्दष्टिः, अनन्तानबन्धिनां पश्चात्कृतसम्यक्त्वो मिथ्यादष्टि: संक्रपयतीति । मलय. *मिच्छत्तस्स उक्कस्साण भागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण ककस्सेण अंतोमुहुत्तं । अणककस्साणुभागसंकामओ केवचिर कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहत्तं । उक्कस्सेण अणंतकालमसखेज्जा पोग्गल परियट्टा । एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । सम्मत-सम्मामिच्छताणमुक्कस्साणभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण अंतोमुहत्तं । उक्कस्सेण वे छावट्ठिमागरोवमाणि सादिरेयाणि । अणुक्कस्साण भागगकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण अंगोमुहुतं । क. पा. सु. पृ. ३५४, ६९-७९. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो साद-जस कित्ति उच्चागोदाणं मणुसगइ मणुसगइपाओग्गाणुपुथ्वी-ओरालियसरीर ओरालियसरीरअंगोवंग- बंधण-संघाद-पढमसंघडण आदावुज्जोवणामाओ मोत्तूण सेसाणं पसत्थणामपयडीणं च उक्कस्साणुभागसंकामओ केवचिरं० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । अणुक्कस्साणुभागसंकामओ केवचिरं० ? उब्वेल्लमाणपयडीओ मत्तू साण अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो वा । उव्वेल्लमाणाण पडीणमणुक्कस्साणुभागसंकामओ केवचिरं० ? जह० पलिदो० असंखे० भागो, अधवा अवस्साणि सादिरेयाणि । उक्कस्सेण जो जस्स पर्याडिसंतकालो तच्चिरं कालं । ( ३८३ आउआ ? जट्ठिदिबंधमाणगो जमणुभागं निव्वत्तेदि जाव तट्ठिदि ण ओवट्टेदि ताव तत्तियं कालं सो अणुभागं होदि । एदेण बीजेण देव - णिरयाउआणं उक्कस्साणुक्कस्सअणुभागसंकामओ जह० अंतोमुहुत्तं, उवक० तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । मणुस - तिरिक्खाउआणं उक्कस्साणुक्कस्सअणुभागसंकमो केवचिरं ० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । णवर तिरिक्खाउ - अअणुक्कस्सअणुभागसंकमस्स उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अप्पसत्थाणं णामपयडीणं णीचागोद-पंचंतराइयाणं च उक्स्कसाणुभागसंकमो जह० सातावेदनीय, यशकीर्ति उच्चगोत्र तथा मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकबंधन, औदारिकसंघात, प्रथम संहनन तथा आतप व उद्योतको छोड़कर शेष प्रशस्त नामप्रकृतियों के भी उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ कम पूर्वकोटि मात्र है । इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकका काल कितना है ? उक्त काल उद्वेल्यमान प्रकृतियोंको ( आहारकविक्र, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, देवविक, नारकचतुष्क, उच्चगोत्र और मनुष्यविक ) को छोडकर शेष प्रकृतियों का अनादि - अपर्यवसित और अनादि- सपर्यवसित भी है । उद्वेल्यमान प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे पत्योपम के असंख्यातवें भाग अथवा साधिक आठ वर्ष मात्र है । उत्कर्ष से जो जिसके प्रकृतिसत्वका काल है उतना काल उनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकका है । आयु कर्मोंकी जिस स्थितिको बांधनेवाला जिस अनुभागकी रचना करता है व जब तक उस स्थितिका अपवर्तन नहीं करता है तब तक उतनें मात्र काल उसके वह अनुभाग होता है । इस बीजपदके अनुसार देवायु व नारकायुके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है । मनुष्यायु और तिर्यगायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक तीन पल्योपम मात्र है । विशेष इतना है कि तिर्यंच आयुके अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामका काल उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । अप्रशस्त नाम प्रकृतियों, नीचगोत्र और पांच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभाग के संक्रमका ४४ अ-काप्रत्योः 'काल' इति पाठः । ॐ ताप्रती ' -कम्पकालो । तच्चिरं कालं आउआणं ।' इति पाठः । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ) छक्खंडागमे संतकम्म उक्क० अंतोमुत्तं । अणुक्कस्सअणुभाग० केवचिरं० ? जह० अंतोमुल, उवक० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालियसरीरओरालियसरीरअंगोवंग-बंधण-संघाद-पढमसंघडण-आदावुज्जोवाणं उक्कस्साणुभागसंकमो केवचिरं० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० बेछावद्धिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । एदेसि चेव अणक्कस्ससंकामगो केवचिरं० ? जह० अंतोमहत्तं । उक्क० आदावणामाए असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, मणुसगइणामाए सपरिवाराए असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ओरालियसरीरस्स सपरिवारस्स पढमसंघडणस्स उज्जोवणामाए च अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवलिदो वा । तत्थ जो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुत्तं, उकक० उवड्ढपोग्गलपरियढें । एवमुक्कस्साणुभागसंकमकालो समत्तो। जहण्णाणुभागसंकमकालो । तं जहा-पंचणाणावरण-छदंसणावरण-पंचंतराइयाणं जहण्णाणुभागसंकमो केवचिरं०? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अजहण्णाणुभागसंकामओ केवविर? अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो वा। णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-सादासाद-मिच्छत्त-अटकसायाणं जहण्णाणुभागसंकामओ जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अजहण्णाणुभागसंकामओ जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सम्मत्त-चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णाणुभागसंकामओ केव०? जहण्णुक्क० एगसमओ' काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है । इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रमका काल कितना है ? जघन्यसे वह अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। मनुष्यगति मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकबन्धन, औदारिकसंघात, प्रथम संहनन, आतप और उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागके सक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। इन्हीं के अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहर्त मात्र है। उत्कर्षसे वह आतप नामकर्मका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन, सपरिवार मनुष्यगति नामकर्मका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन, तथा सपरिवार औदारिकशरीर, प्रथम संहनन और उद्योत नामकर्मका अनादिअपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित व सादि-सपर्यवसित भी है। उनमें जो सादि-सपर्यवसित काल है उसका प्रमाण जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त व उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन है । इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभाग संक्रमका काल समाप्त हुआ। जघन्य अनुभागके संक्रमकालकी प्ररूपणा इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण और पांच अन्तरायके जघन्य अनुभागके संक्रमका काल कितना है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। उनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? वह अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित भी है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। उनके अजघन्य अनुभागके संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्महुर्त और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र है। सम्यक्त्व, चार संज्वलन और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्य और उत्कर्षसे एक समय Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ३८५ अजहण्णाणुभागसंकामओ चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदो वा। तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । सम्मत्तस्स जह० अंतोमु०, उक्क० बेछावट्टिसागरो० सादिरेयाणि । अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंकामा जह० एगसमओ, उक्क० चत्तारि समया। अजहण्णअणुभागसंकामओ अणाविओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदो च । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमु०, उक्कस्समुवड्ढपोग्गलपरियट्टं । अटुण्णं णोकसायाणं जहण्णाणुभागसंकामओ जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । अजहण्ण० अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदो च । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ केव ०? जहण्णुक्क० अंतोमु० । अजहण्णस्स जह० अंतोमु०, उक्क० बेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । आउआणं जहण्णाणुभागसंकामओ जह० एगसमओ, उक्क० चत्तारि समया। अजहण्ण० जह० अंतोमुहुत्तं । देव-णिरयाउआणं अजहण्णाणुभागसंकमकालस्स कुदो मात्र है। चार संज्वलन और पुरुषवेदके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल अनादिअपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित भी हैं। उनमें जो सादि-पपर्यवसित है उसका प्रमाण जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन है । सम्यक्त्वके अजघन्य अनुभागके संक्रमकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। अनन्तानुबन्धी कषायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय मात्र है। उनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल अनादिअपर्यवसित, अनादि-पर्यवसित और सादि-सपर्यवसित भी है। उनमें जो सादि-सपर्यवसित है उसका प्रमाण जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे उपार्थ पुद्गलपरिवर्तन है। पुरुषवेदको छोडकर शेष आठ नोकषायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकका काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। उनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित भी है। उनमें जो सादि-सपर्यवसित है उसका प्रमाण जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। उसके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। आयुकर्मोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय मात्र है । उनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। Jain Education i ताप्रतावतोऽग्रे 'उक्क० वेछावट्टिसागरो! इत्याधिकः पाठः । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ) छक्खंडागमे संतकम्म अंतोमु० ? तण्ण, अजहण्णाणुभागसंकमस्स आदि करिय पुणो अजहण्णाणुभागसंकमे अंतोमुत्तमच्छिय पुणो जहण्णाणुभागं मोत्तूण सेसाणुभागस्स घादं करिय एगसगयजहण्णाणुभागं संकामिय बिदियादिसमएसु आवलियादीदं पुत्वबद्धाणुभागं संकममाणस्म तदुवलंभादो। उक्कस्सेण देव-णिरयाउआणं तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि, तिरिक्खाउअस्स असंखेज्जा लोगा। __णामपयडीणं अणुव्वेल्लमाणियाणं सुहाणमसुहाणं वा जहण्णाणुभागसंकामओ केव० ? जह० उक्क० च अंतोमुत्तं । अजहण्णाणुभागसंकामगो केव० ? जह० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। एवं णीचागोदस्स । आहारसरीर-आहारसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं जहण्णाणुभागसंकामओ केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० चत्तारि समया। अजहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं ? जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० पलिदोवमस्स असंखे० भागो । तित्थयरणामाए जहष्णाणुभागसंकामओ केव०? जह० एगसमओ, उक्क० चत्तारि समया । अजहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं० ? जच्चिरं पयडिसंतकम्मं । सेसाणमुवेल्लमाणणामपयडीण--- मुच्चागोदस्स जहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं ? जह० एगसमओ, उक्क० शंका- देवायु और नारकायुके अजघन्य अनुभागके संक्रमका काल अन्तर्मुहूर्त कैसे है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अजघन्य अनुभागसंक्रमको आदि करके, फिर अजघन्य अनुभागसंक्रममें अन्तर्मुहुर्त रहकर पुन: जघन्य अनुभागको छोडकर शेष अनुभागका घात करके एक समयमें जघन्य अनुभागका संक्रम करके द्वितीयादि समयोंमें आवलिकातीत पूर्वबद्ध अनुभागका संक्रम करनेवालेके उक्त काल पाया जाता है। उक्त काल उत्कर्षसे देवायु और नारकायुका साधिक तेतीस सागरोपम, तथा तिर्यगायुका असंख्यात लोक मात्र है। अनुढेल्यमान शुभ और अशुभ नामप्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है । उनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र है। इसी प्रकार नीचगोत्रके भी अनुभागसंक्रमकालका कथन करना चाहिये । आहारशरीर, आहारशरीरांगोपांग आहारबन्धन और आहारसंघातके जघन्य अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय मात्र है। इनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्महूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। तीर्थकर नामकर्मके जघन्य अनुभागके संक्रमकका काल कितना है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय मात्र है। उसके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? जितना काल प्रकृतिसत्कर्मका है उतना ही काल उसके अजघन्य अनुभागके संक्रमका भी है । शेष उद्वेल्यमान नामप्रकृतियों और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागके * अप्रतौ 'अणुव्वेम्माणियाणं' इति पाठः। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ३८७ चत्तारि समया। अजहण्णाणुभागसंकामगो केव० ? जह० पलिदो० असंखे० भागो अदुवस्साणि सादिरेयाणि, उक्क० अप्पप्पणो पयडिसंतस्स कालो। एवं जहण्णुक्कस्सअणुभागसंकमकालो समत्तो । एयजीवेण अंतरं। (तं)जहा- पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय- असादावेदणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय-णिरय-तिरिक्ख-मणुस्साउआणं अप्पसत्थणामपयडीणं च णीचागोद-पंचतराइयाणं च उक्कस्साणुभागसंकामयंतरं केव० ? जह अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। साद-जसकित्ति उच्चागोदाणं जासि च णामपयडीणं खवगे परभवियणामबंधज्झवसाणस्स चरिमसमए उक्कस्साणुभागो बज्झदि तासि च उक्कस्साणुभागसंकामयंतरं णत्थि । सम्मत्त--सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्समणुभागसंकामयंतरं जहण्णं जहण्णपयडिअंतरं उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । देवाउअस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-वज्जरिसहसंघडण-उज्जोव-ओरालियचउक्काणं देवाउअभंगो। आदावणामाए अप्पसत्थणामपयडिभंगो। एवमुक्कस्संतरं समत्तं । जहण्णाणुभागसंकामयंतरं- पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-चदुसंजलण-णवणोकसायाणं पंचंतराइयाणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं णस्थि । संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय मात्र है । उनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग और साधिक आठ वर्ष तथा उत्कर्षसे अपने अपने प्रकृतिसत्त्वके कालके समान है। इस प्रकार जघन्य व उत्कृष्ट अनुभागसंक्रामकका काल समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नारकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु, अप्रशस्त नामप्रकृतियों, नीचगोत्र और पांच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यातपुद्गलपरिवर्तन मात्र है । सातावेदनीय, यशकीर्ति और उच्चगोत्रका तथा जिन नामप्रकृतियोंका क्षपकके द्वारा परभविक नामकर्मोके बन्धाध्यवसानके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अनुभाग बांधा जाता है उनके भी उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका अन्तर नहीं होता। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल जघन्य प्रकृतिअन्तरके समान तथा उत्कृष्ट उपार्घ पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। उक्त अन्तरकाल देवायका जघन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वज्रर्षभसंहनन, उद्योत और औदारिकचतुष्कका उक्त अन्तरकाल देवायुके समान है। आतप नामकर्मके इस अन्तरकालकी प्ररूपणा अप्रशस्त नामप्रकृतियोंके समान है। इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर समाप्त हुआ। जघन्य अनुभाग संक्रामकके अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है-- पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन, नौ नोकषाय और पांच अन्तराय; इनके Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं णिद्दाणिद्दा -- पयलापयला थीणगिद्धि-सादासाद-मिच्छत्त- अट्ठकसाय-- तिरिखखाउआणं अणुब्वेल्लमाणपसत्थापसत्थणामपयडीणं णीचागोदस्स च जहण्णाणुभागसंकामयंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसं कामयं तरं जह० अंतोमुहुतं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियहं । णिरय देव मणुस्साउआणं जहण्णाणु० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । उव्वेल्लणपाओग्गाणं णामपयडीणं उच्चागोदस्स च जहण्णाणुभागसंकामयंतरं जह० पलिदो० असंखे ० भागो, उक्क० मोत्तूण संजदपाओग्गाओ अवसेसाणं असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, संजदपाओग्गाणं उवड्ढपोग्गलपरियहं । तित्थयरणामाए जहण्णाणुभागसंकामयंतरं णत्थि । एवं अंतरं समत्तं । जीवेहिभंगविचओ दुविहो उक्कस्सपदभंगविचओ जहण्णपदभंगविचओ चेदि । तत्थ अट्ठपदं - जे उक्कस्सअणुभागस्स संकामया ते अणुक्कस्स० असंकामया । जे अणुक्कस्तअणुभागस्स # संकामया ते उक्कस्सस्स संकामया । एदेण अट्ठपदेण सव्वकम्माणं पि उक्कस्साणुभागस्स सिया सव्वे जीवा असंकामया, सिया असंकामया च संकामओ च, सिया असंकामया च संकामया च । अणुक्कस्सस्स वि वित्ररीएण तिण्णि जघन्य अनुभाग संक्रामकका अन्तरकाल सम्भव नहीं है । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यागृद्धि, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, आठ कषाय और तिर्यंच आयु तथा अनुद्वल्यमान प्रशस्त व अप्रशस्त नामप्रकृतियों एवं नीचगोत्रके जघन्य अनुभागके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र है । अनन्तानुबन्धी कषायोके जघन्य अनुभाग, संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पद्गलपरिवर्तन मात्र है । नारकायु, देवायु और मनुष्यायुके जघन्य अनुभाग संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । उद्वेलन योग्य नामप्रकृतियों और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभाग संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे पल्योपमके असंख्य तवें भाग है | उत्कर्ष से संयत योग्य प्रकृतियों को छोडकर शेष प्रकृतियोंका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन तथा संयत योग्य प्रकृतियोंका उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । तीर्थंकर नामकर्मके जघन्य अनुभाग संक्रामक्का अन्तरकाल नहीं है | इस प्रकार अन्तरकालकी प्ररूपणा समाप्त हुई । नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय दो प्रकार है- उत्कृष्ट-पद-भंगविचय और जघन्य पदभंगविचय । उनमें अर्थपद कहते हैं- जो उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक हैं वे अनुत्कृष्ट अनुभाग के असंक्रामक होते हैं । जो अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक हैं वे उत्कृष्ट अनुभाग के असंक्रामक होते हैं । इस अर्थपदके अनुसार सभी कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभाग के कदाचित् सब जीव असंक्रामक होते हैं, कदाचित् असंक्रामक बहुत और संक्रामक एक होता है, तथा कदाचित् असंक्रामक भी बहुत व संक्रामक भी बहुत होते हैं । अनुत्कृष्ट अनुभाग के सम्बन्ध में भी विपरीत क्रम तीन भंग ( कदाचित् सब जीव संक्रामक, कदाचित् संक्रामक बहुत और असंक्रामक एक, अप्रतौ वे ' इति पाठ: । ॐ ताप्रतौ ' उ (अणु) काभागस्स' इति पाठः । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ३८९ भंगा वत्तव्वा । साद जसकित्ति उच्चागोदाणं उक्कस्साणुभागस्स णियमा अत्थि संकामया च असंकामया च । एदासिमणुक्कस्साणुभागस्स वि संकामया च असं कामया चणियमा अत्थि । सेसाणं कम्माणं छ भंगा । अपुव्वकरणे परभवियणामाणं बंधवोच्छेदम्मि जेसि कम्माणं उक्कस्सबंधो भणिदो तेसिमुक्कस्सो वा अणुक्कस्सो वा बंध तत्थ होदि, असंखेज्जलोगमेत्त अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणं तत्थ संभवादो । देसि छ भंगा । एवमुक्कस्सपदभंगविचओ समत्तो । जहण्णयस्स वि एवं चेव अट्ठपदं । एदेण अट्ठपदेण पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय -- सम्मत्त - सम्मामिच्छत्त-अनंताणुबंधीणं चटुक्क चदुसंजलण-णवणोकसायआउत्तिउव्वेल्लमा णणामपग्रडि -- उच्चागोद--पंचतराइयाणं जहण्णा णुभागसं कामयाणं छ भंगा। श्रीणगिद्धितिय सादासाद-मिच्छत्त-अट्ठकसाय- तिरिक्खाउअ- अणुब्वेल्लमाणणामपडणं णीचागोदस्स च जहण्णाणुभागस्स णियमा संकामया च असंकामया च । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो । नाणाजीवेहि कालो । तं जहा- साद जसकित्ति उच्चागोदाणं उक्कस्साणुभागसंकामया केवचिरं० ? सव्वद्धा । सेसाणं कम्माणं उक्कस्साणुभागसंकामया जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अप्पसत्थाणं कम्माणं पलिदो० असंखे ० भागां । आउआणमुक्कस्साणुभाग तथा कदाचित् संक्रामक भी बहुत और असंक्रामक भी बहुत होते हैं । ) कहना चाहिये । सातावेदनीय, यशकीर्ति और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट अनुभाग के नियमसे बहुत संक्रामक और बहुत असंक्रामक होते हैं । इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के भी बहुत संक्रामक और बहुत असंक्रामक होते हैं । शष कर्मोंके छह भंग हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान में परभविक नामकर्मोकी बन्धव्यु - च्छित्ति हो जानेपर जिन कर्मोंका उत्कृष्ट बन्ध कहा गया है उनका वहां उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट बन्ध होता है । क्योंकि, वहां असंख्यात लोक मात्र अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंकी सम्भावना है । इस कारण इनके छह भंग होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट-पद-भंगविचय समाप्त हुआ । जघन्य अनुभाग संक्रमके भी विषय में यही अर्थपद है । इस अर्थपदके अनुसार पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सम्यक्त्व, सम्यग्ध्यिात्व अनन्तानुबन्धिचतुष्क, चार संज्वलन, नौ नोकषाय, तीन आयु, उद्वेल्यमान नामप्रकृतियों, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायके जघन्य अनुभाग संक्रामकोंके छह भंग होते हैं । स्त्यानगृद्धि आदि तीन सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, आठ कषाय, तिर्यगायु, अनुद्वेत्यमान नामप्रकृतियों और नीचगोत्रके जघन्य अनुभाग के नियमसे संक्रामक बहुत और असंक्रामक भी बहुत होते हैं । इस प्रकार नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ । नाना जीवोंकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा इस प्रकार है- नातावेदनीय, यशकीर्ति और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रामकोंका काल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका सर्वकाल है । शेष कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रामकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अप्रशस्त कर्मो का पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है । आयु कर्मोके उत्कृष्ट अनुभाग Xxx अ-काप्रत्योः ' सम्वद्धं ' इति पाठः । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० ) छक्खंडागमे संतकम्म संकामयाणं कालो जह० अंतोमु०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो। जासि परभवियणामाणं बंधज्झवसाणस्स चरिमसमए खवओ उक्कस्सागुभागं णिवत्तेदि तासि णामपयडीणं उक्कस्साणुभागसंकामयकालो जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं। पसत्थाणं णामपयडीणं अक्खवयपाओग्गाणं उक्कस्साणुभागसंकमकालो जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० अखंखे०भागो। एवमुक्कस्सकालो समत्तो। एत्तो णाणाजीवेहि जहण्णाणुभागसंकामयकालो। तं जहा-पंचणाणावरण-छदंसणावरण-सम्मत्त-पुरिसवेद-चदुसंजलण-पंचंतराइयाणं जहण्णाणुभागसंकामयाणं कालो जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया। अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंकामया जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। सम्मामिच्छत्त-अट्ठणोकसायाणं जहण्णाणुभागसंकामया जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । तिण्णमाउआणं जहण्णाणुभागसंकामयाणं जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। तिरिक्खाअउस्स जहण्णाजहण्णस्स सव्वद्धा। णिरय-देव-मणसगइणामाणं तप्पाओग्गआणुपुव्वीणामाणं वेउव्वियसरीरवेउब्वियसरीरंगोवंग-बंधण-संघादणामाणं जहण्णाणुभागसंकामयाणं० जह० एगसमओ, उक्क०आवलि०असंखे०भागो। एवमुच्चागोदस्सा आहारसरीर-आहार सरीरअंगोवंग संक्रामकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है। जिन परभविक नामकर्मोके बन्धाध्यवसानके अन्तिम समयमें क्षपक जीव उत्कृष्ट अनभागकी रचना करता है उन नामप्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रामकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । अक्षपक योग्य प्रशस्त नामप्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रामकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है । इस प्रकार उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा समाप्त हुई। यहां नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग संक्रामकोंके कालकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सम्यक्त्व पुरुषवेद, चार संज्वलन और पांच अन्तरायके जघन्य अनुभाग संक्रामकोंका काल जघन्य एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र है। अनन्तानुबंधी कषायोंके जघन्य अनुभाग संक्रामकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है। सम्यग्मिथ्यात्व और आठ नोकषायोंके जघन्य अनुभाग संक्रामकोंका काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है । तीन आयु कर्मोके जघन्य अनुभाग संक्रामकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है । तिर्यगायुके जघन्य व अजघन्य अनुभाग संक्रामकोंका काल सर्वकाल है । नरकगति, देवगति और मनुष्यगति नामकर्मों, तत्प्रायोग्य आनुपूर्वी नामकर्मों, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकबन्धन, और वैक्रियिकसंघात नामकर्मोके जघन्य अनुभाग संक्रामकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है। इसीप्रकार उच्चगोत्रके सम्बन्ध में कहना चाहिये । आहारशरीर, आहारशरीरांगोपांग, 8 अप्रतौ 'आहारसरीरस्साहार', काप्रती 'आहारसरीरस्स आहार' इति पाठः। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं माणुयोगद्दारे अणुभाग संकमो ( ३९१ बंध - संघाद - तित्राणं जहण्णाणुभागसंकामया जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । सेसाणमणुव्वेल्लमाणणामपयडीणं णीचागोदस्स जहण्णाणुभाग संकामयाणं सव्वद्धा । एवं कालो समत्तो । णाणाजीवेहि अंतरं । तं जहा- पंचणाणावरणीय णवदंसणावरणीय असादावेदणीय - मिच्छत्त- सोलसकसाय-णवणोकसाय आउचउक्काणं जसकित्ति मोत्तूण सव्वणामपयडीणं णीचागोद-पंचंतराइयाणं च उक्कस्साणुभागसंकामयंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । साद-सम्मत्त सम्मामिच्छत्त - जसकित्ति - उच्चागोदाणं उक्कस्ताणुभागसंकामयंतरं णत्थि । एवमुक्कस्साणुभागसंकामयंतरं समत्तं । जहणाणु मागसं कामयंनरं । तं जहा - पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय-सम्मत्तसम्मामिच्छत्त- लोहसंजलण - इत्थिवेद - छण्णोकसाय- पंचंतराइयाणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं जह० एयसमओ, उक्क० छम्मासा । तिष्णिसंजलण- पुरिसवेदाणमंतरं एवं चेव । वरि उक्क० वस्सं सादिरेयं । एवं णवंसय वेदस्स । णवरि उक्कस्समंतरं संखज्जाणि वाणि । अणंताणुबंधीणं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । तिण्णमाउआणमंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । जाओ णामपयडीओ सादियसंतकमाओ तासि णामपयडीणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असं आहारबन्धन, आहारसंघात और तीर्थंकर जघन्य अनुभाग संक्रामकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से संख्यात समय मात्र है । शेष अनुद्वल्यमान नामप्रकृतियों और नीचगोत्र के जघन्य अनुभाग संक्रामकों का काल सर्वकाल है । इस प्रकार कालप्ररूपणा समाप्त हुई । नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है । यथा- पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय और चार आयु कर्मोंके तथा यशकीर्तिको छोड़कर सब नामप्रकृतियों, नीचगोत्र और पांच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रामकोंका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र है । सातावेदनीय सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, यशकीर्ति और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रामकोंका अन्तर नहीं होता । इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभाग संक्रामकोंका अन्तरकाल समाप्त हुआ । जघन्य अनुभाग संक्रामकोंके अन्तरकालकी प्ररूपणा इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व संज्वलन लोभ, स्त्रीवेद, छह नोकषाय और पांच अन्तरायके जघन्य अनुभाग संक्रामकोंका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास मात्र है । तीन संज्वलन और पुरुषवेदका भी अन्तरकाल इसी प्रकार ही है । विशेष इतना है कि इनका उक्त अन्तरकाल उत्कर्ष से साधिक एक वर्ष मात्र है । इसी प्रकार नपुंसक - वेदके सम्बन्ध में कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात वर्ष मात्र है । अनन्तानुबन्धी कषायोंका वह अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र है। तीन आयु कर्मोंका वह अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से असंख्यात लोक मात्र है । जो नामप्रकृतियां सादि सत्कर्मवाली हैं उन नामप्रकृतियों के जघन्य अनुभाग संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से असंख्यात लोक मात्र Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ ) छक्खंडागमे संतकम्म लोगा । एवमुच्चागोदस्स वि। सेसाणं णामपयडीणं णीचागोद-तिरिक्खाउअ-मिच्छत्तअट्ठकसाय-सादासाद-णिवाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणं जहण्णाणुभागसंकामयाण णत्थि अंतरं । एवमंतरं समत्तं । सण्णियासो। तं जहा-मदिआवरणस्स उक्कस्साणुभागसंकामगो सुदावरणस्स । तं तु छट्ठाणपदिदा* । एवं जाणिदूण यव्वं । जहण्णसण्णियासो। तं जहा-मदिआवरणस्स जो जहण्णाणुभागसंकामगो सेसाणं चदुण्णं णाणावरणीयाणं णियमा जहण्णाणुभागस्स संकामओ, दंसणावरणस्स चउव्विहस्स णियमा जहण्णाणुभागसंकामगो, णिहा-पयलाणं णियमा असंकामओ, पंचण्णमंतराइयाणं णियमा जहण्णा, सेसाणं जेसि संतकम्ममत्थि तेसि णियमा अजहण्णसंकामओ । एवं सण्णियासो समत्तो। एत्तो अप्पाबहुगं दुविहं सत्थाणे परत्थाणे चेदि । चउसद्विवदियो जो दंडओ तेण पयदं । सो दुविहो उक्कस्सपदे जहण्णपदे चेदि । उक्कस्सेण जहा अणुभागबंध भणिदो तहा उक्कस्सए अणुभागसंकमे कायन्वो । णवरि सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्ते है। इसी प्रकार उच्चगोत्रकी भी प्ररूपणा करना चाहिये। शेष नामप्रकृतियों, नीचगोत्र, तिर्यगायु, मिथ्यात्व, आठ कषाय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिके जघन्य अनुभाग संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है। इस प्रकार अन्तरकालकी प्ररूपणा समाप्त हुई। संनिकर्षकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- मतिज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक श्रुतज्ञातावरणके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है । वह षट्स्थानपतित होता है। इस प्रकार जानकर आगे भी ले जाना चाहिये। जघन्य अनुभाग संक्रामकके संनिकर्षकी प्ररूपणा इस प्रकार है- जो मतिज्ञानावरण के जघन्य अनुभागका संक्रामक है वह नियमसे शेष चार ज्ञानावरण प्रकृतियों के जघन्य अनुभाभागका संक्रामक होता है, वह चार प्रकार दर्शनावरणके नियमसे जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है, निद्रा और प्रचलाका नियमसे असंक्रामक होता है, वह पांच अन्तराय प्रकृतियोंके नियमसे जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है, शेष प्रकृतियोंमें जिनका सत्त्व है उनके नियमसे अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है। इस प्रकार संनिकर्षकी प्ररूपणा समाप्त हुई। यहां स्वस्थान और परस्थानके भेदसे अल्पबहुत्व दो प्रकारका है। चौंसठ पदवाला जो अल्पबहुत्वदण्डक है वह यहां प्रकृत है । वह दो प्रकारका है- उत्कृष्ट पद विषयक और जघन्य पद विषयक । उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा जैसे अनुभागबन्धके विषयमें उक्त अल्पबहुत्वदण्डकका कथन किया गया है वैसे ही उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमके विषयमें भी उसका कथन करना चाहिये। विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा सम्यक्त्वमें 'अनन्तगुणहीन' * ताप्रती ' छट्ठाणं पदिदा' इति पाठः । . ४ प्रतिषु 'अण भागसंकमो' इति पाठः । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो अणंतगुणहीणमिदि णिढावयाणि पदिदाणि कादवाणि । एदं वदिरित्तं उक्कस्सबंधादो संकमे उक्कस्से ।। जहण्णेण सव्वमंदाणुभागो लोहसंजलणो । माया० अणंतगुणो। माणो अणंतगुणो। कोधो अणंतगुणो। पुरिस० अणंतगुणो। सम्मत्ते० अणंतगुणो। सम्मामिच्छत्ते अणंतगुणो। मणपज्जव० दाणंतराइय० अणंतगुणो। ओहिणाणावरण० लाहंतराइय० अणंतगुणो। सुद० अचक्षुदं० भोगतराइय० अणंतगुणो। चक्खु० अणंतगुणो। मदि० परिभोगंतराइय० अणंतगुणो। केवलणाण-केवलदसणावरण-वीरियंतराइय०अणंतगुणो। पयला० अणंतगुणो। णिद्दा अणंतगुणो। हस्स० अणंतगुणो। रदि० अणंतगुणो। दुगुंछा० अणंतगुणो। भय० अणंतगुणो। सोग० अणंतगुणो। अरदि० अणंतगुणो। इत्थि० अणंतगुणो । णवंस० अणंतगुणो। अणताणुबंधिमाणे० अणंतगुणो। कोधे० विसेसाहियो। माया० विसे०। लोहे० विसे । वेउब्वियसरीर० अणंतगुणो। तिरिक्खाउअ० अणंतगुणो। मणुस्साउ० अणंतगुणो। णिरयगई० अणंतगुणो। मणुसगई० अणंतगणो । देवगई० अणंतगुणो । उच्चागोद० अणंतगुणो। णिरयाउ० अणंतगुणो। देवाउ० अणंतगुणो। ओरालिय० अणंतगुणो। तेजा० अणंतगुणो। कम्मइय० अणंत इस प्रकार निष्ठापक पतितोंको करना चाहिये, अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व' इन दो अबन्ध प्रकृतियोंके भी अल्पबहुत्वको यहां अनन्तगुणहीनक्रमसे कहना चाहिये। यह उत्कृष्ट बन्धकी अपेक्षा उत्कष्ट संक्रममें भेद है। जघन्य पदकी अपेक्षा संज्वलन लोभ सर्वमन्द अनुभागवाला हैं। संज्वलन माया अनन्तगुणी है। संज्वलन मान अनन्तगुणा है। संज्वलन क्रोध अनन्तगुणा है। पुरुषवेदमें वह अनन्तगुणा है। सम्यक्त्वमें अनन्तगुणा है। सम्यग्मिथ्यात्वमें अनन्तगुणा है । मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायमें अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरण और लाभान्तरायमें अनन्तगुणा हैं। श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायमें अनन्तगुणा है। चक्षुदर्शनावरण में अनन्तगुणा है। मतिज्ञानावरण और परिभोगान्तरायमें अनन्तगुणा है। केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और वीर्यान्त रायमें अनन्तगुणा है । प्रचलामें अनन्तगुणा है । निद्रामें अनन्तगुणा है । हास्यमें अनन्तगुणा है। रतिमें अनन्तगुणा है। जुगुप्सामें अनन्तगुणा है। भयमें अनन्तगुणा है। शोकमें अनन्तगुणा है। अरतिमें अनन्तगुणा है । स्त्रीवेदमें अनन्तगुणा है । नपुंसकवेदमें अनन्तगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें अनन्तगुणा है । अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी लोभमें विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीरमें अनन्तगुणा है। तिर्यंचआयुमें अनन्तगुणा है। मनुष्यायुमें अनन्तगुणा है। नरकगतिमें अनन्तगुणा है। मनुष्यगतिमें अनन्तगुणा है । देवगतिमें अनन्तगुणा है । उच्चगोत्रमें अनन्तगुणा है। नारकायु में अनन्तगुणा है। देवायुमें अनन्तगुणा है । औदारिकशरीरमें अनन्तगुणा है । तैजसशरीरमें अनन्तगुणा है। कार्मण ताप्रती ' उनकस्से० जहणणेण । सब्वमदाणुभागो' इति पाठः । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ ) छवखंडागमे संतकम्मं गुणो । तिरिक्खगई० अनंतगुणो । णीचागोद० अनंतगुणो । असजकित्ति० अनंतगुणो । पलापयला. अनंतगुणो । णिद्दाणिद्दा० अनंतगुणो । थोर्णागिद्धि० अनंतगुणो । अपच्चक्वाणमाणे ० अनंतगुणो । कोधे० विसेसाहिओ । माया० विसेसा० । लोभे० विसे० । पच्चक्खाणमाणे अनंतगुणो । कोधे विसेसा० । मायाए० विसे० । लोभे० विसे० । असाद० अतगुणो । जसकित्ति० अनंतगुणो । साद० अनंतगुणो । मिच्छत्त० अणंतगुणो । आहार० अनंतगुणो । एवमोघो समत्तो । 1 रिगईए सव्वमंदाणुभागं सम्मत्तं । सम्मामिच्छत्त अनंतगुणो । अणंताणुबंधिमाणे० अनंतगुणो । कोधे० विसे० । माया० विसे० । लोभे० विसे० । तिरिखखाउ० अनंतगुणो । मणुस्सा उ० अनंतगुणो । णिरयाउ० अनंतगुणो । ओरालिय० अनंतगुणो । उ० अनंतगुणो | तेजा० अनंतगुणो । कम्मइय० अनंतगुणो । हस्स० अनंतगुणो । रदि० गुण । रिगई० अनंतगुणो । तिरिक्खगई० अनंतगुणो । मणुस गई ० अनंतगुणो । देवगई. अनंतगुणो | णीचागोद० अनंतगुणो । अजसगित्ति ० अणंतगुणो । पयला० अनंतगुण | णिद्दा० अनंतगुणो । पयलापयला० अनंतगुणो । णिद्दाणिद्दा० अनंतगुणो । दुगंछा० अतगुणो । भय० अनंतगुणो । सोग० अनंतगुणो । अरदि० अनंतगुणो । पुरिसवेद० O O शरीरमें अनन्तगुणा है । तिर्यग्गति में अनन्तगुणा है । नीचगोत्र में अनन्तगुणा है । अयशकीर्ति अनन्तगुणा है । प्रचलाप्रचलानें अनन्तगुणा है । निद्रानिद्रा में अनन्तगुणा है । स्त्यानगृद्धि में अनन्तगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण मानमें अनन्तगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण लोभ में विशेष अधिक है । असातावेदनीय में अनन्तगुणा है । यशकीर्ति में अनन्तगुणा है । सातावेदनीयमें अनन्तगुणा है । मिथ्यात्वमें अनन्तगुणा है | आहारशरीर में अनन्तगुणा है । इस प्रकार ओघ अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । नरकगति में सबसे मन्द अनुभागवाली सम्यक्त्व प्रकृति है । उससे सम्यग्मिथ्यात्व में वह अनन्तगुणा है । अनन्तानुबन्धी मानमें अनन्तगुणा है । अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी लोभ में विशेष अधिक है । तिर्यगायुमें अनन्तगुणा है | मनुष्यायुमें अनन्तगुणा है । नारकायुमें अनन्तगुणा है । औदारिकशरीरमें अनन्तगुणा है । वैक्रियिकशरीर में अनन्तगुणा हैं । तैजसशरीर में अनन्तगुणा है। कार्मणशरीरमें अनन्तगुणा है । हास्य में अनन्तगुणा है । रतिमें अनन्तगुणा है । नरकगतिम् अनन्तगुणा है । तिर्यचगति में अनन्तगुणा है । मनुष्यगति में अनन्तगुणा है । देवगतिम अनन्तगुणा है । नीचगोत्र में अनन्तगुणा है । अयशकीर्ति में अनन्तगुणा है । प्रचलामें अनन्त - गुणा है । निद्रा अनन्तगुणा है । प्रचलाप्रचलामें अनन्तगुणा है । निद्रानिद्रामें अनन्तगुणा है । जुगुप्सा में अनन्तगुणा है । भयमें अनन्तगुणा है । शोकमें अनन्तगुणा है । अरतिम Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ३९५ अणंतगुणो । इत्थिवेद० अणंतगुणो । णवंसय० अणंतगुणो । मणपज्ज० अणंतगुणो । थीणगिद्धि० अणंतगुणो । दाणंतराइय०० अणंतगणो । ओहिणाण० ओहिदसण० लाहंतराइय० अणंतगुणो । सुदणाण. अचक्खुदंसण० भोगंतराइय० अणंतगुणो। चक्खु० अणंतगुणो। आभिणिबोहिय० परिभोगंतराइय० अणंतगुणो । अपच्चवखाणमाणे० अणंतगुणो। कोहे० विसेसाहिओ। माया०विसे । लोभे० विसे । पच्चक्खाणमाणे० अणंतगुगो । कोहे० विसे० । माया० विसे० । लोभे० विसे० । संजलणमाणे० अणंतगुणो। कोहे० विसे । माया० विसे० । लोभे० विसे० । केवलणाण. केवलदंसण० असाद० वीरियं० अणंतगुणो। उच्चागोद० अणंतगुणो। अजसकित्ति० अणंतगुणो । साद० अणंनगुणो। मिच्छत्त० अणंतगुणो । आहारसरीर० अणंतगुणो। एवं णिरयगईए जहण्णओ अणुभागसंकमदंडओ समत्तो। तिरिक्खगईए सव्वमंदाणुभागं सम्मत्तं । सम्मामिच्छत्त० अणंतगुणो 1 अणंताणुबंधिमाणे अणंतगुणो । कोधे० विसे । माया० विसे० । लोभे० विसे० । वेउव्वियसरीर० अणंतगुणो। तिरिक्खाउ० अणंतगुणो । मणुस्साउ० अणंतगुणो । णिरयगई० अणंतगुणो । मणुसगई० अणंतगुणो। देवगई ० अणंतगुणो । उच्चागोद० अणंतगुणो। अनन्तगुणा है। पुरुष वेदमें अनन्तगुणा है। स्त्रीवेदमें अनन्तगुणा है। नपुंसकवेदमें अनन्तगुणा है। मनःपर्ययज्ञानावरण में अनन्तगुणा है। स्त्यानगृद्धि में अनन्तगुणा है। दानान्तरायम अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायमें अनन्तगुणा है । श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायमें अनन्तगुणा है। चक्षुदर्शनावरणमें अनन्तगुणा है । आभिनिबोधिकज्ञानावरण ओर परिभोगान्तरायमें अनन्तगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें अनन्तगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण माया में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण लोभ में विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मानमें अनन्तगुणा है। प्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है। संज्वलन मानमें अनन्तगुणा है। संज्वलन क्रोध में विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है । केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, असातावेदनीय और वीर्यान्तरायमें अनन्तगुणा है। उच्चगोत्रमें अनन्तगुणा है । अयशकीर्तिमें अनन्तगुणा है । सातावेदनीयमें अनन्तगुणा है। मिथ्यात्वमें अनन्तगुणा है। आहारशरीरमें अनन्तगुणा है। इस प्रकार नरकगतिमें जघन्य अनुभागसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। तिर्यंचगतिमें सम्यक्त्व प्रकृति सबसे मन्द अनुभागवाली है। उससे सम्यग्मिथ्यात्वम वह अनन्तगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें अनन्तगुणा है। अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी लोभमें विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीरमें अनन्तगुणा है। तिर्यगायुमें अनन्तगुणा है। मनुष्यायुमें अनन्तगुणा है। नरकगतिमें अनन्तगुणा है। मनुष्यगतिमें अनन्तगुणा है । देवगतिमें अनन्तगुणा है । ४ अ-काप्रत्योः 'थीणगिद्धि० दाणंतराइय०' इति पाठः। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ) छक्खंडागमे संतकम्मं रियाज अनंतगुणो । देवाउ० अनंतगुणो । ओरालिय० अगंतगुणो | तेजा० अनंतगुणो । कम्मइय० अनंतगुणो । हस्स० अनंतगुणो । रदि० अनंतगुणो । तिरिक्खगई० अनंतगुणो । णीचागोद० अगंतगुणो । अजसकित्ति ० अनंतगुणो । पयला० अनंतगुणो । णिद्दा० अनंतगुणो । पयलापयला० अनंतगुणो । णिद्दाणिद्दा अनंतगुणो । दुगंछा० अनंतगुणो । भय० अनंतगुणो । सोग० अनंतगुणो । अरदि० अनंतगुणो । पुरिसवेद० अनंतगुणो । इत्थिवेद० अनंतगुणो । णवुंस० अनंतगुणो 1 मणपज्जवणाण अनंतगुणो । थोणगिद्धि० अनंतगुणो । दाणंतराइय० अनंतगुणो । ओहिणाण० ओहिदंसण० लाहंतराइय० अनंतगुणो । सुदणाण० भोगंतराइय० अतगुणो । चक्खु अनंतगुणो । मदिणाण० परिभोगंतराइय० अगंतगुणो । अपच्चक्वाणमाणे ० अनंतगुणो । कोधे० विसे० । माया० विसे० । लोभे० विसे० । पच्चक्खामाणे अनंतगुणो । कोधे विसे० । माया० विसे० । लोभे० विसे । संजलमाणे ० गुण | को० विसे० । माया० विसे० । लोहे० विसे० । केवलगाण० केवलदंसणअसाद० विरियंतराइय० अनंतगुणो । जसगित्ति० अनंतगुणो । साद० अतगुणो । ० उच्चगोत्र में अनन्तगुणा है । नारकायुमें अनन्तगुणा है । देवायुमें अनन्तगुणा है । औदारिकशरीर में अनन्तगुणा । तैजसशरीर में अनन्तगुणा है । कार्मणशरीरमें अनन्तगुणा है । हास्य अनन्तगुणा है । रतिमें अनन्तगुणा है । तिर्यंवगति में अनन्तगुणा है । नीचगोत्र में अनन्तगुणा है । अयशकीर्ति में अनन्तगुणा है । प्रचलामें अनन्तगुणा है । निद्रामें अनन्तगुणा हैं। प्रचलाप्रचला में अनन्तगुणा है निद्रानिद्रा में अनन्तगुणा है । जुगुप्सामे अनन्तगुणा है । भयमें अनन्तगुणा है । शोक में अनन्तगुणा है । अरतिमें अनन्तगुणा है । पुरुषवेद में अनन्तगुणा है । स्त्रीवेदमें अनन्तगुणा है । नपुंसकवेद में अनन्तगुणा है । मन:पर्ययज्ञानावरण में अनन्तगुणा है । स्त्यानगृद्धि में अनन्तगुणा है । दानान्तरायमें अनन्तगुणा है । अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तराय में अनन्तगुणा है। श्रुतज्ञानावरण और भोगान्तराय में अनन्तगुणा है । चक्षुदर्शनावरण में अनन्तगुणा है । मतिज्ञानावरण और परिभोगान्तराय में अनन्तगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण मानमें अनन्तगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण लोभ में विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें अनन्तगुणा है । प्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है । संज्वलन मानमें अनन्तगुणा है । संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक है । संज्वलन मायामें विशेष अधिक है । संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है । केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, असातावेदनीय और वीर्यान्तराय में अनन्तगुणा है । यशकीर्ति में अनन्तगुणा है । सातावेदनीय में इति पाठः । अ-काप्रत्योः 'णीचागोद० अजसगिति० * अ-काप्रत्योः • मणपज्जवणाण० थीणगिद्धि० दाणनराइय० इति पाठः । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ३९७ मिच्छत्त० अणंतगुणो । एवं तिरिक्खगईए जहण्णाणुभागसंकमदंडओ समत्तो। तिरिक्खजोणिणीसु सव्वाणि पदाणि जहा तिरिक्खगदीए कदाणि तहा कायव्वाणि । मणुसेसु ओघे जहण्णाणुभागसंकमदंडयादो ताव णाणत्तं णत्थि जाव णिरयगइ त्ति । तदो णिरयगइणामादो देवगदि० अणंतगुणो। णिरयाउ० अणंतगुणो । देवाउ० अणंतगुणो । मणुसगई अणंतगुणो । उच्चागोद० अणंतगुणो । ओरालिय० अणंतगुणो । एतो अवसेसाणि पदाणि जहा ओघजहण्णदंडए कदाणि तहा कायव्वाणि। एवं मणुस्सेसु जहण्णाणुभागसंकमदंडओ समत्तो । ___ जहा मणुस्सेसु तहा मणुसिणीसु । जहा रइएसु तहा देवेसु देवीसु च । जहा तिरिक्खगईए तहा बेइंदिय-तेइंदिय-चतुरिदिएसु । केण कारणेण जहा तिरिक्खगईए तहा विलिदिएसु त्ति भणिदं ? देवगइ-मणुसगइ-णिरयगइ-वेउव्वियसरीरचउक्कउच्चागोदाणं संजुत्तपढमसमयजहण्णाणुभागसंतकम्मस्प्त विलिदिएसुवलंभादो, अणंतागुबंधिणो पुव्वं विसंजोइदसासणसम्माइट्ठिस्स दुसमयसंजुत्तस्स तस्स जहण्णाणुभागस्स विलिदिएसुवलंभादो च । तेण जहा तिरिक्खगदीए तहा विलिदिएसु त्ति सुहासियं। अनन्तगुणा है । मिथ्यात्व में अनन्तगुणा है। इस प्रकार तिर्यंचगतिमें जघन्य अनुभागसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। ___जिस प्रकारसे तिर्यंचगतिमें सब पदोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे तिर्यंच योनिमतियोंमें भी उक्त सब पदोंकी प्ररूपणा करना चाहिये । मनुष्योंमें ओघनिरूपित जघन्यअनुभागसंक्रमदण्डककी अपेक्षा नरकगति नामकर्म तक कोई विशेषता नहीं है। तत्पश्चात् नरकगति नामकर्मकी अपेक्षा देवगति नामकम में वह अनन्तगुणा है। उससे नारकायुमें अनन्तगुणा है । देवायुमें अनन्तगुणा है। मनुष्यगति नामकर्ममें अनन्तगुणा है। उच्चगोत्रमें अनन्तगुणा है। औदारिकशरीरमें अनन्तगुणा है। यहां शेष पदोंकी प्ररूपणा जसे ओघ जघन्य दण्डकमें की गई है बैसे करना चाहिये । इस प्रकार मनुष्योंमें जघन्य अनुभागसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। उक्त प्ररूपणा जिस प्रकार मनुष्योंमें की गई है उसी प्रकार मनुष्यनियोंमें भी करना चाहिये । उक्त दण्डकको प्ररूपणा जिस प्रकार नारकियोंमें की गयी है उसी प्रकार देवोंमें और देवियोंमें भी करना चाहिये। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें तिर्यंचगतिके समान प्ररूपणा करना चाहिये। शंका-विकलेन्द्रिय जीवोंकी वह प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान किस कारणसे बतलायी है ? समाधान- इसका कारण यह है कि देवगति, मनुष्यगति, नरकगति, वंक्रियिकशरीरचतुष्क और उच्चगोत्रका संयुक्त होने के प्रथम समयवर्ती जघन्य अनुभागसत्कर्म विकलेन्द्रिय जीवोंमें पाया जाता है, तथा सासादनसम्यग्दृष्टिमें पूर्व विसंयोजित अनन्तानुबन्धीका संयुक्त होनेके द्वितीय समयवर्ती वह जघन्य अनुभागसत्कर्म विकलेन्द्रिय जीवोंमें पाया जाता है। इस कारण विकलन्द्रियोंकी जो वह प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान कही है, यह ठीक ही कहा गया है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं -- तो भुजगार संक अट्ठपदं । तं जहा जे एहि अणुभागस्स प.या संकामिज्जति तेजइ अनंतर विदिक्कते समए संकामिदकद्द एहिंतो बहुआ होंति तो एसो भुजगार संकमो' अह जइ ततो थोवा होंति तो एसो अप्पदरसंकमो । जदि तत्तियो चेव दोसु वि समएस फयाणं संकमो होदि तो एसो अवट्ठियसंकमो । एदेण अट्ठपदेण सामित्तं --मदिआवरणस्स भुजगार संकमो कस्स ? जो संतकम्मस्स हेट्ठदो तेण सम वा बंधतो अच्छिदो सो तदो उवरिमाणुभागं बंधिय बंधावलियादिक्कतं संक्रममाणस्स भुजगार संकमो । अप्पदरसंकमो अणुभागखंडयघादेण विणा णत्थि । जेण अणुभागखंडयं उक्कोरिज्जमणमुक्किण्णं सो से काले अप्पदरसंकामओ । अवट्टिदसंकामओ को होदि ? भुजगारअप्पदर- अवत्तव्ववदिरित्तो । चत्तारिणाणावरणीय-गवदंसणावरणीय सादासादमिच्छत्ताणं मदिआवरणभंगो | एव सोलसकसाय - णवणोकसायाणं । णवरि एत्थ अवत्तव्वसंकामओ वि अस्थि । सम्मत्त -- सम्मामिच्छत्ताणं अत्थि अप्पदरअवट्ठिद -- अवत्तव्वसंकमो भुजगारसंकमो णत्थि । चदुण्णमाउआणं सादियसंतकम्मियाणं णामपयडोणं उच्चागोदाणं ण णाणावरणभंगो । णवरि अवत्तव्वसंकमो वि अत्थि । तित्थयरणामाए अत्थि भुजगार- यहां भुजाकार संक्रम में अर्थपदकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- अनुभाग के जो स्पर्धक इस समय संक्रमणको प्राप्त कराये जाते हैं वे यदि अनन्तर बीते हुए समय में संक्रामित अनुभागस्पर्धकों की अपेक्षा बहुत है तो यह भुजाकार संक्रम कहलाता है । परन्तु यदि इस समय में संक्रमणको प्राप्त कराये जानेवाले वे ही अनुभागस्पर्धक अनन्तरम् वीते हुए समय में संक्रामित स्पर्धकोंकी अपेक्षा स्तोक हैं तो यह अल्पतर संक्रम कहा जाता है । यदि दोनों ही समयों में उतना उतना मात्र ही अनुभागस्पर्धकोंका संक्रम होता है तो यह अवस्थित संक्रम कहलाता है । ( पूर्व में असंक्रामक होकर संक्रम करना, इसे अवक्तव्य संक्रम कहा जाता है । । इस अर्थ पदके अनुसार स्वामित्वका कथन करते हैं- मतिज्ञानावरणका भुजाकार संक्रम किसके होता है ? जो जीव सत्कर्मसे कम अथवा उसके बराबर ही अनुभागको बांधता हुआ स्थित है वह उससे अधिक अनुभागको बांधकर व बन्धावलीको विताकर जब उसको संक्रात कर रहा हो तब उसके मतिज्ञानावरणका भुजाकार संक्रम होता है। अल्पतर संक्रम अनुभागकाण्डकघात के विना नहीं होता । जो उत्कीर्ण किये जानेवाले अनुभागकाण्डकको उत्कीर्ण कर चुका है वह अनन्तर समय में उसका अल्पतरसंक्रामक होता है । अवस्थितसंक्रामक कौन होता है ? भुजाकार अल्पतर और अवक्तव्य संक्रामकसे भिन्न जीव अवस्थित संक्रामक होता है। शेष चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, और मिथ्यात्वकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायों के सम्बन्ध में कहना चाहिये । विशेष इतना है कि यहां अवक्तव्य संक्रामक भी होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रम होता है; उनका भुजाकार संक्रम नहीं होता । चार आयु कर्मों, सादिसत्कर्मिक नामप्रकृतियों और उच्चगोत्रकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि इनका * अप्रतौ ' तेजइय अनंतर ' इति पाठ: । XXX अप्रत थोवो' इति पाठः । • Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो अवट्रिय-अवत्तव्वसंकमो, अप्पदरसंकामगो णत्थि । अणादिसंतकम्मियाणं णामपयडीणं णीचागोद-पंचंतराइयाणं णाणावरणभंगो। . एयजीवेण कालो- णाणावरणस्स भुजगारसंकामओ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । अप्पदरसंकामयाणं कालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अवट्ठियसंकामयाणं जह० एयसमओ, उक्क० बेछावद्धिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । णवदंसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त--सोलसकसाय-णवणोकसाय-सव्वणामपयडीणं-उच्च-णीचागोद-पंचंतराइयाणं च णाणावरणभंगो। णवरि आहारच उक्क० अवट्टियस्स पलिदो० असंखे० भागो। एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । णवरि अवट्टिदस्स जह० अंतोमुहुत्तं । तित्थयरणामाए भुजगार० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अवट्ठिय० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । चदुण्णमाउआणं भुजगार० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुत्तं । अप्पदर० जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अवट्ठिय० जह० एगसमओ। उक्क० देव-णिरयाउआणं तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि, मणुसतिरिक्खाउआणं तिणिपलिदो० सादिरेयाणि । कालादो अंतरं णेयव्वं । णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं च साहेदूण णेयव्वं । अवक्तव्यसंक्रम भी होता है। तीर्थकर नामकर्मका भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रम होता है; किन्तु उसका अल्पतर संक्रामक नहीं होता। अनादिसकर्मिक नामप्रकृतियों, नीचगोत्र और पांच अन्तरायकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है- ज्ञानावरणके भुजकारसंक्रामकका काल जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। अल्पतरसंक्रामकोंका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। अवस्थितसंक्रामकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पाधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। नौ दर्शनावरण. सातावेदनीय. असातावेदनीय. मिथ्यात्व. सोलह कषाय, नौ नोकषाय, सब नामप्रकृतियों, उच्चगोत्र, नीचगोत्र और पांच अन्तरार प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि आहारचतुष्कके अवस्थितसंक्रामकका काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके कहना चाहिये। विशेष इतना है कि इनके अवस्थितसंक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्महुर्त है। तीर्थंकर नामकर्मके भुजाकारसंक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे मात्र है। उसके अवस्थितसंक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। चार आय कर्मोके भजाकारसंक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्महर्त मात्र है। इनके अल्पतरसंक्रामकका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। अवस्थितसंक्रामकका काल जघन्यसे एक समय है । उत्कर्षसे वह देवायु और नारकायुका साधिक तेतीस सागरोपम तथा मनुष्य व तिर्यच आयुका साधिक तीन पल्योपम मात्र है। कालके आश्रयसे अन्तरको भी ले जाना चाहिये । नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तरको भी सिद्ध करके ले जाना चाहिये । त्रि प्रती । देवणेरइयाणं आउअं' इत पाठ Jain Educationaअप्रतो देवणेरइयाणं आउअं' इते पा & Personal use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ) छक्खंडागमे संतकम्म एत्तो अप्पाबहुअं- णाणावरणस्स अप्पदर० थोवा । भुजगार. असंखे० गुणा । अवट्ठिय० असंखे० गुणा । एवं णवदंसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त-सोलसकसायणवणोकसायाणं । णवरि सोलसक० - णवणोकसायाणं अवत्तव्व० थोवा । अप्पदर० अणंतगुणा । भुजगार० असंखे० गुणा । अवट्ठिय० संखे० गुणा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अप्पदर० थोवा । अवत्तव्व० असंखे० गुणा । अवट्ठिय० असंखे० गुणा । णिरयाउअस्स अप्पदर० थोवा । अवत्तव्व० संखे० गुणा । भुजगार० असंखे० गुणा । अवट्ठिय० असंखे० गुणा। देवाउअस्स णिरयाउअभंगो । मणुसाउअस्स अप्पदर० थोवा । अवत्तव्व विसेसा० । भुजगार० असंखे० गुणा । अवट्ठिय० संखे० गुणा। तिरिक्खाउअस्स अवत्तव्व० थोवा । अप्पदर० अणंतगुणा । भुजगार० असंखे० गुणा । अवट्ठिय० संखे० गुणा । णिरयगईए अवत्तव्व० थोवा । भुजगार० असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । अवट्ठिय०असंखे०गुणा । देवगइ-वेउब्वियसरीराणं णिरयगइभंगो। मणुसगइ० अवत्तव्व० थोवा । अप्पदर० अणंतगुणा। भुजगार० असंखे० गुणा। अवट्ठिद० अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है- ज्ञानावरणके अल्पतर अनुभाग संक्रामक स्तोक हैं । भुजाकार अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अवस्थित अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके भी अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिए। विशेष इतना है कि सोलह कषाय और नौ नोकषायके अवक्तव्य अनुभाग संक्रामक स्तोक है। अल्पतर अनुभाग संक्रामक अनन्तगुणे है। भुजाकार अनुभाग सक्रामक असंख्यातगुणे है। अवस्थित अणुभाग संक्रामक संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर अनुभाग संक्रामक स्तोक हैं । अवक्तव्य अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अवस्थित अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। नारकायुके अल्पतर अनुभाग संक्रामक स्तोक है। अवक्तव्य अनुभाग संक्रामक संख्यातगुणे हैं । भुजाकार अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे है । अवस्थित अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । देवायु के इस अल्पबहुत्वको प्ररूपणा नरका के समान है। मनुष्यायुके अल्पतर अनुभाग संक्रामक स्तोक है। अवक्तव्य अनुभाग संक्रामक विशेष अधिक हैं । भुजाकार अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अवस्थित अनुभाग संक्रामक संख्यातगुणे हैं। तिर्यगायुके अवक्तव्य अनुभाग संक्रामक स्तोक हैं । अल्पतर अनुभाग संक्रामक अनन्तगुणे हैं । भुजाकार अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अवस्थित अनुभाग संक्रामक संख्यातगुणे है । नरकगतिके अवक्तव्य अनुभाग संक्रामक स्तोक हैं । भुजाकार अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अवस्थित अनुभाग संक्रामक असंख्यातगणे हैं। देवगति और वैक्रियिकशरीरकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है। मनुष्यगतिके अकक्तव्य अनुभाग संक्रामक स्तोक हैं । अल्पतर अनुभाग संक्रामक अनन्तगुणे हैं। भुजाकार अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे है । अवस्थित अनुभाग संक्रामक संख्यातगुणे हैं । उच्चगोत्रकी Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ४०१ संखे० गुणा । उच्चागोदस्स मणुसगइभंगो । अणादियसंतकम्मियाणं णामपयडीणं णीचागोद-पंचंतराइयाणं च णाणावरणभंगो। आहारसरीरस्स अवत्तव्व० थोवा । भुजगार० संखे० गुणा । अप्पदर० संखे० गुणा । अवट्ठिय० असंखे० गुणा । तित्थयरस्त आहारभंगो । एवमणुभागभुजगारसंकमो समत्तो। एत्तो पदणिक्खेवो- णाणावरणस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? जो तप्पाओग्गेण जहण्णाणुभागसंतकम्मेण उक्कस्ससंकिलेसं गदो* तदो उक्कस्सओ अणुभागो पबद्धो आवलियादिवकंतस्स उक्कस्सिया अणुभागसंकमवड्ढी अवट्ठाणं च । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जो उक्कस्सादो अणुभागसंतकम्मादो उक्कस्समणुभागघादं करेदि तस्स अणुभागखंडए घादिदे सेसाणुभागसंतकम्मं से काले संकामेंतस्स उक्कस्सिया हाणी अणुभागसंकमस्स । एवं सव्वेसिमप्पसत्थाणं कम्माणं । सादस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? समयाहियावलियअकसायस्स खवयस्स । उक्क० हाणी कस्स? जो उवसामयचरिमसमयसुहुमसांपराइएण बद्धसादाणुभागं मिच्छत्तं गंतूण उक्कस्सएण अणुभागखंडएण घादिय सेसं संकामेमाणओ* तस्स उक्कस्सिया हाणी । उक्कस्समवट्ठाणं वड्ढीए । जसकित्ति-उच्चागोदाणं सादभंगो। प्ररूपणा, मनुष्यगतिके समान है । अनादिसत्कमिक नामप्रकृतियों, नीच गोत्र और पांच अन्तरायोंकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । आहारशरीरके अवक्तव्य अनुभाग संक्रामक स्तोक हैं । भुजाकार अनुभाग संक्रामक संख्यातगुणे हैं । अल्पतर अनुभाग संक्रामक संख्यातगुणे हैं । अवस्थित अनुभाग संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। तीर्थंकर नामकर्मकी प्ररूपणा आहारशरीरके समान है । इस प्रकार अनुभागभुजाकारसंक्रम समाप्त हुआ। यहां पदनिक्षेपकी प्ररूपणा करते हैं । - ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमवृद्धि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागसत्कर्म के साथ उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ है और तत्पश्चात् जिसने उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध किया है उसके आवली मात्र कालके वीतनेपर उसकी उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमवृद्धि और अवस्थान भी होता है । उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है? जो उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मसे उत्कृष्ट अनुभागका घात करता है उसके अनुभागकाण्डकका घात कर चुकनेपर अनन्तर कालमें शेष अनुभागसत्कर्मका संक्रम करते समय उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमकी हानि होती है । इस प्रकार सब अप्रशस्त कर्मों के सम्बन्धमें कहना चाहिये । सातावेदनीयकी उत्कृष्ट अन भागसंक्रमवद्धि किसके होती है ? वह एक समय अधिक मात्र कालवर्ती अकषाय क्षपकके होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है? जो चरम समयवर्ती सूक्ष्म सांपरायिक उपशामकके द्वारा बांधे गये सातावेदनीयके अनुभागको मिथ्यात्वको प्राप्त हो उत्कृष्ट अनुभागकाण्डक द्वारा घातकर शेष अनुभाग का संक्रम कर रहा है उसके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । उसका उत्कृष्ट अवस्थान वृद्धि में होता है । यशकीति और उच्चगोत्रकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है। * अप्रतौ 'संकिलेसादो' इति पाठः । ४ ताप्रती 'पबद्धो (नस्स-) आवलियादिक्कस्स' इति पाठः। 0 अप्रती 'घादे', ताप्रतौ 'घादेदि' इतिपाठः। अप्रतौ ‘से संकामेमाणओ' इति पाठः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं एत्थ अट्ठपदं - सादस्स उक्कस्सेण अणुभागघादं मिच्छाइट्ठी मज्झिमपरिणामो चेव कुणदि - सुविसुद्ध ण हर्णादि, अइसंकिलिट्ठो वि ण हणदि । कुदो ? साभावि - यादो। एवं सव्वेंस पसत्यकम्माणं । अभव * सिद्धियपाओग्गउक्कस्ससादाणुभागस्स अनंते भागे मज्झिमपरिणामेहि मिच्छाइट्ठी हणदि । जेत्तियमेत्तफद्दयाणि अभवसि - द्वियपाओग्गउक्कस्साणुभागादो मज्झिमपरिणामेहि घादेदि सुहुमसांपराइएण णिव्वfresh साणुभागं पि घादेमाणो तत्तियमेत्ताणि चेव फद्दयाणि घादेदि । एदेण कारणेण भवसिद्धिएण वा अभवसिद्धिएण वा णिव्वत्तिदउवकस्साणुभागे अणुभागखंडण मिच्छाइट्टिणा मज्झिमपरिणामेग घादिदे अणुभागसंकमस्स उक्क० हाणी होदि । एवं सव्वेंस पसत्थकम्माणं । एवमुक्कस्ससामित्तं समत्तं । मदिआवरणस्स जहणिया अणुभागसंकमवड्ढी कस्स ? जो सुहुमेइंदियो हद - समुत्पत्तियकमेण कदजहण्णाणुभागसंकमो अप्पणो जहण्णसंतकम्मादो पक्खेवुत्तरं बंधिय आवलियादिक्कतं संकामेदि तस्स जहण्णिया वड्ढी । जह० हाणी कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्यस्स । जहण्णमवद्वाणं जहण्णवड्ढीए दादव्वं । एवं चउणाणावरण- चउदसणावरणाणं पि वत्तव्वं । णिद्दा-पयलाणं पि मदिणाणावरण भंगो। यहां अर्थपद - उत्कर्षसे सातावेदनीयके अनुभागघातको मध्यम परिणामवाला मिथ्यादृष्टि ही करता है, उसका घात न अतिशय विशुद्ध जीव ही करता है और न अतिशय संक्लिष्ट भी । इसका कारण स्वभाव ही है । इस प्रकार सब प्रशस्त कर्मो के सम्बन्धमें कहना चाहिये । अभव्य योग्य सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभाग के अनन्त बहुभागको मिथ्यादृष्टि जीव मध्यम परिणामों के द्वारा घातता है । अभव्य योग्य उत्कृष्ट अनुभागों में से जितने मात्र स्पर्धकों को वह मध्यम परिणामों के द्वारा घातता है, सूक्ष्मसाम्परायिक द्वारा रचे गये उत्कृष्ट अनुभागका भी घात करनेवाला जीव उतने मात्र ही स्पर्धकोंको घातता है । इस कारण भव्य अथवा अभव्य के द्वारा रचित उत्कृष्ट अनुभागका मध्यम परिणाम युक्त मिथ्यादृष्टि के द्वारा अनुभागकाण्डक स्वरूपसे घात कर चुकनेपर अनुभागसंक्रमकी उत्कृष्ट हानि होती है । इसी प्रकार सब प्रशस्त कर्मों के सम्बन्ध में कथन करना चाहिये । इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ । मतिज्ञानावरणकी जघन्य अनुभागसंक्रमवृद्धि किसके होती है ? हतसमुत्पत्ति क्रमसे जघन्य अनुभागसत्कर्मको कर चुकनेवाला जो सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव अपने जघन्य सत्कर्मकी अपेक्षा प्रक्षेप अधिक बांधकर आवली अतिक्रान्त उसका संक्रम करता है उसके मतिज्ञानावरणकी जघन्य अनुभागसंक्रमवृद्धि होती है । उसकी जघन्य हानि किसके होती है ? वह जिसके चरम समयवर्ती छद्मस्थ होने में एक समय अधिक आवली मात्र काल शेष रहा है उसके होती है । जघन्य अवस्थान जघन्य वृद्धिमें देना चाहिये । इसी प्रकार चार ज्ञानावरण और चार दर्शनावरण के भी कहना चाहिये । निद्रा और प्रचलाकी भी प्ररूपणा मतिज्ञानावरण के * ताप्रती ' कम्माणं अभव इति पाठः । 3 ताप्रती ' घादेदि' इति पाठः । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो (४०३ णवरि जहणिया हाणी जत्थ जहण्णढिदिसंकमो तत्थ वत्तव्यो । पंचण्णमंतराइयाणं मदिणाणावरणभंगो । णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणं जह० अणुभागवड्ढी कस्स ? सुहुमेइंदियस्स हदसमुष्पत्तियकमेण कदजहण्णाणुभागसंतकम्मस्स पक्खेवुत्तरं बंधिय आवलियादीदं संकातस्स । तं चेव वढिदाणुभागं अंतोमुहुत्तेण घादिय संकामेंतस्स जह• हाणी। एगदरत्थावट्ठाणं । सम्मत्त० जहपिणया हाणी कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । जहण्णवड्ढी पत्थि । जहण्णमवढाणं कस्स? चरिमाणुभागखंडयबिदियफालीए वट्टमाणस्स । सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया हाणी कस्स ? चरिमसमयअणुभागखंडयस्स पढमसमए वट्टमाणस्स जह० हाणी। तस्सेव से काले जहण्णमट्ठाणं। जहण्णवड्ढी पत्थि । __ अणंताणुबंधि० जहणिया वड्ढी कस्स ? अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोजिय दुसमयावलियसंजुत्तस्स । हाणी अवट्ठाणं च कस्स ? अंतोमुहत्तसंजुत्तस्स । तं जहाअणंताणुबंधिणो विसंजोजिय संजुत्तो जदि वि उक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढदि तो वि जाव अंतोमहत्तं कालं ताव सुहमेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्मादो हेट्टदो चेव अणंताणुबंधीणमणुभागो होदि । सो तत्तो हेढदो अच्छमाणो घादं पि गच्छदि । तदो तेण ही समान है। विशेष इतना है कि जहांपर जघन्य स्थिति संक्रम है वहांपर उसकी जघन्य हानि कहना चाहिये। पांच अन्तराय कर्मोकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्स्यानगृद्धि की जघन्य अनुभागसंक्रमवृद्धि किसके होती है ? वह हतसमुत्पत्तिकक्रमसे जघन्य अनुभागसत्कर्मको कर चुकनेवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके प्रक्षेप अधिक बांधकर आवली अतिक्रान्त उसका संक्रम करते समय होती है । उसी वृद्धिंगत अनुभागको अन्तर्मुहूर्तमें घातकर संक्रम करनेवालेके उसकी जघन्य हानि होती है । दोनोंमेंसे किसी भी एकमें जघन्य अवस्थान होता है । सम्यक्त्व प्रकृतिको जघन्य अनुभागसंक्रमहानि किसके होती है ? वह जिसके चरम समयवर्ती अक्षीणदर्शनमोह होने में एक समय अधिक आवली मात्र काल शेष है उसके होती है। उसकी जघन्य अनुभाग संक्रमवृद्धि नहीं है । उसका जघन्य अवस्थान किसके होता है ? वह अन्तिम अनुभागकाण्डककी द्वितीय फालि में वर्तमान जीवके होता है । सम्यग्मिथ्यात्वको जघन्य हानि किसके होती है? चरम अनुभागकाण्ड कके प्रथम समय में वर्तमान जीवके उसकी जघन्य हानि होती है । उसीके अनन्तर समय में उनका जघन्य अवस्थान होता है । उसकी जघन्य वृद्धि नहीं है। अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी विसंयोजना करके दो समय अधिक आवली संयुक्त जीवके अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी जघन्य अनुभागसंक्रमवृद्धि होती है । उनकी जघन्य हानि और अवस्थान किसके होते हैं ? वे उनकी विसंयोजना करके अन्तर्मुहूर्त संयुक्त जीवके होते हैं। यथा- अनन्तानुबन्धीको विसंयोजना करके उससे संयुक्त जीव यद्यपि उत्कृष्ट वृद्धि के द्वारा वृद्धिंगत होता है तो भी उसके अन्तर्मुहूर्त काल तक सूक्ष्म एकेन्द्रियके जघन्य अनुभागसत्कर्मकी अपेक्षा हीन ही अनन्तानुबन्धी कषायोंका Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ) छक्खंडागमे संतकम्म अंतोमुहत्तसंजुत्तेण तस्स अणंतभागे घादिदे जह० हाणी होदि त्ति सिद्धं । जहण्णमवट्ठाणं जहण्णहाणीए दादव्वं । तिण्णं संजलणाणं जह० हाणी कस्स ? खवयस्स चरिमसमयजहण्णाणुभागबंधं संकामेंतस्स जहणिया हाणी। वड्ढी अवट्ठाणं च कस्स? सुहुमेइंदियस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मियम्हि वत्तव्वं । पुरिसवेदस्स तिसंजलणभंगो। लोहसंजलणस्स जह० हाणी कस्स ? समयाहियावलियचरिमसमयसुहमसांपराइयस्स । वड्ढी अवट्ठाणं च कस्स ? सुहमेइंदियस्स जहण्णसंतकम्मादो पक्खेवुत्तरं बंधमाणस्स । अढण्णं णोकसायाणं जह० हाणी कस्स ? अपच्छिमअणुभागखंडयस्स पढमसमए वट्टमाणस्स जह० हाणी। वड्ढी अवट्ठाणं च कस्स ? सुहमेइंदियस्स सगजहण्णाणुभागसंतकम्मादो पक्खेवुत्तरं बंधमाणस्स। णामाणं सादिसंताणं वड्ढी कस्स ? संजोजिदबिदियसमए जं बद्धं तमावलियादिक्कंतं संकामेंतस्स जह० वड्ढी। हाणि-अवट्ठाणाणं अणंताणुबंधिभंगो। अणादियणामपयडीणं वढि-हाणि-अवट्ठाणाणि कस्स? सुहमेइंदियस्स सगजहण्णाणुभागसंत अनुभाग होता है। वह उससे हीन रहकर घातको भी प्राप्त होता है । इसीलिये अन्तर्मुहूर्त संयुक्त उक्त जीवके द्वारा उसके अनन्त बहुभागका घात कर चुकनेपर उनकी जघन्य अनुभागसंक्रमहानि होती है, यह सिद्ध है। जघन्य अवस्थान जघन्य हानिमें देना चाहिये । तीन संज्वलन कषायोंकी जघन्य हानि किसके होती है ? उनको जघन्य हानि जघन्य अनुभागबन्धका संक्रमण करते हुए उसके अन्तिम समयमें वर्तमान क्षपकके होती है। उनकी जघन्य वृद्धि और अवस्थान किसके होता है ? उनकी जघन्य वृद्धि और अवस्थानका कथन सूक्ष्म एकेन्द्रियके जघन्य अनुभागसत्कर्ममें करना चाहिये । पुरुषवेदकी प्ररूपणा उपर्युक्त तीन संज्वलन कषायोंके समान है। संज्वलनलोभकी जघन्य अनुभागसंक्रमहानि किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होने में जिसके एक समय अधिक आवली मात्र काल शेष है उसके होती है। उसकी जघन्य वृद्धि और अवस्थान किसके होता है ? जघन्य सत्कमकी अपेक्षा प्रक्षेप अधिक बांधनेवाले सूक्ष्म एकेन्द्रियके उसकी जघन्य वृद्धि व अवस्थान होता है। आठ नोकषायोंकी जघन्य हानि किसके होती है। अन्तिम अनुभागकाण्डकके प्रथम समयमें वर्तमान जीवके उनकी जघन्य हानि होती है। उनकी जघन्य वृद्धि और अवस्थान किसके होता है ? अपने जघन्य अनुभागसत्कर्मसे प्रक्षेप अधिक अनुभागको बांधनेवाले सूक्ष्म एकेन्द्रियके उनकी जघन्य वृद्धि और अवस्थान होता है । सादि सत्त्ववाली नामप्रकृतियोंकी जघन्य अनुभागसंक्रमवृद्धि किसके होती है ? संयोजनके द्वितीय समयमें जो अनुभाग बांधा गया है आवली अतिक्रान्त उसका संक्रम करनेवालेके उनकी जघन्य अनुभागसंक्रमवृद्धि होती है। उनकी हानि और अवस्थानको प्ररूपणा अनन्तानुबन्धी कषायके समान है। अनादि सत्त्ववाली नामप्रकृतियोंकी जघन्य अनुभागसंक्रमवृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता हैं ? अपने जघन्य अनुभागसत्कर्मसे प्रक्षेप अधिक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ४०५ कम्मादो पक्खेवुत्तरं बंधिय आवलियादिक्कतं संक मेंतस्स जह० वड्ढी । तं पक्खेवमंतोमुहुत्तेण घादिय संकामेंतस्स जह० हाणी। एगदरत्थ अवट्ठाणं । णीचागोदस्स अणादियणामपयडीगं भंगो। उच्चागोदस्स अणंताणुबंधिभंगो । एवं सामित्तं समत्तं । अप्पाबहुअं। तं जहा- णाणावरणस्स उक्क० हाणी थोवा। वड्ढी अवट्ठाणं च विसेसाहियं । णवदंसणावरणीय-असाद-मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय-अप्पसत्थणामपयडीणं णीचागोद-पंचंतराइयाणं च णाणावरणभंगो। सादस्स उक्कस्सिया हाणी थोवा। वड्ढी अवट्टाणं च अणंतगुणं । सव्वासि णामपयडीणं पसत्थाणं उच्चागोदस्स च सादभंगो । आदावणामाए णाणावरणभंगो। आउआणं उक्कस्सिया हाणी थोवा । वड्ढी अवट्ठाणं च विसेसाहियं । एवमुक्कस्सप्पाबहुअंक समत्तं । जहण्णपदणिक्खेवप्पाबहुअं। तं जहा- मदिआवरणस्स जह० हाणी थोवा। वड्ढी अवट्ठाणं च अणंतगुणं। चदुणाणावरण-छदसणावरण-चदुसंजलण--णवणोकसाय-पंचतराइयाणं मदिआवरणभंगो । थीणगिद्धितिय-सादासाद-मिच्छत्त-अटुकसायाणं-वड्ढिहाणि-अवट्ठाणाणि तिण्णि वि तुल्लाणि । अणंताणुबंधीणं वड्ढी थोवा । हाणि-अवट्ठाणाणि अणंतगुणाणि । सम्मत्तस्स हाणी थोवा । अवट्ठाणमणंतगुणं । सम्मामिच्छत्तस्स अनुभागको बांधकर आवली अतिक्रान्त उसका संक्रम करनेवाले सूक्ष्म एकेन्द्रियके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि होती है । उस प्रक्षेपको अन्तर्महुर्त घातकर संक्रम करनेवालेके उनकी जघन्य हानि होती है। दोनों में से किसी भी एकमें उनका जघन्य अवस्थान होता है। नीचगोत्रकी प्ररूपणा अनादिक नामप्रकृतियोंके समान है। उच्चगोत्र की प्ररूपणा अनन्तानुबन्धी के समान है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। ___ अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है । यथा- ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमहानि स्तोक है। वृद्धि और अवस्थान विशेष अधिक हैं। नौ दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, अप्रशस्त नामप्रकृतियों, नीचगोत्र और अन्तरायके प्रकृत अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीयकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है। वृद्धि और अवस्थान अनन्तगुणे हैं। सब प्रशस्त नामप्रकृतियां और उच्चगोत्रकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है। आतप नामकर्मकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। आयु कर्मोंकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है। वृद्धि व अवस्थान विशेष अधिक हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। जघन्य पदनिक्षेप विषयक अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करते है। यथा- मतिज्ञानावरणकी जघन्य हानि स्तोक है। वृद्धि और अवस्थान अनन्तगुणे हैं । चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, नौ नोकषाय और पांच अन्तरायकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । स्त्यानगद्धित्रय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं। अनन्तानुबन्धी कषायोंकी वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान अनंतगुणे हैं। सम्यक्त्व प्रकृतिकी हानि स्तोक है। अवस्थान अनन्तगुणा है। सम्यग्मिथ्यात्वकी ताप्रतौ ‘एवंमप्पाबहुगं' इति पाठः । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६) छक्खंडागमे संतकम्म हाणि-अवढाणाणि दो वि तुल्लाणि । चदुण्णमाउआणं वढि-अवढाणाणि दो वि तुल्लाणि थोवाणि । हाणी अणंतगुणा । सादियणामपयडीणं उच्चागोदस्स च आउचउक्कभंगो। अणादियणामपयडीणं णीचागोदस्स च सादभंगो। तित्थयरस्स हाणी णत्थि । वड्ढी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि। एवं पदणिक्खेवो समत्तो। वड्ढिसंकमे सामित्तं- छविहाए वड्ढीए को सामी ? अण्गदरो संकामो। छविहाए हाणीए को सामी? अण्णदरो घादेंतवो । आउअवज्जाणं कम्माणं ठिदिघादेण विणा वि अणुभागा हम्मंति, चदुण्णमाउआणं पुण ठिदिघादेण विणा णत्थि अणुभागघादो। एवं सामित्तं समत्तं । एयजीवेण कालो- सव्वकम्माणं छविहाए हाणीए संकमस्स जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। णवरि जासि कम्माणं अणुसमओवट्टणा अस्थि, तेसिमणंतगुणहाणिसंकमस्स जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं। पंचण्णं वढिसंकमाणं जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। अणंतगुणवढिसंकमस्स जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अवट्टियसंकमस्स भुजगारअवट्टियसंकमभंगो । एवं वढि कालो समत्तो। एयजीवेण अंतरं- पंचवड्ढि-पंचहाणीणमंतरं केवचिरं० ? जह० एगसमओ हानि और अवस्थान दोनों ही तुल्य हैं। चार आयु कर्मोकी वृद्धि और अवस्थान दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं। हानि अनन्तगुणी है। सादिक नामप्रकृतियों और उच्च गोत्रकी प्ररूपणा आयुचतुष्कके समान है। अनादिक नामप्रकृतियों और नीचगोत्रकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है। तीर्थंकर प्रकृतिकी हानि नहीं है। वृद्धि और अवस्थान दोनों ही तुल्य हैं। इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ। वृद्धिसंक्रममें स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है- छह प्रकारकी वृद्धिका स्वामी कौन है ? उसका स्वामी अन्यतर संक्रामक है। छह प्रकारकी हानिका स्वामी कौन है ? घात करनेवालोंमें अन्यतर जीव उसका स्वामी है। आयुको छोडकर शेष कर्मों के अनुभाग स्थितिघातके विना भी घाते जाते हैं। परन्तु चार आयु कर्मोंके अनुभागोंका घात स्थितिघातके बिना नहीं होता। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है-- सब कर्मोंकी छह प्रकारकी हानिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। विशेष इतना है कि जिन कर्मोकी प्रतिसमय अपवर्तना होती है उनकी अनन्तगुणहानिकासंक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उनके पांच वृद्धिसंक्रमों का काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है । अनन्तगुणवृद्धिसंक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहर्त मात्र है। अवस्थितसंक्रमका काल भजाकार अवस्थित संक्रमके समान है। इस प्रकार वृद्धि काल समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर- पांच वृद्धियों और पांच हानियों का अन्तरकाल कितना ४ ताप्रतो 'अणुभागाद।' इति पाठः । * प्रतिष 'संकमभागो' इति पाठः । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ४०७ अंतोमुत्तं , उवक • असंखेज्जा लोगा। अणंतगुणवड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणं * भुजगारसंकमभंगो । एवं वढिअंतरं समत्तं । णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं च भागिदव्वाणि । एत्थ अप्पाबहुअं 1 एदस्स साहणट्ठ इमा परूवणा । तं जहा- एयम्मि बंधट्ठाणे असंखेज्जा लोगा घाटाणाणि । एत्तो पंचविहहाणीयो साहेयूण समाणिय अणंतभागवढिसंकामयाणं गुणगारो असंखेज्जा लोगा त्ति वत्तव्वो । मदिआवरणस्स अणंतभागहाणिसंकामया थोवा । असंखेज्जभागहाणिसंकामया असंखे० गुणा । संखे० भागहाणि० संखे० गुणा । संखे० गुणहाणि० संखे गुणा० । असंखे० गुणहाणि० असंखे० गुणा० । अणंतभागवड्ढि० असंखे० गुणा । असंखे० भागवड्ढि० असंखे० गुणा । संखेज्जभागवढिसंकामया संखेज्जगुणा । संखे० गुणवड्ढि० संखे० गुणा । असंखे० गुणवड्ढि० असंखे० गुणा । अणंतगुणहाणि० असंखे० गुणा। अणंतगुणवड्ढि असंखे० गुणा । अवट्टिद० संखे० गुणा । एवं चदुणाणावरण-णवदसणावरणसादासाद अणादिय-णामकम्माणं णीचागोद-पंचतराइय-मिच्छत्ताणं च ।। सोलसकसाय-णवणोकसायाणं अवत्तव्वसंकामया थोवा । अणंतभागहाणिसं० अणंत है ? जघन्यसे वह एक समय और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र है। अनन्तगुणवृद्धि, हानि और अवस्थानकी प्ररूपणा भुजाकार संक्रमके समान है। इस प्रकार वृद्धि अन्तर समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तरका भी यहां कथन करना चाहिये । यहां अल्पबहुत्वका प्रकरण है। इसकी सिद्धिके लिए यह प्ररूपणा है । यथा- एक बंधस्थानमें असंख्यात लोक प्रमाण घातस्थान होते हैं। यहां पाच प्रकारकी हानियोंकों सिद्धकरके समाप्त कर अनन्तभागवृद्धि संक्रामकोंका गुणकार असंख्यात लोक मात्र है, ऐसा कहना चाहिए। मतिज्ञानावरणके अनन्तभागहानिसंक्रामक स्तोक हैं। असंख्यातभागहानिसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागहानिसंक्रामक संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणहानिसंक्रामक संख्यातगुणे हैं। असंख्यातगुणहानिसंक्रामक असंख्यातगुणे हं। अनन्तभागवृद्धिसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागवृद्धिसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं । संख्यातभागवृद्धिसंक्रामक संख्यातगुणे हैं । संख्यातगुणवृद्धि संक्रामक संख्यातगुणे हैं । असंख्पात गुणवृद्धिसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अनन्तगुणहानिसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अनन्तगुणवृद्धिसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अवस्थितसंक्रामक संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार शेष चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, अनादिक नामकर्मों, नीचगोत्र, पांच अन्तराय और मिथ्यात्वके भी विषयमें प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये। सोलह कषाय और नौ कषायोंके अवक्तव्यसंक्रामक स्तोक हैं । अनन्त भागहानिसंक्रामक * मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-नाप्रतिषु 'जह० अंतोमहुत्तं ' इति पाठः। • ताप्रती 'अवट्ठागाणि' इति पाठः। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ) छक्खंडागमे संतकम्म गुणा । सेसाणं णाणावरणभंगो। ___मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-उच्चागोदाणं णोकसायभंगो। देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी-णिरयगइ-गिरयगइपाओग्गाणुपुवी-वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगावंग-बंधण-संघादाणं असंखे० भागहाणिसंकामया थोवा। संखे० भागहाणि०संखे० गुणा । संखे० गुणहाणि० संखे० गुणा। असंखे० गुणहाणि० असंखे० गुणा। अणंतभागवड्ढि० असंखे० गुणा। असंखे० भागवड्ढि० असंखे० गुणा। संखेज्जभागवड्ढि० संखे० गुणा । संखे० गुणवड्ढिसं० संखे० गुणा । असंखे० गुणवड्ढि० असंखे० गुणा । अवत्तव्व० असंखे० गुणा । अणंतगुणहाणि असंखे० गुणा। अणंतगुणवड्ढि० असंखे० गुणा। अणंतभागहाणि असंखे० गुणा। अवट्ठिय० असंखे० गुणा । एवं वढिसंकमो समत्तो। __ जहा संतकम्मट्ठाणाणि तहा संकमट्ठाणाणि। पदेससंकमे अट्ठपदं- जं पदेसम्गं अण्णपडि संकामिज्जदि एसो पदेससंकमो। एदेण अटुपदेण मूलपयडिसंकमो णत्थि*। उत्तरपयडिसंकमे पयदं । उत्तरपयडिसंकमो पंचविहो- उज्वेलणसंकमो विज्झादसंकमो अधापमतसंकमो गुणसंकमो सव्वसंकमो चेदि । वुत्तं च-- उव्वेल्लण विज्झादो अधापमत्तो गुणो* य सव्वो य । अनन्तगुणे हैं। शेष पदोंकी प्ररूपणा ज्ञानावरण के समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रकी प्ररूपणा नोकषायोंके समान है। देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकबन्धन और वैक्रियिकसंघातके असंख्यातभागहानिसंक्रामक स्तोक है। संख्यातभागहानिसंक्रामक संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणहानिसंक्रामक संख्यातगुणे हैं। असंख्यातगुणहानिसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं। अनन्तभागवृद्धिसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागवृद्धिसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिसंक्रामक संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणवृद्धिसंक्रामक संख्यातगुणे हैं। असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रामक अपंख्यातगुणे हैं। अवक्तव्यसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अनन्तगुणहानिसंक्रामक असंख्यातगणे हैं। अनन्तगुणवृद्धिसंक्रामक असंख्यातगुण हैं। अनन्तभागहानिसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अवस्थितसंक्रामक असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार वृद्धिसंक्रम समाप्त हुआ। संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा सत्कर्मस्थानोंके समान है। प्रदेशसंक्रममें अर्थपद- जो प्रदेशाग्र अन्य प्रकृतिमें संक्रांत किया जाता है इसका नाम प्रदेशसंक्रम है। इस अर्थपदके अनुसार मूलप्रकृतिसंक्रम नहीं है। उत्तरप्रकृतिसंक्रम प्रकरणप्राप्त है । उत्तरप्रकृति संक्रम पांच प्रकारका है- उद्वेलनसंक्रम, विध्यातसंक्रम, अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम । कहा भी है--- ___ परिणाम वश जिनके द्वारा जीवोंका कर्म संक्रमणको प्राप्त होता है वे संक्रम पांच हैं-- ताप्रतौ 'पाओग्गागपुन्धि-वे उब्वियसरीरंगोवंग-' इति पाठः । ४ अ-काप्रत्यो: 'अत्थि', ताप्रतो 'अ (ण) त्थि' इति ठः । बंधे संकामिज्जदि णोबंधे णत्थि मलपयडीणं ॥गो क. ४१०. * दलियमन्नपगई णिज्ज इ सो संकमो पएसस्स । उव्वलणो विज्झाओ अहावत्तो गणो सम्बो ।। क. प्र. २-६०. २ प्रतिषु 'गुणे' इति पाठः।। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो संक्रमइ जेहि कम्मं परिणामवसेण जीवाणं ।। २ ।। ara astओ केत्तिएहि संकमेहि संकमंति त्ति जाणावणट्ठ परूवणाए कीरमाणाए * एसा गाहा होदि बंधे अधापमत्तो विज्झाद अबंध अप्पमत्तंतो । गुणसंकमो दु एतो पयडीणं अप्पसत्थाणं ॥ ४ ॥ ' बंधे अधापवत्तो' जत्थ जासि पयडोणं बंधो संभवदि तत्थ तासि पयडीणं बंधे संते असंते वि अधापमत्तसंकमो होदि । एसो नियमो बंघपयडीणं अबंधपयडीणं णत्थि । कुदो ? सम्मत्त सम्मामिच्छतेसु वि अधापमत्तसंकमुवलंभादो ? | 'विज्झाद अबंधे' जासि पयडीणं जत्थ बंधसंभवो णियमेण णत्थि तत्थ तासि विज्झादसंकमो 4 | एसो विनियम मिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति तावदेव धुत्र चेव होदि । 'गुणसंकमो दु एत्तो अप्पमत्तादो उवरिमगुणट्ठाणेसु बंधविरहिदपयडीणं गुणसंकमो सव्वसंकमो च होदि । सव्वसंकमो हीदि त्ति कथं णव्वदे? तु सद्दादो । , ( ४०९ उद्वेलन संक्रम, विध्यातसंक्रम, अधाप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ।। १ ।। कौन प्रकृतियां कितने संक्रमणोंके द्वारा संक्रमणको प्राप्त होती हैं यह जतलाने के लिये की जानेवाली प्ररूपणा में यह गाथा है बन्धके होनेपर अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । विध्यातसंक्रम अबन्ध अवस्था में अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त होता है । यहांसे अर्थात् अप्रमत्त गुणस्थानसे आगेके गुणस्थानोंमें बन्धरहित अप्रशस्त प्रकृतियों का गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम भी होता है || २ || ' बंधे अधापवत्तो ' का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाते हैं कि जिन प्रकृतियों का बन्ध संभव है वहां उन प्रकृतियों के बन्धके होनेपर और उसके न होनेपर भी अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । यह नियम बन्धप्रकृतियोंके लिये है, अबन्धप्रकृतियोंके लिये नहीं है; क्योंकि, सम्यक्त्व और सम्य मिथ्यात्व इन दो अबन्धप्रकृतियों में भी अधःप्रवृत्तसंक्रम पाया जाता है । ' बिज्झाद अबंधे' का अर्थ करते हुए कहते हैं कि जिन प्रकृतियों का जहां नियमसे बन्ध संभव नहीं है वहां उन प्रकृतियोंका विध्यातसंक्रम होता है । यह भी नियम मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक ही ध्रुव स्वरूपसे है । ' गुणसंकमो दु एत्तो' अर्थात् अप्रमत्त गुणस्थानसे आगे गुणस्थानों में बन्धरहित प्रकृतियों का गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम भी होता है । शंका- सर्वसंक्रम भी होता है, यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान- यह उपर्युक्त गाथामें प्रयुक्त ' तु' शब्दसे जाना जाता है । अंतति ॥ गो.क. ४१२. " Xx ताव देवधुव ति अप्रतौ ' संक्रमिय', काप्रतौ 'संकमय' इति पाठ: । * गो. क. ४०९. अ- काप्रत्योः परूवणा की रमाणा', ताप्रतौ 'परूवणाए कीरमाणा' इति पाठ: । * बंधे अधापवतो विज्झादं सत्तमो दु अबधे । एतो गुणी अबंधे पयडीणं अप्पसत्थाणं ।। गो. क. ४१६. मिच्छे सम्मिस्साणं अधापवत्तो जासि न बंधो गुण-मवपच्चयओ तासि होइ विज्झाओ । क. प्र. २,६८. इति पाठ: । चेव 3 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०) छक्खंडागमे संतकम्म 'अप्पसत्थाणं' एसा परूवणा अप्पसत्थपयडीणं कदा, ण पसत्थाणं; उसम-खवगसेडीसु वि बंधविरहियपसत्थपयडीणमधापवत्तसंकमदंसणादो। एदाओ पयडीओ एत्तिएहि भागहारेहि संकमंति त्ति जाणावणठें एसा गाहा उगुदाल तीस सत्त य वीसं एगेग बार तियच उक्कं । ___ एवं चदु दुग तिय तिय चदु पण दुग तिग दुगं च बोद्धव्यं ।। ३ ।। एदीए गाहाए वृत्तपयडीणं भागहाराणं च एसा संदिट्ठी-|३९ २०१३ ६२/६६।९।। एवं ठविय एदिस्से गाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा- पंचणाणावरणचत्तारिदसणावरण-सादावेयणीय-लोहसंजलण-पंचिदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-पसत्थवण्ण-रस-गंध-फास-अगुरुअलहुअ-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइतस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिण-पंचतराइयाणं अधापवत्तसंकमो एक्को चेव । कुदो ? पंचणाणावरण-चउदंसणावरणपंचंतराइयाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति बंधो चेव । यह प्ररूपणा 'अप्पसत्थाणं' अर्थात् अप्रशस्त प्रकृतियोंकी गयी है, न कि प्रशस्त प्रकृतियोंकी; क्योंकि, उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि में भी बन्ध रहित प्रशस्त प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्तसंक्रम देखा जाता है। ये प्रकृतियां इतने भागहारोंसे संक्रमणको प्राप्त होती हैं, यह बतलाने के लिये यह गाथा है-- उनतालीस, तीस, सात, बीस, एक, एक बारह और तीन चतुष्क ( ४, ४,४ ; इन प्रकृतियोंके क्रमसे एक, चार, दो, तीन, तीन, चार, पांच, दो, तीन और दो; ये भागहार जानने चाहिये ।। ३ ।। इस गाथामें कही गयी प्रकृतियों और भागहारोंकी यह संदृष्टि है-- । प्रकृति ।३० । ३०।७। २० । १ । १ । १२ । । ४।४।। । इसे इस प्रकारसे स्थापित करके इस भागहार । १ । ४।२। ३।३।४। ५ ।२।३। । गाथाका अर्थ कहते हैं । यथा- पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, संज्वलन, लोभ, पंचेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्ण रस गन्ध व स्पर्श, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीति, निर्माण और पांच अन्तराय ; इन उनतालीस प्रकृतियोंका एक अधःप्रवृत्तसंक्रम ही होता है, क्योंकि, पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायका मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय तक उगदाल-तीस-सत्तय-वीसे एक्केकक-बार तिचउक्के । इगि-चदु दुग-तिग-तिग-चदु-पण-दुग दुग-तिण्णिसंकमणा । गो. क ४१८. 0 सुहुमस्स बंधघादी सादं संजलणलोह-पंचिदि । तेजदु-सम-वण्णचऊ-अगुरुगपरघाद-उस्सासं ।। सत्थगदी तसदसयं णिमिणुगदाले अधापवत्तो दु। गो. क. ४१९-२०. ४ ताप्रती ‘णाणावरण-पंचंतराइयाणं' इति पाठः। * अप्रतो '-इत्थि ' इति पाट: । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेलसंकमो ( ४११ तेणेव एदासिमधापवत्तसंकमं मोतूण णत्थि अण्णसंकमो। बंधवोच्छेदे जादे वि संकमो णत्थि, पडिग्गहाभावादो । पंचिदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाणपसत्थवण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ--परघादुस्सास--पसत्थविहायगइ-तस- बादरपज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिरादिछक्का-णिमिणाणं बंधवोच्छेदे संते विज्झादो गुणसंकमो वा किण्ण जायदे? ण एस दोसो, पसत्थत्तादो। लोहसंजलणस्स अधापवत्तसंकमो चेव, बंधे संते चेव आणुपुग्विसंकमेण ओसारिदसकमत्तादो । एशासि पयडीणं सव्वसंकमो किण्ण होदि ? ण, परपयसिंछोहणेण विणासाभावादो। थीणगिद्धितिय-बारसकसाय-इत्थि-णवंसयवेद-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-एइंदियबेइंदिय-तेइंदिय-चरिदयजादि-तिरिक्ख गइपाओग्गाणुपुटवी-आदावुज्जोव-थावर-सुहुमसाहारणाणं तीसण्णं पयडीणं उबेल्लणेण विणा चत्तारि संकमा होतिफ तं जहा-- बन्ध ही है । इसीलिये इन प्रकृतियोंके अधःप्रवृत्तसंक्रमको छोड़कर अन्य संक्रम नहीं होते। बन्धव्युच्छित्तिके हो जानेपर उनका संक्रम नहीं होता, क्योंकि, प्रतिग्रह ( जिनमें विवक्षित प्रकृतियां संक्रान्त होती हैं । प्रकृतियोंका यहां अभाव है । शंका- पंचेन्द्रिय जाति, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्ण गन्ध रस व स्पर्श, अगुल्ल घु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर आदि छह और निर्माण ; इनकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर विध्यात अथवा गुणसंक्रम क्यों नही होता? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वे प्रशस्त प्रकृतियां हैं । संज्वलन लोभका एक अधःप्रवृत्तसंक्रम ही होता है, क्योंकि, बन्धके होने की अवस्था में ही आनुपूर्वीसंक्रम ( संज्वलन क्रोधका संज्वलन मान आदिमें, संज्वलन मानका संज्वलन माया आदिमें, इत्यादि ) वश उनका संक्रम नष्ट हो जाता है । शंका- इन प्रकृतियोंका सर्वसंक्रम क्यों नहीं होता ? समाधान- नहीं, क्योंकि अन्य प्रकृतियों में क्षेपण करके इनका विनाश नहीं होता। स्त्यानगृद्धि आदि तीन, बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीर; इन तीस प्रकृतियोंके उद्वेलनके विना चार संक्रम होते हैं । S8 प्रतिषु — थिरादिओजोछका' इति पार:। D अंतरक रणम्मि कए चरित्तमाहे ण पुब्बिसंकमणं । अन्नत्थ सेसिगाणं च सव्वहिं सनहा बंधे। क प्र. २, ४. xxx चरित्रमोहे पुरुषवेद-संज्वलनंचतुष्टयलक्षणे । अत्र हि चरित्रमोहनीयग्रहणेनैत्ता एव पंच प्रकृतयो गह्यन्ते, न शेषाः; बन्धाभावात् । तत्रानुपूर्वी ( ा) परिपाट्या संक्रमणं भवति, न त्वनाना । तथा हि-पुरुषवेदं संज्वलनक्रोधादावेव संक्रमयति, नान्यत्र । संज्वलनक्रोधमपि संज्वलनमानादावेव, न तु पुरुषवेदे । संज्वलनमानमपि संज्वलनमायादावेव, न तु संज्वलनक्रोधादौ । संज्वलनमायामपि संज्वलनलोभ एव, न तु संज्वलनमानादाविति । मलय. प्रथीणति बारकसाया सढित्थी अरइ सोगो य॥ तिरियेयारं तीसे उब्वेल्लणहीणचत्तारियंकमणा । गो. क. ४२०-२१. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२) छक्खंडागमे संतकम्म थीणगिद्धितिय-इत्थिवेद-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव-अणंताणुबंधिचउक्क मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सासणसम्माइट्ठि ति अधापवत्तसंकमो, तत्थ बंधुवलंभादो। सुहुम मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति ताव विज्झादसंकमो, तत्थ बंधाभावादो। सग-सगअपुव्वखवगपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमद्विदिखंडयदुचरिफालि त्ति ताव गुणसंकमो । चरिमफालीए सव्वसंकमो। __णउसयवेद-एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियजादि-आदाव-थावर-सुहुम-साहारणाणं मिच्छाइट्ठिम्हि अधापवत्तसंकमो, तत्थ एदासि बंधुवलंभादो। सासणसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति ताव विज्झादसंकमो, अप्पसत्थत्ते संते बंधाभावादो। एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिय-आदाव-थावर-सुहम-साहारणाणं देव-णेरइयमिच्छाइट्ठीसु विज्झादसंकमो, तत्थ एदासि बंधाभावादो। णवरि एइंदिय-आदाव-थावरागं ईसाणंता देवा अधापवत्तेण संकामया, तत्थ एदासि बंधदसणादो। अपुवकरणपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमट्ठिदिखंडयदुचरिमफालि त्ति ताव एदासि पयडीणं गुणसंकमो, अप्पसत्थत्ते तेसिंबंधाभावादो। चरिमफालीए सव्वसंकमो, संछोहणेण णद्वत्तादो। अपच्चक्खाणचउक्कस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति ताव अधा यथा- स्त्यानगृद्धित्रय. स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत और अनन्तानबन्धिचतुष्कका मिथ्यादृष्टि से लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध पाया जाता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां उनके बन्धका अभाव है। अपूर्वकरण क्षपकके प्रथम समयसे लेकर अपने अपने अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरम फालि तक उनका गुणसंक्रम होता है। अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है। नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आतप, स्थावर सूक्ष्म और साधारणशरीरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, वहांपर इनका बन्ध पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, अप्रशस्तताके होनेपर वहां बन्धका अभाव है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण; इनका देव व नारक मिथ्यादृष्टियोंमें विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, उनके इनका बन्ध नहीं होता। विशेष इतना है कि एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर इनके ईशान कल्प तकके देव अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा संक्रामक है; क्योंकि, उनमें इनका बन्ध देखा जाता है। अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम स्थितिकाण्डकको द्विचरम फालि तक इन प्रकृतियोंका गुणसंक्रम होता है, क्योंकि, अप्रशस्तताके होनेपर उनके बन्धका अभाव है, इनकी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है, क्योंकि उसका विनाश निक्षेपपूर्वक होता है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक अध:प्रवृत्तसंक्रम ४ अ-काप्रत्योः ‘अप्पसत्थत्ते सिंते' इति पाठः । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४१३ पवत्तसंकमो, तत्थ बंधदसणादो । उरि जाव अप्पमत्तसंजदचरिमसमओ ताव विज्झादसंकमो। उवरिमपुव्वकरणपढमसमयप्पडि जाव चरिमद्विदिखंडयदुचरिमफालि ति ताव गुणसंकमो । कारणं सुगमं । चरिमफालीए सव्वसंकमो, परपयडिसंछोहणेण विणटुत्तादो। पच्चक्खाणचदुक्कस्स अपच्चवखाणचदुक्कभंगो । णवरि संजदासंजदो त्ति एदेसिनधापवत्तसंकमो। अरदि-सोग्गाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति ताव अधापमत्तसंकमो, तत्थ एदासि बंधुवलंभादो । अप्पमत्तसंजदम्हि * विज्झादसंकमो, तत्थ बंधाभावादो। अपुव्वकरणपढमसमयप्पहुडि जाव अप्पणो चरिमट्ठिदिखंडयदुचरिमफालि त्ति ताव गुणसंकमो, अप्पसत्था त्ति बंधाभावादो। चरिमफालीए सव्वसंकमो । कारणं सुगमं । णिहा-पयला-अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फास-उवघादाणं अधापवत्तसंकमो गुणसंकमो चेदि दो चेव संकमा । तं जहा- णिद्दा-पयलाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुव्वकरणस्स पढम-सत्तमभागो त्ति जाव अधापवत्तसंकमो, एत्थ एदासि बंधुवलंभादो । उवरि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमओ ति ताव गुणसंकमो, बंधाभावादो। अप्पसत्थवण्णचदुक्कस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुव्वकरणस्स छ- सत्तमभागा त्ति अधापवत्तसंकमो। होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध देखा जाता है । आगे अप्रमत्तसंयतके अन्तिम समय तक उनका विध्यातसंक्रम होता है। ऊपर अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम स्थितिकाण्डकको द्विचरम फालि तक उनका गुणसंक्रम होता है । इसका कारण सुगम है । अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है, क्योंकि, वह अन्य प्रकृति में प्रक्षिप्त होकर नष्ट होती है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी प्ररूपणा अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके समान है । विशेष इतना है कि संयतासंयत गुणस्थान तक इनका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । ___अरति और शोकका मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, उनमें इनका बन्ध पाया जाता है । अप्रमत्तसंयतमें इनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध नहीं है। अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अपने अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरय फालि तक उसका गुणसंक्रम होता है क्योंकि, वहां अप्रशस उनका बन्ध नहीं है। उनकी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है । इसका कारण सुगम है निद्रा, प्रचला तथा अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श और उपघातके अधःप्रवृत्तसंक्रम और गुणसंक्रम ये दो ही संक्रम होते हैं । यथा- निद्रा और प्रचलाका मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणके प्रथम सप्तम भाग तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, यहां इनका बन्ध पाया जाता है । आगे सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक उनका गुणसंक्रम होता है, क्योंकि, यहां उतका बन्ध नही है। अप्रशस्त वर्णादि चारका मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणके सात भागोंमेंसे छठे भाग * अ-काप्रत्यो: 'अप्पमत्त संजदेदि' इति पाठः । 0 अ-काप्रत्यो: 'पयलायअप्पसत्थ ' इति पाट: - * अ-काप्रत्योः 'संकमो' इति पाठः। णिद्दा पलया असुहं वण्णचउक्कं च उवघादे ॥ सत्तण्णह गणसंकममधास्वत्तो यxxx गो. क. ४२१-२२. .. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ) छक्खंडागमे संतकम्म उवरि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमओ त्ति ताव गुणसंकमो। तत्तो उवरि संकमो णत्थि, बंधाभावेण पडिग्गहाभावादो। उवघादस्स वण्णचदुक्कभंगो । एदासि सत्तण्णं पयडीणं विज्झादसंकमो णत्थि' खवग-उवसामियसेडीसु वोच्छिण्णबंधत्तादो। उव्वेल्लणसंकमो णत्थि, अणुव्वेल्लणपयडित्तादो। सव्वसंकमो णत्थि, परपयडिसंछोहणेण अविण?त्तादो। असादावेदणीय-पंचसंठाण-पंचसंघडण-अप्पसत्थविहायगइ-अपज्जत्त-अथिर-असुहदूभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसगित्ति-णीचागोदाणं वीसणं पयडीणं अधापवत्तसंकमो, विज्झादसंकमो गुणसंकमो चेदि तिण्णिसंकमो । तं जहा- असादावेदणीय-अथिरअसुहाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो ति ताव अधापमत्तसंकमो, एत्थ एदासि बंधुवलंभादो। अप्पमत्तसंजदम्मि विज्झादसंकमो, बंधाभावादो। उवरि गुणसंकमो जाव सुहमसांपराइयचरिमसमयो ति, अप्पसत्थत्तादो। उवरि संकमो पत्थि, पडिग्गहाभावादो। हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं मिच्छाइट्ठिम्हि अधापवत्तसंकमो, तत्थ एदासि बंधुवलंभादो। उवरि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति विज्झादसंकमो, बंधाभावादो। तक इनका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है। आगे सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक उनका गुणसंक्रम होता है। इसके आगे उनका संक्रम नहीं है, क्योंकि, बन्धके न होनेसे उनकी प्रतिग्रह प्रकृतियोंका वहां अभाव है । उपघातकी प्ररूपणा वर्णचतुष्कके समान है। इन निद्रा आदि सात प्रकृतियोंका विध्यात संक्रम नहीं होता, क्योंकि, क्षपक और उपशामक श्रेणियोंमें इनकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इनका उद्वेलनसंक्रम भी नहीं होता, क्योंकि, वे उद्वेलन प्रकृतियोंसे भिन्न हैं। सर्वसक्रम भी उनका सम्भव नहीं है, क्योंकि, अन्य प्रकृतियोंमें प्रक्षिप्त होकर उनका विनाश नहीं होता । ___असातावेदनीय, पांच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, अपर्याप्त, अस्थिर अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और नीचगोत्र ; इन बीस प्रकृतियोंके अधःप्रवृत्तसंक्रम, विध्यातसंक्रम और गुणसंक्रम ये तीन संक्रम होते हैं। यथा- असातावेदनीय अस्थिर और अशुभ इनका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है; क्योंकि, यहां इनका बन्ध पाया जाता है। अप्रमत्तसंयतमें उनका विध्यातसंक्रम होता है क्योंकि, वहां इनका बन्ध नहीं होता। आगे सूक्ष्मसाम्मपरायिकके अन्तिम समय तक उनका गुणसंक्रम होता है, क्योंकि, वे अप्रशस्त प्रकृतियां हैं। इससे आगे उनका संक्रम नहीं होता, क्योंकि, प्रतिग्रह प्रकृतियोंका अभाव है। हुण्डकमंस्थान और असंप्राप्तासृपाटिकासंहननका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, वहांपर इनका बन्ध पाया जाता है। आगे अप्रमत्तसंयत तक इनका विध्यात. ४ अ-काप्रत्योरेतस्य स्थाने 'तत्थ' इति गठः। 8 अ-काप्रत्यो: 'तिणिसंकमो ' इति पाठः । दुक्खमसुहगदी। संहदि-संठाणदसं णीचापुण्णथिरछक्कं च ।। वीसण्हं विज्झादं अधापवत्तो गणो य xxx। गो. क. ४२२-२३. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमा गद्दारे अणुभाग संक्रमो ( ४०५ असंखेज्जत्रासाउअतिरिक्ख- मणुसमिच्छा इट्ठीसु वि विज्झादसंकमो चेव बंधाभावादो । अपुव्वकरणपढमसमयप्पहूडि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति ताव गुणसंकमो' बंधाभावादो । उवरि असंकमो, पडिग्गहाभावादो । चदुसंठाग-च दुसंघडण - भग- दुस्सर अगादेज्ज-णीचा गोद - अय्य सत्य विहायगदीगं मिच्छाइट्ठिष्पहूडि जाव सासणसम्माइट्ठिति ताव अधापवत्तसंकमो । उवरि जाव अप्पमत्त संजदचरिमसमयो त्ति ताव विज्झादसंकमो, बंधाभावादो । अपुव्वकरणपढमसमय पहुडि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति ताव गुणसंकमो, अप्पसत्थतादो । उवरि असंमो, पडिग्गहाभावादो । एवमपज्जत्तस्स वि । णवरि मिच्छाइट्ठम्हि चेव एदस्स अधापवत्तसंकमो । अजसकित्तीए अपज्जत्तभंगो | णवरि मिच्छाइट्टि पहुडि जाव पनत्तसंजदो त्ति एदिस्से अधापवत्तसंकमो, एदेसु गुणट्ठाणेसु बंधुवलंभादो । मिच्छत्तस्स विज्झादसंकमो गुणसंक्रमो सव्वसंकमो चेदि तिणि संकमा । तं जहापढसमय पहुडि जाव अंतोमुहुत्तकालं उवसमसम्माइट्ठिम्हि मिच्छत्तस्स गुणसंकमो । खवणाए वि अपुव्वकरणपढमसमयप्पहूडि जाव च मट्ठिदिखंडयदुचरिमफालि त्ति गुण संक्रम होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध नहीं होता । असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टियों में भी उनका विध्यातसंक्रम ही होता है, क्योंकि, उनके इनका बन्ध नहीं होता । अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक उनका गुणसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां पर इनके बन्धका अभाव है। आगे उनका संक्रम नही होता, क्योंकि, प्रतिग्रह प्रकृतियोंका अभाव है । चार संस्थान, चार संहनन, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्र और अप्रशस्त विहायो - गति इनका मिथ्यादृष्टिसे लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है। आगे अत्रमत्तसंयतके अन्तिम समय तक उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, आगे उनका बन्ध नहीं होता । अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक उनका गुणहोता है, क्योंकि, वे अप्रशस्त प्रकृतियां हैं। आगे उनका संक्रम नहीं है, क्योंकि, प्रतिग्रह प्रकृतियोंका अभाव है । इसी प्रकार अपर्याप्त नामकर्मके भी विषय में कहना चाहिये । विशेष इतना है कि इसका अधःप्रवृत्तसंक्रम केवल मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होता है । अयशकीर्तिकी प्ररूपणा अपर्याप्त के समान है । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत तक इसका अधः प्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों में उसका बन्ध पाया जाता है । मिथ्यात्व प्रकृति के विध्यातसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ये तीन संक्रम होते हैं । यथा- प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वका गुणसंक्रम होता है । क्षपणा में भी अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम स्थितिकाण्डककी अ-काप्रत्योः 'तिष्णिसंकमो' इति पाठः । मिच्छते । विज्झाद-गुणे सव्वं XXX ।। गो क. ४२३. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ) छक्खंडागमे संतकम्म संकमो। चरिमफालीए सव्वसंकमो । उवसमसम्माइट्टिम्हि य मिच्छत्तस्स विज्झादसंकमो। वेदगसम्मत्तस्स चत्तारि संकमा * अधापवत्तसंकमो उव्वेल्लगसंकमो गुणसंकमो सव्वसंकमो चेदि । तं जहा-मिच्छत्तं गदसम्माइट्रिमिह जाव अंतोमहत्तकालं ताव अधापवत्तसंकमो। तदो प्पहुडि जाव पलिदो० असंखे । भागमेत कालं ताव उज्वेल्लणसंकमो अंगुलस्स असंखे० भागपडिभागिगो। उन्वेलणचरिमखंडयपढमसमयप्पहुडि ताव गुणसंकमो जाव तस्सेव दुचरिमफालि ति । चरिमफालीए सव्वसंकमो । सम्मामिच्छत्त-देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवी-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवी-वेउव्वियसरीर--वेउब्वियसरीरंगोवंग---मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुटवीआहारसरीर-आहारसरीरंगोवंग-उच्चागोदाणं बारसण्णं पयडीणं पंच संकमो। तं जहा-मिच्छत्तं गदसम्माइट्टिम्हि अंतोमुत्तकालं सम्मामिच्छत्त० अधापवत्तसंकमो। तदो उवरि पलिदो असंखे० भागमेत्तकालं सम्मामिच्छत्त उवेल्लणसंकमो। चरिमखंडए गुणसंकमो जाव तस्सेव दुचरिमफालि त्ति । चरिमफालीए सव्वसंकमो । दसणमोहक्खवगअपुव्वकरणपढमसमयप्पहुडि ताव सम्मामिच्छत्तस्स गुणसंकमो जाव चरिमट्टिदिखंडयस्स दुचरिमफालि त्ति। चरिमफालीए सव्वसंकमो । उवसम-वेदगसम्मा द्विचरम फालि तक उसका गुणसंक्रम होता है। अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है । उपशमसम्यग्दृष्टिके ही मिथ्यात्वका विध्यातसंक्रम भी होता है । वेदकसम्यक्त्वके अधप्रवृत्तसंक्रम, उद्वेलनसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ये चार संक्रम होते हैं। यथा- मिथ्यात्वको प्राप्त हुए सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वप्रकृतिका अन्तर्मुहर्त काल तक अधःप्रवृत्त संक्रम होता है। उसके आगे पल्योमके असंख्यातो भाग मात्र काल तक अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रतिभागवाला उसका उद्वेलनसंक्रम होता है। उद्वलनके अन्तिम काण्डकके प्रथम समयसे लेकर उसको ही द्विव रम फालि तक उसका गुण संक्रम होता है। उसकी अन्तिम फालि का सर्वसंक्रम होता है । __सम्यग्मिथ्यात्व, देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग नामकर्म और उच्चगोत्र इन बारह प्रकृतियोंके पांच संक्रम होते हैं। यथामिथ्यात्वको प्राप्त सम्यग्दष्टि के अन्तर्महतं काल सम्यग्मिथ्यात्वका अधःप्रवत्त संक्रम होता है। उसके आगे पत्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक सम्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलनसंक्रम होता है। अतिम काण्डकमें उसकी ही द्विचरम फालि तक गुणसंक्रम होता हैं। चरम फालिका सर्वसंक्रम होता है। दर्शनमोहक्षपक अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अंतिम स्थितिकांडककी द्विचरम फालि तक सम्यग्मिथ्यात्वका गुणसंक्रम होता है। उसकी अन्तिम फालिका सर्व संक्रम होता है । उपशमसम्यग्दृष्टि * अ-काप्रत्यो: 'चत्तारिसंकमो' इति पाठः। सम्मे विज्झादपरिहीगा। गो क. ४२३. ४ ताप्रती उज्वेल्लणसंकमो। अंगुलस्स असखे०भागपडिमागिगो उज्वेल्लण-'इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'मिच्छत',ताप्रतौ (सम्मा) मिच्छत' इति पाठः। सम्मविहीणब्वेल्ले पंचेव य तत्थ होंत संकमणा ।। गो. क. ४२४. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदे संकमो ( ४१७ इट्ठीसु विज्झादसंकमो अंगुलस्स असंखे० भागपडिभागियो। देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणछसत्तभागे* त्ति अधापवत्तसंकमो, तत्थ एदासि बंधुवलंभादो । तत्तो उरि पि बंधाभावे वि अधापमत्तसंकमो चेव, पसत्थत्तादो। देव-णेरइएसु विज्झादसंकमो, बंधाभावादो। एइंदियविलिदिएसु उव्वेल्लणसंकमो जाव उध्वेल्लणचरिमखंडयमपत्तो ति। चरिमखंडए गुणसंकमो जाव तस्सेव दुचरिमफालि ति । चरिमफालीए सव्वसंकमो। वेउत्रियसरीर-वेउब्वियसरीरगोवंगाणं देवगइभंगो। णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीणं पि देवगइभंगो। णवरि मिच्छाइटिम्हि चेव अधापवत्तसंकमो। सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति विज्झादसंकमो। देव-णेरइएसु वि विज्झादसंकमो, बंधाभावादो। अपुवकरणप्पुहुडि जाव सगचरिमट्टिदिखंडयदुचरिमफालि त्ति गुणसंकमो। चरिमफालीए सव्वसंकमो । एइंदिय-विलिदिएसु उव्वेल्लणसंकमो 1 उधेल्लणचरिमखंडए गुणसंकमो। तस्सेव चरिमफालीए सव्वसंकमो एवं पंच संकमा होति । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुटवीणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठि और वेदकसम्यग्दृष्टिके उसका अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रतिभागवाला विध्यातसंक्रम होता है। देवगति और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टिते लेकर अपूर्वकरणके सात भागोंमेंसे छठे भाग तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध पाया जाता है । उसके आगे भी बन्धका अभाव होनेपर भी अधःप्रवृत्तसंक्रम ही होता है, क्योंकि, वे प्रशस्त प्रकृतियां हैं। देवों व नारकियोंमें उनका विध्यासक्रम होता है, क्योंकि, उनके इनका बन्ध नहीं होता । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवोंमें उद्वेलनके अन्तिम काण्डकके प्राप्त न होने तक उनका उद्वेलनसंक्रम होता है । अन्तिम काण्डकमें उसीकी द्विचरम फालि तक गुणसंक्रम होता है । अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगकी प्ररूपणा देवगतिके समान है। नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी भी प्ररूपणा देवगतिके समान है । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही इनका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक उनका विध्यासक्रम होता है । देवों और नारकियों में भी उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, उनके इनका बन्ध नहीं होता । अपूर्वकरणसे लेकर अपने अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरम फालि तक उनका गुणसंक्रम और अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियोंमें उनका उद्वेलनसंक्रम होता है । उद्वेलनके अन्तिम काण्डको (द्विचरम फालि तक ) उनका गुणसंक्रम और उसीकी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है। इस प्रकार उक्त दो प्रकृतियोंके पांच संक्रम होते हैं। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक * ताप्रतौ ' भागो' इति पार:। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८) छक्खंडागमे संतकम्म त्ति अधापवत्तसंकमो, तत्थ बंधुवलंभादो । संजदासंजदप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति विज्झादसंकमो । असंखेज्जवासाउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु विज्झादसंकमो, बंधाभावादो। तेउ-वाउकाइएसु उव्वेल्लणसंकमो जाव दुचरिमुव्वेल्लणकंडयो त्ति । चरिमुवेल्लणखंडए गुणसंकमो । तस्सेव चरिमफालीए सव्वसंकमो। आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगाणं अप्पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अपुवकरणो त्ति ताव अधापवत्तसंकमो, तत्थ बंधुवलंभादो । हेडिमगुणट्ठाणेसु विज्झादसंकमो, बंधाभावादो। असंजमं गदो आहारसरीरसंतकम्मियो संजदो अंतोमहत्तण उव्वेल्लणमाढवेदि जाव असंजदो जाव असंतकम्मं च अस्थि ताव उव्वेल्लेदि ।। संपहि सव्वुव्वेल्लणपयडीणमुवेल्लणक्कमो वुच्चदे । तं जहा- अधापवत्तटिदिखंडयं पलिदो० असंखे० भागो । तासि द्विदीणं पढमसमए जमुक्कीरिज्ज़दि पदेसग्गं तं थोवं । बिदियसमए जमुक्कोरिज्जदि पदेसग्गं तमसंखेज्जगुणं । तदियसमए जमुक्कीरिज्जदि पदेसग्गं तमसंखेज्जगुणं । एवमसंखेज्जगुणवड्ढीए णेयव्वं जाव अंतोमुहुत्तं ति । एत्थ गुणगारपमाणं पलिदो० असंखे० भागो। परपयडीसु जं पदेसग्गं दिज्जदि तं थोवं । जं सत्थाणे दिज्जदि तमसंखेज्जगुगं । अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है. क्योंकि, वहाँ इनका बन्ध पाया जाता है । संयतासंयतसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक उनका विध्यातसंक्रम होता है। असंख्यातवर्षाग्रुष्क तिर्यंचों और मनुष्योंमें उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, उनमें इनका बन्ध नहीं होता । तेजकायिकों और वायुकायिकोंमें द्विचरम उद्वेलन काण्डक तक उनका उद्वेलनसंक्रम होता है । अन्तिम उद्वेलनकाण्डकमें ( द्विचरम फालि तक ) गणसंक्रम और उसीकी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है। आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मों का अप्रमत्तसंयतसे लेकर अपूर्वकरण तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध पाया जाता है। अधस्तन गुणस्थानोंमें उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध नहीं होता । आहारशरीरसत्कमिक संयत असंयमको प्राप्त होकर अन्नर्मुहर्त में उद्वेलना प्रारम्भ करता है, जब तक वह असंयत है और जब तक सत्कर्मसे रहित है तब तक वह उद्वेलना करता है। ___अब सब उद्वेलनप्रकृतियोंकी उद्वेलनाके क्रमकी प्ररूपणा की जाती है । यथाअधःप्रवृत्तस्थितिकाण्डक पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । उन स्थितियोंका जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें उत्कीर्ण किया जाता है वह स्तोक है । द्वितीय समयमें जो प्रदेशाग्र उत्कीर्ण किया जाता है वह असंख्यातगुणा है । तृतीय समयमें जो प्रदेशाग्र उत्कीर्ण किया जाता है वह असंख्यातगुणा है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातगुणी वृद्धिके क्रमसे ले जाना चाहिये। यहां गणकारका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। अन्य प्रकृतियोंमें जो प्रदेशाग्र दिया जाता है वह स्तोक है। स्वस्थान में जो प्रदेशाग्र दिया जाता है वह असंख्यातगुणा है । जो प्रदेशाग्र स्वस्थानमें दिया जाता है वह गुणश्रेणिक्रमसे B अ-काप्रत्यो: 'दुचरिममुवेलणकंडयो' इति पाठः । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४१९ जं सत्थाणे तं गुणसेडीए दिज्जदि, जं परत्थाणे तं पदेसग्गं विसेसहाणीए दिज्जदि । एस विही पढमस्स टिदिकंडयस्स । जो विही पढमस्स टिदिखंडयस्स परूविदो सो चेव विही बिदियखंडयप्पहुडि जाव दुचरिमखंडओ त्ति ताव सव्वखंडयाणं परवेयन्वो । चरिमद्विदिखंडयपमाणं पलिदो० असंखे० भागो। तस्स पदेसग्गं सव्वं परत्थाणे चेव दिज्जदि असंखेज्जगुणाए सेढीए । पढमट्टिदिखंडयस्स द्विदीओ बहुगाओ। बिदियस्स विसेसहोणाओ। तदियस्स टिदिखंडयस्स द्विदीओ विसेसहीणाओ। एवमणंतरोवणिधाए गेयध्वं जाव दुचरिमदिदिखंडओ त्ति । दुचरिमझिदिखंडयट्टिदीहितो चरिमझिदिखंडयस्सर द्विदीओ असंखे० गुणाओ। __ परंपरोवणिधाए पढमट्टिदिखंडयमुवणिहाय अत्थि काणिचि द्विदिखंडयाणि संखेज्जगुणहीणाणि काणिचि असंखे० गुणहीणाणि । तत्थ जं दुचरिमट्ठिदिखंडयमाहारदुगस्स तस्स जं चरिमसमए संकमदि पदेसग्गं परत्थाणे सो जहण्णओ उज्वेल्लणसंकमो। तेण संकममाणेण तिस्से पयडीए ताधे जं सेसयं कम्मं तं पलिदोवमस्स असंखे० भागेण अवहिरिज्जदि । सव्वकम्मं पुण अंगुलस्स असंखे० भागेण अवहिरिज्जदि । संपहि पयदं परूवेमो-- आहारदुगस्स उव्वेलणकालब्भंतरे उव्वेल्लणसंकमो। चरिमट्ठिदिखंडए गुणसंकमो । तत्थेव चरिमफालीए सव्वसंकमो । दिया जाता है और जो प्रदेशाग्र परस्थानमें दिया जाता है वह विशेषहानिके क्रमसे दिया जाता है। यह विधि प्रथम स्थितिकाण्डककी है । जो विधि प्रथम स्थितिकाण्डककी कही गयी है वही विधि द्वितीय काण्डकसे लेकर विचरम काण्डक तक सब काण्डकोंकी कहना चाहिये । अन्तिम स्थितिकाण्डकका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । उसका सब प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित श्रेणिसे परस्थानमें ही दिया जाता है । प्रथम स्थितिकाण्डककी स्थितियां बहुत हैं। द्वितीय स्थितिकाण्डककी स्थितियां विशेष हीन हैं । तृतीय स्थितिकाण्डककी स्थितियां विशेष हीन हैं । इस प्रकार अनन्तरोपनिधासे द्विचरम स्थितिकाण्डक तक ले जाना चाहिये। द्विचरम स्थितिकाण्डककी स्थितियोंसे चरम स्थितिकाण्डककी स्थितियां असंख्यातगुणी हैं। परम्परोपनिधाकी अपेक्षा प्रथम स्थितिकाण्डक उपनिधामें कितने ही स्थितिकाण्डक संख्यातगुणे हीन हैं और कितने ही असंख्यातगुणे हीन हैं। उनमें जो आहारद्विकका द्विचरम स्थितिकाण्डक है उसका जो प्रदेशाग्र अन्तिम समय में परस्थान में संक्रान्त होता है वह जघन्य उद्वेलनासंक्रम है। उसके द्वारा संक्रान्त होता हुआ उक्त प्रकृतिका जो उस समय शेष कर्म है वह पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अपहृत होता है । परन्तु सब कर्म अंगुलके असंख्यातवें भागसे अपहृत होता है। अब प्रकृतकी प्ररूपणा करते हैं-- आहारद्विकका उद्वेलनकालके भीतर उद्वेलनसंक्रम होता है। अन्तिम स्थितिकाण्ड में गुणसंक्रम होता है। उसमें ही अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है । ED अ-काप्रत्यो: ' सदं ', ताप्रती 'सदं ( व्वं ), इति पाठः। ४ प्रतिष 'चठ्ठिदिखंडयस्स' इति पाठः । ताप्रती 'खंडयमवणिहा य अथि । काणिचि' इति पाठः । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ) छक्खंडागमे संतकम्म उच्चागोदस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सासणसम्माइट्टि त्ति अधापवत्तसंकमो। उवरि असंकमो, पडिग्गहाभावादो। सत्तमपुढविणेरइएसु विज्झादसंकमो । तेउ-वाउकाइएसु उज्वेल्लणसंकमो, तत्थ उव्वेल्लणपाओग्गपरिणामाणमवलंभादो। चरिमुव्वेल्लणखंडए गुणसंकमो। तस्सेव चरिमफालीए सव्वसंकमो। तिण्णिसंजलण-पुरिसवेदाणमधापवत्तसंकमो सव्वसंकमो चेदि दोण्णि संकमा होति । तं जहा- तिण्णं संजलणाणं पुरिसवेदस्स च मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति अधापवत्तसंकमो । चरिमखंडयचरिमफालीए एदासि सव्वसंकमो । हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं अधापवत्तसंकमो गुणसंकमो सव्वसंकमो चेदि तिणि संकमा होति । तं जहा- मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुव्वकरणचरिमसमयो त्ति एदासिमधापवत्तसंकमो। उवरि गुणसंकमो जाव चरिमट्ठिदिखंडयदुचरिमफालि त्ति । चरिमफालीए सव्वसंकमो।। ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसह-तित्थयराणमधापवत्तसंकमो विज्झादसंकमो चेदि दोण्णि संकमा।तं जहा-ओरालियदुग-पढमसंघडणाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठि त्ति अधापवत्तसंकमो, तत्थ बंधदसणादो । असंखेज्जवासाउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु विज्झादसंकमो तत्थ एदासि बंधाभावादो । तित्थयरस्स उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टिसे लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि तक अधःप्रवृत्तसक्रम होता है । आगे उसका संक्रम नहीं होता है, क्योंकि, प्रतिग्रह प्रकृतिका अभाव है । सातवी पृथिवीके नारकियोंमें उसका विध्यातसंक्रम होता है। तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंमें उसका उद्वेलनसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां उद्वेलनके योग्य परिणाम पाये जाते हैं । अन्तिम उद्वेलनकाण्डकमें गुणसंक्रम होता है । उसीकी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है। तीन संज्वलन और पुरुषवेदके अधःप्रवृत्तसंक्रम और सर्वसंक्रम ये दो संक्रम होते हैं । यथा- तीन संज्वलन कषायों और पुरुषवेदका मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण तक अध:प्रवृत्तसंक्रम होता है । इनके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्साके अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ये तीन संक्रम होते हैं। यथा- मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक इनका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । आगे अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरम फालि तक गुणसंक्रम होता है । अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है । ___औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और तीर्थंकर प्रकृतिके अधःप्रवृत्तसंक्रम और विध्यातसंक्रम ये दो संक्रम होते हैं । यथा औदारिकद्विक और प्रथम संहननका मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, वहांपर उनका बन्ध देखा जाता है । असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंचों और मनुष्योंमें इनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, उनमें इनका बन्ध नहीं होता । तीर्थंकर प्रकृतिका असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अ-काप्रत्योः 'दोणिसंकमो' इति पाः। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४२१ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अपुवकरणो ति ताव अधापवत्तसंकमो। मिच्छाइटिम्हि विज्झादसकमो, तत्थ बंधाभावादो*। ____ गुणसंकमेण संकमगाणस्स अवहारकालो थोवो । अधापवत्तसंकमेण संकामयंतस्स अवहारकालो असंखेज्जगुणो । विज्झादसंकमेण संकामयंतस्स अवहारकालो असंखे० गुणो । एदमप्पाबहुअं उक्कस्सपदेससंकमभागहाराणं, ण सव्वेसि; विज्झादसंकमभाग-- हारादो अधापवत्तभागहारस्स विसेसहीणत्तुवलंभादो। एवं कुदो णव्वदे? पच्चक्खाणलोभजहण्णसंकमदत्रादो केवलणाणावरणजहण्णसंकमदत्वं विसेसाहियं ति उवरिमभप्पाबहुगादो । उव्वल्लणसंकमेण संकामयंतस्स अवहारकालो असंखे० गुणो । एदमप्पाबहुअं एत्थ अवहारेयव्वं । एवं परूवणा समत्ता। एत्तो सामित्तं । तं जहा-- मदिआवरणस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो सत्तमादो पुढवीदो मदो तिरिक्खो जादो तदो तस्स आवलियतब्भवत्थस्स उक्कस्सगो मदिआवरणस्स पदेससंकमो । चदुणाणावरण-चदुदंसणावरण पंचंतराइयाणं मदिणाणावरणभंगो । णिद्दा-पयलाणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? गुणिद अपूर्वकरण तक अधःप्रत्तसंक्रम होता है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उसका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां उसका बन्ध नहीं होता। गुणसंक्रमके द्वारा संक्रान्त होने वाले प्रदेशाग्रका अवहारकाल स्तोक है। अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा संक्रान्त होने वाले प्रदेशाग्रका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। विध्यातसंक्रमके द्वारा संक्रान्त होनेवाले प्रदेशाग्रका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । यह अल्पबहुत्व उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमभागहारोंका है, न कि सब भागहारोंका; क्योंकि, विध्यातसंक्रमभागहारसे अधःप्रवृत्तसंक्रमभागहार विशेष हीन पाया जाता है। शंका-- यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान-- वह प्रत्याख्यानावरणलोभके जघन्य संक्रमद्रव्यसे केवलज्ञानावरणका जघन्य संक्रमद्रव्य विशेष अधिक है, इस आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । उसकी अपेक्षा उद्वेलनसंक्रमसे संक्रान्त होनेवाले द्रव्यका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । इस अल्पबहुत्वका यहां अवधारण करना चाहिये । इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई । - यहां स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकौशिक सातवीं पृथिवीसे मरकर तिर्यंच हुआ है सके आवली कालवी तदभवस्थ होनेपर मतिज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। शेष चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके स्वामित्वकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । निद्रा और प्रचलाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम *ताप्रतौ 'तत्थ बंधामावादो' इत्येतावानयं पाठो नास्ति । अप्रतौ 'आवरण उक्कस्सओ' इति पाठः तत्तो उबट्टत्ता आवलिगासमयतब्भवत्थस्स । आवरण-विग्धचोद्द पगोरालियसत्त उक्को तो ॥क. प्र. २-७९. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ) छक्खंडागमे संतकम्म कम्मंसियस्स चरिमसमयसुहमसांपराइयस्स खवगस्स । थोणगिद्धितियस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? गुणिदकम्मंसियस्स अणियट्टिखवयस्स सव्वसंकमेण थीणगिद्धितियचरिमफालि संकातस्स* । सादस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो सत्तमादो पुढवीदो मदो तिरिक्खो जादो, ताधे चेव सादं पबद्धं, तपाओग्गउक्कस्सियाए सादबंधगद्धाए गदो, पुणो असादं पबद्धं, तस्स आवलियादिक्कंतस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । असादस्स णिद्दाभंगो। मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? गुणिदकम्मंसियस्स सव्वलहुं दसणमोहणीयं खवेंतस्स अणियट्टिकरणे सनसंकमेण मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चरिमफालीयो संकामेतस्स* । सम्मत्तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? जो सत्तमाए किसके होता है ? वह गुणितकौशित चरम समयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिक क्षपकके होता है। स्त्यानगद्धित्रयका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? वह सर्वसंक्रम द्वारा स्त्यानगृद्धि त्रयकी अन्तिम फालिको संक्रान्त करनेवाले गुणितकर्माशिक अनिवृत्तिकरण क्षपक के होता है । सातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकौशिक सातवीं पृथिवीसे मरकर तिर्यंच हुआ है, जिसने उसी समयमें सातावेदनीयका बन्ध किया है, तथा जिसने तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट साताबन्धककालको विताकर फिर असातावेदनीयका बन्ध किया है, उसके बन्धावलीके वीतने पर उसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । असातावेदनीयके प्रकृत स्वामित्वकी प्ररूपणा निद्राके समान है। मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? वह सर्वलघुकालमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करते हुए अनिवृत्तिकरण में सर्वसंक्रम द्वारा मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्वकी अन्तिम फालियोंको संक्रान्त करनेवाले गणितकर्माशिकके होता है। सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो सातवीं पृथिवीका नारकी गुणितकर्माशिक * अप्रतो 'चरिमफाली संकमेतस्स', काप्रतौ' चरिमफालिसंकमोतस्स', ताप्रतो 'चरिमफालि (लिं) संकामेंतस्स' इति पाठः । कम्मचउक्के असुमाण' बज्झमाणीण सुहम खवग रागते । संछोमणम्मि नियगे चउवीसाए नियट्टिस्स ।। क. प्र. २-८०. कर्मचतुष्के दर्शनावरण-वेदनीय-नाम-गोत्रलक्षणे या अशुभाः सूक्ष्मसंपरायावस्थायामबध्यमानाः प्रकृतयो निद्राद्विकासातावेदनीय-प्रथमवर्जसंस्थान-प्रथमवजसंहननाशुभवर्णादिनवकोपघाताप्रशस्त-विहायोगत्यपर्याप्तास्थिराशुभ-दुर्भग-दुःस्वरानादेयायशःकीति-नीचैर्गोत्रलक्षणा द्वात्रिंशत् प्रकृतयस्तासां गणितकर्माशस्य क्षपकस्य सूक्ष्मसंपरायस्यान्ते चरमसमये उत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति । तथाऽनिवृत्तिबादरस्य गुणितकांशस्य क्षपकस्य मध्यमकषायाष्टक-स्त्यानगृद्धित्रिक तियंग्द्विक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियजातिसूक्ष्म-साधारणनोकषायषटकरूपाणां चतुर्विशतिप्रकृतीनां । २४ ) आत्मीय आत्मीये चरमसंछोभे चरमसंक्रमे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमो भवति ।। मलय ). ॐ तत्तो अणंतरागयसमयादुक्कस्स सायबंधद्धं । बंधिय असायबंधालिगंतसमयम्मि सायस्स ।। क. प्र. २-८१. ततो नरकभवादनन्तरभवे समागतः ......। मलय. *मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंकमो कस्स ? गुणिक्कम्मंसिओ सतमादो पूढवीदो उव्व ट्रिदो दो तिपिण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो पुढवीए रइयो गुणिदकम्मंसियो अंतोमुहुत्तसेसे सम्मत्तं पडिवण्णो, उक्कस्सेण गुणसंकमकालेण सम्मत्तमावूरिय मिच्छत्तं गदो, तस्स पढमसमयमिच्छाइट्ठिस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो० । अणंताणुबंधोणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? सत्तमपुढविणेरइयस्य गुणिदकम्मंसि. यस्स सव्वजहण्णमंतोमुत्तमेत्तमाउअं अस्थि त्ति अणंताणुबंधिचउक्कविसंजोजणमाढविय सव्वसंकमेण अंणंताणुबंधिचउक्कचरिमफालि संकामेंतस्स अट्ठकसायाणमुक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? गुणिदकम्मंसियस्स सव्वलहुं खवणाए अन्भुट्टियस्स अणियट्टि आयुमें अन्तर्मुहूर्त शेप रहनेपर सम्यवत्वको प्राप्त हो उत्कृष्ट गुणसंक्रमकालमें सम्यक्त्वको पूर्ण करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उस प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। अनन्तानुबन्धी कषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो सातवीं पृथिवीमें स्थित गुणितकौशिक नारकी जीव सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त मात्र आयुके शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी विसंयोजनाको प्रारम्भ करके सर्वसंक्रमण द्वारा अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी अन्तिम फालिको संक्रान्त कर रहा है उसके उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । आठ कषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक अनिवृत्तिकरण क्षपक सर्वलघु कालम क्षपणामें उद्यत होकर आठ कषायोंकी अन्तिम फालिको सर्वसंक्रम द्वारा संक्रान्त कर रहा है उसके भगहणाणि पचिदियतिरिक्वपज्जतएस उववण्णो अंतोमुत्तेण मणस्सेसु आगदो। सब्बलहं समोहणीयं खवेदुमाढत्तो, जाधे मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते संभमाणं संछद्ध साधे तस्स मिच्छ तस्स उस्सओ पदेससंकमो । क. पा. सु प ४०१, १९-२३. सम्मामिच्छत्तस्स उक्स्स ओ पदेससंकमो कस्स ? जेण मिच्छतस्स उक्कस्सपदेसग्ग सम्मामिच्छते पक्वित्तं, तेणेव जाधे सम्पामिच्छत्तं सम्मते संपक्खित्तं त'धे तस्स सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । पृ. ४०२, २७-२८. संछोभणाए दोहं माहाणं वेयगस्स खणसेसे । उप्पाइय सम्मत्त मिच्छत्तगए तमतमाए । क. प्र. २-८२. क्षपकस्य दूयोर्मोहनीययोमिथ्यात्व-सम्पग्मिथ्यात्वरूपयोरात्मीयात्मीयचरमसंछ'भे सर्वसंक्रमेणोत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति । ४ सम्मत्तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? गणिदकम्मसिएण सत्तमाए पुढवीय णेरइएण मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंतकम्ममंतोमहुत्तेण होहिदि त्ति सम्मत्तमुपाइदं, सबुक्कस्सियाए पूरणाए सम्मत्तं पूरिदं । तदो उवसंतद्धाए पुण्णाए मिच्छत्तमदीरयमाणस्स पढमसमयमिच्छाइट्ठिस्स तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो। गो वुण अधाग्वत्तसंकमो। क पा. सु. प. ४०२, २४-२६ xxx वेयगस्स खणसेसे । उप्पाइय सम्मतं मिच्छत्तगए तमतमाए।। क प्र २,८२ तथा क्षणशेषेर्मुहविशेसे आयुषि तमस्तमाभिधानायां सप्तमपथिव्यां वर्तमान औपशमिक सम्यक्त्वमत्पाद्य दीर्घेण च गणसंक्रमकालेन वेदकसम्यक्त्वपुज्ज समापूर्य सम्धक्वात्प्रति तितो मिथ्यात्वं च प्रतिपद्य तत्प्रथमसमय एव वेदकसम्यक्त्वस्य मिथ्यात्वे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमं करोति । (मलय). क. पा सू प. ४०३, २९-३०. भिन्न मते सेसे तच्चरमावस्सगाणि किच्वेत्थ । संजोयणा विसंजोयगस्स संछोभणा एसि ॥ क. प्र. २-८३. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ) छक्खंडागमे संतकम्म खवगस्स अटकसायचरिमफालीए सव्वसंकमेण संकामेंतस्स। ___णqसयवेदस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? ईसाणे गुणिदकम्मंसियस्स इस्थिवेदेण पुरिसवेदेण वा सव्वलहुं खवणाए अब्भुट्टियस्स णqसयवेदचरिमफालि सत्वसंकमेण संकामेंतस्सः । इत्थिवेदस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो असंखेज्जावासाउएसु उववण्णो, सव्वरहस्सेण कालेण पलिदो० असंखे० भाएण पूरिदइत्थिवेदोतदो मदो जहणियाए देवद्विदीए उववण्णो, तदो चुदो सव्वरहस्सेण • कालेण खवणाए अन्भुट्टिदो, तदो तस्स जा इत्थिवेदचरिमफाली सव्वसंकमेण पुरिसवेदे संकमदि ताओ इत्थिवेदस्स उक्कस्तओ पदेससंकमो*। पुरिसवेदस्स? उक्कस्सओ पदेससंकमो उक्त आठ कषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। ___ नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक देव ईशान कल्पमें ( संवरेश परिणामसे एकेन्द्रिय प्रायोग्य बन्ध करता हआ नपंसकवेदको बार बार बांधकर वहांसे च्यत हो स्त्री अथवा पुरुष उत्पन्न होता है और तत्पश्चात मासपथक्त्व अधिक आठ वर्षोंके वीतनेपर ) स्त्री या पुरुषवेदके साथ सर्वलघ कालमें क्षपणामें उद्यत हो सर्वसंक्रम द्वारा नपुंसकवेदकी अन्तिम फालिको संक्रान्त करता है उसके नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकौशिक असंख्यातवर्षायुष्क जीवोंमें उत्पन्न होकर सर्वलघु काल स्वरूप पल्योपमके असंख्यातवें भागमें स्त्रीवेदको पूर्ण करके मृत्युको प्राप्त होता हुआ जघन्य देवस्थिति ( दस हजार वर्ष ) के साथ देव उत्पन्न हुआ है, तत्पश्चात् वहांसे च्युत होकर सर्वलघु कालमें क्षपणामें उद्यत होकर जब वह स्त्रीवेदकी अंतिम फालिको सर्वसंक्रम द्वारा पुरुषवेदमें संक्रान्त करता है तब उसके स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है ? । विशेषार्थ-- यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र आदि अधिकांश ग्रन्थोंमें भोगभूमियोंमे अकालमृत्यु (कदलीघातमरण) का प्रतिषेध किया गया है, तथापि कुछ आचार्य वहां अकालमरणको भी स्वीकार अट्ठण्हं कसायागमक्कस्सओ पदेसतंकमो कस्स ? गुणि दकम्ममिओ सबलहुँ म गुमग मागदो अट्ठवस्सिओ खवणाए अब्यूट्रिदो। तदो अट्टाह कमायाणमपच्छिमट्रिदिखंडयं चरिमसमयसछुहमाणयस्स तस्स अटुण्ह कसायाणमक्कस्सओ पदेससंकमो । क. पा सु पृ ४०३, ३१-३२. 48 अ-काप्रत्योः 'ईपाणे गुणियस्स ' ताप्रती 'ईमाणे गणि (दकम्मसि ) यस्स' इनि पाठः । Oणवंसयवेदस्स उक्स्स ओ पदेमरकमो कस्स ? गणिदकम्मंसिओ ईसाणादो आगदो सव्वलहं खवेदुमाढतो। तदो णवूसयवेदस्स अपच्छिमटिदिखंडयं चरिमसमयसंछभमाण यस्स तस्स णमयवेदस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । क. पा सु पृ. ४०४,३८-३९. ईसाणागयपुरिसस्स इत्थियाए य अवसाए। मासपुधत्तमहिए नपुंसगे सब्वसंकमणे । क. प्र. २, ८४. * अकाप्रत्योः 'तदो बच्चदे सब्वरहस्सेण, ताप्रतो ' तदो बुच्चदे (चदो) सव्वरहस्सेण ' इति पाठः। * इत्थिवेदस्स उक्स्स ओ पदेससंकमो कस्स ? गणिदकम्मसिओ असंखेज्जवस्साउएसु इत्थिवेदं पूरेदूण तदो पूरिदकम्मं सिओ खवगाए अब्भट्रिनो तदो चरिमट्रिदिखंडयं चरिमसमयसंछहमागयस्स तस्स इत्थिवेदस्स उक्कस्सओ पदेस संकमो। क. पा सु. पृ. ४०४, ३४-३५. इत्थीए भोगभूमिसु जीविय वासाणसंखिपाणि तओ। हस्सठिई देवता सव्वलहं सब्बसंछोभे । क. प्र २-८५. ॐ अ-काप्रत्योः ‘पुरिसवेदयस्स' इति पाठः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४२५ कस्स ? जेण ईसाणदेवेसु णवंसयवेदो पूरिदो, तदो ससंखेज्जवासाउएसुख इत्थिवेदो पूरिदो, तदो मदो जहण्णाए देवद्विदीए उववण्णो, तदो मदो मणुस्सो जादो, सव्वलहुं अण्णदरेण लिंगेण खवणाए अब्भुद्विदो, तेण जाव सव्वसंकमेण पुरिसवेदो संकामिदो ताव तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो। छण्णोकसायाणमुक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो सव्वलहुं खवणाए अब्भुट्टिदो, तेण जाधे सव्वसंकमेण छण्णोकसायाणं चरिमफाली संकामिदा ताधे तेसिमक्कस्सओ पदेससंकमो।। ___ कोधसंजलणाए उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो ईसाणदेवेसु णयंसयवेदं करते हैं। इसी मतभदके अनुसार यहां भोगभूमियोंमें अपमृत्मको स्वीकार कर उपर्युक्त स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमको घटित किया गया है। यहां चूणिसूत्रकार यनिवृषभाचार्यका क्या अभिमत रहा है, यह ज्ञात नहीं होता; कारण कि उन्होंने 'असंखेज्जवस्साउएसु इत्यिवेदं पूरेदूण' इतना मात्र निर्देश किया है-पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र सर्वलघु कालका निर्देश नहीं किया । कर्मप्रकृति आदि श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें यह अभिमत अवश्य पाया जाता है । प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य मलयगिरिने बतलाया है कि स्त्रीवेदका यह उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम इसी युक्तिसे बन सकता है, अत:इसी युक्तिका अनुसरण करना चाहिये ; क्योंकि, इसके अतिरिक्त अन्य युक्तियां चिरन्तन ग्रन्थोंमें देखी नहीं जातीं । यथा-- इहैवमेव स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमापूरणमुत्कृष्टश्च प्रदेशसंक्रमः केवलज्ञानेनोपलब्धो नान्यथेत्येषेव यतिरत्रानसर्तव्या, न यक्वन्नराणि; यक्त्यन्तराणां चिरन्तनग्रन्थेष्वदर्शनतो निर्मूलतयाऽन्यथापि क मशक्यत्वात् । क प्र. २, ८५. ) पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जिसने ईशान कल्पके देवों में नपुंसक वेदको पूर्ण किया है, तत्पश्चात् असंख्यातवर्षायुष्कोंमें स्त्रीवेदको पूर्ण किया है, तत्पश्चात् मरणको प्राप्त होकर जो जघन्य देवस्थितिसे उत्पन्न हुआ है, और तत्पश्चात् मरणको प्राप्त होकर मनुष्य होता हुआ सर्वलघु कालमें अन्यन्तर लिंगके साथ क्षपणामें उद्यत होता है उसके जब तक सर्वसंक्रम द्वारा पुरुषवेद संक्रान्त होता है तब तक पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। छह नोकषायों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणकर्माशिक सर्वलघु कालमें क्षपणामें उद्यत होकर जब सर्वसंक्रम द्वारा छह नोकषामोंकी अन्तिम फालिको संक्रान्त करता है तब उसके उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । संज्वलन क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो ईशान कल्पके देवों में नपुंसक 0 अ-काप्रत्योः 'वासा उएसो' इति पाठः । ४ पूरिसवेदस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? गुणिदकम्मंसिओ इस्थि-पुरिस-णवंसयवेदे पूरेदूण तदो सव्वलहुं खवणाए अन्भुटुिंदो, पुरिसचेदस्स अपच्छिमछिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तस्स पुरिसवेदस्त उक्कस्सओ पदेससंकमो। क. प्र. सु प्र. ४०४, ३६-३७. परिसवरित्थि पूरिय सम्मत्तमसंखवासियं लहियं । गंता मिच्छत्तमओ जहण्णदेवट्टिई मोच्चा।। आगंतु लहुं पुरिग संछुभमाणस्स पुरिसवेयस्स । क. प्र. २,८६-८७ ...वर्षवरो नपुंसकवेदः । मलय. ' Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ) छक्खंडागमे संतकम्म पूरिय, असंखेज्जवासाउएसु इथिवेदं पूरिय, पुणो इत्थि वेदे पडिवुण्णे सम्मत्तं लहिय तदो पुरिसवेदो पूरिदो, पुणो पुरिसवेदे पडिवुण्णे मिच्छत्तं गदो, तदो मदो जहणियाए देवट्टिदीए उववण्णो, तदो चुदो मणुस्सेसु अवस्सिएसु उववण्णो, अटवस्सिएण जादेण संजमो पडिवण्णो, अंतोमुहुत्तेण खवगाए अब्भुट्टिदो तदो तेण जाव* कोधो सव्वसंकमेण संकामिदो ताव तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमाएदेणेव जीवेण सव्वसंकमे माणे संकामिदे माणसंजलणाए उक्कस्सओ पदेससंकमो । ( एदेणेव जीवेण सव्वसंकमेण मायाए संकामिदाए मायासंजलणाए उक्कस्सओ पदेससंकमो० ।) लोहसंजलणाए उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जेण गुणिदकम्मंसिएण सत्वरहस्सेण कालेण चत्तारिवारं कसाओ उवसामिदो, तेण सव्वलहुएण कालेण खवणाए अब्भुट्ठिदेण चरिमसमयअकद * अंतरेण वेदको पूर्ण करके असंख्यातवर्षायुष्कोंमें स्त्री वेदको पूर्ण करता है, फिर स्त्रीवेदके पूर्ण हो जानेपर जो सम्यक्त्वको प्राप्त करके तत्पश्चात् पुरुषवेदको पूर्ण करता है, फिर पुरुषवेदके पूर्ण हो जानेपर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर तत्पश्चात् मृत्युको प्राप्त होता हुआ जघन्य देवस्थितिसे उत्पन्न होता है, वहांसे च्युत होकर जो अष्टवर्षीय मनुष्यों में उत्पन्न हो आठ वर्षका होता हुआ संयमको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त कालमें क्षपणामें उद्यत होता है, उसके जब संज्वलन क्रोध सर्वसंक्रम द्वारा संक्रमको प्राप्त होता है तब उसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है, । यही जीव जब सर्वसंक्रम द्वारा संज्वलन मानको संक्रान्त करता है तब उसके संज्वलन मानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । (यही जीव जब सर्वसंक्रम द्वारा संज्वलन मायाको संक्रान्त करता है तब उसके संज्वलन मायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। ) संज्वलन लोभका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकौशिक सर्व-हस्व काल में चार वार कषाओंका उपशम करके सर्वलधु कालमें क्षपणामें उद्यत होता हुआ जब अकृतअन्तरकरण रहने के अन्तिम समयमें संज्वलन लोभको संक्रान्त * प्रतिषु 'पडिवणे' इति पाठः। ४ अप्रतौ 'तदो वच्चदो ' इति पाठः । * काप्रती 'तेगेव जाव', ताप्रतौ 'तेण जावे' इनि पाठः। 88 का-ताप्रत्यौः ‘तावे' इति पाठः। 0 कोहसंजलणस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? जेण पुरिसवेदो उक्कस्सओ संघद्धो कोधे तेणेव जाधे माणे कोधो सव्वसंकमेण संछुहदि ताधे तस्स कोधस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । एदस्स चेव माणसंजलणस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कायव्यो, णवरि जाधे माणसंजलणो मायासंजणे संछभइ ताधे एदस्स चेव मायासंजलणस्स उक्कस्सओ देससंकमो कायव्वो, णवरि जाधे मायासंजलणो लोभसंजलणे छभइताधे क.पा. सू. प. ४०४, ४०-४३. तस्सेव सगे कोहस्स माण-मायाणमवि कसिणो । क. प्र. २-८७. तथा तस्यैव पुरुषवेदोत्कृष्टप्रदेशसंक्रमस्वामिनः संज्वलनक्रोवस्य संसारं परिभ्रमता उपचितस्य क्षपणकाले प्रकृत्यन्तरदलिकानां गणसंक्रमेण प्रचुरीकृतस्य स्वके अत्मीये चरमसंछोभे उत्कृष्टः प्रदेशसक्रमो भवति । अत्रापि बन्धव्यवच्छेदादक आवलिकाद्विकेन कालेन यद् बद्धं तन्मुक्त्वा शेषस्य चरमसंछ भे उत्कृष्ट: प्रदेशसंक्रमो दृष्टव्यः । एवं मानमाययोरपि वाच्यम् मलय. । 8 अ-काप्रत्यो: 'कसाय', ताप्रती 'कमाय' इति पाठः। * अ-काप्रत्योः 'अकड.' इति पाठः । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२७ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो जाव* लोभो ताव* तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । __ आउआणं चदुण्णं पि णत्थि पदेससंकमो । णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो पुव्वको डिपुधत्तं मणुस्स-तिरिक्खे बंधतो अच्छिदो, पच्छा खवणाए अब्भुट्टिदो, तदो तेण जाध् सव्वसंकमेण णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणं चरमफालीयो संकामिदाओ ताध तेसिमुक्कस्सओ पदेससंकमो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वीणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो गुणिदसकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदो, समयाविरोहेण मणुस्सेसु उववण्णो, करता है तब उसके संज्वलन लोभका उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम होता है । चारों ही आयुकर्मों का प्रदेश पंक्रम नहीं होता। नरकगति और नरकगतियोग्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक बन्ध करता हुआ मनुष्य व तिर्यंचोंमें स्थित रहता है, पश्चात् क्षपणामें उद्यत होकर जब वह सर्वसंक्रम द्वारा नरकगति और नरकगतिप्रोग्यानुपूर्वीकी अन्तिम फालियोंका संक्रान्त करता है तब उसके उन दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । तिर्यग्गति और तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक सातवीं पृथिवीसे निकलकर और समयाविरोधसे मनुष्योंमें उत्पन्न होकर * का-ताप्रत्योः 'जावे' इति पाठः। * काप्रती 'तावे' इति पाठः । * लोभसंजलणस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? गुणिक्कम्मंसिओ सव्वलहुं खवणाए अब्भुट्टिदो अंतर से काले कादूण लोहस्स असंकामगो होहिदि त्ति तस्स लोहस्स उक्कस्सओ पदेससंकमी । क. ण सु. प ४०५, ४४-४५. चउरुवसमित्तु खिप्पं लोभ-जसाणं ससंकमस्संते । क. प्र २, ८८. अनेकभवभ्रमणेन चतुरो वारान् यावन्मोहनीयमुपशमय्य, चतुर्थोपशमनानन्तरं शीघ्रमेव क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नस्य तस्यैव गणितकर्माशस्य स्वसंक्रमस्यान्ते चरमबंछोभे इत्यर्थः, संज्वलनलोभ-यशःकीयोरुत्कृष्ट: प्रदेशसंक्रमो भवति । इहोपशमश्रेणि प्रतिपन्नेन सता प्रकृत्यन्तरदलिकाना प्रभूतानां गणसंक्रमेण तत्र प्रक्षे गत् द्वे अषि सज्वलनलोभ-यशः कीर्तिप्रकृती निरन्तरमापूर्येते, तत उपशमश्रेणिग्रहणम् । आसंसारं च परिभ्रमता जन्तुना मोहनीयस्य चतुर एव वारान यावदुपशमः क्रियते, न पंचममपि वारम्, ततश्चतुरुपशमय्येत्युक्तम् । तथा संज्वलनलोभस्य चरमसंछोभोऽ न्तरकरणचरमसमये दृष्टव्यः, न परतः, परतस्तस्य संक्रमाभावात्, "अंतरकरणम्मि कए चरित्तमोहे णु (णं)पुग्विसकमणं" इति वचनात् । मलय. 8 अ-काप्रत्यो: ' मणुस्समगुस्सतिरिक्खे', ताप्रती ( मणुस । मणुस-तिरिक्खे इति पाठः । ४ पूरित्तु पुव्वकोडीपुहुत्त संछोभगस्स निरयदुग । क प्र. २-९०. पूरित्तत्ति-नरकद्विकं नरकगतिनरकानपूर्वीलक्षणं दुर्वकोटिपृथक्त्वं यावत्पुरयित्वा, सप्तसु पूर्वकोटवायुष्केषु तिर्यग्भवेष भयो भयो बध्वेत्यर्थः । ततोऽष्टमभवे मनुष्यो भूत्वा क्षपकणि प्रतिपन्नोऽन्यत्र तन्नरकद्विकं कारन चरमसंझोमे सर्वसंक्रमेण तस्योत्कृष्टं प्रदेशसंक्रमं करोति । मलय. 8 अ-काप्रत्योः 'उवट्टिदो'. ताप्रती ' उवट्टिदो' इति पाठः । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं सव्वलहुं खवणाए अन्भुट्टिदो, जाधे तेण एदासि चरिमफालि सव्वसंकमेण संकामिदा ताधे तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । मणुसगइ-मणुसगइ-पाओग्गाणुपुव्वीणमुक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमा पुढवीए अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णे सव्वणिरुद्ध सेसे मिच्छत्तं गदो, उव्वट्टिदो, तिरिक्खेसुववण्णो, तस्स पढमसमयतिरिक्खस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । देवगइ देवगइपाओग्गाणुपुव्वी वेउ व्वियसरीर-वेउब्वियसरी रंगो वंग- बंधण-संघादामुक्कस्सओ पदेससंकमा कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो मणुस्स-तिरिक्खेसु एदाओ पडीओ yoवकोfsyधत्तं बंधिय खवणाए अब्भुट्टिदो, तस्स जाधे परभवियणामाणं बंधवोच्छेदो जादो, तदो उवरि बंधावलियाए अदिक्कताए एदासि पयडीणं उक्कस्सओ पदेससंकमो । सर्वलघु काल में क्षपणामें उद्यत होता है, वह जब इनकी अन्तिम फालिको सर्व संक्रम द्वारा संक्रान्त करता है तब इसके उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता ? जो गुणित कर्माशिक सातवीं पृथिवीमें प्रारम्भिक अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्वको प्राप्त होकर सर्वनिरुद्ध अर्थात् आयुमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, फिर वहांसे निकल - कर जो तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ है उसके तिर्यंच होने के प्रथम समय में मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकबन्धन और वैक्रियिकसंघातका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक जीव मनुष्यों व तिर्यंचों में इन प्रकृतियोंकी पूर्वकोटिपृथक्त्व तक बांधकर क्षपणा में उद्योत होता है, उसके जब परभविक नामकर्मोकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है तब उसके पश्चात् बन्धावली के व्यतीत होनेपर इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । * अ-काप्रत्योः 'उबट्टिदो ' इति पाठ: । अ-काप्रत्योन लभ्यते पदमिदम् । * सव्वचिरं सम्मतं अणपालिय पूरउत्तु मणयदुगं । सत्तपखिइनिग्गइए पढमे समए नरदुगस्स ॥ क. प्र. २, ९१. सव्वचिरं ति - सव्वचिरं सर्वोत्कृष्टं कालं अन्तर्मुहूर्तानानि त्रयत्रिंशत्सागरोपमाणीत्यर्थः । सम्यक् वमनुपालय नारकः सप्तमक्षितौ वर्तमानः सम्यक्त्वप्रत्ययं तावन्तं कालं मनुजद्विकं मनुजगति मन्जानपूर्वीलक्षणमापूर्य बध्वा चरमेऽन्तर्मुहूर्ते मिध्यात्वं गतः । ततस्तन्निमित्तं निर्यद्विकं तस्य बध्ननो गणितकर्माशस्य सप्तमपृथिव्याः सकाशाद् विनिगतस्य प्रथमसमये एव मनुजद्विकं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण तस्मिन् तिर्यद्रिके बध्यमाने "कमतस्तस्य मनुजद्विकस्योस्कृष्टः प्रदेशक्रमो भवति । मलय देवगईनवगस्स य सगबंधंतालिगं गंगुं ॥। २ क. प्र. २-९० तथा देवगतिनवकं देवगति देवानपूर्वीवैक्रिधिकसप्तकलक्षणं यदा पूर्वको टिपृयकावं यावदापूर्याष्टममवे क्ष किश्रेणि प्रतिपन्नः सन् स्वकबन्धान्तात् स्वबन्धव्यवच्छेदादनन्तरमात्र लिकामात्रं कालमतिक्रम्य यश की प्रक्षिपति तदा तस्योत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति । तदानीं हि तरलकाता गुणसंकपेज ला संक्रमालिका तिक्रान्तत्वेन संक्रमः प्रापन इति कृत्वा । मलय. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेस संकमो ( ४२९ आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंग-बंधण-संघादाणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जेण गुणि दकम्मंसिएण एदाहि चदुहि पयडीहि चिरसंचिदाहि चत्तारिवारं कसाया. उवसामिदा, तदो तस्स खवणाए अब्भुट्टियस्स परभवियणामाणं बंधे वोच्छिण्ण आवलियादिक्कंतस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो*। औरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघादाणं मदिआवरणभंगो। पसत्थसंठाण-संघडण-सुभगादेज्ज-सुस्सराणमुक्कस्सओ पदेससंकंमो कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ बेछावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालेयण चदुक्खुत्तं कसाए उवसामिय खवणाए अब्भुट्टिदो, तस्स परभवियणामाणं बंधवोच्छेदादो आवलियादिक्कंतस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो। णवरि वज्जरिसहसंघडणस्स चरिमदेवभवचरिमसमए उकस्सओ पदेससंकमो । आहारशरीर, आहारशरीरांगोपांग, आहारशरीरबन्धन और आहारशरीरसंघातका उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम किसके होता है ? जिस गुणितकौशिक जीवने चिरसंचित इन चार प्रकृतियों के साथ चार वार कपायों का उपशम किया है और तत्पश्चात् जो क्षपणामें उद्यत हुआ है उसके परभविक नामकर्मोंको बन्धव्युच्छित्ति हो जाने के पश्चात् आवली मात्र कालके वीतनेपर उक्त चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर तथा उनके अंगोपांग, बन्धन और संघातकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। प्रशस्त संस्थान, प्रशस्त संहनन, सुभग, आदेय और सुस्वरका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन करके और चार बार कषायोंको उपशमा करके क्षपणाम उद्यत हुआ है, उसके परभविक नामकर्मोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाने के पश्चात् आवली मात्र कालके वीतनेपर उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। विशेष इतना है कि वज्रर्षभनाराचसंहननका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अन्तिम देवभवके अन्तिम समयमें होता है। . अ-काप्रत्यो: 'कसाय', ताप्रतौ कसायया' इति पाठः । * आहारग-नित्थयरं थिरसममुक्कस्स सम (ग) कालं ॥ क. प्र. २, ९२. इयमत्र भावना- आहारसप्तकं तीर्थकरनाम चोत्कृष्टं स्वबन्धकालं यावदापूर्य ताहारसप्तकस्य स्वबन्धकाल उत्कृष्टो देशोनां पूर्वकोटी यावत्संयममनुपालयतो यावानप्रमतताकालस्तावान् सर्वो वेदितव्यः । मलय. . सम्मदिट्ठिस्स सुभधुवाओ वि। सुभसघयणजुयाओ बत्तीससयोदहिचियाओ ॥ क. प्र. २, ८९. सम्यग्दृष्टेर्या शुभध्रुवबन्धिन्यः पंचेन्द्रियजाति-समचतुरस्रसंस्थान-पराघातोच्छ्वास-प्रशस्तविहायोगति-त्रस-बादरपर्याप्त-प्रत्येक-सुभग-सुस्वरादेयलक्षणा द्वादशप्रकृतयः शुमसंहननयुता वज्रर्षभनाराचसंहननसहिताः। xxx तथाहि- षट्षष्ठिसागरोपमाणि यावत्सम्यक्त्वमनुपालयन् एता बध्नाति । ततोन्तर्मुहर्ते कालं यावत् सम्यग्मिथ्यात्वमनु मय पुनरपि सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते । ततो भूयोऽपि सम्पत्वमनुभवन् षट्षष्टिसागरोपमाणि यावदेत्ताः प्रकृतीः बध्नाति । तदेवं द्वात्रिंशदभ्यधिक सागरोपमशतं यावत् सम्यग्दृष्टिध्रुवा आपूर्व, वज्रर्षभनाराचसंहनन तु मनुष्यभवहीनं यथासंभवमुत्कृष्टं कालमापूर्य, ततः सम्यग्दष्टेवा अपूवंकरणगणस्थानके बन्धव्यवच्छेदानतरमावलिकामानं कालमतिक्रम्प यशःकीतौँ संक्रमयतस्तापामुत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमः . मलय. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ) छक्खंडागमे संतकम्मं पसत्थाणं धुवबंधिणामा सम्मत्तद्धा सव्वरहस्सा कायव्वा, अण्णहा गुणिदत्ताणुववत्तदो । चदुक्खुत्तं कसाए उवसामेदूण खवणाए तस्स परभवियणामबंधवोच्छेदादो आवलियादिक्कतस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । एवं थिर- सुभाणं । परघादुस्सास -पसत्थविहायगइ-तस -- बादर -- पज्जत्त - पत्तेयसरीराणं सुहाणामभंगो । - जसकित्तीए सुहाणामभंगो । णवरि परभवियणामाणं बंधवोच्छेदस्स चरिमसगए उक्कस्सओ पदेससंकमो कायव्वो । एइंदिय - आदाव थावरणामाणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ ईसाणदेवे पच्छायदो साइं पि अणुवसामिदकसाओ सव्वलहुं खवणाए अभुट्टो, तस्स चरिमसमयसंछुहमाणयस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । उज्जोवणामाए वि ईसाणदेवपच्छायदे खवगे सव्वसंकमेण संकामेंतए उक्कस्ससामित्तं दादव्वं । किं कारणं? तसजादिणामाओ बहुआओ पयडीओ बंधदि, एइंदियजादिणामाओ थोवाओ बंधदि । तदो रइयो तसजादिणामपडिभागं बंधदि उज्जोवणामं, ईसाणदेवा पुण प्रशस्त ध्रुवबन्धी नामकर्मीका सम्यक्त्वकाल सबसे हृस्य करना चाहिये, क्योंकि, इसके विना गुणितत्व बन नहीं सकता । चार बार कषायोंको उपशमा कर जो क्षपणामें उद्यत होता हँ उसके परभविक नामकर्मोंको बन्धव्युच्छित्तिके पश्चात् आवली मात्र कालके वीतनेपर उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । इसी प्रकार स्थिर और शुभ प्रकृतियोंके विषय में कहना चाहिये । परघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरकी प्ररूपणा शुभ नामकर्मके समान है । यशकीर्तिकी भी प्ररूपणा शुभ नामकर्मके समान है । विशेषता इतनी है कि उसला उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम परभविक नामोंकी बन्धव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें करना चाहिये । केन्द्र, आप और स्थावर नामकर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है? जो गुणितकर्माशिक ईशान देव देवपर्यायसे पीछे आकर एक बार भी कषायोंको न उपशमा कर सर्वलघु कालमें क्षपणामें उद्यत होता है उसके निक्षेपण करते हुए अन्तिम समयमें उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । ईशानकल्पगत देवपर्यायसे पीछे आकर सर्वसंक्रमके द्वारा उद्योत नामकर्मका संक्रमण करनेवाले क्षपकके उसके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका स्वामित्व देना चाहिये । इसका कारण क्या है ? समाधान- त्रसजाति नामकर्मोको बहुत बांधता है और एकेन्द्रियजाति नामकर्भीको स्तोक बांधता है । इसलिये नारक जीव उद्योत नामकर्मको त्रसजाति नामकर्मके प्रतिभाग रूप है, परन्तु ईशान देव उसको ही एकेन्द्रियजाति नामकर्मके प्रतिभाग रूप बांधते है । प्रतिषु 'धुबबंधविणाणं इति पाठः । अप्रतो' गुणदत्ता', तातो 'गुण (णि) दत्ता-' इति पार: । थावर तज्जा- आग्राबुज्जोयाओ नपुंसगसमाओ । क. प्र. २, ९२. ताप्रती 'पर्याडभागं' इति पाठः । तातो 'बंधदि, उज्जोवणामं ईसाणदेवा, पुण ' इति पाठः । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४३१ तं चेव एइंदियजादिणामपडिभागं बंधदि । एदेण कारण ईसाणदेवपच्छायदे उक्कस्ससामित्तं दादव्वं । ___ अप्पसत्थसंठाण-अप्पसत्थसंघडण-अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फास-उवघाद-अप्पसत्थविहायगइ-णीचागोद-अथिर-असुह-दूभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसगित्तीणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? जो रइयो गुणिदकम्मसियो सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदो, सव्वरहस्सेण कालेण खवणाए अब्भुट्टिदो, तस्स चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिय-सुहम-अपज्जत्त--साहारणाणं उक्क० *कस्स? तिरिक्ख-मणुस्सेसु पुवकोडिपुधत्तं वियट्टिदूण कसाए अणुवसामिय सव्वलहुं जो खवेदि, तस्स चरिमसमयसंछोहयस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो। णवरि अपज्जत्तयस्स सुहुमसांपराइयचरिमसमए । उच्चागोदस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? जो गुणिदकम्मंसिओ चदुक्खुत्तं) कसाए उवसामेऊण मिच्छत्तं गदो, तदो चरिमस्स णीचागोदबंधयस्स पढमसमए रहस्सेण कालेण सिज्झिहिदि त्ति उच्चागोदस्स उक्कस्सओ पदेससंकमोव । एवमुक्कस्ससामित्तं समत्तं । इस कारण ईशानगत देवपर्यायसे पीछे आये हर जीवके उद्योत नामकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका स्वामित्व देना चाहिये । __ अप्रशस्त संस्थान, अप्रशस्त संहनन, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, नीचगोत्र, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, और अयशकीर्ति ; इनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गणित कौशिक नारको जीव सातवीं पृथिवीसे निकलकर सर्वलघु कालमें क्षपणामें उद्यत होता है उस अन्तिम समयवर्ती सूक्षमसाम्परायिकके उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण नामकर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो तिर्यंचों और मनुष्योंमें पूर्वकोटिपृथक्त्व तक विचरण करके कषायोंको न उपशमा कर सर्वलघु कालमें क्षपणा करता है उसके संक्रम करते हुए अन्तिम समयमें उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। विशेष इतना है कि अपर्याप्त नामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें होता है। उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक चार बार कषायोंको उपशमा कर मिथ्यात्वको प्राप्त हआ है, तत्पश्चात (नीचगोत्रको बांधता नीचगोत्रकी बन्धुव्युच्छित्तिके पश्चात् ) थोडे ही कालमें सिद्धिको प्राप्त होनेवाला है उस अन्तिम समयवर्ती नीचगोत्रबन्धके उक्त अल्प सिद्धिकालके प्रथम समयमें उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम स्वामित्व समाप्त हुआ। ४ कम्मचउक्के असुभाण बज्झमाणीण सुहम ( ख वग ) रागते । क. प्र २,८०. काप्रती 'साहारणाणं कुदो उक्क०' इति पाठः। O अ-काप्रत्यो: 'चदुक्खेत्ते', ताप्रतौ 'चदुको (क्खु ' तं इति पाठः। चउरुवसमित्तु मोहं मिच्छत्तगयस्स नीयबंधंतो। उच्चागोउक्कोसो तत्तो लह सिज्झओ होइ ।। क. प्र. २, ९३. चतुष्कृत्वश्च मोहोपशमः किल भवद्वयेन भवति । ततस्तृतीये भवे मिथ्यात्वं गतः सन् नीचर्गोत्रं बध्नाति । तच्च बध्नन् तत्रोच्चैर्गोत्रं संक्रमयति। ततः पुनरपि सम्यक्त्वमासाद्योच्चैर्गोत्रं बध्नन् तत्र Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ) छक्खंडागमे संतकम्म एत्तो जहण्णयं पदेससंकमस्स सामित्तं। तं जहा- मदिआवरणस्त जहण्णपदेससंकामओ को होदि ? जो अभवसिद्धियपाओग्गेण सव्वजहण्णसंतकम्मेण चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेदूण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लध्दूण उप्पण्णोहिणाणो संतो खवेदि, तस्स चरिमसमयसुहमसांपराइयस्स जहण्णओ पदेससंकमो। सुद-मणपज्जवकेवलणाणावरणाणं मदिआवरणभंगो । एवं ओहिणाणावरणस्स वि। णवरि खवेंतस्स ओहिणाणं णत्थि त्ति वत्तव्वं । चक्खु-अचक्खु-केवलदंसणावरणाणं मदिआवरणभंगो। ओहिदसणावरणस्स ओहिणाणावरणभंगो । णिद्दा-पयलाणं सुदावरणभंगो। णवरि णिद्दा-पयलाणं जहण्णसंकमो ओहिणाणिस्स चेव होदि ति णियमो णत्थि। णिद्दा-पयलाणं बंधवोच्छेदस्स. चरिमसमए चेव जहण्णसंकमो दायव्वो। थोणगिद्धितियस्स जहण्णपदेससंकमो कस्स ? जो अब यहां जघन्य प्रदेशसंक्रमके स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- मतिज्ञानावरणका जघन्य प्रदेश संक्रामक कौन होता है ? जो अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य सर्वजघन्य सत्कर्मके साथ चार वार कषायोंको उपशमा कर और बहुत वार संयमासंयम एवं संयमको प्राप्त करके उत्पन्न हुए अवधिज्ञानसे संयुक्त होता हुआ क्षपण करता है उस अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके मतिज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। श्रुतज्ञानाबरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। अवधिज्ञानावरणकी भी प्ररूपणा इसी प्रकार ही है। विशेष इतना है कि क्षपणा करते हुए उसके अवधिज्ञान नहीं होता, यह कहना चाहिये। चक्षु, अचक्षु और केवलदर्शनावरणकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। अवधिदर्शनावरणकी प्ररूपणा अवधिज्ञानावरण के समान है। निद्रा और प्रचलाकी प्ररूपणा श्रुतज्ञानावरणके समान है । विशेष इतना है कि निद्रा और प्रचलाका जघन्य संक्रम अवधिज्ञानी के ही होता है, ऐसा नियम नहीं है। निद्रा और प्रचलाके जघन्य संक्रमको बन्धव्युच्छेदके अन्तिम समयमें ही देना चाहिये। स्त्यानगृद्धि त्रयका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता नीचर्गोत्रं संक्रमयति । एवं भूयो भूय उच्चर्गोत्रं नीचर्गोत्रं च बन्धतो नीचैर्गोत्रबन्धव्यवच्छेदानन्तरं शीघ्रमेव सिद्धिं गन्तुकामस्य नीचैर्गोत्रबन्ध चरमसमये उच्चैर्गोत्रस्य गुणसंक्रमणेन बन्धेन चोपचितीकृतस्योत्कृष्ट: प्रदेशसंक्रमो भवति । मलयगिरि. ४ आवरणसत्तगम्मि उ सहोहिणा तं विणोहिजयलम्मि । क. प्र. २, ९७. * अ-काप्रत्योः 'ओहिदसणावरणभंगो' इति पाठः। मप्रतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्योः 'वोच्छे दो हम', ताप्रतौ 'वोच्छेदे हस्स' इति पाठः। *णिहादुगंतराइय-हासचउक्के य बंधते ॥ क. प्र. २, ९७. निद्राद्विकं निद्रा-प्रचलारूपं, अन्तरायपंचकं हास्यचतुष्कं हास्य-रत-भय-जुगुप्सालझणं, एतासामेकादशप्रकनीनां । ११) स्वबन्धान्तसमये यथाप्रवृतसंक्रमेण जघन्यः प्रदेशसक्रमो भवति । निद्राद्विक-हास्यचतुष्टययोर्बन्धव्यवच्छेदानन्तरं गणसंक्रमण संक्रमो जायते । तत: प्रभूतं दलिकं लभ्यते । अन्तरायपञ्चकस्य । तु) बन्धव्यवच्छेदानन्तरं संक्रम एव न भवति, पतद्ग्रहाप्रा'तेः, ततो बन्धान्तसमयग्रहणम् । मलय. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४३३ खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण संजमं पडिवण्णो, सव्वजहण्णमंतोमुत्तावसेसे संसारे चरिमसमयअधापवत्तकरणो जादो, ताधे तस्स जहण्णगो पदेससंकमोथे। ___सादस्स जहण्णपदेससंकमो कस्स ? जो अभवसिद्धियपाओग्गेण जहणण संतकम्मेण कसाए अणुवसामेदूण खवेदि, तस्स जाधे चरिमो असादबंधो तस्स बंधस्स चरिमसमए सादस्स जहण्णओ पदेससंकमो* । असादस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जो जहण्णेण संतकम्मेण चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेयूण खवेदि, तस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयम्हि जहण्णगो पदेससंकमो?। मिच्छत्तस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्त ? जो जहण्णेण संतकम्मेण बेछावट्ठीओ सम्मत्तमणुपालेयूण, चदुक्खुत्तो कसाए उवसामिय, संजमं संजमासंजमं च बहुसो लध्दूण, सव्वमहंति सम्मत्तद्धमणुपालेदूण अंतोमुहुत्तेण सिज्झिहिदि त्ति दसणमोहणीय खवेदि, तदो दंसणमोहक्खवगअधापवत्तकरणस्स चरिमसमए जहण्णओ पदेससंकमो*। है ? जो क्षपितकौशिक स्वरूपसे आकर संयमको प्राप्त हो सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त मात्र संसारके शेष रहनेपर अन्तिम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरण हुआ है उसके उस समय स्त्यानगृद्धित्रयका जघन्य प्रदेससंक्रम होता है। सातावेदनीयका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य जघन्य सत्कर्मके साथ कषायोंका न उपशमा कर क्षय करता है, उसके जब असातावेदनीयका अन्तिम बन्ध होता है तब उस बन्धके अन्तिम समयमें सातावेदनीयका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । असातावेदनीयका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ चार वार कषायोंका उपशमा कर क्षय करता है उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयम असातावेदनीयका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वका पालन कर, चार वार कषापोंको उपशमा कर, संयम और संयमासंयमको बहुत वार प्राप्त कर. तथा सबसे महान् सम्यक्त्वकालका पालन करके अन्तर्मुहूर्त कालमें सिद्ध होनेवाला है, इसीलिये जो दर्शनमोहनीयको क्षपणा करता है, उस दर्शनमोहक्षपकके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । सम्यक्त्व और अ-काप्रत्योः 'गंतूण णा संजमं' तापतौ 'गंतूण ( णा) संजमं' इति पाठः । अयरछावटिदुगं गालिय थीवेय-थीणगिद्धितिगे । सगखवणहापवत्तस्संत (ते)xxx ॥२, ९९. सायस्स णवसमित्ता असायबंधाण चरिमबंधते क.प्र. २, ९८ • अट्ठकसायासाए य असुभधुवबंधि अत्थिरतिगे य । सव्वलहु खवणाए अहापवत्तस्स चरिमम्मि ॥ क.प्र. २,१०२. *मिच्छतस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? ख विदकम्मसिओ एइंदियकम्मेण जहण्णएण मणुसेसु आगदो सव्वलहं चेव सम्मतं पडिवण्णो संजमं संजमासंजमं च बहसो लमिदाउगो चत्तारिवारे कसाए उवसामित्ता वे छावट्रि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि सम्मत्तमणुपालिद । तदो मिच्छतं गदो अंतोमहत्तेण पुणो तेण सम्मत्तं लद्धं । पुणो सागरोवमपुधत्तं सम्मत्तमणपालिदं । तदो दंसणमोहणीयक्खवणार अब्भट्रिदो । तस्स चरिमसमयअधापवत्त करणस्स मिच्छत्तस्स जहण्णओ पदेससंकमा । क. पा. सु प. ४०५, ८४-४९. ' एमेव मिच्छत्त इति ' एवमेव Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ) छक्खंडागमे संतकम्म सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जेण जहणेण मिच्छत्तसंतकम्मेण सम्मत्तमुप्पाइदं, जहण्णण गुणसंकमेण जहण्णपूरणकालेण च सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि पूरिदाणि, तदो बे-छावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालेदूण मिच्छत्तं गदो, सव्वमहंतेण उव्वेल्लणकालेण उबेल्लेदि, तदो दुचरिमस्स उव्वेल्लणखंडयस्स चरिमसमए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णओ पदेससंकमो*। अणंताणुबंधीणं जहण्णगो पदेससंकमो कस्स? अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णण संत कम्मेण चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेदूण तदो अणंताणुबंधिविसंजोइदं संजोइदं कादूण सव्वमहंति सम्मत्तद्धमणुपालेदूण तदो विसंजोयणं गदो, विसंजोयणाए अध.पवत्तकरणस्स चरिमसमए अणंताणुबंधोणं जहण्णओ पदेससंकमो । अढण्णं कसायाणं जहण्णओ सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जिसने मिथ्यात्वके जघन्य सत्कर्मके साथ सम्यक्त्वको उत्पन्न कर लिया है तथा जघन्य गुण संक्रम और जघन्य पूरणकालके द्वारा सम्यक्त्व एवं सम्यग्मिथ्यात्वको ( मिथ्यात्वके प्रदेशाग्रसे ) पूर्ण किया है, तत्पश्चात् जो दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका परिपालन करके मिथ्यात्वको प्राप्त होता हुआ सबसे महान् उद्वेलनकालके द्वारा उद्वेलना करता है उसके द्विचरम उद्वेलनकाण्डकके अन्तिम समयमें सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। अनन्तानुबन्धी कषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य जघन्य सत्कर्मके साथ चार चार कषायोंको उपशमा कर तत्पश्चात् । मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अल्प काल तक विसंयोजित) अनन्तानुबन्धीको संयोजित करके जो सबसे यहान् सम्यत्वक्कालका पालन करते हुए विसंयोजनको प्राप्त हुआ है, उसके विसंयोजन करते हुए अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धी कषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। आठ कषायोंका जघन्य पूर्वोक्तप्रकारेण मिथ्यात्वस्य जघन्यप्रदेशसंक्रमोऽवगन्तव्यः । तद्यथा-द्वे षषष्टी सागरोवमाणां यावत्सम्यक्त्वमनुणल्य तावन्तं कालं मिथ्यात्वं गालयित्वा किचिच्छेषस्य मिथ्यात्वस्य क्षपणाय समुद्यतस्य स्वकीययथाप्रवृत्तकरणान्तसमये वर्तमानस्य विध्यातसंक्रमेण मित्थात्वस्य जघन्यः प्रदेससंक्रमो भवति, परतो गुणसंक्रमः प्रवर्तते, तेन स न प्राप्यते । क. प्र. (मलय.) २, ९९. * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? एसो चेव जीवो मिच्छत्तं गदो । तदो पलिदोबमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण अप्पप्पणो दुचरिमझिदिखडय चरिमसमयउब्वेल्लमाणयस्स जघण्णओ पदेससंकमो। क. पा. सु. पृ. ४०७, ४९-५० हस्सगणकसंमद्धाए पूरयित्ता समीस-सम्मत्तं । चिरसंमत्ता मिच्छत्तगयस्सुव्वलणथोगो सिं ॥ क. प्र. २, १००. ताप्रती 'अणंताणबंधिविसंजोइदं कादूण' इति पाठः। अर्णताणबंधीणं जहणओ पदेसरांकमो कस्स? एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेस आगदो। संजमं संजमासंजमंच बहसो लक्ष्ण चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो एइंदिएस पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमच्छिद जाव उवसामयसमयपबद्धा णिग्गलिदा ति । तदो पुणो तसेसु आगदो सब्बलहं सम्मत्तं लद्धं अणंताणबंधिणो च Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४३५ पदेससंकमो कस्स ? जो जहण्णसंतकम्मेण चदुक्खुत्ते कसाए उवसामेयूण खवेदि, तदो खवणाए अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए वट्ट माणस्स तेसि जहण्णओ पदेससंकमोन। एवमरदि-सोगाणं । हस्स-रदि-भय-दुगंछाणं पि एवं चेव । णवरि आवलियअपुवकरणस्स । तिण्णिसंजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? उवसामयस्स अपच्छिमसमयपबद्धं घोलमाणजहण्णजोगेण बद्धं अपच्छिमसंकामयंतस्स जहण्णओ पदेससंकमोथे। (लोहसंजलणाए. जहण्णओ पदेससंकमो) कस्स? जो जहण्णएण संतकम्मेण कसाए अणुवसामेयूण खवेदि तस्स अपुव्वकरणस्स आवलियपविट्ठस्स लोभसंजलणाए प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्म के साथ चार वार कषायोंको उपशमा कर क्षपणा करता है और तत्पश्चात् क्षपणा करते हुए जो अधःप्रवृत्त करणके अन्तिम समयमें वर्तमान है उसके उनका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । इसी प्रकार अरति और शोकके जघन्य प्रदेशसंक्रमका कथन करना चाहिये। हास्य, रति, भय और जुगुप्साके भी जघन्य प्रदेशसंक्रपकी प्ररूपणा इसी प्रकार करना चाहिये । विशेष इतना है कि इनका जघन्य प्रदेशसंक्रम आवली कालवर्ती अपूर्वकरणके होता है । तीन संज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो घोलमान जघन्य योगके द्वारा बांधे गये अन्तिम समयप्रबद्ध का संयम कर रहा है ऐसे उपशामक जीवके संक्रमकके अन्तिम समयमें उन चार प्रकतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। (संज्वलन लोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम) किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ कषायोंका उपशम न करके क्षय करता है उस आवली विसंजोइदा । पुणो मिच्छत्तं गंतुण अंतोमहत्तं संज एण पुणो तेण सम्मतं लद्धं । तदो सागरोवमवेछावट्ठीओ अणपालिदं । तदो विसंज'एदुमाढतो। तस्स अधारवत्त करणचरिमसमए अणनाणुबंधीणं जहण्जओ पदेससंकमो। क. पा. सु. पृ ४०७, ५१-५२ पंजोयणाग चतुरुवसमित्तु संजोजइत्तु अप्पद्धं । अयरच्छावद्विदुग पालिय सकहप्पवत्तंते ।। क. प्र. २, १०१. 0 अटूण्हं कसायाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? एइंदियकम्मेण जहण एण तसेसु आगदो संजमासंजम संजमं च बहसो गदो। चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो एइंदिएस गदो। असंखेज्जाणि वस्साणि अच्छिदो जाव उवसामयसमय बद्धा णिग्गलंति । तदो तसे सु आगदो संजमं संव्वलहुं लद्धो। पुणो कसायक्खवणाए उवट्रिदो। तस्स अधापवतकरणस्स चरिमसमए अटण्हं कसायाण जहण्णओ पदेससंकमो। क. पा. सु. पृ ४०८, ५३-५४. अट्ठकसायासाए य असुमधुवबंधि अथिरतिगे य । सबलहुं खवणाए अहापवत्तस्स चरिमम्मि ।। क. प्र. २, १०२. " असाएण समा अरई य सोगो य । क प्र २,१०३. . * हस्प-रइ-भय-दुगुंछाणं पि एवं चेव, णवरि अपुवकरणस्सावलियपविट्ठस्स । क. पा. सु. पृ. ४०७, ५६. ४ कोहसजलणस्स जहगणओ पदेससंकमो कस्स? उवसामयस्स चरिमसमयपबद्धो जाधे उवसामिज्जमाणो उवसंतो ताधे तस्स कोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो। एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । क. पा. सु.पु. ४०८, ५७-५९. पुरिसे संजल गतिगे य घोलमाणेण चरमबद्धस्स । सगअंतिमे। xxx क. प्र. २, १०३. .ताप्रती ‘बद्धं अपच्छिमसंकामयंतस्स । ( लोभसंजलणाए ) ' इति पाठः । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ) छक्खंडागमे संतकम्म जहण्णओ पदेससंकमो*। ___ इत्थवेदस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? जो जहण्णसंतकम्मेण बे-छावट्ठीओ सम्मत्तमगुपालिय चदुक्खुत्तो कसाए उवसामिय तदो खवेंतस्स अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए इत्थिवेदस्स जहण्णओ पदेससंकमो । णवंसयवेदस्स इथिवेदभंगो। णवरि पुव्वं चेव तिपलिदोवमिएसु उप्पाइय अवसाणे सम्मत्तं घेत्तूण बे-छावट्ठीयो हिंडावेयव्वोत्र। ___ आउआणं णत्थि संकमो । णिरयगइणामाए जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? जो उज्वेल्लिदेण कम्मेण अंतोमुहुत्तं संजोएदूण सत्तमपुढवि गदो, तदो उव्वट्ठिटो संतो अणंताणुबंधीणं एत्तदो (?) तदो एइंदिएसु जीवेसु महंतेण* उव्वेल्लणकालेण उव्वेल्लमाणस्स जं दुचरिमट्ठिदिखंडयं तस्स चरिमसमए णिरयगइणामाए जहण्णओ पदेससंकमो देवगईए णिरयगइभंगो। कालवर्ती अपूर्वकरणके संज्वलन लोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वको पालकर और चार वार कषायोंको उपशमा कर फिर क्षय करने में प्रवृत्त होता है उसके अधःप्रवृतकरणके अन्तिम समय में स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। नपुंसकवेदकी प्ररूपणा स्त्रीवेदके समान है। विशेष इतना है कि पहिले ही तीन पस्योपम आयुवालोंमें उत्पन्न कराकर अन्त में सम्यक्त्वको ग्रहण करके दो छयासठ सागरोपम तक घुमाना चाहिये। आयु कर्मोंका संक्रम नहीं होता। नरकगति नामकर्मका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है? जो उद्वेलित कर्म के साथ अन्तर्मुहर्त काल संयुक्त होकर सातवी पृथिवीको प्राप्त हुआ है, तत्पश्चात् वहांसे निकलकर ( पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें उत्पन्न हो अल्प काल उसका बन्ध करके ) फिर एकेंद्रिय जीवोंमें महान् उद्वेलनकाल द्वारा उद्वेलना कर रहा है उसका जो द्विचरम स्थितिकाण्डक है उसके अन्तिम समयमें नरकगति नामकर्मका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। देवगति नामकर्मकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है। * लोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो संजमासंजम संजमं च बहुसो लधुण कसाएसु कि पि णो उवसामेदि। दीहं संजमद्धमणुपालिदूण खवणाए अब्भुट्रिदो तस्स अपुवकरणस्स आवलियाविटुस्स लोहसजलणस्स जहण्णओ पदेस कमो। क पा सु. पृ ४०९, ६०-६१. खवणाए लोभस्स वि अपुव्वकरणालिगाअंते । क. प्र. २, ९८. . क. पा. सु पृ. ४१०, ६४. 8 अप्रती 'वेछावट्टि', काप्रतौ ' वेछावट्टि' इति पाठः । ४ क. पा. सु. प. ४०९, ६०-६३. EPS अप्रतौ ' उवट्रिदो', काप्रतौ ' उव्वेल्लिदो' इति पाठः । अप्रतौ 'जीवेसु हत्तेग', कापतो 'जीवेसु सुहत्तेण' ताप्रतौ 'जीवेसु हत्तेण ( महंतेण)' इति पाठः । 0 वेउवि (व्वे)ककारसगं उब्वल्लियंबंधिऊण अप्पद्ध। जिठिई निरयाओ उबट्रित्ता अबंधित्तु ।। थावरगयस्स चिरउव्वलणोणे)xxx क. प्र. २,१०४-५. वेउवित्ति- देवद्विक-नरकद्विक-बक्रियिकसप्तकलक्षणं वैक्रियकादशकं एकेन्द्रियभवे उद्वर्तमानेनोदलितं पुनरपि पंचेन्द्रियत्वमपागतेन सताल्पाद्धमल्पकालं अन्तर्मुहर्तकालं Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमाणुयोगद्दारे पदेस संकमो ( ४३७ मणुसगइणामाए जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जो तेउक्काइओ वाउक्काइओ वा उव्वेल्लिदमणुसग इणामकम्मो जहण्णेण कम्मेण तेउ वाउवज्जेसु सुहुमेसु खुद्दाभवग्गहणमच्छिऊण संजुत्तो, पुणो तेउजीवे वा वाउजीवे वा गदो तस्स सव्वमहंतेण उव्वेलणकालेण मणुसगइं उब्वेल्लमाणस्स जं दुचरिमुव्वेल्लणखंडयं तस्स चरिमसमए जहण्णओ पदेससंकमो * । तिरिक्खगइ - उज्जोवणामाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जो जहण्णएण संतकम्मेण मणुस गई गदो, तिपलिदोवमिएसु उववण्णो, अंतोमुहुत्ते सेसे सम्मत्तं mer पलिदो मिओ देवो जादो, तदो अपरिवडिदेण सम्मत्तेण मणुसर्गाद गदो, पुणो व अपरिवडि एक्कत्ती सागरोवमिओ देवो जादो, अंतोमुहुत्तुववण्णो मिच्छत्तं गदो, तो तस्स देवभवस्स अंतोमुहुत्त सेसे सम्मत्तं लद्धं तदो बे-छाबट्टिसेसा सम्मत्त मनुष्यगति नामकर्मका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? मनुष्यगति नामकर्मकी उद्वेलना करनेवाला जो तेजकायिक अथवा वायुकायिक जीव जघन्य कर्मके साथ तेजकायिक और वायुकायिकको छोड़कर शेष सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में क्षुद्रभवग्रहण काल रहकर उसको बांधता है. फिर तेजकायिक अथवा वायुकायिक जीवों में जाकर सबसे महान् उद्वेलनकाल द्वारा मनुष्यगतिकी उद्वेलना कर रहा है, उसका जो द्विचरम उद्वेलनकाण्डक है उसके आन्तम समयमें उसका जघन्य प्रदेश संक्रम होता है । तिर्यंचगति और उद्योत नामकर्मका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसका होता है ? जो जघन्य सत्कर्म के साथ मनुष्यगतिको प्राप्त होकर तीन पत्योपम प्रमाण आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ है, वहां अन्तर्मुहूर्त आयुके शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त कर पल्योपम प्रमाण आयुवाला देव हुआ, तत्पश्चात् अप्रतिपतित सम्यक्त्वके साथ मनुष्यगतिको प्राप्त हुआ, फिरसे भी अप्रतिपतित सम्यक्त्वके साथ इकतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाला देव हुआ, वहां उत्पन्न होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, पश्चात् उस देवभव के अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, पश्चात् जो शेष दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वका परिपालन करके चार यावदित्यर्थः । बध्वा ततो ज्येष्ठस्थिनिरुत्कृष्ट स्थितिस्त्रयस्त्रित्सागरोपमस्थितिक इत्यर्थः । सप्तमनरकपृथिव्यां नारको जातः । ततस्तावन्तं कालं यावत् यथायोगं तद्वैक्रियैकादशकमन्भूय ततो नरकादुद्धृत्य पंचेन्द्रियतिर्यक्षु मध्ये समुत्पन्नः । तत्र च तद्वैक्रियकदशकमबध्वा स्थावरेष्वे केन्द्रियेष मध्ये समुत्पन्नः । तस्य चिरोद्वलनया पल्योपमासंख्येयभागमात्रेण कालेनोद्वलनया तदुद्वलयतो यत् द्विचरमखण्डस्य चरमसमये प्रकृत्यन्तरे दलिक संक्रामति, स तस्य वैक्रियेकादशकस्य जघन्यः प्रदेशसंक्रमः । मलय. Xx X एक्स्स एव उच्चस्स । मण्यदुगस्स य तेउसु वाउसु वा सुहुमबद्धाणं ।। क. प्र. २, १०५. x x x इयमत्र भावना - मनुजद्विकमुच्चैर्गोत्रं च प्रथमतस्तेजोवायुभवे वर्तमानेननोद्वलितम् पुनरपि सूक्ष्मैकेन्द्रियभवमुपागते नान्तर्मुहूर्ते यावद् बद्धम्, ततः पंचेन्द्रियभवं गत्वा सप्तमनरक पृथिव्यामुत्कृष्ट स्थितिको नारको जातः । तत उद्धृत्य पंचेद्रियतिर्यक्षु मध्ये समुत्न्नः । एतावन्तं च कालमबध्वा प्रदेशसंक्रमेण चानुभूय तेजोवायुषु मध्ये समागतः । तस्य मनुजद्विकोच्चैर्गोत्रे चिरोद्वलनयोद्बलयतो द्विचरमखण्डस्य चरमसमये परप्रकृतौ यद्दलं संक्रामति स तभोजघन्यः प्रदेशसंक्रमः । मलय. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं मणुपालय, चदुक्खुत्तो कसाए उवसामिय, तिस्से उक्कस्सियाए सम्मत्तद्धाए अंतोमुहुत्ते सेसे खवणाए अब्भुट्टिदो, तदो अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए तिरिक्खगइउज्जोवणामाणं जहण्णओ पदेससंकमो जहा गईणं तहा तासिमाणुपुव्वीणं पि वत्तव्वं । वेउब्वियसरीर - वेडव्वियसरीरअंगोवंग - बंधण-संघादाणं णिरयगइभंगो। आहारसरीर आहारसरी रंगोवंग- बंधण-संघादाणं जहणपदेस संकमो कस्स ? जो अभवसिद्धियपाओग्गाणं जहणेण कम्मेण पढमदाए जहणियं संजमद्धमनुपालेयूण मिच्छत्तं गदो, तदो तस्स उक्कस्स उब्वेलणकालस्स जं दुचरिममुव्वेल्लणखंडयं तस्स चरिमसमए तेसि जहण्णओ पदेससंकमो * । ओरालिय सरीर-ओरालिय सरीरंगोवंग- बंधण-संघादाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? जो जहणएण कम्मेण तिपलिदोवमिएसु मणुस-तिरिक्खेसु उववण्णो तस्स चरिम वार कषायोंको उपशमा कर उस उत्कृष्ट सम्यक्त्वकाल में अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर क्षपणा में उद्यत हुआ है, उसके अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में तिर्यंचगति और उद्योत नामकर्मका जघन्य प्रदेश संक्रम होता है । जैसे गतियोंके जघन्य प्रदेशसंक्रमकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही उनकी आनुपूर्वयोंकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकबन्धन और वैक्रियिकसंघातकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है । आहारकशरीर, आहारकशरी रांगोपांग, आहारकबन्धन और आहारकसंघातका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य उक्त प्रकृतियोंके जघन्य संक्रमके साथ प्रथमत: जघन्य संयमकालका पालन कर फिर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, उसके उत्कृष्ट उद्वेलनकालका जो द्विचरम उद्वेलनकाण्डक है उसके चरम समय में उक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकबन्धन और औदारिकसंघातका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ तीन पत्योपम आयुवाले तेवट्ठियं उदहीणं स चउपल्लाहियं अबंधिता । अंते अहप्पवत्तकरणस्स उज्जोव - तिरियदुगे । क. प्र. २, १०७. × × × कथं त्रिषष्ट्यधिकं सागरोपमाणं शतं चतुः पल्याधिकं च यावद् बध्वेति चेदुच्यते - स क्षपितकर्यांश स्त्रिग्ल्योपमायुष्केषु मनुजेष मध्ये समुत्पन्नस्तत्र देवद्विकमेव बध्नाति, न तिर्यद्विकं नाप्युद्यतम् । तत्र चान्तर्मुहूर्ते शेषे सत्यायुषि सम्यक्त्वमवाप्य ततोऽप्रतिपतितसम्यक्त्वं एवं पल्योपमस्थितिको देवो जातः । ततोऽप्यप्रतिपतितसम्यक्त्वो देवभवाच्च्यत्वा मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नः । ततस्तेनैवाप्रतिपतितेन सम्यक्त्वेन सहित एकत्रित्सागरोपमस्थितिको ग्रैवेयकेषु मध्ये देवो जातः । तत्र चोत्पत्त्यनन्तरमन्तर्मुहूर्तादूर्ध्वं मिथ्यात्वं गतः । ततोऽन्तर्मुहूर्तावशेषे आयुषि पुनरपि सम्यक्त्वं लभते । ततो द्वे षट्षष्टी सागरोपमाणा यावन्मनुष्यानुतरसुरादिषु सम्यक्त्वमन गल्य तस्याः सम्यक्त्वाद्वाया अन्तर्मुहूर्ते शेषे शीघ्रमेव क्षपणाय समृद्यतः । ततोऽनेन विधिना त्रिषष्ट्यधिक सागरोपमाणां शतं चतुष्पल्याधिकं च यावत्तिर्यद्विकमुद्योतं च बन्धरहितं भवतीति । मलय. * काप्रती ' जेसि' इति पाठ: । हस्स कालं बंधिय विरओ आहारसत्तगं प्र०ly Jain Educatnem अविरइ महुव्वलंतस्स जा थोव उव्वलणा ॥ . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं माणुयोगद्दारे पदेस संकमो समय तब्भवत्थस्स एदासि पयडीणं जहण्णओ पदेससंकमो * । तेजा - कम्मइयसरीर - तब्बंधणX-संघाद-पसत्थवण्ण-गंध-रस- फास - अगुरुअलहुअपरघाद--उस्सास--पसत्थविहायगइ तस -- बादर - पज्जत्त - पत्तेयसरीर-थिर--सुभ-सुभगसुस्सर आदेज्ज-जसकित्तिणिमिणणामाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? D जो कसा अणुवसामेण सेसेहि पयारेहि जहण्णयं संतकम्मं काढूण तदो खवणाए अभुट्टो तस्स आवलियअपुत्वकरणस्स एदासि पयडीणं जहण्णओ पदेससंकमो* । पसत्थसंठाण - संघडणाणं कम्मइयभंगी । अप्पसत्यवण्ण-गंध-रस- फास उवघाद - अथिर् असुह-अजस कित्तीणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जो जहणेण कम्मेण चदुक्खुत्त कसाए उवसामेण गुणसेडीहि गालिय सव्वलहुं खवणाए अब्भुट्टिदो तस्स चरिमसमयअधापवत्तकरणे वट्टमाणस्स जहण्णओ पदेससंकमो । अप्पसत्यसव्वसंठाणसंघडri अपसत्थविहायगइ दूभग-- दुस्सर - अणा देज्ज - णीचागोदाणं णवुंसयवेदभंगो । आदाव---- थावर---- सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरोराणं तिरिक्खगइभंगो 1 मनुष्यों यातिर्यंचों में उत्पन्न हुआ है उसके तद्द्भवस्थ होनेके अन्तिम समय में इन प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । ( ४३९ तेजस व कार्मण शरीर तथा उनके बन्धन व संघात, प्रशस्त वर्ण, गन्ध रस व स्पर्श, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति और निर्माण नामकर्मोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो कषायों का उपशम न करके शेष प्रकारों द्वारा जघन्य सत्कर्म करके तत्पश्चात् क्षपण में उद्यत हुआ है; उस आवली कालवर्ती अपूर्वकरणके इन प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेश - संक्रम होता है । प्रशस्त संस्थान और प्रशस्त संहननकी प्ररूपणा कार्मणशरीरके समान है । अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्तिका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है? जो जघन्य सत्कर्मके साथ चार वार कषायोंको उपशमा करके गुणश्रेणियोंके द्वारा गलाकर सर्वलघु कालमें क्षपणामें उद्यत हुआ है, उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय में वर्तमान होनेपर उक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । अप्रशस्त सव संस्थानों और संहननोंका तथा अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रकी प्ररूपणा नपुंसक - वेदके समान है । आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीरकी प्ररूपणा तिर्यचगतिके र तिरियाण तिपल्लस्संते ओरालियस्स पाउग्गा । क. प्र. २, १११. ताप्रतौ ' सरीर २ - बंधण ' इति पाठ: D 'अ-काप्रत्योन ग्लभ्यते पदमिदम् । पाठः । छत्तीसाए सुभाणं सेढिमणारुहिय सेसगविहीहि । कट्टु जहण्ण खवणं प्र. २, १०९. अ-काप्रत्योः 'जे' इति पाठः । थीवेण सरिसगं णवरं पढमं तिपल्लेसु । क, प्र. २, ११०. काप्रतौ 'सरीर बंधण', अप्रतो 'उवसामेदूण' इति अपुग्वकरणालिया अंते ॥ क, सम्म द्दिट्ठिअजोग्गाण सोलसण्हं पि असुभ गईणं । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० छक्खंडागमे संतकम्म णवरि छट्ठीए पुढवीए अंते सम्मत्तं घेत्तूण सम्मत्तेण सह णिग्गदो, पुणो सव्वं पि पंचासीदिसागरोवमसदं पूरेदव्वं । एसो तिरिक्खगदीदो एदासि विसेसो । विलिदियजादिणामाणं साहारणसरीरभंगो। उच्चागोदस्स मणुसगइभंगो । तित्थयरणामाए जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जहण्णएण कम्मेण पढमदाए जहण्णजोगेण जो बद्धो समयपबद्धो तमावलियादीदं संकातस्स जहण्णओ पदेससंकमो, चरिमसमयमिच्छाइटिस्स वा विज्झादेण जहण्णसंकमो । एवं सामित्तं । समान है। विशेषता इतनी है कि छठी पृथिवीमें अन्त में सम्यक्त्वको ग्रहण करके और सम्यक्त्वके साथ निकलकर फिर सभीको एक सौ पचासी सागरोपम तक पूरा करना चाहिये । यह इन प्रकृतियोंके तिर्यंचगतिसे विशेषता है। _ विशेषार्थ- तिर्यंचगतिके जघन्य प्रदेशसंक्रमकी प्ररूपणामें १६३ सागरोपम और ४ पल्योपम तक उसके बन्धका अभाव निर्दिष्ट किया गया है। परन्तु इन आतप आदि प्रकृतियों के बन्धका अभाव १८५ सागरोपम और ४ पल्य तक रहता है । वह इस प्रकारसे-कोई क्षपितकौशिक जीव छठी पृथिवीमें २२ सागरोपम आयुवाला नारकी उत्पन्न हुआ। वहां वह आयुम अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त होकर उस अविनष्ट सम्यक्त्वके साथ मनुष्य होता ह और वहांपर सम्यक्त्वके साथ संयमासंयमको पालकर फिर सौधर्म स्वर्ग में चार पल्योपम आयुवाला देव उत्पन्न होता है। वहां भी अविनष्ट सम्यक्त्वके साथ देवभवसे च्युत होकर मनुष्य भवको प्राप्त होता हुआ यहां संयमको पालता है और तब मुत्युको प्राप्त हो ग्रैवेयकोंमें ३१ सागरोपम प्रमाण आयुवाला देव उत्पन्न होता है। यहां उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहुर्त पश्चात् वह मिथ्यात्वको प्राप्त होकर आयुमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है । तत्पश्चात् दो छयासठ (१३२) सागरोपम काल तक सम्यक्त्वको पालकर और चार वार कषायोंको उपशमा कर इस उत्कृष्ट सम्यक्त्वकालमें अन्तर्मुहुर्त शेष रहनेपर क्षपणामें उद्यत होता है । उस समय अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें उसके उपर्युक्त आतप आदि प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । इस प्रकार सौधर्म देवकी आयुके ४ पल्योपमोंके साथ १८५ (२२+३१+१३३) सागरोपम काल तक इन प्रकृतियों के बन्धका अभाव रहता है जब कि तिर्यंचगतिके बन्धका अभाव ४ पल्योपमोंसे अधिक १६३ सागरोपम काल तक ही रहता है । यही उससे इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशसंक्रममें विशेषता है। विकलेन्द्रिय जाति नामकर्मोकी प्ररूपणा साधारशरीर नामकर्मके समान है। उच्चगोत्रकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है। तीर्थंकर नामकर्मका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जघन्य सत्कर्मके साथ प्रथमतया जघन्य योगके द्वारा जो समयप्रबद्ध बांधा गया है बन्धावलीके पश्चात् उसका संक्रम करनेवालेके तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है अथवा, अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि के विध्यातसंक्रमके द्वारा उसका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । इस प्रकार स्वामित्वकी प्ररूपणा समाप्त हुई । ० इग-विगलिदियजोग्गा अट्ट पज्जत्तगेण सह ते । ता) सि । तिरियगइसमं नवरं पंचासीउदहिसयं तु॥ क. प्र. २, १०८. तित्ययरस्स य बंधा जहण्णओ आलिंगं गत् ।। क. प्र. २. १११. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४४१ मदिआवरणस्स उक्कस्सपदेससंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अणुक्कस्सपदेससंकमो केवचिरं० ? जह० अंतोमहत्तं, उक्क० अणंतकालं। चदुणाणावरण-चदुदंसणावरण-पंचंतराइयाणं मदिआवरणभंगो। सव्वकम्माणं पि उक्कस्सपदेससंकमस्त जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अणुक्कस्सपदेससंकमस्स कालो पंचण्णं दसणावरणीयाणं अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदो गा। जो सो सादिओ सपज्जवसिदो सो जह० अंतोमुत्त, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । सादासादाणमणुक्कस्सपदेससंकमो केवचिरं०? जहण्णेण एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । मिच्छत्तस्स जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० छावढिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । सम्मामिच्छत्तस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० बे-छावठिसागरोवमाणि पलिदोवमस्स असंखे० भागेण सादिरेयाणि । सम्मत्तस्स जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अणंताणुबंधीणं अणादियो अपज्जवसिदो, अणादियो सपज्जवसिदो, सादियो सपज्जवसिदो वा । जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । सेसाणं चरित्तमोहणीयपयडीणमणंताणबंधिभंगो। सादियसंतकम्माणं णामपयडीणं जह० उक्क० जच्चिरं पयडिसंकमकालो तश्चिरं अणुक्कस्सपदेससंकमकालो। अणादियसंतकम्मियासु पयडीसुजासि पयडीणं भवसिद्धिओ मतिज्ञानावरणके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमकका काल कितना है ? जघन्य और उत्कर्षसे वह एक समय मात्र है । उसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका काल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अनन्त काल प्रमाण है। शेष चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय; इनके प्रकृत कालकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। ___सब कर्मोंके ही उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका काल जघन्य और उत्कषसे एक समय मात्र है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका काल पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंका अनादि-अपर्यवसित, अनादिसपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित भी है। इनमें जो सादि-सपर्यवसित है वह जघन्यसे अन्तर्महत र उत्कर्षसे उपार्ध पुदगलपरिवर्तन मात्र है। साता और असाता वेदनीयके अनत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका काल कितना है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। मिथ्यात्व प्रकृतिका वह काल जघन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे साधिक छयासठ सागरोपम मात्र है । प्रकृत काल सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है । सम्यक्त्व प्रकृतिका यह काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है । अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोंका यह काल अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित भी है । जो सादि-सपर्यवसित है उसका प्रमाण जघन्यसे अन्तर्महर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पदगलारिवर्तन मात्र है। शेष चारित्रमोहनीय प्रकृतियोंके उपर्युक्त कालकी प्ररूपणा अनन्तानुवन्धीके समान है। सादि सत्कर्मवाली नामवकृतियोंका जघन्य व उत्कर्षसे जितना प्रकृतिसंक्रमकाल है उतना ही उनका अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमकाल भी है । अनादि सत्कर्मवाली प्रकृतियोंमें भव्यसिद्धिक जिन Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ) छवखंडागमे संतकम्म उक्कस्सं करेदि तासिमणुक्कस्सपदेससंकमकालो अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदो वा । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । इदरासि पयडीणं णाणावरणभंगो। उच्चागोदस्स अणुक्कस्सपदेससंकमो जह० अंतोमुहुत्तं एगसमओ वा उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । णीचागोदस्स जह० एगसमओ, उक्क० बेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवमुक्कस्सपदेससंकमकालो समत्तो। जहण्णपदेससंकमकालो सामित्तादो साहेयूण वत्तव्वो। एयजीवेण अंतरं पि सामित्तादो साहेयव्वो । णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं च सामित्तादो साहेदूण भाणियव्वं । पुणो एत्थ सण्णिथासो वत्तव्वो। _एत्तो अप्पाबहुअं। तं जहा- उक्कस्सपदेससंकमो सम्मत्ते थोवो । केवलणाणावरणे असंखेज्जगुणो। केवलदसणावरणे विसेसाहिओ। पयलाए असंखेज्जगुणो । णिहाए विसेसाहिओ। अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणो । कोहे विसेसाहिओ। माया० विसे । लोभे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोहे विसे० । मायाए विसे । लोभे विसे० । णणंताणुबंधिमाणे विसे० । कोधे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । मिच्छत्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमको करता है उनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका काल अनादिअपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित भी है। उनमें जो सादि-सपर्यवसित है उसका प्रमाण जघन्यसे अन्तर्मुहत और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गल परिवर्तन है । अन्य प्रकृतियोंके प्रकृत कालकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। __ उच्चगोत्रके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त व एक समय और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है । उक्त काल नीचगोत्रका जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमकाल समाप्त हुआ। जघन्य प्रदेशसंक्रमकालका कथन स्वामित्वसे सिद्ध करके करना चाहिये । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकी भी प्ररूपणा स्वामित्वसे सिद्ध करके करना चाहिये । नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तरको भी स्वामित्वसे सिद्ध करके कहना चाहिये । फिर यहां संनिकर्षका कथन करना चाहिये। अब यहां अल्पवहुत्वका कथन करते हैं । यथा- उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सम्यक्त्व प्रकृतिमें स्तोक है। केवलज्ञानावरण में असंख्यातगुणा है । केवलदर्शनावरण में विशेष अधिक है। प्रचलामें असंख्यातगुणा है । निद्रामें विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है । क्रोध में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है । क्रोध में विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी मानमें विशेष अधिक है । क्रोधमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है । मिथ्यात्वमें Wijainelibrary.org. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४४३ विसे । सम्मामिच्छत्ते विसे० । पचलापचलाए असंखे० गुणो । णिहाणिद्दाए विसे० । थीणगिद्धीए विसे० आहारसरीरणामाए अणंतगुणो । जसकित्तीए अणंतगुणो। वेउव्वियसरीरणामाए असंखे० गुणो । ओरालिय० विसे । तेजइय० विसे० । कम्मइय० विसे० देवगइणामाए असंखेज्जगुणो । मणुसगइणामाए विसे० । साद० संखे० गुणो । लोहसंजलणाए संखे गुणो० । दाणंतराए विसे० । लाहंतराए विसे० । भोगंतराए विसे० । परिभोगंतराए विसे० वीरियंतराए विसे० । मणपज्जवणाणावरणे विसे० ओहिणाणावरणे विसे० । सुदणाणावरणे विसे० । मदिणाणावरणे विसे० । ओहिदसणावरणे विसे० अचक्खुदंसणावरणे विसे० । चक्खुदं० विसे । उच्चागोदे संखे० गुणो । णिरयगइणामाए असंखे० गुणो । अजस कित्ति० असंखे० गुणो । असादे संखे० गुणो । णीचागोदे विसे० । तिरिक्खगइणामाए असंखे० गुणो । हस्से संखे० गुणो । रदीए विसे । इथिवेदे संखे० गुणो । सोगे विसे० । अरदीए विसे० । णवंसयवेदे विसे० । दुगुंछाए विसे । भय० विसे० । पुरिसवेदे संखे० गुणो । कोहसंजलणाए संखे० गुणो । माणसंजलणाए विसेसा० । मायासंजलणाए विसेसाहियो । एवमोघुक्कस्सपदेससंकमदंडओ समत्तो। विशेष अधिक है । सम्यग्मिथ्यात्वमें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानग द्धि में विशेष अधिक है। आहारशरीर नामकर्मम अनन्तगुणा है। यशकीति में अनन्तगुणा है । वैक्रियिकशरीर नामकर्ममें असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीर नामकर्म में विशेष अधिक है । तैजसशरीरमें विशेष अधिक है । कार्मणशरीरम विशेष अधिक है । देवगति नामकर्म में असंख्यातगुणा है। मनुष्यगति नामकर्ममें विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । संज्वलन लोभ में संख्यातगुणा है । दानान्तरायमें विशेष अधिक है । लाभान्तरायमें विशेष अधिक है । भोगान्तरायमें विशेष अधिक है। परिभोगान्तरायमें विशेष अधिक है। वीर्यान्तरायमें विशेष अधिक है मनःपययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरमें विशेष अधिक है । श्रृतज्ञानावरण में दिशेष अधिक है । मतिज्ञानावरण में विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरण में विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है उच्चागोत्रमें संख्यातगुणा है। नरकगति नामकर्ममें असंख्यातगुणा है । अयशकीर्तिमें असंख्यातगुणा है । असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । नीचगोत्रमें विशेष अधिक है । तिर्यग्गति नामकर्ममें असंख्यातगुणा है । हास्यमें संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है । स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है । शोकमें विशेष अधिक है । अरतिमें विशेष अधिक है नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है । जुगुप्साम विशेष अधिक है । भयमें विशेष अधिक है । पुरुषवेद में संख्यातगुणा है । संज्वलन क्राधमें संख्यातगुणा है । संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। संज्वलन माया में विशेष अधिक है इस प्रकार ओघ उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। ४ अ-काप्रत्योः 'असंखेज्जगुणो' इति पाठः । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४) छरखंडागमे संतकम्म गिरयगईए सव्वत्थोवो सस्ते उक्कस्ससंकमो। सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणो । अप च्चक्खाणमाणे असंखे० गुणो। कोहे विसे०।मायाए विसे०। लोभे विसे०। पच्चक्खाणमाणे विसे०। कोहे विसे०। मायाए विसे । लोभे विसे०। केवलणाणावरणे विसे० । पयलाए विसे०। णिद्दाए विसे०। पयलापयलाए विसे० । णिहाणिद्दाए विसे । थीणगिद्धीए विसे०। केवलदसणावरणे विसे०। मिच्छत्ते असंखे० गुणो । अणंताणुबंधिमाण असंखे० गुणो । कोहे विसे । मायाए विसे०। लोभे विसे०। णिरयगइणामाए अणंतगुणो । वेउब्वियसरीरणामाए असंखे० गुणो। देवगइ० संखे० गुणो। आहारसरीर० असंखे० गुणो । जसकित्ति० असंखे० गुणो । ओरालिय० संखे० गुणो। तेजइय० विसे। कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति० असंखे० गुणो । तिरिक्खगइ० विसे० । मणुसगइ० विसे०। हस्से संखे० गुणो । रदि० विसे०। सादे संखे० गुणो। इत्थिवेदे संखे० गुणो। सोगे विसे । अरदि० विसे० । णवंस० विसे० । दुगुंछाए. विसे० । भय० विसे० । पुरिसवे० विसे० । संजलमाणे विसे । कोधे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे। दाणंतराए विसे० । लाहंतराइए विसे० । भोगंतरा० विसे०। परिभोगंतरा० विसे० । वोरियंतराए विसे० । मणपज्जवणाणावरणे विसे० । ओहिणाणावरम नरकगतिमें सम्यक्त्व प्रकृति में उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सबसे स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें भसंख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोध में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । लोभ में विशष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रवलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरण में विशेष अधिक है । मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है । क्रोघमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। नरकगति नामकर्ममें अनन्तगुणा है। वैक्रियिकशरीर नामकर्ममें असंख्यातगुणा है । देवगति नामकर्म में संख्यातगुणा है। आहारकशरीर नामकर्ममें असंख्यातगुणा है । यशकीतिमें असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीर नामकर्ममें संख्यातगुणा है । तैजसशरीर नामकर्म में विशेष अधिक है। कार्मणशरीर नामकर्म में विशेष अधिक है। अयशकीर्तिमें असंख्यातगुणा है । तिर्यंचगति नामकर्म में विशेष अधिक है । मनुष्यगति नामकर्ममें विशेष अधिक है। हास्य संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है । शोक में विशेष अधिक है । अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है । जुगुप्सामें विशेष अधिक है । भयमें विशेष अधिक है । पुरुषवेदमें विशेष अधिक है। संज्वलन मान में विशेष अधिक है। क्रोध में विशेष अधिक है। माया में विशेष अधिक है । लोभमें विशष अधिक है । दानान्तरायमें विशेष अधिक है । लाभान्त रायमें विशेष अधिक है। भोगान्तरायमें विशेष अधिक है। परिभोगान्तरायमें विशेष अधिक है । वीर्यान्तराय में विशेष अधिक है । मनःपर्पयज्ञानावरण में विशेष अधिक है । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४४५ विसे० । सुदणाणा० विसेसा० । मदिणाणावरणे विसे० । ओहिदसणावरणे विसे० । अवखुदंसणावरणे विसे० । चक्खुदंस० विसे । असादे संखे० गुणो । उच्चागोदे विसे० । णीचागोदे विसे । एवं णिरयगईए उक्कस्सओ पदेससंकमदंडओ समत्तो। तिरिक्खगईए उक्कस्सओ पदेससंकमो सम्मत्ते थोवो । सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणो। अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणो । कोधे० विसे० । माया विसे० लोभे विसे। पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोधे विसे०। माया विसे०। लोभे विसे। केवलणाणावरणे विसे०। पयलाए विसे०। णिहाए० विसे०। पयलापयला० विसे० । णिहाणिद्दाए विसे०। थोणगिद्धीए विसे० । केवलदसणावरणे विसे० । मिच्छत्ते असंखे० गुणो । अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणो । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । णिरयगइणामाए अणंतगुणो। आहारसरीर० असंखे० गुणो । जसकित्ति० असंखे० गुणो । वेउव्विय० संखे० गुणो । ओरालिय विसे० । तेजा. विसे० । कम्मइय० विसे०। अजसकित्ति० संखे० गुणो । देवगदीए विसे०। तिरिक्खगईए विसे०। मणुसगई० विसे० । हस्से० संखे० गुणो । रदीए विसे० । सादे संखे० गुणो । इथिवेदे अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है । असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । उच्चगोत्रमें विशेष अधिक है। नीचगोत्र में विशेष अधिक है । इस प्रकार नरकगति में उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। तिर्यंचगतिमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सम्यक्त्व प्रकृति में सबसे स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यात गुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमे असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभ में विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। क्रोध में विशेष अधिक है। माया में विशेष अधिक है । लोभ में विशेष अधिक हैं। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रामें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रानिद्रा में विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमे विशेष अधिक है । मिथ्यात्व में असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है । क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामे विशेष अधिक हैं। लोभमे विशेष अधिक है । नरकगति नामकर्ममे अनन्तगुणा है। आहारकशरीर नामकर्ममें असंख्यातगुणा है। यशकीर्तिमें असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। औदारिकशरीरमें विशेष अधिक है । तैजसशरीरमें विशेष अधिक है । काम गशरीर में विशेष अधिक हैं । अयशकीति में संख्यातगणा हैं। देवगतिमें विशेष अधिक हैं। तिर्यंचगतिमें विशेष अधिक है। मनुष्य गति में विशेष अधिक है । हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमे संख्यातगुणा है । स्त्रीवेदमे संख्यातगुणा है। शोकमे विशेष अधिक है। B अ-का पत्योः ' असादयो', ताप्रतौ ' असादार' इति पाठः। अ-काप्रत्योर्नोग्लभ्यते पदमिदम् । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ) छक्खंडागमे संतकम्म संखे० गुणो । सोगे विसे० । अरदि० विसे० । णवंस० विसे । दुगुंछा० विसे० । भय० विसे० । पुरिस० विसे०। संजलणमाणे विसे । कोधे विसे०। मायाए विसे० । लोभे विसे० । दाणंतराइए विसे० । लाहंतराइए विसे० । भोगंतराइए विसे । परिभोगंतराइए विसे । विरयंतराइए विसे० । मणपज्जवणाणावरणे विसे० । ओहिणाणावरणे विसे० । सुदणा० विसे० । मदिणा० विसे० । ओहिदंसणावरणे विसे० । अचक्खुदंस० विसे० । चक्खुदंस० विसे० । असादे संखे० गुणो। उच्चागोदे विसे० । णीचागोदे विमेसाहिओ। एवं तिरिक्खगदीए उक्कस्सओ पदेससंकमदंडओ समत्तो। जहा तिरिवखगदीए तहा तिरिक्खजोणिणीसु । मणुस्सेसु मणुसिणीसु च मूलोघं । देवाणं देवीणं च णेरइयभंगो। असण्णीसु सम्मत्ते उक्कस्सपदेससंकमो थोवो । सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणो। अपचक्खाणमाणे असंखे० गुणो । कोधे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोधे विसे । मायाए विसे० । लोभे विसे० । अणंताणुबंधिमाणे विसे० । कोधे विसे० । मायाए विसें । लोभे विसे० । केवलणाणावरणे विसेसा० । पयलाए विसे० । णिद्दाए विसे० । पयलापयलाए विसे० । णिद्दाणिद्दाए अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। पुरुषवेदमें विशेष अधिक है। संज्वलन मान में विशेष अधिक है। क्रोध में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है । दानान्तरायमें विशेष अधिक है। लाभान्तरायमें विशेष अधिक है। भोगान्तराय में विशेष अधिक है। परिभोगान्तरायमें विशेष अधिक है। वीर्यान्त रायमें विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । उच्चगोत्रमें :विशेष अधिक है। नीचगोत्र में विशेष अधिक है। इस प्रकार तिर्यंचगतिमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। जैसे तिर्यंचगतिमें प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन किया गया है वैसे ही तिर्यंच योनिमतियोंमें भी समझना चाहिये। मनुष्यों और मनुष्यणियोंमें इस अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा मूलोधके समान है । देवों और देवियोंका यह प्ररूपणा नारकियोंके समान है। असंज्ञी जीवों में उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सम्यक्त्व प्रकृति में सबसे स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। क्रोध में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । लोभ में विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी मानमें विशेष अधिक है । क्रोध में विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेस संकमो ( ४४७ विसे० | थी गिद्धीए विसे० । केवलदंसणावरणे विसे० । गिरयगई० अनंतगुणो । आहारसरीरे असंखे० गुणो । जसकित्ति० असंखे० गुणो । वेडव्वियसरीरे संखे ० गुणो । ओरालिय० विसे० । तेजा विसे० । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति ० संखे० गुणो । देवदिणामा० विसे० । तिरिक्खगई० विसे० । मणुस्सगई० विसे० । हस्से ० संखे० गुणो । रदी० विसे० । सादे संखे० गुणो । इत्थवेदे संखे ० गुणो । सो विसे० । अरदि० विसे० णवुंसयवेदे विसे० । दुगंछा० विसे० । भय० विसे० । पुरिसवेदे० विसे० । संजलणमाणे विसे० । कोधे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । दाणंतराइए विसे० । लाहंतराइए विसे० । भोगंतराइए विसे० 1 परिभोतराइए विसे । विरियंतराइए विसे० । मणपज्जवणाणावर गे विसे० । ओहिणाणा ० विसे० ० । सुदणाणा० विसे० । मदिणा० विसे० । ओहिदंसणाव० विसे० । अचक्खुदंस० विसे० । चक्खुदंस० विसे० । असादे संखे० गुणो । उच्चागोदे विमे० । णीचागोदे विसे । एवं असण्णी उक्कस्सओ पदेससंकमदंडओ समत्तो । जहासणीसु तहा एइंदिय-विगलदिए । है | स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरण में विशेष अधिक है । नरकगति में अनन्तगुणा है | आहारशरीरमें असंख्यातगुणा है । यशकीर्ति में असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीर में विशेष अधिक है । तैजसशरीरमें विशेष अधिक है । कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है । अयशकीति में असंख्यातगुणा है । देवगति नामकर्म में विशेष अधिक है । तिर्यंचगति नामकर्म में विशेष अधिक है । मनुष्यगति नामकर्म में विशेष अधिक है । हास्य में संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है । सातावेदनीय में संख्यातगुणा है | स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है । शोकमें विशेष अधिक है। अरतिमें विशेष अधिक है । नपुंसक वेद में विशेष अधिक है । जुगुप्सामें विशेष अधिक है । भयमें विशेष अधिक है । पुरुषवेद में विशेष अधिक है । संज्वलन मानमें विशेष अधिक है । क्रोध में विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है । दानान्तराय में विशेष अधिक है । लाभान्तराय में विशेष अधिक है । भोगन्तराय में विशेष अधिक है । परिभोगन्तराय में विशेष अधिक है । वीर्यान्तराय में विशेष अधिक है । मन:पर्ययज्ञानावरण में विशेष अधिक 1 अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरण में विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरण में विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है । असातावेदनीय में संख्यातगुणा है । उच्चगोत्र में विशेष अधिक है । नीचगोत्र में विशेष अधिक है । इस प्रकार असंज्ञी जीवों में उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ । जैसे असंज्ञी जीवोंमें यह प्ररूपणा की गयी है वैसे ही एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों के विषय में भी जानना चाहिये । ★ अ-काप्रत्योः ' मणुस्सिणीसु ́, ताप्रती ' मणुसिणीसु ( असण्णीसु ) ' इति पाठ: । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ४४८ ) छक्खंडागमे संतकम्म एतो ओघजहण्णपदेससंकमदंडओ कायव्वो । तं जहा- सव्वत्थोवो सम्मत्ते जहण्णओ पदेससंकमो । सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणो । मिच्छत्ते असंखे० गुणो । अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणो। कोधे विसे । मायाए विसे० । लोभे विसे० । पयलापयला० असंखे० गुणो। णिद्दाणिद्दाए विसे० । थोणगिद्धीए विसे० । अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणो । कोधे विसे । मायाए विसे० । लोभे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे०। कोधे विसे । मायाए विसे०। लोभे विसे । केवलणाणावरणे विसे। कुदो विसेसाहियत्तं? विज्झादभागहारादो चरिमसमयसुहमसांपराइयअधापवत्तभागहारस्स विसेसहीणत्तादो । ण च अधापवत्तभागहारो अवढिदो, एदम्हादो चेव तदणवट्ठिदत्तावगमादो । ण च पुग्विल्लभागहारप्पाबहुएण सह विरोहो, सव्वजहण्णभागहारे पडुच्च तदुप्पत्तीदो। _पयलाए विसे० पयडिविसेसेण । णिद्दाए विसे० । केवलदंस० विसे० । णिरयगइणामाए अणंतगुणो । देवगइणामाए असंखे० गुणो । वेउब्वियसरीर० संखे० गुणो। आहारसरीर० असंखे० गुणो। मणुसगइ० संखे० गुणो। उच्चागोदे संखे० गुणो। तिरिक्खगइ असंखे० गुणो । कुदो? उज्वेल्लणभागहारादो तेवद्विसागरोवमसदण्णोण्ण अब यहां ओघ जघन्य प्रदेशसंक्रमदण्डक करते हैं । वह इस प्रकार है- जघन्य प्रदेशसंक्रम सम्यक्त्व प्रकृतिमें सबसे स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वभे असंख्यात गुणा है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मानम असंख्यातगुणा है । क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायाम विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरण में विशेष अधिक है । शंका- उसमें विशेष अधिक क्यों है ? समाधान- इसका कारण यह है कि विध्यातभागहारकी अपेक्षा अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकका अधःप्रवृत्तभागहार विशेष हीन है । और यह अधःप्रवृत्तभागहार कुछ अवस्थित नहीं है, क्योंकि, इसीसे उसको अनवस्थिता जानी जाती है । पूर्वोक्त भागहारके अल्पबहुत्वके साथ इसका विरोध होगा, यह भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि उसकी उत्पत्ति सबसे जघन्य भागहारके आश्रित है। केवलज्ञानावरणकी अपेक्षा वह प्रचलामें प्रकृतिविशेषसे विशेष अधिक है । निद्राम विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । नरकगति नामकर्ममें अनन्तगुणा है। देवगति नामकर्ममें असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है । मनुष्यगति नामकर्ममें संख्यातगुणा है । उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है । तिर्यंचगति नामकर्ममें असंख्यातगृणा है, क्योंकि, उद्वेलनभागहारकी अपेक्षा एक सौ तिरेसठ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४४९ भत्थरासिगुणिदविज्झादभागहारस्स असंखे० गुणहोणत्तादो। णवंसयवेद० असंखे० गुणो । णीचागोद० संखेज्जगुणो० । इथिवेद० असंखे० गुणो । ओरालिय० असंखे० गुणो। कोधसंजलण. असंखे० गुणो । माणसंजलण० विसे० । पुरिस० विसे० । मायासं० विसे । जसकित्ति० असंखे० गुणो । तेजइय० संखे० गुणो, धुवबंधित्तादो। कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति० संखे० गुणो । हस्मे संखे० गुणो । रदी० विसेसा० । सादे संखे० गूणो। सोगे संखे० गुणो। कुदो अधापवत्तभागहारादो विज्झादभागहारस्स संखेज्जगुणहोणत्तं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । अरदी०विसे० । दुगुंछा० विसे । भय० विसे० । लोहसंजल० विसे० । दाणंतराइय० विसे० । लाहंतरा० विसे० । भोगंतरा० विसे । परिभोगंतरा० विसे । विरियंतरा विसे० । मणपज्जव० विसे० । ओहिणा. विसे । सुदणाणावरणे० विसे० । आभिणिबोहियणाणाव० विसे० । ओहिदसणाव० विसे। अचक्खु. विसे० । चक्खु० विसे० । असादे संखेज्जगुणो। एवमोघेण जहण्णओ पदेससंकमदंडओ समत्तो। णिरयगईए सव्वत्थोवो सम्मत्ते जहण्णओ पदेससंकमो । सम्मामिच्छत्ते असंखे० सागरोपमोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे गुणित विध्यातभागहार असंख्यातगुणा हीन है। तिर्यचगति से नपुंसकवेदमें असंख्यातगुणा है। नीचगोत्रमें संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें असंख्यातगुणा है। औदारिकशरीरमें असंख्यातगुणा है। संज्वलन क्रोधमें असंख्यातगुणा है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है । पुरुषवेदमें विशेष अधिक है। संज्वलन माया में विशेष अधिक है। यशकीतिमें असंख्यात गुणा है । तैजसशरीरमें संख्यातगुणा है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीतिमें संख्यातगृणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । शोकमें संख्यातगुणा है। शंका- अधःप्रवृत्तभागहारकी अपेक्षा विध्यातभागहार संख्यातगुणा हीन है, यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान - वह इसी सूत्रसे जाना जाता है। उससे अरतिमें विशेष अधिक है । जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है । दानान्तरायमें विशेष अधिक है। लाभान्तरायमें विशेष अधिक है। भोगान्तरायमें विशेष अधिक है । परिभोगान्तरायमें विशेष अधिक है। वीर्यान्तरायमें विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है । अभिनिबोधिकज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। इस प्रकार ओघसे जघन्य प्रदेशसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। नरकगतिमें जघन्य प्रदेशसंक्रम सम्यक्त्व प्रकृतिमें सवसे स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है । मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ) छक्खंडागमे संतकम्म गुणो । मिच्छत्ते असंखे० गुणो* । अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणो । कोधे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । पयलापयला० असंखे० गुणो। णिहाणिद्दा० विसे०। थीणगिद्धीए विसे । अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणो। कोधे० विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे०। कोधे विसे०। मायाए विसे० । लोभ विसे० । केवलणाणावरणे विसे० । पयलापयलाए विसे० । णिहाए विसे० । केवलदसणावरणे विसे० । आहार• अणंतगुणो । देवगइ० असंखे० गुणो । मणुसगइ० संखे० गुणो । वेउन्विय० संखे० गुणो । णिरयगइ० संखे० गुणो। उच्चागोदे संखे० गुणो । तिरिक्खगइ० असंखे० गुणो । इत्थिवेद० संखेज्जगुणो । णीचागोदे संखे० गुणो । जसकित्ति० असंखे० गणो। ओरालिय० संखे० गुणो । तेजइय० विसे० । कम्मइय० विसे । अजसकित्ति० संखे० गुणो। पुरिसवेदे संखे० गुणो। हस्से संखे० गुणो। रदि० विसे० । सादे संखे० गुणो । सोगे संखे० गुणो। अरदि० विसे० । दुगुंछा० विसे । भय० विसे० । संजलणमाणे विमे० । कोधे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसेसाहिओ। दाणंतराए विसे । लाहंतराए विसे०। भोगंतराए विसे० । परिभोगंतराए विसे ।वीरियंतराए विसे०। मणपज्जवणाणावरण विसे० । ओहिणा० विसे० । सुदणा० विसे० । मदिणा० विसे०। ओहिदंस० विसे० । क्रोध में विशेष अधिक है । माया में विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है । स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मान में असंख्यातगुणा है। क्रोध में विशेष अधिक है । माया में विशेष अधिक है। लोभम विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायाम विशेष अधिक है। लोभ में विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरण में विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रा में विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरण में विशेष अधिक है । आहारशरीरमें अनन्तगुणा है । देवगतिमें असंख्यातगुणा है। मनुष्यगतिमें संख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है । नरकगतिमें संख्यातगुणा है । उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है। तिर्यंचगतिमें असंख्यातगुणा है । स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है । नीचगोत्रमें संख्यातगुणा है । यशकीतिमें असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीरमें संख्यातगुणा है । तैजसशरीरमें विशेष अधिक है । कार्मणशरीर में विशेष अधिक है । अयशकीतिमें संख्यातगुणा है । पुरुषवेदमें संख्यातगुणा है । हास्यमें संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। शोकमे संख्यातगुणा है । अरतिमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भय में विशेष आधक है। संज्वलन मातमं विशेष अधिक है। क्रोध में विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभ में विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। लाभान्तरायमें विशेष अधिक है । भोगान्तरायमें विशेष अधिक है । परिभोगान्तराय में विशेष अधिक है । वीर्यात्नरायमें विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक * अप्रतौ 'मिच्छत्तअणंत गुणो' इति गठः । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमाणुयोगद्दारे पदेस संकमो ( ४५१ अचक्खु ० विसे० । चक्खु विसे० | असादे संखे० गुणो । एवं णिरयगदीए संकमदंडओ समत्तो । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु जावुच्चागोदं ति मूलोघं । तदो उच्चागोदादो ओरालिय० असंखे० गुणो । तिरिक्खगइ० संखे गुणो । इत्थि० संखे० गुणो । णवंस० संखे० गुणो । णीचागोद० संखे० गुणो । जसकित्ति० असंखे० गुणो । तेजा० संखे० गुणो । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति संखे० गुणो । पुरिस० संखे० गुणो । हस्से संखे० गुणो । रदि विसे० | सादे संखे० गुणो । सोगे संखे० गुणो । अरदि० विसे० । दुगंछा विसे० । भय विसे० । एत्तो उवरि णेरइयभंगो जाव असादं ति । एवं गिदीए जहण्णसंकमदंडओ समत्तो । एवं तिरिक्खजोणिणीसु । मणुसगदीए मणुस्सेसु जाव आहारसरीरं ति मूलोघो । तदो तिरिक्खगदीए असंखे० गुणो । णवंस० असंखे० गुणो । णीचागोदे संखे० गुणो । इत्थवेदे असंखे० गुणो । मणुसगई. असंखे० गुणो । ओरालिय० असंखे० गुणो । कोधसंजलण० असंखे० गुणो । माणे विसे० । पुरिस० विसे० । माया० विसे० । उच्चागोद० असंखे० गुणो । जसकित्ति० असंखे० गुणो । सेसाणि । है । मतिज्ञानावरण में विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरण में विशेष अधिक है । अचक्षु - दर्शनावरण में विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है । असातावेदनीय में संख्यातगुणा है । इस प्रकार नरकगति में जघन्य प्रदेश संक्रमदण्डक समाप्त हुआ । तिर्यंचगति में तिर्यंचों में प्रकृत अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा उच्चगोत्र तक मूल- ओघके समान है । तत्पश्चात् उक्त जघन्य प्रदेश संक्रम उच्चगोत्रकी अपेक्षा औदारिकशरीरमें असंख्यागुणा है । तिर्यंचगति में संख्यातगुणा है । स्त्रीवेद में संख्यातगुणा है । नपुंसकवेदमें संख्यातगुणा है । नीच गोत्र में संख्यातगुणा है । यशकीर्ति में असंख्यातगुणा है । तैजसशरीरमें संख्यातगृणा है । कार्मणशरीर में विशेष अधिक है । अयशकीर्ति में संख्यातगुणा है । पुरुषवेद में संख्यातगुणा है । हास्य में संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । शोक में संख्यातगुणा है । अरतिमें विशेष अधिक है । जुगुप्सामें विशेष अधिक है । भयमें विशेष अधिक है । इसके आगे असातावेदनीय तक उक्त प्ररूपणा नारकियोंके समान है । इस प्रकार तिर्यंचगति में जघन्य प्रदेश संक्रमदण्डक समाप्त हुआ । इसी प्रकार तिर्यंच योनिमतियों में भी प्रकृत संक्रमदण्डककी प्ररूपणा है । मनुष्यगति में मनुष्यों में यह प्ररूपणा आहारकशरीर तक मूल-ओघके समान है । तत्पश्चात् वह जघन्य प्रदेश संक्रम आहारकशरीरकी अपेक्षा तिर्यंचगतिमें असंख्यातगुणा है । नपुंसक वेदमें गुणा है । नीचगोत्र में संख्यातगुणा है । स्त्रीवेदमें असंख्यातगुणा है । मनुष्यगति में गुणा है । औदारिकशरीरमें असंख्यातगुणा है । संज्वलन क्रोधमें असंख्यातगुणा विशेष अधिक है । पुरुषवेद में विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । उच्चगोत्रम असंख्यात - असंख्यात - है । मानम अप्रनो, ' कोधसंखे', काप्रती ' कोधमं० असंखे० ' इति पाठः । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२) छक्खंडागमे संतकम्म पदाणि ओघियाणि । एवं मणुसिणीसु। देवेसु जाव केवलदसणावरणं ति मूलोघो। तत्तो आहार० अणंतगुगो । णिरयगई० असंखे० गुणो । तिरिक्खगई० असंखे० गुणो। णवंस० असंखे० गुणो । णीचागोद० संखे० गुणो । इथि० असंखे० गुणो । देवगई० असंखे० गुणो । वेउवि० संखे० गुणो । मणुसगइ० असंखे० गुणो । ओरालि० असंखे० गुणो । उच्चागोदे असंखे० गुणो । जसकित्ति० असंखे० गुणो । तेजइय० संखेज्जगुणो । एत्तो उवरि रइयभंगो। एवं देवेसु जहण्णसंकमदंडओ समत्तो। असणीसु सव्वत्थोवो सम्मत्ते जहण्णसंकमो। सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणो। मिच्छत्ते असंखे० गुणो । अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणो। कोधे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणो० । कोधे विसे० । माया० विसे० । लोभे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोधे विसे । माया० विसे० । लोभे विसे० । केवलणाणावरणे विसे० । पयलाए विसे० । णिद्दाए विसे० । पयलापयलाए विसे० । गिद्दाणिद्दाए विसे० । थोणगिद्धीए विसे० । केवलदंस० विसे० । णिरयगई० अणंतगुणो । देवगई० असंखे० गुणो । वेउवि० संखे० गुणो। आहार० असंखे० गुणो । मणुसगइ० संखे० गुणो । असंख्यातगुणा है। यशकीर्तिमें असंख्यातगुणा है। शेष पद ओघके समान हैं। इसी प्रकार मनुष्यनियोंमें भी प्रकृत प्ररूपणा करना चाहिये । देवोंमें केवलदर्शनावरण तक मूल-ओघके समान प्ररूपणा है। उससे उक्त जघन्य प्रदेशसंक्रम आहारशरीरमें अनन्तगुणा है । नरकगतिमें असंख्यातगुणा है। तियेचगतिमें असंख्यातगुणा है। नपुंसकवेदमें असंख्यातगुणा है। नीचगोत्रमें संख्यातगणा है। स्त्रीवेदमें असंख्यातगुणा है । देवगतिमें असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है । मनुष्यगतिमें असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीरमें असंख्यातगुणा है । उच्चगोत्रम असंख्यातगुणा है। यशकीर्तिमें असंख्यातगुणा है । तैजसशरीरमें संख्यातगुणा है । इसके आगे यह प्ररूपणा नारकियोंके समान है। इस प्रकार देवोंमें जघन्य प्रदेशसंक्रामदण्डक समाप्त हुआ। असंज्ञी जीवोंमें जघन्य प्रदेशसंक्रम सम्यक्त्व प्रकृति में सबसे स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है । अनन्तानुवन्धी मानमें असंख्यातगुणा है । क्रोध में विशेष अधिक है। माया में विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यागुणा है। क्रोध में विशेष अधिक है । माया में विशेष अधिक है। लोभ में विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावराण मानमें विशेष अधिक है। क्रोध विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरण में विशष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रानिद्रा में विशेष अधिक है । स्त्यानगृद्धिमें विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरण में विशेष अधिक है । नरकगतिमें अनन्तगुणा है । देवगतिमें असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है । आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है । मनुष्यगतिमें संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४५३ उच्चागोदे संखे० गुणो। जस कित्ति. असंखे० गुणो । ओरालिय० संखे० गुणो। तेजा० विसे०। कम्पइय० विसे०। तिरिक्खगदोए संखे० गुगो । अजसकित्ति० विसे० । पुरिसवेदे संखे० गुणो । इथिवेदे संखे० गुणो । हस्से संखे० गुणो । रदी० विसे० । सादे० संखे० गुणो । सोगे संखे० गुणो । अरदी० विसे०। णवूस० विसे० । दुगुंछ विसे । भय० विसे०। संजलणमाणे विसे० । कोधे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । दाणंतराइए विसे० । लाहंतराइए विसे । भोगंतरा० विसे० । परिभोगंतरा० विसे० । वीरियंतरा० विसे । मणपज्जव० विसे० । ओहिणाणावरण० विसे० । सुदणा० विसे० । मदिणाणाव. विसे०। ओहिदसणाव. विसे० । अचक्खु विसे० । चक्खु० विसे० । असादे असंखे० गुणो । णीचागोदे विसेसाहिओ। एवमसण्णीसु जहण्णओ पदेससंकमदंडओ समत्तो। जहा असण्णीसु तहा एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिएसु वि वत्तव्वं । एत्तो भुजगारसंकमो उच्चदे- भुजगारे अट्रपदं कादूण सामित्तं कायव्वं । तं जहा-- मदिआवरणस्स भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदसंकामगो को होदि ? अण्णदरो । अवत्तव्व० को होइ? अण्णदरो उवसंतकसाओ परिवदमाणओ। चदुणाणावरणीय यशकीतिमें असंख्यात गुणा है । औदारिकशरीर में संख्यातगुणा है । तैजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। तिर्यंचगतिमें संख्यातगुणा है । अयशकीर्तिमें विशेष अधिक है । पुरुषवेदमें संख्यातगणा है । स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । शोकमें संख्यातगुणा है । अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमे विशेष अधिक है । संज्वलन मान में विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। लाभान्तराय में विशेष अधिक है। भोगान्तरायमें विशेष अधिक है। परिभोगान्तरायमें विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायमें विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरण में विशेष है । अवधिज्ञानावरणम विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरण में विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । असातावेदनीयमें असंख्यातगुणा है । नीचगोत्रमें विशेष अधिक है । इस प्रकार असंज्ञी जीवोंमें जघन्य प्रदेशसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। जिस प्रकार असंज्ञियोंमें यह प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार एकेन्द्रियों, द्वीन्द्रियों, त्रीन्द्रियों और चतरिन्द्रियोंमें भी उसे करना चाहिये। अब यहां भुजाकारसंक्रमका कथन करते हैं-- भुजाकारके विषयमें अर्थपद करके स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है । यथा-- मतिज्ञानावरणका भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामक कौन होता है ? उसका संक्रामक अन्यतर जीव होता है । अवक्तव्य संक्रामक कौन होता है ? उसका संक्रामक परिपतमान अर्थात् उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला अन्यतर उपशान्तकषाय Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ) छक्खंडागमे संतकम्मं णवदंसणावरणीय मिच्छत्त- सोलसकसाय-भय-दुगुंछा - पुरिसवेद-पंचं तराइयाणं सम्माइट्ठी वा मिच्छाइट्ठीसु वा धुवबंधिणामपयडीणं च मदिआवरणभंगो । सादासादसम्मत्त सम्मामि० हस्स - रदि अरदि-सोग - इत्थि - णवुंसयवेद - उच्च णीचागोद परियत्तमाणामपडी पि एवं चेव । णवरि अवद्विदसंकमो णत्थि । एवं सामित्तं समत्तं । जीवेण कालो । तं जहा - मदिआवरणस्स भुज० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अप्पदरकालो जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अवट्ठियस्स जह० एगसमओ, उक्क संखेज्जा समया । एवं चउणाणावरण-णवदंसणावरण-पंचंतराइयाणं । सादस्स भुजगारसंकामओ केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० आवलिया समयूणा । अप्पदरसंकामओ केव० ? जह० एगसमओ, उक्क ० अंतमुत्तं । (असादस्स भुजगार - अप्पदरसंक० केव० ? जह० एस ०, उक्क अंतोमुहुत्तं । ० मिच्छत्तस्स भुज० जह० एस० । उक्क ० अंतमुत्तं ) आवलिया समऊणा 1 होता है । शेष चार ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद और पांच अन्तराय इनकी सम्यग्दृष्टियों एवं मिथ्यादृष्टियों में तथा ध्रुवबन्धी नामप्रकृतियोंकी भी यह प्ररूपणा मतिज्ञानावरण के समान है । साता व असाता वेदनीय, सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, उच्चगोत्र, नीचगोत्र और परिवर्तमान नामप्रकृतिमोंकी भी प्रकृत प्ररूपणा इसी प्रकार ही है। विशेषता इतनी है कि इनका अवस्थित संक्रम नहीं है । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ । एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा करते हैं । यथा -- मतिज्ञानावरणके भुजाकार संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है । इसके अल्पतर संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है । अवस्थित संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र है । इसी प्रकार शेष चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियों के सम्बन्धम कहना चाहिये । सातावेदनीयके भुजाकार संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से एक समय कम आवली प्रमाण है । उसके अल्पतर संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त मात्र है । असातावेदनीयके भुजाकार और अल्पतर संक्रामकोंका काल कितना है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अत्तर्मुहूर्त मात्र है । मिथ्यात्व के भुजाकर संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त * मिच्छत्तस्स भुजगार अप्पदर अवट्ठिद अवत्तव्वसकामया अस्थि । एव सोलसकपाय- पुरिसवेद-भयदुगंछाणं । एवं चेव सम्मत्त सम्मामिच्छत इत्थि - णवुंसयवेद हस्स र ह अरइ सोगाणं । णवरि अवद्विदसंकामगा णत्थि । क. पा. सु पृ. ४२३, २६४-६७. कोष्ठकस्थोऽयं पाठ अ-का-ताप्रतिष्वनुपलभ्यमानो मप्रतितोऽत्र योजितः । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४५५ अप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवटिद० जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया* । सम्मत्तस्स भुजगार० जहण्णेण एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । अप्पदर० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अवट्टिदसंकमो णत्थिई । सम्मामिच्छत्तस्स भजगार० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । अप्पदर० जह० अंतोमु०, उक्क० बे-छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि*। ___ अणंताणुबंधीणं भुजगारकालो जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अप्पदर०जह० एगसमओ, उवक० बे-छावढिसागरो०सादिरेयाणि । अवट्ठिद जह०एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । बारसकसाय-भय-दुगुंछाणं मदिआवरणभंगो । अथवा एक समय कम आवली मात्र है। अल्पतर संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक छयासठ सागरोपम मात्र है। अवस्थित संक्रामकका काल जधन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र है । सम्यक्त्व प्रकृतिके भुजाकार संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। अल्पतर संक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। उसका अवस्थित संक्रम नहीं होता । सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। अल्पतर संक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। ___ अनन्तानुबन्धिचतुष्टयके भुजाकार संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। अल्पतर संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। अवस्थित संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र है। बारह कषाय, भय और जुगप्साकी प्ररूपणा * मिच्छत्तस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालाटो होदि ? जहण्णेण एयसमओ उक्कस्सेण आवलिया समयूणा, अधवा अंतोमुहुत्तं । अप्पयरसंकमो केवचिर कालादो होदि ? एक्को वा समयो जाव आवलिया दुसमयूणा, अधवा अंतोमहुत्तं । तदो समयुत्तरो जाव छावद्धिसागरोवमाणि सादिरेयागि । अवट्रिदसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण संखेज्जा समया। अवत्तव्यसंकमो केवचिर कालादो होदि? जहण्णक्कस्सेण एयसमओ। क. पा. सु पृ. ४२७, २९९-३११ B सम्मत्तस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहणेग एयपमओ । उकस्सेण अंतोमहत्तं । अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णे ग अंतोमहतं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। अवत्तब्धसंकमो केत्रचिरं कालादो होदि ? जहण्णुककस्सेण एयसमयो । क. पा सु पृ ४२९, ३१२-१७. सम्मामिच्छत्तस्स भजगारसंकमो केवचिरं कालादो होदि? एकको वा दो वा समया । एवं समयत्तरी उक्कस्सेण जाव चरिमुवेलणकंडयुक्कीरणा त्ति । अधवा सम्मत्तमप्पादेमागयस्स वा तदो खवेमाणयस्स वा जो गणसंकमकालो सो वि भुजगारसंकपायस्स कापब्वो। अपदरसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण अंतोमहत्तं । एयसमओ वा। उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवत्तवसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ। क. पा. सु. पृ. ४२९, ३२१-२८. 0 अणंताणुबंधीणं भुजगारसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एयसमओ। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ) छक्खंडागमे संतकम्म हस्स-रदि-अरदि-सोग-इत्थि - णवंसयवेदाणं भुजगार-अप्पदरसंकमणकालो जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अवट्टिय० णत्थि । णवरि इत्थिवेद० अप्पदर० उक्क० बे-छावद्विसागरो० सादिरेयाणि । णवंस० अप्पदर० सतिपलिदोवमाणि बे- छावट्ठिसागरोवमाणि । पुरिसवेदस्स मदिआवरणभंगो। णिरयगइणामाए भुजगार० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । अप्पदर० जह० अंतोमुत्तं' उक्क० बे-छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवट्ठिदसंकमो णत्थिा तिरिक्खगइणामाए भुजगारसंकमो हेदुणा उवएसेण च जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । अप्पदर० तिरिक्खगइणामाए जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेवढिसागरोवमसदं सादिरेयं । अवट्टिय० णत्थि। मतिज्ञानावरणके समान है। हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद; इनके भुजाकार व अल्पतर संक्रामकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है । इनका अवस्थित संक्रम नहीं होता । विशेष इतना है कि स्त्रीवेदके अल्पतर संक्रामकका काल उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है, तथा नपुंसकवेदके अल्पतर संक्रामका उत्कृष्ट काल तीन पल्योपमोंसे सहित दो छयासठ सागरोपम मात्र है । पुरुषवेदकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। नरकगति नामकर्मके भुजाकार संक्रामकका काल जघन्य और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। अल्पतर संक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। अवस्थित संक्रम उसका नहीं होता । तिर्यंचगति नामकर्मके भुजाकार संक्रामका जघन्य व उत्कृष्ट काल हेतु और उपदेशसे अन्तर्महर्त मात्र है। तिर्यंचगति नामकर्मके अल्पतर संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे साधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम मात्र है । अबस्थित संक्रम उसका नहीं होता । मनुष्यगति नामकर्मके भुजाकार संक्रमका काल असंखेज्जदिभागो । अप्पदरसंकमा केवचिरं कालादो होदि? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण बेछाव'ट्रसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवट्रिदसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ। उक्कस्सेण संखेज्जा समया। अवत्तव्वसंकामगो केवचिर कालादो होदि? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ क.पा. सु.प. ४३०, ३२९-३९. ताप्रतौ वारसकसाय-दुगुंछाणं इति पाठः । ४ वारसकसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुंछाणं भुजगार-अप्पदरसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेणेयसमओ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। अव दिदसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ। उक्कस्सेग संखेन्जा समया। अवत्त व्वसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णक्कस्सेण एयसमओ। क. पा. सु. पू. ४३१, ३४०-४७. * हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं, भुजगार-अयरसंकमो केचिरं कालादो होदि ? जहणेण एयसमओ। उक्स्से ण अंतीमुहुत्तं । क. पा. सु पृ. ४३२, ३६०-६२. 8 अप्पयरसंकमो केवचिरं कालाहो होदि ? जहणेण एगसमओ। उक्स्सेग वे छावट्रिसागरोवमाणि संखेज्जवस्सब्महियाणि । क. पा. सु. पू. ४३१, ३५१-५३. णवंसयवेदस्स अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एयसमओ । उकस्सेण बे छावट्ठिसागरोवमाणि तिणि पलिदोवमागि सादिरेगा। सेसाणि इत्यिवेदमंगो क पा.सू.प ४३२,३५६-५९. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४५७ मणुसगइणामाए भुजगार० जह० एगसमओ। उक्क० पलिदो० असंखे० भागो, हेदुणा तेत्तीससागरोवमाणि समयूणाणि । अप्पदर० जह० एगसमओ। उक्क० पलिदो० असंखे० भागो, हेदुणा तिणि पलिदो० सादिरेयाणि । अवट्ठिद० जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया। देवगइणामाए भुजगार० जह० एगसमओ । उक्क० पलिदो० असंखे० भागो, हेदुणा तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । अप्पदर० जह० एगसमओ । उक्क० पलिदो० असंखे० भागो, हेदुणा तेत्तीसं सागरोवमाणि सादि० । अवट्ठिय० जहण्णण एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया। ओरालियसरीर० भुजगार० जह० एगसमओ । उक्क० पलिदो० असंखे० भागो, हेदुणा तेत्तीसं सागरोवमाणि समयणाणि । अप्पदर० जह० एगस० । उक्क० पलिदो० असं० भागो, हेदुणा तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि। अवडिय० जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । वेउब्वियसरीरस्स देवगइभंगो।। धुवबंधीणं सवणामपयडीणं मदिणाणावरणभंगो। समचउरससंठाणस्स भुजगारअप्पदरकालो जह० एगसमओ । उक्क० उवदेसेण पलिदो० असंखे० भागो, हेदुणा भुजगारकालो अप्पदरकालो च तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । अवढिद० जह० एगसमओ, उक्क संखेज्जा समया । वज्जरिसहणारायणसंघडणस्स मणुसगइभंगो । जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है, युक्तिसे वह एक समय कम तेतीस सागरोपम मात्र है। उसके अल्पतर संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय मात्र है। उत्कर्षसे वह पल्योपमके असंख्यातवें भाग तथा हेतुसे साधिक तीन पल्य प्रमाण है । अवस्थित संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र है । देवगति नामकर्मके भुजाकार संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय मात्र है। उत्कर्षसे वह पल्योपमके असंख्यात भाग तथा हेतुसे साधिक तीन पल्योपम प्रमाण है । अल्पतर संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय मात्र है । उत्कर्षसे वह पल्योपमके असंख्यातवें भाग तथा हेतुसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है । अवस्थित संक्रामकका काल जवन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र है। औदारिकशरीरके भुजाकार संकामका काल जघन्यसे एक समय मात्र है। उत्कर्षसे वह पल्योपमके असंख्यातवें भाग तथा हेतुसे एक समय कम तेतीस सागरोपम मात्र है । अल्पतर संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय मात्र है । उत्कर्षसे वह पल्पोपमके भाग असंख्यातवें तथा हेतुसे साधिक तीन पल्योपम मात्र है । अवस्थित संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र है । वैक्रियिकशरीरकी प्ररूपणा देवगतिके समानन है । सब ध्रुवबन्धी नामप्रकृतियोंकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरण के समान है । समचतुरस्रसंस्थानके भुजाकार और अल्पतर संक्रामक का काल जघन्यसे एक समय मात्र है। उत्कर्षतः वह उपदेशसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग तथा हेतुसे भुजाकार संक्रामक व अल्पतर संक्रामक दोनों ही काल साधिक तेतीस सागरोपम मात्र हैं । अवस्थित संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय है । वज्रर्षभवज्रनाराच संहननको प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं चदुण्णमाणुपुव्वीणं सग-सगगइभंगो । पंचसंठाण--पंच संघडण - आदावुज्जोवअप्पसत्यविहायगइ - थावर - सुहुम- अपज्जत्त-साहारणसरीर-थिराथिर - सुहासुह-अजसकित्ति - भग- दुस्सर - अणादेज्जाणं भुजगार० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अप्पदर० जह० एगसमओ । उक्क० थिराथिर सुहासुह-अजसकित्ति० अंतोमुहुत्तं, उज्जोवस्स तिपल्लाहियं तेवट्टिसागरोवमसदं, आदाव-यावर - सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं पंचासीदिसागरोवमसदं, पंचसंठाण-पंच संघडण - अप्पसत्य विहायगइ-दूभग-दुस्सरअणादेज्जाणं तिपलिदोवमाहिय-बे-छावट्टिसागरोवमाणि । अवट्ठिय० णत्थि । परघाद- उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस - बादर-पज्जत्त- पत्तेयसरीर-सुभग-आदेज्जजसकित्ति - सुस्सराणं समचउरससंठाणभंगो । उच्चागोदस्स भुजगारसंकमो जह० एगसमओ, उक्क० आवलिया । अप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । उच्चागोदस्स उब्वेल्लणाए * अपच्छिमे द्विदिखंडए - भुजगारो अंतोमुहुत्तं । अवट्टिय० णत्थि । णीचागोदस्स भुजगार० खवण-उवसामणाहि विणा आवलिया, खवण-उवसामणाहि अंतोमुहुत्तं । अप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० बे-छावट्टिसागरो० सादिरेयाणि । अवट्ठिय० णत्थि । एवमेयजीवेण कालो समत्तो । 1 चार आनुपूर्वी प्रकृतियोंकी यह प्ररूपणा अपनी अपनी गतिके समान है । शेष पांच संस्थान, पांच संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयशकीर्ति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय; इनके भुजाकार संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उनके अल्पतर संक्रामकका काल जवन्यसे एक समय है । उत्कर्ष से वह स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशकीर्तिका अन्तर्मुहूर्त ; उद्योतका तीन पल्योंसे अधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम; आतप स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीरका एक सौ पचासी सागरोपम; तथा पांच संस्थान' पांच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयका तीन पल्योपमोंसे अधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है । उनका अवस्थित संक्रम नहीं होता । परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, आदेय - यशकीर्ति और सुस्वरकी प्ररूपणा समचतुरस्र संस्थानके सगान है । उच्चगोत्रके भुजाकार संक्रामका काल जघन्यसे एक समय और उत्कषसे आवली मात्र है । उसके अल्पतरसंक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है । उच्चगोत्रकी उद्वेलना अन्तिम स्थितिकाण्डक में भुजाकार संक्रमका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । इसका अवस्थित संक्रम नहीं है । नीचगोत्र के भुजाकार संक्रमका काल क्षपणा व उपशामना के विना एक आवली तथा क्षपणा व उपशामनाके साथ अन्तर्मुहूर्त मात्र है । अल्पतर संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से साधिक छ्यासठ सागरोपम मात्र है । अवस्थित संक्रम नहीं है । इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा समाप्त हुई । अप्रतौ ' उच्चा गोद उब्वेल्लणाए इति पाठः । 7 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४५९ एगजीवेण अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं च सामित्तादो एयजीवेण कालादो च साधेदूण भाणियत्वं । अप्पाबहुअं। तं जहा- मदिआवरणस्स अवत्तव्वसंकामया थोवा। अवट्ठिय० अणंतगुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा। भुजगार० संखे० गुणा। सेसचदुणाणावरणणवदसणावरण-पंचंतराइयाणं मदिआवरणभंगो। सादासादाणं अवत्तव्व० थोवा । भुजगार० असंखे० गुणा । अप्पदर० संखे० गुणा, एगावलियसंचिदभुजगारसंकामयजीवेहितो अंतोमुत्तसंचिदअप्पदरसंकामयजीवाणं संखेज्जगुणत्तसिद्धीए णिब्बाहमुवलंभादो। सोलसकसाय-भय-दुगुंछाणं मदिआवरणभंगो। हस्स-रदीणमवत्त० थोवा । भुज० अणंतगुणा। अप्पदर० संखे० गुणा । एवमित्थिवेदस्स । अरदि-सोगाणमवत्त० थोवा। अप्पदर० अणंतगुणा । भुजगार० संखे० गुणा। एवं णवंसयवेदस्स। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर एवं नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तरका कथन स्वामित्वसे तथा एक जीवको अपेक्षा कालसे भी सिद्ध करके कहना चाहिये । अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- मतिज्ञानावरणके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं। अवस्थित संक्रामक अनन्तगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकार संक्रामक संख्यातगुणे हैं। शेष चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियों का यह अल्पबहुत्व मतिज्ञानावरणके समान है। __ साता और असाता वेदनीयके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं। भुजाकार संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक संख्यातगुण हैं, क्योंकि, एक आवलिमें संचित भुजाकार संक्रामक जीवोंकी अपेक्षा अन्तर्मुहुर्त संचित अल्पतर संक्रामक जीवोंके संख्यातगुणत्वकी सिद्धिनिर्बाध पायी जाती है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । हास्य और रतिके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक है। भुजाकार संक्रामक अनन्तगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार स्त्रीवेदके सम्बन्धमें कहना चाहिये । अरति और शोकके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं। अल्पतर संक्रामक अनन्तगुणे हैं। भुजाकार संक्रामक संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार नपुंसकवेदके सम्बन्धमें कहना चाहिये । पुरुषवेदके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं । ४ प्रतिष ‘राकामिय' इति पाठः । 4 सोलसकसाय-भय-दुगंछाणं सव्वत्थोवा अवतन्त्र संकामया। अवट्टिदसंकामया अणंतगुणा । अप्पयर संकामया असंखेज्जगुणा। भजगारसंकामया संखेज्जगुणा। क. पा. सु. पृ. ४४३, ५०४-७. * इत्थिवेद-हस्स-रदीणं सम्वत्थोवा अवत्तव्वसंकामया। भुजगारसंकामया अणंतगुणा । अप्पयरसंकामया संखेज्जगणा । क. पा. सु.पृ. ४४३, ५०८-१०. णवंसयवेद-अरइ-सोगाणं सव्वत्थोवा अवतव्वसंकामया। अप्पदरसंकामया अणंतगणा । भुजगार संकामया संखेज्जगुणा। क. पा. सु. पु. ४४४, ५१५-१७. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० } छक्खंडागमे संतकम्मं पुरिसवेदस्स अवत्तत्व० थोवा । अवट्टिय० असंखे० गुणा । भुजगार० अनंतगुणा । अप्पदर० संखे० गुणा । मिच्छत्तस्स अत्रद्विदसंकामया थोवा । अवत्तव्व असंखे० गुणा । भुजगार० असंखे० गुणा । अप्पदर असंखे० गुणा । सम्मत्तस्त अवत्तव्व. थोवा । भुजगार० असंखे० गुणा । अप्पदर असंवे० गुणा । सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्तभंगो* । 3 णिरयगइ० अवत्तव्वया थोवा । भुजगार० असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । तिरिक्खगणामाए अवत्त० थोवा । अप्पदर अनंतगुगा । भुजगार० संखे गुणा | मणुसगइणामाए अवट्ठिद० थोवा । अवत्तव्व असंखे० गुणा । भुजगार० अणंतगुणा । अप्पदर० संखे० गुणा । देवगइणामाए अवद्विद० थोवा । अवत्तव्व० असंखे ० गुणा । भुजगार असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । ओरालिय- तेजा - कम्मइयसरीराणं मदिआवरणभंगो। सव्वासि धुवबंधिणामपयडीर्ण णाणावरणभंगो। पढमसंठाण- पढमसंघडणाणं मणुसगइभंगो। चदुसंठाण-चदुसंघडणाणं अवत्तव्व. थोवा । भुजगार अनंतगुणा । अव्यदर० संखे० गुणा । हुंडठाण असंपत्त 3 अवस्थित संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । भुजाकार संक्रामक अनन्तगुगे हैं । अल्पतर संक्रामक संख्यातगुणे हैं । मिथ्यात्व के अवस्थित संक्रामक स्तोक हैं। अवक्तव्य संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । भुजाकार संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व प्रकृति के अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं । भुजाकार संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अनतर संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्वकी प्ररूपणा सम्यक्त्व प्रकृतिके समान है । नरकगति नामकर्मके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं । भुजाकार संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतर संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । तिर्यंचगति नामकर्मके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं । अल्पतर संक्रामक अनन्तगुणे हैं । भुजाकार संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति नामकर्मके अवस्थित संक्रामक स्तोक हैं । अवक्तव्य संक्रामक असंख्यातगुगे हैं । भुजाकार संक्रामक अनन्तगुणे हैं । अल्पतर संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । देवगति नामकर्मके अवस्थित संक्रामक स्तोक हैं । अवक्तव्य संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । भुजाकार संक्रानक असंख्यात हैं । अलवर संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । औदारिक, तेजस और कार्मण शरीरोंके प्रकृत अल्पबहुत्व की प्ररूपणा मतिज्ञानावरण के समान है । सब ध्रुवबन्धी नामप्रकृतियोंकी यह प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान | प्रथम संस्थान और प्रथम संहननकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है । चार संस्थानों और चार संहननों के अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं । भुजाकार संक्रामक अनन्तगुणे हैं । अल्पतर संक्राकम संख्यातगुणे भुजगारसं कामया अवदसं कामया असंखेज्जगुगा । क. पा. सु पृ. ४४३, ५११-१४. D पुरिसवेदस्स सव्वृत्योवा अवत्तव्वसंकामया । अनंतगुणा । अप्पयरसंकामया संखेज्जगुणा । * सव्वत्थावा मिच्छत्तस्स अवट्ठिदसंकामया । अवत्तण्व संकामया असं बेज्जगुगा । भजगारसकामया असंखेज्जगणा । अप्पयरसंकामया असंखेज्जगुणा । क. पा. सु. पू. ४४२, ४५७-५००. सम्मत्त सम्मामिच्छतागं सव्वत्थोवा अवत्तव्वसंकामया । भुजगारसंकामया असंखेज्जगुणा । अप्पयरसंकामया असंखेज्जगुणा । क. पा. सु. पू. ४४३, ५०१-५०३. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४६१ सेवट्टसंघडणाणं अवत्तव्व० थोवा । अप्पदर० अणंतगणा । भुजागार० संखे० गुणा । णीचुच्चागोदाणं सादासादभंगो । एवं भुजगारसंकमो । समत्तो।। एत्तो पदणिक्खेवो । सामितं । जहा-- मदिआवरणस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो गुणिदकम्मसियो तप्पाओग्गउक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढिदो तदो तं वढि वढिदूण आवलियादिक्कतं पुव्वकम्मं च संकात्तस्स सत्तमाए पुढवीए णेरइयस्स उक्क० वड्ढी । उक्क हाणी कस्त ? जो गुणिदकम्मंसियस्स सव्वुक्कस्सेण कम्मेण खवयस्त चरिमसमय पुहुमसांपरइयस्स तस्स उक्कस्सिया हाणी। उक्कस्समवट्ठाणं कत्य ? वड्ढीए। चदुणागाव ण-चदुदंसणावरण-पंचंतराइयाणं मदिणाणावरणभंगो। णिद्दा-पयलाणं उक्क० वड्ढी कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स चरिमसुहमसांपराइयस्स खबगस्स । उक्क० हाणी कस्स? जो गुणिदकम्मसियो पढमदाए उवसमसेढिं चढिय चरिमसमयसुहमसांपराइयो होदूण मदो, तस्स पढमसमयदेवस्स उक्क० हाणी। उक्कस्समवढाणं मदिआवरणअवटाणतुल्लं । थीणगिद्धितियस्स उक्क० वड्ढी कस्स? गुणिदकम्मसियस्स सव्वसंकमेण संकातस्स । उक्क० हाणी अवट्ठाणं च जहा णिद्दाए हैं । हुण्ड संस्थान और असंप्राप्तामृपाटिकासंहननके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं। अल्पतर संक्रामक अनन्तगुण हैं। भुजाकार संक्रामक संख्यातगणे हैं। नीच और उच्च गोत्रकी प्ररूपणा साता असाता वेदनीयके समान है। इस प्रकार भुजाकार संक्रम समाप्त हुआ। यहां पदनिक्षेपमें स्वामित्वको प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? जो गुणितकौशिक जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट वृद्धि के द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ है, पश्चात् उस वृद्धिसे वृद्धिंगत होकर आवली अतिक्रान्त उसका तथा पूर्व कर्मका भी संक्रम कर रहा है उस सातवों पृथिवीके नारकीके मतिज्ञानावरणकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसको उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकौशिक सर्वोत्कृष्ट कर्मके साथ क्षपणा करता हुआ सूक्ष्मसाम्रायिकके अन्तिम समयमें वर्तमान है उसके मतिज्ञानावरणको उत्कृष्ट हानि होती है। उसका उत्कृष्ट अवस्थान कहांपर होता है ? उसका उत्कृष्ट अवस्थान वृद्धि में होता है। शेष चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। निद्रा और प्रचलाकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? वह गुणितकर्माशिक अन्तिमसमयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिक क्षपक के होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकौशिक जीव प्रथमतः उपशमश्रेणिपर आरूढ होता हुआ अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिक होकर मरणको प्राप्त हुआ है उसके प्रथम समयवर्ती देव होनेपर उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। उनके उत्कृष्ट अवस्थानकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके अवस्थानके समान है । स्त्यानगृद्धिकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? वह सर्वसंक्रम द्वारा संक्रान्त करनेवाले गुणितकर्माशिकके होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थानकी प्ररूपणा निद्राके समान ४ अप्रतौ ' तं वड्डिदूण' इति पाठः । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२) छक्खंडागमे संतकम्म तहा वत्तव्वं । सादस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो कसाए तिखुत्तमुवसामेदूण चउत्थवारमुवसातो चरिमसमयसुहुमसांपराइयो जादो, तदो मदो देवो जादो, तस्स आवलियतब्भवत्थस्स देवस्स उक्क० वड्ढो। एदिस्सेव से काले उक्क० हाणी। अवट्ठाणं णत्थि । असादस्स उक्क० वड्ढी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो खवगसेडिमारुहिय चरिमसमयसुहमसांपराइयो जादो तस्स उक्क० वड्ढी। उक्क० हाणी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो उवसमसेडिमारुहिय सुहुमसांपराइयो जादो से काले मदो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्क० हाणी। अवट्ठाणं णत्थि । मिच्छत्तस्स उक्क० वड्ढी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो मिच्छत्तस्स चरिमफालि सव्वसंकमेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु संकातओ तस्स उक्क० वड्ढी । उक्क० हाणी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो गहिदपढमसम्मत्तो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उक्कस्सगुणसंकमेण पूयि से काले विज्झादसंकमं गदो तस्स उक्क० हाणी। उक्कस्समवढाणं कस्स? जो पुव्वाइदेण सम्मत्तेण गुणिदकम्मंसियो उक्कस्साए जोगवड्ढीए वड्ढिदूण से काले जो समयपबद्धो तदो विसेसुत्तरे जोगट्टाणे पडिवदिदो, तदो से काले सम्मत्तं करना चाहिये। सातावेदनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकौशिक कषायोंको तीन वार उपशमा कर चौथे वार उपशमाता हुआ अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसापराधिक होकर मरणको प्राप्त हो देव हुआ है, उस आवली कालवर्ती तद्भवस्थ देवके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । इसीके अनन्तर कालमें उनकी उत्कृष्ट हानि होती है । अवस्थान नहीं होता। असातावेदनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकौशिक क्षपकश्रणिपर आरूढ होकर अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिक हुआ है उसके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकौशिक उपशमश्रणिपर आरूढ होकर सूक्ष्मसांपरायिक होता हुआ अनन्तर समयमें मृत्युको प्राप्त हुआ है उसके प्रथम समयवर्ती देव होनेपर असातावेदनीयकी उत्कृष्ट हानि होती है । अवस्थान उसका नहीं होता। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको सर्वसंक्रम द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्यिथ्यात्वमें संक्रान्त रहा है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण कर सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वको गुणसंक्रमके द्वारा पूर्ण करके अनन्तर काल में विध्यातसंक्रमको प्राप्त हुआ है उसके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । उसका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक पूर्व आगत सम्यक्त्वके साथ उत्कृष्ट योगवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होकर अनन्तर कालमें जो समयप्रबद्ध है उससे विशेषाधिक थोगस्थानमें गिरता है, पशचत् जो अनन्तर कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है, 8 अ-काप्रत्योः 'उक्कस्सए' इति पाठः । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४६३ पडिवण्णो, तस्स जाधे उक्कस्सिया वड्ढी आवलियमइक्कंता ताघे उक्कस्सिया मिच्छत्तस्स पदेससंकमवड्ढी। तिस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । सम्मत्तस्स उक्क० वड्ढी कस्स ? जो उक्क० कम्मेण मिच्छत्तं गदो, तदो सव्वरहस्सेण उव्वेलणकालेण सम्मत्तमुवेल्लेदि, तस्स अपच्छिमट्टिदिखंडयस्स चरिमसमए उक्क० वड्ढी। उक्क० हाणी कस्स ? जो उक्कस्सएण कम्मेण मिच्छत्तं गदो तस्स दुसमयमिच्छाइट्ठिस्स उक्क० हाणी । अवट्ठाणं णत्थि त्ति । सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सवड्ढि-हाणीणं मिच्छत्तस्स वड्ढि-हाणिभंगो। अवट्ठाणं णत्थिः । अणंताणुबंधोणं उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंकमेण चरिमफालि संकातस्स । उक्क० हाणी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो सम्मत्तं पडिवण्णो उसके जब उत्कृष्ट वृद्धि आवली अतिक्रान्त होती है तब मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमवृद्धि होती है । उसी में उसका अनन्तर कालमें अवस्थान होता है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो उत्कृष्ट सत्कर्मके साथ मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पश्चात् सबसे थोडे उद्वेलनकालमें सम्यक्त्वकी उद्वेलना करता है उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उन्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो उत्कृष्ट सत्कर्मके साथ मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उस द्वितीय समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । अवस्थान उसका नहीं है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि और हानिकी प्ररूपणा मिथ्यात्वकी वृद्धि और हानिके समान है। अवस्थान उसका नहीं है। अनन्तानुबन्धी कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? उसकी उत्कृष्ट वृद्धि सर्वसंक्रम द्वारा अन्तिम फालिको संक्रान्त करनेवाले गुणितकमोशिकके होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि मिच्छ तस्स उकस्सिया वडढी कस्स ? गणिदकम्मंसियस्स मिच्छत्तख वयस्स सव्वसंकामयस्स । उक्तस्सिया हाणी कस्स ? गुणिदकम्पंसियस्स सम्मतमुप्पाएदूण गुणसंकमेण संकाभिदूण पढमसमयविज्झादसकामयस्स । उक्कस्सयमवट्ठागं कस्स? गणिदकम्मसिओ पुबुप्पण्णे ग सम्मतेण मिच्छत्तादो सम्पत्तं गदो तं दुसमयसम्माइट्ठिमादि कादूण जाव आवलियसम्माइट्टि ति एत्थ अगदरम्मि समये तप्पाओग्गउक्कस्सेण वर्दि कादूग से काले तत्तियं संकामयमाणस्त तस्स उकास्सयमवट्ठाणं। क. पा. सु पृ ४४५ ५२६-३१. ४ ताप्रतौ 'उज्वेलणकाले (ण)' इति पाठः । * सम्मत्तस्स उक्कस्मिया वड्ढी कस्स ? उज्वेल्नमाणयस्स चरिमसमए । उक्कस्सिया हाणी कस्स? गणिदकम्मंसिगे सम्मतमुपाएदूग लहं मिच्छतं गओ। तस्स मिच्छाइट्रिस्स पढमसमए अवत्तव्वसंकमो, बिदियसमए उक्कस्सिया हाणी। क पा सु. पृ ४४६, ५३२-३५. सम्मामिच्छत्तस्स उक्क्रस्सिया वड्ढी कस्स? गणिदकम्मंसियस्स सव्वसंकामयस्स । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? उप्पादिदे सम्मत्ते सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्ते जंगकामेदि तं पदेसम्गमंगुलस्सासंखेज्जभागपडिभागं । गणिदकम्मंसिओ सम्तमुप्पाएदूण लहुं चेव मिच्छत्तं गदो जहणियाए मिच्छत्तद्धाए पुण्णाए सम्मत्तं पडिवण्णो। तस्स पढमसमयसम्माइट्टिस्स उक्कस्सिया हाणी। क. पा. सु. ५.४४६, ५३६-४०. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ) छक्खंडागमे संतकम्मं तस्स पढमसमयसम्माइट्ठिस्स उक्क० हाणी । उक्कस्समवद्वाणं मदिआवरणउक्कस्सा वाणतुल्लं अटुण्णं कसायाणं उक्क० वड्ढी कस्स ? जो गुणिदकर मंसियो सव्वसंकमेण चरिमफालि संका मेंतओ तस्स उक्क० aढी । दुम्सि कोहस्स उक्क० हाणी कस्स ? जो गुणिदकम्मं सियो उवसम सेढिमारुहिय दुविहे कोहे चरिमसमयअणुवसंते तदो से काले मदो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्क० हाणी । दुविहमाण- माया-लोहाणं हाणीए दुविहकोहभंग | अट्टणं कसायाणमुक्कस्समवद्वाणं मदिआवरणअवट्ठाणतुल्लं Q । कोहसंजलणाए उक्क ० वड्ढी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो सव्वसंकमेण चरिमफालि संका मेंतओ तस्स उक्क वड्ढी । तस्सेव से काले उक्क०हाणी । उक्कस्समवट्ठाणं हाणीए किसके होती है ? जो गुणितकमांशिक सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उस प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृटिके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है । उनके उत्कृष्ट अवस्थानका कथन मतिज्ञानावरणके उत्कृष्ट अवस्थानके समान हैं। आठ कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक सर्वसंक्रम द्वारा अन्तिम फालिको संक्रान्त कर रहा है उसके आठ कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। दो प्रकार ( अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण ) क्रोधकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक उपशमश्रेणिपर आरूढ होकर दो प्रकारके क्रोधके अनुपशान्त रहनेके अन्तिम समय पश्चात् अनन्तर कालमें मरणको प्राप्त हुआ है उस प्रथम समयवर्ती देवके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। दो प्रकारके मान, माया और लोभकी हानिकी प्ररूपणा दो प्रकार के क्रोध के समान है । आठ कषायोंके उत्कृष्ट अवस्थानकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके अवस्थानके समान है । संज्वलन क्रोधकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्मांशिक सर्वसंक्रम द्वारा अन्तिम फालिको संक्रान्त कर रहा है उसके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उसी के अनन्तर काल में उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । उत्कृष्ट अवस्थान हानिमें करना चाहिये। जैसे संज्वलन क्रोधकी E अनंता बंत्रीण मुक्कस्सियावड्ढी कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंकामयस्स । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? गुणिदकम्मंसिओ तप्पाओग्गउक्कस्सयादो अधापवत्तसक्रमादो सम्मत्तं पडिवज्जिऊण विज्झादसंकामगो जादो । तस्स पढमसमयसम्माइट्ठिस्स उक्कस्सिया हाणी । उक्कस्सयमवद्वाणं कस्स ? जो अधावत्तसंकमेण तप्पा - अग्गुक्कस्सएण वडिण अवट्ठिदो तस्स उक्कस्सयमवठाणं । क. पा. सु पृ. ४४७, ५४१-४६ अकसायाण मुक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंकामयस्स | उकास्सिया हाणी कस्स ? गुणिक मंसियो पढमदाए कसायउवसामणद्धाए जाधे दुविहस्स को हस्स चरिमसमयसंकामगा जादो । तदो से काले मदो देवो जादो । तस्स पढमसमयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी । एवं दुविहमाण दुविहमाया दुविहलोहाणं । वरि अप्पप्पणो चरिमसमयसंकामगो होदूण से काले मदो देवो जादो । तस्स पढमसमयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी । अहं कसायाणु मुक्कस्पयमवठाणं कस्स ? अधापवत्तसंक्रमेण तप्पा ओग्ग उक्कस्सएण वड्डियूण से काले अदिकामगो जादो । तस्स उक्कल्सयमवद्वाणं । क. पा सु. पृ. ४४७, ५४७ - ५४, Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो कायव्वं । जहा कोहसंजलणाए तहा माण-माया--पुरिसवेद --छण्णोकसायाणं कायव्वं । णवरि छण्णोकसायाणं उक्कस्सिया हाणी चरिमसमयअणुवसंते से काले मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्क० हाणी । चदुणोकसायाणमवट्ठाणं णत्थि । भय-दुगुंछाणमवट्ठाणं मदिआवरणभंगो। इत्थि-णवंसयवेदाणमुक्क० वड्ढी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो सव्वसंकमेण चरिमफालि संकातओ तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्क०हाणी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार संज्वलन मान, माया, पुरुषवेद और छह नोकषायोंकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेषता इतनी है कि छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट हानि उनके अनुपशान्त रहने के अन्तिम समयके पश्चात् अनन्तर कालमें (जहां वे उपशान्त होनेवाले थे ) जो मरणको प्राप्त होकर देव हुआ है, उस प्रथम समयवर्ती देवके होती हैं । चार नोकषायोंका ( हास्य, रति, अरति और शोक ) का अवस्थान नहीं हैं । भय और जुगुप्साके अवस्थानकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। विशेषार्थ - यहां संज्वलन लोभके स्वामित्वकी प्ररूपणा नहीं की गई है ( सम्भव है प्रतिलिपिकारकी असावधानीसे वह लिखनेसे रह गयी हो ) । उसकी प्ररूपणा कसायपाहुड ( चूणिसूत्र ) में इस प्रकार की गई है - संज्वलन लोभकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जिस गुणितकर्माशिक जीवने अल्प काल में चार वार कषायोंको उपशान्त किया है, तथा जो अन्तिम भवमें दो वार कषायोंको उपशान्त कर क्षपणामें उद्यत हुआ है, उसके जब अकृतअन्तरकरण अवस्थाका अन्तिम समय प्राप्त होता है तब उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकांशिक तीन वार कषायों को उपशान्त कर चौथी वार उनके उपशान्त करने में प्रवर्तमान है वह जब अन्तिम समयवर्ती अकृतअन्तरकरण रहनेके अनन्तर समयमें मरणको प्राप्त होकर देव होता है तब उसके देव होने के पश्चात् एक समय अधिक आवली मात्र कालके वीतनेपर उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। उसके उत्कृष्ट अवस्थानकी प्ररूपणा अप्रत्याख्यानावरणके समान है । ( देखिये क. पा. सु. पृ. ४४९, ५६३-६७) स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक सर्वसंक्रमण द्वारा अन्तिम फालिको संक्रान्त कर रहा है उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक अन्तिम समयवर्ती उपशामक होकर - * कोहसंजलणस्म उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? जस्स उकस्सओ सब्वसंकमो तस्स उकास्मिया वड्ढी। तस्सेव से काले उकस्सिया हाणी । वरि से काले संकमाओग्गा समयबद्धा जहण्णा कायब्वा । तं जहाजेसि से काले आवलियमेताणं समयपबद्धाणं पदेसग्गं संकामिज्जाहिदि ते समयबद्धा तप्पाओग्गजहण्णा । एदीए परूवणाए सव्वसंकम संछ हदूण जस्स से काले पुवपरू विदो संकमो तस्स उक्कस्सिया हाणी काहसंजलणस्स। तस्सेव से काले उक्कस्सयमवट्ठाणं । क. पा. सु. प. ४४८, ५५५-६१. ४ ताप्रती 'माण-माय "पुरिसवेद-' इति पाठः। जहा कोहसं जलणस्स तहा माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाण । क. पा. सु. पृ. ४४९, ५६२. अ-काप्रत्योः 'दुगुंछावठाणं ' इति पाठः । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ) छक्खंडागमे संत कम्म चरिमसमयउवसामओ संतो मदो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्क० हाणी । अवद्वाणं णत्थि । किमट्ठे छण्णोकसायाणं णावद्वाणं ? बुच्चदे- बंधाभावकाले ण ताव अवट्ठाण संकमो अत्थि, अद्धट्ठदि गणाए परपयडिसंकमेण च पडिसमयं झिज्जमाणकम्मपदेसा ए पडीए बंधाभावेण अपडिग्गहेण अण्णपयडीहितो आगच्छमाणकम्मपोग्गलविरहियाए हाfriकमं मत्तू अवद्वाणाणुववत्तोदो । बंधकाले वि णत्थि, वयादो असंखेज्जगुणायदंसणादो * । तं जहा- छण्णोकसाएसु अप्पिदपयडीए गलमाणदव्वमेगसमयपबद्धस्स संखेज्जदिभागमेत्तं संखेज्जा भागा वा होदि, आगच्छमाणदव्वं पुण कम्मइयवग्गणादो एगसमयपबद्धमेत्तं बंधविरहिदमोहपयडीहितो अधापवत्तसंकमेण असंखेज्जसमयपबद्धमेत्तं च दव्वमागच्छदि । तेण बंधकाले वढिसंकमो चेव, णावट्टियसंकमो । सगदव्वमधापवत्त संकमेण बज्झमाणपयडीसु गच्छंतमत्थि त्ति वओ वि असंखेज्जसमयपबद्धमेत्तो अस्थि त्ति किष्ण वुच्चदे ? ण, बंधपयडीदो बंधपयडीसु गच्छंतदव्व मरणको प्राप्त हुआ है उस प्रथमसमयवर्ती देवके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है । उनका अवस्थान नहीं है । शंका-- छह नोकषायोंका अवस्थान किसलिये नहीं होता ? समाधान-- इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि ( यदि उनका अवस्थान सम्भव ह तो क्या वह बन्धके अभावकालमें होता है या बन्धकाल में ? ) बन्धके अभाव कालमें तो उनका अवस्थानसंक्रम सम्भव नहीं है, क्योंकि, अद्धस्थितिगलनसे और परप्रकृतिसंक्रमण से भी प्रतिसमय में क्षीण होनेवाले कर्मप्रदेशसे संयुक्त तथा बन्धाभाव के कारण प्रतिग्रह ( अन्य प्रकृतिके द्रव्यका ग्रहण ) रहित होनेसे अन्य प्रकृतियोंसे आनेवाले कर्म-पुद्गलोंसे विरहित विवक्षित प्रकृति हानिसंक्रमको छोडकर अवस्थानसंक्रम बनता नहीं है । बन्धकाल में भी वह सम्भव नहीं है, क्योंकि, उस समय व्ययकी अपेक्षा आय असंख्यातगुणी देखी जाती है । वह इस प्रकार से उक्त छह नोकषायोंमें विवक्षित प्रकृतिका गलनेवाला द्रव्य एक समयप्रबद्ध के संख्यातवें भाग मात्र अथवा संख्यात बहुभाग मात्र होता है, परन्तु उसका आनेवाला द्रव्य कार्मण वर्गणासे एक समयप्रबद्ध मात्र तथा बन्धविरहित मोहप्रकृतियोंसे अधःप्रवृत्तसंक्रम द्वारा असंख्यात समयप्रबद्ध मात्र द्रव्य आता है। इस कारण बन्धकालमें वृद्धिसंक्रम ही होता है, अवस्थानसंक्रम नहीं होता । शंका -- चूंकि अपना द्रव्य अधःप्रवृत्तसंक्रम द्वारा बध्यमान प्रकृतियोंमें जा रहा है, अतएव व्यय भी उनका असंख्यात समयप्रबद्ध मात्र है; ऐसा क्यों नहीं कहते ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, बन्धप्रकृतियोंसे बन्धप्रकृतियों में जानेवाले द्रव्यके समान ही मप्रतिपायम् । अ-का-ताप्रतिषु ' अधट्टिदि ' इति पाठ: । 8 अप्रतावस्य स्थाने 'वि' इति पाठ: । * अप्रतौ ' छिज्जमाग ' इति पाठः । [D] अ-कावत्यो: ' घेतूण' इति पाठः । * प्रतिष्' असंखेज्जगुणपदंसणादो' इति पाठः । * मप्रतौ ' णोवद्वियसंकमो' इति पाठः । ताप्रती 'मेतं च ( दव्वं ) आगच्छदि ' इति पाठः । * अ-काप्रत्योः ' मेत्ता' इति पाठः । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४६७ समाणदव्वस्त तेहितो आगच्छमाणस्स उवलंभेण वयाभावादो । पदेससंतभुजगाराभावे वि परिणामवसेण संकमभुजगारस्सेव तव्वसेण अवट्ठाणसंकमो अत्थि ति किण्ण वुच्चदे ? ण, पडिसेहस्स दव्वणिबंधणावट्टिदसंकमापडिसेहफलत्तादो। पुरिसवेदस्स कधमवट्ठिदसंकमो? ण, सम्माइट्ठीसु इत्थि-णवंसयवेदेसु बंधाभावेण विज्झादसंकमेण पुरिसवेदे संकातेसु अघट्ठिदिगलणाए गलमाणदव्वेण समाणं इत्थिणवंसयवेदेहितो आगच्छमाणदव्वादो असंखेज्जगुणं बंधतेसु तदुवलंभादो । अबज्झमाणमोहपयडिदव्वं पुरिसवेदस्स किण्णागच्छदे ? ण, तस्स सदो णिग्गददव्वाणुसारेणेव आगमुवलंभादो। एवं णामस्त सव्वधुवबंधिपयडीणं पि अवढाणपरूवणा कायवा । अण्णेण उवएसेण पुण सव्वणामपयडीणं णत्थि अवट्ठिदसंकमो । कुदो ? जसकित्ति-अजसकित्तीणमागम-णिग्गमविसमदाए । तं जहा- जसकित्तीए तुल्लसंतकम्मे णिग्गमादो णिग्गमो तुल्लो वा विसेसुत्तरो वा । आगमो पुण णिग्गमादो संखे०गुणो । अजस कित्तीए वि तुल्लसंतकम्मे णिग्गमादो णिग्गमो तुल्लो वा असंखेज्जदिभागुत्तरो वा । आगमो द्रव्य चूंकि उनसे आनेवाला भी पाया जाता है, अतएव व्ययकी वहां सम्भावना नहीं है । शंका- प्रदेशसत्त्वभुजाकारके अभाव में भी परिणामोंके वशसे जैसे भुजाकार संक्रम होता है, वैसे ही परिणामोंके वशसे अवस्थानसंक्रम होता है, ऐसा क्यों नहीं कहते ? ___ समाधान- नहीं, क्योंकि इस प्रतिषेधका फल द्रव्य निबन्धन अवस्थितसंक्रमका प्रतिषेध नहीं है। शंका- पुरुषवेदका अवस्थितपंक्रम कैसे होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टि जीवोंमें बन्धकी सम्भावना न होनेसे स्त्री और नपुंसक वेदोंके विध्यातसंक्रम द्वारा पुरुषवेदमें संक्रान्त होनेपर चंकि वे अधस्थितिगलनसे गलने-- वाले द्रव्यके समान स्त्री और नपंसक वेदोंसे आनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातगणे द्रव्यको बांधनेवाले होते हैं, अतएव उक्त सम्यग्दृष्टि जीवोंमें पुरुषवेदका अवस्थित संक्रम पाया जाता है शंका - अबध्यमान मोहप्रकृतियोंका द्रव्य पुरुषवेदमें क्यों नही आता? समाधान - नहीं, क्योंकि, उसके अपनेमेसे जानेवाले द्रव्यके अनुसार ही उनसे आने वाला द्रव्य पाया जाता है। इसी प्रकार नामकर्म की सब ध्रुववन्धी प्रकृतियों के भी अवस्थानकी प्ररूपणा करना चाहिये। परन्तु अन्य उपदेशके अनुसार सब नाम प्रकृतियोंका अवस्थितसंक्रम नहीं होता । इसका कारण यशकीति और अयशकीतिके आने व जानेवाले द्रव्यकी विषमता है। वह इस प्रकारसेयशकीर्तिके समान सत्कर्म में निर्गमकी अपेक्षा निर्गम तुल्य अथवा विशेष अधिक होता है। परन्तु आगमन निर्गमनकी अपेक्षा संख्यातगुणा होता है । अयशकीतिके भी समान सत्कर्ममें निर्गमसे निर्गम समान अथवा असंख्यातवें भागसे अधिक होता है। परन्तु 8 अ-काप्रत्योः ' अवट्ठिदि ' ताप्रतौ ' अवट्ठिद' इति पाठः । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ) छक्खंडागमे संतकम्म पुण णिग्गमादो असंखे० भागुत्तरो। तदो धुवबंधोणं णामपयडोणं जदा जसकित्ती बज्झदि तदा आगमो थोवो, णिग्गमो बहुओ। जदा जसकित्ती ण बज्झदि तदा णिग्गमो थोवो, आगमो बहुओ । एदेण कारणेण णामस्स पयडीणं णत्थि अवट्ठाणं । एदेणेव हेदुणा पुरिसवेद-भय-दुगुंछाणं पि अवट्ठाणाभावो परूवेयव्यो । एदेहि दोहि उवदेसेहि भुजगार-पद-णिक्खेव-वढिसंकमेसु सामित्तमप्पाबहुगं कायव्वं । णिरयगइणामाए उक्कस्तिया वड्ढी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो सव्वसंकमेण चरिमफालि संकातओ तस्स उक्कस्सिया वड्ढी। उक्क० हाणी कस्स ? जो गुणिदकम्मसियो पढमवारं चेव उवसमसेडिमारूढो चरिमसमयसुहुमसापराइयो संतो मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्क० हाणी। अवट्ठाणं पत्थि । तिरिक्खगदिणामाए णि यगइभंगो। मणुसगइशामाए उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? जो सत्तमाए पुढवीए रइयो गुणिदकम्मंसियो तेत्तीसं सागरोवमाणि सम्मतमणुपालेदूण सव्वणिरुद्ध काले सेसे मिच्छत्तं गदो, तदो उव्वट्टियस्स- पढमसमयतिरिक्खस्स उक्कस्सिया पदेससंकमवड्ढी । मणुसगइणामाए उक्कस्सिया हाणी कस्स? जो रइयो गुणिदकम्मंसियो तेत्तीसं सागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेयूण सव्वणिरुद्धकाले सेसे मिच्छत्तं गदो तस्स पढमसमयमिच्छाइट्ठिस्स उक्क० हाणी । अवट्ठाणं णस्थि । आगम निर्गमकी अपेक्षा असंख्यातवें भागसे अधिक होता है। इस कारण ध्रुवबन्धी नामप्रकृतियोंका जब यशकीर्ति बंधती है तब आगम स्तोक और निर्गम बहुत होता है । तथा जब यशकीर्ति नहीं बंधती है तब निर्गम स्तोक और आगम बहुत होता है। इस कारण नामप्रकृतियोंका अवस्थान नहीं है। इसी हेतुसे पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भी अवस्थानके अभावकी प्ररूपणा करनी चाहिये। इन दो उपदेशोंके अनुसार भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिसंक्रममें स्वामित्व व अल्पवहुत्वका कथन करना चाहिये। ____ नरकगति नामकर्म की उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गणितकर्माशिक सर्वसंक्रम द्वारा अन्तिम फालिको संक्रान्त कर रहा है उसके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकौशिक प्रथम वार ही उपशम श्रेणिपर आरूढ होकर अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होता हुआ मरणको प्राप्त होकर देव हुआ है उस प्रथम समयवर्ती देवके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। अवस्थान उसका नहीं है। तिर्यग्गति नामकर्मकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है। मनुष्यगति नामकर्मकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो सातवीं पृथिवीका गुणितकर्माशिक नारकी तेतीस सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन कर सर्वनिरुद्ध कालके शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, तत्पश्चात् वहांसे निकलकर जो तिर्यंच हुआ है, उस प्रथम समयवर्ती तिर्यंचक उसकी उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमवृद्धि होती है। मनुष्यगति नाम कर्मका उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो नारकी गुणितकर्माशिक तेतीस सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन कर सर्वनिरुद्ध कालके शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उस प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । अवस्थान उसका नहीं है । * अ-काप्रत्यो: “उवट्ठयस्स', ताप्रतो : उवठ्ठियस्स' इति पा': । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेस संकमो ( ४६९ मणुसगइणामाए सत्तमपुढविणेरइयसम्माइट्ठीहि तेत्तीस सागरोवमाणि जिरंतरं बद्धाए किमिदि णावद्वाणं ? जेसिमाइरियाणं णिग्गमाणुसारी आगमो तेसिमहिerrer अत्थि अवट्ठिदसंकमो । जेसि पुण आइरियाणं णिग्गमाणुसारी आगमो ण होदि, किंतु संकामिज्जमाणपय डिपदेसाणुसारी, तेसिमहिप्पाएण सव्वणामपयडीणं णत्थि अवद्वाणं । देवगणामाए (उक्कस्सिया ) वड्ढी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो असंखेज्जवस्साउए पूरेण दसवस्ससहस्सिएसु देवेसु उववण्णो, तदो चुदो तिरिक्खेसु मणुस्सेसु उववण्णो, तस्स तेसि पढमसमए वट्टमाणस्स उक्क० वड्ढी । उक्क ० हाणी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो असंखेज्जवस्साउएसु पूरेण मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स देवग दिणामाए उक्क० हाणी । जेण उवदेसेण अवद्वाणं तेण उवदेसेण तिपलिदोव मिस्स तपाओग्गउक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढिदूण अवट्ठिदस्स उक्कस्समट्ठाणं । मणुसगइणामाए वि णिरयगदीए तेत्तीसं सागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेयूण तत्थ तप्पा ओग्गउक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढि अवट्ठिदस्स उक्कस्समवट्ठाणं । एवं तिरिक्खगदीए सत्तमपुढविणेरइएसु तिरिक्खर्गादि चेव णिरंतरं बंधमाणेसु अट्ठाणं वत्तव्वं । शंका- सातवीं पृथिवीके नारकी सम्यग्दृष्टियोंके द्वारा तेतीस सागरोपम काल तक निरन्तर मनुष्यगतिके बांध जानेपर उसका अवस्थान क्यों नही होता ? समाधान जिन आचार्यों के मत में निर्गमके समान आगम होता है उनके अभिप्रायके अनुसार उसका अवस्थितसंक्रम होता है । परन्तु जिन आचार्योंके मत में निर्गमके अनुसार आगम नहीं होता, किन्तु संक्रान्त की जानेवाली प्रकृतियोंके प्रदेशके अनुसार आगम होता हैं; उनके अभिप्रायके अनुसार सब नामप्रकृतियोंका अवस्थानसंक्रम नहीं होता । देवगति नामकर्मकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक असंख्यात - वर्षाकों में उसको परिपूर्ण करके दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ है और फिर वहांसे च्युत होकर तिर्यंचों व मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है उसके उक्त भवोंके प्रथम समय में वर्तमान होनेपर उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणकर्माख्यातवर्षायुष्कों में उसे पूर्णकर ( बांधकर ) मरणको प्राप्त हो देव उत्पन्न हुआ है उस प्रथम समयदर्ती देवके देवगति नामकर्मकी उत्कृष्ट हानि होती है । जिस उपदेशके अनुसार अवस्थान होता है उस उपदेशके अनुसार तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट वृद्धिके द्वारा वृद्धिंगत होकर अवस्थानको प्राप्त हुए तीन पल्योपम आयुवाले जीवके उसका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । नरकगति तेतीस सागरोपम काल तक सम्यक्त्वको पालकर और वहां तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट वृद्धि द्वारा वृद्धिंगत होकर अवस्थानको प्राप्त हुए जीवके मनुष्यगति नामकर्मका भी उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इसी प्रकार तिर्यंचगतिको ही निरन्तर बांधनेवाले सातवीं पृथिवीके नारकियों में तिर्यंचगति नामकर्मके उत्कृष्ट अवस्थानका कथन करना चाहिये । तापती ' तदो ( उ ) चुदो' इति पाठः । Jain Education Interconal Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ) छक्खंडाममे संतकम्म ___ ओरालियसरीरणामाए उक्क० हाणी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदो * सण्णिमिच्छाइट्ठीसु उववण्णो, सव्वलहुं सम्मत्ते लद्धे विज्झादसंकमो जादो, तस्स पढमसमयसम्माइट्ठिस्स उक्कस्सिया हाणी। सो चेव जहणियाए सम्मत्तद्धाए अंतो देवलोगं गच्छेज्ज, देवलोगं गदस्स ओरालियसरीरस्स अधापवत्तसंकमो जादो, तस्स सव्वरहस्सेण कालेण देवलोगं गदस्स पढमसमयवेदस्स उक्क० वड्ढी। अवट्ठाणं जहा मणुसगदीए कदं तहा कायन्वं । वेउब्वियसरीरस्स देवगइभंगो। आहारसरीरणामाए उक्क० वड्ढी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो आहारसरीरं सम्वचिरं पूरेदूण* चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेदूण खवेमाणस्स परभवियबंधोवोच्छेदेण आवलियं गंतूण उक्कस्सिया वड्ढी। तस्स चेव से काले उक्क० हाणी। अवट्टाणं व अस्थि । एवसद्देण उवदेसा वि पडिसिद्धा । तेजा-कम्मइयाणं उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेदूण खवेमाणओ, तस्स परभवियणामाणं बंधवोच्छेदादो आवलियं गदस्स उक्क० वड्ढी । तस्सेव से काले उक्क० हाणी । अवट्ठाणं उवदेसेण जहा मणुसगइणामाए कदंतहा कायव्वं । पढमसंठाण-पढमसंघडणाणं उक्क० वड्ढी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो बे-छा औदारिकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक सातवीं पृथिवीसे निकलकर संज्ञी मिथ्यादृष्टियोंमें उत्पन्न हुआ है तथा जिसके सर्वलघु कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेने पर विध्यातसंक्रम हुआ उस प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। वही जघन्य सम्यक्त्वकालके भीतर देवलोकको प्राप्त होता है, देवलोकको प्राप्त होनेपर उसके औदारिकशरीरका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, सर्वलघु कालमें देवलोकको प्राप्त हुए उस प्रथम समयवर्ती देवके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । अवस्थानका कथन जैसे मनुष्यगतिके सम्बन्धमें किया है वैसे यहां भी करना चाहिए। वैक्रियिकशरीरकी प्ररूपणा देवगतिके समान है। आहारकशरीर नामकर्मको उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? जो गुणितकर्माशिक सबसे दीर्घ कालमें आहारकशरीरको पूर्ण कर चार वार कषायोंको उपशमा कर क्षपणामें उद्यत है उसके परभविक नामप्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्तिसे आवली मात्र काल जाकर आहारकशरीरकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसीके अनन्तर कालमें उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। अवस्थान नहीं है । 'एव' शब्दसे यहां उपदेशोंका भी प्रतिषेध किया गया है। तैजस और कार्मण शरीरोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक चार वार कषायोंको उपशमा कर क्षपणामें उद्यत है उसके परभविक नामप्रकृतियोंको बन्धव्युच्छित्तिके पश्चात् आवली मात्र कालके वीतनेपर उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसीके अनन्तर काल में उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। अवस्थानकी प्ररूपणा उपदेशके आश्रयसे मनुष्यगति नामकर्मके समान करना चाहिये। प्रथम संस्थान और प्रथम संहननकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक * अ-काप्रत्यो: ' उवट्टिदो', ताप्रती ' अवटिदो' इति पाठः। * अप्रतौ ' पूणेदुण ' इति पाठः । SR ताप्रती 'खवेमाणस्स (खवेमाणओ तस्स)' इति पाठः। ४ अ-काप्रत्योः 'बंधवोच्छेदो', ताप्रतौ 'बंधवोच्छे (दा-) दो' इति पाठः।*ताप्रतौ नोपलभ्यते पदमिदम्। ताप्रतौ 'कथं (दं)' इति पाठः। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं माणुयोगद्दारे पदेस संकमो ( ४७१ वट्ठीयो सम्मत्तमणुपालेयूण कसाए चदुक्खुत्तो उवसामेण तदो खवेंतस्स बंधवोच्छादादो आवलियं गदस्स उक्क० वड्ढी । तस्सेव से काले उकस्सिया हाणी । अवठाणं जहा- मणुसगइणामाए तहा कायध्वं । पंचसंठाण-पंच संघडणाणं उक्क ० वड्ढी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो कसाए अणुवसामेण सव्वलहुं खवेंतओ तस्स चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स उक्क ० वड्ढी । उक्क हाणी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो उक्समसेडिमारुहिय चरिमसमय सुहुमसांपराइयो होट्टण मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी । अवद्वाणं णेव अत्थि । जहा तेजा - कम्मइयसरीराणं उक्कस्सवढी -हाणीयो कदाओ तहा सव्वासि सत्थाणं धुवबंधीणं कायन्वं । अप्पसत्थाणं धुवबंधीणं णामपयडीणं उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो कसा अणुवसामेण सव्वलहुं खवेदि तस्स चरिमसमय सुहुमसांपराइयस्स उक्क० वड्ढी । उक्क ० हाणी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो पढमवारं चैव कसाए उवसामेदि सो चरिमसमय सुहुमसांपराइयो होदूण मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्क० हाणी । अवट्ठाणं जहा मणुसगइणामाए तहा कायव्वं । चदुण्णमाणुपुव्वीणामाणं वड्ढि - हाणि-अवट्ठाणाणं सग-सगगइभंगो । अप्पसत्याण दो छ्यासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन कर व चार वार कषायोंको उपशमा कर क्षपणामें तत्पर है उसके बन्धव्युच्छित्तिसे आवली मात्र कालके वीतनेपर उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उसीके अनन्तर कालमें उनकी उत्कृष्ट हानि होती है । अवस्थानकी प्ररूपणा मनुष्यगति नामकर्मके समान करना चाहिये । शेष पांच संस्थानों और पांच संहननोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक कषायों को न उपशमा कर सर्वलघु कालमें क्षपणा करता हुआ अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिक होता है उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक उपशमश्रेणिपर आरूढ होता हुआ अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिक होकर मरणको प्राप्त हो देव हो जाता है उस प्रथम समयवर्ती देवके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है । अवस्थान नहीं है । जिस प्रकारसे तेजस और कार्मण शरीरोंकी उत्कृष्ट वृद्धि और हानिको किया है उसी प्रकारसे सब प्रशस्त ध्रुवबन्धी नामप्रकृतियों की भी वृद्धि और हानिको करना चाहिये । अप्रशस्त ध्रुवबन्धी नामप्रकृतियों की उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक कषायोंको न उपशमा कर सर्वलघु काल में उनका क्षय करता है उस अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिकके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणित कर्माशिक प्रथम वार ही कषायों को उपशमाता हैं वह अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिक होकर मरणको प्राप्त हो जब देव होता है तब उस प्रथम समयवर्ती देवके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है । अवस्थानका कथन मनुष्यगति नामकर्मके समान करना चाहिये । चार आनुपूर्वी नामप्रकृतियोंकी वृद्धि, हानि और अवस्थान की प्ररूपणा अपनी अपनी तातो खवेंनस्स ( खवेंतओ तस्स ) ' इति पाठः । ताप्रती ' तहा' इत्येतत्पदं नास्ति । → अ-काप्रत्यो: 'सांगराइयो जादो तस्स', तानौ 'सांगराइयो जादों (मदो ) तस्स ' इति पाठ: । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ) छक्खंडागमें संत कम्म . मद्धुवबंधिणामपडीणं अव्पसत्थधुवबंधिणामपराडिभंगो। णवरि अवठाणं णत्थि । परघाद- उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस बादर- पज्जत्त- पत्तेयसरीर-सुभगादेज्ज- सुस्सराणमुकस्सिया वड्ढी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो बे-छावट्ठीओ सम्मत्तमणुपालेगण चदुक्खुत्तो कमाए उवसामेदृण तदो खवेंतस्स - परभवियणामाणं बंधवोच्छेदादो आवलियं गदस्स उक्कस्सिया वड्ढी । तस्सेव से काले उक्क हाणी । अवट्ठाणं जहा मणुसगइणामाए तहा कायव्वं । आदावुज्जोवणामाणं उक्क वड्ढी सव्वसंकमे दादव्वा । उक्क० हाणी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो पढमदाए (कसाए) उवसामेण चरिमसमयसुहुमसांपराइयो संतो मदो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्क०हाणी । अवट्ठाणं णेव अत्थि । अपसत्थविहायगड-अथिर असुभ अजसकित्तीणं उक्क o वड्ढी हाणी वा जहा अप्पसस्थाणं संठाणाणं कदा तहा कायव्वा । थिर जसकित्ति-सुभाणं एदासि तिष्णं णामपयडीणं उक्क ० ०वड्ढी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेदूण तदो खवेदि तस्स खवेमाणस्स परभवियणामाणं बंधादो आवलियमदिक्कंतस्स उक्क० वड्ढी । तस्सेव से काले उक्क० हाणी । णवरि जसकित्तीए परभविबंधवोच्छेदचरिमसमए गतिके समान है । अप्रशस्त अध्रुवबन्धी नामप्रकृतियों की प्ररूपणा अप्रशस्त ध्रुवबन्धी नामप्रकृतियोंके समान है । विशेषता इतनी है कि उनका अवस्थान नहीं है । परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, आदेय और सुस्वर; इनकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक दो छ्यासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन कर व चार वार कषायोंको उपशमा कर पश्चात् क्षपणा में प्रवृत होता है तब उसके परभविक नामकर्मों की बन्धव्युच्छित्तिसे आवली मात्र काल जाकर उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसके ही अनन्तर कालमें उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। अवस्थानकी प्ररूपणा मनुष्यगति नामकर्मके समान करना चाहिये | आतप और उद्योत नामकर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धिको सर्वसंक्रम में देना चाहिये। इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक प्रथमतः कषायोंकी अशमा कर अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होता हुआ मरणको प्राप्त हो ( देव होता है उस प्रथम समयवर्ती देवके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है । अवस्थान है ही नहीं । अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति इनकी उत्कृष्ट वृद्धि और हानिकी प्ररूपणा जैसे अप्रशस्त संस्थानोंकी की गई है वैसे करना चाहिये । स्थिर, यशकीति और शुभ इन तीन नामप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक चार वार कषायोंको उपशमा कर तत्पश्चात् क्षपणा करता है उस क्षपणा कर नेवाले के परभविक नामकर्मोंके बन्धसे आवली मात्र काल जाकर उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उसी के अनन्तर कालमें उसको उत्कृष्ट हानि होती हैं। विशेष इतना हैं कि यशकीर्तिकी उत्कृष्ट वृद्धि परभविक नाम कृतियोंके बन्धव्युच्छेद के अन्तिम समयमें होती है । चतुर्थ उपशामनामें तातो' खवेंतस्स ( खवेंतओ तस्स ) ' इति पाठ: । मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु ' बंधवोच्छेदाभावादो' इति पाठः । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४७३ उक्क० वड्ढी । चउत्थीए उवसामणाए मदचरिमसमयसुहमसांपराइयस्स देवेसुप्पज्जिय समयाहियावलियादिक्कस्स उक्कस्सिया हाणी । अवट्ठाणं णेव अस्थि । णीचागोदस्स उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? चरिमसमयसुहमसांपराइयस्स खवयस्स । उक्क० हाणी कस्स? उवसामओ चरिमसमयसुहमसांपराइयो मदो संतो जो देवो जादो तस्स पढमसमए उक्क० हाणी। अवट्ठाणं व अस्थि । उच्चागोदस्स वड्ढि-हाणि अवढाणाणं मणुसगइभंगा । एवमुक्कस्ससामित्तं समत्तं । मदिआवरणस्स जहणिया वड्ढी कस्स? जो जहण्णएण संतकम्मेण चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेदूण एइंदिएसु गदो तत्थ जाधे बंधो च णिज्जरा चव हुसमो तस्स ताधे जहणिया वड्ढी हाणी अवट्ठाणं वा होदि । सेसचदुणाणावरण-णवदसणावरणपंचंतराइयाणं मदिणाणावरणभंगो । सादस्स जह० वड्ढी कस्स? जो जहण्णेण संतकम्मेण कसाए अणुवसामेदूण संजमासंजम-संजमगुणसेडीहि बहुक्खुत्तो कम्म खवेदूण एइंदिए सु गदो, तत्थ सव्वचिरं कालं जोगजवमज्झस्स हेट्ठा बंधिदूण सव्वमहंतीयो असादबंधगद्धाओ कादूण तदो जं तं सवचिरं कालं जोगजवमज्झस्स हेट्ठा बंधिदाओ तस्स कालस्स पज्जवसाणबंधगद्धाए तिस्से अपच्छिमाए सादबंधगद्धाए समऊणाए आवलियासेसाए णिज्जरादो किंचि विसेसुत्तरो बंधो जादो, तदो जाधे मरणको प्राप्त हुए अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके देवोंमें उत्पन्न होकर एक समय अधिक आवली मात्र कालके वीतनेपर उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । अवस्थान है ही नहीं। नीचगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? वह अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक मरणको प्राप्त होकर देव हो जाता है उसके प्रथम समयमें उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। अवस्थान है ही नहीं। उच्चगोत्रकी वृद्धि, हानि और अवस्थानकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। मतिज्ञानावरणकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो जघन्य सत्कर्म के साथ चार वार कषायोंको उपशमा कर एकेद्रियोंमें गया है उसके वहां जब बन्ध और निर्जरा दोनों समान होते हैं तब उसकी जघन्य वृद्धि हानि और अवस्थान होता है। शेष चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीयकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो जधन्य सत्कर्म के साथ कषायोंको न उपशमा कर संयमासंयम और संयम गुणश्रेणियों द्वारा बहुत वार कर्मका क्षयकर एकेन्द्रियों में गया है और वहांपर सबसे दीर्घ काल तक योगयवमध्यके नीचे बांधकर सबसे बड असातबन्धककालोंको करके पश्चात् जिस सर्वचिर कालके द्वारा योगयवमध्यके नीचे बन्ध किया है उस कालके अन्तिम बन्धककालमें उस अन्तिम सातबन्धककालमें एक समय कम आवलीके शेष रहनेपर निर्जराकी अपेक्षा बन्ध कुछ ४ अ-काप्रत्योः · समयाहियावलियादि उक्स्स उक्कस्सिया', ताप्रतौ समयाहियावलियाहि ( उक्कस्स) उक्कस्सिया' इति पाठः। * मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु ' उवसामेदूण' इति पाठः । * काप्रतौ ' चदुक्खुत्तो' इति पाठः। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ) छक्खंडागमे संतकम्म असादबंधो तदो बिदियसमए जहणिया वड्ढी सादस्स । जिस्से असादबंधाए जह० वड्ढी णिप्फण्णा तं चेव असादस्स बंधद्धं दोहं बंधिऊण तिस्से चरिमसमए जह० हाणी सादस्स अवट्ठाणं व अस्थि । जहा सादस्स तहा असादस्स । णवरि चदुक्खुत्तो कसाया उवसामेयव्वा । जाओ च सादं जहण्णं कुणमाणेण असादबधगद्धाओ कदाओ, ताओ चेव असादस्स जहण्णं कुणमाणेण सादबंधगद्धाओ कायवाओ। मिच्छत्तस्स जहणिया वड्ढी कस्स? जस्स तप्पाओग्गजहण्णमिच्छत्तसंतकम्मस्स अवट्ठाणं होज्ज तस्स मिच्छत्तस्स जह० वड्ढी हाणी वा अवट्ठाणं वा होज्ज । सस्मत्तस्स जह० वड्ढी कस्स? जो जहण्णएण कम्मेण सम्मत्तं लहिदूण बे-छावट्ठीयो अणुपालिदूण पडिवदिदो, सब्वमहंतेण उव्वेलणकालेण उव्वेल्लमाणस्स अपच्छिमस्स द्विदिखंडयस्स पढमसमए जहणिया वड्ढी । दुचरिमद्विदिखंडयस चरिमसमए जहणिया हाणी । अवढाणं व अस्थि । सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्तभंगो। अणंताणुबंधीणं जहणिया वड्ढी कस्स? अमवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णण कम्मेण जो आगदो संजमासंजम-संजमगुणसेढीहि कम्मं खवेदूण कसाए अणुवसामेदूण एइंदिएसु गदो, तस्स जम्हि योगासेसकम्मस्स (?) अवट्ठाणं हीदि तम्हि जहणिया वड्ढी हाणी अवट्ठाणं (वा) होज्ज। एसो ताव एक्को उवदेसो । अण्णेण उवएसेण अणंताणुबंधीणं विशेष अधिक हो जाता है, तत्पश्चात् जब असाताका बन्ध होता है तब उसके द्वितीय समयमें सातावेदनीयकी जघन्य वृद्धि होती है । जिस असाताबन्धककालमें जघन्य वृध्दि उत्पन्न हुई है उसी दीर्घ असाताबन्धककालमें बांधकर उसके अन्तिम समयमें सातावेदनीयकी जघन्य हानि होती है । सातावेदनीयका अवस्थान नहीं है । जैसे सातावेदनीयकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही असातावेदनीयकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि चार वार कषायोंकी उपशामना चाहिये इसके अतिरिक्त सातावेदनीयको जघन्य करनेवाले जीवके द्वारा जो असाताबन्धककाल किये गये हैं वे ही असातावेदनीयको जघन्य करनेवालेके द्वारा साताबन्धककाल कराने चाहिये। मिथ्यात्वकी जघन्य वृध्दि किसके होती है? तत्प्रायोग्य जघन्य मिथ्यात्वसत्कर्म युक्त जिस जीवके अवस्थानसंक्रम होता है उसके मिथ्यात्व की जघन्य वृध्दि, हानि और अवस्थान होता है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य वृध्दि किसके होती है ? जो जघन्य सत्कर्म के साथ सम्यक्त्वको प्राप्त कर व उसका दो छयासठ सागरोपम काल तक पालन करके च्युत होता हुआ सबसे महान् उद्वेलन कालके द्वारा उद्वेलना कर रहा है उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकके प्रथम समयमें उसकी जघन्य वृध्दि होती है। द्विचरम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें उसकी जघन्य हानि होती है। अवस्थान नहीं है । सम्यग्मिथ्यात्वकी प्ररूपणा सम्यक्त्वके समान है। अनन्तानुबन्धी कषायोंकी जघन्य वृध्दि किसके होती है ? जो अभव्यसिध्दिक प्रायोग्य जघन्य कर्मके साथ आकर संयमासंयम व संयम गुणश्रेणियोंके द्वारा कर्मका क्षय कर तथा कषायोंको न उपशमा कर एकेन्द्रियोंमें गया है उसके जिस जघन्य योगमें सत्कर्म का अवस्थान होता है उसमें उनकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है। यह एक उपदेश है । दूसरे उपदेशके Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४७५ जह० हाणी कस्स ? जो जहण्णएण कम्मेण चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेऊण तदो संजोएदूण बे-छावट्ठियो सम्मत्तमणुपालिय अणंताणुबंधीणं विसंजोयणाए उवट्टिदो तस्स अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए जहणिया हाणी । एरिसो चेव बे-छावट्ठीयो अणुपालेदूण मिच्छत्तं गदो तस्स पढमसमयमिच्छाइटिस्स जह० वड्ढी । अवट्ठाणं णत्थि । एसो बिदियो उवदेसो । बारसण्णं कसायाणं जेण उवएसेण अवट्ठाणमत्थि तेण उवदेसेण उच्चदेजहणियाणि संतकम्माणि काऊण एइंदियं गदस्स जम्हि जहण्णयस्स संतकम्मस्स अवट्ठाणं होदि तम्हि जहणिया वड्ढी हाणी अवढाणं वा होज्ज । एवं भय-दुगुंछापुरिसवेदाणं । हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं जहण्णवड्ढि-हाणीयो जहा सादासादाणं कदाओ तहा कायव्वाओ। इत्थिवेदस्स जहणिया हाणी कस्स? जो जहण्णएण कम्मेण चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेयूण बे-छावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालेदूण से काले मिच्छत्तं गाहदि ति तस्स जहणिया हाणी । तस्स चेब से काले पढमसमयमिच्छाइट्ठिस्स जहणिया वड्ढी । अवट्ठाणं चेव अत्थि । णQसयवेदस्स इत्थिवेदभंगो । णवरि पुव्वमेव तिण्णि पलिदोवमाणि तिपलिदोवमेसु अच्छिय तदो पच्छा बे-छावट्ठीओ सम्मत्तमणुपालेदव्वो। अनुसार अनन्तानुबन्धी कषायोंकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ चार वार कषायोंको उपशमाकर फिर संयोजन कर दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन करके अनन्तानुबन्धी कषायोंकी विसंयोजनामें उद्यत होता है उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें उनकी जघन्य हानि होती है। ऐसा ही जो जीव दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन कर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उस प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके उनकी जघन्य वृद्धि होती है । अवस्थान उनका नहीं है । यह दुसरा उपदेश है। जिस उपदेश के अनुसार अवस्थान है उस उपदेशके अनुसार बारह कषायोंकी प्ररूपणा करते हैं- जघन्य सत्कर्मोको करके एकेन्द्रिय भवको प्राप्त हुए जीवके जहांपर जघन्य सत्कर्मका अवस्थान होता है वहां उनकी जघन्य वृध्दि, हानि और अवस्थान होता है। इसी प्रकार भय, जुगुप्सा और पुरुषवेदकी प्ररूपणा करना चाहिये । हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य वृद्धि और हानि जैसे साता व असाता वेदनीयकी की गई है वैसे करनी चाहिये । स्त्रीवेदकी जघन्य हानि किसके होती है? जो जघन्य सत्कर्म के साथ चार वार कषायोंको उपशमा कर व दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन कर अनन्तर कालमें मिथ्यात्वको प्राप्त होने वाला है उसके उसकी जघन्य हानि होती है। अनन्तर कालमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुए उसी प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके उसकी जघन्य वृद्धि होती है । अवस्थान नहीं है। नपुंसकवेदको प्ररूपणा स्त्रीवेद के समान है। विशेष इतना है कि पहिले हो तीन पल्योरमकाल तक तीन पल्योपम प्रमाण आयुवाले जीवोंमें रहकर पीछे दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वका पालन कराना चाहिये। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ) छक्खंडागमे संतकम्म णिरयगइणामाए जह• हाणी कस्स? एइंदियकम्मेण जहण्णएण णिरयगइणाममंतोमुहुत्तं संजोएदूण तदो बावीससागरोवमट्ठिदिणिरयं गदो, बावीससागरोवमाणं अंतोमुत्ते सेसे सम्मत्तं पडिवण्णो, मदो मणुसो जादो, एक्कत्तीससागरोवमट्टिदि देवदि गदो, अंतोमुत्तं उववण्णो मिच्छत्तं गदो, एक्कत्तीससागरोवमेसु अंतोमुहुत्ते सेसेसु सम्मत्तं पडिवण्णो, बे-छावट्ठीयो अणुपालेदूण सोधम्मकप्पम्हि मिच्छत्तं गदो संतो एइंदिए गदो, तदो सव्वमहंतेण उव्वेल्लणकालेण उवेल्लमाणस्स दुचरिमउव्वेलणखंडयस्स चरिमसमए जहणिया हाणी । तस्सेव से काले जह० वड्ढी । मणुसगइणामाए जह० वड्ढी कस्स? जो एइंदियकम्मेण वस्सपुधत्तेण अणुतरवेमाणिएसु देवेसु उववण्णो, तस्स तप्पाओग्गजहण्णसंतकम्मस्स जम्हि अवट्ठाणं होदि तम्हि जह० वड्ढी हाणी अवट्ठाणं वा होदि। देबगइणामाए जहण्णवड्ढि*हाणि-अवट्ठाणाणि कस्स? ( जो ) एइंदियकम्मेण तिपलिदोवमिएसु उववण्णो तस्स जाधे तप्पाओग्गजहण्णएण कम्मेण अवट्ठाणं होज्ज तम्हि जह० वड्ढी अवट्ठाणं वा । तिरिक्खगइणामाए जहणिया हाणी कस्स? जो जहण्णएण कम्मेण तिपलिदोवमिएसु उववण्णो, अंतोमुहुत्ते सेसे सम्मत्तं पडिवण्णो, तदो देवेसु पलिदोवमपुधत्ताउछिदिएसु नरकगति नामकर्मकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो जवन्य एकेन्द्रिय योग्य कर्मके साथ अन्तर्मुहूर्त काल तक नरकगति नामकर्मका संयोजन करके पश्चात् बाईस सागरोपम आयुवाले नरकको प्राप्त हुआ है, बाईस सागरोपमोंमें अन्तर्मुहुर्त शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त होकर मरा व मनुष्य हुआ है, पश्चात् इकतीस सागरोपम स्थितिवाली देवगतिको प्राप्त होकर उत्पन्न होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, फिर इकतीस सागरोपमोंने अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है, दो छयासठ सागरोपम कल तक सम्यक्त्वका पालन कर सौधर्म कल्पमें मिथ्यात्वको प्राप्त होता हुआ एकेन्द्रियमें गया है, और तत्पश्चात् जो सबसे महान् उद्वेलनकाल द्वारा उद्वेलना कर रहा है। उसके द्विचरम उद्वेलनकांडकके अंतिम समयमें नरकगति नामकर्मकी जघन्य हानि होती है । उसीके अनन्तर काल में उसकी जघन्य वृद्धि होती है। मनुष्यगति नामकर्मकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो एकेन्द्रिय योग्य कर्मके साथ वर्षपृथक्त्वमें अनुत्तर विमानवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके तत्प्रायोग्य जघन्य सत्कर्म का जहां अवस्थान होता है वहां उसकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है। देवगति नामकर्मकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता हैं ? जो एकेन्द्रिय योग्य सत्कर्म के साथ तीन पल्योपम आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ है उसके जब तत्प्रायोग्य जघन्य सत्कर्म के साथ अवस्थान होता है तब उसकी जघन्य वद्धि हानि और अवस्थान होता है। तिर्यगति नामकर्मकी जघन्य हानि किसके होती है? जो जघन्य सत्कर्मके साथ तीन पल्योपम आय वालोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है, तत्पश्चात् पल्योपमपृथक्त्व आयुस्थिति काप्रतौ — अंतोमुहुत्तेसु सेसेसु ' ताप्रतौ — अंतोमुहुत्त सेसेसु' इति पाठः । * अ-काप्रत्योः 'णामाए दीहणवड्ढी' ताप्रतौ । णामाए वडिढ' इति पाठः । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४७७ उववण्णो, अपडिवदिदेण सम्मत्तेण मणुस्सेसु गदो, तदो अपडिवदिदेण एक्कत्तीससागरोवमिएसु देवेसु उववण्णो, अंतोमुत्तमुववण्णो मिच्छत्तं गदो, अंतोमुत्तावसेसे सम्मत्तं पडिवण्णो, बे-छावट्ठीयो० अणुपालेदूण जाधे चरिमसमयसम्माइट्ठी ताधे जहणिया हाणी। तस्सेव से काले जहणिया वड्ढी। तिरिक्खगइणामाए अवट्ठाणं णेव अस्थि । बे-छावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालिय तदो खवणाए अहिमुहचरिमसमयअधापवत्त करणं मोत्तूण जहणिया हाणी केण : कारणेण चरिमसमयसम्माइट्ठिस्स कोरदि त्ति वुत्ते वुच्चदे- बे-छावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालेदूण जो तत्तो खवेदि तस्स उक्कस्सिया सम्मत्तद्धा थोवा, बे-छावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालेदूण जो मिच्छत्तं गच्छदि तस्स सम्मत्तद्धा विसेसाहिया । एदेण कारणेण चरिमसमयसम्माइटिस्स जहणिया तिरिक्खगइणामाए हाणी कदा, चरिमसमयअधापवत्तकरणे ण. कदा । सव्वेसि धुवबंधियाणं णामाणं जहण्णवड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि कस्स? तप्पाओग्गजहण्णाणि कम्माणि कादूण जम्हि अवट्ठाणं कम्मस्स होज्ज तम्हि वढि हाणी अवट्ठाणं वा जहण्णयं होदि । वेउब्वियसरीर-पढमसंठाण-पढमसंघडण-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-आदेज्ज-सुस्सरणामाणं जहणिया वड्ढी वाले देवोंमें उत्पन्न हुआ है, पुन: अप्रतिपतित सम्यक्त्वके साथ मनुष्योंमें गया है, तत्पश्चात् अप्रतिपतित सम्यवत्व के साथ इकतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ है, वहां उत्पन्न होने के पश्चात् अन्तर्मुहुर्त में मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, अन्तर्मुहर्त शेष रहनेपर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है, तथा जो दो छयासठ सागरोपम काल तक उसका पालन कर जब अन्तिम समयदर्ती सम्यग्दृष्टि होता है तब उसके तिर्यग्गति नामकर्मकी जघन्य हानि होती है । उसीके अनन्तर काल में उसकी जघन्य वृद्धि होती है । तिर्यग्गति नामकर्मका अवस्थान नहीं है । शंका- दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन कर तत्पश्चात् क्षपणाके अभिमुख अन्तिम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरणको छोडकर अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके किस कारणसे उसकी जघन्य हानि की जाती है ? समाधान- दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वका पालन कर पश्चात् जो क्षपणा करता है उसका उत्कृष्ट सम्यक्त्वकाल स्तोक होता है, परन्तु दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वका पालन कर पश्चात् जो मिथ्यात्वको प्राप्त होता है उसका सम्यक्त्वकाल विशेष अधिक होता है । इस कारण अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके तिर्यग्गति नामकर्मकी जघन्य हानि की गयी है और अन्तिम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरणके वह नहीं की गयी है। सब ध्रुवबन्धी नामप्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होते है? तत्प्रायोग्य जघन्य कर्मोको करके जहांपर कर्मका अवस्थान होता है वहां पर उनकी जवन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होते हैं। वैक्रियिकशरीर. प्रथम संस्थान. प्रथम संहनन. परघात. प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, आदेय और सुस्वर नामकर्मोकी ४ ताप्रती 'पडिवण्णो, (मि) बे छावठोयो' इति पाठः । ताप्रतौ 'हाणी। केण' इति पाठः। ताप्रती : करणेण' इति पाठः । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ) छक्खंडागमे संतकम्म कस्स? जत्थ एदेसि कम्माणं तप्पाओग्गजहण्णाणं जहण्णमवट्ठाणं होज्ज तत्थ जहण्णिया वड्ढी हाणी अवठ्ठाणं वा होज्ज । अप्पसत्थविहायगइ-थावर-सुहुम-अपज्जत्तसाहारणसरीर-दूभग-अणादेज्ज-दुस्सराणं णवंसयवेदभंगो। णीचागोदस्स वि णवंसयवेदभंगो । उच्चागोदस्स मणुसगइभंगो । एवं जहण्णसामित्तं समत्तं । ____ अप्पाबहुअं। तं जहा- मदिआवरणस्स उक्कस्समवट्ठाणं थोवं । वड्ढी विसेसाहिया, भिण्णसामित्तादो। हाणी असंखेज्जगुणा । सेसचदुणाणावरण-चदुदंसणावरणपंचंतराइयाणं मदिणाणावरणभंगो। णिहा-पयलाणं उक्कस्समवट्ठाणं थोवं । हाणी असंखेज्जगुणा । वड्ढी असंखेज्जगणा। थीणगिद्धितियस्स णिद्दाभंगो । सादस्स उक्कस्सिया हाणी थोवा । वड्ढी विसेसाहिया । असादस्स उक्कस्सिया हाणी थोवा। वड्ढी असंखे० गुणा। मिच्छत्तस्स उक्कस्समवट्ठाणं (थोवं) । हाणी असंखे० गुणा । वड्ढी असंखे० गुणा । सम्मत्तस्स उक्क० वड्ढी थोवा, उव्वेलणकंडयचरिमसमए जादत्तादो । उक्क० हाणी असंखे० गुणा, दुसमयमिच्छाइट्ठिस्स जादत्तादो । अवट्ठाणं णस्थि । सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया हागी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । अणंताणुबंधोणं उक्कस्समवट्ठाणं थोवं । हाणी असंखे० गुणा । वड्ढी असंखे० गुणा । अढण्णं कसायाणमुक्कस्समवट्ठाणं थोवं । हाणी असंखे० गुणा । वड्ढी असंखे० गुणा। तिण्णं जघन्य वद्धि किसके होती है ? जहांपर इन तत्प्रायोग्य जघन्य कर्मोंका जघन्य अवस्थान होता है वहांपर उनकी जघन्य वद्धि, हानि व अवस्थान होता है। अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, दुर्भग, अनादेय और दुस्वर प्रकृतियों की प्ररूपणा नपुंसकवेदके समान है। नीचगोत्रकी भी प्ररूपणा नपुंसकवेदके समान है। उच्चगोत्रकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है। इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। वह इकार है- मतिज्ञानावरणका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है। वृद्धि विशेष अधिक है, क्योंकि, उसका स्वामी भिन्न है । हानि असंख्यातगुणी है। शेष चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। निद्रा और प्रचलाका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है। वृद्धि असंख्यातगुणी है । स्त्यानगृद्धि आदि तीनकी प्ररूपणा निद्राके समान है। सातावेदनीयकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है। वृद्धि विशेष अधिक है । असाताकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है। वृद्धि असंख्यातगुणी है। मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है। हानि असंख्यातगुणी है। वृद्धि असंख्यातगुणा है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है, क्योंकि, वह उद्वेलनकाण्डकके अन्तिम समयमें होतो है । उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है, क्योंकि, वह द्वितीय समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके होती है । अवस्थान नहीं है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । अनन्तानुबन्धी कषायोंका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है। वृध्दि असंख्यातगुणी है। आठ कषायोंका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है । वृद्धि असंख्यातगुणी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाणुयोगद्दारे पदेस संकमो ( ४७९ संजलणाणं पुरिसवेदस्स य उक्क० वड्ढी थोवा । उक्क ० हाणी अवद्वाणं च विसेसाहियं । लोभसंजलणाए उक्कस्तमवट्ठाणं थोवं । हाणी असंखेज्ज० गुणा । वड्ढी विसेसा० । छण्णं णोकसायाणमुक्क० हाणी थोवा । वड्ढी असंखेज्ज० गुणा० । अट्ठाणं णत्थि । इत्थि णवुंसयवेदाणं हस्स-रदिभंगो । णिरयगइणामाए उक्कहाणी थोवा । वड्ढी असंखे ० गुणा । एवं तिरिक्खगइणामाए । दोणमवद्वाणं णत्थि । मणुसगइणामाए उक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असंखे० गुणा । हाणी विसेसा | देवगइणामाए उक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असंखे० गुणा । हाणी विसेसा० । जहा देवगणामाए तहा जादिणाम आणुपुव्वीणामाणं च । ओरालियसरीरनामाए उक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असंखे ० गुणा । हाणी विसेसा० । वेउव्वियसरीरवेव्वियसरीर अंगोवंग बंधण-संघादाणं देवगइभंगो । आहारसरीरणामाए उक्क० हाणी थोवा | वड्ढी विसेसा । तेजा-कम्मइग्रसरीराणं सव्वासि चेव धुवबंधिणामाणं उक्कस्समट्ठाणं थोवं । हाणी असंखे ० गुणा । वड्ढी विसेसा० । वज्जरिसहणारायणसंघडणणामाए उक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असंखेज्जगुणा । हाणी विसेसा० । समचउरससंठाण-परघादउस्सास -पसत्थविहायगइ-तस बादर- पज्जत्त- पत्तेय तसीर-सुभगादेज्ज-सुस्सराणमुक्कस्समट्ठा थोवं । हाणी असंखे ० गुणा । वड्ढी विसेसा०| पंचसंठाण-पंच संघडण - अथिर- अजसकित्ति असुभ - दूभग- दुस्सर - अणादेज्ज - अप्पसत्य विहायगदीणं उक्क ० हाणी थोवा । वड्ढी 1 है । तीन संज्वलन कषायों और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है । उत्कृष्ट हानि और अवस्थान विशेष अधिक हैं । संज्वलन लोभका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है । वृद्धि विशेष अधिक है। छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । अवस्थान नहीं है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी प्ररूपणा हास्य और रतिके समान है । नरकगति नामकर्मकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । इसी प्रकार तिर्यंचगति नामकर्मकी प्ररूपणा है । अवस्थान दोनोंका नहीं है । मनुष्यगति नामकर्मका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है। वृद्धि असंख्यातगुणी है। हानि विशेष अधिक है। देवगति नामकर्मका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है | वृद्धि असंख्यातगुणी है । हानि विशेष अधिक है । जैसे देवगति नामकर्मकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही जाति नामकर्मों और दो आनुपूर्वी नामकर्मोंकी भी करना चाहिये । औदारिकशरीर नामकर्मका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । हानि विशेष अधिक है । वैक्रियिकशरीर व उसके अंगोपांग, बन्धन एवं संघात नामकर्मकी प्ररूपणा देवगतिके समान है । आहारकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है । वृद्धि विशेष अधिक । तैजस व कार्मण शरीरों तथा सब ही ध्रुवबन्धी नामत्रकृतियोंका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है । वृद्धि विशेष अधिक है । वज्रर्षभनाराचसंहनन नामकर्मका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । हानि विशेष अधिक है । समचतुरस्र - संस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, आदेव और सुस्वर इनका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है । वृद्धि विशेष अधिक है। पांच संस्थान, पांच संहनन, अस्थिर, अयशकीर्ति, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अप्रशस्त विहायोगति; इनकी उत्कुष्ट हानि स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । अवस्थान नहीं Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८०) छक्खंडाममे संतकम्म असंखे० गुणा । अवट्ठाणं णस्थि । अल्पसत्यागं धुवबंधोणमुक्कस्समबट्ठाणं थोवं । हाणी असंखे० गुणा । वड्ढी असंखे० गुणा । णिरयगइ-तिरिक्खगइपाओग्गणामाणं आदावुज्जोवाणं च उक्क० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । णीचागोदस्स गुणसंकमेण उक्क० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । उच्चागोबस्स उक्क० हाणी सत्तमाए पुढवीए पढमसमयणेरइयस्स हाणी* थोवा । तस्स चेव उव्वट्टियस्स पढमसमयतिरिक्खस्स णीचागोदस्स बंधमाणयस्स उक्क० वड्ढी विसे०, णेरइयस्स सम्माइट्ठीसु संचिदत्तादो । उच्च-णीचाणमवट्ठाणं णत्थि । एवमुक्कस्सप्पाबहुअं समत्तं । ___णाणावरणपंचयस्स जहण्णवड्ढी हाणी अवट्ठाणं सरिसं। णवदंसणावरणमिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-पुरिसवेद-पंचंतराइयाणं जह० वड्ढी हाणी अवडाणं च तिणि दि तुल्लाणि । सादस्स जह० हाणी थोवा । वड्ढी विसेसाहिया । अवट्ठाणं णथि । असादस्स सादभंगो । सम्मत्तस्स जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । सम्मामिच्छ० सम्मत्तभंगो। हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं जह० हाणी थोवा । वड्ढी विसेसा० । अवट्ठाणं पत्थि। इत्यि णव॒तयवेदाणं जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे. गुणा । अवट्ठाणं णत्थि।। -णिरयगइणामाए जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । तिरिक्खगइणामाए है। अप्रशस्त ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है। वृद्धि असंख्यातगुणी है। नरकगति और तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मों तथा आप और उद्योत नामकर्मोंकी भी उत्कृष्ट हानि स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है। नीचगोत्रकी गुणसंक्रमके द्वारा उत्कृष्ट हानि स्तोक है। वृद्धि असंख्यातगुणी है। उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट हानि सातवीं पृथिवी के प्रथम समयवी नारकीके होती है, जो स्तोक है। वहांसे निकलकर नीचगोत्रको बांधनेवाले उमी प्रथम समयवर्ती ति चिके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है, जो हानिसे विशेष अधिक है ; क्योंकि, वह नारक सम्य दृष्टियोंमें संचित है। उच्च और नीच गोत्रोंका अवस्थान नहीं है। इस प्रकार उत्कष्ट अल्पबहत्व समाप्त हुआ। पांच ज्ञानावरण प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान सदृश्य हैं । नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद और पांच अन्तगय प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं। सातावेदनीयकी जघन्य हानि स्तोक है। वृद्धि विशेष अधिक है। अवस्थान नहीं है। असातावेदनीयके प्रकृत अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य हानि स्तोक है और वृद्धि उससे असंख्यातगुणी है। सम्यग्मिथ्यात्वकी प्ररूपणा सम्यक्त्व प्रकृतिके समान है । हास्य, रति, अरति और शोक इनकी जघन्य हानि स्तोक व वृद्धि उससे विशेष अधिक है। अबस्थान नहीं है। स्त्री और नपुंसक वेदोंकी जघन्य हानि स्तोक व वृद्धि असंख्यातगुणी है। अवस्थान नहीं है। नरकगति नामकर्मकी जघन्य हानि स्तोक व वृद्धि असंख्यातगुणी है। तिर्यंचगति * ताप्रतो । (हाणी ) ' इति पाः। प्रतिषु ' उवढियस्स' इति पाठः । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४८१ जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । मणुसगइणामाए जह० वड्ढी हाणी अवट्ठाणं च तुल्लं । एवं देवगदीए। ओरालिय-वेउविय-तेजा-कम्मइयसरीर-तप्पाओग्गबंधण-संघाद-अंगोवंग-वण्ण गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सासपसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिणणामाणं जह० वड्ढी हाणी अवट्ठाणं च तुल्लं । णीचागोदस्स जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा। अवट्ठाणं णत्थि ' उच्चागोदस्स जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । अवट्ठाणं णत्थि । एव पदेससंकमो पदणिक्खेवो समत्तो। पदेससंकमो वढिसंकमो कायव्वो । तं जहा- मदिणाणाव णस्स अस्थि असंखेज्जभागवड्ढि-असंखेज्जभागहाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा । सेसपदाणि णत्थि । सेसचदुणाणावरणीय-चक्खुदंसणावरणीय पंचंतराइयाणं मदिणाणावरणभंगो। णिद्दापयलाणं अत्थि असंखेज्जभागवड्ढि-हाणि-असंखेज्जगुणवड्ढि-असंखेज्जगुणहाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा। थीणगिद्धितियस्स अस्थि असंखेज्जभागवड्ढि-असंखेज्जभागहाणी । संखेज्जभागवड्ढि-संखेज्जगुणवड्ढीयो वि अत्थि, मिच्छत्तं गदसम्माइट्ठिम्मि थीणगिद्धितियसंतादो अण्णपयडीहितो* आगयदव्वस्स-संखेज्जभाग-गुणन्भहियस्स वि नामकर्मको जवन्य हानि स्तोक और वृद्धि उससे असंख्यातगुणी है । मनुष्यगति नामकर्मकी जघन्य वृद्धि हानि और अवस्थान तीनों समान हैं । इसी प्रकार देवगतिके सम्बन्धमे भी कहना चाहिये । औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, उनके योग्य बन्धन, संघात व अंगोपांग वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलबु, उपघात, पग्घात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर। पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण; इन नामप्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों तुल्य हैं। नीचगोत्रकी जघन्य हानि स्तोक व वृद्धि असंख्यातगुणी है। अवस्थान नहीं है । उच्चगोत्रकी जघन्य हानि स्तोक व वृद्धि असंख्यातगुणो है । अवस्थान नहीं है। इस प्रकार प्रदेशसंक्रपमें पदनिक्षेप समाप्त हुआ। प्रदेशसंक्रममें वृद्धिसंक्रमका कथन करते हैं । यथा- मतिज्ञानावरणके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, अवस्थान और अवक्तव्य ये चार संक्रमपद हैं । शेष पद नहीं हैं। शेष चार ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय कर्मोकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। निद्रा और प्रचलाके असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य ये संक्रमपद हैं। स्त्यानगृद्धित्रिकके असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि संक्रम है । संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि पद भी हैं, क्योंकि, मिथ्यात्वको प्राप्त हुए सम्यग्दृष्टि में स्त्यानगृद्धि आदि तीनोंके सत्वकी अपेक्षा अन्य प्रकृतियोंसे आया हुआ द्रव्य संख्यातभाग अधिक व संख्यातगुणा अधिक भी पाया ४ अ-काप्रत्योः 'पदेससंकमो' इति पाठः। * तापतौ संतादो । अण्णपयडीहिंतो' इति पाठः । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ ) छक्खंडागमे संतकम्म उवलंभादो । अत्थि असंखे० गुणवड्ढि-हाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा । सादस्त अत्थि असंखे. भागवड्ढिअसंखे० भागहाणि-अवत्तव्वसंकमा । सेसाणि पदाणि णत्थि । असादस्स असंखे० भागवड्ढि-असंखे० भागहाणि-असंखे० गुणवड्ढी-असंखे० गुणहाणि-अवत्तव्वसंकमा अत्थि । सेसपदागि: णत्थि । मिच्छत्तस्स असंखे० भागवड्ढि--हाणि--असंखेज्जगुणवड्ढि--असंखे० गुणहाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा अस्थि । सेसाणि पदाणि णत्थि । सम्मामिच्छत्तस्स अस्थि असंखे० भागवढि-हाणिअसंखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणहाणि-अवत्तव्वसंकमा । सेसाणि पदाणि णत्थि । सम्मत्तस्स असंखे० भागहाणि-असंखे० गुणवड्ढि-हाणि-अवत्तव्वसंकमा अस्थि । सेसपदाणि णत्थि । अणंताणुबंधीणं अत्थि असंखे० भागवड्ढि-असंखे० भागहाणिसंखे० भागवड्ढि-संखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणहाणि-अवट्ठाणअवत्तव्वसंकमा । सेसाणि पदाणि णत्थि । अण्णं कसायाणं अत्थि असंखे० भागवड्ढि-असंखे० भागहाणि-असंखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणहाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा । सेसपदाणि णत्यि । तिण्णं संजलणाणं अत्थि असंखे० भागवड्ढि-असंखे० भागहाणि-संखे० भागवड्ढि-संखे० भागहाणि-संखे० गुणवड्ढि-संखे० गुणहाणि-असंखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणहाणि-अवठ्ठाण-अवत्तव्वसंकमा। लोभसंजलणाए अत्थि असंखे० भागवड्ढि-असंखे० भागहाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा । सेसाणि पदाणि पत्थि । जाता है। उनके असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य संक्रम हैं । सातावेदनीयके असंख्यातभागवद्धि, असंख्यातभागहानि और अवक्तव्य संक्रम हैं । शेष पद नहीं हैं । असातावेदनीयके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि' असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य संक्रम है। उसके शेष पद नहीं हैं। मिथ्यात्वके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य संक्रम हैं । शेष पद नहीं हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य संक्रम हैं। शेष पद नहीं हैं। सम्यक्त्व प्रकृतिके असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य संक्रम हैं। शेष पद नहीं हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोधादिकोंके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य संक्रम हैं । शेष पद नहीं हैं । आठ कषायोंके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि। असंख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य संक्रम हैं। शेष पद नहीं हैं । तीन संज्वलन कषायोंके असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य संक्रमपद हैं । संज्वलन लोभके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, अवस्थान और ४ अप्रतौ 'विसेसपदाणि', काप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः, 'तापती ( वि ) सेसपदाणि' इति पाठः । ताप्रतौ ' अवत्तव्व-अवठाणसंकपा' इति पाट:। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४८३ हस्स-रदि अरदि-सोगाणं असादभंगो। पुरिसवेदस्स कोधसंजलणभंगो। इत्थिणवंसयवेदाणं अत्थि असंखे. भागवड्ढि-असंखे० भागहाणि-संखे० भागवड्ढि-संखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणवढि-असंखे० गुणहाणि-अवत्तव्वसंकमा । सेसपदाणि पत्थि । भय-दुगुंछाणं अत्थि असंखे० भागवड्ढि-असंखे० भागहाणि-असंखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणहाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा । सेसपदाणि णत्थि। णिरयगइणामाए अत्थि असंखे० भागवड्ढि संखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणवड्ढि-असंखे० भागहाणि-असंखे० गुणहाणि-अवत्तव्वसंकमा । तिरिक्खगइणामाए अत्थि असंखे० भागवड्ढि-संखे० भागवड्ढि-संखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणवड्ढिअसंखे० भागहाणि असंखे० गुणहाणि-अवत्तव्वसंकमा । मणुस्सगइणामाए अस्थि असंखे० भागवड्ढि-संखे० भागवड्ढि-संखे० गुणवड्ढि असंखे० गुणवड्ढि-असंखे० भागहाणि-असंखे० गुणहाणि-अवत्तध्वसंकमा। सेसपदाणि पत्थि । देवगइणामाए अत्थि असंखे० भागवड्ढि-संखे० भागवड्ढि-संखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणवड्ढिअसंखे० भागहाणि-संखे० गुणहाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा । सेसं जाणिदूण वत्तव्वं । एवं संकमे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । अवक्तव्य संक्रम पद हैं । शेष पद नहीं हैं । हास्य, रति, अरति और शोक की प्ररूपणा असातावेदनीयके समान है । पुरुषवेदकी प्ररूपणा मंज्वलन क्रोधके समान है । स्त्री और नपुंसक वेदोंके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि. सख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य संक्रमपद हैं । शेष पद नहीं हैं। भय और जगप्साके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य संक्रमपद हैं। शेष पद नहीं हैं । नरकगति नामकर्मके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य संक्रमपद हैं। तिर्यग्गति नामकर्मके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य संक्रमपद हैं। मनुष्यगति नामकर्मके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य संक्रामपद हैं । शेष पद नहीं हैं । देवगति नामकर्मके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभाग. वृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि असंख्यातगुणवृद्धि असंख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य संक्रामपद हैं। शेष कथन जानकर करना चाहिये। इस प्रकार संक्रम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। * क. पा. सु. पृ. ४५६, ६२५-३१. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ लेस्साणुयोगद्दार ० असुर- सुर-णरवरोरग-गुणिदविदेहि वंदिए चलणे । मिथूण अरस्स तदो लेस्सणियोगं परूवेमो ॥ १ ॥ एत्थ लेस्सा णिक्खिविदव्वा, अण्णहा पयदलेस्सावगमाणुववत्तदो । तं जहाणामलेस्सा ट्ठवणलेस्सा दव्वलेस्सा भावलेस्सा चेदि लेस्सा चउव्विहा । लेस्सा - सद्दो णामलेस्सा । सब्भावासब्भाव टुवणाए दुविदव्वं ट्ठवणलेस्सा । दव्वलेस्सा दुविहा आगमदव्वलेस्सा णोआगमदव्वलेस्सा चेदि । आगमदव्वलेस्सा सुगमा । णोआगमदव्वलेस्सा तिविहा जाणुगसरीर भविय ( -तव्वदिरित्तणो आगमदव्वलेस्साभेएण । जाणुसरीरभविय ) नोआगमदव्वलेस्साओ सुगमाओ । तव्वदिरित्तदब्वलेस्सा पोग्गलक्खंधाणं चक्खिदियगेज्झो वण्णो । सो छव्विहो किण्णलेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा पम्मलेस्सा सुक्कलेस्सा चेदि । तत्थ भमरंगार - कज्जलादीणं कण्णलेस्सा | बि-कदलीदावपत्तादीणं गीललेस्सा । छार-खर- कवोदादीणं काउलेस्सा | कुंकुम - जवाकुसुम - कुसुंभादीणं तेउलेस्सा । तडवड - पउमकुसुमादीणं पम्मलेस्सा | हंस-बलायादीणं सुक्कलेस्सा । वृत्तं च असुरेन्द्र, सुरेन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र और मुनीन्द्र इनके समूहोंके द्वारा वन्दित ऐसे अर जिनेन्द्रके चरणोंको नमस्कार करके लेश्या अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा करते हैं ।। १ ।। यहां लेश्याका निक्षेप करना चाहिये, क्योंकि, उसके विना प्रकृत लेश्याका अवगम नहीं हो सकता । उसका निक्षेप इस प्रकार है- नामलेश्या, स्थापनालेश्या, द्रव्यलेश्या और भावलेश्या इस प्रकार लेश्या चार प्रकारकी है । उनमे ' लेश्या ' यह शब्द नामलेश्या कहा जाता है । सद्भाव स्थापना और असद्भावस्थापना रूपसे जो लेश्याकी स्थापना की जाती है। वह स्थापनालेश्या है । द्रव्यलेश्या दो प्रकारकी है- आगमद्रव्यलेश्या और नोआगमद्रव्यलेश्या । इनमें आगमद्रव्यलेश्या सुगम है । नोआगमद्रव्यलेश्या ज्ञायकशरीर, और भावी तद्व्यतिरिक्त arrature भेदसे तीन प्रकारकी है । इनमें ज्ञायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्यलेश्यायें सुगम है । चक्षु इंद्रियके द्वारा ग्रहण करने योग्य पुद्गलस्कन्धोंके वर्णको तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यलेश्या कहते हैं । वह छह प्रकारकी हैं कृष्णलंश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । उनमें कृष्णलेश्या भ्रमर, अंगार और कज्जल आदि होती है । नीम, कदली और दावके पत्तों आदिके नीललेश्या होती है । छार, खर और कबूतर आदिके कापोतलेश्या जानना चहिये । कुंकुम, जपाकुसुम और कसूम कुसुम आदिकी लेश्या तेजलेश्या कहलाती है । तडबडा और पद्म पुष्पादिकोंके पद्मलेश्या होती है । हंस और बलाका आदिकी शुक्ललेश्या अनुभूत है । कहा भी है ताप्रतौ ' चरणे' इति पाठः । अ-काप्रत्योः ' भावामब्भाव ' इति पाठः । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेस्साणुयोगद्दारे णोआगमदव्वलेस्सा ( ४८५ किण्णं भमरसवण्णा णीला पुण णीलिगुणियसंकासा । काऊ कवोदवण्णा तेऊ तवणिज्जवण्णाभा ।। १ ।। पम्मा पउमसवण्णा सुक्का पुण कासकुसुमसंकासा । किण्णादिदव्वलेस्सावण्ण विसेसा मुणेयव्वा ।। २ ।। भावलेस्सा दुविहा आगम-णोआगमभेएण । आगमभावलेस्सा सुगमा । णोआगमभावलेस्सा मिच्छत्तासंजम-कसायाणुरंजियजोगपवुत्ती कम्मपोग्गलादाणणिमित्ता, मिच्छत्तासंजम-कसायजणिदसंसकारो त्ति वुत्तं होदि । एत्थ णेगमणयवत्तव्वएण णोआगमदव्व-भावलेस्साए पयदं । तत्थ ताव दव्वलेस्सावण्णणं कस्सामो- जीवेहि अपडिगहिदपोग्गलक्खंधाणं किण्ण-णील-काउ-तेउ-पम्म-पुक्कसण्णिदाओ छलेस्साओ होंति। अणंतभागवड्ढि-असंखे० भागवड्ढि-संखे०भागवढि--संखे०गुणवड्ढि-असंखे० गुणवड्ढि-अणंतगुणवढिकमेण असंखे० लोगमेत्तवण्णभेदेण पोग्गलेसु ट्ठिदेसु किमळं छच्चेव लेस्साओ ति एत्थ णियमो कीरदे? ण एस दोसो, पज्जवणयप्पणाए लेस्साओ असंखे०लोगमेत्ताओ, दवट्टियणयप्पणाए पुण लेस्साओ छच्चेव होंति । संपहि एदासि छण्णं लेस्साणं सरीरमस्सिदूण परूवणं कस्सामो। तं जहातिरिक्खजोणियाणं सरीराणि छलेस्साणि- काणिचि किण्णलेस्सियाणि काणिचि णील कृष्णलेश्या भ्रमरके सदृश, नीललेश्या नील गुणवालेके सदृश, कापोतलेश्या कबूतर जैसे वर्णवाली, तेजलेश्या सुवर्ण जैसी प्रभावाली, पद्मलेश्या पद्मके वर्ण समान, और शुक्ललेश्या कांसके फूलके समान होती है। इन कृष्ण आदि द्रव्यलेश्याओंको क्रमसे उक्त वर्णविशेषों रूप जानना चाहिये ।। १-२॥ ___ आगम और नोआगमके भेदसे भावलेश्या दो प्रकार की है। इनमें आगमभावलेश्या सुगम है। कर्म-पुदगलोंके ग्रहण में कारणभूत जो मिथ्यात्व, असंयम और कषायसे अनुरंजित योगप्रवृत्ति होती है उसे नोआगमभावलेश्या कहते हैं। अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्व, असंयम और कषायसे उत्पन्न संस्कारका नाम नोआगमभावलेश्या है। यहां नैगम नय के कथनकी अपेक्षा नोआगम द्रव्यलेश्या और भावलेश्या प्रकृत हैं। उनमे पहिले द्रव्यलेश्याका वर्णन करते हैं-- जीवोंके द्वारा अप्रतिगृहीत पुद्गलस्कन्धोंकी कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल संज्ञावाली छह लेश्यायें होती हैं । शंका-- अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके क्रमसे असंख्यात लोक प्रमाण वर्गों के भेदसे पुद्गलोंके स्थित रहनेपर 'छह ही लेश्यायें हैं ' ऐसा नियम किसलिये किया जाता है ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यद्यपि पर्यायाथिक नयकी विवक्षासे लेश्यायें असंख्यात लोक मात्र हैं, परन्तु द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षासे वे लेश्यायें छह ही होती हैं । अब शरीरका आश्रय करके इन छह लेश्याओंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार हैतिर्यंच योनिवाले जीवोंके शरीर छहों लेश्यावाले होते हैं-- कितने ही शरीर कृष्णलेश्यावाले, Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ) छक्खंडागमे संतकम्म लेस्सियाणि काणिचि काउ० काणिचि तेउ० काणिचि पम्म०काणिचि सुक्कलेस्सियाणि त्ति । तिरिक्खजोणिणीणं मणुस्साणं मणुसिणीणं च छच्चेव लेस्साओ। देवाणं मूलणिव्वत्तणादो तेउ-पम्म-सुक्काणि ति तिलेस्साणि सरीराणि, उत्तरणिवत्तणादो छलेस्साणि सरीराणि। देवीणं मूलणिवत्तणादो तेउलेस्साणि सरीराणि, उत्तरणिव्वत्तणादो छलेस्साणि । णेरइयाणं किण्णलेस्साणि । पुढविकाइयाणं छलेस्साणि । आउकाइयाण सुक्कलेस्साणि । अगणिकाइयाणं तेउलेस्साणि । वाउकाइयाणं काउलेस्साणि। वण्णप्फदिकाइयाणं छलेस्साणि । सन्वेसि सुहमाणं सरोराणि काउलेस्साणि। जहा बादरपज्जत्ताणं तहा बादरअपज्जत्ताणं । ओरालियसरीराणि छलेस्साणि । वेउब्वियं मूलणिवत्तणादो किण्णलेस्सियं तेउले० पम्मले० सुक्कले० वा । तेजइयं तेउले० । कम्मइयं सुक्कलेस्सियं। सरीरेसु सव्ववण्णपोग्गलेसु संतेसु कधमेदस्स सरीरस्स एसा चेव लेस्सा होदि त्ति णियमो ? ण एस दोसो, उक्कट्ठवण्णं पडुच्च तण्णिद्देसादो। तं जहा कितने ही नीललेश्यावाले, कितने ही कापोतलेश्यावाले, कितने ही तेजलेश्यावाले, कितने ही पद्मलेश्यावाले, और कितने ही शुक्ललेश्यावाले होते हैं। तिर्यंच योनिमतियों, मनुष्यों और मनुष्यनियोंके भी छहों लेश्यायें होती हैं। देवोंके शरीर मूल निर्वर्तनाकी अपेक्षा तेज, पद्म और शुक्ल इन तीन लेश्याओंसे युक्त होते हैं। परन्तु उत्तर निर्वर्तनाकी अपेक्षा उनके शरीर छहों लेश्याओंसे संयुक्य होते हैं। देवियोंके शरीर मूल निर्वर्तनाकी अपेक्षा तेजलेश्यासे संयुक्त होते हैं, परन्तु उत्तर निर्वर्तनोंकी अपेक्षा वे छहों लेश्याओं में से किसी भी लेश्यासे संयुक्त होते हैं। नारकियोंके शरीर कृष्णलेश्यासे युक्त होते हैं। पृथिवीकायिकोंके शरीर छहों लेश्याओंमें किसी भी लेश्यासे संयुक्त होते हैं । अप्कायिक जीवोंके शरीर शुक्ललेश्यावाले होते हैं । अग्निकायिक जीवोंके शरीर तेजलेश्याओंसे युक्त होते हैं। वायुकायिकों के शरीर कापोतलेश्वावाले तथा वनस्पतिकायिकोंके शरीर छहों लेश्यावाले होते हैं। सब सूक्ष्म जीवोंके शरीर कापोतलेश्यासे संयुक्त होते हैं। बादर अपर्याप्तोंके शरीर बादर पर्याप्तोंके समान लेश्यावाले होते हैं। औदारिकशरीर छह लेश्या युक्त होते हैं। वैक्रियिकशरीर मूलनिर्वर्तनाकी अपेक्षा कृष्णलेश्या, तेजलेश्या, पद्मलेश्या अथवा शुक्ललेश्यासे संयुक्त होता है। तैजसशरीर तेजलेश्यावाला तथा कार्मणशरीर शुक्ललेश्यावाला होता है। __ शंका-- शरीर तो सब वर्णवाले पुद्गलोंसे संयुक्त होते हैं; फिर इस शरीरकी यही लेश्या होती है, ऐसा नियम कैसे हो सकता है ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट वर्णकी अपेक्षा वैसा निर्देश किया 28 अप्रतो 'सुक्कलेस्सिया त्ति' इति पाठः । णिरया किण्हा कप्पा भावाणुगया हु तिसुर-णर-तिरिये। उत्तरदेहे छक्कं मोगे रवि-चंद-हरिदंगा ।। बादरआउ-तेऊ सुक्का तेऊ य वाउकायाणं • गोमुत्त-मुग्गवण्णा कमसो अव्वत्तवपणो य ।। सम्वेसि सुहमागं कावोदा सव्व विग्महे सुक्का। सब्धो मिस्सो देहो कवोदवण्गो हवे णियमा ।। गो. जी. ४९५-९७. ४ ताप्रतौ ' तेउलेस्सियं तेजइयं ' इति पाठः । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेस्साणु पोगद्दारे किण्णलेस्सादिदव्वगुणाणं अप्पाबहुअं ( ४८७ कालयवण्णुक्कळं जं सरीरं तं किण्णलेस्सियं । णीलवण्णुक्कळं जं तं णीललेस्सियं । लोहियवण्णुक्कटें जं सरीरं तं तेउलेस्सियं । हालिद्दवण्णुक्कठे पम्मलेस्सियं । सुक्किल्लवण्णुक्कट्ठ सुक्कलेस्सियं । एदेहि वण्णेहि वज्जिय वण्णंतरावण्णं काउलेस्सियं । संपहि य लेस्सावंतचक्खुप्पासदव्वस्त गुणाणमप्पाबहुअं कीरदे । तं जहा-किण्णलेस्सदव्वस्स सुक्किलगुणा थोवा, हालिया अणंतगुणा, लोहिदया अणंतगुणा, णीलया अणंतगुणा, कालया अणंतगुणा । णीललेस्सदव्वस्स सुक्किलगुणा थोवा, हालिद्दया अणंतगुणा, लोहिदया अणंतगुणा, कालया अणंतगुणा, णीलया अणंतगुणा। काउलेस्सिए तिण्णिवियप्पा । तं जहा-सुक्किला थोवा, हालिद्दया अणंतगुणा, कालया अणंतगुणा, लोहिदया अणंतगुणा, णीलया अणंतगुणा । बिदियवियप्पो उच्चदे-सुक्किला थोवा, कालया अणंतगुणा, हालिया अणंतगुणा, णीलया अणंतगुणा, लोहिदया अणंतगुणा । तदियवियप्पो उच्चदे-कालया थोवा, सुक्किला अणंतगुणा, णीलया अणं० गुणा, हालिद्दया अणंतगु०, लोहिदया अणंतगुणा । तेउलेस्सिएसु कालगुणा थोवा, णीलया अणंतगुणा, सुक्किला अणंतगुणा, हालिद्दया अणंतगुणा, लोहिदया अणंतगुणा। पम्माए तिण्णिवियप्पा । तं जहा*-कालया थोवा, णीलया अणंतगुणा, सुक्किलया अणंतगुणा, गया है। यथा-- जिस शरीरमें श्याम वर्णकी उत्कृष्टता है वह कृष्णलेश्या युक्त कहा जाता है। जिसमें नील वर्णकी प्रधानता है वह नीललेश्यावाला, लोहित-वर्णकी प्रधानता युक्त जो शरीर है वह तेजलेश्यावाला, हरिद्रा वर्णकी उत्कर्षता युक्त शरीर पद्मलेश्यावाला, तथा शुक्ल वर्णकी प्रधानता युक्त शरीर शुक्ललेश्यावाला कहा जाता है। इन वर्णोंको छोड़कर वर्णान्तरको प्राप्त हुए शरीरको कापोतलेश्यावाला समझना चाहिये। अब चक्षुसे ग्रहण किये जानेवाले लेश्यायुक्त द्रव्यके गुणोंके अल्पबहुत्वको बतलाते हैं । यथा-- कृष्णलेश्यायुक्त द्रव्यके शुक्ल गुण स्तोक, हारिद्र गुण अनन्तगुणे, लोहित गुण अनन्तगुणे, नील गुण अनन्तगुणे, और श्याम गुण अनन्तगुणे होते हैं । नीललेश्यायुक्त द्रव्यके शुक्ल गुण स्तोक, हारिद्र गुण अनन्तगुणे, लोहित गुण अनन्तगुणे, श्याम गुण अनन्तगुणे। और नील गुण अनन्तगुणे होते हैं। कापोतलेश्यावालेके विषयमें तीन विकल्प हैं । यथा- उसके शुक्ल गुण स्तोक हैं, हारिद्र गुण अनन्तगुणे हैं, श्याम गुण अनन्तगुणे हैं, लोहित गुण अनन्तगुणे हैं, और नील गुण अनन्तगुणे हैं। द्वितीय विकल्पका कथन करते हैं- शुक्ल गुण स्तोक हैं, श्याम गुण अनन्तगुणे हैं, हारिद्र गुण अनन्तगुणे हैं, नील गुण अनन्तगुणे हैं, और लोहित गुण अनन्तगुणे हैं। तृतीय विकल्पका कथन करते हैं- श्याम गुण स्तोक हैं, शुक्ल गुण अनन्तगुणे हैं, नील गुण अनन्तगुणे हैं, हारिद्र गुण अनन्तगुणे हैं, और लोहितगुण अनन्तगुणे हैं तेजलेश्यावालोंमें श्याम गुण स्तोक, नील गुण अनन्तगुणे, शुक्ल गुण अनन्तगुणे, हारिद्र गुण अनन्तगुणे, और लोहित गुण अनन्त गुण होते हैं। पद्मलेश्यावालेके विषयमें तीन विकल्प हैं । यथा- प्रथम विकल्पके अनुसार श्याम गुण स्तोक, नील गुण अनन्तगुणे, शुक्ल * अ-काप्रत्योः ' वियप्पा जहा' इति पाठः । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ) छक्खंडागमे संतकम्म लोहिदया अणंतगुणा, हालिया अणंतगुणा, बिदियवियप्पो उच्चदे- कालया थोवा, णीलया अणंतगुणा, लोहिदया अणंतगुणा, सुक्किलया अणंतगुणा, हालिद्दया अणंतगुणा। तदियवियप्पो वुच्चदे। तं जहा- कालया थोवा, णीलया अणंतगुणा, लोहिदया अणंतगुणा, हालिया अणंतगुणा, सुक्किला अणंतगुणा । णादिविकत्थेण गारेण एसा सुक्कुक्कदा पम्मा (?) । सुक्काए एक्को वियप्पो, तं जहा- कालया थोवा, णीलया अणंतगुणा, लोहिदया अणंतगुणा, हालिया अणंतगुणा। सुक्किला वियद्रेण अणंतगुणा । एवं किण्णाए एक्को वियप्पो, णीलाए एक्को, काऊए तिण्णि, तेऊए एक्को, पम्माए तिष्णि, सुक्काए एक्को । काउलेस्सा णियमा दुढाणिया, सेसाओ लेस्साओ दुट्ठाण-तिढाण-चदुट्ठाणियाओ। एवं दव्वलेस्सा परूविदा । संपहि भावलेस्सा वुच्चदे। तं जहा- मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगजणिदो जीवसंसकारो भावलेस्सा णाम । तत्थ जो तिव्वो सा काउलेस्सा। जो तिव्वयरो सा णीललेसा। जो तिव्वतमो सा किण्णलेस्सा। जो मंदो सा तेउलेस्सा। जो मंदयरो सा पम्मलेस्सा। जो मंदतमो सा सुक्कलेस्सा। एदाओ छप्पि लेस्साओ अणंतभागवड्ढि--असंखे० भागवड्ढि--संखे०भागवड्ढि--संखे० गुणवड्ढि-असंखेज्जगुणवड्ढि-- गुण अनन्तगुणे, लोहित गुण अनन्तगुणे, और हरिद्र गुण अनन्तगुणे होते हैं। द्वितीय विकल्पके अनुसार श्याम गुण स्तोक, नील गुण अनन्तगुणे, लोहित गुण अनन्तगुणे, शुक्ल गुण अनन्तगुणे, और हारिद्र गुण अनन्तगुणे होते हैं । तृतीय विकल्पके अनुसार श्याम गुण स्तोक, नील गुण अनन्तगुणे, लोहित गुण अनन्तगुणे, हारिद्र गुण अनन्तगुणे, और शुक्ल गुण अनन्त गुणे होते हैं । अन्तमें गौर वर्णकी विशेषता होनेसे तिसरे विकल्पमें इसे शुक्लोत्कृष्ट कहते हैं। शुक्ललेश्याके विषयमें एक विकल्प है । यथा श्याम गुण स्तोक हैं, नील गुण अनन्तगुणे हैं, लोहित गुण अनन्तगुणे हैं, हारिद्र गुण अनन्तगुणे हैं, और शुक्ल उत्कट गुण अनन्तगुण हैं। इस प्रकार कृष्णलेश्याके एक, नीललेश्याके एक, कपोतके तीन, तेजके एक, पद्मके तीन और शुक्लके एक; इतने इन द्रव्यलेश्याओंके विषय में अल्पबहुत्वके विकल्प हैं। कापोतलेश्या नियमसे द्विस्थानिक तथा शेष लेश्यायें द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक व चतःस्थानिक हैं। इस प्रकार द्रव्य लेश्याकी प्ररूपणा की गयी है। अब भावलेश्याका कथन करते हैं। यथा- मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगसे उत्पन्न हुए जीवके संस्कारको भावलेश्या कहते हैं। उसमें जो तीव्र संस्कार है उसे कापोतलेश्या, उससे जो तीव्रतर संस्कार है उसे नीललेश्या, और जो तीव्रतम संस्कार है उसे कृष्णलेश्या कहा जाता है । जो मन्द संस्कार है उसे तेजलेश्या, जो मन्दतर संस्कार है उसे पद्मलेश्या, और जो मन्दतम संस्कार है उसे शुक्ललेश्या कहते हैं। इन छहों लेश्याओं में से प्रत्येक अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्त मप्रती । सुक्कुकदा' इति पाठः । ४ काप्रती 'सुक्किला विय?ण अणंतगुणा ' इति पाठः। ताप्रती 'सुक्कुक्कदा। पम्मा-सुक्काए' इति पाठः । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेस्सा णुयोगद्दारे लेस्साठ्ठाणाणुभागप्पाबहुअं ( ४८९ अगंतगुणवड्ढिकमेण पादेक्कं छट्ठाणपदिदाओ। काउलेस्सा णियमा दुट्ठाणिया, सेसाओ लेस्साओ दुट्ठाण-तिट्ठाण-चदुट्ठाणियायो । एत्थ तिव्व-मंददाए अप्पाबहुअं । तं जहा- सव्वमंदाणुभागं जहग्णयं काउट्ठाणं । णीलाए जहण्णयमणंतगुणं । किण्णाए जहण्णयमणंतगुणं । तेऊए जहण्णयमणंतगुणं । पम्माए जहण्णयमणंतगुणं । सुक्काए जहण्णयमणंतगुणं । काऊए उक्कस्सयमणंतगुणं। णीलाए उकस्सयमणंतगुणं । किण्णाए उक्कस्सयमणंतगुणं । तेऊए उक्कस्सयमणंतगुणं । पम्माए उक्कस्सयमणंतगुणं सुक्काए उक्कस्सयमगंतगुणं एवं लेस्से त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । गुणवृद्धिके क्रमसे छह स्थानोंमें पतित है । कापोतलेश्या नियमसे द्विस्थानिक तथा शेष लेश्यायें द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक व चतुस्थानिक है। यहां तीव्रता और मन्दताका अल्पबहुत्व इस प्रकार है- कापोतका जघन्य स्थान सबसे मन्द अनुभागसे संयुक्त है । नीललेश्याका जघन्य स्थान उससे अनन्तगुणा है । कृष्णलेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है । तेजलेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है। पद्मलेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है । शुक्ललेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है । कापोतका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । नीलका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है। कृष्णका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । तेजका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । पद्मका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । शुक्लका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । इस प्रकार लेश्या अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। . प्रतिषु 'पादेवक' इति पाठः । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ लेस्साकम्माणुयोगद्दारं कुंथुमहंत संथुवमणतणाणं. अणाइ-मज्झंतं । णमिऊण लेस्सयम्म अणुयोग वण्णइसामो ॥ १ ॥ (लेस्साओ) किण्णादियाओD, तासि कम्मं मारण-विदारण-चूरणादिकिरियाविसेसो, तं लेस्सायम्मं वत्तइस्सामो। तं जहा- किण्णलेस्साए परिणदजीवो णियो कलहसीलो रउद्दो अणुबद्धवेरो चोरो चप्पलओ पारदारियो* महु-मांस-सुरापसत्तो जिणसासणे अदिण्णकण्णो असंजमे मेरु व्व अविचलियसरूवो होदि । वुत्तं च चंडो ण मुवइ वेरं भंडणसीलो य धम्मदयरहिओ। दुट्ठो ण य एइ वसं किण्णाए संजुओ जीवो+।। १ ।। दावण्णादिसु पादवविवज्जियं णिविण्णाणं णिबुद्धि माण-मायबहुलं णिद्दालुअं सलोहं हिंसादिसु मज्झिमज्झवसायं कुणइ णीललेस्सा । वुत्तं च-- मंदो बुद्धीहीणो णिविण्णाणी य विसयलोलो य । माणी पायी य तहा आलस्सो चेव भेज्जो य ।। २ ।। इन्द्रादिकोंसे संस्तुत, अनन्तज्ञानी, महान् और आदि मध्य व अन्तसे रहित ऐसे कुंथु जिनेन्द्रको नमस्कार करके लेश्याकर्म अनुयोगद्वारका कथन करते हैं ॥ १।। लेश्यायें कृष्णादिक हैं; उनका कर्म जो मारण, विदारण और चोरी आदि क्रियाविशेष रूप है वह लेश्याकर्म कहलाता है; उस लेश्याकर्मका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-कृष्णलेश्यासे परिणत जीव निर्दय. झगडाल. रौद्र. वैरकी परम्परासे संयक्त, चोर, असत्यभाषी परदाराका अभिलाषी, मधु मांस व मद्यमें आसक्त, जिनशासनके श्रवणमें कानको न देनेवाला और असंयममें मेरके समान स्थिर स्वभाववाला होता है। कहा भी है-- कृष्णलेश्यासे संयुक्त जीव तीव्रक्रोधी, वैरको न छोड़नेवाला, गाली देने रूप स्वभावसे सहित, दयाधर्मसे रहित, दुष्ट और दूसरोंके वश में न आनेवाला होता है ॥ १ ॥ नीललेश्या जीवको दावण्ण आदिकोंमें पादवसे रहित (? ', विवेक रहित, बुद्धिविहीन, मान व मायाकी अधिकतासे सहित, निद्रालु, लोभसंयुक्त, और हिंसादि कर्मों में मध्यम अध्यवसायसे यक्त करती है। कहा भी है-- जीव नीललेश्याके वशमें होकर मन्द, बुद्धिविहीन, विवेकसे रहित, विषयलोलुप, प्रतिषु 'संथुवमतगणाणं ' इति गठः। ताप्रतौ 'किण्णदियाओ' इति पाठः । । प्रतिष 'कम्माणं' इति पाठः। ॐ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिष 'चोरणादि', इति पाठ: * प्रतिषु 'पागरियो' इति पाठः । * गो. जी. ५०८. ४ अ-काप्रत्योः 'णिविण्णाग', ताप्रतौ 'णिविण्णाणी' इति पाठः। अ-काप्रत्यो: 'णिव्वुद्धि', ताप्रतौ णिब्बुद्धी' इति पाठः । मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'चेव भुज्जो' इति पारः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेस्साकम्माणुयोगद्दारे किण्णा दिलेस्साक णिद्दावचनबहुलो घणघण्णे* होइ तिव्वसण्णाओ । लाए लेस्साए वसेण जीवो हु पाभो ॥ ३ ॥ किण्णलेस्साए वृत्तसव्वकज्जेसु जहण्णुज्जमं काउलेस्सा कुणइ । वृत्तं च रूसइ दिइ अण्णं दूसइ बहुसो य सोय - भयबहुलो । असुअइ परिहव परं पमंसइ य अप्पयं बहुसो || ४ || णय पत्तियइ पर सो अप्पाणं पिव परे वि मण्णंतो । तूसइ अहिवंतो ण य जाणइ हाणि वड्ढीयो ।। ५ ।। मरणं पत्थेइ रणे देइ सुबहुअं पि थुव्वमाणो दु । ण गणइ कज्जमकज्जं काऊए पेरियो जीवो ।। ६ ।। अहिंसयं महु-मांस-सुरासेवावज्जियं * सच्चमहं चत्तचोरिय - परयारं एदेसु कज्जेसु जहण्णुज्जमं जीवं तेउलेस्सा कुणइ । वृत्तं च जाणइ कज्जमकज्जं सेयमसेयं च सव्वसमपासी । दय - दाणरओ मउओ तेऊए कीरए जीवो D ॥ ७ ॥ ( ४९१ अभिमानी, मायाचारी, आलसी, अभेद्य, निद्रा ( या निन्दा ) व धोखेबाजी में अधिक धन-धान्य में तीव्र अभिलाषा रखनेवाला, तथा अधिक आरम्भको करनेवाला होता है ।। २-३ ॥ कापोत लेश्या जीवको कृष्णलेश्या के सम्बन्ध में ऊपर कहे गये समस्त कार्योंमें जघन्य उद्यमशील करती है । कहा भी है यह जीव कापोतलेश्यासे प्रेरित होकर रुष्ट होता है; दूसरोंकी निन्दा करता है, उन्हें बहुत प्रकार से दोष लगाता है, प्रचुर शोक व भयसे संयुक्त होता है, दूसरोंसे असूया ( ईर्षा ) करता है, परका तिरस्कार करता है, अपनी अनेक प्रकारसे प्रशंसा करता है, वह अपने ही समान दूसरों को भी समझता हुआ अन्यका कभी विश्वास नहीं करता है, अपनी प्रशंसा करनेवालोंसे संतुष्ट होता हैं, हानि-लाभको नहीं जानता है, युद्धमें मरणकी प्रार्थना करता है, दूसरों द्वारा प्रशंसित होकर उन्हें बहुतसा पारितोषिक देता है, तथा कर्तव्य और अकर्तव्यके विवेक से रहित होता है ।। ४६ ।। तेजलेश्या अहिंसक, मधु मांस व मद्य के सेवन से रहित, सत्यबुद्धि तथा चोरी व परदाराका त्यागी; इन कार्यों में जीवको जघन्य उद्यमवाला करती है। कहा भी है तेजलेश्या जीवको कर्तव्य - अकर्तव्य तथा सेव्य असेव्यका जानकार, समस्त जीवोंको समान समझनेवाला, दया- दान में लवलीन, और सरल करती है ।। ७ ।। प्रतिषु 'वणवण्णो' इति पाठ: । अ-काप्रत्योः ' जहष्णजभं' इति पाठः । अ-काप्रत्योः ' धव्वमागो' इति पाठः । * ताप्रती 'मांससेवासुरावज्जियं' इति पाठः । गो. जी. ५१४. * गो. जी. ५०९-१०. * अप्रतौ ' तूसहि' इति पाठः । गो. जी. ५११-१३ 8 प्रतिषु ' सच्चमइच्चतंचोरिय ' इति पाठः । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ ) - छक्खंडागमे संतकम्म अहिंसादिसु कज्जेसु जीवस्स मज्झिमुज्जम पम्मलेस्सा कुणइ । वुत्तं च चाई भद्दोचोक्खो उज्जुवकम्मो य खमइ बहुअं पि । साहु-गुरुपूजणरओ पम्माए परिणओ जीवो। ८ । अहिंसाइसु कज्जेसु तिव्वुज्जमं सुक्कलेस्सा कुणइ । वुत्तं च-- ण य कुणइ पक्खवायं ण वि यणिदाणं समो य सब्वेसु । णत्थि य राग-द्दोसो हो वि य सुक्कलेस्साए* एवं दव्वलेस्साए वि कज्जाणं परूवणा जाणिदूण कायव्वा । एवं लेस्सायम्मे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं। पद्मलेश्या जीवकी उपर्युक्त अहिंसादि कार्यों में मध्यम उद्यम करनेवाला करती है। कहा भी है पद्मलेश्यामें परिणत जीव तयगी, भद्र, चोखा (पवित्र), ऋजुकर्मा (निष्कपट), भारी अपराधको भी क्षमा करनेवाला तथा साधुपूजा व गुरुपूजामें तत्पर रहता है ।। ८ ॥ शुक्ललेश्या उक्त अहिंसादि कार्यों में तीव्र उद्यमशील करती है। कहा भी है शुक्ललेश्याके होनेपर जीव न.पक्षपात करता है और न निदान भी करता है, वह सब जीवोंमें समान रहकर राग, द्वेष व स्नेहसे रहित होता है ।। ९ ॥ इसी प्रकार द्रव्यलेश्याके कार्योंकी भी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये । इस प्रकार लेश्याकर्मअनुयोगद्वार समाप्त हुआ । 8 अ-काप्रत्योः ' मज्झिमुज्जुमं ' इति पाठः। 0 अ-काप्रत्योः 'भंडो' इति पाठः। गो. जी. ५१५. तत्थ 'खवा' इत्येतस्य स्थाने 'खमदि ' इति पाठः । ४ अ-काप्रत्यो: 'ण रिय' इति पाठः । AM अ-काप्रत्यो: 'राग दोसा',ताप्रसौ'रा दोसो' इति पाठः। * गो. जी ५१६. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ लेस्सापरिणामाणुयोगद्दार दिवंदिय अहिणंदियतिहुवणं सुहत्तीए । लेस्सपरिणामसण्णियमणियोगं वण्णइस्लामो ॥ १ ॥ लेस्सापरिणामे त्ति अणुयोगद्दारं काओ लेस्साओ केण संरूवेण काए वड्ढीए हाणीए वा परिणमंति त्ति जाणावणट्टमागयं । किण्णलेस्साए ताव परिणमणविहाणं वुच्चदे । तं जहा- किण्णलेस्सियो संकिलिस्समाणो ण अण्णं कमदि, सट्टा चेव छट्ठाणपदिदेण ठाणसंकमणेण वड्ढदि । किं छट्टाणपदिदत्तं ? जत्तो ठाणादो संकिलिट्ठो तत्तो द्वाणादो अनंतभागन्भहिया असंखेज्जभागन्भहिया संखेज्जभागन्भहिया संखेज्जगुणन्भहिया असंखेज्जगुणब्भहिया अनंतगुणन्भहिया वा लेस्सा होज्ज, एदं छट्ठाणपदिदत्तं । विसुज्झमाणो सट्ठाणे अनंतभागहाणि असंखे ० भागहाणि संखे ० भागहाणि संखे ० गुणहाणि असंखे० गुणहाणि - अनंतगुणहाणि त्ति छट्टाणपदिदेण हायदि, नीललेस्साए अनंतगुणहीणेण संकमदि I एवं किण्णलेस्सस्स संकिलेसमाणस्स एक्को वियप्पो किण्णलेस्सवड्ढीए । तीनों लोकोंको आनन्दित करनेवाले अभिनन्दन जिनेन्द्रकी अतिशय भक्तिपूर्वक वंदना करके ' लेश्यापरिणाम ' संज्ञावाले अनुयोगद्वारका वर्णन करते हैं ॥ १ ॥ कौन लेश्यायें किस स्वरूपसे और किस वृद्धि अथवा हानिके द्वारा परिणमण करती हैं, इस बातके ज्ञापनार्थ 'लेश्यापरिणाम' अनुयोगद्वार प्राप्त हुआ है । उनमें पहिले कृष्णलेश्या के परिणमनविधानका कथन करते हैं। यथा- कृष्णलेश्यावाला जीव संक्लेशको प्राप्त होता हुआ अन्य लेश्या में परिणत नहीं होता है, किन्तु षट्स्थानपतित स्थानसंक्रमण द्वारा स्वस्थानमें ही वृद्धिको प्राप्त होता है । शंका- षट्स्थानपतितका क्या स्वरूप है ? समाधान- जिस स्थानसे संक्लेशको प्राप्त हुआ है उस स्थानसे अनन्तभाग अधिक, असंख्य भाग अधिक संख्यातभाग अधिक, संख्यातगुणी अधिक, असंख्यातगुणी अधिक और अनन्तगुणी अधिक लेश्याका होना; इसका नाम षट्स्थानपतित है । उक्त कृष्णलेश्यावाला जीव विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ अनन्तभागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अनन्तगुणहानि; इस प्रकार षट्स्थानपतित स्वरूपसे स्वस्थान में हानिको प्राप्त होता है । वही अनन्तगुणहानिके द्वारा नीलश्यारूपसे परिणत होता है । इस प्रकार संक्लेशको प्राप्त होनेवाले कृष्णलेश्या युक्त ताप्रतौ ' काउलेस्साओ' इति पाठः । संक्रमणं सद्वाण-परद्वाणं होदि किष्ण-सुक्काण । वड्ढीसु हिसणं उभयं हाणिम्मि सेस उभये वि ।। लेस्साणुक्कस्सादो वरहाणी अवरगादवरवड्ढी । सट्टा अवरादो हाणी नियमा परद्वाणे || संकमणे छाणा हाणिसु वड्ढीसु होंति तण्णामा । परिमाणं च य पुव्व उत्तकमं होदि सुदा ।। गो. जी. ५०३-५०५ ।। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४) छक्खंडागमे संतकम्म विसुज्झमाणस्स दो वियप्पा- किण्णलेस्सहाणीए एक्को, णीललेस्ससंकमे बिदियो चेव । एवं किण्णलेस्सस्स परिणमणविहाणं समत्तं । संपहि णीललेस्सस्स वुच्चदे- णीललेस्सादो संकिलिस्संतो णीललेस्सं छट्ठाणपदिदेण वढिसंकमट्ठाणेण संकमेइ, अधवा किण्णलेस्सं अणंतगुणवढिकमेण परिणमदि । एवं संकिलेसंतस्त दो वियप्पा। णीललेस्सादो विसुज्झंतो णीललेस्साए छट्ठाणपदिदाए हाणीए हायदि, काउलेस्साए अणंतगुणहीणहाणीए* वि हायमाणो परिणमदि । एवं णीललेस्सादो विसुज्झमाणस्स दो वियप्पा । एवं णीललेस्सस्स परिणमणविहाणं समत्तं । काउलेस्सस्स वुच्चदे । तं जहा- काउलेस्सियो संकिलिस्संतो सट्टाणे अणियमेण* छट्ठाणपदिदाए वड्ढीए वड्ढदि, णीललेस्साए अणंतगुणवड्ढीए णियमेण परिणमदि । एवं संकिलिस्संतस्स दो वियप्पा । काउलेस्सियो विसुज्झमाणो सटाणे छट्ठाणपदिदाए हाणीए हायदि, तेउलेस्सिए अणंतगुणहीणहाणीए परिणमदि । एवं विसुज्झमाणस्स दो वियप्पा । काउलेस्सस्स संकमणविहाणं समत्तं । तेउलेस्सिओ संकिलिस्संतो सत्थाणे छट्ठाणपदिदाए हाणीए हायदि, काउलेस्साए जीवका कृष्णलेश्याकी वृद्धि द्वारा एक विकल्प होता है। उसी के विशुद्धिको प्राप्त होनेपर दो विकल्प होते हैं-- कृष्णलेश्याकी हानिसे एक, और नीललेश्याके संक्रममें दूसरा विकल्प होता है। इस प्रकार कृष्णलेश्यावाले जीवका परिणमनविधान समाप्त हुआ। अब नीललेश्यावाले जीवके परिणमनविधानका कथन करते हैं- नीललेश्यासे संक्लेशको प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतित वृद्धिसंक्रमस्थानके द्वारा नीललेश्यामें ही संक्रमण करता है। अथवा वह अनन्तगुणवृद्धिके क्रमसे कृष्णलेश्यामें परिणत होता है। इस प्रकार संक्लेशको प्राप्त होनेपर दो विकल्प होते हैं। नीललेश्यासे विशुद्धिको प्राप्त होनेवाला षट्स्थानपतित हानिके द्वारा नीललेश्याकी हानिको प्राप्त होता है। वह अनन्तगुणहीन हानिके द्वारा हानिको प्राप्त होता हुआ कापोतलेश्या रूपसे परिणत होता है। इस प्रकार नीललेश्यासे विशुद्धिको प्राप्त होनेवालेके दो विकल्प हैं। इस प्रकार नीललेश्यावालेका परिणमनविधान समाप्त हुआ। कापोतलेश्यावा लेके परिणमनका विधान कहते हैं । यथा- कापोतलेश्यावाला संक्लेशको प्राप्त होता हुआ अनियमसे षट्स्थानपतिन वृद्धिके द्वारा वृद्धिंगत होता है । वही अनन्तगुणवृद्धिके द्वारा नियमसे नीललेश्यामें परिणत होता है। इस प्रकार संक्लेशको प्राप्त हुए कापोतलेश्यायुक्त जीवके दो विकल्प हैं। कापोतलेश्यावाला विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतित हानिके द्वारा स्वस्थान में हानिको प्राप्त होता है। वही अनन्तगुणहीन हानि द्वारा तेजलेश्यामें परिणत होता है। इस प्रकार विशुद्धिको प्राप्त होते हुए कापोतलेश्यावाले के दो विकल्प हैं। कापोतलेश्यावालेके संक्रमणका विधान समाप्त हुआ।। तेजलेश्यावाला जीव संक्लेशको प्राप्त होकर षट्स्थानपतित हानिके द्वारा स्वस्थानमें 0 अ-काप्रत्योः 'विदिया' इति पाठः। ४ अ-काप्रत्योः 'संकमे' इति पाठः । . अ-काप्रत्योः ‘णीललेस्सा' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'हीणाहागीए' इति पाठः । ताप्रतौ 'अणियमेण' इति पाठः । 8 अ-काप्रत्यो: 'तेउलेस्सिए' इति पाठः। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेस्सापरिणामाणुयोगद्दारे किण्णादीनं परिणमणविहाणं ( ४९५ अतगुणहीणहाणीए परिणमइ । एवं तेउलेस्सस्स संकिलिस्संतस्स दो वियप्पा | तेउलेस्सिओ विसुज्झमाणो सत्थाणे छट्टाणपदिदाए वड्ढीए वड्ढदि, पम्मलेस्साए अनंतगुणवढी परिणम । एवं तेउलेस्सस्स परिणमणविहाणं समत्तं । संपहि पम्मलेस्साए वुच्चदे । तं जहा- पम्मलेस्सियो विसुज्झमाणो सत्थाणे छट्ठाणपदिदाए वड्ढी वढदि, सुक्कलेस्साए अनंतगुणवड्ढीए परिणमदि । संकि लिस्समाणओ पम्मले स्सिओ सट्टाने छट्टाणपदिदाए हाणीए हायदि, तेउलेस्साए अनंतगुणहाणीए हायदि । एवं पम्मलेस्सस्स परिणमणविहाणं समत्तं । सुक्कलेस्साए उच्चदे । तं जहा - सुक्कलेस्सियो संकिलिस्समाणो सत्थाणे छट्ठाणपदिदार हाणीए हायदि, पम्मलेस्साए अनंतगुणहीणहाणीए परिणमइ । एवं संकिलिस्तस्स दो वियप्पा | सुक्कलेस्सियो विसुज्झमाणो सट्टाणे छट्टाणपदिदाए वड्ढीए वड्ढदि, अण्णलेस्ससंकमो णत्थि । सुक्कलेस्सस्स विसुज्झमाणस्स एक्को चेव वियप्पो । एवं सुक्कलेस्साए परिणमण विहाणं समत्तं । संकम-पडिग्गहाणं जहण्णुक्कस्सयाणं तिव्व-मंददाए एत्थ अप्पाबहुअं कायव्वं । हीनताको प्राप्त होता है, वही अनन्तगुणहीन हानिके द्वारा कापोतलेश्यासे परिणत होता है । इस प्रकार संक्लेशको प्राप्त होनेवाले तेजलेश्या युक्त जीवके दो विकल्प है । तेजलेश्यायुक्त विशुद्ध प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतित वृद्धि के द्वारा स्वस्थानमें वृद्धिको प्राप्त होता है, अनन्तगुणवृद्धि द्वारा पद्मलेश्यासे परिणत होता है । ( इस प्रकार विशुद्धिको प्राप्त होनेवाले तेजलेश्यायुक्त जीवके दो विकल्प है । ) इस प्रकार तेजलेश्यायुक्त जीवके परिणमनका विधान समाप्त हुआ । अब पद्मलेश्याके परिणमनविधानका कथन करते हैं । यथा पद्मलेश्यायुक्त जीव विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतित वृद्धिके द्वारा स्वस्थानमें वृद्धिको प्राप्त होता है, वही अनन्तगुणवृद्धिके द्वारा शुक्ललेश्यासे परिणत होता है । संक्लेशको प्राप्त होनेवाला पद्मलेश्या संयुक्त जीव षट्स्थानपतित हानिके द्वारा स्वस्थान में हीनताको प्राप्त होता है, वही अनन्तगुणी हानिके द्वारा तेजलेश्यामें जाकर हीनताको प्राप्त होता है । इस प्रकार पद्मलेश्यावाले के परिमनका विधान समाप्त हुआ । शुक्ललेश्या के परिणमनविधानका कथन करते हैं । यथा - शुक्ललेश्यावाला संक्लेशको प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतित हानिके द्वारा स्वस्थानमें हानिको प्राप्त होता है, वही अनन्त - गुणहीन हानिके द्वारा पद्मलेश्यासे परिणत होता है इस प्रकार संक्लेशको प्राप्त होते हुए शुक्ललेश्यायुक्त जीवके दो विकल्प | शुक्ललेश्यायुक्त जीव विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतित वृद्धिके द्वारा स्वस्थानमें वृद्धिको प्राप्त होता है, उसका अन्य लेश्यामें संक्रम नहीं होता । विशुद्धिको प्राप्त होते हुए शुक्ललेश्यावालेका एक ही विकल्प है । इस प्रकार शुक्ललेश्याका परिणमनविधान समाप्त हुआ । यहां तीव्र-मंदताकी अपेक्षा जघन्य व उत्कृष्ट संकम और प्रतिग्रहके अल्पबहुत्वका कथन करते Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म तं जहा- ताणि किण्ण-णीललेस्साओ पडुच्च वुच्चदे। णीलाए जहण्णय लेस्सट्ठाणं थोवं । किण्णादो जम्हि गोलाए पडिघेप्पदि तं णीलाए जहण्णयं पडिग्गहट्ठाणमणंतगुणं। किण्णाए जहण्णयं संकमट्टाणं जहण्णयं च किण्णट्ठाणं दो वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि । णीलाए जहण्णयं संकमट्ठाणमणंतगुणं । किण्णाए जहण्णयं पडिग्गहट्ठाणमणंतगुणं। णीलाए उकस्सयं पडिग्गहाण मणंतगुणं । किण्णाए उकस्तयं संकमट्ठाणमणंतगुणं । णीलाए उक्कस्सयं संकमट्टाणं उक्कस्सय णीलढाणं च दो वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि । किण्णाए उक्कस्सयं पडिग्गहढाणमणंतगुणं । उक्कस्सयं किण्णलेस्सट्टाणमणंतगुणं । एव किण्ण-णीलाणं संकम-पडिग्गहरप्पाबहुअं समत्तं ।। एत्तो णील-काऊणं संकम-पडिग्गहाणमप्पाबहुअं वुच्चदे। तं जहा-- जहा किण्ण-णीलाणं तहा काउ-णीलाणं वत्तव्वं । णवरि काउलेस्समादि कादूण वत्तव्वं । एवं णील-काउसंकम-पडिग्गहप्पाबहुअं समत्तं । संपहि काउ-तेउलेस्साओ पडुच्च अप्पाबहुअं वुच्चदे । तं जहा- काऊण जहण्णओ संकमो जहण्णट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि थोवाणि। तेऊए जहण्णयं ठाणं जहण्णो च संकमो तुल्लो अणंतगुणो। काऊए जहण्णयं पडिग्गहट्ठाणमणंतगुणं । तेऊए जहण्णओ पडिग्गहो अणंतगुणो। काऊए उक्कस्सयं संकमट्ठाणमणंतगुणं । तेऊए उक्कस्सयं संकमं. हैं । वह इस प्रकार है- उनका कथन कृष्ण व नील लेश्याओंके आश्रयसे करते हैं। नीललेश्याका जघन्य लेश्यास्थान स्तोक है। नीललेश्याके जिस स्थान में कृष्णलेश्यासे प्रतिग्रहण होता है वह नीललेश्याका जघन्य प्रतिग्रहस्थान उससे अनन्तगुणा है। कृष्णका जघन्य संक्रमस्थान और जघन्य कृष्णस्थान दोनों ही तुल्य व अनन्तगुणे हैं। नीलका जघन्य संक्रमस्थान अनन्तगुणा है । कृष्णका जघन्य प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है । नीलका उत्कृष्ट प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है । कृष्णका उत्कृष्ट संक्रमस्थान अनंतगुणा है। नीलका उत्कृष्ट संक्रमस्थान और उत्कृष्ट नीलस्थान दोनों ही तुल्य व अनंतगुणे हैं । कृष्णका उत्कृष्ट प्रतिग्रहस्थान अनंतगुणा है । उत्कृष्ट कृष्णलेश्यास्थान अनंतगुणा है। इस प्रकार कृष्ण और नील लेश्याओंके संक्रम और प्रतिग्रहका अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। यहां नील और कापोत लेश्याओंके संक्रम और प्रतिग्रहके अल्पबहुत्व कथन करते हैं। यथा- जैसे कृष्ण और नील लेश्याओंके सम्बन्धमें कथन किया है वैसे ही कापोत और नील लेश्याओंके सम्बन्धमें भी कथन करना चाहिये । विशेषता इतनी है कि कापोतलेश्याको आदि करके यह कथन करना चाहिये । इस प्रकार नील और कापोत लेश्याओं के संक्रम-प्रतिग्रहका अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। अब कापोत और तेज लेश्याओंके आश्रयसे उक्त अल्पबहुत्वका कथन करते हैं । यथाकापोतलेश्याका जघन्य संक्रम और जघन्य स्थान दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं। तेजलेश्याका जघन्य स्थान और जघन्य संक्रम दोनों ही तुल्य व उनसे अनन्तगुणे हैं। कापोतका जघन्य प्रतिग्रहस्थान अनन्तगणा है। तेजका जघन्य प्रतिग्रहस्थान अनन्तगणा है। कापोतक उत्कष्ट संक्रमस्थान अनन्तगुणा है। लेजका उत्कृष्ट संक्रमस्थान अनन्तगणा है। कापोतका उत्कृष्ट प्रति ४ अ-काप्रत्योः 'संकमदिपडिग्गह ' ताप्रतौ 'संकम (दि ) पडिग्गइ ' इति पाठः । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेस्सापरिणामाणुयोगद्दारे संकम-पडिग्गहाणं अप्पाबहुअं द्वाणमणंतगुणं । काऊए उक्कस्सओ पडिग्गहो अणंतगुणो। तेऊए उक्कस्सओ पडिग्गहो अणंतगुणो । काऊए उक्कस्सयं द्वाणमणंतगुणं । तेऊए उक्कस्सयं ढाणमणंतगुणं । एवं तेउ-काऊणं संकम-पडिग्गहप्पाबहुअं समत्तं । तेउ-पम्माणं संकम पडिग्गहप्पाबहुअं वुच्चदे । तं जहा- तेऊए जहण्णयं ठाणं थोवं । तेऊए जहण्णओ पडिग्गहो अणंतगुणो। पम्माए जहण्णयं ठाणं संकमो च दोणि वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि । तेऊए जहण्णयं संकमट्ठाणमणंतगुणं । पम्माए जहण्णओ पडिग्गहो अणंतगुणो। तेऊए उक्कस्सओ पडिग्गहो अणंतगुणो। पम्माए उक्कस्सओ संकमो अणंतगुणो । तेऊए उक्कस्सओ संकमो उक्कस्सयं च ट्ठाणमणंतगुणं । पम्माए उक्कस्सओ पडिग्गहो अणंतगुणो । पम्माए उक्कस्सयं ठाणमणंतगुणं। एवं तेउपम्माणं संकम-पडिग्गहप्पाबहुअं समत्तं ।। ____संपहि पम्म-सुक्काणं वुच्चदे । तं जहा- पम्मार जहण्णयं ठाणं थोवं । पम्माए जहण्णओ पडिग्गहो अणंतगुणो । सुक्काए जहण्णओ संकमो जहण्णयं ट्ठाणं च दोण्णि वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि । पम्माए जहण्णओ संकमो अणंतगुणो । सुक्काए जहण्णओ पडिग्गहो अणंतगुणो। पम्माए उक्कस्सओ पडिग्गहो अणंतगुणो । सुक्काए उक्कस्सओ संकमो अणंतगुणो। पम्माए उक्कस्सयं द्वाणं संकमो च अणंतगुणो । सुक्काए उक्कस्सओं पडिग्गहो अणंतगुणो । उक्कस्सयं सुक्कलेस्सट्ठाणमणंतगुणं । एवं ति-चदु-पंचछसंजोगाणं पिजाणिदूण अप्पाबहुअंकाय एवं लेस्सपरिणामे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं। ग्रहस्थान अनन्तगुणा है । तेजका उत्कृष्ट प्रतिग्रह अनन्तगुणा है । कापोतका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । तेजका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है। इस प्रकार तेज और कापोत लेश्याओंके संक्रम और प्रतिग्रहका अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। तेज और पद्म लेश्याओंके संक्रम व प्रतिग्रहके अल्पबहत्वका कथन करते हैं । यथातेजका जघन्य स्थान स्तोक है । तेजका जघन्य प्रतिग्रह अनन्तगणा है । पद्मका जघन्य स्थान और संक्रम दोनों ही तुल्य व अनन्तगणे हैं। तेजका जघन्य संक्रमस्थान अनन्तगणा । पद्मका जघन्य प्रतिग्रह अनन्तगणा है। तेजका उत्कृष्ट प्रतिग्रह अनन्तगणा है। पद्मका उत्कृष्ट अनन्तगणा है। तेजका उत्कृष्ट संक्रम और उत्कृष्ट स्थान अनन्तगणा है । पद्मका उत्कृष् प्रतिग्रह अनन्तगणा है। पद्मका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगणा है । इस प्रकार तेज और पद्म लेश्याओंके संक्रम-प्रतिग्रहका अल्पबहत्व समाप्त हआ। अब पद्म और शुक्ल लेश्याओंके प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन करते हैं । यथा- पद्मका जघन्य स्थान स्तोक है । पद्मका जघन्य प्रतिग्रह अनन्तगुणा है । शुक्लका जघन्य संक्रम और जघन्य स्थान दोनों ही तुल्य व अनन्तगुणे है। पद्मका जघन्य संक्रम अनन्त गुणा है । शुक्लका जघन्य प्रतिग्रह अनन्तगुणा है । पद्मका उत्कृष्ट प्रतिग्रह अनन्तगुणा है । शुक्लका उत्कृष्ट संक्रम अनन्तगुणा है । पद्मका उत्कृष्ट प्रतिग्रह अनन्तगुणा है। शुक्लका उत्कृष्ट प्रतिग्रह अनन्तगुणा है । उत्कृष्ट शुक्ललेश्यास्थान अनन्तगुणा है । इस प्रकार तीन, चार, पांच और छह संयोगके भी अल्पबहुत्वका कथन जानकर करना चाहिये । इस प्रकार लेश्यापरिणाम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सादासादाणुयोगद्दारं अजियं जियसयलविभुं परमं जय-जीयबंधवं णमिउं । सादासादणुयोगं समासदो वण्णइस्सामो ॥ १॥ सादासादे ति अणुयोगद्दारस्स पंच अणुयोगद्दाराणि । तं जहा- समुक्कित्तणा अट्ठपदं पदमीमांसा सामित्तं अप्पाबहुअं चेदि । समुक्कित्तणा त्ति जं पदं तस्स विहासा। तं जहा- एयंतसादं अणेयंतसादं एयंतअसादं अणेयंतअसादं च अस्थि । समुक्कित्तणा गदा। अट्टपदं । तं जहा- जं कम्मं सादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिच्छुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंतसादं । तवदिरित्तं अणेयंतसादं । जं कम्मं असादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिच्छुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंतअसादं । तव्वदिरित्तमणेयंतअसादं । एवं अट्ठपदं गदं ।। पदमीमांसा । तं जहा- एयंतसादमत्थि उक्कस्सयमणुक्कस्सयं जहण्णमजहणणयं च । एवं सेसाणं पि वत्तव्वं । पदमीमांसा गदा । जिन्होंने समस्त विभुओंपर विजय प्राप्त कर ली है और जो जगत्के जीवोंकी हितैषी हैं उन उत्कृष्ट अजित जिनेन्द्रको नमस्कार करके संक्षेपमें सातासातअनुयोगद्वारका वर्णन करते हैं ॥ १।। 'सातासात ' इस अनुयोगद्वारके पांच अवान्तर अनुयोगद्वार हैं । यथा- समुत्कीर्तना, अर्थपद, पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना यह जो पद है उसकी विभाषा बतलाते हैं। यथा- एकान्तसात, अनेकान्तसात, एकान्तअसात और अनेकान्तअसात है । समुत्कीर्तना समाप्त हुई। ___ अर्थपदका कथन इस प्रकार है- सातास्वरूपसे बांधा गया जो कम संक्षेप व प्रतिक्षेपसे रहित होकर सातास्वरूपसे वेदा जाता है उसका नाम एकान्तसात है । इससे विपरीत अनेकान्तसात है । जो कर्म असातारूपसे बांधा जाकर संक्षेप व प्रतिक्षेपसे रहित होकर असातास्वरूपसे वेदा जाता है उसका नाम एकान्त असात है। इससे विपरीत अनेकान्तअसात कहा जाता है। इस प्रकार अर्थपद समाप्त हुआ। पदमीमांसाका कथन इस प्रकार है- एकान्तसात उत्कृष्ट है, अनुत्कृष्ट है, जघन्य ह और अजघन्य भी है। इसी प्रकार शेष अनेकान्तसात आदिके सम्बन्ध में भी कहना चाहिये । इस प्रकार पदमीमांसा समाप्त हुई । ४ ताप्रतौ — एवं मीमांसा' इति पाठः। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादासादाणुयोगद्दारे सामित्तं ( ४९९ सामित्तं । तं जहा- उक्कस्समयमेयंतसादं कस्स होदि ? अभवसिद्धियपाओग्गे पयदांजो सत्तमाए पुढवीए रइयो गुणिदकम्मसियो ततो उध्वट्टिदो संतो सववल हुं एक्कत्तीसंसागरोवमट्टिदियं देवलोगं गच्छिहिदि । किं कारणं ? तस्स सादवेदयद्धाओ सव्वमहंतीयो बहुआओ च भविस्संति । तदो जो एवं देवलोगे भविस्सो सत्तमाए पुढवीए णेरइयो तस्स चरिमसमयणेरइयस्स उक्कस्सयमेयंतसादं । अणेयंतसादमुक्कस्सय कस्स? जो सत्तमाए पुढवीए रइयो डादरपुढविकाइएसु तसकाइएसु च कम्म गुणेदूण आगदो, तस्स पुण जो अधापवत्तसंकमेण असंकमस्स अवहारकालो तत्तियमेत्त जीविदव्वस्स सेसं, सो च तं जीविदव्वसेसं सव्वमसादो भविस्सदि, तस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागसेसाउअस्स रइयस्स उक्कस्सयमणेयंतसादं । उक्कस्सयमेयंतअसादं कस्स ? जारिसस्सी रइयस्स उक्कस्सयमणेयंतं सादं कदं तारिसस्सेव णेरइयस्स उक्कस्सयमेयंतअसादं । णवरि णाणत्तं बादरकाइएसु अच्छिदो वा ण वा। उक्कस्सयमणेयंतअसादं कस्स ? जस्स उक्कस्सयमेयंतअसादं तस्सेव उक्कस्सयमणेयंतअसादं । णवरि बादरकाइएसु तसकाइएसु च कम्भं गुणेदूण णिरयगई पवेसेदवो । तस्स देवलोगभाविस्स चरिमसमयणेरइयस्स उक्कस्सयमणेयंतं असादं । स्वामित्वका कथन किया जाता है । यथा- उत्कृष्ट एकान्तसात किसके होता है ? यहां अभव्यसिद्धिकप्रायोग्य प्रकृत है । जो सातवीं पृथिवीका नारकी गुणितकर्माशिक वहांसे निकल कर सर्वलघु कालमें इकतीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवलोकको प्राप्त होगा उसके होता है । शंका- इसका कारण क्या है ? समाधान- इसका कारण यह है कि उसके सातावेदककाल सबसे महान् और बहुत होंगे। इसलिये जो आगे देवलोकमें जन्म लेगा ऐसा जो सातवीं पृथिवीका नारकी है उस अन्तिम समयवर्ती नारकीके उत्कृष्ट एकान्तसात होता है। उत्कृष्ट अनेकान्तसात किसके होता है ? जो सातवीं पृथिवीका नारकी बादर पृथिवीकायिकों और त्रसकायिकोंमें कमंको गुणित करके ( गुणितकर्माशिक होकर ) आया है, उसका जो अधःप्रवृत्तसंक्रमसे असंक्रमका अवहार काल है उतना मात्र जीवन शेष है, वह उस शेष सब जीवन पर्यंत सातासे रहित होगा, उस पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र शेष आयुवाले नारकीके उत्कृष्ट अनेकान्तसात होता है । उत्कृष्ट एकान्तअसात किसके होता है ? जिस प्रकारके नारकी के उत्कृष्ट अनेकान्तसात किया गया है उसी प्रकारके ही नारकीके उत्कृष्ट एकान्तअसात होता है । विशेष इतना है वह बादरकायिकोंमें रह भी सकता और नहीं भी । उत्कृष्ट अनेकान्तअसात किसके होता है? जिसके उत्कृष्ट एकान्तअसात होता है उसीके उत्कृष्ट अनेकान्तअसात होता है । विशेष इतना है कि बादरकायिकोंमें और त्रसकायिकोंमें कर्मको गुणित करके उसे नरकगति में प्रविष्ट कराना चाहिये । देवलोकमें उत्पन्न होनेवाले उसी अन्तिम समयवर्ती नारकीके उत्कृष्ट अनेकान्तअसात होता है । 83 प्रतिषु 'उट्टिदो ' इति पाठः। * अ-काग्त्योः ' मेयंतसाद' इति पाठः। 8 अप्रतो 'जाविसस्स', ताप्रतो 'जावि (रि) सस्स' इति पाठः। 8 अ-काप्रत्योः 'णागत्तबादरं' इति पाठः । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ) छक्खंडागमे संतकम्म जहण्णयमेयंत साद* कस्स ? जो पढमसमयो रइयो सव्वजहण्णएण जोगेण सादं बंधदि, जत्तियमेत्तो अधापवत्तसंकमेण असंकमस्स अवहारकालो उक्कस्सओ तत्तो समऊणं कालं असादो होहिदि त्ति तदो जं तस्स तइया पढमसमयसादस्स अधाढिदिय*मुदयमेहिदि तप्पढमसमयणेरइयस्स जहिण्णय? मेय?तसादं । जहण्णयमणेयंतसादं कस्स ? जो सुहमसंतकम्मेण जहण्णएण तसेसु उववण्णो, तत्थ पढमसमयतब्भवत्थमादि कादूण सव्वचिरमसादं बंधिदूण तस्स चरिमसमयअसादबंधयस्स जहण्णयमणेयंतसादं । सो च पुण तं चरिमसमयअसादबंधमादि कादूण सव्वरहस्सेण कालेण एक्कतीसंसागरोवमाउदिदिदेवदि गाहिदि । तत्थ सव्वमहंतीओ सव्वबहुगीओ च सादवेदगद्धाओ भविस्संति। जहण्णयं एतं असादं कस्स ? जस्स जहण्णयं अणेयंतसादं तस्स चेव जहण्णयमेयंतअसादं भाणिदव्वं । णवरि असादेण जहण्णएण तसेसु उववण्णो, तत्थ च सादबंधयद्धमुक्कस्सयं बंधिदूण चरिमसमयसादबंधगो जादो, तस्स जहण्णयमेयंतअसादं । जहण्णयमणेयंतमसादं करस ? एदस्स चेव, सुहुमेहि जहण्णएण असादकम्मेण आगदो तमेसु उववण्णो, उक्कस्सयं सादबंधयद्धं बंधिदूण जो चरिमसमयसादबंधओ जादो, तस्स जहण्णयमणेयंतअसादं । सो च पुण सव्वलहुं णिरयं गाहिदि, तत्थ पलिदोवमपुधत्तं वा चिरयरयं वा असादो होहिदि, तदो तारिसस्स जघन्य एकान्तसात किसके होता है ? जो प्रथम समयवर्ती नारकी सवंजघन्य योगसे साताको बांधता है, जितना मात्र अधःप्रवृत्तसंक्रमसे असंक्रमका उत्कृष्ट अवहारकाल है उससे एक समय कम काल साता रहित होगा, इसलिये उस प्रथम समयवर्ती सातके उस समय जो अधःस्थिति उदयप्राप्त होगी उस प्रथम समयवर्ती नारकीके जघन्य एकान्तसात होता है । जघन्य अनेकान्तसात किसके होता है ? जो जघन्य सूक्ष्म सत्कर्मके साथ त्रसोंमें उत्पन्न हुआ है, वहां प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थको आदि करके सर्वचिर काल असाताको बांधता है उस अन्तिम समयवर्ती असातबन्धकके जघन्य अनेकान्तसात होता है । वह भी उस अन्तिम समय रूप असातबन्धको आदि करके सर्वलघु कालमें इकतीस सागरोपम आयुस्थितियुक्त देवगतिको प्राप्त होगा। वहां सबसे महान् और सबसे अधिक सातवेदककाल होंगे । जघन्य एकान्तअसात किसके होता है ? जिसके जघन्य अनेकान्तसात होता है उसीके जघन्य एकान्तअसात कहना चाहिये । विशेष इतना है कि जघन्य असातके साथ त्रसोंमें उत्पन्न हुआ है और वहां उत्कृष्ट सातबन्धककाल तक उत्कृष्ट बन्ध करके अन्तिम समयवर्ती सातबन्धक हुआ है उसके जघन्य एकान्तअसात होता है । जघन्य अनेकान्तअसात किसके होता है ? वह इसीके होता है- सूक्ष्म योग्य जघन्य असातकर्म के साथ आकर, त्रसोंमें उत्पन्न होकर व उत्कृष्ट सातबन्धककाल तक बन्ध करके जो अन्तिम समयवर्ती सातबन्धक हुआ है उसके जघन्य अनेकान्तअसात होता है । वह सर्वलघु कालमें नारक भवको प्राप्त करेगा, वहां पल्योपमपृथक्त्व काल अथवा चिरतर काल तक साता रहित होगा, इसलिये उक्त प्रकारके जीवके उस प्रथम सातबन्धक कालके * तापतौ 'मेयंतसादं' इति पाठः। ताप्रतौ 'समऊगकालं' इति पाठः । * अ-काप्रत्यो 'अधाविदिय-' इति पाठः। अ-कापत्योः 'जहणिया' इति पाठः। ताप्रती 'विरयर Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादासादाणुयोगद्दारे पदेसग्गपमाणानुगमो (५०१ तिस्से पढमसादबंधगद्धाए चरिमसमए जहण्णयमणेयंत असादं । एवं अभवसिद्धियपाओग्गे सामित्तं गदं । भवसिद्धियपाओगे एयंतसादमुक्कस्सयं कस्स ? जो सत्तमादो पुढवीदो सव्वलहु मणुसगइमागदो, सव्वलहुं खवणाए अब्भुट्ठिदो, चरिमसमयभवसिद्धियो वि संतो सादवेदगो होहिदि, तस्स चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स उक्कस्सयमेयंतसादं । उक्कस्यमेयंत मसादं कस्स ? एरिसयस्सेव चरिमभवमणुस्सस्स चरिमे असादबंधे च चरिमसमयअसादबंधयस्स । सो च पुण चरिमसमयभवसिद्धियद्वाणे असादवेदओ होदि । उक्कस्सयमणेयंतं सादं कस्स ? चरिमसमयभवसिद्धियस्स सादवेदयस्स । उक्कस्सयमणेयंतं असादं कस्स ? गुणिदकम्भंसियस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स असादवेदयस्स । जहणियाणि सामित्ताणि जहा अभवसिद्धियस्स तारिसाणि चेव । एवं सामित्तं गदं । पदेसग्गस्स पमाणाणुगमो - अभवसिद्धियस्स उक्कस्सं पि एयंतसादं एयंतअसादं वा समयपबद्धस्स असंखेज्जपलिदोवमवग्गमूलभागो । भवसिद्धियस्स उक्कस्सयमेयंतसादं एयंत असादं च समयपबद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ता, जवमज्झसमयपबद्धा च अवहारकालमेत्ता । एवं पमाणपरूवणा गदा । अन्तिम समयमें जघन्य अनेकान्तअसात होता है । इस प्रकार अभव्यसिद्धिक प्रायोग्यके आश्रयसे स्वामित्वका कथन समाप्त हुआ । भव्य सिद्धि प्रायोग्यके आश्रयसे उत्कृष्ट एकान्तसात किसके होता है ? जो सातवीं पृथिवी से सर्वलघु कालमें मनुष्यगति में आकर और सर्वलघु कालमें क्षपणामें उद्यत होकर अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक भी होता हुआ सातवेदक होगा उस अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके उत्कृष्ट एकान्तसात होता है । उत्कृष्ट एकान्तअसात किसके होता है ? वह ऐसे ही अन्तिम भववाले ( चरमशरीरी ) मनुष्य के अन्तिम असातबन्ध में अन्तिम समयवर्ती असातबन्धक होनेपर होता है । वह भी अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक स्थानमें असातवेदक होता है । उत्कृष्ट अनेकान्तसात किसके होता है ? वह सातवेदक अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिकके होता है । उत्कृष्ट अनेकान्तसात किसके होता है ? वह गुणितकर्माशिक अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक असातवेदकके होता है । जघन्य स्वामित्व जैसे अभव्यसिद्धिकके कहे गये हैं वैसे ही भव्यसिद्धि भी हैं । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ । प्रदेशाग्र के प्रमाणानुगमकी प्ररूपणा की जाती है - अभव्यसिद्धिकका उत्कृष्ट एकान्तसात और एकान्तअसात समयप्रबद्ध के असंख्यात पल्योनम वर्गमूल प्रमाण है । भव्यसिद्धिक के उत्कृष्ट एकान्तसात और एकान्तअसात समयप्रबद्ध अन्तर्मुहूर्त मात्र हैं । यवमध्यसमयप्रबद्ध अवहारकाल मात्र हैं | प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई । D ताप्रतौ ' जहण्णयावि (णि) इति पाठः । ४ तातो एयंत असादं' इति पाठः । ताप्रतौ ' पदेसस्स ' इति पाठ: । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं तो अभवसिद्धियपाओगे अप्पा बहुअं कायव्वं । तं जहा- सव्वत्थोव मुक्कस्स यमेयत्तं सादं । एयंतं असादं असंखेज्जगुणं ( अणेयंतं सादं असंखेज्जगुणं ) अणेयंत असादं असंखे० गुणं । freeगई तिरिक्खे तिरिक्खणीसु मणुस्सेसु मणुस्सिणीसु देवेसु देवीसु च एइंदिय-बीइंदिय-तीइं दिय- चउरिदिए उक्कस्सअप्पा बहुअस्स ओघभंगो । सव्वत्थोवं जहण्णयमेयंतसादं । एयंत असादमसंखेज्जगुणं । अणेयंतसादं असंखे० गुणं । अणेयंत असादं संखे० गुणं । सव्वासु गदीसु सव्वेसु एइंदिएसुQ ओघभंगो । एवमभवसिद्धियपाओगे अप्पा बहुअं समत्तं । भवसिद्धियपाओगे उक्कस्सए अप्पाबहुअं । तं जहा - सव्वत्थोवमुक्कस्सगं एतसादं । एयंत असादं संखेज्जगुणं । अणेयंतअसादं असंखे० गुणं । अणेयंतसादं विसेसाहियं । रिगईए उक्कस्सयमेयंतसादं योगं । एयंत असादं संखेज्जगुणं । अणेांतसादमसंखे० गुणं । अणेयंत असादं ( अ ) संखे० गुणं । मणुसगइवज्जासु * सव्वासु गदीसु एइदिएसु च णिरयगइभंगो । मणुस्सेसु मणुसिणीसु ओघभंगो । जहाअभवसिद्धियपाओगे जहण्णां तहा भवसिद्धियपाओग्गे वि जहण्णां कायव्यं । यहां अभव्यसिद्धिकप्रायोग्यके आश्रयसे अल्पबहुत्व करते हैं । यथा- उत्कृष्ट एकान्तसात सबसे स्तोक है । एकान्तअसात उससे असंख्यातगुणा है । अनेकान्त सात असंख्यातगुणा है । अनेकान्त असात असंख्यातगुणा है । नरकगतिमें, तिर्यंचोंमें, तिर्यंचनियोंमें, मनुष्यों में, मनुष्यनियोंमें, देवोंमें, देवियोंमें, तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जीवोंमें उत्कृष्ट अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा ओघके समान है । जघन्य एकान्तसात सबसे स्तोक है । एकान्तअसात उससे असंख्यातगुणा है । अनेकान्तसात असंख्यातगुणा है । अनेकान्तअसात संख्यातगुणा है । सब गतियों और सब एकेन्द्रियों में जघन्य अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा ओघके समान हैं । इस प्रकार अभव्यसिद्धिक प्रायोग्यके आश्रित अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । भव्यसिद्धिकप्रायोग्यके आश्रयसे अल्पबहुत्वका कथन करते हैं । वह इस प्रकार हैउत्कृष्ट एकान्तसात सबसे स्तोक है। एकान्तअसात संख्यातगुणा 1 अनेकांतअसात असंख्यातगुणा है । अनेकान्तसात विशेष अधिक है । नरकगति में उत्कृष्ट एकान्तसात सबसे स्तोक है । एकान्तअसात संख्यातगुणा है । अनेकान्तसात असंख्यातगुणा है । अनेकान्तअसात असंख्यातगुणा है । मनुष्यगतिको छोडकर शेष सब गतियोंमें और एकेन्द्रियोंमें नरकगतिके समान प्ररूपणा है। मनुष्यों और मनुष्यनियोंमें ओघके समान प्ररूपणा है । जधन्य अल्पबहुत्व जैसे अभव्यसिद्धिकप्रायोग्यके विषय में किया गया है वैसे ही भव्यसिद्धिक प्रायोग्यके विषय में भी करना चाहिये । अ-काप्रत्यो ' मणुस गईए ' इति पाठ: । तातो' सव्वेसु इदिएसु ' इति पाठ: । अप्रती 'तम्हा' इति पाठः । . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादासादाणुयोगद्दारे अप्पाबहुअं ( ५०३ एत्तो अट्टहि पदेहि अप्पाबहुअं कायव्वं । तं जहा-- सादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं जं सादत्ताए वेदिज्जदि तं थोवं । जं सादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तं विसेसाहियं । विसेसो पुण संखे० भागो। जमसादताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जमसादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तं विसेसाहियं । जं सादत्ताए बद्ध संछुद्धं पडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तमसंखेज्जगुणं । जं सादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं असादादत्ताए वेदिज्जदि तं विसेसाहियं । जमसादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जमसादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं असादात्ताए वेदिज्जदि तं विसेसाहियं । ___ अविपच्चिदासु सव्वासु गदीसु एइंदिएसु च ओघभंगो । अध विपच्चिदे . कधं भवदि? णिरयगदीए समुट्टिदं जं णिरयगदीए चेव विपच्चदि एवं विपच्चिदं णाम। एदेण अट्ठपदेण विचिदस्स अप्पाबहुअं वुच्चदे । तं जहा--णिरयगईए ताव जं यहां आठ पदोंके द्वारा अल्पबहुत्व करते हैं । वह इस प्रकार है- ( १ ) सातस्वरूपसे असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होकर सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह स्तोक है। (२ जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह विशेष अधिक है । विशेषका प्रमाण उसका संख्यातवां भाग है । ३) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है । ( ४ ) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह विशेष अधिक है। (५) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह असंख्यातगुणा है। (६) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह विशेष अधिक है। (७) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होकर सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है । (८) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह विशेष अधिक है। अविपच्चित अर्थात् विपाक रहित सब गतियों और एकेन्द्रियोंमें प्रकृत अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा ओघके समान है। शंका-- विपच्चितमें अल्पबहुत्व किस प्रकार है ? समाधान-- नरकगतिमें उत्पन्न हुआ जो नरकगतिमें ही विपाकको प्राप्त होता है उसका नाम विपच्चित है। इस अर्थपदके अनुसार विपच्चितका अल्पबहुत्व कहते हैं । वह इस प्रकार है (१) नरकगतिमें जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ अ-काप्रत्यो: 'अधियं चिदासु', ताप्रती 'अधियंचिदासु ( अविच्चिदासु' इति पाठः । अ-काप्रत्यो: 'विचिदे', ताप्रती 'वियं (पच्चि ) चिदे' इति पाठः। काप्रतौ' विपंचदि' इति पाठः । 0 प्रतिषु 'विपंचिदं' इति पाठः । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ) छक्खंडागमे संतकम्म सादताए बद्धं असंछद्धं अपडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं सव्वत्थोवं । जमसादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखे० गुणं० । जं सादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तमसंखेज्जगुणं। जमसादत्ताए बद्धं असंछुद्धमपडिसंछुद्धमसादत्ताए वेदिज्जदि तं संखे० गुणं० । जं सादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखे० गुणं० । जं असादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं सादत्ताए* वेदिज्जदि तमसंखे० गुणं । जमसादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धमसादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जं. सादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछु द्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तमसंखे० गुणं । एवं णिरयगईए परूवणा गदा । एत्तो मणुसगदीए विपच्चिदेण) अप्पाबहु असाहणत्थं एसा परूवणा कीरदे । तं जहा- मणुसगईए असादवेदयद्धा* थोवा । सादबंधगद्धा संखेज्जगुणा । असादबंधगद्धा संखेज्जगुणा। सादवेदगद्धा* संखेज्जगुणा । जहा मणुसगईए तहा णिरयगईए वज्जाणं सव्वेसि तसाणं । एईदिएसु सादबंधगद्धा सादवेदगद्धा च दो वि तुल्लाओ थोवाओ। असादवेदगद्धा असादबंधगद्धा च दो वि तुल्लाओ असंखेज्जगुणाओ। सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह सबसे स्तोक है । ( २ जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है । ( ३ ) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह असंख्यातगुणा है । (४) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है । ( ५ ) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है। (६) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह असंख्यातगुणा है। (७ ) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है। (८) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह असंख्यातगुणा है । इस प्रकार नरकगतिमें प्रकृत प्ररूपणा समाप्त हुई। ___यहां मनुष्यगति में विपच्चित स्वरूपसे अल्पबहुत्वको सिद्ध करने के लिये यह प्ररूपणा की जाती है। यथा- मनुष्यगतिमें असातवेदककाल स्तोक है । सातबंधककाल संख्यातगुणा है । असातबन्धककाल संख्यातगुणा है । सातवेदककाल संख्यातगुणा है । जिस प्रकार मनुष्यगतिमें यह क्रम है उसी प्रकार नरकगति को छोड़कर शेष सब त्रसोंके भी यही क्रम समझना चाहिये । एकेन्द्रियोंमें सातबन्धककाल और सातवेदककाल दोनों ही तुस्य व स्तोक है। असातवेदककाल और असातबन्धककाल दोनों ही तुल्य व उनसे असंख्यातगुणे हैं। ४ अ-काप्रत्यो: 'सादत्तार', ताप्रती '(अ) सादत्ताए ' इति पारः। *ताप्रती (अ) सादत्ताए', मप्रतो 'सादत्ताए' इति पाठः । . अ-काप्रत्योर्नोग्लभ्यते वाक्यमेतत्। अप्रतौ 'अंचिदेण', का-ताप्रत्योः 'विचिदेण' इति पाठः । * ताप्रतौ 'अप्पाबहुअं साहणत्थमेसा' इति पाठः । * अप्रतो' असादबंधगद्धा' इति पाठः। अप्रतौ 'सादबंधगद्धा' इति पाठः। ताप्रती 'णिरयगह वज्जाणं' इति पाठः । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादासादाणुयोगद्दारे अप्पाबहुअं ( ५०५ - एदेण अटुपदेण मणुसगईए ताव अप्पाबहुअं । तं जहा- सादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं असादत्ताए जं वेदिज्जदि तं थोवं । जमसादत्ताए बद्धं असंछुद्ध अपडिसंछद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगणं । जं सादत्ताए बद्धं असंछद्धं अपडि. संछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । असादत्ताए जं बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । सादत्ताए जं बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तमसंखेज्जगुणं । जमसादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । सादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडि छुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जमसादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं ।। जहा मणुस्सेसु तहा मणुसिणीसु पंचिदियतिरिक्खेिसु तिरिक्खिणीसु देवेसु देवीसु च कायव्वं । एइंदिएसु विपच्चिदेण- जं सादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं थोवं । जं0 सादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । असादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं जं सादत्ताए वेदिज्जदि (तं) तत्तियं चेव । जमसादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं असादत्ताए इस अर्थपदके अनुसार मनुष्यगतिमें अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है । यथा- ( १ ) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह स्तोक है । ( २ । जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होकर असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है । ( ३ ) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होकर सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है । ( ४ ) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है । ( ५ ) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह असंख्यातगुणा है। ( ६ ) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है। (७ ) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है। (८) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है। जिस प्रकार मनुष्योंमें अल्पबहुत्व किया गया है उसी प्रकार मनुष्यनियों, पंचेन्द्रिय तिर्यंचों, तिर्यंचनियों, देवों और देवियोंमें भी करना चाहिये । एकेन्द्रियोंमें विपच्चितस्वरूपसे उक्त अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है- (१) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह स्तोक है । ( २ ) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रति संक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है । ( ३ ) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह उतना ही है। (४) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त ताप्रती 'ज' इत्येतत्पदं नास्ति । प्रतिषु 'विचिदेण' इति पाठः । 0 अप्रतौ 'जा' इति पाठः Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ ) छक्खंडागमे संतकम्म । बेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जं सादत्ताए बद्धं छुद्धं पडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तमसंखेज्जगुणं । जं सादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं। जमसादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं तत्तियं चेव । जमसादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । बेइंदिएसु विपच्चिदेण*। तं जहा- जं सादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तं थोवं । जमसादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जं सादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जमसादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जं सादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तमसंखेज्जगुणं । जमसादत्ताए बद्ध असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जं सादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिसंछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जमसादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडि. संछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जहा बीइंदिएसु तहा तीइंदिएसु चरिदिएसु च । एवं सादासादे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है। ( ५ ) जो सात वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह असंख्यातगुणा है । (६) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह तगुणा है। (७) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह उतना मात्र ही है। (2) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है। द्वीन्द्रियोंमें विपच्चितस्वरूपसे अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा इस प्रकार है- ( १ ) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह स्तोक है।। २ ) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है । ( ३ ) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगणा है। ( ४ ) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगणा है। ( ५ ) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व प्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह असंख्यातगुणा है। (६) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ असातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है। (७ ) जो सातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है। (८) जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त व अप्रतिसंक्षिप्त होता हुआ सातस्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है। जिस प्रकार द्वीन्द्रियोंमें यह प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार त्रीन्द्रियों और चतुरिन्द्रियों में भी समझना चाहिय । इस प्रकार सातासात यह अनुगोगद्वार समाप्त हुआ। * प्रतिष 'विअंचिदेण' इति पाठः । का-ताप्रतोः 'ती इंदिय-चउरिदिएस एवं 'इति पाठः । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ दीह-रहस्साणुयोगद्दारं संभवमरणविवज्जियमहिवंदिय संभवं पयत्तेण । दीह-रहस्सणुयोगं वोच्छमि जहाणुपुवीए ॥ १॥ दीह-रहस्से ति अणुयोगद्दारं भण्णमाणे तत्थ दीहं चउव्विहं पडिदीहं ठिदिदीहं अणुभागदीहं पदेसदीहं चेदि । तत्थ पयडिदीहं दुविहं मूलपयडिदीहं उत्तरपयडिदीहं चेदि । तत्थ भूलपयडिदीहं दुविहं पयडिट्ठाणदीहं एगेगपयडिट्ठाणदीहं चेदि । तत्थ पयडिट्ठाणं पडुच्च अस्थि दीहं। तं जहा- अट्ठसु पयडीसु बज्झमाणियासु पयडिदीहं, तदूणासु बज्झमाणियासु णोपयडिदीहं। संतं पडुच्च अट्ठसु पयडीसु संतासु पयडिदीहं, .तदूणासु णोपयडिदीहं। उदयं पडुच्च अट्टसु पयडीसु उदिण्णासु पयडिदीहं, तदूणासु णोपयडिदीहं । एगेगपडि पडुच्च णत्थि पयडिदीहं । उत्तरपयडीसु पंचणाणावरणीय-पंचंतराइयाणं णत्थि पयडिदीहं। दंसणावरणीयस्स णव पयडीओ बंधमाणस्स अस्थि पयडिदीहं, तद्रूणं बंधमाणस्स णत्थि पयडिदोहं। एवं संतोदयमस्सिदूण वि वत्तव्वं । वेयणीयस्स बंधोदयमस्सिदूण पत्थि पयडिदीहं । संतं पडुच्च अत्थि, अजोगिचरिमसमए एयपयडिसंतं पेक्खिदूण तस्सेव जन्म और मरणसे रहित ऐसे सम्भव जिनेन्द्र की वन्दना करके प्रयत्नपूर्वक आनुपूर्वीके अनुसार दीर्घ-ह स्वानुयोगद्वारकी प्ररूपणा करता हूं ॥ १ ॥ दीर्घ-ह स्वानुयोगद्वारका कथन करने में वहां दीर्घ चार प्रकारका है- प्रकृतिदीघं, स्थितिदीर्घ, अनुभागदीर्घ और प्रदेशदीर्घ । उनमें प्रकृतिदीर्घके दो भेद हैं- मूलप्रकृतिदीर्घ और उत्तरप्रकृतिदीर्घ । इनमें मूलप्रकृतिदीर्घ दो प्रकारका है- प्रकृतिस्थानदीर्घ और एक-एकप्रकृतिस्थानदीर्घ। उनमें प्रकृतिस्थानकी अपेक्षा दीर्घ सम्भव है। वह इस प्रकारसे- आठ प्रकृतियोंका बन्ध होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उनसे कमका बन्ध होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है । सत्त्वकी अपेक्षा आठ प्रकृतियोंके सत्त्वके होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उनसे कमका सत्त्व होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है। उदयकी अपेक्षा आठ प्रकृतियोंके उदीर्ण होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उनसे कमके उदीर्ण होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है। एक एक प्रकृतिकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ सम्भव नहीं है । उत्तर प्रकृतियोंमें पांच ज्ञानावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंमें प्रकृतिदीर्घ सम्भव नहीं है। दर्शनावरणकी नौ प्रकृतियोंको बांधनेवालेके प्रकृति दीर्घ है, उनसे कम बांधनेवालेके प्रकृतिदीर्घ नहीं है । इसी प्रकारसे इनके सत्त्व और उदयका आश्रय करके भी कथन करना चाहिये । वेदनीयके बन्ध और उदयका आश्रय करके प्रकृतिदीर्घ नहीं है। सत्त्वकी अपेक्षा उसकी सम्भावना है, क्योंकि, अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें एक प्रकृतिके सत्त्वकी अपेक्षा ताप्रती 'पत्तएण' इति पाठः। ताप्रतौ ' तत्थमपडिद्धाणं अत्थि' इति पाठः । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ ) छक्खंडागमे संतकम्म दुचरिमादिसमएसु दोपयडिसंतस्स दीहत्तुवलंभादो । मोहणीयस्स संतं पडुच्च अट्ठावीसपयडीयो पयडिदीहं, तणं णोपयडिदीहं । बंधं पडुच्च : बावीस पयडीयो बंधमाणस्स पयडिदीहं, तदूणं बंधमाणस्स णोपयडिदीहं । उदयं पडुच्च दस पयडीयो पयडिदीहं, तदूणं णोपयडिदीहं। आउअस्स बंधोदयं पडुच्च णत्थि पयडिदीहं संतं पडुच्च अत्थि, परभवियाउए बद्धे दोण्णं पयडोणं संतसगादो । णामस्त एक्कतोसपयडीओ बंधोदयं पडुच्च पयडिदीहं, नदूणं णोपयडिदीहं । संतं पडुच्च तिणउदिपयडीओ पयडिदीहं, तणं णोपयडिदीहं। गोदस्स बंधोदयं पडुच्च पत्थि पयडिदीहं । संतं पडुच्च अस्थि, अजोगिचरिमसमए पयडिसंतं पेक्खिदूण दुचरिमादिसमयसंतस्स दीहत्तुवलंभादो। एवं पयडिदीहं समत्तं । ठिदिदीहं दुविहं मूलपयडिटिदिदीहं उत्तरपयडिदिदिदीहं चेदि । तत्थ मूलपयडिटिदिदीहं वुच्चदे । तं जहा-- णाणाव ण-दसणावरण-वेयणीय-अंतराइयाणं तीसंसागरोवमकोडाकोडीयो बंधमाणस्स डिदिदीहं, तदूणं बंधमाणस णोद्विदिदीहं । मोहणीयस्स सत्तारिसागरोवमकोडाकोडीयो बंधमाणस्स डिदिदीहं, तणं बंधमाणस्म णोटिदिदीहं । आउअस्स तेत्तीसंसागरोवमाणि बंधमाणस्स टिदिदीहं, तदूणं बंधमाणस्स उसीके द्विचरम-त्रिचरम आदि समयोंमें वेदनीयकी दो प्रकृतियोंके सत्त्वकी दीर्घता पायी जाती है । मोहनीयके सत्त्वकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावालेके प्रकृतिदीर्घ है, उनसे कमकी सत्तावालेके नोप्रकृतिदीर्घ है । बन्धकी अपेक्षा बाईस प्रकृतियोंको बांधनेवालेके प्रकृतिदीर्घ है, उनसे कमको बांधनेवालेके नोप्रकृतिदीर्घ है। उदकी अपेक्षा दस प्रकृतियोंके उदयवालेके प्रकृतिदीर्घ है, उनसे उदयवालेके नोप्रकृतिदीघे है। आयु कर्मके बन्ध और उदयकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ नहीं है । किन्तु सत्त्वकी अपेक्षा है, क्योंकि, परभविक आयुका बन्ध होनेपर दो आयु प्रकृतियोंका सत्त्व देखा जाता है । नामकर्मकी इकतीस प्रकृतीयोंके बन्ध और उदयकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ है, उनसे कमका बन्ध व उदय होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ है । सत्त्वकी अपेक्षा तेरानबै प्रकृतियोंकी सत्तावालेके प्रकृतिदीर्घ है, उनसे कमकी सत्तावालेके नोप्रकृतिदीर्घ है । गोत्रके बन्ध और उदयकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ नहीं है । किन्तु सत्त्वकी अपेक्षा उसके प्रकृतिदीर्घ है, क्योंकि, अयोगकेवली के अन्तिम समय सम्बन्धी प्रकृतिसत्त्वकी अपेक्षा करके द्विचरम आदि समय सम्बन्धी सत्त्वके दीर्घता पायी जाती है। इस प्रकार प्रकृतिदीर्घ समाप्त हुआ । स्थितिदीर्घ दो प्रकारका है- मूलप्रकृतिस्थितिदीर्घ और उत्तरप्रकृतिस्थितिदीर्घ । उनमें मूलप्रकृतिस्थितिदीर्घकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय; इनकी तीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण स्थितिको बांधनेवाले के स्थितिदीर्घ है, उससे कम स्थितिको बांधनेवालेके नोस्थितिदीर्घ है। मोहनीयकी सत्तर कीडाकोडि सागरोपम स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिदीर्घ है, उससे कम बांधनेवालेके नोस्थितिदीर्घ है। आयुको तेतीस सागरोपम स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिदीर्घ है, उससे कम स्थितिको बांधनेवालेके नोस्थितिदीर्घ है । नाम व गोत्रकी * अप्रतो 'आउअस्स बंधोदयं पडुच्च' इति पाठः । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीह-रहस्साणुयोगद्दारे पयडिरहस्सं ( ५०९ णोदिदिदीहं । णामा-गोदाणं बीसंसागरोवमकोडाकोडीयो बंधमाणस्स द्विदिदीहं, तणं बंधमाणस्स गोटिदिदीहं । एवमुत्तरपयडीणं पि जाणिदूण डिदिदीहपरूवणा कायव्वा । . अप्पप्पणो उक्कस्समाणुभागट्टाणाणि बंधमाणस्स अणुभागदीहं, तदूणं बंधमाणस्स णोअणुभागदीहं । सव्वासि पयडीणं सग-सगपाओग्गउक्कस्सपदेसे बंधमाणस्स पदेसदीहं, तदूणं बंधमाणस्स णोपदेसदीहं । एवं दोहं ति समत्तं । ___ रहस्से पयदं -- तं चउन्विहं पयडिरहस्सं टिदिरहस्सं अणुभागरहस्सं पसिरहस्सं चेदि । तत्थि पडिरहस्सं दुविहं मूलपयडिरहस्सं उत्तरपयडिरहस्सं चेदि ।भूलपयडिरहस्सं दुविहं पयडिट्ठाणरहस्सं एगेगपयडिरहस्सं चेदि । पयडिट्ठाणे अत्थि रहस्सं । तं जह-- एगेगपडि बंधमाणस्स पयडिरहस्सं, तदुवरि बंधमाणस्स णोपयडिरहस्सं । संतं पडुच्च चत्तारिसंतकम्मिस्स पयडिरहस्सं, तदुवरि णोपयडिरहस्सं । एगेगपयडिरहस्सं पत्थि। उत्तरपयडीसु पयदं- पंचणाणावरण-पंचंतराइयाणं णत्थि पयडिरहस्सं । दसणावरणीए चत्तारि पयडीयो बंधमाणस्स पयडिरहस्सं, तदुवरि बंधमाणस्स णोपयडिरहस्सां । मोहणीए एयं बंधमाणस्स पयडिरहस्सां तदुवरि णोपयडिरहस् । आउअस्स बंां पडुच्च पयडिरहस्सं णत्यि, दोण्णमाउआगमक्कमेण बंधाभावादो। संतं पडुच्च अत्थि पयडिरहस्सं, अबद्ध परभवियाउअम्मि एक्कस्स चेव आउअस्स उवलंभादो । बीस कोडाकोडि सागरोपम स्थितिको बांधनेवालेके स्थिति दीर्घ है, उससे कम बांधनेवाले के नोस्थितिदीर्घ है । इसी प्रकार उत्तर प्रकृतियोंके भी स्थितिदीर्घकी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये। अपने अपने उत्कृष्ट अनुभागस्थानोंको बांधनेवालेके अनुभागदीर्घ है, उनसे कम बांधनेवालेके नोअनुभागदीर्ध है । सब प्रकृतियोंके अपने अपने योग्य प्रदेशोंको बांधनेवालेके प्रदेशदीर्घ है, उससे कम बांधनेवालेके नोप्रदेशदीर्घ है । इस प्रकार दीर्घका कथन समाप्त हुआ । ह,स्वका प्रकरण है- वह प्रकृतिह स्व, स्थितिह स्व, अनुभागह स्व और प्रदेशह स्वके भेदसे चार प्रकारका है। उन में प्रकृतिह स्व दो प्रकारका है- मूलप्रकृतिह स्व और उत्तरप्रकृतिह स्व । मूलप्रकृतिह स्व दो प्रकारका है- प्रकृतिस्थानह स्व और एक-एकप्रकृतिह,म्व । प्रकृतिस्थान में ह,स्व है । यथा- एक एक प्रकृतिको बांधनेवाले के प्रकृतिह स्व है, उससे अधिक बांधनेवालेके नोप्रकृतिह स्व है । सत्त्वकी अपेक्षा चार कर्मों की सत्तावालेके प्रकृतिह,स्व है, उनसे अधिक प्रकृतियोंकी सत्तावालेके नोप्रकृतिह स्व है । एक-एकप्रकृतिह स्व नहीं है। उत्तर प्रकृतियोंका प्रकरण है- पांच ज्ञानावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके प्रकृतिह स्व नहीं है । दर्शनावरणकी चार प्रकृतियोंको बांधनेवाले के प्रकृतिह स्व है, उनसे अधिक बांधनेवालेके नोप्रकृतिह स्व है। मोहनीयकी एक प्रकृतिको बांधनेवालेके प्रकृतिह स्व है, अधिक बांधनेवालेके नोप्रकृतिह स्व है । आयुके बन्धकी अपेक्षा प्रकृतिह स्व नहीं है, क्योंकि, आयुकी दो प्रकृतियोंका युगपत् बन्ध संभव नहीं है । सत्त्वकी अपेक्षा प्रकृतिह, स्व संभव है, क्योंकि, ४ ताप्रतौ 'पदेस' इति पाठः। 8 अ-काप्रत्योः ‘पयं' इति पाठः। * ताप्रती 'बद्ध-' इति पाठः । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ) छक्खंडागमे संतकम्म णामस्स जसकित्ति बंधमाणस्स पयडिरहस्सं, तदुवरि णोपयडिरहस्सं । गोद-वेयणीयाणं बंध पडुच्च णत्थि पयडिरहस्सं, उच्च-णीचागोदाणं सादासादवेदणीयाणं च अक्कमेण बंधाभावादो । एवं पयडिरहस्सं गदं । द्विदिरहस्सं दुविहं मूलपयडिटिदिरहस्सं उत्तरपयडिटिदिरहस्सं चेदि । तत्थ मूलपयडिटिदिरहस्से च पयदं- णाणावरणीय-दसणावरणीय-मोहणीय-आउअ-अंतराइयाणं अंतोमुहुत्तट्ठिदि बंधमाणस्स ट्ठिदिरहस्सं, तदुवरि बंधमाणस्स णोटिदिरहस्सं । वेदणीयस्स बारसमुहत्तं टिदि बंधमाणस्स टिदिरहस्सं, तदुवरि णोट्ठिदिरहस्सं । णामा-गोदाणमट्टमहत्तं टिदि बंधमाणस्स टिदिरहस्सं, तदुवरि णोटिदिरहस्सं । संत पडुच्च सव्वासि पयडीणमेयट्ठिदिसंतकम्मस्स ट्ठिदिरहस्सं, तदुवरि णोटिदिरहस्सं । उत्तरपयडीसु पयडं- बंधं पडुच्च द्विदिरहस्से भण्णमाणे जहा जीवट्ठाणचूलियाए उत्तरपयडीणं जहण्णट्ठिदिपरूवणा कदा तहा कायव्वा । संपदि संतं पडुच्च वुच्चदे । तं जहा-पंचणाणावरणीय- णवदसणावरणीय--सादासाद-सम्मत्त- मिच्छत्त-सम्मा परभविक आयुके बन्धसे रहित जीवके एक ही आयुका सत्त्व पाया जाता है। नामकर्मकी यशकीर्तिको बाधनेवालेके प्रकृतिह स्व है, उससे अधिक बांधनेवालेके नोप्रकृतिह स्व है । गोत्र और वेदनीय कर्मोके बन्धकी अपेक्षा प्रकृतिह स्व नहीं है, क्योंकि, उच्च व नीच गोत्रोंका तथा साता व असाता वेदनीयोंका युगपत् बन्ध सम्भव नहीं है । इस प्रकार प्रकृतिह स्व समाप्त हुआ। स्थितिह स्व दो प्रकारका है-- मूलप्रकृतिस्थितिह म्य और उत्तरप्रकृतिस्थितिह, स्व . इनमें मूलप्रकृतिस्थितिह, स्वका प्रकरण है-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, आयु और अन्तरायकी अन्तर्मुहर्त स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिह स्व है; इससे अधिक स्थितिको बांधनेवालेके नोस्थितिह स्व है। वेदनीयकी बारह मुहूर्त मात्र स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिह स्व है, उससे अधिक स्थितिको बांधनेवालेके नोस्थितिह स्व है । नाम और गोत्रकी आठ मुहुर्त मात्र स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिह स्व है, उससे अधिक बांधनेवालेके नोस्थितिह स्व है। सत्त्वकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंके एक स्थितिसत्कर्म सहितक स्थिति-हस्व है, उससे अधिक सत्कर्मवालेके नोस्थितिह, स्व है। उत्तर प्रकृतियोंका प्रकरण है- बन्धकी अपेक्षा स्थितिह स्वका कथन करने पर जैसे जीवस्थानकी चूलिकामें उत्तर प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका कथन किया गया है वैसे ही यहां उसका कथन करना चाहिये । अब सत्त्वकी अपेक्षा स्थितिह, स्वका कथन करते हैं । यथा- पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, तेरह कषाय, ४ ताप्रती ' रहस्सेह च ' इति पाठः । 0 प्रतिषु 'सतकम्मं से सट्ठिदिरहस्सं ' इति पाठः । प्रतिष 'तं ' इति पाठः । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीह-रहस्साणुयोगद्दारे अणुभागरहस्सं ( ५११ मिच्छत्त-तेरसकसाय- इत्यि-णवंसयवेद-चत्तारिआउअ-सव्वणामपयडि--णीचुच्चागोदपंचंतराइयाणमेया टिदी द्विदिरहस्सं, तदुवरि णोद्विदिरहस्सं । कोधसंजलणाए अंतोमुहुत्तूणबेमासा टिदिरहस्सं, तदुवरि णोटिदिरहस्सं । माणसंजलणाए अंतोमुत्तूणमासो द्विदिरहस्सं । मायासंजलणाए पक्खो देसूणो टिदिरहस्सं । पुरिसवेदस्स अट्ठवासा देसूणा दिदिरहस्सं । तदुवरि णोटिदिरहस्सं । छण्णोकसायाणं संखेज्जाणि वस्साणि द्विदिरहस्सं, तदुवरि णोटिदिरहस्सं । एवं द्विदिरहस्से ति समत्तं । ___ अणुभागरहस्से पयदं । तं जहा- सव्वासि पयडीणं अप्पप्पणो जहण्णाणुभागट्ठाणं बंधमाणस्स अणुभागरहस्सं, तदुवरि बंधमाणस्स णोअणुभागरहस्सं। पदेसरहस्से पयदं । तं जहा- सव्वासि पयडीणं सग-सगजहण्णपदेसे बंधमाणस्स पदेसरहस्सं । संतं पडुच्च खविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण गुणसेडिणिज्जरं काऊण सव्वजहण्णीकयपदेसस्स पदेसरहस्स, तदुवरि णोपदेसरहस्सं । एवं दीह-रहस्से त्ति समत्तमणुयोगद्दारं। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार आयु, सब नामप्रकृतियां, नीच व उच्च गोत्र तथा पांच अन्तराय; इनकी एक स्थिति स्थितिह स्व है, उससे अधिक नोस्थितिह स्व है । संज्वलनक्रोधकी अन्तर्मुहूर्त कम दो मास स्थिति स्थितिह स्व है, उससे अधिक नोस्थितिह स्व है। संज्वलन मानकी अन्तर्मुहूर्त कम एक मास स्थिति स्थितिह, स्व है। संज्वलन मायाकी कुछ कम एक पक्ष स्थिति स्थितिह स्व है । पुरुषवेदकी कुछ कम आठ वर्ष स्थिति स्थितिह, स्व है। उससे अधिक स्थिति नोस्थितिह स्व है। छह नोकषायोंकी संख्यात वर्ष स्थिति स्थितिह, स्व है, उससे अधिक स्थिति नोस्थितिह स्व है । इस प्रकार स्थितिह स्व समाप्त हुआ। ___ अनुभागह,स्वका प्रकरण है। यथा- सब प्रकृतियोंके अपने अपने जघन्य अनुभागस्थानको बांधनेवालेके अनुभागह,स्व है, उससे अधिक अनुभागस्थानको बांधनेवालेके नोअनुभागह स्व है। __ प्रदेशह स्व अधिकारप्राप्त है । यथा सब प्रकृतियोंके अपने अपने जघन्य प्रदेशोंको बांधनेवालेके प्रदेशह स्व है सत्त्वकी अपेक्षा क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकर गुणश्रेणिनिर्जराको करके जिसने प्रदेशको सबसे जघन्य कर लिया है उसके प्रदेशह स्व है, उससे अधिकके नोप्रदेशह स्व है । इस प्रकार दीर्घ-ह स्व यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। प्रतिषु ' तं' इति पाठः । For Private Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ भवधारणीयाणुयोगद्दारं तिहुवणसुरिंदवंदियमहिवंदिय तिहुवणाहिवं सुदि । भवधारणीय ममलं अणुयोगं वण्णइस्सामो ॥ १॥ भवसंधारणदाए *त्ति अणुयोगद्दारे अत्थि भवो तिविहो । तं जहा- ओघभवो आदेसभवो भवग्गहणभवो चेदि । तत्थ ओघभवो णाम अटुकम्माणि अटुकम्मणिदजीवपरिणामो वा । आदेसभवो णाम चत्तारि गइणामाणि तेहि जणिदजीवपरिणामो वा । सो आदेसभवो चउविहो णि यभवो तिरिक्खभवो मणुसभवो देवभवो चेदि । भवग्गहणभवो णाम गलिदभुज्जमाणाउअस्स उदिण्णअपुवाउकम्मस्स पढमसमए उप्पण्णजीवपरिणामो वंजणसण्णिदो पुव्वसरीरपरिच्चारण उत्तरसरीरगहणं वा भवग्गहणभवो णामा तत्थ भवग्गहणभवेण पयदं- कधममुत्तस्स जीवस्स मुत्तेण सरीरेण सह बंधो? ण एस दोसो, मुत्तट्टकम्मजणिदसरीरेण अणाइणा संबद्धस्स जीवस्स * संसा रावस्थाए सव्वकालं तत्तो अपुधभूदस्स तस्संबंधेण मुत्तभावमुवगयस्स सरीरेण सह तीन लोकके देवों व इंद्रों वन्दित ऐसे तीन लोकके स्वामी सुमति जिनेन्द्रकी वन्दना करके निर्मल भवधारणीय नामक अनुयोगद्वारका वर्णन करते हैं ।। १ ।। 'भवसंधारणता' इस अनुयोगद्वारमें भव तीन प्रकारका है । यथा- ओघभव, आदेशभव और भवग्रहणभव । इनमें आठ कर्मों अथवा आठ कर्म जनित जीवके परिणामका नाम ओघभव है। चार गतिनामको या उनसे उत्पन्न जीवपरिणामको आदेशभव कहते हैं । वह आदेशभव चार प्रकारका है- नरकभव, तिर्यंचभव, मनुष्यभव और देवभव । भुज्यमान आयुको निर्जीण करके जिसके अपूर्व आयु कर्म उदयको प्राप्त हुआ है उसके प्रथम समयमें उत्पन्न ' व्यंजन ' संज्ञावाले जीवपरिणामको अथवा पूर्व शरीरके परित्यागपूर्वक उत्तर शरीरके ग्रहण करनेको भवग्रहणभव कहा जाता है । उनमें यहां भवग्रहणभव प्रकरण प्राप्त है शंका- अमूर्त जीवका मूर्त शरीरके साथ कैसे बन्ध होता है ? . समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मूर्त आठ कर्मजनित अनादि शरीरसे संबद्ध जीव संसार अवस्था में सदा काल उससे अपृथक् रहता है । अतएव उसके सम्बन्धसे मूर्तभावको प्राप्त हुए जीवके शरीरके साथ सम्बन्ध होने में कोई विरोध नहीं है। घा अ-काप्रत्योः 'सुमाहि' इति पाठः। 9 अ-कप्रत्योः - भववारणीव-'ताप्रती 'भा (धा) रणीय-' इति पाठः। * अ-काप्रत्योः 'भवसंवारणदाए',ताप्रतौ' भवसंवा (धा) रणदाए-' इति पाः। D मप्रतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्यो: 'अणाइणा अणाइणा', ताप्रतौ 'अगाइणा (अणाइणा)' इति पाठः । ताप्रती 'जीवस्स' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते । प्रतिषु ' तस्स बंधेण' इति पाठः । . Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भधारणीयाणुयोगद्दारे भवधारयपरूवणा ( ५१३ संबंधस्स विरोहाभावादो । कदमेण धारिज्जदि ? कम्मेण धारिज्जदि । कुदो ? अण्णस्सा संभवादो । तत्थ णाणावरण- दंसणावरण-वेयणीय- मोहणीय णामा- गोदअंतराइएहि णो धारिज्जदि, तेसिमण्णत्थ वावारुवलंभादो । केण पुण धारिज्जदि ? आउएक्केण चैव धारिज्जदि, अण्णहा आउअकम्मस्स वज्जियकज्जस्स अभावप्प - संगादो । कघमण्णत्तो* उप्पण्णकज्जस्स अण्णं धारयं ? ण एस दोसो, वट्टीदो* समुप्पण्णपवस्स तेल्लेण धारिज्जमाणस्स उवलंभादो । इहभविएण आउएण धरेदि भवं, ण परभविएणे त्ति भावत्थो । जेण पदेसग्गेण भवं धारेदि तस्स पदेस - गस्स पदमीमांसा सामित्तमप्पाबहुगं च जहा वेयणाए परूविदं तहा परूवेयत्वं । एवं भवधारणीए त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । शंका- किसके द्वारा वह धारण किया जाता है ? समाधान- कर्मके द्वारा धारण किया जाता है, क्योंकि, अन्यकी सम्भावना नहीं है । उसमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तरायके द्वारा तो वह धारण नहीं किया जाता है; क्योंकि इनका व्यापार अन्य कार्यों में पाया जाता है । शंका- तो फिर वह किसके द्वारा धारण किया जाता है ? समाधान- वह केवल एक आयु कर्मके द्वारा धारण किया जाता है । इसके विना आयु कर्मका अन्य कार्य न रहनेसे उसके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है । शंका- अन्यके निमित्तसे उत्पन्न कार्यका अन्य धारक कैसे हो सकता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वत्ती से उत्पन्न प्रदीप तेलके द्वारा धारण किया जानेवाला देखा जाता है । कारण कि भावार्थ यह है कि इस भव सम्बन्धी आयु कर्मके द्वारा भव धारण किया जाता है, परभव सम्बन्धी आयु कर्मके द्वारा नहीं धारण किया जाता । जिस प्रदेशाग्र के द्वारा भवको धारण करता है उस प्रदेशाग्र सम्बन्धी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा जैसे वेदना अनुयोगद्वार में की गयी है वैसे करना चाहिये । इस प्रकार भवधारणीय यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । अ-काप्रत्योः ' कदमेण वारिज्जदि', ताप्रहो ' कदमेण वा (धा) रिज्जदि ' इति पाठ: । अ-काप्रत्योः 'वारिज्जदि ताप्रती वा (धा) रिज्जदि इति पाठ: । 'कथमण्णतो', तातो 'कथमण्णंतो (मण्णदो ) ' इति पाठः । अ- काप्रत्यो: 'तुल्लेग, तारती 'तु (ते) ल्लेग ' इति पाठ: । अ-काप्रत्योः ताप्रती ' वड्ढी (ट्टी) दो' इति पाठः । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ पोग्गल-अत्ताणुयोगद्दारं पउमदलगब्भउरं देवं पउमप्पहं णमंसित्ता । पोग्गलअत्तणुओअं समासदो वण्णइसामो ॥१॥ पोग्गल-अत्ते त्ति अणुयोगद्दारे पोग्गलो णिक्खिविदव्वो । तं जहा- णामपोग्गलो ट्ठवणपोग्गलो दव्वपोग्गलो भावपोग्गलो चेदि चउविव्हो पोग्गलो । णाम-ढवणापोग्गला सुगमा । दव्वपोग्गलो आगम-णोआगमदव्वपोग्गलभेदेण दुविहो। आगमपोग्गलो सुगमो । णोआगमपोग्गलो तिविहो जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तं चेदि । जाणुगसरीर-भवियं गदं । तव्वदिरित्तपोग्गलो थप्पो। भावपोग्गलो दुविहो आगमणोआगमभावपोग्गलभेएण । आगमो सुगमो। णोआगमभावपोग्गलो रूव-रस-गंधफासादिभेएण अणेयविहो । तत्थ णोआगमतव्वदिरित्तदन्वपोग्गले पयदं । णेगमणयस्स वत्तव्वएण सव्वदव्वं पोग्गलो । आत्तं णाम गृहीतम् । आत्ताः गृहीताः आत्मसात्कृताः पुद्गलाः पुद्गलात्ताः । ते च पुद्गलाः षड्भिः प्रकारैरात्मसात् क्रियन्ते। तं जहा- गहणदो परिणामदो उवभोगदो आहारदो ममत्तीदो परिग्गहादो पद्मपत्रके गर्भके समान गौर वर्णवाले पद्मप्रभ जिनेन्द्रको नमस्कार करके पुद्गलात्त अनुयोगद्वारका संक्षेपमें वर्णन करते हैं ।। १ ।। ___'पुद्गलात्त' इस अनुयोगद्वारमें पुद्गलका निक्षेप किया जाता है । यथा- नामपुद्गल, स्थापनापुद्गल, द्रव्यपुद्गल और भावपुद्गलके भेदसे पुद्गल चार प्रकारका है। इनमें नामपुद्गल और स्थापनापुद्गल सुगम हैं । द्रव्यपुद्गल आगमद्रव्यपुद्गल और नोआगमद्रव्यपुद्गलके भेदसे दो प्रकारका है । आगमद्रव्यपुद्गल सुगम है । नोआगमद्रव्यपुद्गल तीन प्रकारका है- ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त । ज्ञायकशरीर और भावी अवगत हैं । तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यपुद्गलको अभी छोड़ते हैं। आगम और नोआगम भावपुद्गलके भेदसे भावपुद्गल दो प्रकारका है। उनमें आगमभावपुद्गल सुगम है । नोआगमभावपुद्गल रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है । उनमें यहां तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य द्गल प्रकृत हैं। नैगम नयके विषय स्वरूपसे सब द्रव्य पुद्गल हैं । आत्त शब्द का अर्थ गृहीत है। अतएव 'आत्ताः पुद्गलाः पुद्गलात्ताः ' इस विग्रहके अनुसार यहां पुद्गलात्त पदसे आत्मसात् किये गये पुद्गलोंका ग्रहण है । वे पुद्गल छह प्रकारसे आत्मसात् किये जाते हैं । यथा ग्रहणसे, परिणामसे, उपभोगसे, आहारसे, ममत्वसे और परिग्रहसे । इनकी विभाषा इस प्रकार है ० अ-काप्रत्यो: 'दवपोग्गला' इति पाठः । : Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल-अत्ताणुयोगद्दारे पुग्गलात्तत्तपरूवणा ( ५१५ चेदि । विहासा । तं जहा-- हत्थेण वा पादेण वा जे गहिदा दंडादिपोग्गला ते गहणदो अत्ता पोग्गला । मिच्छत्तादिपरिणामेहि जे अपप्णो कदा ते परिणामदो अत्ता पोग्गला। गंध-तंबोलादिया जे उवभोगे अप्पणो कदा ते उवभोगदो अत्ता पोग्गला। असणपाणादिविहाणेण जे अप्पणो कदा ते आहारदो अत्ता पोग्गला । जे अणुराएण पडिग्गहिया ते ममत्तीदो अत्ता पोग्गला । जे सायत्तो ते परिग्गहादो अत्ता पोग्गला । __ अधवा, पोग्गलाणमत्ता रूव-रस-गंधफासादिलक्खणं सरूवं पोग्गलअत्ता णाम। तेसि च अणंतभागवड्ढि-असंखेज्जभागवड्ढि-खेज्जभागवड्ढि-खेज्जगुणवड्ढि असंखेज्जगुणवड्ढि-अणंतगुणवड्ढि त्ति रूवादीणं छव्विहाओ वड्ढीओ होति । तासि परूवणा जहा भावविहाणे कदा तहा कायव्वा । सट्टाणस्स वि असंखेज्जलोगमेत्ताणि ठाणाणि होति । तेसि पि एवं चेव परूवणा कायव्वा । एवं पोग्गलात्तेत्ति समत्तमणुयोगद्दारं । जो दण्ड आदि पुद्गल हाथ अथवा परसे ग्रहण किय गये हैं वे ग्रहणसे आत्त पुद्गल कदलाते है । मिथ्यात्व आदि परिणामोंके द्वारा जो पुद्गल अपने किये गये हैं वे परिणामसे आत्त पुद्गल कहे जाते हैं। जो गन्ध और ताम्बूल आदि पुद्गल उपभोग स्वरूपसे अपने किये गये हैं उन्हें उपभोगसे आत्त पुद्गल समझना चाहिये । भोजन-पान आदिके विधानसे जो पुद्गल अपने किये गये हैं उन्हें आहारसे आत्त पुद्गल कहते है जो पुद्गल अनुरागसे गृहीत होते हैं वे ममत्वसे आत्त पुद्गल हैं । जो आत्माधीन पुद्गल हैं उनका नाम परिग्रहसे आत्त पुद्गल हैं। अथवा, 'अत्त' का अर्थ आत्मा अर्थात् स्वरूप है। अतएव 'पोग्गलाणं-अत्ता पोग्गलअत्ता' इस विग्रहके अनुसार पुद्गलात्त ( पुद्गलात्मा ) पदसे पुद्गलोंका रूप, रस, गन्ध व स्पर्श आदि रूप लक्षण विवक्षित है। उन रूपादिकोंके अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये छह वृद्धियां होती हैं। उनकी प्ररूपणा जैसे भावविधान में की गयी है वैसे करना चाहिये । स्वस्थानके भी असंख्यात लोक मात्र स्थान होते हैं । उनकी भी इसी प्रकारसे प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार पुद्गलात्त यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ताप्रती 'पोग्गलत्ते' इति पाठः । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० णिधत्तमणिधत्ताणुयोगद्दार मिण सुपासजिणं तियसेसरवंदियं सयलणाणि । वोच्छं समासदो हं णिधत्तमणिधत्तमणुयोगं ॥ १ ॥ धित्तमणिधत्ते त्ति अणुयोगद्दारे अत्थि पयडिणिधत्तं द्विदिणिधत्तं अणुभागणिधत्तं पदेसणिधत्तं चेदि । तत्थि अट्ठपदं -- जं पदेसग्गं णिधत्तीकां उदए दादुं णो सक्के, अण्णपर्याड संकामिदं पि णो सक्कं, ओकड्डिदुमुक्कड्डिदुं च सवर्क; एवंविहस्स पदेसग्गस्स णिधत्तमिदि सण्णा । इममण्णं साहणं । उवसामयस्स वा खवयस्स* वा सव्वकम्माण अणियट्टिट्ठाणं पवट्ठिस्स अणिधत्तानि, तेसु णिधत्तलक्खणाणं सव्वेसि विणासादो । अनंताणुबंधिणो विसंजोएंतस्स अणियट्टिकरणम्हि अनंताणुबंधिचदुक्कमणिधत्तं, सेसाणिE कम्माणि णिधत्ताणि आणिधत्ताणि च । दंसण ? मोह वसामय अणियट्टिकरणम्हि दंसणमोहखवगस्स अणियट्टिकरणे च दंसणमोहणीयं चेव अणिधत्तं *, सेसाणि कम्माणि णिधत्ताणि आणिधत्ताणि च । एदेण अट्ठपदेण चवीस अणुयोगद्दारेहि णिधत्तस्स अणिधत्तस्स च मूलुत्तरपयडीओ अस्सिदूण परूवणा कायव्वा । एवं णिधत्तमणिधत्ते त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । त्रिदशेश्वर अर्थात् इन्द्रोंसे वन्दित और पूर्णज्ञानी ऐसे सुपार्श्व जिनको नमस्कार करके मैं संक्षेप में निधत्तमनिधत्त अनुयोगद्वारका कथन करता हूं ॥ १ ॥ निधत्तमनिधत्त अनुयोगद्वार में प्रकृत्तीनिधत्त, स्थितिनिधत्त, अनुभागनिधत्त और प्रदेशनिधत्त हैं । उनमें अर्थपद -- जो प्रदेशाग्र निघत्तीकृत है अर्थात् उदयमें देनेके लिये शक्य नहीं है, अन्य प्रकृति में संक्रान्त करनेके लिये भी शक्य नहीं है, किन्तु अपकर्षण व उत्कर्षण करने के लिये शक्य है; ऐसे प्रदेशाग्रकी निधत्त संज्ञा है । यह अन्य साधन है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रविष्ट हुए उपशामक अथवा क्षपक जीवके सब कर्म अनिषत्त हैं, क्योंकि, उनमें सब निघत्तलक्षणों का अभाव है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवालेके अनिवृत्तिकरणम अनन्तानुबन्धिचतुष्क अनिधत्त और शेष कर्म निधत्त व अनिधत्त भी हैं । दर्शनमोहउपशामक के अनिवृत्तिकरण में और दर्शन मोहक्षपत्रके अनिवृत्तिकरण में केवल दर्शनमोहनीय ही अनिधत्त है, शेष कर्म निधत्त व अनिधत्त भी हैं। इस अर्थपदके अनुसार मूल और उत्तर प्रकृतियों का आश्रय करके निधत्त और अनिधत्तकी प्ररूपणा चौबीस अनुयोगद्वारोंके द्वारा करना चाहिये । इस प्रकार निघत्तमनिधत्त अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । Xx देसोवसमणतुल्ला होइ निती निकाइन नवरं । संकमणं पि निहत्तीए णत्थि सेसाग वियरस्स ॥ क. प्र. ५, ७२. ताप्रती इमं सण्णं साहणं' इति पाठ: । अ-काप्रत्यो: 'खंधयस्स', ताप्रती ' खंध खव ) यस्स' इति पाठ: । अप्रतौ ' अणिवणत्ताणि', काप्रतो 'अणिवण्णत्ताणि' इति पाठः । अरतौ चदुक्क मणिवण्ण से सागि ' काप्रतौ 'चदुक्कमणिवणसे साणि ' इति पाठः । अप्रतौ 'निधनाणि आणिधत्ताणि अणिदत्ताणि च दंसण-', काप्रतौ 'णिधताणि आणिधत्ताणि दंसण-', ताप्रतौ, 'णिधत्ताणि (अणिधत्ताणि) अधिताणि च दंसण' इति पाठः । अप्रतौ ' अणिधगतं', तातो 'अधि (ण) त्तं ' इति पाठः । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ णिकाचिदमणिकाचिदाणुयोगद्दारं हंसमिव घवलममलं जम्मण जर मरणवज्जियं चंदं । वोच्छामि भावपणओ णिकाचिदणिकाचिदणुयोगं ॥ १ ॥ णिकाचिदमणिकाचिदमिदि अणुयोगद्दारे अस्थि पयडिणिकाचिदं ठिदिणिकाचिद अणुभागणिकाचिदं पदेसणिकाचिदं चेदि । तत्थ अट्ठपदं -- जं पदेसग्गं ओकड्डिदुं णो सक्के, उक्कड्डि णो सक्कं, अण्णपर्याड संकामिदं णो सक्कं, उदए दादु णो सक्कं तं पदेसगं णिकाचिदं णाम । अणियट्टिकरणं पविट्ठस्स सव्वकम्माणि अणिकाचिदाणि, ट्ठा णिकाचिदाणि अणिकाचिदाणि च । एदेण अट्ठपदेण णिकाचिदाणिकाचिदाणं चवीस अणुयोगद्दारेहि परूवणा कायव्वा । उवसंत णिधत्त - णिकाचिदाणं सण्णियासो । तं जहा -- अप्पसत्थउवसामणाए जमुवसंतं पदेसग्गं ण तं णिधत्तं ण तं णिकाचिदं* वा । जं णिधत्तं ण तं उवसंतं णिकाचिदं वा । जं णिकाचिदं ण तं उवसंतं णिधत्तं वा । देसिमा बहुअं । तं जहा -- जिस्से वा तिस्से वा एक्किस्से पयडीए अधापवत्तकमो थोवो । उवसंतपदेसग्गमसंखेज्जगुणं । णिधत्तमसंखेज्जगुणं । णिकाचिदमसंखेगुणं । एवं णिकाचिदमणिकाचिदं ति समत्तमणुयोगद्दारं । हंसके समान धवल, निर्मल तथा जन्म जरा और मरणसे रहित ऐसे चन्द्रप्रभ जिनको भावपूर्ण प्रणाम करके मैं निकाचित-अनिकाचित अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा करता हूं ॥ १ ॥ निकाचितमनिकाचित अनुयोगद्वार में प्रकृतिनिकाचित, स्थितिनिकाचित, अनुभागनिकाचित और प्रदेशनिकाचित हैं। उनमें अर्थपद -- जो प्रदेशाग्र अपकर्षण करनेके लिये शक्य नहीं है, उत्कर्षण के लिये शक्य नहीं है, अन्य प्रकृति में संक्रान्त करनेके लिये शक्य नहीं है, तथा उदयमें देनेके लिये भी शक्य नही है; उस प्रदेशाग्रको निकाचित कहते हैं । अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट हुए जीवके सब कर्म अनिकाचित हैं । उसके नीचे निकाचित भी हैं और अनिकाचित भी हैं । इस अर्थपदके अनुसार निकाचित और अनिकाचितकी चौबीस अनुयोगद्वारों के द्वारा प्ररूपणा करना चाहिये । उपशान्त, निधत्त और निकाचितका संनिकर्ष इस प्रकार है-- अत्रशस्त उपशामना द्वारा जो प्रदेशाग्र उपशमको प्राप्त है वह न निधत्त है और न वह निकाचित भी है। जो प्रदेशाग्रनिधत्त है वह उपशान्त और निकाचित नहीं है। जो प्रदेशाग्र निकाचित है वह उपशान्त और निधत्त नहीं है । इनका अल्पबहुत्व इस प्रकार है- जिस किसी भी एक प्रकृतिका अधःप्रवृत्तसंक्रम स्तोक है । उससे उपशान्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । उससे निधत्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । उससे निकाचित प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । इस प्रकार निकाचित मनिकाचित अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । तातो 'पदेसग्गं तं णिधतं निकाचिदं ' इति पाठ: । अप्रती 'जं गिधगतं णं तं काप्रती जं णिघणत्तं णतं, ताप्रतौ ' ज धि ( ण ) त्तं ण त' इति पाठः । गुणसेढिएसगं थोवं उत्तेगसो असंखगंग । उवसामणा-तिसु विसंक्रमणेहप्पवत्ते य ॥ क. प्र. ५, ७३. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ कम्मठिदिअणुयोगद्दारं णमियूण पुष्फयंतं सुरहियधवलिद्धपुप्फअंचियच्चलणं। कम्मट्ठिदिअणुयोगं वोच्छामि समासदो पयत्तेण ॥१॥ कम्मढिदि त्ति अणुयोगद्दारम्हि भण्णमाणे बे उवदेसा होंति- जहण्णुक्कस्सट्ठिदीणं पमाणपरूवणा कम्मढिदिपरूवणे ति णागहत्थिखमासमणा भणंति । अज्जमखुखमासमणा पुण कम्मढिदिसंचिदसंतकम्मपरूवणा कम्मढिदिपरूवणे त्ति भणंति । एवं दोहि उवएसेहि कम्मट्ठिदिपरूवणा कायव्वा । एवं कम्मट्ठिदि त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । सुगन्धित, धवल और समृद्ध पुष्पों द्वारा जिनके चरणोंकी पूजा की गयी है उन पुष्पदन्त जिनेन्द्रको नमस्कार करके मैं प्रयत्नपूर्वक संक्षेपमें कर्मस्थिति अनुयोगद्वारका कथन करता हूं ॥१॥ ___ मकस्थिति अनुयोगद्वारके निरूपण करने में दो उपदेश हैं- जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियोंके प्रमाणकी प्ररूपणा कर्मस्थितिप्ररूपणा है, ऐसा नागहस्ती क्षमाश्रमण कहते हैं । परन्तु आर्यमंक्षु क्षमाश्रमण कहते हैं कि कर्मस्थितिसंचित सत्कर्मकी प्ररूपणाका नाम कर्मस्थितिप्ररूपणा है । इस प्रकार दो उपदेशोंके द्वारा कर्मस्थितिको प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार कर्मस्थिति अनुयोगद्दार समाप्त हुआ। ४ अतोऽग्रे प्रतिष्वत्र अ-काप्रत्योः' अवियचलणं', ता-मप्रत्योः 'अंचियचलणं' इति पाठः । 'अहं' इत्येतदधिकं पदं समुपलभ्यते। 'अणुयोगदारेहि ' इति पाठः । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ पच्छिमक्खंधाणुयोगद्दारं सोयलजिण महिवंदिय तिहुवणजणसीयलं पयत्तेण । वोच्छं समासदो हं जहागमं पच्छिमक्खंधं २ ।। १ ।। पच्छिमभवक्खंधेत्ति अणुयोगद्दारे ओघभवो ओदसभवो भवग्गहणभवो चेदि तिविहो भव । तत्थ भवग्गहणभवेण पयदं । जो चरिमो भवो तम्हि भवे, तस्स जीवस्स सव्वकम्माणं बंधमग्गणा उदयमग्गणा उदीरणमग्गणा संकममग्गणा संतकम्ममग्गणा चेदि एदाओ पंच मग्गणाओ पच्छिमक्खंधाणुयोगद्दारे कीरंति । पर्याडि-ट्ठिदि- अणुभागपदेसग्गमस्सिद्वेण एदासु पंचसु परूवणासु कदासु तदो पच्छिमे भवग्गहणे सिज्झमाणस्स इमा अण्णा परूवणा कायव्वा । तं जहा- आउअस्स अंतोमुहुत्त से से तदो आवज्जिदकरणं करेदि । आवज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्धादं करेदि । पढमसमए दंडं करेदि । तत्थ द्विदीए असंखेज्जभागे हणदि । अप्पसत्थाणं कम्माणं अणुभागस्स अनंतभाग हदि । तदो बिदियसमए कवाडं करेदि । तत्थ सेसियाए द्विदीए असंखेज्जभागे हणदि, सेसाणुभागस्स च अणंते भागे हणदि । तदो तदियसमए मंथं करेदि । तत्थ वि द्विदि - अणुभागे तहेव * हणदि । तदो चउत्थसमए लोगं पूरेदि । लोगं पूरमाणे वि 1 तीन लोकके जीवोंको शीतल करनेवाले ऐसे शीतल जिनेन्द्रकी वन्दना करके मैं संक्षेपसे आगमके अनुसार पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा करता हूं ॥ १ ॥ ' पश्चिमभवस्कन्ध' अनुयोगद्वार में भव तीन प्रकारका है- ओघ भव, आदेश भव और भवग्रहण भव । इनमें भवग्रहण भव प्रकरणप्राप्त है । जो अन्तिम भव है उस अन्तिम भवमें उस जीवके सब कर्मोंकी बन्धमार्गणा, उदयमार्गणा, उदीरणामार्गणा, संक्रममार्गणा और सत्कर्ममार्गणा ये पांच मार्गणायें पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार में की जाती हैं । प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशाग्रका आश्रय करके इन पांच मार्गणाओंकी प्ररूपणा कर चुकनेपर तत्पश्चात् पश्चिम भवग्रहण में सिद्धिको प्राप्त होनेवाले जीवकी यह अन्य प्ररूपणा करना चाहिये । यथा-- आयुके अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रह जानेपर तब आवर्जितकरणको करता है । आवर्जितकरण के कर चुकनेपर फिर केवलिसमुद्घातको करता है प्रथम समय में वह दण्डसमुद्घातको करता है । उसमें स्थिति के असंख्यात बहुभागको घातता है । अप्रशस्त कर्मोंके अनुभागके अनन्त बहुभागको घातता है । तत्पश्चात् द्वितीय समय में वह कपाटसमुद्घातको करता है । उसमें शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागको घाता है और शेष अनुभाग के अनन्त बहुभागको घातता है । पश्चात् तृतीय समयमें मंथसमुद्धातको करता है । उसमें भी स्थिति और अनुभागका उसी प्रकारसे घात करता है । तत्पश्चात् चतुर्थ समयमें लोकको पूर्ण करता है अर्थात् लोकपूरणसमुद्धातको करता है। लोक XX अ-काप्रत्यो: ' ' पच्छिमक्खंडं', ताप्रती 'पच्छिमक्खंड (धं )' इति पाठः । अ-काप्रत्यो: 'पच्छिमभमक्खंडेसि', ताप्रतौ 'पच्छितभव क्खंडे' (धे ) त्ति' इति पाठ: । मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'करेंति' इति पाठः । अ-काप्रत्योः 'मद्ध' इति पाठः । * प्रतिषु 'तत्येव' इति पाठः । क. पा. सु पृ. ९००, २-११ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ) छक्खंडागमे संतकम्भ ट्ठिदि-अणुभागे तहेव हणदि । ठिदिसंतकम्ममंतोमहत्तं ठवेदि संखेज्जगुणमाउआदो। एदेसु चदुसु समएसु अप्पसत्थकम्माणमणुभागस्स अणुसमयमोवट्टणा, एयसमइयो च ट्ठिदिखंडयस्स घादो । एत्तो सेसाए दिदीए संखेज्जभागे हणदि । सेसस्स अणुभागस्स अप्पसत्थस्स अणंते भागे हणदि । एत्तो पाए द्विदिखंडयस्स अणुभागखंडयस्स च अंतोमुहुत्तमुक्कोरणद्धा । एत्तो अंतोमुहुत्तं गंतूण वचिजोगं णिरुंभदि। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण मणजोगं णिरुंभदि अंतोमुहुत्तं गंतूण कायजोगं णिरुंभदि*। अंतोमुहुत्तं कायजोग णिरुंभमाणो इमाणि करणाणि करेदि- पढमसमए अपुव्वफद्दयाइं करेदि पुवफद्दयाणं हेट्ठदो। आदिवग्गणाविभागपडिच्छेदाणं असंखे० भागमोवट्टेदि । जीवपदेसाणमसंखे० भागमोवट्टेदि । एवमतोमुत्तमपुवफद्दयाणि करेदि । असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए जीवपदेसाणं च असंखे० गुणाए सेडीए । अपुवल्फद्दयाणि पमाणदो सेडीए असंखेज्जदिभागो सेडिवग्गमूलस्स वि असंखेज्जदिभागो* । एवमपुव्वफद्दयाणि समत्ताणि। पूरणसमुद्धात करते समय भी स्थिति और अनुभागको उसी प्रकारसे घातता है । स्थितिसत्कर्मको अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थापित करता है जो आयुसे संख्यातगुणा होता है। इन चार समयोंमें अप्रशस्त कर्मोंके अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना और एक समयवाले स्थितिकाण्डकका घात होता है । यहां उतरते समय शेष स्थितिके संख्यात बहुभागका घात करता है। शेष अप्रशस्त अनुभागके अनन्त बहुभागका घात करता है । यहां स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकका अन्तर्मुहुर्तवाला उत्कीरणकाल प्रवृत्त होता है। अन्तर्मुहुर्त जाकर वचनयोगका निरोध करता है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर अन्तर्मुहूर्त में मनयोगका निरोध करता है । यहांसे अन्तर्मुहूर्त जाकर अन्तर्मुहुर्त उच्छ्वास-निःश्वासका निरोध करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर काययोगका निरोध करता है । अन्तर्मुहुर्तमें काययोगका निरोध करता हुआ इन करणोंको करता है-- प्रथम समयमें पूर्वस्पर्वकोंके नीचे अपूर्वस्पर्धकोंको करता है। आदिम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपवर्तन करता है । जीवप्रदेशोंके असंख्यातवें भागका अपवर्तन करता है। इस प्रकार अन्तर्महर्त काल अपूर्वस्पर्धकोंको करता है। इन अपूर्व पर्धकोंको असंख्यातगणहीन श्रेणिके क्रमसे तथा जीवप्रदेशोंके असंख्यातगणी श्रेणिके क्रमसे करता है । अपूर्वस्पर्धकोंको प्रमाण श्रेणिके असंख्यातवें भाग और श्रेणिवर्गमूलके भी असंख्यातवें भाग मात्र है। इस प्रकार अपूर्वस्पर्धकोंका कथन समाप्त हुआ। "क. पा. सु. पृ. ९०२, १३-१९ ष खंडागम पु. ६, पृ. ४१४; पु. १० पृ. ३२१. एत्तो अंतोमुहुतं गंतूण बादरकायजोगेण बादरमणजोगेण णिरंभ इ। तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरुंभइ । तदो अंतोमहत्तेण बादरकायजोगेण बादर उस्सासणिस्सासं णिरुंभइ । तदो अतोमुहत्तेण बादरकायजोगेण तमेव दरकायजोगं णिरुंभइ । तदो अंतोमहत्तं गंतूण सुहमकायजोगेण सहममणजीगं गिरंभइ । तदो अंतोमहुत्तेग सुहमकायजोगेण सुहमवचिजोगं णिरुंभइ । तदो अंतोमहुत्तेण सुहुमकायजोगेण सुहमउस्सासं णिरुंभइ । क. पा. सु. पू. ९०४, २०-२६.0 ताप्रतो 'करेदि, अपुवफड्डयाणं हेद्रदो आदि-' इति पाठः। * क. पा. सु. पृ. ९०४, २७-३४. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छिमक्खंधाणुयोगद्दारे किट्टिकरणादिविहाणं ( ५२१ तो अंतमत्तं किट्टीयो करेदि । अपुव्वफयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखे० भागमोवट्टेदि । जीवपदेसाणमसंखे० भागमोवट्टेदि । एत्तो अंतोमुत्तं किट्टीओ करेदि असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए, जीवपदेसाणं च असंखे० गुणाए sir ओट्टेदि । किट्टीदो किट्टिगुणगारो * पलिदो ० असंखे० भागो । किट्टीओ सेडीए असंखे ० भागो, अपुव्वफद्दयाणं च असंखे० भागो । किट्टिकरणे णिट्टिदे तदो से काले अव्वफद्दयाणि पुव्वफद्दयाणि च णासेदि । अंतोमुहुत्तं किट्टिगदजोगो होदि । सुहुम किरियम पडिवादिझाणं झायदि । किट्टीणं चरिमसमए असंखे० भागे णासेदि* । जोगम्हि णिरुद्धम्मि आउअसमाणि कम्माणि करेदि । तदो अंतोमुहुत्तं सेलेसि पडिवज्जदि, समुच्छिण्ण किरियमणियट्टिझाणं झायदि । सेलेसिअद्धाए ज्झीणाए सव्वकम्मविष्पमुवको एमसमएण सिद्धिं गच्छदि ति एवं पच्छिमवखंधे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । यहांसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल कृष्टियोंको करता है । अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिम वर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपवर्तन करता है । जीवप्रदेशोंके अविभागप्रति च्छेदोंके असंख्यातवें भाग का अपवर्तन करता है । यहांसे अन्तर्मुहूर्त काल असंख्यातगुणहीन श्रेणि क्रमसे कृष्टियोंका करता है, जीवप्रदेशोंका असंख्यातगुणित श्रेणिके क्रमसे अपवर्तन करता है । कृष्टिसे कृष्टिका गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है । कृष्टियां श्रेणिके असंख्यातवें भाग तथा अपूर्वस्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भाग मात्र होती हैं । कृष्टिकरण के समान होनेपर तत्पश्चात् अनन्तर समय में अपूर्वस्पर्धकों और पूर्वस्पर्धकों को भी नष्ट करता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल कृष्टिगतयोग होता है और सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपातिध्यानको ध्याता है । कृष्टि अन्तिम समय में असंख्यात बहुभागको नष्ट करता है। योगका निरोध हो जानेपर कर्मोंको आयु समान करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में शैलेश्यभावको प्राप्त करता है और समुच्छि - नक्रिया अनिवृत्तिध्यानको ध्याता है । शैलेश्यकाल के क्षीण होनेपर सब कर्मोंसे मुक्त होकर एक समय में सिद्धिको प्राप्त होता है । इस प्रकार 'पश्चिमस्कन्ध' यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । - कसा पाहुडसुते तु ' किट्टीदो किट्टिगुणगारो' इत्येतस्य स्थाने ' किट्टीगुणगारो ' इति पाठः । प्रतिषु 'किट्टीए' इति पाठः । अप्रतौ ' अपुग्वफयाण अपुग्वफद्दयाणि ' इति पाठ: । * अ-काप्रत्योः ' णासेडि ' इति पाठ: । क. पा. सु. पृ. ९०५, ३६-५२. प्र तेषु ' खंडे' इति पाठः । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अप्पाबहुअणुयोगद्दारं ... णमिऊण वड्ढमाणं अणंतणाणाणुवट्टमाण मिसि । वोच्छामि अप्पबहुअं अणुयोगं बुद्धिसारेण ॥ १॥ अप्पाबहुगअणुयोगद्दारे णागहत्थिभडारओ संतकम्ममग्गणं करेदि । एसो च उवदेसो पवाइज्जदि । संतकम्मं चउव्विहं पयडिसंतकम्मं ठिदिसंतकम्म अणुभागसंतकम्म पदेससंतकम्मं चेदि । तत्थ पयडिसंतकम्मं दुविहं मूलपयडिसंतकम्मं उत्तरपयडिसंतकम्मं चेदि । तत्थ मूलपयडीहि सामित्तं णेदूण उत्तरपयडीहि सामित्तं कायव्वं । तं जहापंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं संतकम्मस्स को सामी? सव्वो छदुमत्थो। एवं णिद्दा-पयलाणं । णवरि चरिमसमयछदुमत्थस्स पत्थि संतकम्मं । S थीणगिद्धितियसंतकम्मस्स को सामी ? सव्वो छदुमत्यो । णवरि खवगस्स अणियट्टिकरणमंतोमुहुत्तं पविट्ठस्स संतकम्मं वोच्छिण्णं ति कटु उवरिमेसु छदुमत्थेसु णत्थि संतकम्म*। __सादासादाणं संतकम्मं कस्स ? संसारिणो सव्वस्स । णवरि जस्स उदओ णस्थि अनन्तज्ञानसे अनुवर्तमान वर्धमान ऋषिको नमस्कार करके बुद्धि के अनुसार अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा करता हूं ॥ १ ॥ नागहस्ती भट्टारक अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारमें सत्कर्मकी मार्गणा करते हैं। और यह उपदेश प्रवाहस्वरूपसे आया हुआ परंपरागत है। सत्कम चार प्रकारका है- प्रकृतिसत्कर्म स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म । इनमें प्रकृतिसत्कर्म दो प्रकारका है- मूलप्रकृतिसत्कर्म और उत्तरप्रकृतिसत्कर्म। इनमें मूल प्रकृतियोंके सब स्वामित्वको ले जाकर फिर उत्तर प्रकृतियोंके साथ स्वामित्वकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके सत्कर्मका स्वामी कौन है ? इनके सत्कर्मके स्वामी सब छद्मस्थ जीव हैं। इसी प्रकार निद्रा और प्रचलाके सत्कर्मके सम्बन्ध में जानना चाहिये। विशेष इतना है कि अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थके उनका सत्कर्म नहीं रहता । स्त्यानगृद्धि आदि तीन दर्शनावरण प्रकृतियोंके सत्कर्मका स्वामी कौन है ? उसके स्वामी सब छद्मस्थ हैं । विशेष इतना है कि अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट हुए क्षपकके अन्तर्मुहर्त जाकर इनके सत्कर्मकी व्युच्छित्ति हो जाती है, अतएव इसके आगे छद्मस्थोंके उनका सत्कर्म नहीं रहता। ___साता और असाता वेदनीयका सत्कर्म किसके होता है ? उनका सत्कर्म सब संसारी जीवोंके रहता है। विशेष इतना है कि उक्त दो प्रकृतियोंमेंसे जिसका उदय नहीं है उसका ४ ताप्रती 'णाणेण वट्टमाण' इति पठः। छउमत्थंता चउदस दुचरमसमयंमि अत्थि दो णिद्दा । क. प्र ७, ३. ताप्रती स्त्यानगृद्धित्रयसम्बद्धोऽयं सन्दर्भस्त्रुटितोऽस्ति । * खवगानिय ट्रिअद्धा सखिज्जा होंत अट्ट वि कसाया। णिरय-तिरियतेरसगं णिहा-गि हातिगेणवरि ।। क. प्र. ७, ६. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा बहुआणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसंतकम्मं ( ५२३ तस्स चरिमसमयभवसिद्धयम्मि णत्थि संतं । मोहणीयसंतकम्मस्स सामित्तं जहा कसा पाहुडे कदंतहा कायव्वं । रिया असंतकम्मं कस्स ? णेरइयस्स वा मणुस - तिरिक्खस्स वा । मणुसतिरिक्खाउआणं संतकम्मं कस्स * ? अण्णदरस्स देवस्स णेरइयस्स तिरिक्खस्स मणुस्सस्स वा देवाउअसंतकम्मं कस्स ? देवस्स मणुसस्स तिरिवखस्स वा । णिरयगइ - तिरिक्खगइ - तप्पा ओग्गाणं च जादि- आणुपुव्विणामाणं आदावुज्जोवथावरसुहुम-साहारणसरीरणामाणं च संतकम्मस्स सामिओ को होदि ? अण्णदरो जाव निरय-तिरिक्खणामाणं चरिमसमयसंछोहओ त्ति । देवगइ - पाओग्गाणुपुव्वि- वेउब्वियसरीर आहारसरीर तप्पा ओग्ग अंगोवंग-बंधण-संघादाणं च संतकम्मं कस्स ? अण्णदरस्स अणुव्वेल्लिद संतकम्मियस्स जाव दुचरिमसमयभवसिद्धियो त्ति । मणुसगइ - मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वि-तप्पा ओग्गजादिणामाणं संतकम्मं कस्स ? अण्णदरस्स अणुव्वेल्लिदसंतकम्मियस्स जाव चरिमसमयभवसिद्धयोति । णवरि मणुसगइपाओग्गाणुपुव्विणामाए जादुचरिमसमयभवसिद्धियो ति । ओरालिय- तेजा - कम्मइयसरीराणं तप्पा ओग्ग सत्कर्म अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिकके नहीं रहता। मोहनीयके सत्कर्मके स्वामित्वका कथन जैसे कषायप्राभृत में किया गया है वैसे ही यहां भी करना चाहिये । नारकात्रुका सत्कर्म किससे होता है ? उसका सत्कर्म नारकी, मनुष्य और तिर्यंचके होता है | मनुष्यायु और तिर्यगायुका सत्कर्म किसके होता है ? उनका सत्कर्म अन्यतर देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्यके होता | देवायुका सत्कर्म किसके होता है ? उसका सत्कर्म देव, मनुष्य और तिर्यंचके होता है । नरकगति, तिर्यंचगति और तत्प्रायोग्य जाति एवं आनुपूर्वी नामकर्मोका तथा आतप उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीर नामकर्मो के सत्कर्मका स्वामी कौन होता है ? उरु का स्वामी नरकगति और तिर्यंचगति नामकर्मोके अन्तिम समयवर्ती संक्रामक तक अन्यतर जीव होता है । देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वंक्रियिकशरीर व आहारकशरीर तथा उनके योग्य अंगोपांग, बन्धन और संघात नामकर्मोंका सत्कर्म किसके होता है ? उनका सत्कर्म सत्कर्मकी उद्वेलना न करनेवाले द्विचरम समयवर्ती भव्यसिद्धिक तक अन्यतर जीवके रहता है । मनुष्यगति मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और तत्प्रायोग्य जाति नामकर्मका सत्कर्म किसके होता है ? उनका सत्कर्म सत्कर्मकी उद्वेलना न करनेवाले अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक तक अन्यतर जीवके रहता है । विशेष इतना है कि मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका सत्कर्म द्विचरम समयवर्ती भव्यसिद्धिक तक रहता है । औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर तथा तत्त्रायोग्य * मणुयगइ जाइ-स-बायरं च पज्जत्त सुभम आएज्जं । जसकित्ती तित्थयरं वेयणि उच्चं च मणुयाणं ॥ भवचरिमस्तमयम्मि उ तम्मग्गिल्लसमयम्नि सेसाउ । आहारग - तित्थयरा भज्जा दुसु णत्थि तित्ययरं ।। क. प्र. ७, ८-९. ताप्रती ( णिरयगइ ) तिरिक्ख ( गइ ) - मणूस्साउआणं ' इति पाठः । * अ-काप्रयोः 'संतकम्मस्स' इति पाठः । बद्धाणि ताव आऊणि वेइयाइं ति जा कसिणं ।। क. प्र ७, ३. -अ-काप्रत्योः 'सिद्धया'' ' इति पाठः । प्रतिषु ' सामित्तओ' इति पाठः । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ) छक्खंडागमे संतकम्म अंगोवंग-बंधण-संघादाणं च छसंठाण-छसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-अपज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह दूभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसकित्ति-णिमिण-णीचागोदाणं संतकम्मं कस्स ? चरिमसमयभवसिद्धिय मोत्तूण संसारत्थस्स सव्वस्स । तस-बादर-पज्जत्त-सुभगादेज्जजसकित्ति-उच्चागोदाणं संतकम्मं कस्स ? अण्णदरस्स संसारावत्थस्स । तित्थयरणामाए संतकम्मं कस्स? सम्माइद्विस्स मिच्छाइटिस्स वा जाव चरिमसमयभवसिद्धियादो त्ति । एवं सामित्तं समत्तं । ___ एयजीवेण कालो अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं, सण्णियासो च सामित्तादो साहेदूण भाणियव्वो। एत्तो अप्पाबहुअं दुविहं सत्थाण-परत्थाणप्पाबहुअभेएण। तत्थ परत्थाणप्पाबहुअम्मि पयदं- सव्वत्थोवा आहारसरीरसंतकम्मिया। सम्मत्तसंतकम्मिया असंख० गुणा। सम्मामिच्छत्तस्स संतकम्मिया विसेसाहिया । मणुस्साउअस्स संतक० असंखे० गुणा । णिरयाउअस्स संतक० असंखे० गुणा । देवाउअस्स संतक० असंखे० गुणा । देवगइणामाए संतक० असंखे० गुणा। णिरयगइणामाए संतक. विसेसा० । वेउव्वियसरीरणामाए संतक० विसेसा० । उच्चागोदस्स संतक० अणंतगुणा । मणुसगइणामाए संतक० अंगोपांग, बन्धन और संघातका, छह संस्थान, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र; इनका सत्कर्म किसके होता है ? इनका सत्कर्म अन्तिम समयवर्ती भव्य सिद्धिकको छोडकर सब संसारी जीवोंके रहता है। बस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशकीति और उच्चगोत्रका सत्कर्म किसके होता है ? इनका सत्कर्म अन्यतर संसारी प्राणीके होता है। तीर्थकर नामकर्मका सत्कर्म किसके होता है ? उसका सत्कर्म अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक तक सम्यग्दष्टि और मिथ्यादष्टिके भी होता है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हआ। एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्षका कथन स्वामित्वसे सिद्ध करके करना चाहिये । यहां अल्पबहत्व दो प्रकारका है-- स्वस्थान अल्पबहत्व और परस्थान अल्पबहत्व । उनमें परस्थान अल्पबहुत्व प्रकृत है- आहारशरीरसत्कमिक जीव सबसे स्तोक हैं। सम्यक्त्वप्रकृतिसत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कमिक विशेष अधिक है। मनुष्यायुके सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं। नारकायुके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं। देवायुके सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं। देवगति नामकर्मके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं। नरकगति नामकर्म के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। वैक्रियिकशरीर नामकर्मके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। उच्चगोत्रके सत्कमिक अनन्तगुणे हैं। मनुष्यगति नामकर्मके सर्मिक विशेष अधिक हैं। तिर्यगायुके Jain Educatiorte का प्रा. ७, ८. ९. . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपाबहुअणुयोगद्दारे परत्थाणप्पा बहुअं ( ५२५ विसे । तिरिक्खाउअस्स संतक० विसे० । अनंताणुबंधिच उक्कसंतक० विसे० । मिच्छत्तसंतक० विसे० । कटुकसायसंतक० विसे० । तिरिक्खगइ - णिद्दाणिद्दा- पयलापयला-थीणगिद्धीणं च संतक० तुल्ला विसेसाहिया । णवंसयवेदस्स संतक० विसे० । इत्थिवेयस्स संतक० विसे० । छण्णोकसायाणं संतक० विसे० । पुरिसवेदस्स संतक० विसे० । कोहसंजणाए संतक० विसे० । माण० विसे० । माया० विसे । लोभ० विसे० । णिद्दापयलाणं संतक० विसे० | पंचणाणावरण- चउदसणावरण-पंचंतराइयाणं संतक० तुल्ला विसेसाहिया | ओरालिय- तेजा - कम्मइय-अजस कित्ति - णीचागोदाणं संतक० विसे० । असादस्स संतक० विसे० । सादस्स संतक० विसे० । जसकित्तीए संतकम्मिया विसेसाहिया । एवं ओघमप्पा बहुअदंडओ समत्तो । د णिरयगईए सव्वत्थोवा मणुस्साउअस्स संतकम्मिया । आहारसरीरणामाए संतकम्मिया असंखेज्जागुणा । सम्मत्तस्स संतक० असंखे० गुणा । सम्मामिच्छत्तस्स संतक० विसेसा० । तिरिक्खाउअस्स संतक० असंखे० गुणा । अनंताणुबंधी संतक० संखे० गुणा । मिच्छत्तस्स संतक० विसे० । सेसाणं कम्माणं सव्वेसि संतकम्मिया तुल्ला विसेसा० । एवं णिरयगइदंडओ समत्तो । तिरिक्खगदीए आहारसंतकम्मिया थोवा । सम्मत्त संतक० असंखे ० गुणा । सकर्मिक विशेष अधिक हैं । अनन्तानुबन्धि चतुष्कके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । मिथ्यात्व के सकर्मिक विशेष अधिक हैं । आठ कषायों के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । तिर्यंचगति, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिके सत्कर्मिक तुल्य व विशेष अधिक हैं । नपुंसकवेदके सत्कर्मक विशेष अधिक हैं । स्त्रीवेदके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । छह नोकषायोंके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । पुरुषवेद के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । संज्वलन क्रोधके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । संज्वलन मानके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । संज्वलन मायाके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । संज्वलन लोभके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । निद्रा और प्रचलाके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायके सत्कर्मिक तुल्य व विशेष अधिक हैं । औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, अयशकीर्ति और नीचगोत्रके सत्कर्मिक तुल्य व विशेष अधिक हैं । असातावेदनीयके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । सातावेदनीयके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं | यशकीर्ति के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । इस प्रकार ओघअल्पबहुत्त दण्डक समाप्त हुआ । नरकगति में मनुष्यायुके सत्कर्मिक सबसे स्तोक हैं । आहारकशरीर नामकर्म के सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हें । सम्यक्त्व प्रकृति के सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । तिर्यगायुके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धिचतुष्टय के सत्कमिक संख्यातगुणे हैं । मिथ्यात्व के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । शेष सब कर्मोके सत्कर्मिक तुल्य व विशेष अधिक हैं । इस प्रकार नरकगतिदण्डक समाप्त हुआ । Jain Education Internation तिर्यंचगति में आहारसत्कर्मिक स्तोक हैं । सम्यक्त्व प्रकृति के सत्कर्मिक असंख्यात गुणणे ainelibrary.org Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ) छक्खंडागमे संतकम्मं सम्मामिच्छत्तसंतक० विसेसा० । मणुस्साउअस्स संतक० असंखे० गुणा । णिरयाउअस्स संतक० असंखे० गुणा । देवाउअस्स संतक० असंखे० गुणा । देवगदीए संतक० असंखे० गुणा । णिरयगदीए संतक० विसे० । वेउव्वियसरीरसंतक० विसे० । उच्चागोदसंतक अनंतगुणा । मणुसगइसंतक विसे० । अनंताणुबंधीणं संतक० विसे० । मिच्छत्तस्स संतक० विसे० । सेसाणं कम्माणं संतकम्मिया तुल्ला विसेसाहिया । एवं तिरिक्खगइदंडओ समत्तो । 1 तिरिक्खजोगिणीसु सव्वत्थोवा आहारसरीरणामाए संतकम्मिया । सम्मत्त - संतक० असं० गुणा । सम्मामिच्छत्तसंत० विसे०मणुस्साउअस्स संत० असं० गुणा णिरयाउसंतक० असं० गुणा । देवाउ० संत असंखे० गुणा । अनंताणुबं० संत० सं० गुणा । सेसाणं कम्माणं संतकम्मिया तुल्ला विसे० । एवं तिरिक्खजोणिणीसु दंडओ समत्तो । म सगदी सव्वत्थोवा आहारसरीरणामाए संतक० । णिरयाउअस्स संतक० संखे० गुणा । देवाउअस्स संतक० संखे० गुणा । सम्मत्तस्स संतक० असंखे ० गुणा । सम्मामिच्छत्तस्स संतक० विसे० । देवगइणामाए संतक० असंखे० गुणा । णिरयगइणामाए संतक० विसे० । वेउव्वियसरीरणामाए संतक, विसे० । तिरिक्खा उअस्स संतक० असंखे० गुणा । अताणुबंधिसंतक० संखे० गुणा । मिच्छत्तसंतक० विसे० । सेस हैं । सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। मनुष्यायुके सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । नारका के सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । देवायुके सत्कर्मिक अमंख्यातगुणे हैं । देवगति के सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । नरकगति के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । वैक्रियिकशरीर के सत्कर्मक विशेष अधिक हैं । उच्चगोत्रके सत्कमिक अनन्तगुणे हैं। मनुष्यगतिके सत्कर्मक विशेष अधिक हैं । अनन्तानुबन्धिचतुष्टयके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । मिथ्यात्व के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । शेष कर्मोंके सत्कर्मिक तुल्य व विशेष अधिक हैं । इस प्रकार तिर्यग्गतिदण्डक समाप्त हुआ । तिर्यंच योनिमतियों में आहारशरीर नामकर्मके सत्कमिक सबसे स्तोक हैं । सम्यक्त्व प्रकृति के सत्कर्मक असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। मनुष्यायुके सत्कर्मक असंख्यातगुणं हैं नारकायुके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं । देवायुके सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । अनन्तान्बन्धि चतुष्टय के सत्कमिक संख्यातगुणे हैं । शेष कर्मोके सत्कर्मिक तुल्य व विशेष अधिक हैं। इस प्रकार तिर्यंचयोनिमतियों में प्रकृत दण्डक समाप्त हुआ । मनुष्यगति में आहारशरीर नामकर्म के सत्कर्मिक सबसे स्तोक हैं। नारकायुके सत्कर्मक संख्यातगुणे हैं । देवायु के सत्कर्मिक संख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व प्रकृति के सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । देवगति नामकर्मके सत्कर्मिक असंख्यात - गुणे हैं । नरकगति नामकर्मके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । वैक्रियिकशरीर नामकर्मके सकर्मिक विशेष अधिक हैं । तिर्यगायुके सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धिचतुrain संख्यातगुणे है । मिव्यात्व के सतकर्मिक विशेष अधिक हैं । शुषjainelibrary.org. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा बहुअणुयोगद्दार परत्थाणप्पा बहुअं ( ५२७ मोघं । णवरि जसकित्तीए सह मणुस्साउअ मणुस्सगईओ उच्चागोदं च वत्तव्वाओ । एवं मणुसगइदंडओ समत्तो । मसिणीसु सव्वत्थोवा आहारसरीरणामाए संतकम्मिया । सम्मत्तस्स संतक ० संखेज्जगुणा । सम्मामिच्छत्तस्स संतक० विसे० । णिरयाउअस्स संतक० असंखे ० गुणा । देवाउअस्स संतक० संखे० गुणा । तिरिक्खाउअस्स संतक० संखे० गुणा । अतानुबंधी संतक० संखे० गुणा । मिछत्तसंतक० विसे० । मेसं मणुसगइभंगो । वरि छण्णोकसाएहि सह पुरिसवेदो भाणियव्वो । एवं मणुसिणीसु दंडओ समत्तो । जहा णिरयगदीए तहा देवगदीए । असण्णीसु सव्वत्थोवा आहारसरीरणामाए संतकम्मिया । सम्मत्तस्स संतक० असंखे० गुणा । सम्मामिच्छत्तसंतक० विसे० । मणुस्सा अस्स संतक० असंवे० गुणा । णिरयाउअस्स संतक ० असंखे ० गुणा । देवाउअस्स संतक० असंखे० गुणा । देवगइणामाए संतक० संखे० गुणा । णिरयगइणामाए संतक० विसे० । वेउव्वियसरीरणामाए संतक० विसे० । उच्चागोदसंतक० विसे० । मणुसगइनामाए संतक० विसेसा० । सेसाणं पयडीणं संतकम्मिया तुल्ला विसेसाहिया । एवं असण्णिदंडओ समत्तो । भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढी च णत्थि । पयडिट्ठाणसंतकम्मं मोहणीयस्स जहा कथन ओघ के समान है। विशेष इतना है कि यशकीर्ति के साथ मनुष्यायु मनुष्यगति और उच्चगोत्र को भी कहना चाहिये । इस प्रकार मनुष्यगतिदण्डक समाप्त हुआ । मनुष्यनियोंमें आहारकशरीर नामकर्मके सत्कर्मिक सबसे स्तोक हैं। सम्यक्त्व प्रकृति के सत्कर्मिक संख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । नारका के सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । देवायुके सत्कमिक संख्यातगुणे हैं । तिर्यगायुके सत्कमिक संख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धिचतुष्टयके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । मिथ्यात्व के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । शेष कर्मों के सत्कर्मिक प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है । विशेष इतना है कि छह नोकषायों के साथ पुरुषवेदको कहना चाहिये इस प्रकार मनुष्यनियोंमें दण्डक समाप्त हुआ । जैसे नरकगति प्ररूपणा की गई है वैसे ही देवगतिमें भी जानना चाहिये । असंज्ञी जीवों में आहारशरीर नामकर्मके सत्कमिक सबसे स्तोक हैं । सम्यक्त्वके सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । मनुष्यगतिके सत्कर्म संख्यातगुण हैं । नारका के सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । देवायुके सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । देवगति नामकर्मके सत्कर्मिक संख्यातगुणे हैं । नरकगति नामकर्मके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । वैशिरीर नामकर्मके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । उच्चगोत्रके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । मनुष्यगति नामकर्म के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । शेष प्रकृतियोंके सत्कमिक तुल्य व विशेष अधिक हैं । इस प्रकार असंज्ञिदण्डक समाप्त हुआ । भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि नहीं हैं । मोहनीयका प्रकृतिस्थानसत्कर्म जैसे कषायप्राभृतम Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ ) छक्खंडागमे संतकम्म कसायपाहुडे कदं तहा कायव्वं । सेसाणं कम्माणं पयडिट्टाणमग्गणा सुगमा । एवं पयडिसंतकम्ममग्गणा समत्ता । एत्तो टिदिसंतकम्मं दुविहं मूलपयडिटिदिसंतकम्मं उत्तरपयडिटिदिसंतकम्म चेदि । तत्थ मूलपयडिटिदिसंतकम्मं सुगमं । उत्तरपयडिट्ठिदिसंतकम्मे अद्धाच्छेदो। तं जहा-- मदिआवरणस्स उक्कस्सटिदिसंतकम्मं तीसं सागरोवमकोडाकोडीयो पडिवुण्णाओD, जाओ द्विदीओ वि एत्तियाओ चेव । जहा मदिआवरणस्स उक्कस्सद्विदिसंतकम्मस्स अद्धाच्छेदो कदो तहा सेसचदुणाणावरण-चदुदंसणावरण-पंचंतराइयाणं कायव्वो । पंचण्णं दंसणावरणीयाणं जट्टिदिसंतकम्मं तीसं सागरोवमकोडाकोडीयो पडिवुण्णाओ, जाओ द्विदीओ समऊणाओ । सादस्स जट्टिदिसंतकम्म जाओ द्विदीओ च तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ आवलियूणाओ जट्टिदिसंतकम्म जाओ द्विदीओ च असादस्स तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ। मिच्छत्तस्स जट्टिदिसंतकम्मं जाओ द्विदीओ च सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ अंतोमुत्तूणाओ। सोलसण्णं कसायाणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ। णवण्णं णोकसायाणं जटिदिसंतकम्मं जाओ द्विदीओ च चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ आवलियूणाओ। किया गया है वैसे करना चाहिये । शेष कर्मोंकी प्रकृतिस्थानमार्गणा सुगम है । इस प्रकार प्रकृतिसत्कर्ममार्गणा समाप्त हुई। यहां स्थितिसत्कर्म दो प्रकारका है-- मूलप्रकृतिस्थिसत्कर्म और उत्तरप्रकृतिस्थितिसत्कर्म । इनमें मूलप्रकृतिस्थितिसत्कर्म सुगम है। उत्तरप्रकृतिस्थितिसत्कर्ममें अद्धाछेदका कथन इस प्रकार है-- मतिज्ञानावरणका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म सम्पूर्ण तीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण तथा जस्थितियां भी इतनी मात्र ही हैं । जैसे मतिज्ञानावरणके उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका अद्धाच्छेद किया है वैसे ही शेष चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंका भी करना चाहिये । निद्रादिक पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंका जस्थितिसत्कर्म परिपूर्ण तीस कोडाकोडि सागरोपम तथा जस्थितियां एक समय कम तीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र हैं। सातावेदनीयका जस्थितिसत्कर्म और जस्थितियां आवलीसे हीन तीस कीडाकोडि सागरोपम प्रमाण हैं । असातावेदनीयका जस्थितिसत्कर्म और जस्थितियां परिपूर्ण तीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। मिथ्यात्वका जस्थितिसत्कर्म और जस्थितियां परिपूर्ण सत्तर कोडाकोडि सागरोपम मात्र हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंका जस्थितिसत्कर्म और जस्थितियां अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण हैं । सोलह कषायोंका जस्थितिसत्कर्म और जस्थितियां परिपूर्ण चालीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण हैं । नौ नोकषायोंका जस्थितिसत्कर्म और . अ-काप्रत्योः 'विसेसाणं', ताप्रती (वि) सेसाणं' इति पाठः।.ताप्रतौ 'पयडिसंकम (संत ) मग्गणा' इति पाठः। अप्रतो 'पडिवण्णाओ' इति पाठः । अ-काप्रत्योः 'पडिवण्णाश्रो' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'जट्टिदीओ' इति पाठः । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दार ठिदिसंतकम्मपमाणाणुगमो ( ५२९ देव-णिरयाउआणं जं टिदिसंतकम्मं तेत्तीस सागरोवमाणि पुत्वकोडीए तिभाएणब्भहियाणि, जाओ द्विदीओ तेत्तीसं सागरोवमाणि पडिवुण्णाणि । मणुसतिरिक्खाउआणं जं दिदिसंतकम्मं तिण्णिपलिदोवमाणि पुवकोडीए तिभाएणब्भहियाणि, जाओ द्विदीओ तिणिपलिदोवमाणि पडिवुण्णाणि । __णिरयगइ-तिरिक्खगइ-एइंदियजादि-पंचिदियजादि-ओरालिय-वेउन्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-तप्पाओग्गअंगोवंग-बंधण-संघाद-असंपत्तसेवट्टसंघडण हुंडसंठाण-वण्ण- गंध-रसफास-णिरयाणुपुश्वि-तिरिक्खाणुपुग्वि-अगुरुगलहुग-उवघाद-परघाद--आदावुज्जोव-उस्सास-अप्पसत्थविहायगइ-तस-थावर बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुभ-दूभगदुस्सर-अणादेज्ज-अजसकित्तिणिमिणणामाणं जं दिदिसंतकम्मं जाओ द्विदीओ च वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ। णवरि णिरयगइ-तिरिक्खगइणामाणं तप्पाओग्ग-आणुपुग्विणामाणं च एइंदिय-ओरालिय-तप्पाओग्गअंगोवंग-बंधण-संघादणामाणं असंपत्तसेवट्टसंघडण-आदाव-थावरणामाणं च उक्कस्सयं जं टिदिसंतकम्मं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ, जाओ द्विदीओ समऊणाओ। मणुसमइ-पंचसंठाणपंचसंघडण-थिरसुह-सुहग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्तीणं जं द्विदिसंतकम्मं जाओ द्विदीओ च. वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ आवलियूणाओ । देवगदितिण्णिजादि देवाणुपुस्वि-मणुस्साणुपुस्वि-सुहम-अपज्जत्त--साहारणाणं जं द्विदिसंतकम्मं वीसं जस्थितियां आवलीसे हीन चालीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है । देवायु और नारकायुका जस्थितिसत्कर्म पूर्वकोटिके तृतीय भागसे अधिक तेतीस सागरोपम तथा जस्थितियां परिपूर्ण तेतीस सागरोपम मात्र हैं। मनुष्यायु और तिर्यगायका जस्थितिसत्कर्म पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक तीन पल्योपम तथा जस्थितियां परिपूर्ण तीन पल्योपम प्रमाण है। __ नरकगति, तिर्यग्गति, एकेंद्रिय जाति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर तथा तत्प्रायोग्य अंगोपांग, बन्धन व संघात, असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, हुण्डसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नारकानुपूर्वी, तिर्यगानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग दुम्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और निर्माण; इन नामकर्मोंका जस्थितिसत्कर्म और जस्थितियां परिपूर्ण बीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र हैं। विशेषता इतनी है कि नरकति व तिर्यग्गति नामकर्मों, तत्प्रायोग्य आनुपूर्वी नामकर्मों, तथा एकेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर एवं तत्प्रायोग्य अंगोपांग, बंधन और संघात नामकर्मोका, तथा असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, आतप और स्थावर नामकर्मोंका उत्कृष्ट जस्थितिसत्कर्म परिपूर्ण वीस कोडाकोडि सागरोपम तथा जस्थितियां एक समय कम बीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र हैं। मनुष्यति, पांच संस्थान, पांच संहनन; स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिका जस्थितिसत्कर्म और जस्थितियां आवलीसे हीन बीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र हैं । देवगति, तीन जाति, देवगत्यानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, NS अ-काप्रत्योः 'पुबकोडीओ ' इति पाठः। ताप्रती 'बादर-पत्ते यसरीर' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'जाओ दिदीओ जं दिदिसंतकम्मं च ' इति पाठः । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० ) छक्खंडागमे संतकम्म सागरोवमकोडाकोडीओ आवलिऊणाओ, जाओ द्विदीओ बीसं सागरोवमकोडाकोडीओ समयाहियाए आवलियाए ऊणाओ। जहा मगुसगइणामाए तहा पसत्थविहायगइणामाए । आहारणामाए अंतोकोडाकोडीओ., जाओ द्विदीओ समऊणाओ। एवं तित्थयरस्स वि। ___ उच्चागोदस्स जाओ द्विदीओ जढिदिसंतकम्मं च वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ आवसिऊणाओ। णीचागोदस्स वीसं सागरोवमकोडाकोडीयो पडिवुण्णाओ। एवमुक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मं समत्तं । जहण्णट्ठिदिसंतकम्मपमाणाणुगमो । तं जहा-- पंचणाणावरण-चउदंसणावरण-सादासाद-सम्मत्त-लोह* संजलण-दोवेद--आउचउक्क-मणुसगइ--जादि-तसबादर-पज्जत्तं-जसकित्ति-सुभग-आदेज्ज-तित्थयर--पंचंतराइय--उच्चागोदाणं जहण्णद्विदिसंतकम्मं एयसमयदिदियं एया द्विदी। पंचदंसणावरण-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तबारसकसायाणं जहण्णयं द्विदिसंतकम्मं दुसमयकालटिदियं एया टिदी । मायासंजलणाए जट्ठिदिसंतकम्मं अद्धमासो दोहि आवलियाहि समऊणाहि ऊणो, जाओ द्विदीओ अंतोमुत्तूणअद्धमासमेत्ताओ । माणसंजलणाए जटिदिसंतकम्मं मासो दोहि आवलियाहि समऊणाहि ऊणओ, जाओ अपर्याप्त और साधारणशरीरका जस्थितिसत्कर्म आवलीसे हीन बीस कोडाकोडि सागरोपम तथा एक समय अधिक आवलीसे हीन बीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण हैं। प्रशस्त विहायोगति नामकर्मका अद्धाच्छेद मनुष्यगति नामकर्मके समान है। आहारशरीर नामकर्मका जस्थितिसत्कम अन्तःकोडाकोडि सागरोपम और जस्थितियां एक समय कम अन्तःकोडाकोडि सागरोपम मात्र हैं। इसी प्रकार तीर्थंकर प्रकृतिकी भी प्ररूपणा है । उच्चगोत्रकी जस्थितियां और जस्थितिसत्कर्म आवलीसे हीन बीस कोडाकोडिसागरोपम मात्र हैं। नीचगोत्रका जस्थितिसत्कर्म और जस्थितियां परिपूर्ण बीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म समाप्त हुआ। जघन्य स्थितिसत्कर्मप्रमाणानुगमकी प्ररूपणा करते हैं। यथा- पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता व असाता वेदनीय, सम्यक्त्व, संज्वलन लोभ, दो वेद, चार आयुकर्म, मनुष्यगति, तत्प्रायोग्य जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, यशकीर्ति, सुभग, आदेय, तीर्थंकर, पांच अन्तराय और उच्चगोत्र; इनका जघन्य स्थितिसत्कर्म एक समय स्थिति रूप एक स्थिति मात्र है। पांच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंका जघन्य स्थितिसत्कर्म दो समय काल स्थितिवाली एक स्थिति रूप है। संज्वलन मायाका जघन्य स्थितिसत्कर्म एक समय कम दो आवलियोंसे हीन आधा मास तथा जस्थितियां अन्तर्मुहूर्त कम आधा मास प्रमाण है। संज्वलन मानका जघन्य स्थितिसत्कर्म एक समय कम दो आवलियोंसे हीन एक मास तथा ताप्रतावतोऽग्रेऽग्रिम 'कोडाकोडीओ' पर्यत: पास्त्रटिनोऽस्ति । .ताप्रतावतोऽग्रे 'जाओ ट्रिदीओ' जहा मणुसगइणामाए तहा पसत्थ विहागइणामाए अंडोकोडाकोडीओ' इत्यधिकः पाठः समुपलभ्यते । * अ-काप्रत्योः 'दोहि', ताप्रती 'दोहि (लोह ) ' इति पाठः। अप्रतौ 'दो मासा' इति पाठः । 54 अ-ताप्रत्योः 'ऊणाओ' इति पारः। Jain Education international . Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दार ठिदिसंतकम्मसामित्तं द्विदीओ अंतोमुत्तूणमासमेत्ताओ । कोधसंजलणाए जं डिदिसंतकम्मं दो मासा दोहि आवलियाहि समऊणाहि ऊणा, जाओ द्विदीओ अंतोमुहुत्तूणदोमासमेत्ताओ। पुरिसवेदस्स जं टिदिसंतकम्मं अटुवस्साणि दोहि आवलियाहि समऊणाहि ऊणाणि, जाओ द्विदीओ अट्ठवस्साणि अंतोमुत्तूणाणि । छण्णोकसायाणं जाओ द्विदीओ जट्ठिदीओ च संखेज्जाणि वस्साणि । णिरयगइ-तिरिक्खगइ देवगइ-तप्पाओग्गजादि-आणुपुरिज-मणुसगइ-पाओग्गाणुपुन्वि-पंचसरीर-तदंगोवंब--बंधण-संघाद -छसंठाण--छसंघडण-वण्ण-गंध-रस--फास गलग-उवघाद-परघाद-उस्सास-आदावज्जोव--दोविहायगइ--थावर--सूहम-अपज्जत्त-पत्तेयसाहारणसरीर-थिराथिर-सुहासुह-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-अणादेज्ज--अजसकित्ति-णिमिण-णीचागोदाणं जहण्णयं द्विदिसंतकम्मं दुसमयकालट्ठिदियं एक्किस्से द्विदीए । एवं पमाणाणुगमो समत्तो। सामित्तं । तं जहा-पंचण्णं णाणावरणीयाणं उक्कस्स दिदिसंतकम्मं कस्स ? णियमा उक्कस्सियं द्विधिं बंधमाणस्स । एवं दसणावरणचउक्कस्स । पंचण्णं दसणावरणीयाणं उक्कस्सयं द्विदिसंतकम्मं कस्स ? जो उक्कस्सियं दिदि बंधदि जो च समऊणं वेदयदि। सादस्स उक्कस्सटिदिसंतकम्म कस्स? असाद उक्कस्सटिदिसंतकम्म जस्थितियां अन्तर्मुहुर्त कम एक मास मात्र हैं। संज्वलन क्रोधका जघन्य स्थितिसत्कर्म एक समय कम दो आवलियोंसे हीन दो मास तथा जस्थितियां अन्तर्मुहूर्त कम दो मास मात्र हैं। पुरुषवेदका जघन्यस्थितिसत्कर्म एक समय कम दो आवलियोंसे हीन आठ वर्ष और जस्थितियां अन्तर्मुहर्त कम आठ वर्ष मात्र हैं। छह नोकषायोंकी जस्थितियां और जघन्य स्थितिसत्कर्म संख्यात वर्ष मात्र है। नरकगति, तिर्यग्गति, देवगति तथा तत्प्रायोग्य जाति व आनुपूर्वी नामकर्म, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, पांच शरीर, तीन अंगोपांग, पांच बन्धन, पांच संघात, छह संस्थान, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुल्लघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगतियां, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र; इनका जघन्य स्थिति - सत्कर्म दो समय काल स्थितिवाली एक स्थिति रूप है। इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ। स्वामित्व अधिकार प्राप्त है। यथा- पांच ज्ञानावरणीय प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है? वह नियमसे उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले के होता है। इसी प्रकार चार । दर्शनावरणीय प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म जानना चाहिये। निद्रा आदि पांच दर्शनावरणीय प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? जो जीव इनकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है और जो एक समय कम उस का वेदन करता है । सातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्म किसके होता है ? वह सातावेदनीयके उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका संक्रम करनेवाले सातावेदक 33 ताप्रती 'ट्ठिदीओ मासमेत्ताओ' इति पाठः। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ ) छक्खंडागमे संतकम्म संकामेंतस्स सादावेदयस्स । असादस्स उक्कस्सटिदिसंतकम्मं कस्स ? असादवेदयस्स तस्सेव उक्कस्सियंटिदि बंधमाणस्स । मिच्छत्त-सोलसकसायाणं उक्कस्सटिदिसंतकम्मं कस्स ? पयडिवेदयस्स उक्कस्सियं दिदि बंधमाणस्स । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्सयं टिदिसंतकर मं कस्स? उक्कस्सियाए सम्मत्तद्विदीए सह पढमसमयसम्माइद्विस्स । हस्स-रदि-अरदि-सोग-भयदुगुंछा-तिण्णिवेदाणमुक्कस्सयं द्विदिसंतकम्मं कस्स ? अप्पिदपडि बंधतो वेदयंतस्स कसायाणमुक्कस्सट्ठिदि णोकसायाणं संकामेंतस्स । णिरय-देवाउआणं उक्कस्सटिदिसंतकम्मं कस्स ? पुव्वकोडीए तिभागस्स पढमसमए उक्कस्सद्धिदि बंधमाणस्स । जाओ द्विदीओ उक्कस्सियाओ कस्स ? उक्कस्सियं टिदि बंधिदूण जाव पढमसमयतब्भवत्थो ति ताव । एवं मणुस्स-तिरिक्खाउआणं । णिरयगइणामाए उकस्सयं द्विदिसंतकम्म कस्स? उक्कस्सियं दिदि बंधमाणस्स। उक्कस्सियाओ जाओ द्विदीओ* कस्स? तस्स चेव वा, उक्क्रस्तियं टिदि बंधिPणुववण्णपढमसमए णेरइयस्स वा । तिरिक्खगइणामाए उक्कस्तियं द्विदिसंतकम्मं कस्स ? देवस्स णेरइयस्स वा उक्कस्सियं दिदि बंधमाणस्स । जाओ द्विदीओ उक्कस्सियाओ* जीवके होता है । असातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह उसकी ही उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले असातावेदक जीवके होता है । मिथ्यात्व और सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह विवक्षित प्रकृतिका वेदन करते हुए उसकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले जीवके होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह सम्यक्त्वकी रत्कृष्ट स्थितिके साथ प्रथम समयवर्ती सम्यग्दष्टिके होता है। हास्य. रति. अरति. शोक. भय और तीन वेदः इनका उत्कष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह विवक्षित प्रकतिको कर वेदन करते हए कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको नोकषायों में संक्रान्त करनेवाले के होता है। नारकायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह पूर्वकोटिके तृतीय भागके प्रथम समयमें उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले के होता है। उनकी उत्कृष्ट जस्थितियां किसके होती हैं ? वे उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर जब प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होता है तब होती हैं। इसी प्रकार मनुष्यायु और तिर्यगायुकी प्ररूपणा करना चाहिये । नरकगति नामकर्मका उत्त्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह उसकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवालेके होता है। उसकी उत्कृष्ट जस्थितियां किसके होती हैं ? उसके ही होती हैं, अथवा उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें नारकी जीवके होती हैं । तिर्यग्गति नामकर्मका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? उसकी उकृष्ट स्थितिको बांधनेवाले देव अथवा नारकीके उसका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म होता है। उसकी उत्कृष्ट जस्थितियां 8 अ-ताप्रत्यौः 'उक्कस्सय ' इति णठः। 4 अ-काप्रत्योः 'कस्स बंधमाण यस्स' इति पाठः । * अ-काप्रत्योः नोपलभ्यते पदमिदम् । * ताप्रतौ ' उक्कस्सियाओ द्विदीओ जाओ' इति पाठः । . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा बहुअणुयोगद्दार ठिदिसंतकम्मसामित्तं ( ५३३ कस्स ? तस्स चेव वा देवस्स उक्कस्सयं द्विदि बंधिदूण एइंदिएसु उववण्णस्स पढमसमय तब्भवत्थस्स वा, देव णेरइयपच्छायदपंचिदियतिरिक्खस्स वा । मणुसगइणामाए उक्कस्सियं द्विदितकम्मं कस्स ? मणुसगई बंधमाणस्स उक्कस्सट्ठिदि* संकामयस्स मणुस्सस्स । उक्कस्सियाओ जाओ द्विदीओ कस्स ? एरिसस्स चेव मणुस्सस्स । देवगइणामाए उक्कस्सयं द्विदिस्तकम्मं कस्स ? देवगई बंधमाणस्स उक्कस्सट्ठिदिसंकामगस्स । जाओ द्विदीओ एरिसस्सेव । एवं जादिणामाणं । वेव्वियसरीरणामाए णिरयगइभंगो । णवरि समऊणं ण होदि । ओरालिय सरीरणामाए तपाओग्गबंधण संघादाणं च तिरिक्खगइभंगो । ओरालियसरीर अंगोवंग - असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं उक्कस्सियं द्विदिसंतकम्मं कस्स ? णेरइयस्स सणवकुमार माहिंददेवस्स वा उक्कस्सां ट्ठिदि बंध माणस्स । एदेसि दोष्णं कस्माणं जाओ द्विदीओ उक्कस्सियाओ कस्स ? एदेसि चेव देव णेरइयाणं तत्पच्छायदस्स पढमसमयतिरिक्खस्स वा | पंचसंठाण --पंच संघडणाणं उक्कस्सियं द्विदितकम्मं कस्स ? एदासि पयडीणं बंधमाणस्स उक्कस्सियं ट्ठिदिसंक मे वट्टमाणस्स । जाओ द्विदीओ उक्कस्सियाओ कस्स ? एदस्स चेव 1 htra | हुंडठाणस्स उक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मं वरि अप्पिदपयडीए वेदओ किसके होती हैं ? वे उसके ही होती हैं, उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ देवके होती हैं, अथवा देव नारकियोंमेंसे पीछे आये हुए पंचेन्द्रिय तिर्यंचके होती हैं । मनुष्यगति नामकर्मका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह मनुष्यगतिको बांधते हुए उसकी उत्कृष्ट स्थितिको संक्रांत करनेवाले मनुष्यके होता है । उसकी उत्कृष्ट स्थितियां किसके होती हैं ? वे ऐसे ही मनुष्य के होती हैं । देवगति नामकर्मका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? देवगतिको बांधते हुए उसकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम करनेवाले के उसका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म होता है । ऐसे ही जीवके उसकी उत्कृष्ट जस्थिति होती हैं । इसी प्रकार जाति नामकर्मोकी प्ररूपणा करना चाहिये । वैक्रियिकशरीर नामकर्म की प्ररूपणा नरकगतिके समान है । विशेष इतना है कि यहां एक समय कम नहीं है । औदारिकशरीर और तत्प्रायोग्य बन्धन व संघात नामकर्मोंकी प्ररूपणा तिर्यग्गतिके समान है । औदारिकशरीरांगोपांग और असंप्राप्तासृपाटिकासंहननका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले नारकी अथवा सनत्कुमार व माहेन्द्र कल्पवासी देवके होता है । इन दोनों कर्मोंकी उत्कृष्ट जस्थितियां किसके होती हैं ? वे इन्हीं देव-नारकियों के अथवा उनमें से पीछे आये हुए प्रथम समयवर्ती तिर्यंचके होती हैं। पांच संस्थान और पांच संहनन नामकर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह इन प्रकृतियोंको बांधते हुए उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम में वर्तमान जीवके होता है । उनकी उत्कृष्ट जस्थितियां किसके होती हैं ? वे इसी जीवके होती हैं। विशेष इनता है कि विवक्षित प्रकृतिका वेदक करना चाहिये । हुण्डकसंस्थानका उत्कृष्ट अ-काप्रत्यो: ' मणुस्स ' इति पात्र: । ताप्रती ' उक्कस्यं द्विदि ' इति पाठः । ताप्रती ' उक्कस्सियं' इति पाठ: । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४) छक्खंडागमे संतकम्म कस्स? रइयतिरिक्ख-मणुसस्स उत्तरविउव्विददेवस्स वा। ____सव्वासि धुवबंधिपयडीणं णाणावरणभंगो । तिण्णमाणुपुग्विणामाणं उक्कस्सयं ट्ठिदिसंतकम्मं कस्स? आणुपुग्विणामाए अप्पिदाए बंधमाणस्स उकस्सटिदिसंकामयस्स । जाओ द्विदीओ उक्कस्सियाओ कस्स? एदस्स चेव । णवरि तिरिक्खाणुपुस्विणामाए उक्कस्सियं टिदि बंधमाणस्स । णिरयाणुपुग्विणामाए उक्कस्सयं टिदिसंतकम्म कस्स? उक्कस्सयं दिदि बंधमाणस्स । जाओ द्वदीओ कस्स ? एदस्स चेव विग्गहगदीए वट्ठमाणस्स पढमसमयणेरइयस्स वा । उस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणमुक्कस्सयं ट्ठिदिसंतकम्मं जाओ द्विदीओ च कस्स? जस्स वा तस्स वा तसकाइयस्स उक्कस्सटिदि बधमाणस्स । उज्जोवणामाए उक्कस्सयं जं द्विदिसंतकम्मं जाओ द्विदीओ च कस्स? देवस्स उज्जोवणामाए वेदयस्स उक्कस्सटिदि बंधमाणस्त । आदाव-थावरणामाए उक्कस्सयं जं ट्ठिदिसंतकम्म* कस्स ? सोहम्मदेवस्स ईसाणदेवस्स वा उक्कस्सयं टिदि बंधमाण. स्स" । जाओ द्विदीओ उक्कस्सियाओ कस्स ? एरिसस्सेव । णवरि थावरणामाए देवपच्छायदपढमसमयएइंदियस्स सोहम्मीसाणदेवस्स वा। एदेण बीजपदेण सेसपयडीण स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और उत्तर शरीरको विक्रियायुक्त देवके होता है । सब ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ज्ञानावरण के समान है। तीन आनुपूर्वी नामकर्मोका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह विवक्षित आनुपूर्वी नामकर्मको बांधनेवाले उत्कृष्ट स्थिति संक्रामकके होता है। इनकी उत्कृष्ट जस्थितियां किसके होती हैं। वे इसीके होती हैं । विशेष इतना है कि तिर्यगानुपूर्वी नामकर्मको उत्कृष्ट जस्थितियां उसकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले जीवके होती हैं। नारकानुपूर्वी नामकर्मका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह उसकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवालेके होता है। उसकी जस्थितियां किसके होती है ? वे विग्रहगतिमें वर्तमान इसीके अथवा प्रथम समयवर्ती नारकी जीवके होती हैं उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक शरीर नामकर्मोका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म और जस्थितियां किसके होती हैं ? वे इनकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले जिस किसी भी त्रसकायिक जीवके होती हैं। . उद्योत नामकर्मका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म और जस्थितियां किसके होती हैं ? वे उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले उद्योत नामकर्मके वेदक देवके होती हैं। आतप और स्थावर नामकर्मका उत्कृष्ट जस्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह इनकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवके होता है। इनकी उत्कृष्ट जस्थितियां किसके होती हैं ? वे ऐसे ही जीवके होती हैं। विशेष इतना है कि स्थावर नामकर्मकी जस्थितियां देवोंमेंसे पीछे आये हुए प्रथम समयवर्ती एकेन्द्रिय जीवके अथवा सौधर्म ऐशान कल्पवासी देवके होती हैं । इस बीज ४ ताप्रतौ 'उक्स्स टिदिरांतकम्म रइयं' इति पाठः । काप्रती 'उक्कस्सियं ठिदिसंतकम्म' इति पाठः। : अ-काप्रत्योः 'उकस्सयं ठिदि बंधयस्स' इति पाठः । , Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारं ठिदिसंतकम्मसामित्तं ( ५३५ वत्तव्वं । एवमुक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मसामित्तं समत्तं । ___जहण्णट्ठिदिसंतकम्मसामित्तं कस्सामो । तं जहा-पंचणाणावरण-चउदंसणावरणपंचंतराइयाणं जहण्णयं ट्ठिदिसंतकम्म कस्स ? चरिमसमयछदुमत्थस्स । णिद्दापयलाणं जह० कस्स ? दुचरिमसमयछदुमत्थस्स । थीणगिद्धितियस्स जह० कस्स? अणियट्टिकरणे वट्टमाणस्स थीणगिद्धितियं संछुहिय समऊणावलियमइक्कंतस्स। सादासादाणं जहण्णटिदिसंतकम्मं कस्स ? चरिमसमयभवसिद्धियस्य अप्पिदपयडिवेदयस्स । मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसायाणं जह० कस्स ? अप्पिदकम्मेसु संछुद्धसुसमऊणावलियमइक्कंतस्सा सम्मत्त-लोहसंजलणाणं जहण्णढिदिसंतकम्मं कस्स? खवयस्स सम्मत्त लोहसंजलणाणं चरिमसमयवेदस्स । तिण्णिसंजलण-पुरिसवेदाणं जह० कस्स ? खवयस्स संछुद्धासु पयडीसु समऊणदोआवलियं गदस्स । इत्थिणवंसयवेदाणं जह० कस्स ? खवयस्स चरिमसमयवेदयस्स। मणुस-तिरिक्खाउआणं जह० कस्स ? जस्स पत्थि तदाउअबंधो तस्स चरिम पदसे शेष प्रकृतियोंके भी स्वामित्वको प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका स्वामित्व समाप्त हुआ । जघन्य स्थितिसत्कर्मके स्वामित्वका कथन करते हैं। यथा-पांच ज्ञानावरण, चाय दर्शनावरण और पांच अन्तरायका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ जीवके होता है । निद्रा और प्रचलाका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह द्विचरम समयवर्ती छद्मस्थ जीवके होता है। स्त्यानगृद्धि आदि तीनका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह अनिवृत्तिकरणमें वर्तमान जीवके होता है जिसने कि स्त्यानगृद्धित्रिकका निक्षेप करके एक समय कम आवलि काल को विताया है। साता और असाता वेदनीयका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह विवक्षित प्रकृतिका वेदन करनेवाले अन्तिम समयवर्ती भव्य सिद्धिक जीवके होता है। मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? विवक्षित कर्मोंके निक्षिप्त हो जाने पर जिसने एक समय कम आवली कालको विता दिया है उसके उनका जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व प्रकृति और संज्वलन लोभका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह ऐसे क्षपक जीवके होता है जो सम्यक्त्व और संज्वलन लोभका अन्तिम समयवर्ती वेदक होता है। शेष तीन संज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह उस क्षपक जीवके होता है जो इन प्रकृतियोंके निक्षिप्त हो जानेपर एक समय कम दो आवलियोंको विता चुका है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है? वह उस क्षपक जीवके होता है जो इनका अन्तिम समयवर्ती वेदक है। __मनुष्यायु और तिर्यगायुका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? जिसके उन आयुओंका बन्ध नहीं हो रहा है उस अन्तिम समयवर्ती तद्भवस्थके उक्त दोनों आयु कर्मोंका जघन्य * अप्रतौ ' समऊणादो' इति पाठः। मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिष 'तदाबंधो' इति पाठः । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छवखंडागमे संतकम्म समयतम्भवत्थस्स । देव-णिरयाउआणं जहण्णद्विदिसंतकम्मं कस्स ? चरिमसमयतब्भवत्थस्स। णिरयगइ--तिरिक्खगइ- तप्पाओग्गजादि-णिरयगइ-तिरिक्ख गइपाओग्गाणुपुटिव-- आदावज्जोव-थावर-सुहम-साहारणसरीराणं जह० कस्स? संछोहणादो समयणमावलिय गदस्स।मणुसगइ-पंचिदियजादि-तस-बादर-पज्जत्त जसकित्ति-सुभग आदेज्ज-तित्थयरणामाणं जह० कस्स ? चरिमसमयभवसिद्धियस्स । सेसाणं णामाणं णीचागोदस्स य जहण्णढिदिसंतकम्मं कस्स? दुचरिमसमयभवसिद्धियस्स । उच्चागोदस्स चरिमसमयभवसिद्धिया सामी । एवं सामित्तं समत्तं । एयजीवेण कालो अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सणियासो च सामित्तादो साहेदूण भाणियन्वो । एत्तो अप्पाबहुअं। तं जहा--उक्कस्सए पयदं । मणुस्साउअस्स तिरिक्खाउअस्स य जाओ द्विदीओ ताओ थोवाओ।जं डिदिसंतकम्म विसेसाहियं । देव-णिरयाउआणं जाओ द्विदीओ ताओ संखेज्जगुणाओ । जं द्विदिसंतकम्मं विसेसाहियं । आहारसरीरणामाए जाओ द्विदिओ ताओ संखे० गुणाओ । जं टिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । देवगइणामाए जाओ द्विदीओ ताओ संखे० गुणाओ। जं टिदिसं० विसे० । मणुसगइ-उच्चागोद स्थितिसत्कर्म होता है। देवायु और नारकायुका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती तद्भवस्थ देव और नारकीके होता है । नरकगति, तिर्यग्गति, तत्प्रायोग्य जाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीरका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? इनका निक्षेप करने के पश्चात् जिसने एक समय कम आवलि कालको बिता दिया है उसके उनका जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, यशकीर्ति, सुभग, आदेय और तीर्थंकर इन नामकर्मोंका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक जीवके होता है। शेष नामकर्मोंका और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिसत्कर्म किसके होता है ? वह द्विचरम समयवर्ती भव्य सिद्धिक जीवके होता है। उच्चगोत्रके जघन्य स्थितिसत्कर्मके स्वामी अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक जीव होते हैं। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। ___एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्षका कथन स्वामित्वसे सिद्ध करके करना चाहिये । वहां अल्पबहुत्व । यथा-उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका प्रकरण है । मनुष्यायु और तिर्यगायुकी जस्थितियां स्तोक हैं। उनका जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। देवायु और नारकायुकी जस्थितियां संख्यातगुणी हैं। जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। आहारशरीर नामकर्मकी जस्थितियां संख्यातगुणी हैं। जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। देवगति नामकर्मकी जस्थितियां संख्यातगुणी हैं। जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। मनुष्यगति, उच्चगोत्र और Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे परत्थाणप्पाबहुअं ( ५३७ जसकित्तीणं जाओ द्विदीओ जल द्विदिसंतकम्मं च तत्तियं चेव । णिरयगइ-तिरिक्खगइओरालियसरीराणं जाओ द्विदीओ ताओ विसेसाहियाओ। एदेसि चेव कम्माणं जं द्विदिसंतकम्मं तेजा-कम्मइय-अजसगित्ति-णीचागोदाणं जाओ द्विदीओ जं टिदिसंतकम्म च विसे । सादस्स जाओ द्विदीओ जं दिदिसंतकम्मं च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियणि। पंचण्हं दसणावरणीयाणं जाओ द्विदीओ ताओ विसेसाहियाओ। एदेसि जं टिदिसंतकम्म सेसाणं तीसियाणं जाओ द्विदीओ जं टिदिसंतकम्मं च तुल्लं विसेसाहियं । णोकसायाणं जाओ द्विदीओ जं दिदिसंतकम्मं च विसे० । सोलसकसायाणं जाओ द्विदीओ जं दिदिसंतकम्मं च तुल्लं विसे० । सम्मामिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ ताओ विसे० । एदस्स चेव जं ट्रिदिसंतकम्मं सम्मत्तस्स जाओ द्विदीओ जं द्विदिसंतकम्म विसे० । मिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ जं टिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । एवमोघक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मदंडओ समतो । एदमणुमाणियगदीसु णेयव्वं । जहण्णए पयदं । तं जहा-पंचणाणावरण-चउदंसणावरण-सादासाद-सम्मत्त-लोहसंजलण-इत्थि-णqसयवेद-आउचउक्क-मणुसगइ-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं च जहणियाओ जाओ द्विदीओ जं द्विदिसंतकम्मं तुल्लं थोवं । पंचदंसणावरणीय-मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-तिण्णिगइ-पंचसरीर--अजसकित्ति--णीचागोदाणं जाओ यशकीर्तिकी जस्थितियां और जस्थितिसत्कर्म उतना मात्र ही है। नरकगति, तिर्यग्गति और औदारिकशरीरकी जो स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। इन्हीं कर्मोका जस्थितिसत्कर्म तथा तैजसशरीर, कार्मणशरीर, अयशकीर्ति और नीचगोत्रकी जस्थितियां एवं जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक हैं। सातावेदनीयकी जस्थितियां और जस्थितिसत्कर्म दोनों ही तुल्य व विशेष अधिक हैं। पांच दर्शनावरणीय प्रकृतियों को जो स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। इनका जस्थितिसत्कर्म तथा शेष तीस कोडाकोडि सागरोपम स्थितिवाले कर्मोंकी जस्थितियां और जस्थितिसत्कर्म तुल्य व विशेष अधिक हैं। नोकषायोंकी जस्थितियां और जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक हैं। सोलह कषायोंकी जस्थितियां और जस्थितिसत्कर्म तुल्य व विशेष अधिक हैं। सम्यग्मिथ्यात्वकी जो स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। इसीका जस्थितिसत्कर्म और सम्यक्त्व प्रकृतिकी जस्थितियां व जस्थितिसत्कम विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वकी जस्थितियां और जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक हैं। इस प्रकार ओघ उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मदण्डक समाप्त हुआ। इसी प्रकारसे अनुमानित गतियोंमें ले जाना चाहिये । अब जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है। यथा- पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता व असाता वेदनीय, सम्यक्त्व, संज्वलन लोभ, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार आयु, मनुष्यगति, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय; इनकी जघन्य जस्थितियां और जस्थितित्सकर्म तुल्य व स्तोक हैं। पांच दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, तीन गति, पांच शरीर, अयशकीर्ति और नीचगोत्रकी जस्थितियां उतनी मात्र ही हैं। इनका जस्थितिसत्कर्म Jain Education का-ताप्रत्योः 'जसकतीणं जं' इति पाठ: d & Personal use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ ) छक्खंडागमे संतकम्म द्विदीओ तत्तियाओ चेव । जट्ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । मायासंजलणाए जाओ विदीओ ताओ असंखे० गुणाओ। जट्ठिदिसंत० विसे० । माणसंजलणाए जाओ ट्ठिदीओ ताओ विसे० । जट्ठिदिसंत० विसे० । कोधसंजलणाए जाओ द्विदीओ ताओ विसे । जट्ठिदिसंत० विसे० । पुरिसवेदस्स जाओ द्विदीओ ताओ संखे० गुणाओ। जट्ठिदिसंत० विसे० । हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं जाओ ट्ठिदीओ ताओ संखेज्जगुणाओ। जं छिदिसंतकम्मं विसेसाहियां । एवमोघजहण्णटिदिसंतकम्मदंडओ समत्तो। गदीसु वि जहण्णट्ठिदिसंतकम्मअप्पाबहुगं कायन । तं जहा- णिरयगदीए सम्मत्तस्स जहण्णट्ठिदी थोवा, एगसमयकालएगढिदित्तादो। उव्वेल्लमाणियाणं जहण्णट्ठिदी तत्तिया चेव । जट्ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । उवरि अप्पप्पणो जहण्णट्ठिदिसंतकम्मपमाणं जाणिदूण अप्पाबहुगं कायव्वं । एवं णिरयगइदंडओ समत्तो। . जहा णिरयगदीए तहा इयरासु वि गदीसु णेयव्वं । भुजगारो पदणिवखेवो वड्ढी च एदाणि तिणि अणुयोगद्दाराणि जहा ट्ठिदिसंकमे णीदाणि तहा णेयव्वाणि । एवं ट्ठिदिसंतकम्मं समत्तं । अणुभागसंतकम्मे पुव्वं गमणिज्जा आदिफद्दयपरूवणा कीरदे। तं जहा-केवलणाणावरण-केवलदसणावरण-णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-णिद्दा-पयला-बारसकसायाण संख्यातगुणा है। संज्वलन मायाकी जो स्थितियां हैं वे असंख्यातगणी हैं। जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। संज्वलन मानकी जो स्थितियां हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोधकी जो स्थितियां हैं वे विशेष अधिक है। जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। पुरुषवेदकी जो स्थितियां हैं वे संख्यातगुणी हैं। जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, और जुगुप्साकी जो स्थितियां हैं वे संख्यातगुणी हैं। इनका जस्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। इस प्रकार ओघ जघन्य स्थितिसत्कर्मदण्डक समाप्त हुआ। गतियोंमें भी जघन्य स्थितिसत्कर्मका अल्पबहुत्व करते हैं। यथा- नरकगतिमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति स्तोक है, क्योंकि, वह एक समय कालवाली एक स्थिति रूप है । उद्वेलित की जानेवाली प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उतनी ही है। उनका जस्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है। आगे अपने अपने जघन्य स्थितिसत्कर्मके प्रमाणको जानकर प्रकृत अल्पबहुत्वको करना चाहिये । इस प्रकार नरकगतिदण्डक समाप्त हुआ। जिस प्रकार नरकगतिमें अल्पबहुत्व किया गया है उपी प्रकारसे अन्य गतियोंमें भी ले जाना चाहिये । भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि इन तीन अनुयोगद्वारोंको जैसे स्थितिसंक्रममें लिया गया है वैसे यहां भी ले जाना चाहिये। इस प्रकार स्थितिसत्कर्म समाप्त हुआ। अनुभागसत्कर्म सर्वप्रथम जतलाने योग्य आदि स्पर्धकोंकी प्ररूपणा की जाती है। यथाकेवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला और अप्रती 'ट्ठिदिसंकमेण ' ताप्रत 'ट्ठिदिसंतकम्मे' इति पाठः । .. Jain Education lernational . Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे अणुभागसंतकम्म पदेसग्गं जहण्णे ग सव्वधादिकद्दायाणमादिवग्गणाए जुत्तं, उक्कस्सेण अप्पप्पणो उक्कस्साणुभागफद्दएण संजुत्तं । सम्मत्तस्स आदिफद्दयं देसघादीणमादिफद्दएण समाणं, उपकस्सफद्दयं देसघादी । सम्मामिच्छत्तस्स आदिफद्दयं सव्वधादिफद्दयाणमादिफद्दएण समाणं, तस्सेव उक्कस्सफद्दयं दारुसमाणअणंतिमभागे जम्हि सम्मामिच्छत्तं समत्तं । तदो अणंतर उवरिमफद्दयं मिच्छत्तस्स आदिफद्दयं होदि, उक्कस्समप्पणो चरिमफद्दयं । सेसाणं कम्माणमादिफद्दयं देसघादीणमादिफद्दएण समाणं, उक्कस्समप्पणो चरिमफद्दयं। एत्तो उवरि घादिसण्णा द्वाणसण्णा च कायव्वा-- उक्कस्साणुभागसंतकम्मस्स घादिसण्णा ट्ठाणसण्णा च सुगमा, पुव्वं परूविदत्तादो । संपहि जहण्णागुभागसंतकम्मस्स घादि-ट्ठाणसण्णाओ वत्तइस्सामो । तं जहा--मदि-सुदावरण-चक्खु-अचक्खुदंसणावरणसम्मत्त-चदुसंजलण-तिण्णिवेद-पंचंतराइयाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मं देसघादिएयढाणियं । ओहिणाणावरण-ओहिदसणावरणाणं+ पि जहण्णाणुभागसंतकम्मं देसघादिएयटाणियं । मणपज्जवणाणावरणस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं देसघादि-दुढाणियं * । बारह कषाय ; इनका प्रदेशाग्र जघन्यत. सर्वघाति स्पर्धंकोंकी आदि वर्गणासे युक्त तथा उत्कर्षत अपने अपने उत्कृष्ट अनुभागस्पर्धकसे संयुक्त होता है। सम्यक्त्व प्रकृतिका आदि स्पर्धक देशघातियोंके आदि स्पर्धकके सदृश तथा उत्कृष्ट स्पर्धक देशघाती होता है। सम्यग्मिथ्यात्वका आदि स्पर्धक सर्वघाति स्पर्धकोंके आदि स्पर्धकके समान होता है तथा उसीका उत्कृष्ट स्पर्धक दारु समान अनन्तवें भागमें अवस्थित है जहां सम्यग्मिथ्यात्व समाप्त होता है । उससे आगेका अनन्तर स्पर्धक मिथ्यात्वका आदि स्पर्धक होता है और उत्कृष्ट अपना अन्तिम स्पर्धक होता है। शेष कर्मोंका आदि स्पर्धक देशघातियोंके आदि स्पर्धकके समान तथा उत्कृष्ट अपना अन्तिम स्पर्धक होता है । __ आगे यहां घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा की जाती है- उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मकी घाति संज्ञा और स्थानसज्ञा सुगम है, क्योंकि, उनकी प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है। अब यहां जघन्य अनुभागसत्कर्मकी घाति और स्थान संज्ञाओंका कथन करते हैं। यथा- मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, सम्यक्त्व, चार संज्वलन, तीन वेद और पांच अन्तरायका जघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाति व एकस्थानिक है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणका भी जघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाति व एकस्थानिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणका जघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाति व द्विस्थानिक है। शेष सब कर्मों का जघन्य अनुभागसत्कर्म ( ? ) 48 अ-काप्रत्यो: 'सम्मतं', ताप्रतो 'सम्म (म) तं' इति पाठः। अ-का प्रत्योः 'दंसणावरणं' इति पाठः। *संकमसममणभागे णवरि जहण तु देसघाईनं । छण्णोकसायवनाण' (वज्ज) एगट्टाणमिदेसहरं ।। मणनाणे ददाणं देसहरं सामिगो य सम्मते । आवरण-विग्यसोलस-किट्टिवेएसु य सगते ।। क. प्र. ७, २१-२२. xxx नवरमयं विशेषो यदुत देशघातिनीनां हास्यादिषट्कवजितानां मति-श्रुतावधिज्ञानावरण-चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरण-संज्वलनचतुष्ट य-वेदत्रिकान्तरायपंचकरूपागामष्टादशप्रकृतीनां जघन्यानभागसत्कर्मस्थानपधिकृत्य एक स्थानीयम्, घातिसंज्ञामधिकृत्य देशहरं देशघाति वेदितव्यम् । मनःपर्ययज्ञानावरणे पुनर्जन्यमनुभागसत्कर्म Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ) छक्खंडागमे संतकम्म सेसाणं सव्वकम्माणं जहण्णाणुभागसंतकम्मं (?) सव्वघादिफद्दएण समाणत्तादो* केवलदसणाणुभागसंतकम्मस्स उक्कस्सस्स उक्कस्साणुभागं : चडिदूण जाव ण घादेदि ताव उक्कस्साणुभागसंतकम्मिओ । सो इदाणों को होज्ज? एइंदियो बेइंदियो तीइंदियो चरिदियो च सण्णी असण्णी पज्जत्तओ अपज्जत्तओ सुहुमो बादरो वा होज्ज। सवेसि कम्माणं उक्कस्साणुभागसंतकम्मं जहा मदिआवरणस्स वुत्तं तहा वत्तव्वं । सादस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मं कस्स ? चरिमसमयसुहमसांपराइयस्स खवयमादि कादूण जाव दुचरिमसमयभवसिद्धियादो त्ति। उच्चागोद-जसकित्तीणं सादभंगो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग- वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणाणं उक्कस्साणुभागसंतकम्मं कस्स? देवेण सव्वविसुद्धण बद्धाणुभागमघादेदूणमण्णदरगदीए वट्टमाणस्स । जाओ पसत्थाओ गामपयडीओ तासिमुक्कस्साणुभागसंतकम्मं कस्स? खवयस्स परभवियणामाणं चेव बंधमाणाणं * सर्वघाति स्पर्धकके समान होनेसे केवलदर्शनावरणके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्ट अनुभाग चढकर जब तक नहीं घातता है तब तक वह उसके उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मसे संयुक्त होता है। शंका-- वह इस समय कौन हो उकता है ? समाधान-- वह एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त, सूक्ष्म और बादर हो सकता है। सब कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके, जैसे मतिज्ञानावरणका कहा गया है, वैसे कहना चाहिये। सातावेदनीयका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकको आदि करके द्विचरम समयवर्ती भव्यसिद्धिक तक होता है। उच्चगोत्र और यशकीर्ति के उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके स्वामीकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान करना चाहिये। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकशरीररांगोपांग और वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जो सर्वविशुद्ध देवके द्वारा बांधे गये अनुभागको न घातकर अन्यतर गतिमें वर्तमान है उसके इनका उत्कृष्ट सत्कर्म होता है । जो प्रशस्त नामप्रकृतियां हैं उनका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? वह परभविक नामकर्मोको ही बांधनेवाले क्षपकके अन्तिम समयको आदि करके द्विचरम स्थानमधिकृत्य द्विस्थानम, घातिसंज्ञामधिकृत्य देशघाति । इहोत्कष्टानभागसत्कर्मस्वामिन उत्कृष्टानभागसंक्रमस्वामिन एव वेदितव्याः । जघन्यानभागसत्कर्मस्वामिनः पुनराह--'सामिगो येत्यादि 'सम्यक्त्वज्ञानावरणपंचक-दर्शनावरणषटकान्तरायपंचकरूपप्रकृतिषोडशक--किट्रिरूपसंज्वलनलोभ-वेदत्रयाणां स्व स्वान्तिम. समये वर्तमाना जघन्यानुभागसत्कर्मस्वामिनो वेदितव्याः । मलय. S8 प्रतिषु स्खलितोऽत्र प्रतिभाति पाठः, मतिज्ञानावरणस्योत्कृष्टानभागसत्कमप्ररूपणाया अभावात् । * ताप्रती 'समाण (णं) ता (त) दो' इति पाठः। काप्रतौ कम्मरस उक्कस्साणभाग', 'ताप्रती 'कम्मस्स उक्कस्सं, उक्कस्साणभागं ' इति पाठः। ॐ अ-काप्रत्यो: 'अपज्जत्त' इति पाठः। ता-मप्रत्यो: '-मघादेदूण चरिमगदीए' इति पाठः। * अ-प्रती 'वमाणस्साणं', का-ताप्रत्यो: Jain Education Internatiवट्टमाणाणं' इति पाठः । . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे अणुभागसंतकम्म ( ५४१ चरिमसमयमादि कादूण जाव दुचरिमसमयभवसिद्धो त्ति । आउअस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मं कस्स ? खवयस्स बद्ध तदुवकस्साणुभागस्स बंधपढमसमयप्पहुडि जाव तब्भवत्थस्स दुचरिमसमयादो-त्ति उक्कस्साणुभागसंतकम्मिओ होज्ज । एवमोघसामित्तं समत्तं । गदीसु अप्पसत्थाणं कम्माणं उक्कस्साणुभागसंतकम्मं जहा ओघेण कदं तहा कायव्वं + । णिरयगदीए सादस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्म कस्स ? जेण कसाए उवसातेण चरिमसमयसुहुमसांपराइएण जं बद्धं सादाणुभागसंतकम्मं तमघादेदूण जो णिरयगदीए उववण्णो तस्स उक्कस्सयं सादाणभागसंतकम्मं । जहा सादस्स तहा जसकित्ति-तित्थयरणामकम्माणं उवसामएण बद्धाणुभागमघादेदूण णिरयगदीए उप्पण्णस्स उक्कस्सं वत्तव्वं । एवं सव्वासु गदीसु णेयव्वं । एवमुक्कस्ससामित्तं समत्तं । मदि-सुदावरण-चक्खु-अचक्खुदंसणावरणाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मं कस्स ? चोदसपुवियदुचरिमसमयछदुमत्थस्स उक्कस्सलद्धियस्स । ओहिणाणावरण-ओहिदसणावरणाणं जहण्णाणुभागसंतकम्म कस्स ? चरिमसमयछदुमत्थस्स परमोहियस्स उक्कस्स समयवर्ती भव्यसिद्धिक तकके होता है । ___ आयुका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जिसने उसके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध किया है उसके बन्धके प्रथम समयसे लेकर तद्भवस्थ रहनेके द्विचरम समय तक उसका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। इस प्रकार ओघ स्वामित्व समाप्त हुआ। गतियोंमें अप्रशस्त कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म जैसे ओघ रूपसे किया गया है वैसे करना चाहिये । नरकगतिमें सातावेदनीयका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? कषायोंका उपशम करनेवाले जिस अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके द्वारा जो सातावेदनीयका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म बांधा गया है उसको न घातकर जो नरकगतिमें उत्पन्न हुआ है उसके सातावेदनीयका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। सातावेदनीयके समान यशकीर्ति और तीर्थंकर नामकर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके स्वामी उपशामकके द्वारा बांधे गये अनुभागको न घातकर नरकगतिमें उत्पन्न हुए जीवको कहना चाहिये । इसी प्रकार सब गतियोंमें ले जाना चाहिये । इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। ___ मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरणका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? वह चौदह पूर्वोके धारक उत्कृष्ट श्रुतार्थलब्धि युक्त द्विचरम समयवर्ती छद्मस्थके होता है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणका जघन्य अनुभागसत्कम किसके होता है? वह परमावधिके धारक उत्कृष्ट लब्धि युक्त अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थके होता है। ४ त प्रतौ 'कस्स ? खवयस्स परभवियबद्ध' इति पाठः। अ-का प्रत्यो: 'समयदो'' इति पाठः । . अ-काप्रत्योः 'कदा तहा कापव्वा' इति पाठः। * अ-काप्रत्योः 'उकास्सयसादाणं गंतकम्मं ' इति पाठः। ॐ मप्रतिपाठोऽयम । अ-का-ताप्रतिष-मघादेमाणं'' इति पाठः । अ-काप्रत्योः 'दंसणावरण' इति पाठः। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ ) छक्खंडागमे संतकम्म लद्धियस्स । मणपज्जवणाणावरणस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं कस्स? चरिमसमयछदुमत्थस्स विउलमइस्स उक्कस्सलद्धियस्स। केवलणाणावरण-केवलदंसणावरण-पंचंतराइयाणं जहण्णाणुभागसंतकम्म कस्स ? जस्स वा तस्स वा चरिमसमयछदुमत्थस्स। एवं णिद्दापयलाणं । णवरि दुचरिमसमयछदुमत्थस्स सव्वस्स। णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्दीणं जहण्णाणुभागसंतकम्मं कस्स ? सुहमसंतकम्मेण हदसमुप्पत्तिएण वट्टमाणस्स । अण्णदरो एइंदियो बेइंदियो तेइंदियो चरिदियो असण्णी सुहुमो बादरो पज्जत्तो अपज्जत्तो वा जहण्णाणुभागसंतकम्मिओ होज्ज। सादासादाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मं कस्स ? चरिमसमयभवसिद्धियस्स जहण्णए उदयट्ठाणे वट्टमाणस्स । ___सम्मत्तस्स जह० संतकम्म कस्स ? चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । सम्मामिच्छत्तस्स जह० संत० कस्स ? चरिमाणुभागखंडए वट्टमाणस्म । मिच्छत्तस्स जह• संत० कस्स? सुहुमेइंदियस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण कयजहण्णाणुभागस्सी। मन:पर्ययज्ञांनावरणका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? वह उत्कृष्ट लब्धियुक्त विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणके धारक अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थके होता है। केवल ज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और पांच अन्तरायका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? वह जिस किसी भी अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थके होता है। इसी प्रकार निद्रा और प्रचलाका भी जघन्य अनुभागसत्कर्म कहना चाहिये । विशेष इतना है कि वह द्विचरम समयवर्ती सब छदमस्थ के होता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि का जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है? हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्वरूपसे जो सूक्ष्म एकेन्द्रिय वर्तमान है उसके उनका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। अन्यतर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञो व अमंजी पंचेन्द्रिय, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त जीव उनके जघन्य अनुभागसत्कर्मसे संयुक्त होता है। साता व असाता वेदनीयका जवन्य सत्कर्म किसके होता है ? वह जघन्य उदयस्थानमें वर्तमान अन्तिम समयवर्ती भव्य जीवके होता है । सम्यक्त्व' प्रकृतिका जघन्य सत्कर्म किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती अक्षीणदर्शनमोहक होता है। सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य सत्कर्म किसके होता है ? वह उसके अन्तिम अनुभागकाण्ड कमें वर्तमान जीवके होता है। मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जिसने हतसमुत्पत्तिककर्म स्वरूपसे उसके अनुभागको जघन्य कर लिया है ऐसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके उसका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है ? ४ मह-सुय-चक्खु-अचक्खूण सुयसमत्तस्स जेटल द्धिस्स । परमोहिस्स ओहिदुग मगणाणं विउलणाणस्स ।। क. प्र. ७, २३. अ-काप्रत्यो: 'सव्वेसि' ताप्रतो 'सव्वेसि ' मप्रतौ 'सबुककस्म' इति पाठः । *ताप्रती 'वडमाणस्स ' इति पाठः। प्रतिषु 'अण्णदुककस्सो' इति पाठः। काप्रती 'जहणसंतकम्म' ताप्रतौ 'जहण्णदिदि (अणुभाग) संतकम्म ' इति पाठः। 8ताप्रती 'जहण्णीकदाणभागस्स ' इति पाठः । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे अणुभागसंतकम्म अणंताणुबंधीणं जह० संत० कस्स ? विसंजोएदणसंजोएमाणस्स जहण्णबंधे वट्ट माणस्त । अढण्णं कसायाणं जह० संत० कस्स ? सुहमस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण जहण्णीकदाणुभागस्त । हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं जह० संत० कस्स ? चरिमअणुभाग* खंडए वट्टमाणस्स । णवंसयवेद० जह० संत० कस्स? चरिमसमयणवंसयवेदखवयस्स । इथिवेदस्स जहण्णुक्कस्सदो पुण चरिमसमयइत्थिी वेदोदयस्स । पुरिसवेदस्स जह० संत० कस्स ? पुरिसवेदोदयखवयस्स अवगदवेदो होदूण चरिमसमयपबद्ध चरिमसमयसंकामयस्स । कोहसंजलणाए जहण्णाणुभागसंतकम्मं कस्स? कोधेण उवट्ठिदस्स खवयस्स चरिमसमयपबद्ध चरिमसमयसंकामयस्स। माणसंजलणाणं जहण्णाणुभागसंतकम्म पत्थि । मायासंजलणाए जह० संत० कस्स ? मायाए उवट्ठिदस्स खवयस्स चरिमसमयपबद्धस्स । लोहसंजलणाए जह० संत० कस्स ? तिव्वयरहदसमुप्पत्तियचरिमसमयसंकामयस्स एवं जहण्णसामित्तं समत्तं । अनन्तानुबन्धी कषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? वह उनका विसंयोजन करके पुनः संयोजन करते हुए जघन्य बन्धमें वर्तमान जीवके होता है । आठ कषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? वह हतसमुत्पत्तिककर्म स्वरूपसे अनुभागको जघन्य कर लेनेवाले सूक्ष्म जीवके होता है। हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? वह उनके अन्तिम अनुभागकाण्डकमें वर्तमान जीवके होता है। नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? वह अन्तिम समयवर्ती नपंसकवेदके क्षपकके होता है। स्त्रीवेदका जघन्य व उत्कृष्ट अनभागसत्कर्म अन्तिम समयवर्ती स्त्रीवेदवेदकके होता है। पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जो अपगतवेदी होकर अन्तिम समयप्रबद्धका अन्तिम समयवर्ती संक्रामक है ऐसे पुरुषवेदोदययुक्त क्षपकके उसका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है । संज्वलन क्रोधका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? वह क्रोधसे उपस्थित क्षपकके होता है जो कि उसके अन्तिम समयप्रबद्धका अन्तिम समयवर्ती संक्रामक है। संज्वलन मानका जघन्य मागसत्कर्म नहीं होता। संज्वलन मायाका जघन्य अनभागसत्कर्म किसके होता है? वह माय से उपस्थित हए उसके अन्तिम सयमप्रबद्धके क्षपकके होता है। संज्वलन लोभका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? वह तीव्रतर हतसमुत्पत्तिक अन्तिम समयवर्ती संक्रामकके होता है। इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। ताप्रती 'विगंजोएणणसंजोएमाणस्स' इति पाठः। * ताप्रतौ 'चरिमसमयअणभाग' इति पाठः । B मप्रतिपाठोऽयम् । अ-कापत्योः 'इत्थिवेदस्स जहण्णक्कस्सजहण्णचरिपसमयो इत्थि' ताप्रती 'इत्थिवेदस्स जह० कस्स जहण्णचरिमसमय इत्थि-' इति पाठः । का-ताप्रत्योः 'समयबद्ध' इति पाठः। काप्रती 'समयबंधचरिमसमयसंकामयस्स , ताप्रती समयपबद्धस्स च संकामयस्स ' इति पाठ:Mate & Personal use only iyanामवस्त Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ ) छक्खंडागमे संतकम्म णिरयईए णेरइएसु सव्वतिव्वाणुभागं सादं । उच्चागोद-जसकित्तीओ अणंतगुणाओ। कम्मइय० अणंतगुणो। तेजइय० अणंतगुणो। वेउव्विय० अणंतगुणो। मिच्छत्त० अणंतगुणो। ओहिणाण-ओहिदंसणावरणाणं अणंतगुणो । सम्मामिच्छत्ते अणंतगुणो। दाणंतराइय० अणंतगुणो । लाहंतराइय० अणंतगुणो । भोगंतराइय० अणंतगुणो। परिभोगंतराइय० अणंतगुणो। अचवखुदंसणावरण० अणंतगुणो। चक्खुदंस० अणंतगुणो । वीरियंतराइय० अणंतगुणो। सम्मत्त० अणंतगुणो । तिरिक्खगदीए तव्वतिव्वाणुभागं उच्चागोद-जसकित्तीणं । कम्मइय० अणंतगुणं । तेजइय० अणंतगुणं । वेउब्विय० अणंतगुणं । मिच्छत्त० अणंतगुणं । केवलणाण-केवल' दसणावरणाणं अणंतगुणं । अण्णदरो अणंताणुबंधि० अणंतगुणो। अण्णदरो संजलण० अणंतगुणो । अण्णदरो पनचक्खाण० अणंतगुणं । अण्ण० अपच्चक्खाण० अणंतगुणं । मदिआवरण० अणंतगुणं । सुदावरण० अणंतगुणं । ओहिणाण-ओहिदसणावरणाणं अणंतगुणं । मणपज्जवणाणावरण० अणंतगुणं । थीणगिद्धि० अणंतगुणं । णिहाणिद्दा० अणंतगुणं । पयलापयला० अणंतगुणं । णिद्दा० अणंतगुणं । पयला अणंतगुणं । रदि० अणंतगुणं । हस्स० अणंतगुणं । ओरालिय० अणंतगुणं । तिरिक्खाउ० अणंतगुणं । नरकगतिमें नारकियोंमें सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभागवाली प्रकृति है। उससे उच्चगोत्र और यशकीति अनन्तगुणी हैं। कार्मणशरीर अनन्तगुणा है। तैजसशरीर अनन्तगुणा है। वैक्रियिकशरीर अनन्तगुणा है । मिथ्यात्व अनन्तगुणा है । अवधिवानावरण और अवधिदर्शनावरण अनन्तगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तगुणा है। दानान्तराय अनन्तगुणा है । लाभान्तराय अनन्तगुणा है। भोगान्तराय अनन्तगुणा है। परिभोगान्तराय अनन्तगुणा है । अचक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है। चक्षुदर्शनावरण अनन्त गुणा है। वीर्यान्तराय अनन्तगुणा है। सम्यक्त्व अनन्तगुणा है। तिर्यंचगतिमें उच्चगोत्र और यशकीति सबसे तीव्र अनुभागवाली प्रकृतियां हैं। कार्मणशरीर अनन्तगुणा है। तैजसशरीर अनन्तगुणा है। वैक्रियिकशरीर अनन्तगुणा है। मिथ्यात्व अनन्तगुणा है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण अनन्तगुणे हैं। अनन्तानुबन्धिचतुष्कों अन्यतर अनन्तगुणा है। अन्यतर संज्वलन अनन्तगुणा है। अन्यतर प्रत्याख्यानावरण अनन्तगुणा है । अन्यतर अप्रत्याख्यानावरण अनन्तगुणा है। मतिज्ञानावरण अनन्तगुणा है। श्रुतज्ञानावरण अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण अनन्तगुणे हैं। मनःपर्ययज्ञानावरण अनन्तगुणा है। स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणा है । निद्रानिद्रा अनन्तगुणी है । प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी है । निद्रा अनन्तगुणी है। प्रचला अनन्तगुणी है। रति अनन्तगुणी है। हास्य अनन्तगुणा है । औदारिकशरीर अनन्तगुणा है। तिर्यगायु अनन्तगुणा है । असातावेदनीय * प्रतिष 'अणंतगुणहीणाओ' इति पाठः। * ताप्रती 'मिच्छत० ओहिणाण० ओहिदंसणावरण. अणंतगणा' इति पाठः। 8 अप्रतौ 'सम्मामिच्छत्तागं' इति पाठः। अ-ताप्रत्यौ: 'पयला.' इत्येतस्य An Educati स्थाने सुद०', काप्रतो 'सुदणाण.' इति पाठ:vale & Personal use Only . | Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहुणुयोगद्दारे अणुभागसंतकम्मं (५४५ असाद० अनंतगुणं । णवंसय० अनंतगुणं । इत्थि० अणंतगुणं । पुरिस० अनंतगुणं । अरदि अनंतगुणं । सोग० अनंतगुणं । भय० अनंतगुणं । दुगुंछा० अनंतगुणं । णीचागोद० अजसकित्ति० अनंतगुणं । तिरिक्खगइ० अनंतगुणं । चक्खु ० अनंतगुणं । सम्मामिच्छत्त० अनंतगुणं । दाणंतराइय० अनंतगुणं । लाहंतराइय० अनंतगुणं । - भोगंतराइय० अनंतगुणं । परिभोगंतराइय० अनंतगुणं । अचक्खु + अनंतगुणं । वीरियंतराइय० अनंतगुणं । सम्मत्तं अनंतगुणं । د O मस्से सम्वतिव्वाणुभागमुच्चा गोद - जस कित्तीणं । कम्मइय० अनंतगुणं । तेजइय० अनंतगुणं । आहार अनंतगुणं । वेउब्विय अनंतगुणं । मिच्छत्त० अनंतगुणं । केवलणाण- केवलदंसणावरणाणं अनंतगुणं । कसायाणमोघभंगो । तदो मदिआवरण० अनंतगुणं । सुदावरण० अनंतगुणं । ओहिणाण - ओहिंदंसणावरणाणमनंतगुणं । मज्जव अनंतगुणं । योगगिद्धि० अनंतगुणं । णिद्दाणिद्दा अनंतगुणं । पयलापयला० अनंतगुणं । णिद्दा० अनंतगुणं । पयला० अनंतगुणं । साद० अनंतगुणं । रदि० अनंतगुणं । हस्स० अनंतगुणं । मणुसगइ० अनंतगुणं । ओरालिय० अनंतगुणं । मणुसाउ० अनंतगुणं । असाद० अनंतगुणं । णवंस० अनंतगुणं । इत्थि० अनंतगुणं । पुरिस० अनंतगुणं । अरदि० अनंतगुणं । सोग० अनंतगुणं । भय० अनंतगुणं । दुगंछा० अनन्तगुणा है । नपुंसक वेदअनन्तगुणा है । स्त्रीवेद अनन्तगृणा है । पुरुषवेद अनन्तगुणा है । अरति अनन्तगुणी है । शोक अनन्तगुणा है । भय अनन्तगुणा है । जुगुप्सा अनन्तगुणी है । नीचगोत्र और अयशकीर्ति अनन्तगुणे हैं । तिर्यग्गति अनन्तगुणी है । चक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है । सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तगुणा है । दानान्तराय अनन्तगुणा है । लाभान्तराय अनन्तगुणा है । भोगान्तराय अनन्तगुणा है । परिभोगान्तराय अनन्तगुणा है । अचक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है । वीर्यान्तराय अनन्तगुणा है । सम्यक्त्व अनन्तगुणा है । मनुष्यों में उच्चगोत्र और यशकीर्तिका अनुभाग सबसे तीव्र है । कार्मणका अनन्तगुणा है । तैजस शरीरका अनन्तगुणा है । आहारशरीरका अनन्तगुणा है । वैक्रियिकशरीरका अनन्तगुणा है । मिथ्यात्वका अनन्तगुणा है । केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणका अनन्तगुण है । कषायों का अल्पबहुत्व ओघके समान है। उससे आगे मतिज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगुणा है। श्रुतज्ञानावरणका अनुभान अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणका अनन्तगुणा है । मन:पर्ययज्ञानावरणका अनन्तगुणा है । स्त्यानगृद्धिका अनन्तगुणा है । निद्रानिद्राका अनन्तगुणा है । प्रचलाप्रचलाका अनन्तगुणा है । निद्राका अनन्तगुणा है । प्रचलाका अनन्तगुणा है । सातावेदनीयका अनन्तगुणा है । रतिका अनन्तगुणा है । हास्यका अनन्तगुणा है | मनुष्यगतिका अनन्तगुणा है । औदारिकशरीरका अनन्तगुणा है । मनुष्यायुका अनन्तगुणा । असातावेदनीयका अनन्तगुणा है । नपुंसकवेदका अनन्तगुणा है । स्त्रीवेदका अनन्तगुणा है । पुरुषवेदका अनन्तगुणा है । अरतिका अनन्तगुणा है । शोकका अनन्तगुणा है । प्रतिषु ' चक्खु०' इति पाठः । ताप्रती 'सुदावरण ओहिदसणावरणाणं अगंतगुणं' इति पाठः । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ ) छक्खंडागमे संतकम्म अणंतगुणं । णीचागोद-अजसकित्तीणं अणंतगुणं । सम्मामिच्छत्त० अणंतगुणं । चदुण्णमंतराइयाणमोघभंगो । अचक्खु० अणंतगुणं । चक्खु० अणंतगुणं । वीरियंतराइय० अणंतगुणं । सम्मत्त० अणंतगुणं । देवगईए सव्वतिव्वाणुभागं सादं । उच्चागोद-जसकित्तीओ अणंतगुणाओ। मिच्छत्त० अणंतगुणं । केवलणाण-केवलदंसणावरणाणं अणंतगुणं । अण्णदरो अणंताणुबंधि० अणंतगुणं । सेसाणं कसायाणमोघभंगो । तदो मदिआवरण अणंतगुणं । सुदआवरण० अणंतगुणं। मणपज्जव० अणंतगुणं । णिद्दा० अणंतगुणं। पयला अणंतगुणं । देवगई अणंतगुणं । रदि० अणंतगुणं । हस्स० अणंतगुणं । कम्मइय० अणंतगुणं। तेजा० अणंतगुणं । वेउन्विय० अणंतगुणं । देवाउ० अणंतगुणं । असाद० अणंतगुणं । इथि० अणंतगुणं। पुरिस० अणंतगुणं । अरदि० अणंतगुणं । सोग० अणंतगुणं । भय० अणंतगुणं । दुगुंछा० अणंतगुणं । अजसकित्ति० अणंतगुणं । ओहिणाण-ओहिदंसणा: वरणाणं अणंतगुणं । सम्मामिच्छत्त० अणंतगुणं । चदुण्हमंतराइयाणमोघभंगो। अचक्खु. अणंतगुणं । वीरियंतराइय० अणंतगुणं । सम्मत्त० अणंतगुणं । भवणवासिएसु सव्वतिव्वाणुभागं मिच्छत्तं । केवलणाण-केवलदसणावरणाण अणंतगुणं । कसायाणमोघभंगो । मदिआवरण० अणंतगुणं । सुदआव० अणंतगुणं । भयका अनन्तगुणा है । जुगुप्साका अनन्तगुणा है। नीचगोत्र और अयशकीर्तिका अनन्तगुणा है। सम्यग्मिथ्यात्वका अनन्तगुणा है। चार अन्तराय प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। अचक्षुदर्शनावरणका अनन्तगुणा है। चक्षुदर्शनावरणका अनन्त गुणा है। वीर्यान्तरायका अनन्तगुणा है। सम्यक्त्वका अनन्तगुणा है। देवगतिमें सबसे तीव्र अनुभागवाला सातावेदनीय है। उससे उच्चगोत्र और यश कीर्ति अनन्तगुणे हैं। मिथ्यात्व अनन्तगुणा है। केवल ज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण अनन्तगुणे हैं। अन्यतर अनन्तानुबन्धी अनन्तगुणी है । शेष कषायोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है । आगे मतिज्ञानावरण अनन्तगुणा है । श्रुतज्ञानावरण अनन्तगुणा है । मनःपर्ययज्ञानावरण अनन्तगुणा है । निद्रा अनन्तगुणी है । प्रचला अनन्त गुणी है । देवगति अनन्तगुणी है। रति अनन्तगुणी है। हास्य अनन्तगुणा है । कार्मणशरीर अनन्तगुणा है । तैजसशरीर अनन्तगुणा है । वैक्रियिकशरीर अनन्तगुणा है । देवायु अनन्तगुणी है । असातावेदनीय अनन्तगुणा है। स्त्रीवेद अनन्तगुणा है। पुरुषवेद अनन्तगुणा है। अरति अनन्तगुणा है। शोक अनन्तगुणा है । भय अनन्तगुणा है । जुगुप्सा अनन्तगुणी है। अयशकीर्ति अनन्तगुणी है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण अनन्तगुणे है। सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तगुणा है। चार अन्तराय प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है । अचक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है। वीर्यान्त राय अनन्तगुणा है । सम्यक्त्व अनन्तगुणा है। ___ भवनवासी देवोंमें मिथ्यात्व सबसे तीव्र अनुभागवाला है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण ,अनन्तगुणे हैं। कषायोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। मतिज्ञानावरण अनन्त ४ प्रतिषु — अणंतगुणहीणाओ' इति पाठः । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे अणुभागरातकम्म ( ५४७ मणपज्जव० अणंतगुणं । णिद्दा० अगंतगुणं । पयला० अणंतगुणं । थीणगिद्धि० अगंतगुणं । उच्चागोद० जसकित्ति० अणंतगुणं । देवगइ० अणंतगुणं । रदि० अणंतगुणं । हस्स० अणंतगुणं । उवरि देवोघभंगो। एइंदिए सु सम्वतिव्वाणुभागं मिच्छत्तं । केवलणाणावरण-केवलदसणावरणाणं* अणंतगुणं । कसायाणमोघभंगो । तदो मदिआवरण० अणंतगुणं । चक्खु० अणंतगुणं । सुदआवरण अणंतगुणं। ओहिणाण-ओहिसणावरणाणं अणंतगुणं । मणपज्जव० अणंतगुणं । थीणगिद्धि ० अणंतगुणं । गिद्दाणिद्दा० अणंतगुणं । पयलापयला० अणंतगुणं । णिद्दा० अणंतगुणं पयला० । अणंतगुणं । असाद० अणंतगुणं । णवंसय० अणंतगुणं । अरदि० अणंतगुणं । सोग० अणंतगुणं । भय० अणंतगुणं । दुगुंछा अणंतगुणं । णीचागोद० अणंतगुणं । अजसकित्ति० अणंतगुणं । तिरिक्खगइ० अणंतगुणं । साद० अणंतगुणं । जसकित्तिः अणंतगुणं । रदि० अगंतगुणं । हस्स० अणंतगुणं । कम्मइय० अणंतगुणं । तेजइय० अणंतगुणं । वेउव्विय० अगंतगुणं । ओरालिय० अणंतगुणं । तिरिक्खाउ० अणंतगुणं । चदुग्णमंतराइयाणमोघो । अव बु. अगंतगुणं । विरियंतराइयल अणंतगुणं । एवं विलिदिएसु वि । णवरि पसत्थकम्मंसा उवा कायव्वा । एवमुक्कस्सदंडओ समत्तो। गुणा है । श्रुतज्ञानावरण अनन्तगुणा है । मनःपर्ययज्ञानावरण अनन्त गुणा है । निद्रा अनन्त गुणी है । प्रचला अनन्तगुणी है। स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणी है। उच्चगोत्र और अयशकीर्ति अनन्तगुणे हैं। देवगति अतन्तगुणी है। रति अनन्तगुणी है। हास्य अनन्तगुणा है। आगेकी प्ररूपणा देव ओघके समान है। एकेन्द्रिय जीवोंमें मिथ्यात्व सबसे तीव्र अनुभागवाला है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण अनन्तगुण हैं । कषायोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। आगे मतिज्ञानावरण अनन्तगुणा है। चक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है। श्रुतज्ञानावरण अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनाववरण अनन्त गुणे हैं। मनःपर्ययज्ञानावरण अनन्तगुणा है। स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणी है। निद्रानिद्रा अनन्तगुणी है। प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी है। निद्रा अनन्तगुणी है । प्रचला अनन्तगुणी है । असातावेदनीय अनन्तगुणा है । नपुंसकवेद अनन्तगुणा है । अरति अनन्तगुणी है । शोक अनन्तगुणा है । भय अनन्तगणा है । जुगुप्सा अनन्तगुणो है । नीचगोत्र अनन्तगुणा है । अयशकीर्ति अनन्त गुणी है । तिर्यग्गति अनन्तगुणी है। सातावेदनीय अनन्तगुणा है । यशकीर्ति अनन्तगुणी है। रति अनन्तगुणी है । हास्य अनन्तगुणा है। कार्मणशरीर अनन्तगुणा है । तैजसशरीर अनन्तगुणा है । वैक्रियिकशरीर अनन्तगुणा है । औदारिकशरीर अनन्तगुणा है। तिर्यगायु अनन्तगुणी है । चार अन्तराय प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। अचक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है । वीर्यान्तराय अनन्तगुणा है। इसी प्रकार विकलेन्द्रिय जीवोंमें भी उपर्युक्त अल्पबहुत्व जानना चाहिये । विशेष इतना है कि प्रशस्त कर्माशोंको आगे करना चाहिये । इस प्रकार उत्कृष्ट दण्डक समाप्त हुआ । *ताप्रती ' केवलणाणावरणं' इति पाठः। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ) छक्खंडागमे संतकम्म जहण्णए पयदं- सव्वमंदाणुभागं लोहसंजलण । माया अणंतगुणा । माणो अणंतगुणो । कोधो अणंतगुणो। वीरियंतराइय० अणंतगुणो। सम्मत्त० अणंतगुणं । चक्खु० अणंतगुणं। सुदआवरण० अणंतगुणं । ( मदि० अणंतगुणं । ) अचक्खु० अणंतगुणं । ओहिणाण-ओहिदसणाव. अणंतगुणं । परिभोगंतराइय० अणंतगुणं । भोगंतराइय० अणंतगुणं । लाहंतराइय० अणंतगुणं । दाणंतराइय० अणंतगुणं । पुरिस० अणंतगुणं । इत्थि० अणंतगुणं । णवंस० अणंतगुणं । रदि० अणंतगुणं । हस्स० अणंतगुणं। अरदि० अणंतगुणं । दुगुंछ० अणंतगुणं । भय० अणंतगुणं । सोग० अणंतगुणं । केवल*णाणकेवलदसणाव. अणंतगुणं। पयला० अणंतगुणं । णिद्दा० अणंतगुणं । पयलापय० अणंतगुणं । णिहाणिद्दा० अणंतगुणं । थीणगिद्धि० अणंतगुणं। अण्णदरो पच्चक्खाणकसाओ अणंतगुणो। अण्णदरो अपच्च० कसाओ अणंतगुणं । सम्मामिच्छत्तं अणंतगुणं । अण्ण० अणंताणुबंधि०अणंतगुणं । संजलण० अणंतगुणं। मिच्छत्त० अणंतगुणं । ओरालिय० अणंतगुणं । वेउव्विय० अणंतगुणं । तिरिक्खाउ० अणंतगुणं । मणुस्साउ० अणंतगुणं । आहार० अणंतगुणं । तेजा० अणंतगुणं । कम्मइय० अणंतगुणं । तिरिक्खगइ० अणंतगुणं। णिरयगइ० अणंतगुणं। मणुसगइ० अणंतगुणं । देवगइ० अणंतगुणं। णीचागोद० अणंतगुणं । अजसकित्ति० अणंतगुणं । असाद० अगंतगुणं । उच्चागोद० अणंतगुणं । जसकित्ति अणंतगुणं । साद० अणंतगुणं । णिरयाउ० अणंत अब जघन्य अगुभागसत्कर्मदण्कक प्रकृत है सबसे मंद अनुभागवाला संज्वलन लोभ है । संज्वलन माया अनन्तगुणी है । संज्वलन मान अनन्तगुणा है। संज्वलन क्रोध अनन्तगुणा है । वीर्यान्तराय अनन्तगुणा है । सम्यक्त्व अनन्तगुणा है । चक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है । श्रुतज्ञानावरण अनन्तगुणा है। ( मतिज्ञानावरण अनन्तगुणा है । ) अचक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है । अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण अनन्तगुणे हैं। परिभोगान्त राय अनन्तगुणा है। भोगान्त राय अनन्तगुणा है। लाभान्तराय अनन्तगुणा है । दानान्तराय अनन्तगुणा है। पुरुषवेद अनन्तगुणाहै । स्त्रीवेद अनन्तगुणा है । नपुंसकवेद अनन्तगुणा है । रति अनन्तगुणी है । हास्य अनन्तगुणा है। अरति अनन्तगुणी है। जुगुप्सा अनन्तगुणी है। भय अनन्तगुणा है। शोक अनन्तगुणा है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण अनन्तगुणे हैं। प्रचला अनन्तगुणी है। निद्रा अनन्तगुणी है। प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी है। निद्रानिद्रा अनन्तगुणी है। स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणी है। अन्यतर प्रत्याख्यानावरण कषाय अनन्तगुणी है। अन्यतर अप्रत्याख्यानावरण कषाय अनन्तगुणी है। सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तगुणी है । अन्यतर अनन्तानुबन्धी कषाय अनन्तगुणी है । संज्वलनचतुष्को अन्यतर अनन्तगुणा है। मिथ्यात्व अनन्तगुणा है। औदारिकशरीर अनन्तगुणा है । वैक्रियिकशरीर अनन्तगृणा है। तिर्यगायु अनन्तगुणी है। मनुष्यायु अनन्तगुणी है । आहारकशरीर अनन्तगुणा है । तैजसशरीर अनन्तगुणा है। कार्मणशरीर अनन्तगुणा है। तिर्यग्गति अनन्तगुणी है। नरकगति अनन्तगुणी है। मनुष्तगति अनन्तगुणी है। देवगति अनन्तगुणी है । नीचगोत्र अन्तगुणा है । अयशकीर्ति अनन्तगुणी है । असातावेदनीय अनन्तगुणा है। उच्चगोत्र * अप्रतौ ' सोग अणंतगणं अरदि अणंतगुणं केवल', ताप्रतौ ' सोग० (अरदि. )केवल ' इति पाठः। . Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे अणुभागसंतकम्म गुणं । देवाउ० अणंतगुणं। एत्थ ओघजहण्णदंडओ समत्तो। णिरयगईए सव्वमंदाणुभागं सम्मतं । चक्खु० अगंतगुणं । अचक्खु० अणंतगुणं । हस्स० अणंतगुणं । रदि० अगंतगुणं । दुगुंछा० अगंतगुणं । भय० अणंतगुणं । सोग० अणंतगुणं । अरदि० अणंतगुणं । णqसय० अगंतगुणं। एवं तिव्वयरसव्वमंदाणुभागं गेयव्वं जाव दाणंतराइयं (ति)। ओहिणाण-ओदिसणावरणाणं अणंतगुणं । मणपज्जव०अणंतगुणं । सुदावरण अणंतगुणं । मदिआ.अगंतगुणं। अण्णदरो अपच्चक्खाणकसाओ अणंतगुणो। अण्णदरो पच्चक्खाणकसाओ अणंतगुणो । केवलणाण-केवलदसणावरगाणं अणंतगुणं । पयला० अगंतगुणं। णिद्दा०अणंतगुणं । सम्मामिच्छत्त० अणंतगुणं । अण्णदरो अणंताणुबंधिकसाओ अणंतगुणो । अण्णदरो संजलणाणं णत्थि । मणुसगईए णिरयगइभंगो। वेउब्विय०अणंतगुण । तेजइय०अगंतगुणं । कम्मइय०अणंतगुणं । णिरयगइ० अणंतगुणं । णीचागोद० अणंतगुणं। अजसकित्तीए अणंतगुणं। असाद० अगंतगुणं । साद० अणंतगुणं । णिरयाउ० अणंतगुणं । एवं दोच्चाए । णवरि वीरियंतराइयस्स परिभोगंतराइयस्स च मझे सम्मत्तं कायध्वं । एवं गिरयगइदंडओ समत्तो। तिरिक्खगईए सव्वमंदाणभागं सम्मत्तं। चक्ख०अणंतगुणं। अचक्खु०अणंतगुणं । अनन्त गुणा है। यशकीति अनन् गुण है। सातावेदनीय अनन्तगुणा है । नारकायु अनन्तगुणी है । देवायु अनन्तगुणी है। यहां ओघ जघन्य दण्डक समाप्त हुआ। नरकगतिमें सबसे मंद अनुभागवाली सम्यक्त्व प्रकृति है। चक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है । अचक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है । हास्य अनन्तगुणा है। रति अनन्तगुणी है । जुगुप्सा अनन्तगुणी है । भय अनन्तगुणा है । शोक अनन्तगुणा है । अरति अनन्तगुणी है ।इस प्रकार तीव्रतर सर्वमंदानुभाग दानांतराय तक ले जाना चाहिये। (अर्थात् नपुंसकवेदसे अन्यतर संज्वलनचतुष्क अनन्तगुणी है । वीर्यान्तराय अनन्तगुणी है। परिभोगान्तराय अनन्तगुणी है । भोगान्तराय अनन्तगुणी है । लाभान्त राय अनन्तगुणी है। दानान्त राय अनन्तगुणी है। ऐसा कथनका अभिप्राय है।) अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण अनन्तगुणा है । मनःपर्ययज्ञानावरणका अनन्तगुणा है । श्रुतज्ञानावरणका अनन्तगुणा है। मतिज्ञानावरणका अनन्तगुणा है। अन्यतर अप्रत्याख्यानावरण कषाय अनन्त गुणी है। अन्यतर प्रत्याख्यानावरण कषाय अनन्त गुणी है । केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणका अनन्तगुणा है । प्रचलाका अनन्तगुणा है । निद्राका अनन्तणा है। सम्यग्यिथ्यात्वका अनन्तगुणा है। अन्यतर अनन्तानुबन्धी कषायका अनन्तगुणा है। अन्यतर संज्वलन कषायोंके नहीं है । मनुष्यगतिकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है । वैक्रियिकशरीरका अतन्तगुणा है । तेजसशरीरका अनन्तगुणा है। कार्मणशरीरका अनन्तगुणा है । नरकगतिका अनन्तगुणा है । नीचगोत्रका अनन्तगुणा है । अयशकीर्तिका अनन्तगुणा है । असातावेदनीयका अनन्तगुणा है । सातावेदनीयका अनन्तगुगा है। नारकायुका अनन्तगुणा है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीमें जानना चाहिये । विशेष इतना है कि वीर्यान्तराय और परिभोगान्तरायके मध्यमें सम्यक्त्वको करना चाहिये । इस प्रकार नरकगतिदण्डक समाप्त हुआ। काप्रती 'अण. ' ताप्रती 'अण्णदरा' इति पाठः। . Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ) छक्खंडागमे संतकम्म.. ओहिणाण-ओहिदंसणावरणाणं अणंतगुणं । हस्स० अणंतगुणं । रदि० अणंतगुणं । दुगुंछा अणंतगुणं । भय० अणंतगुणं । सोग० अगंतगुणं । अरदि, अणंतगुणं । पुरिस० अणंतगुणं । इथि० अणंतगुणं । णवूस० अणंतगुणं । अण्णदरसंजलण० अणंतगुणं । वीरियंतराइय० अणंतगुणं । एवं णेदव्वं जाव दाणंतराइयं ति अणंतगुणकमेण । मणपज्जव० अणंतगुणं । सुदावरण० अणंतगुणं । मदिआ० अणंतगुणं । अण्णदरो अपच्चक्खाणकसाओ अणंतगुणो। अण्णदरो पच्चक्खाणाणं केवलणाणकेवलदसणावरणाणं अणंतगुणं । पयला० अणंतगुणं । णिद्दा० अणंतगुणं । पयलापयला० अणंतगुणं । णिहाणिद्दा० अणंतगुणं । थीणगिद्धि० अणंतगुणं । सम्मामिच्छत्त० अणंतगुणं । अण्णदरो अणंताणुबंधिकसाओ अणंतगुणो । मिच्छत्त० अणंतगुणं । ओरालिय० अणंतगणं। वेउव्विय० अणंतगणं । तिरिक्खाउ० अणंतगुणं । तेजा० अणंतगुणं । कम्मइय० अणंतगुणं । तिरिक्खगइ० अणंतगुणं । णीचागोद० अणंतगुणं । अजसकित्ति० अणंतगुणं । असाद० अगंतगुणं । जस कित्ति० अणंतगुणं । साद०अणंतगुणं । उच्चागोद० अणंतगुणं । एवं तिरिक्खगई० । मणुसेसु ओघभंगो। देवगईए सव्वमंदाणुभागं सम्मत्तं । चक्खु० अणंतगुणं । तिर्यग्गतिमे सम्यक्त्व प्रकृति सबसे मंद अनुभागवाली है । चक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है। अचक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण 3 हैं। हास्य अनन्तगणी है। रति अनन्तगणी है। जगप्सा अनन्तगणी है। भय अनन्तगणा है। शोक अनन्तगुणा है। अरति अनन्तगुणी है। पुरुषवेद अनन्तगुणा है। स्त्रीवेद अनन्तगुणा है। नपंसकवेद अनन्तगणा है। अन्यतर संज्वलन कषाय अनन्तगणी है वीर्यान्त राय अनन्तगणा है। इस प्रकार अनन्तगणित क्रमसे दानान्तराय तक ले जाना चाहिये । मन:पर्ययज्ञानावरण अनन्तगणा है। श्रतज्ञानावरण अनन्तगणा है। मतिज्ञानावरण अनन्तगणा है। अन्यतर अप्रत्याख्यानावरण कषाय अनन्तगणी है। अन्यतर प्रत्याख्यानावरण कषाय, केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण अनन्तगुणे हैं। प्रचला अनन्तगुणी है। निद्रा अनन्तगुणी है । प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी है। निद्रानिद्रा अनन्तगुणी है। स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणी है । सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तगुणा है। अन्यतर अनन्तानुबन्धी कषाय अनन्तगुणी है। मिथ्यात्व अनन्तगुणा है । औदारिकशरीर अनन्तगुणा है। वैक्रियिकशरीर अनन्तगुणा है। तिर्यगायु अनन्तगुणी है । तैजसशरीर अनन्तगुणा है। कार्मणशरीर अनन्तगृणा है। तिर्यग्गति अनन्तगुणी है। नीचगोत्र अनन्तगुणा है । अयशकीति अनन्तगुणी है । असातावेदनीय अनन्त गुणा है । यशकीर्ति अनन्तगुणी है । सातावेदनीय अनन्तगुणी है । उच्चगोत्र अनन्तगुणा है। इस प्रकार तिर्यग्गतिदण्डक समाप्त हुआ । ___ मनुष्योंमें उक्त अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा ओघके समान है । देवगति में सबसे मन्द अनुभागवाली सम्यक्त्व प्रति है । चक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है। श्रुतज्ञानावरण अनन्तगुणा है । ४ ताप्रती 'जाव अंतराइयं ' इति पाठः । . Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे अणुभागमंतकम्म ( ५५१ सुदणाणावरण० अणंतगुणं । मदिआ० अणंतगुणं । अचक्खु ० अणंतगुणं । ओहिणाणओहिदंसणावरणाणं अणंतगुणं । हस्स० अणंतगुणं रदि० । अणंतगुणं । दुगुंछा० अणंतगुणं । भय० अणंतगुणं । सोग० अणंतगुणं । अरदि० अणंतगुणं । पुरिस० अणंतगुणं । इत्थि० अणंतगुणं । अण्णदरसंजलण० अणंतगुणं । कम्मइय० अणंतगुणं । एवं णेदव्वं अणंतगुणकमेण जाव दाणंतराइयं ति। मणपज्जवणाणावरण० अणंतगुणं । अण्णदरो अपच्चक्खाणकसाओ अणंतगुणो । अण्ण० पच्चक्खा० अणंतगुणो । केवलणाणकेवलदसणावरणाणं अणंतगुणं । पयला० अणंतगुणं । णिद्दा अणंतगुणं । सम्मामिच्छत्त० अणंतगुणं । अण्णदरो अणंताणुबंधिकसाओ अणंतगुणो। मिच्छत्त० अणंतगुणं। ओरालिय० अणंतगुणं । कम्मइय० अणंतगुणं । देवगइ० अणंतगुणं । अजसकित्ति० अणंतगुणं । असाद० अणंतगुणं । उच्चागोद० अणंतगुणं । जसकित्ति० अणंतगुणं । साद० अणंतगुणं । देवाउ० अणंतगुणं । एइंदिएसु सव्वमंदाणुभागं । हस्स० अणंतगुणं । रदि० अणंतगुणं । दुगुंछा० अणंतगुणं । भय० अणंतगुणं । सोग० अणंतगुणं । अरदि० अणंतगुणं । णउंस० अणंतगुणं । अण्णदरसंजलण० अणंतगुणं । वीरियंतराइय० अणंतगुणं । अणंताणुबंधि० अणंतगुणं । परिभोगतराय० अणंतगुणं । भोगंतराइय०* अणंतगुणं । लाहंतराइय० अणंतगुणं । दाणंतराइय० अणंतगुणं । मणपज्जवमति ज्ञानावरण अनन्तगुणा है। अचक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण अनन्तगुणे हैं। हास्य अनन्तगुणा है। रति अनन्तगुणी है। जुगुप्सा अनन्तगुणी है। भय अनन्तगुणा है। शोक अनन्तगुणा है। अरति अनन्तगुणी है। पुरुषवेद अनन्तगुणा है । स्त्रीवेद अनन्तगुणा है । अन्यतर संज्वलन कषाय अनन्तगुणी है । कार्मणशरीर अनन्तगुणा है । इस प्रकार अनन्तगुणितक्रमसे दानान्तराय तक ले जाना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानावरण अनन्तगुणा है। अन्यतर अप्रत्याख्यानावरण कषाय अनन्तगुणा है। अन्यतर प्रत्याख्यानावरण कषाय अनन्तगुणा है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण अनन्तगुणे हैं । प्रचला अनन्तगुणी है। निद्रा अनन्तगुणी है। सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तगुणा है। अन्यतर अनन्तानुबन्धी कषाय अनन्तगुणी है। मिथ्यात्व अनन्तगुणा है । औदारिकशरीर अनन्तगुणा है। कार्मणशरीर अनन्तगुणा है। देवगति अनन्तगुणी है। अयशकीर्ति अनन्तगुणी है । असातावेदनीय अनन्तगुणा है । उच्चगोत्र अनन्तगुणा है । यशकीति अनन्तगुणी है । यतावेदनीय अनन्तगुणा है । देवायु अनन्तगुणी है। एकेन्द्रियोंमें सबसे मंद अनुभागवाली..... प्रकृति है। हास्य अनन्तगुणा है। रति अनन्तगुणी है । जुगुप्सा अनन्तगुणा है। भय अनन्तगुणा है। शोक अनन्तगुणा है। अरति अनन्तगुणी है । नपुंसकवेद अनतगुणा है । अन्यन्तर संज्वलन कषाय अनन्तगुणी है । वीर्यान्तराय अनन्तगुणा है । अन्यतर अनन्तानुबन्धी कषाय अनन्तगुणी है। परिभोगान्तराय अनन्तगुणा है । भोगान्तराय अनन्तगुणा है। लाभान्तराय अनन्तगुणा है। दानान्तराय अनन्तगुणा है । * ताप्रती 'अणंताणुबंधी० सोग० (?) भोगंतराइय० ' इति पाठः । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ ) छक्खंडागमे संतकम्म णाणा० अणंतगणं । ओहिणाणा० ओहिदसणावरण अणंतगुणं । सुदणाणाव० अणंतगुणं । चक्खु अगंतगुणं । मदिआव० अणंत गुणं । अण्णदरअपच्चक्खाणकसाओ अणंतगुणो। अण्ण० पच्चक्खा*० अणंतगुणो । अण्ण० अणंताणुबंधि) अगंतगुणं । केवलणाण-केवलदंसणावरणाणं दुव्व तुल्लाणि अणंतगुणाणि । मिच्छत्तमणंतगुणं । पयला० अणंतगुणं । णिद्दा० अणंतगुणं । पयलापयला अणंतगुणं । णिद्दाणिद्दा० अणंतगुणं । थीणगिद्धि० अणंतगुणं । ओरालि० अणंतगणं । वेउव्विय० अणंतगुणं । तिरिक्खाउ० अगंतगुणं । आहार० अगंतगुणं । तेजा. अगंतगुणं । कम्मइय० अणंतगुणं । तिरिक्खग० अणंतगुणं । णीचागोद० अगंतगुणं । अजकित्ति० अणंतगुणं । असाद.अणंत गुणं । जसकित्ति० अणंतगुणं । साद० अणंतगुणं । एवमणुभागउदीरणा समत्ता। ___ पदेसउदीरणाए उक्कस्सओ. मूलपयडिदंडओ । तं जहा- उक्कस्सेण जं पदेसग्गमुदीरिज्जदि तमाउअम्मि थोवं । वेयणीए असंखेज्जगुणं । मोहणीए असंखेज्जगुणं । णाणावरण-दसणावरण-अंतराएसु तुल्लमसंखेज्जगुणं । णाम-गोदेसु तुल्लमसंखेज्जगुणं । एवमोघदंडओ समत्तो। णिरयगईए मणुसगई? (?) संकामिज्जदि तं थोवं । णामा-गोदेसु असंखेज्जगुणं । मन:पर्ययज्ञानावरण अनन्तगणा है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण अनन्तगुणे हैं श्रुतज्ञानावरण अनन्तगुणा है। चक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है । मतिज्ञानावरण अनन्तगुणा है । अन्यतर अप्रत्याख्यानावरण कषाय अनन्तगणी है। अन्यतर प्रत्याख्यानावरण कषाय अनन्तगुणी है । अन्यतर अनन्तानुबन्धी कषाय अनन्तगुगी है । केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण ये दोनों तुल्य व अनन्त गुणे हैं। मिथ्यात्व अनन्तगुणा है। प्रचला अनन्तगुणी है । निद्रा अनन्तगुणी है । प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी है। निद्रानिद्रा अनन्तगुणी है । स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणी है। औदारिकशरीर अनन्तगुणा है। वैक्रियिकशरीर अनन्तगुणा है । तिर्यगायु अनन्तगुणी है । आहारशरीर अनन्तगुणा है। तेजसशरीर अनन्तगुणा है। कार्मणशरीर अनन्तगुणा है। तिर्यग्गति अनन्तगुणी है। नीचगोत्र अनन्तगणा है। अयशकीर्ति अनन्तगुणी है। असातावेदनीय अनन्तगुणी है। यशकीति अनन्तगुणी है। सातावेदनीय अनन्तगुणी है । इस प्रकार अनुभागउदीरणा समाप्त हुई। प्रदेशउदीरणामें उत्कृष्ट मूलप्रकृतिदण्डक इस प्रकार है- उत्कृर्षसे जो प्रदेशाग्र उदीर्ण होता है वह आयु कर्म में सबसे स्तोक है । वेदनीयमें असंख्यातगुणा है। मोहनीयमें असंख्यातगुणा है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन प्रकृतियोंमें वह तुल्य व असंख्यातगुणा है। नाम और गोत्र में तुल्य व असंख्यातगुणा है । इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ। ___ नरकगतिमें जो प्रदेशाग्र आयुमें संक्रान्त होता है वह स्तोक है । नाम और गोत्रमें * ताप्रतौ ' अण्णदरो पच्चक्खाणकसाओ० अण्ण. अपच्चक्वाणक०' इति पाठः । ताप्रती 'एवं मंदाणुभागउदीरजा' इति पाठः। ४ ताप्रती 'उकस्सए' इति पाठः। . ताप्रती 'नास्तीदं Jain Educatio वाक्यम् । अ-काप्रत्योः ‘णिरयगई देवगई । इति पाठ: ! only . Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे पदेसोदओ ( ५५३ णाणावरण-दंसणावरण-अंतराइएसु विसेसाहियं । मोहणीए विसे० । वेदणीए विसे०१। एवं सव्वासु गदीसु । णवरि मणुसगदीए मूलोघभंगो । जहण्णए पयदं- आउअम्मि जं तं थोवं । णामा-गोदेसु देव-णेरइयाणं असंखेज्जगुणं । णाणावरण-दंसणावरण-अंतराइएसु विसेसाहियं । मोहणीए विसे० । एवं सव्वासु गदीषु । एवं णाणावरण-दसणावरण-पंचंतराइयं ति । (?) मणपज्जव० विसेसाहियं । सुद० विसे० । मदि० विसे । अचक्खु० विसे । चक्खु० विसे० । उच्चागोदे विसे । सादासादे विसे० । एवं देवगइदंडओ समत्तो । __ मणुसगदीए जं पदेसग्गं वेदिज्जदि मिच्छत्ते तं थोवं । सम्मामिच्छत्ते० असंखे० गुणं । समस्ते असंखे० गुणं । अण्णदरअणंताणुबंधिकसाए असंखे० गुणं । केवलणाणारणे* असंखे० गुणं । पयला० विसे० । णिद्दा० विसे । पयलापयला० विसे० । णिद्दाणिद्दा० विसे० । थोणगिद्धिए० विसे० । केवलदंसणाव० विसे०। अण्णदरअपच्चक्खाणकसाए विसे० । पच्चक्खाण. विमे० । ओहिणाणाव० अणंतगुणं+ । ओहिदंस० विसे० । मणुसाउअम्मि असंखे० गुणं । ओरालिय० असंखे० गुणं । तेज० विसे० ' असंख्यातगुणा है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायमें विशेष अधिक है। मोहनीयमें विशेष अधिक है। वेदनीयमें विशेष अधिक है। इस प्रकार सब गतियों में जानना चाहिये । विशेष इतना है कि उसकी प्ररूपणा मनुष्यगतिमें मूल ओघके समान है। जघन्य मूलप्रकृतिदण्डक अधिकारप्राप्त है- जो प्रदेशाग्र (वेदा जाता है) वह आयुमें स्तोक है। उससे नाम और गोत्र कर्मोंमें देवों व नारकियोंके असंख्यातगुणा है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायमें विशेष अधिक है। मोहनीयमें विशेष अधिक है। इसी प्रकार सब गतियों में जानना चाहिये। इस प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण और पांच अन्तराय तक (?) मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। उच्चगोत्रमें विशेष अधिक है। साता और असाता वेदनीय में विशेष अधिक है। इस प्रकार देवगतिदण्डक समाप्त हुआ। मनुष्यगतिमें जो प्रदेशाग्र वेदा जाता है वह मिथ्यात्वमें स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वम असंख्यातगुणा है। सम्यक्त्वमें असंख्यातगुणा है। अन्यतर अनन्तानुबन्धी कषायमें असख्यातगुणा है। केवलज्ञानावरणमें असंख्यातगणा है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक हैं। प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगद्धि में विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अन्यतर अप्रत्यार कषायमें विशेष अधिक है। अन्यतर प्रत्याख्यानावरण कषायमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें अनन्तगुणा है । अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। मनुष्यायुमें असंख्यातगुणा है। औदारिकशरीरमें असंख्यातगुणा है । तैजसशरीरमें विशेष अधिक है । 'केवलदसण.' ताप्रती 'मोहणीय वेयणीए. विसेसाहियं' इति पाठः। का-ताप्रत्योः इति पाठः। काप्रती ' असंखे० गुणा' इति पाठः । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४) छक्खंडागमे संतकम्म कम्मइय, विसे० । वेउम्विय. विसे० । मणुसगई० संखे० गुणं । जसकित्ति-अजस. कित्तीसु० दुगुंछा संखे० गुणं। भय० विसे । हस्स० विसे० । सोगे० विसे० । रदिअरदि० विसे । अण्णदरवेद० विसे० । दाणंतराइए विसे । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं (जाव) वीरियंतराइयं ति । मणपज्जव. विसे० । सुदणा. विसे० । मदि० विसे० । अचक्खु० विसे० । अण्णदरसंजलणकसाए विसे० । (उच्च) णीचागोदेसु० विसे० । सादासादे० विमे० । आहार० असंखे० । एवं मणुगइदंडओ समत्तो। एइंदिएस जं* पदेसग्गं वेदिज्जदि मिच्छत्ते तं थोवं । अण्णदरअणंताणुबंधिकसाए असंखे० गुणं। केवलणाणाव असंखेज्जगुणं । पयला विसेसाहियं । णिद्दा०विसेसाहियं। पयलापयला० विसे० । णिद्दाणिद्दा० विसे० । थीणगिद्धि० विसे० । केवलदसण० विसे०। अण्णदरअपच्चक्खाणकसाए विसे०। अण्ण०पच्चक्खा०विसे०। तिरिक्खाउअम्मि अणंतगुणं । ओरालिय०संखेज्जगुणं। तेज.विसेसाहियं । कम्मइय०विसे० । वेउव्विय० विसे०। तिरिक्खगई० संखेज्जगुणं । जसकित्ति-अजसकित्तीसु विसे०। दुगुंछाए संखे० गुणं । भए० विसे० । हस्स-सोगे विसे० । णिद्दा० विसे० । रदि-अरदीसु विसे० । रति आर अरातम कार्मणशरीर में विशेष अधिक है। वक्रियिकशरीरमें विशेष अधिक है। मनुष्यगतिमें संख्यातगणा है। यशकीतिमें और अयशकीर्तिमें । संख्यातगणा । है। जगप्सामें संख्यात । भयमें विशेष अधिक है। हास्यमें विशेष अधिक है। शोकमें विशेष अधिक है। र अरतिमें विशेष अधिक है। अन्यतर वेदमें विशेष अधिक है। दानान्तराय में विशेष अधिक है। इस प्रकार वीर्यान्तराय तक विशेष अधिक क्रमसे ले जाना चाहिये । आगे मन:पर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है। अन्यतर संज्वलन कषाय में विशेष अधिक है। ऊंच और नीच गोत्रमें विशेष अधिक है । साता और असाता वेदनीयमें विशेष अधिक है। आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है। इस प्रकार मनुष्यगतिदण्डक समाप्त हुआ। एकेन्द्रिय जीवोंमें जो प्रदेशाग्र वेदा जाता है वह मिथ्यात्व में स्तोक है। अन्यतर अनन्तानुबन्धी कषायमें असंख्यातगुणा है। केवलज्ञानावरण में असंख्यातगुणा है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरण में विशेष अधिक है। अन्यतर अप्रत्याख्यानावरण कषायमें विशेष अधिक है। अन्यतर प्रत्याख्यानावरण कषायमें विशेष अधिक है। । तिर्यगायुमें अनन्तगुणा है। औदारिकशरीरमें संख्यातगुणा है। तेजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीरमें विशेष अधिक है। तिर्यग्गतिमें संख्यातगुणा है। यशकीर्ति और अयशकीतिमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामे संख्यातगुणा है। भयमें विशेष अधिक हैं। हास्य और शोकमें विशेष अधिक है। निद्रामें काप्रती 'जसगितिअजसकित्तसु० दुगुंछ.', ताप्रतौ 'जसकित्ति० अजसकित्तीसु, दुगुंछा. ' __ इति पार:। * अ-काप्रत्योः 'जं इत्येतत्पदं नास्ति । . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५५ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे संकमप्पाबहुअं णस० विसे० । दाणंतराइए विसे० । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति । मणपज्जव० विसे । ओहिणा० विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे। ओहिदंस० विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे० । अण्णदरसंजलणकसाए विसे० । णीचागोदे० विसे० । सादासादे विसे० । एवमेइंदियदंडओ समत्तो। एवमुदओ समत्तो। जा विपरिणामेणोप कमेण मग्गणा सा चेव मोक्खाणुयोगद्दारे कायव्वा। उत्तरपयडिसंकमे आहार० संकामया थोवा । सम्मत्ते० असंखे० गुणा । मिच्छत्ते असंखे० गुणा। सम्मामिच्छत्ते० विसेसा० । देवगदीए० असंखे० गुणा । णिरयगदीए० विसे० । वेउब्विय विसे० । णीचागोदस्स अणंतगुणं । असाद० संखे० गुणं । सादस्स० संखे० गुणं । उच्चागोदस्स० विसे० । मणुसगदीए० विमे० । अणंताणुबंधिचउक्कस्स० विसे । जसकित्तीए विसे० । अटकसायाणं विसे० । थीणगिद्धितियस्स० तिरिक्खगदीए० विसे० । लोहसंजलणाए विसे० । णवंस० विसे० । इत्थि विसे० । छण्णोकसायाणं विसे० । पुरिसवेद० विसे० । कोहसंजलण० विसे० । विशेष अधिक है। रति और अरति में विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। दानान्तराय में विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेष अधिक क्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानावरण में विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणम विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षदर्शनावरण में विशेष अधिक है । अन्यतर संज्वलन कषायमें विशेष अधिक है। नीचगोत्र में विशेष अधिक है। साता और असाता वेदनीयमें विशेष अधिक है। इस प्रकार एकेन्द्रियदण्डक समाप्त हुआ। इस प्रकार उदय समाप्त हुआ। जो विपरिणामोपक्रमसे मार्गणा है वह मोक्षअनुयोगद्वारमें की जावेगी। उत्तर प्रकृतिसंक्रममें आहारशरीरके संक्रामक स्तोक है। सम्यक्त्व प्रकृतिके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। मिथ्यात्वके संक्रामक असंख्यातगुणे है। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामक विशेष अधिक हैं। देवगतिके संक्रामक असंख्यातगुणे है। नरकगतिके संक्रामक विशेष अधिक हैं। वैक्रियिकशरीरके संक्रामक विशेष अधिक हैं। नीचगोत्रके संक्रामक अनन्तगुणे हैं। असातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगुणे हैं। सातावेदनीयके संक्रामक सख्यातगुणे हैं। उच्चगोत्रके संक्रामक विशेष अधिक हैं। मनुष्यगतिके संक्रामक विशेष अधिक हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके संक्रामक विशेष अधिक हैं। यशकीर्ति के संक्रामक विशेष अधिक हैं। आठ कषायोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं। स्त्यानगृद्धित्रिकके संक्रामक (?)। तिर्यग्गतिके संक्रामक विशेष अधिक हैं। संज्वलन लोभके संक्रामक विशेष अधिक है। नपुंसकवेदके संक्रामक विशेष अधिक हैं। स्त्रीवेदके संक्रामक विशेष अधिक हैं। छह नोकषायोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं। पुरुषवेदके ताप्रती 'विपरिणामणोपक्कमेण' इति पाठः। अ-का-ताप्रतिष 'गम्मणा', मप्रती 'कम्पण' इति पाठः । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे संतकम्म माण० विसे०। माया० विसे० । पंचणाणावरण-छदसणावरण-पंचंतराइय-ओरालियतेजा-कम्मइय-अजसकित्तीणं विसेसाहियं । एवमोघदंडओ समत्तो। मोहणीयस्स पयडिहाणसंकमेण णवण्हं संकमया थोवा । छण्णं संकामया विसेसाहिया । चोद्दसण्णं संखेज्जगुणं । पंचण्हं संखे० गुणं । अढण्हं विसेसाहियं । अट्ठारसण्हं विसे । उणवीसण्णं विसेसाहियं । चदुहं संखे० गुणं । सत्तण्हं विसे० । वीसण्हं विसे० । एक्किस्से संखे० गुणं । दोण्हं विसे० । दसण्हं विसे० । एक्कारसण्हं विसे । बारसण्हं विसे । तिण्हं संखे० गुणं । तेरसण्हं संखेज्जगुणं । बावीसण्हं संखेज्जगुणं । छन्वीसण्हं असंखे० गुणं । एक्कवीसण्हं असंखे० गुणं । तेवीसण्हं असंखे० गुणं । सत्तवीसहं असंखे० गुणं । पणुवीसण्हें अणंतगुणं । एवमोघदंडो समत्तो । उक्कस्सदिदिसंकमो सुगमो। जहण्णढिदिसंकमे पयदं-पंचणाणावरण-चउर्दसणावरणसम्मत्त-लोहसंजलण-आउचउक्क-पंचंतराइयाणं जाओ द्विदीओ संकामिज्जदि ताओ थोवाओ। णिहा-पयलाणं तत्तिओ चेवा जट्टिदी* असंखेज्जी।णिद्दा-पयलाणं जट्ठिदी संक्रामक विशेष अधिक हैं। संज्वलन क्रोधके संक्रामक विशेष अधिक है। संज्वलन मानके संक्रामक विशष अधिक है। संज्वलन मायाके संक्रामक विशेष अधिक हैं। पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, पांच अन्तराय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर और अयशकीर्तिके संक्रामक विशेष अधिक है। इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ। प्रकृतिस्थानसंक्रमकी अपेक्षा मोहनीयको नौ प्रकृतियोंके संक्रामक स्तोक हैं। उसकी छह प्रकृतियोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं। चौदह प्रकृतियोंके संक्रामक संख्यातगुणे हैं । पांच प्रकृतियों के संक्रामक संख्यातगणे हैं। आठ प्रकृतियोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं। अठारह प्रकृतियों के संक्रामक विशेष अधिक हैं। उन्नीस प्रकृतियोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं । चार प्रकृतियोंके संक्रामक संख्यातगुणे हैं। सात प्रकृतियोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं। बीस प्रकृतियोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं। एकके संक्रामक संख्यातगुणे हैं। दोके संक्रामक विशेष अधिक हैं। दसके संक्रामक विशेष अधिक हैं। ग्यारहके संक्रामक विशेष अधिक है। बारहके संक्रामक विशेष अधिक हैं। तीनके संक्रामक संख्यातगुणे हैं । तेरहके संक्रामक संख्यातगुणे हैं । बाईसके संक्रामक संख्यातगुणे हैं। छब्बीसके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। इक्कीसके संक्रामक असंख्यागुणे हैं। तेईसके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। सत्ताईसके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। पच्चीसके संक्रामक अनन्तगुणे हैं। इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ। उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम सुगम है । जघन्य स्थितिसंक्रम अधिकार प्राप्त है- पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सम्यक्त्व, संज्वलन लोभ, चार आयु कर्म और पांच अन्तराय; इनकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे स्तोक हैं। निद्रा और प्रचलाकी उतनी मात्र ही हैं। उनकी जस्थिति ४ अ-काप्रत्योः 'ऊण वीसयं ' इति पाठः। * मरति गठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'जंद्विदी' इति पाठः । अग्रेऽप्ययमेव पाठक्रमः । ताप्रती 'संखेज्ज' इति पाठः । . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा बहुअणुयोगद्दारं संक्रमप्पा बहुअं ( ५५७ संखेज्जगुणं । देवगड-वेउब्विय- आहार णीचागोद- अजसकित्तीणं जाओ द्विदीओ ताओ संखे० गुणाओ । ओरालिय-तेजा- -कम्मइय- उच्चागोद- जसकित्ति मणुसगदीणं जाओ द्विदीओ ताओ विसेसाहियाओ। सव्वासि जद्विदीओ विसे० । सादासादाणं जह० विसे० ० । जट्ठिदी० विसे० । मायासंजलणाए जह० संखे० गुणं । जट्ठिदि० विसे० 1 माणसं जलाए जह० विसे० । जट्ठिदि० विसे० । कोहसंजलणाए जह० विसे० । जट्ठिदि विसे० । पुरिस० जह० संखे गुणं । जट्ठिदि विसे० । इत्थि णवंसयवेदाणं जह० असंखे० गुणं । श्रोणगिद्धितियस्स जह० असंखे० गुणं । जट्ठिदि० विसे० । रियगइ - तिरिक्खगइणामाणं जह० असं० गुणं । जट्ठिदि० विसे । अट्टहं कसायाणं जह० असं गुणं । जट्ठदि० विमे० । सम्मामिच्छत्तस्स जह० संखे० । जट्ठिदि० विसे० । मिच्छत्त० ० जह० असंखे० । जट्ठिदि० विसे० । अणंताणुबंधिचउक्कस्स जह० असंखे ० गुणं । द्विदि० विसे० । एवमोघदंडओ समत्तो । O t जहणेण सव्वमंदाणुभागं लोहसंजलणं । मायासंज० अनंतगुणं । माणसंज० अनंतगुणं । कोहमंज० अनंतगुणं । सम्मत्त० अनंतगुणं । पुरिस० अनंतगुणं । सम्मामिच्छत्त० अनंतगुणं । मणपज्जव० अनंतगुणं । दाणंतराइय० अनंतगुणं । असंख्यातगुणी है । निद्रा और प्रचल की जस्थिति संख्यातगुणी है । देवगति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, नीचगोत्र और अयशकीर्ति; इनकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे संख्यातगुणी हैं । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर उच्चगोत्र, यशकीर्ति और मनुष्यगतिकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे विशेष अधिक हैं । इन सबकी जस्थितियां विशेष अधिक हैं । साता और असातावेदनीयकी जो जघन्य स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे विशेष अधिक हैं । जस्थिति विशेष अधिक है । संज्वलन मायाकी उक्त जघन्य स्थितियां संख्यातगुणी हैं । जस्थिति विशेष अधिक है । संज्वलन मानकी वे जघन्य स्थितियां विशेष अधिक हैं । 'जस्थिति विशेष अधिक है । संज्वलन क्रोत्रकी वे जघन्य स्थितियां विशेष अधिक हैं । जस्थिति विशेष अधिक है । पुरुषवेदकी वे जघन्य स्थितियां संख्यातगुणी हैं । जस्थिति विशेष अधिक है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी वे जघन्य स्थितियां असंख्यातगुणी हैं । स्त्यानगृद्धित्रयकी जघन्य स्थितियां असंख्यातगुणी हैं। जस्थिति विशेष अधिक है। नरकगति और तिर्यग्गति नामकर्मोंकी वे जघन्य स्थितियां असंख्यातगुणी हैं । जस्थिति विशेष अधिक है। आठ कषायोंकी वे जघन्य स्थितियां असंख्यातगुणी है । जस्थिति विशेष अधिक है । सम्यग्मिथ्यात्वकी वे जघन्य स्थितियां संख्यातगुणा हैं । जस्थिति विशेष अधिक है । मिथ्यात्वकी वे जघन्य स्थितियां असंख्यातगुणी हैं । जस्थिति विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी वे जघन्य स्थितियां असंख्यातगुणी हैं । जस्थिति विशेष अधिक है। इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ । जघन्यकी अपेक्षा सबसे मंद अनुभागवाला संज्वलन लोभ है । संज्वलन माया अनतगुणी है संज्वलन मान अनन्तगुणा है । संज्वलन क्रोध अनन्तगुणा है । सम्यक्त्व अनन्तगुणा है । पुरुषवेद अनन्तगुणा है । सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तगुणा है । मन:पर्ययज्ञानावरण अनन्तगुणा है । अ-ताप्रत्योः 'विसेसाहिओ ' इति पाठः । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८) 'छक्खंडागमे संतकम्म ओहिणाण० अणंतगुणं । ओहिदंस० अणंतगुणं । लाहंतराइयाणं अणंतगुणं । सुद० अचक्खु० भोगंतराइयाणं अणंतगुणं । चक्खु० अणंतगुणं । मदिआवरण-परिभोगंतराइयाणं अणंतगुणं । केवलणाण-केवलदसणावरण-वीरियंतराइयाणं अणंतगुणं । पयला० अणंतगुणं । णिद्दा० अणंतगुणं । हस्स० अणंतगुणं । रदि० अणंतगुणं । दुगुंछ० अणंतगुणं । भय० अणंतगुणं । सोग० अणंतगुणं । अरदीए अणंतगुणं । इत्थि० अणंतगुणं । णवूस० अणंतगणं । अणंताणुबंधिमाणे० अणंतगुणं । कोहे. विसेसाहियं । मायाए विसे० । लोहे विसे० । वेउव्विय० अणंतगुणं । तिरिक्खाउ अम्मि अणंतगुणं । मणुसाउ० अणंतगुणं । णिरयगइ० अणंतगुणं । मणुसगइ० अणंतगुणं । देवगइ० अणंतगुणं । उच्चागोद० अणंतगुणं । णिरयाउ० अणंतगुणं । देवाउ० अणंतगुणं। ओरालिय० अणंतगुणं । तेजइय० अणंतगुणं । कम्मइय अणंतगुणं । तिरिक्खगइ० अणंतगुणं । णीचागोद० अजसकित्तीओ अणंतगुणं । पयलापयला० अणंतगुणं । णिद्दाणिद्दा. अणंतगुणं । थोणगिद्धि ० अणंतगुणं । अपच्चक्खाणमाणे अणंतगुणं । कोहे विसेसाहियं । मायाए विसे०। लोहे विसे०। पच्चक्खाणमाणे अणंतगुणं । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । असाद० अणंतगुणं । दानान्तराय अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरण अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरण अनन्तगुणा है । लाभान्तराय अनन्तगुणा है । श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्त राय अनन्तगुणे हैं। चक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है। मतिज्ञानावरण और परिभोगान्त राय अनन्तगुणे हैं । केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और वीर्यान्तराय अनन्त गुणे हैं। प्रचला अनन्तगुणी है । निद्रा अनन्तगुणी है। हास्य अनन्तगुणा है। रति अनन्तगुणी है। जुगुप्सा अनन्तगुणी है । भय अनन्तगुणा है । शोक अनन्तगुणा है। अरति अनन्तगुणी है। स्त्रीवेद अनन्तगुणा है । नपुंसकवेद अनन्तगुणा है। अनन्तानुबन्धी मान अनन्तगुणा है। अनन्तानुबन्धी क्रोध विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी माया विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी लोभ विशेष अधिक है । वैक्रियिकशरीर अनन्तगुणा है । तिर्यगायु अनन्तगुणी है। मनुष्यायु अनन्तगुणी है। नरकगति अनन्तगुणी है। मनुष्यगति अनन्तगुणी है । देवगति अनन्तगुणी है । उच्चगोत्र अनन्तगुणा है । नारकायु अनन्तगुणी है। देवायु अनन्तगुणी है। औदारिकशरीर अनन्तगुणा है। तेजसशरीर अनन्तगुणा है। कार्मणशरीर अनन्तगुणा है। तिर्यग्गति अनन्तगुणी है। नीचगोत्र और अयशकीति अनन्तगुणे हैं। प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी है। निद्रानिद्रा अनन्तगुणी है। स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणी है। अप्रत्याख्यानावरण मान अनन्तगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण माया विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण लोभ विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मान अनन्तगुणा है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण माया विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण लोभ विशेष अधिक SB ताप्रती 'माणसंजलणं० कोहसंजलणं० सम्मत्त पुरिस० सम्मामिच्छत्त० मणपज्जव० दाणतराइय० ओहिणाण० ओहिदसण० लाहंतराइयाणं अणंतगणं । ' इति पाठः । . Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे संकमप्पाबहुअं ( ५५९ मिच्छत्ते० अणंतगुणं । जस० अणंतगुणं । साद० अणंतगुणं । आहार० अणंतगुणं । एवमोघदंडओ समत्तो। जहण्णढिदिसंकमे उक्कस्से वा जं पदेसग्गं सम्मत्त संकामिज्जदि तं थोवं । केवलणाणावरणे असंखेज्जगुणं । केवलदंसगावरणे विसेसाहियं । पयला० असंखे० गुणा । णिद्दा० विसे० । अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणं । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । *मिच्छत्ते विसे०। सम्मामिच्छत्ते विसे०। पयलापयला० संखे० गुणं । णिद्दाणिद्दा० विसे० । थोणगिद्धि० विसे० । आहार० अणंतगुणं । जसकित्ति०असंखे०। गुणं। वेउध्विय० संखे० गुणं। ओरालिय० विसे । तेज. विसे० । कम्मइय विसे० । देवगइ० संखे० गुणं। मणुसगइ० विसे० । साद० संखे० गुणं । लोभसंजलण० संखे० गुणं । दाणंतराइय० विसे । एवं विसेसाहियं ताव णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति । मणपज्जव० विसे० । ओहिणाण. विसे० । सुद० विसे० । मदि० विमे० । है। असातावेदनीय अनन्त गुणा है। मिथ्यात्व अनन्तगुणा है। यशकीर्ति अनन्तगुणी है । सातावेदनीय अनन्तगुणा है। आहारशरीर अनन्तगुणा है। इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ। जघन्य स्थितिसंक्रम अथवा उत्कृष्ट स्थितिसंक्रममें जो प्रदेशाग्र सम्यक्त्व प्रकृति में संक्रान्त कराया जाता है वह स्तोक है। केवलज्ञानावरण में असंख्यातगुणा है। केवलदर्शनावरणम विशेष अधिक है। प्रचलामें असंख्यातगणा है। निद्रामें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें विशेष अधिक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें संख्यातगुणा है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। आहारशरीरमें अनन्तगुणा है । यशकीतिमें असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरम संख्यातगुणा है । औदारिकशरीरमें विशेष अधिक है । तैजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। देवगतिमें संख्यात गुणा है। मनुष्यगतिम विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। संज्वलन लोभमें असंख्यातगुणा है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। इस प्रकार वीर्यान्तराय तक विशेष अधिक क्रमसे ले जाना चाहिये। आगे मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शना ४अ-काप्रत्यो: 'सम्मत्तं ' इति पाठः। * अप्रतावतः प्राक ' अपच्चक्वाणमाणे विसे०, कोहे विसे०, मायाए विसे०, लोहे विसे०' इत्याधिक: पाठोऽस्ति, ताप्रतावपि सः । ) कोष्ठकान्तर्गतोऽस्ति । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ) छक्खंडागमे संतकम्म ओहिदसण. विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे । उच्चागोद० संखेज्जगुणं । णिरयगइ० असंखे० गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । असादे० संखे० गुणं । णीचागोदे० विसे० । तिरिक्खगदीए० असंखे० गुणं । हस्से० संखे० गुणं । रदीए० विसेसाहियं । इत्थि संखे । सोगे० विसे० । अरदि० विसे० । णवूस० विसे० । दुगुंछ० विसे । भय० विसे० । पुरिस० संखे० गुणं । कोह० संखे० गुणं । लोह, संखे० गुणं । माण० विसे०। माय० विसेसाहियं । एवमोघदंडओ समत्तो। णिरयगदीए जं पदेसग्गं संकामिज्जदि सम्मत्ते तं थोवं। सम्मामिच्छत्ते० असंखे० गुणं। अपच्चक्खाणमाणे० असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे० । केवलणाणा विसे०। पयला०विसे । णिद्दा० विसे०। पयलापयला० विसे० । णिहाणिद्धा० विसे० । थोणगिद्धि० विसे० । केवलदंस० विसे० । मिच्छत्ते० असंखे० गुणं । अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए० विमे० । लोहे. विसे० । णिरयगदीए. अणंतगुणं । वेउव्विय० असंखे० गुणं । देवगइ० संखे० गुणं । वरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है । नरकगतिमें असंख्यातगुणा है । यशकीति में असंख्यातगुणा है । असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। नीचगोत्र में विशेष अधिक है। तिर्यग्गतिमें असंख्यातगुणा है । हास्यमें संख्यातगुणा है । रति में विशेष अधिक है। स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है। शोकमें विशेष अधिक है। अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेद में विशेष अधिक है । जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। पुरुषवेदमें संख्यातगुणा है । क्रोध में संख्यातगुणा है। लोभमें संख्यातगुणा है। मान में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ। ____ नरकगति में जो प्रदेशाग्र सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रांत होता है वह स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वमें उससे असंख्यातगणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगणा है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण माया में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्य वरण लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मान में विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रामें विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरण में विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी लोभमें विशेष अधिक है। नरकगतिम अनन्तगुणा है। वैक्रियिकशरीरमें असंख्यातगुणा है। देवगतिमें संख्यातगुणा है। आहार JainEducation International का-मप्रतिपाठोऽयम्। अ-ताप्रत्यो: 'विसे०'इति पाठः । .. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे संकमप्याबहुअं आहार० असंखे० गुणं । ओरालिय० संखे० गुणं । तेज. विसेसाहियं । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति० संखेज्जगुणं । तिरिक्खगई० विसे० । मणुसगई० विसे० । हस्से० संखे० गुणं । रदि० विसे० । साद संखे० गुणं । इत्थि० संखे० गुणं । सोग० विसे० । अरदि० विसे० । णवूस० विसे० । दुगुंछ० विसे । भय० विसे० । पुरिस० विसे० । माणसंजलण विसे० । कोह० विसे । मायाए. विसे० । लोह० विसे । दाणंतराइय० विसे । एवं विसेसाहियकमेण दध्वं जाव विरियंतराइयं ति। मणपज्ज० विसे० । ओहिणाण. विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे० । ओहिदसण. विसे । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे० । असाद० संखे० गुणं । उच्चागोद० विसे० । णीचागोद० विसे० । एवं गिरयगइदंडओ समत्तो। एवं देवगदीए वि० । तिरिक्खगदीए विसेसोर उक्कस्सेण जं पदेसग्गं संकामिज्जदि सम्मत्ते तं थोवं । सम्मामिच्छत्ते० संखे० गुणं । अपच्चक्खाणमाणे० असंखे० गणं । कोहे० विसे० । मायाए० विसे । लोहे. विसे० । पच्चक्खाणमाणे० विसे० । कोहे० विसे०। मायाए० विसे०। लोहे० विसे०। केवलणाण० विसे । पयला० विसे०। शरीरमें असंख्यातगुणा है। औदारिकशरीरमें संख्यातगुणा है । तैजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीतिमें संख्यातगुणा है। तिर्यग्गति में विशेष अधिक है। मनुष्यगतिमें विशेष अधिक है। हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है। शोकमें विशेष अधिक है। अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। पुरुषवेदमें विशेष अधिक है। संज्वलन मानमे विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है । दानान्तरायमें विशेष अधिक है । इस प्रकार वीर्यान्त राय तक विशेषाधिकक्रमसे ले जाना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । उच्चगोत्रमें विशेष अधिक है। नीचगोत्रमें विशेष अधिक है । इस प्रकार नरकगतिदण्डक समाप्त हुआ। इसी प्रकार प्रकृत प्ररूपणा देवगति में भी करना चाहिये । तिर्यग्गतिमें विशेषता है - उत्कर्षसे जो प्रदेशाग्र सम्यक्त्वमें संक्रांत होता है वह स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें संख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगणा है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष NR काप्रती ' वि ' इति पाठः । अ-ताप्रत्योः 'वि' इति पाठः । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२) छक्खंडागमे संतकम्म णिद्दा० विसे० । पयलापयला० विसे० । णिहाणिद्दा० विसे० । थोणगिद्धि ० विसे । केवलदसणा० विसे० । मिच्छत्ते० असंखे० गुगं । अणंताणुबंधिमाणे० असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे० । णिरयगइ० अणंतगुणं । आहार० असंखे गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । वेउव्विय० संखे० गुणं । ओरालिय० विसे० । तेज. विसे० । कम्मइय० विसे० । अजस कित्तिः संखे० गुणं । देवगइ० विसे० । तिरिक्खगइ० विसे० । मणुसगइ० विसे० । हस्स० संखे० गुणं । रदि० विसे० । साद० संखे० गुणं । णवंसयवेद० संखे० गुणं । सोगे० विसे० । अरदि० विसे० । णवंस. (?) विसे० । दुगुंछ० विसे । भय० विसे० । पुरिस० विसे० । माणसंजलण. विसे०। कोह० विसे । माया० विसे०। लोह. विसे । दाणंतराइय० विसे०। लाहंतराइय० विसे०। एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति । मणपज्ज० विसे० । ओहिणाण. विसे०। सुद० विसे । मदि० विसे० । ओहिदसण० विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे० । साद० संखे० गुणं । उच्चागोदे० विसे० । णीचागोद० विसे० । एवं तिरिक्खगइदंडओ समत्तो। मणुसेसु ओघ अधिक है । प्रचलामें, विशेष अधिक है। निद्रा में विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी लोभमें विशेष अधिक है। नरकगतिमें अनन्तगुणा है। आहारशरीरमें असंख्यातगुणा है। यशकीर्तिमें असंख्यातगुणा है। वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। औदारिकशरीर में विशेष अधिक है। तेजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है । अयशकीतिमें संख्यातगुणा है। देवगतिमें विशेष अधिक है। तिर्यग्गतिमं विशेष अधिक है । मनुष्यगतिमें विशेष अधिक है। हास्यमें संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । नपुंसकवेदमें संख्यातगुणा है। शोकमें विशेष अधिक है। अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयम विशेष अधिक है । पुरुषवेद में विशेष अधिक है । संज्वलन मायामें विशेष अधिक है । संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक है। संज्वलन मान में विशेष अधिक है। संज्वलनलोभमें विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। लाभान्त रायमें विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेषाधिक क्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये। मन:पर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरण में विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। उच्चगोत्र में विशेष अधिक है। नीचगोत्रमें विशेष अधिक है । इस प्रकार तिर्यग्गतिदण्डक समाप्त हुआ। मनुष्यों में ___Jain Education in ताप्रती 'गवंसय ( इत्थि ) वेद-' इति पाठः !hal Use Only . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे अणुभागमंतकम्मं (५६३ दंडओ समत्तो (?) ___एइंदिएसु उक्कस्सेण जं पदेसग्गं संकामिज्जदि समस्ते तं थोवं । सम्मामिछत्ते० असंखे० गुणं । अपच्चक्खाणमाणे० असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए. विसे० । लोहे० विमे० । पच्चक्खाणमाणे * विसे० कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे० । केवलणाण. विसे० । पयला० विसे० । णिद्दा० विसे० । पयलापयला० विसे० । णिहाणिद्दा० विसे० । थोणगिद्धि० विसे० । केवलदंस० विसे । णिरयगइ० अणंतगुणं । आहार. असंखे० । जसकित्ति० असंखे० गुणं । वेउव्विय० संखे० गुणं । ओरालिय० विसे० । तेज० विसे० । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति० संखे० गुणं । देवगइ० विसे० । तिरिक्खगइ० विसे । मणुसगइ० विसे । हस्स-भये. संखे० गुणं । रदि० विसे० । साद० संखे० गुणं । इत्थि० संखे० गुणं । सोगे० विसे० । अरदि० विसे० । णवूस० विसे० दुगुंछ० विसे० । भय० विसे० । माणसंजलण विसे० । कोहे० विसे० । मायाए. विसे० । लोहे. विसे । दाणंतराइय० विसे० । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति । मणपज्जव० विसे० । ओहिणाण. विसे० । सुद० ओघदण्डकके समान प्ररूपणा है। एकेन्द्रिय जीवों में उत्कर्षसे जो प्रदेशाग्र सम्यक्त्व प्रकृति में संक्रान्त होता है वह स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्व में असंख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण माया में विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरण में विशेष अधिक है । प्रचलाम विशेष अधिक है । निद्रामें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रानिद्राम विशेष अधिक है स्त्यानगद्धिमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। नरकतिम अनन्तगुणा है । आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है । यशकीर्तिमें संख्यातगुणा है। वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। औदारिकशरीर में विशेष अधिक है। तेजसशरीरमें विशेष अधिक है । कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीति में संख्यातगुणा है। देवगतिमें विशेष अधिक है । तिर्यग्गतिमें विशेष अधिक है । मनुष्यगतिमें विशेष अधिक है। हास्य और भयमें संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है । शोकमें विशेष अधिक है । अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है । भयमें विशेष अधिक है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है । संज्वलन क्रोध में विशेष अधिक है । संज्वलन माया में विशेष अधिक है । संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है । दानान्तरायमें विशेष अधिक है। इस प्रकार वीर्यान्तराय तक विशेष अधिक क्रमसे ले जाना चाहिये । आगे मानपर्ययज्ञानावरणमे विशेष अधिक है। अवधि * ताप्रती 'संजलणमाणे ( पच्चक्खागमागे इनि पाठः । अतोऽग्रे अ-काप्रत्यो: 'संजलमाणे० विसे कोहे. विसेमामाए० विसे० लोहे. विसे० ' इत्येतावनाधिकः पाठोऽस्ति।४ काप्रती 'हस्से. भय०', ताप्रती 'हस्से (भय०)' इति पाठः ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ ) छक्खंडागमे संतकम्म विसे । मदि० विसे०। ओहिदसण० विसे०अचक्ख०विसे०। चक्खु० विसे०। असाद० संखे० गुणं। उच्चागोदे० विसे० । णीचागोदे० विसे । एवमेइंदियदंडओसमत्तो। जहण्णेण जं पदेसग्गं संकामिज्जदि सम्मत्ते तं थोवं। सम्मामिच्छत्ते० असंखे० गुणं' मिच्छत्ते० असंखे० गुणं । अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणं । कोहे. विसे० । मायाए । विसे० । लोहे विसे०। पयलापयला० असंखे०गुणं । णिहाणिद्धा०विसे । थीणगिद्धी० विसे० । अपच्चक्खाणमाणे० असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे. विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोहे० विसे० । मायाए. विसे० । (लोहे० विसे० ) । पयला. विसे० । णिद्दा. विसे० । केवलदसण विसे० । णिरयगइ० अणंतगुणं । देवगइ० असंखे० गुणं । वेउन्विय० संखे० गुणं । आहार० असंखे० गुणं । मणुसगइ० संखे० गुणं । उच्चागोद० संखे० गुणं । तिरिक्खगइ० असंखे० गुणं । णवंस० असंखे० गुणं । णीचागोद० संखे० गुणं । इत्थि असंखे० गुणं । ओरालिय० असंखे० गुणं । कोहसंजल असंखे० । माण. विसे० । पुरिस० विसे० । माय० विसे० । जसकित्ति० असंखे० गुणं । तेज० संखे० गुणं । कम्मइय: विसे० । ज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रमें विशेष अधिक है। नीचगोत्र में विशेष अधिक है। इस प्रकार एकेन्द्रियदण्डक समाप्त हुआ। जघन्य रूपसे जो प्रदेशाग्र सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रान्त होता है वह स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। मिथ्यात्व में असंख्यातगणा है। अनन्तानुबन्धी मानम असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष अधिक है अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी लोभमें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। ( प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है ।। प्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रामें विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरण में विशेष अधिक है। नरकगति में अनन्तगुणा है । देवगतिमें असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है । आहारशरीरमें असंख्यातगुणा है। मनुष्यगतिमें संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है । तिर्यग्गतिमें असंख्यातगुणा है । नपुंसकवेदमें असंख्यातगुण। है । नीचगोत्रमें संख्यातगुणा है । स्त्रीवेदमें असंख्यातगुणा है। औदारिकशरीरमें असंख्यातगुणा है । संज्वलन क्रोधमें असंख्यातगुणा है । संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। पुरुषवेदमें विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। यशकीति में असंख्यातगुणा है । तैजसशरीरमें संख्यातगुणा है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। Jain Education Internationas For Private Personal Use Only . Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे संकमप्पाबहुअं अजसकित्ति० संखे० गुणं । हस्स० संखे० गुणं । रदि० विसे० । साद० संखे० गुणं । सोगे० असंखे० । अरदि० विसे० । दुगंछा० विसे० । भय० विसे० । लोहसंजल विमे० । दाणंतराइय० विसे० । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति मणपज्जव० विसे०। ओहिणाण. विसे० । सुद० विसे । मदि. विसे ओहिदसण विसे०। अचक्खु० विसे०। चक्खु० विसे० । असादे० संखेज्जगुणं । एवमोघदंडओ समत्तो । णिरयगदीए जं पदेसग्गं संकामिज्जदि सम्मत्ते तं थोवं । सम्मामिच्छत्ते० असंखे० गुणं । मिच्छत्ते० असंखे० गुणं । अणंताणुबंधिमाणे० असंखे० गुणं । कोहे. विसे० । मायाए० दिसे० । लोहे० विसे० । पयलापयला० असंखे० गुणं । णिहाणिद्दा० विसे । थीणगिद्धि० विसे० । अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० केवलणाण. विसे० । पयला. विसे० । णिद्दा० विसे० । केवलदसण. विसे० । आहार० असंखे० गुणं । देवगइ० असंखे० गुणं । मणुसगइ० संखे० गुणं । वेउध्विय० संखे० गुणं । णिरयगइ० संखे० गुणं । अयशकीति में संख्यातगुणा है । हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें संख्यतगुणा है। शोकमें असंख्यातगुणा है। अरतिमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है । भयमें विशेष अधिक है । संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है । दानान्तरायमें विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेषाधिकक्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये । मन:पर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ। नरकगति में जो प्रदेशाग्र सम्यक्त्वमें संक्रान्त होता है वह स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्व में असंख्यातगुणा है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी माया में विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी लोभ में विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें असंख्यात गुणा है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। आहारशरीरमें असंख्यातगुणा है। देवगतिमें असंख्यातगुणा है। मनुष्यगतिमें संख्यातगुणा है। वैक्रियिकशरीरमें असंख्यातगुणा है । नरकगतिमें संख्यातगुणा है । उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है। ताप्रतौ 'अणंतगणा' इति पाठः । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ) छक्खंडागमे संतकम्म उच्चागोद० संखे० गुणं । तिरिक्खगइ० असंखे० गुणं । इत्थि संखे० गुणं । णस० संखे० गुणं । णीचागोद० संखे० गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । ओरालिय० संखे० गुणं । तेज. विसे । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति० संखे० गुणं । पुरिस० संखे० गुणं । हस्स० संखे० गुणं। रदि० विसे० । अरदि० संखे० गुणं । सोगे० संखे० गुणं । दुगुंछा० विसे० । भय० विसे० । माणसंजलण• विसे० । कोहसंजलण. विसे० । मायाए विसे० । (लोहे. विसे० ।) दाणंतराइए० विसे । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति। मणपज्जव० विसे० । ओहिणाण० विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे०। ओहिदंस० विसे० । अचक्खु० विसे । चक्खु० विसे। असादे० संखे० गुणं । एवं णिरयगइदंडओ समत्तो। तिरिक्खेसु जं पदेसग्गं संकामिज्जदि सम्मत्ते तं थोवं । सम्मामिच्छत्ते. असंखे० गुणं । मिच्छत्ते० असंखे० गुणं। अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणं । कोहे. विसे। मायाए० विसे०। लोहे० विसेसा०। पयलापयला असंखे० गुणं । णिहाणिद्दा० विसे० । थोणगिद्धि विसे०। अपच्चक्खाणमाणे० असंखे० गुणं । कोहे. विसे० । मायाए० विसे०। लोहे० विसे०। पच्चक्खाणमाणे विसे०। कोहे. विसे०। मायाए विसे०। लोहे. तिर्यग्गतिमें असंख्यातगुणा है । स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है । नपुसकवेदमें संख्यात गुणा है । नीचगोत्रमें संख्यातगुणा है । यशकीति में असंख्यातगुणा है। औदारिकशरीरमें संख्यातगुणा है। तेजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है । अयशकीति में संख्यातगुणा है । पुरुषवेदमें संख्यातगुणा है । हास्यमें संख्यातगुणा है। रति में विशेष अधिक है । अरतिमें संख्यातगुणा है । शोकमें संख्यातगुणा है । जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयम विशेष अधिक है । संज्वलन मानमें विशेष अधिक है । संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक है । संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। । संज्वलन लोभ में विशेष अधिक है।) दानान्तरायम विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेषाधिक क्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये। आग मनःपर्यज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरण में विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरगमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। इस प्रकार नरकगतिदण्डक समाप्त हुआ। तिर्यग्गतिमें जो प्रदेशाग्र सम्यक्व में संकान्त होता है वह स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगणा है । मिथ्यात्वमें असंख्यातगणा है। अनन्तानबन्धी मानमें असंख्यातगणा है। अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मायामें असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी लोभमें विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगुद्धि में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगणा है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण लोभमे विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमे विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण क्रोधमें ४ ताप्रती नास्तीदं वाक्यम् इति पाठ: Private & Personal use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दार संकमप्पाबहुअं ( ५६७ विसे० । केवलणाणावरण. विसे० । पयला. विसे० । केवलदसण० विसे० । णिरयगइ० असंखे० गुणं । देवगइ० असंखे०गुणं । वेउव्विय० संखे०गुणं । आहार० असंखे० गुणं । मणुसगइ० संखे गुणं । उच्चागोद० संखे गुणं । ओरालिय* असंखे० गुणं । तिरिक्खगई० संखेगणं । इत्थि० संखेगणं । णवंस०संखे०गणं । णीचागोद० संखे० गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । तेज० संखे० गुणं । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति० संखे० गुणं । पुरिस० संखेगणं । हस्स० संखे० गुणं । रदि० विसे० । सादे० संखे गुणं । सोगे० संखे० गुणं । अरदि० विसे० । दुगुंछा० विसे० । भय० विसे० । माणसंजलण विसे० । कोहे० विसे । मायाए० विसे० । लोहे० विसे० । दाणंतराइए० विसे० । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति। मणपज्जव० विसे० । ओहिणाण. विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे । ओहिदंसण० विसे । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे । असादे० संखे० गुणं । एवं तिरिक्खगइदंडओ समत्तो। मणुसगदीए जं पदेसग्गं संकामिज्जदि सम्मत्ते तं थोवं । सम्मामिच्छत्ते० असंखे० गुणं। मिच्छत्ते० असंख० गुणं । अणंताणुबंधिमाणे० असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। नरकगतिमें संख्यातगुणा है। देवगतिमें असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। आहारशरीरमें संख्यातगुणा है। मनुष्यगतिमें संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है। औदारिकशरीर में असंख्यातगुणा है । तिर्यग्गतिमें संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है। नपुंसकवेदमें संख्यातगुणा है । नीचगोत्रमें संख्यातगुणा है। यशकीर्तिमें असंख्यात गुणा है। तैजसशरीरमें संख्यातगुणा है । कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीर्तिमें संख्यातगुणा है। पुरुषवेदमें संख्यायगुणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । शोकमें संख्यातगुणा है। अरतिमें विशेष अधिक है । जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयम विशेष अधिक है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है । इस प्रकार विशेषाधिकक्रमसे वीर्यान्त राय तक ले जाना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। इस प्रकार तिर्यग्गतिदण्डक समाप्त हुआ। मनुष्यगतिमें जो प्रदेशाग्र सम्यक्त्वमें संक्रान्त होता है वह स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है ।। *ताप्रतौ 'अगंतगुगा' इति पाठः। * ताप्रती 'उच्चागोद० संखे० । पुरिस० सखे० । ओरालि.' इति पाठः Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८) छक्खंडागमे संतकम्म मायाए० विसे० । लोहे० विसे० । पयलापयला० असंखे० गुगं । णिहाणिद्दा० विसे०। थीणगिद्धि० विसे० । अपच्चक्खाणमाणे० असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए. विसे० । लोहे० विसे० । पच्चक्खाणमाणे० विसे० । कोहे. विसे० । मायाए विसे० । लोहे० विसे । केवलणाण. विसे० । पयला. विसे० । णिद्दा० विसे० । केवलदसण. विसे० । णिरयगइ० अणंतगुणं । देवगइ० असंखे० गुणं । वेउध्विय० संखे० गुणं । आहार० असंखे० गुणं । तिरिक्खगइ० असंखे० गुणं । णवूस० असंखे० गुणं उच्चागोद० संखे० गुणं । इथि० असंखे० गुणं । मणुसगइ० असंखे० गुणं । ओरालि० असंखे० गुणं । कोहसंजलण० असंखे० गुणं । माण० विसे० । पुरिस० विसे०। माया० विसे । उच्चागोद० असंखे० गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । तेज० संखे० गुणं । कम्म० विसे० । अजसकित्ति संखे० गुणं । हस्स० संखे० गुणं । रदि० विसे० । सादे० असंखे० गुणं। सोगे० संखे० गुणं । अरदि० विसे० । दुगुंछा० विसे । भय० विसे० । लोहसंजलण. विसे० । दाणंतराइय० विसे० । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति । मणपज्ज० विसे० । ओहिणाण० अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी लोभमें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । नरकगतिमें अनन्तगुणा है । देवगतिमें असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें असंख्यातगुणा है । आहारकशरीरमै असंख्यातगुणा है। तिर्यग्गतिमें असंख्यातगुणा है। नपुंसकवेदमें असंख्यातगुणा है । उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है । स्त्रीवेदमें असंख्यातगुणा है । मनुष्यगतिमें असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीरमें असंख्यातगुणा है। संज्वलन क्रोधमें असंख्यातगुणा है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। पुरुषवेदमें विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है । उच्चगोत्रमें असख्यातगुणा है। यशकीतिमें असंख्यातगुणा है। तेजसशरीर में संख्यातगुणा है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीर्तिमें संख्यातगुणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें असंख्यातगुणा है । शोकमें संख्यातगुणा है । अरतिमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है । संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेषाधिकक्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें 3 ताप्रतावत: प्राक् 'पयलास्यला० असंखे० गुणा 'लोहे विसे.' इत्येतावातयं पाठः पुनर्मुदितोऽस्ति कष्ठकस्थः । Jain Education international Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दार संकमप्पाबहुअं ( ५६९ विसे० । सुद० विसे । मदि० विसे । ओहिदसण. विसे० । अचक्खु० विसे । चक्खु० विसे । असाद, संखेज्जगुणं । एवं मणुसगइदंडओ समत्तो। _ देवगदीए जं पदेसग्गं संकामिज्जदि सम्मत्ते तं थोवं । सम्मामिच्छत्ते० असंखे० गुणं । मिच्छत्ते० असंखे० गुणं । अणंताणुबंधिमाणे० असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे. विसे० । पयलापयला० असंखे० गुणं । णिद्दाणिद्दा० विसे० । थीणगिद्धि विसे० । अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे. विसे० । पच्चक्खाणमाणे० विसे० । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे । केवलणाण विसे० । पयला० विसे० । णिहा०विसे०। केवलदसण० विसे । आहार० अणंतगुणं । णिरयगइ० असंखे० गुगं । तिरिक्खगइ० असंखे० गुणं । णवंस०संखे० गुणं । उच्चागोद० संखे० गुणं । इत्थि० असंखे० गुणं । देवगइ० असंखे० गुणं । वेउब्विय० संखे० गुणं । मणुसगइ० असंखे० गुणं । ओरालिय० असंखे० गुणं । उच्चागोद० असंखे० गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । तेज० संखे० गुणं । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति० संखे० गुणं । पुरिस० संखे० गुणं । हस्स° विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। इस प्रकार मनुष्यगतिदण्डक समाप्त हुआ। देवगतिमें जो प्रदेशाग्र सम्यक्त्वमें संक्रान्त होता है वह स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी क्रोध में विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी लोभमें विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगणा है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण लोभमे विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमे विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण क्रोवमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । प्रचल में विशेष अधिक है । निद्रामें विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। आहारकशरीरमें अनन्तगुणा है। नरकगतिमें असंख्यातगुणा है। तिर्यग्गतिमें असंख्यातगुणा है। नपुंसकवेदमें संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है। देवगतिमें असंख्यातगुणा है। वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। मनुष्यगतिमें असंख्यातगुणा है। औदारिकशरीरमें असंख्यातगुणा है। उच्चगोत्रमें असंख्यातगुणा है। यशकीर्ति में असंख्यातगुणा है । तैजसशरीरमें संख्यातगुणा है । कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीतिमें संख्यातगुणा है। पुरुषवेदमें संख्यातगुणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० ) छक्खंडागमे संतकम्मं संखे० गुणं । रदि० विसे० । साद० संखे० गुणं । सोगे ० संखे० गुणं । अरदि० विसे० । दुगुंछ० विसे० । भय० विसे० । कोहे० विसे० | माणे० विसे० । लोहे० विसे० । मायाए० विसे० । दाणंतराइए० विसे० । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयंति । मणपज्जव० विसे० । ओहिणाण० विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे० ० । ओहिदंसण० विसे० । अचक्खु० विसे० । चदखु० विसे । असाद गुणं । एवं देवगइदंडओ समत्तो । संखे ० c ( एइंदिएसु) जं पदेसग्गं संकामिज्जदि सम्मत्ते तं थोवं । सम्मामिच्छत्ते असंखे ० गुणं । अताणुबंधिमाणे० असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० लोहे० विसे० । अपच्चक्खाणमाणे ० असंखे० गुणं । कोहे० विसे०। मायाए० विसे । लोहे० विसे० । पच्चक्खाणमाणे० विसे०। कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे० । केवलणाण० विसे० । पयला० विसे० । णिद्दा० विसे० । पयलापयला ० विसे० । णिद्दाणिद्दा० विसे० । श्रीणगिद्धि० विसे० । केवलदंसणा विसे० । णिरयगई० अनंत विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । शोकमें संख्यातगुणा है। अरतिमें विशेष अधिक है । जुगुप्सा में विशेष अधिक है । भयमें विशेष अधिक है । ( संज्वलन ) क्रोध में विशेष अधिक । संज्वलन मानमें विशेष अधिक है । संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है । संज्वलन मायामें विशेष अधिक है । दानान्तराय में विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेषाधिकक्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये । मन:पर्ययज्ञानावरण में विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरण में विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरण में विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है । असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । इस प्रकार देवगतिदण्डक समाप्त हुआ । ( एकेन्द्रिय जीवों में ) जो प्रदेशाग्र सम्यक्त्वमें संक्रान्त होता है वह स्तोक है । सम्यमिथ्यात्व में असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी मानमें विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी क्रोध में विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी लोभ में विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण लोभम विशेष अधिक हैं । प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है । केवलज्ञानावरण में विशेष अधिक है । प्रचला में विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रानिद्रा में विशेष अधिक है । स्त्यानगृद्धिमें विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरण में विशेष अधिक है । नरकगति में अनन्तगुणा है । देवगतिमें घ ताप्रती 'लोहे विसे० । केवलणाणे विसे० । पयला० विसे० । अपच्च- ' इति पाठः । ताप्रती 'लोहे विसे० । केवलणाण० विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे०, को हे विसे०, माया० विसे०, लोहे० विसे० । णिद्दा०' इति पाठः । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे लेस्साणुयोगद्दारं ( ५७१ गुणं । देवगई० असंखे० गुणं । वेउव्विय० संखे० गुणं । आहार० असंखे० गुणं । मणुसगई० असंखे० गुणं । उच्चागोदे० संखे, गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । ओरालिय० संखे० गुणं। तेज.विसे० । कम्म• विसे० । तिरिक्खगई० संखे० गुणं । अजसकित्ति० संखे० गुणं । णीचागोद० संखे० गुणं। हस्स० संखे० गुणं । रदि० विसे । सादे० संखे० गुगं । सोग० संखे० गुणं । अरदि० विसे० । णवंस० विसे० । दुगुंछ विसे । भय० विसेसा० । माणसंजलण विसे । कोहे० विसे०। मायाए० विसे । लोहे. विसे० । दाणंतराइए० विसे० । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति । मणपज्ज. विसे । ओहिणाण. विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे । ओहिदंस० विसे० । अचक्खु० विसे०। चक्खु० विसे०। असादे० खंखे० गुणं । णीचागोदे० विसेसाहियं । एवमेइंदियदंडओ समत्तो । एवं पदेससंकमो समत्तो । लेस्सा त्ति अणुयोगद्दारे तत्य इमाणि अट्ट पदाणि । तं जहा- लेस्साणिक्खेवे १ लेस्साणयपरूवणा २ लेस्साणिरूवणा ३ लेम्सासंकमणणिवत्ती ४ लेस्सावण्णसमोदारो ५ लेस्सावण्णचउरंसे0 ६ लेस्साटाणपरूवणा ७ लेस्सासरीरसमोदारो चेदि ८ । एवं लेस्साणिक्खेवेत्ति समत्तमणुयोगद्दारं । असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है । मनुष्यगतिमें असंख्यातगुणा है। उच्चगोत्र में संख्यातगुणा है। यशकीति में असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीरमें असंख्यातगणा है। तेजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। तिर्यग्गतिमें संख्यातगुणा है। अयशकीर्तिमें संख्यातगुगा है। नीचगोत्रम संख्यातगुणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयम संख्यातगुणा है। शोक में संख्यातगुणा है। अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्साम विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोध में विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभ में विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेष अधिक क्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये। आग मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरण में विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयम विशेष अधिक है। नीचगोत्र में विशेष अधिक है। इस प्रकार एकेन्द्रियदण्डक समाप्त हुआ। इस प्रकार प्रदेशमंक्रम समाप्त हुआ। लेश्या अनुयोगद्वारमें वहां ये आठ पद हैं। वे ये हैं- १ लेश्यानिक्षेप, २ लेश्यानयप्ररूपणा, ३ लेश्यानिरूपणा, ४ लेश्या संक्रमणनिर्वृत्ति, ५ लेश्यावर्णसमवतार, ६ लेश्यावर्णचतुरंश, ७ लेश्यास्थानप्ररूपणा और ८ लेश्याशरीरसमवतार । इस प्रकार लेश्यानिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। 8 ताप्रतौ 'तस्स ' इति पारः। 8 ताप्रतौ 'लेस्साअंतरविहागे' इति पाठः । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं साम्मे ति अणुओगद्दारे दस वित्थरपदाणि । तं जहा - लेस्सापरिणामे १ लेस्सापच्चय विहाणे २ लेस्सापदविहाणे ३ लेस्सासामित्तविहाणे ४ लेस्साकालविहाणे ५ लेस्साअंतरविहाणे* ६ लेस्सातिव्व-मंददाए ७ लेस्साद्वाणपरूवणा ८ लेस्साट्ठाणाणं अप्पा बहुअं ९ ले सागइसमोदारो १० । एवं लेस्सापरिणामे त्ति समत्तमणुओगद्दारं । लेस्सापरिणामे ति अणुओगद्दारे पंचविधियपदाणि । तं जहा- लेस्सासंकमे १ लेस्साट्टा संकमे २ लेस्साट्ठाणप्पा बहुए ३ लेस्साअद्धासमोदारे ४ लेस्साअद्धा कमे ५ । किहलेस्सादो संकिले संतो अण्णलेस्सं ण संकमदि, विसुज्झतो सट्टाणे छट्टानपदिदाणि ओसरदि, णीललेस्सं वा संकमदि * ठाणे अनंतगुणहीणो पददि । णीलादो संकिलिस्तो सट्टा छुट्टाणपदिदाणि ओसरदि, किण्णलेस्सं संकमदि * ठाणे अनंतगुणे; तदो विसुज्झतो सट्ठाणे छट्टाणपदिदाणि ओसरइ, काउं वा संकमदि ट्ठाणे अनंतगुणी | काउलेस्सादो संकिलेसंतो सट्ठाणे छट्टाणपदिदाणि ओसरइ*, णीललेस्सं वा संकमदि ट्ठाणे अनंतगुणे; विसुज्झतो सट्टाणे ओसरदि छट्टाणपदिदाणि ते वा संकमदि द्वाणे अनंतगुणहीणे । तेउलेस्सादो संकिलेसंतोष्ट सट्टाणे छट्टाणपदिदाणि ओसरदि, काउं वा संकमदि द्वाणे अनंतगुणे; विसुज्झतो सट्ठाणे छट्टाणपदिदाणि श्याकर्म अनुयोगद्वार में दस विस्तारपद हैं । वे ये हैं- १ लेश्यापरिणाम, २ लेश्या - प्रत्ययविधान, ३ लेश्यापदविधान, ४ लेश्यास्वामित्वविधान, ५ लेश्याकालविधान, ६ लेश्याअन्तरविधान, ७ लेश्यातीव्र मंदता, ८ लेश्यास्थानप्ररूपणा, ९ लेश्यास्थानोंका अल्पबहुत्व और १० लेश्यागतिसमवतार । इस प्रकार लेश्यापरिणाम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । लेश्यापरिणाम अनुयोगद्वार में पंचविधिक पद हैं। वे ये हैं- १ लेश्यासंक्रम, २ लेश्यास्थान संक्रम, ३ लेश्यास्थानअल्पबहुत्व, ४ लेश्याद्धासमवतार और ५ लेश्याद्धासंक्रम | कृष्णलेश्यासे संक्लेशको प्राप्त होता हुआ जीव अन्य लेश्यामें संक्रमण नहीं करता, उससे विशुद्धिको प्राप्त होकर स्वस्थानमें छह स्थानोंमं पडता है अथवा नीललेश्या में संक्रमण करता है- अर्थात् अनन्तगुणे हीन नीललेश्या रूप परस्थान में जाता है। नीललेश्यासे संक्लेशको प्राप्त होकर स्वस्थानमें छह स्थानोंमें नीचे गिरता है अथवा अनन्तगुणे परस्थानमें कृष्णलेश्यामें संक्रमण करता है। उससे विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ स्वस्थानमें छह स्थानों में गिरता है, अथवा अनन्तगुणी होन परस्थानभूत कापोतलेश्या में संक्रमण करता है । कापोतलेश्यासे संक्लेशको प्राप्त होकर स्वस्थानमें छह स्थानों में नीचे पडता है, अथवा अनन्तगुणं परस्थानमें नीललेश्या में संक्रमण करता है। उससे विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ स्वस्थानमें छह स्थानों में गिरता है, अथवा अनन्तगुणी होन परस्थानभूत तेजलेश्यासे संक्रमण करता है । तेजलेश्यासे संक्लेशको प्राप्त होकर स्वस्थानमें छह स्थानोंमें नीचे गिरता है, अथवा अनन्तगुणे परस्थानमें कापोतलेश्यामें संक्रमण करता है । उससे विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ स्वस्थानमें ताप्रती 'लेस्सावण्णचउरसे' इति पाठः । * अ-काप्रत्यो: ' संक्रमदि ' इति पाठ: । उक्कस्सादो', काप्रती 'उस्सासादो', ताप्रती 'उस्तादो ( काउलेस्सादो ) ' इति पाठ: । ' अइसरइ ' इति पाठः । अप्रती अ-काप्रत्योः अ-काप्रत्यो: ' संकमदि ' इति पाठः । अ-काप्रत्यो: ' तेउसकम संकिले संतो ' तात'' उसकम (लेस्सादो ) संकिलेसंतो ' इति पाठः । * ताप्रती ' काउलेस्सं वा' इति पाठ: । # . Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपाबहुअणुयोगद्दारे लेस्साकम्माणुयोगद्दारं ( ५७३ अहिसरदि, पम्माए वा संकमदि द्वाणे अनंतगुणे । पम्मादो संकिलिस्संतो सट्टाणे छाणपाणि ओसरइ, तेउं वा संकमदि ट्ठाणे अनंतगुणहोणे; विसुज्झतो सट्टाणे छाणपदिदाणि ओसरदि, सुक्कं वा संकमइ ट्ठाणे अनंतगुणे । सुक्कादो संकिलिसंतो ट्ठाणे छाणपदिदाणि ओसरइ, पम्मं वा संकमदि द्वाणे अनंतगुण होणे ; विसुज्झतो ण कहिं पि संकमदि । किण्हणीलाओ अप्पिदाओ कट्टु णीलाए द्वाणं जहण्णयं थोवं पडिग्गहद्वाणं * पोलाए जहण्णयमणंतगुणं । किण्हाए जहण्णयं द्वाणं संकमट्ठाणं च अनंतगुणं । णीला ए जहणयं संकट्ठा जमणंतगुणं । किण्हाए जहण्णयं पडिग्गहट्ठाण मणंतगुणं । णीलाए उक्कस्सयं पडिग्गहट्ठाणमणंतगुणं । किण्हाए उक्कस्सयं संकमट्ठाणमणंतगुणं । णीलाए उक्कस्यं संकट्ठाणं उक्कस्सयं संकिलेसट्ठाणं च अनंतगुणं । किन्हाए उक्कस्सय डिग्गट्ठाण मतगुणं । किण्हाए उक्क ट्ठाणमणंतगुणं । लेस्सठाणाणि छट्ठाणपदिदाणि असंखेज्जा लोगा । तत्थ काऊए ट्ठाणाणि थोवाणि । णीलाए ट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । किन्हाए ट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ऊए ट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । पम्माए ट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । सुक्काए ाणाणि असंखेज्जगुणाणि । एवमेसो समत्तो दंडओ । छह स्थानों में ऊपर जाता है, अथवा अनन्तगुण पद्मलेश्या के परस्थानमें संक्रमण करता है । पद्मलेश्या से संक्लेशको प्राप्त होकर स्वस्थानमें छह स्थानोंमें नीचे गिरता है, अथवा अनन्तगुणी हीन परस्थानभूत तेजलेश्या में संक्रमण करता है। उससे विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ स्वस्थानमें छह स्थानों में ऊपर जाता है, अथवा अनन्त गुणी परस्थान भूत शुक्ललेश्या में संक्रमण करता है । शुक्ललेश्यासे संक्लेशको प्राप्त होकर स्वस्थान में छह स्थानों में नीचे गिरता है, अथवा अनन्तगुणी होन परस्थानभूत पद्मलेश्यामे संक्रमण करता है। उससे विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ कहीं पर भी संक्रमण नहीं करता है । कृष्ण और नील लेश्याओंकी विवक्षा करके नीलका जघन्य स्थान स्तोक है | नीलका जघन्य प्रतिग्रहस्थान उससे अनन्तगुणा है । कृष्णका जघन्य स्थान और संक्रमस्थान अनन्तगुणा है | नीलका जघन्य संक्रमस्थान अनन्तगुणा है । कृष्णका जघन्य प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है | नीलका उकृष्ट प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है । कृष्णका उत्कृष्ट संक्रमस्थान अनतगुणा है | नीलका उत्कृष्ट संक्रमस्थान और उत्कृष्ट मंक्लेशस्थान अनन्तगुणा है । कृष्णका उत्कृष्ट प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है । कृष्णका उत्कृष्टस्थान अनन्तगुणा है । छह स्थान पतित लेश्यास्थानोंका प्रमाण असंख्यात लोक है । उनमें कापोतलेश्या के स्थान स्तोक हैं । नीललेश्याके स्थान असंख्यातगुणे हैं । कृष्णलेश्याके स्थान असंख्यातगुणे हैं । तेजलेश्याके स्थान असंख्यातगुणे हैं । पद्मलेश्याके स्थान असंख्यातगुणे हैं । शुक्ललेश्याके स्थान असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार यह दण्डक समाप्त हुआ । 1 1 ताप्रती 'छट्टाणपदाणि ' इति पाठ: । अ-काप्रत्यो: 'पओग्गहणं ' ताप्रती 'पओ (डि) ग्गहद्वाणं' इति पाठ: । * तातो 'किण्हाए उक्क० मणंतगुणं, किण्हाए. अनंतगुणं' इति पाठः । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ) छक्खंडागमे संतकम्म तिव्व-मंददाए दंडओ- सव्वत्थोवं काऊए जहण्णयं द्वाणमणंतगुणं ( ? )। णीलाए जहण्णयं ढाणमणंतगुणं किण्हाए। जहण्णयं द्वाणमणंतगुणं । तेऊए जहण्णयं द्वाणमणं. तगुणं । पम्माए जहण्णयं द्वाणमणंतगुणं । सुक्काए जहण्णयं द्वाणमणंतगुणं । काऊए उक्कस्सयं द्वाणमणंतगुणं । णीलाए उक्कस्सयं द्वाणमणंतगुणं किण्हाए उक्क० द्वाणमणंतः। तेऊए उक्कस्सयं द्वाणमणंतगुणं । पम्माए उक्कस्सयं ढाणमणंतगुणं । सुक्काए उक्कस्सयं द्वाणमणंतगुणं । एवं तिब्व-मंददाए दंडओ समत्तो । लेस्साकम्मे त्ति समत्तमणुओगद्दारं । __ सादमसादे त्ति अणुओगद्दारे सव्वत्योवमेयंतसादं । एयंतअसादं संखेज्जगुणं । अणेयंतसादं असंखेज्जगुणं । अणेयंतअसादं विसेसाहियं । एसो ताव एक्को पयारो। इमो बिदिओ दंडओ । तं जहा- जं सादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं थोवं । जं सादत्ताये बद्धं असंछुद्धं असादत्ताये वेदिज्जदि तं विसेसाहियं । जमसादत्ताये बद्धं असंछुद्धं सादत्ताये वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं । जमसादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिछुद्धं असादत्ताये वेदिज्जदि तं विसेसाहियं । जं तीव्र-मंदताका दण्डक- कपोतलेश्याका जघन्य स्थान सबमें स्तोक है। नील लेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है। कृष्णलेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है। तेजलेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है। पद्मलेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है। शुक्ललेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है। कपोतलेश्याका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है। नीललेश्याका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है। कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है। तेजोलेश्याका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है। पद्मलेश्याका उकृष्ट स्थान अनन्तगुणा है। शुक्ल लेश्याका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है। इस प्रकार तीव्र-मंदताका दण्डक समाप्त हुआ। लेश्याकर्म अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । सात-असात अनुयोगद्वारमें एकान्तसात सबमें स्तोक है। एकान्तअसात संख्यातगुणा है। अनेकान्तसात असंख्यातगणा है। अनेकान्तअसात विशेष अधिक है। यह एक पहला प्रकार है। वह दूसरा दण्डक है जो इस प्रकार है- जो सात स्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त और अप्रतिक्षित होता हुआ सात स्वरूपसे वेदा जाता है वह स्तोक है। जो सात स्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त (और अप्रतिक्षिप्त) होता हुआ असात स्वरूपसे वेदा जाता है वह विशेष अधिक है। जो असात स्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त ( और अप्रतिक्षिप्त ) होता हुआ सात स्वरूपसे वेदा जाता है वह संख्यातगुणा है। जो असातस्वरूपसे बांधा जाकर असंक्षिप्त और अप्रतिक्षिप्त होता हुआ असात स्वरूपसे वेदा जाता है वह विशेष अधिक है । जो सात स्वरूपसे 8 प्रतिषु ' लेस्सासंकमे ' इति पाठः। 8 अ-काप्रत्योः । मेयंतसादं वा ' इति पाठः। ताप्रतौ 'असंछद्ध' (अपडिच्छुद्धं-) असादत्ताए' इति पाठः । ताप्रतौ '-छुद्धं (अपडिच्छुद्धं) सादत्ताये' इति पाठः । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे पोग्गलअत्ताणुयोगद्दारं ( ५७५ सादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिछद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तमसंखेज्जगुणं । जं सादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिछुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तं विसेसाहियं । ( जमसादत्ताए बद्धं संछुद्ध पडिछुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तं संखेज्जगुणं )। जमसादत्ताए बद्धं संछुद्धं पडिछुद्ध असादत्ताए वेदिज्जदि तं विसेसाहियं । एवं सादासादे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । दोहे रहस्से त्ति अणुयोगद्दारे इमा मग्गणा। तं जहा- पयडिदीहं ट्ठिदिदीहं अणुभागदीहं पदेसदीहं ति चउन्विहं दोहं । एवं रहस्सं पि चउन्विहं । एदेसिमट्टण्ह पि अप्पाबहुअपरूवणाए कदाए दोहे रहस्से ति अणुओगद्दारं समत्तं होइ। भवधारणे त्ति अणुओगद्दारे इमा मग्गणा । तं जहा- कदरेण कम्मेण भवो धारिज्जदि ? आउएण कम्मेण धारिज्जदि । एत्थ अप्पाबहुअपरूवणा कायव्वा । एवं भवधारणे त्ति समत्तमणुओगद्दारं ।। पोग्गलअत्ते त्ति अणुओगद्दारे इमा गाहा मग्गिदव्वा - ममत्ति०* आहारे परिभोयं परिग्गहग्गय तहा च परिणामा । आदेसपमाणत्ता (?) पुण अट्ठविहा पोग्गला अत्ता ।। १ ।। अत्ता मवुत्ति परिभोग परि गहणे तथा च परिणामे । आहारे गहणे पुण चउविहा पोग्गला अत्ता ।। २ ।। बांधा जाकर संक्षिप्त और प्रतिक्षिप्त होकर सात स्वरूपसे वेदा जाता है वह असंख्यातगुणा है। जो सात स्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त और प्रतिक्षिप्त होता हुआ असात स्वरूपसे वेदा जाता है वह विशेष अधिक हैं। ( जो असात स्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त और प्रतिक्षिप्त होता हुआ सात स्वरूपसे वेदा जाता है वह असंख्यातगुणा है । ) जो असात स्वरूपसे बांधा जाकर संक्षिप्त और प्रतिक्षिप्त होता हुआ असात स्वरूपसे वेदा जाता है वह विशष अधिक है । इस प्रकार सातासात अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। दीर्घ-ह स्व अनुयोगद्वारमें यह मार्गणा है । यथा- प्रकृतिदीर्घ, स्थितिदीर्घ, अनुभागदीर्घ और प्रदेशदीर्घ इस प्रकार दीर्घ चार प्रकारका है। इसी प्रकारसे ह स्व भी चार प्रकारका है। इन आठोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करनेपर दीर्घ-ह,स्व अनुयोगद्वार समाप्त होता है । ___ भवधारण अनुयोगद्वार में यह मार्गणा है । यथा- किस कर्मके द्वारा भव धारण किया जाता है ? आयु कर्मके द्वारा धारण किया जाता है। यहां अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार भवधारण अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। पुद्गलात्त अनुयोगद्वारमें इस गाथाकी मार्गणा करना चाहिये-- ममत्ति० आहार, परिभोग, परिग्रहगत तथा परिणामस्वरूपसे पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं । परन्तु आदेशप्रमाणकी अपेक्षा (?) आठ प्रकारके पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं ।। १ ।। ममत्व, परिभोग, परिग्रहण तथा परिणाम रूपसे चार प्रकारके पुद्गल ग्रहण होते हैं। तथा आहार और ग्रहणमें चार प्रकारके पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं ॥ २ ॥ ४ तातो 'दीहरहस्से' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'अप्पाबहअ परूवणाए कदाए दीए', ताप्रती 'अप्पाबहुअं परूवणाए का । एवं दीहे ' इति पाठः। * तापतौ 'मग्गिदम्बा ममत्तिा ' इति पाठः । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५७६ ) छक्खंडागमे संतकम्म एत्थ एदेसिमप्पाबहुअं कायव्वं । एवं पोगलअत्ते त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । णिधत्तमणिधत्ते त्ति अणुओगद्दारे इहमट्टपटं । तं जहा-- जमोकड्डिज्जदि उक्कड्डिज्जदि, परपडि ण संकामिज्जदि उदये ण दिज्जदि पदेसग्गं तं णिधत्तं णाम । तन्विवरीयमणिधत्तं । णिधत्तं पुण पयडीए केवडिभायेण अवणिज्जदि ? पलिदोवमस्सअसंखेज्जदिभाएण पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभाएण। जा उअसामणाये मग्गणा सा चेव एत्थ वि कायन्वा। एत्थतणपदाणमा बहुअपरूवणा च जाणिदूण कायव्वा । एवं णिधत्तमणिधत्ते त्ति समत्तमणुओमदारं । णिकाचिदमणिकाचिदं ति अणुओगद्दारे कधमपदं ? जं पदेतगंण वि ओकड्डिज्जदि ( ण वि उक्कड्डिज्जदि ) ण वि संकामिज्जदि ण वि उदए दिज्जदि तं णिकाचिदं णाम । तश्विरीयमणिकाचिदं। तं पयडीए पलिदोवमस्स असंखे० भागपडिभागियं । जा उवसामणाए मग्गणा सा चेव एदेसु दोसु कायन्वा । जं पदेसग्गं गुणसेडीए दिज्जदि तं थोवं । ( जं) उवसामिज्जदि पदेसग्गं तं असं० गुण । ज णिधत्तिज्जदि तमसंखे० गुणं । जणिकाचिज्जदि तमसंखे० गुणं । जमधापवत्तसंकमेण संकामिज्जदि तमसंखे० गुणं । यहां इनका अल्पबहुत्व करना चाहिये। इस प्रकार पुद्गलात्त अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। निधत्त अनिधत्त अनुयोगद्वारमें यह अर्थपद है। यथा- जो प्रदेशाग्र अपकर्षको प्राप्त कराया जाता है और उत्कर्षको भी प्राप्त कराया जाता है, किन्तु न तो परप्रकृति रूपमें संक्रान्त किया जाता है और न उदयमें दिया जाता है उसका नाम निधत्त है । इससे विपरीत अनिधत होता है। निधत्त प्रकृतिके कितनेवे भागसे अपनीत किया जाता है ? वह पल्योपमके असंख्यातवें भाग व पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भागसे अपनीत किया जाता है । जो उपशामनाम मार्गणा है वही यहां भी करना चाहिये। यहांके पदोंके अल्पबहुत्वको प्ररूपणा भी जानकर करना चाहिये । इस प्रकार निधत्त-अनिधत्त अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। निकाचित-अनिकाचित अनुयोगद्वारमें अर्थपद कैसा है ? जो प्रदेशाग्र न अपकृष्ट किया जाता है, न उत्कृष्ट किया जाता है, न संक्रान्त किया जाता है, और न उदयमें भी दिया जाता है उसे निकाचित कहते हैं। इससे विपरीत अनिकाचित है। वह प्रकृतिके पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रतिभागवाला है। जो उपशामनामें मार्गणा है उसे ही इन दोनोंमें करना चाहिये । जो प्रदेशाग्र गुणश्रेणि रूपसे दिया जाता है वह स्तोक है। जो प्रदेशाग्र उपशान्त किया जाता है वह असंख्यातगुणा है। जो प्रदेशाग्र निधत स्वरूप किया जाता है वह असंख्यातगुणा है। जो निकाचित अवस्थाको प्राप्त कराया जाता है वह असंख्यातगुणा है । जो अधःप्रवृत्तसंक्रमसे संक्रमणको प्राप्त कराया जाता है वह असंख्यातगुणा है । प्रतिषु 'तमोकड्डिज्जदि ' इति पाठः । ४प्रतिष 'पदेसट' इति पाठः। प्रतिष 'कदमपद' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'ओक्कड्ड दिज्जदि', ताप्रती 'ओकड़डदि, ( ण वि उक्कड़ादि-)' इति पाठः। अतोऽग्रे अ-काप्रत्यो पच्छिमक्खधाणयोगद्दारान्तरान्तर्गतः 'अंतोमहत्त' पर्यन्तोऽयं सदर्भः स्खलितः । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे पच्छिमक्खंधाणुयोगद्दारं ( ५७७ महावाचयाणं खमासमणाणं उवदेसेण सव्वत्थोवाणि कसाउदयढाणाणि । ठिदिबंधज्झवसाणढाणाणि असं० गुणागि । पदेसउदीरयअज्झवसाणट्ठाणाणि असंखे० गुणाणि । पदेससंकमणाअज्झवसाणाणि असंखे० गुणाणि । उवसामयअज्झवसा० असं० गुणाणि । णिधत्तमज्झवसाणाणि असं० गुणाणि। णिकाचणज्झवसा० असं० गुणाणि। एत्थ अणंतराणंत (र) गुणगारो असं० लोगा। एवं णिकाचिदं त्ति समत्तमणुयोगद्दारं। ___ कम्मढिदि त्ति अणुयोगद्दारे एत्थ महावाचया अज्जणंदिणो संतकम्मं करेंति । महावाचया टिदिसंतकम्मं पयासंति । एवं कम्मट्ठिदि त्ति समत्तमणुयोगद्दारं।। __पच्छिमक्खंधे त्ति अगुयोगद्दारे तत्थ इमा मग्गणा- आउअस्स अंतोमुहुत्ते सेसे तदा आवज्जिदकरणं करेदि । आवज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्घादं करेदिपढमसमए दंडं करेदि । ठिदीए असंखेज्जे भागे हणदि । अप्पसत्थकम्मं सव्वं अणंतभागे अणुभागखंडएण हणदि । तदो बिदियसमए कवाडं करेदि । तत्थ सेसियाए द्विदीए असंखेज्जे भागे हणदि । सेसस्स च अणुभागस्स अणंतभागे हणदि । तदो तदियसमए मंथं करेदि । तत्थ वि सेसियाए द्विदीए असंखेज्जे भागे हणदि । सेसस्स च अणुभागस्स अणंतभागे हणदि । तदो चउत्थसमए लोगं पूरेदि । लोगे पुण्णे एगा महावाचक क्षमाश्रमणके उपदेशके अनुसार कषाय उदयस्थान सबसे स्तोक हैं। स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। प्रदेशउदीरक अध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । प्रदेशसंक्रम अध्यवसानस्थान असंख्यात गुणे हैं। उपशामक अध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। निधत अध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। निकाचन अध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। यहां अनन्तर-अनन्तर गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है। इस प्रकार निकाचित अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। कर्मस्थिति अनुयोगद्वारमें यहां महावाचक आर्यनन्दी सत्कर्मकी प्ररूपणा करते हैं और महावाचक ( नागहस्ती ) स्थितिसत्कर्मको प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार कर्मस्थिति अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। पश्चिमस्कन्ध इस अनुयोगद्वारमें वहां यह मार्गणा है-- आयुके अन्तर्मुहुर्त मात्र शेष रहनेपर तब आवजित करणको करता है। आजित करणके कर चुकने पर फिर केवलिसमुद्घातको करता है। इसमें प्रथम समय में दण्ड कसमुद्घातको करता है। स्थितिके असंख्यात बहुभागको नष्ट करता है। सब अप्रशस्त कर्म के अनन्त बहुभागको अनुभागकाण्डक द्वारा नष्ट करता है। पश्चात् द्वितीय समय में कपाटसमुद्घातको करता है। उसमें शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागको नष्ट करता है। शेष अनुभागके भी अनन्त बहुभागको नष्ट करता है । तत्पश्चात् तृतीय समयमें मंथ समुद्घातको करता है। उसमें भी शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागको नष्ट करता है। शेष अनुभागके भी अनन्त बहुभागको नष्ट करता है। तदनंतर अ-काप्रत्योः ' करेंति करेंति',ताप्रती '(करेंति)' इति पाठः। तातो' (आ अस्स. ) अंतो- महत्तसेसे ' इति पाठः।प्रतिष 'सेस च ' इति पाठः। 9 अ-काप्रत्योः 'मत्यं ' इति पाठः। *अ-काप्रत्योः 'लोगो चरेदि', ताप्रती 'लोगो च (पू. रेदि' इति पाठः। प्रतिष 'एदा' इति पाठः। | Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ ) छक्खंडागमे संतकम्म जोगवग्गणा । सेसियाए द्विदीए असंखेज्जे भागे हणदि, सेसस्स च अणुभागस्स अणंते भागे हणदि । महावाचयाणमज्जमखुसमणाणमवदेसेण लोगे पुण्णे आउअसमं करेदि । महावाचयाणमज्जणंदीणं उवदेसेण अंतोमहत्तं टुवेदि संखेज्जगुणमाउआदो। एदे चत्तारिसमए अप्पसत्थस्स अणुभागस्स अणुसमओवटणा एयसमइयो चरिमखंडयघादो। एत्तो सेसियाये ट्ठिदीए संखेज्जभागो टिदिखंडयं हणदि । सेसस्स च अणुभागस्स अणंतभागे हादि । एत्तो पाये अंतोमुहुत्तिया ट्ठिदिखंडयस्स अणुभागखंडयस्स उवकीरणद्धा । तदो अंतोमुहत्तं गंतूण वचिजोगं णिरुभदि अंतोमुहुत्तेण । एत्तो अंतोमुहुत्तं गंतूण मणजोगं णिरंभदि अंतोमुत्तेण। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण उस्सास-णिस्सासं णिरंभदि अंतोमुहुत्तेण । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण कायजोगं णिरंभदि अंतोमुहुत्तेण । कायजोगं च णिरुंभमाणो इमाणि करणाणि करेदि- पढमसमए अपुव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाणं हेट्टदो। आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डुदि । जीवपदेसाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डुदि। अंतोमुहुत्तेण कायजोगपुवफद्दयाणि करेदि असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए, जीवपदेसाणमसंखेज्जगुणाए सेडोए। अपुवफद्दयाणि सेडीए असंखेज्जदिभागो, सेडिवग्गमूलस्स वि असंखेज्जदिभागो*। चतुर्थ समयमें लोकपूरणसमुद्घातको करता है । लोकके पूर्ण होनेपर एक योगवर्गणा होती है । यहां शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागको और शेष अनुभागके अनन्त बहुभागका नष्ट करता है। महावाचक आर्यमंक्षु श्रमणके उपदेशके अनुसार लोकके पूर्ण होनेपर ( शेष अघाति कर्मोको ) आयु कर्मके समान करता है। किन्तु महावाचक्र आर्यनन्दीके उपदेशके अनुसार आयु कर्मसे संख्यातगुणी अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिको स्थापित करता है। इन चार समयोंमें अप्रशस्त अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना और एक समयरूप अन्तिम स्थितिकाण्डकका घात होता है। यहां शेष स्थितिके संख्यात बहुभागको नष्ट करता है। शेष अनुभागके भी अनन्त बहुभागको नष्ट करता है। यहां स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकका अन्तर्मुहुर्त मात्र उत्कीरणकाल होता है। यहांसे तत्पश्चात् अन्तर्मुहुर्त जाकर अन्तर्मुहुर्त कालके द्वारा वचनयोगका निरोध करता है। यहांसे अन्तर्मुहूर्त जाकर अन्तर्मुहुर्त कालके द्वारा मनयोगका निरोध करता है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध करता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर काययोगका अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा निरोध करता है। काययोगका निरोध करता हुआ इन करणों को करता है- प्रथम समयमें पूर्व स्पर्धकोंके नीचे अपूर्वस्पर्धकोंको करता है। आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदों के असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है । जीवप्रदेशोंके संख्यातवें भागका अपकर्षण करता है। अन्तर्महर्त में काययोगके अपूर्वस्पर्धकोंको असंख्यातगुणहीन श्रेणिसे और जीवप्रदेशोंके असंख्यातगणी श्रेणिसे करता है । अपूर्वस्पर्धक श्रेणिके असंख्यातवें भाग और श्रेणिवर्गमलके भी असंख्यातवें भाग होते हैं। अपूर्वस्पर्धक ४ ताप्रतौ ' पणजोगं पि उक्कड्डिज्जदि णिरुभदि ' इति पाठः । अ-काप्रत्योः ‘णिरुभ माणे' इति पाठः। * अप्रतौ '-मूलस्स दि असंखे० भागो', का-ताप्रत्या: ' मलस्स असखे० भागो' इति पाठः। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसंतक्रम्मदंडओ पुव्वफद्दयाणमसंखेज्जदिभागो अपुव्वफद्दयाणि । एवमपुव्वफद्दयकरणं समत्तं । एतो अंतमुत्तं किट्टीओ करेदि । अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकडुदि । जीवफद्दयपदेसाणं असंखेज्जदिभागमो कड्डिज्जदि । अंतमुत्तं किट्टीओ करेदि असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए । जीवपदेसे असंखेज्जगुणाए सेडीए ओकडदि । किट्टीदो किट्टीए गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । किट्टीओ सेडीए असंखेज्जदिभागो, अपुव्वफद्दयाणमसंखेज्जदिभागो । किट्टिकरणे णिट्ठिदे तदो से काले अपुव्वफद्दयाणमसंखेज्जदिभागो णस्सेदि । अंतोमुहुत्तं किट्टिग * दजोगो सुमकिरियं अपडिवादि झाणं झायदि । किट्टीणं चरिमसमए असंखेज्जा भागा सिंति | जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउअसमाणि कम्माणि ( करेदि ) । तदो अंतोमुहुत्तं सेलेसि पडिवज्जदि, समुच्छिष्ण किरियं अणियट्टिझाणं ज्ञायदि । सेलेसि पडिवज्जदि किमपि सिद्धिं गच्छदि । एवं पच्छिमक्खंधे त्ति समत्तमणुओगद्दारं । अप्पा हुए ति जमणुओगद्दारं एत्थ महावाचयखमासमणा संतकम्ममग्गणं करेदि । उत्तरपयडिसंतकम्मेण दंडओ । तं जहा- सव्वत्थोवा आहारसंतकम्मिया । सम्मतस्स संतकम्मिया असंखेज्जगुणा । सम्मामिच्छत्तस्स संतकम्मिया विसेसाहिया । * प्रतिषु 'मोवदृदि' इति पाठ: । ] अ-काप्रत्योः '- भागो', ताप्रती - भागो प्रतिषु ' कदं' इति पाठः । अ-काप्रत्योः 'पडिवादि ' इति पाठः । ' संति' इति पाठ: । अ-का- प्रत्यो: 'संतकम्मं मग्गणं ' इति पाठः । आहार० संतकम्मिय' इति पाठः । * ( पूर्वस्पर्धकों के असंख्यातवें भाग होते हैं । इस प्रकार अपूर्वस्पर्धककरण समाप्त हुआ । यहां अन्तर्मुहूर्त कृष्टियोंको करता है - अपूर्वस्पर्धकोंकी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है । जीवस्पर्धक प्रदेशों के असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है । अन्तर्मुहूर्त काल असंख्यातगुणी हीन श्रेणिसे कृष्टियोंको करता है । जीवप्रदेशों का असंख्यातगुणित श्रेणिसे अपकर्षण करता है । कृष्टिसे कृष्टिके गुणकारका प्रमाण पत्योपमका असंख्यातवां भाग है । कृष्टियां श्रेणिके असंख्यातवें भाग और अपूर्वस्पर्धकोंके असंख्यातवें भाग मात्र होती हैं । कृष्टिकरणके समाप्त होनेपर तदनन्तर कालमें अपूर्वस्पर्धकों ( और पूर्व - स्पर्धकों ) के असंख्यातवें भाग का नाश करता है । अन्तर्मुहूर्त कृष्टिगतयोग होकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यानको ध्याता है । कृष्टियोंके अन्तिम समय में असंख्यात बहुभाग नष्ट हो जाता है योगके निरुद्ध हो जानेपर कर्मोंको आयुके बराबर करता है । तलश्चात् अन्तर्मुहूर्त में शैलेश्यभावको प्राप्त होता है व समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति ध्यानको ध्याता है । शैलेश्यभावको प्राप्त हुआ कि कर्मोंसे रहित होकर सिद्धिको प्राप्त होता है। इस प्रकार पश्चिस्कन्ध अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । जो 'अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है यहां महावाचक क्षमाश्रमण ( नागहस्ती ) सत्कर्ममार्गणाको करते हैं । उत्तरप्रकृतिसत्कर्मदण्डककी प्ररूपणा इस प्रकार है- आहारसत्कमिक सबसे स्तोक हैं । सम्यक्त्व के सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं I 1 ५७९ ( णस्सदि ) ।' इति पाठ: । अप्रतौ 'णसति', काप्रती अ-काप्रत्यो: ' सव्वत्थोवं Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० ) छक्खंडागमे संतकम्म मणुस्साउअस्स संतकम्मिया असंखेज्जगुणा। णिरयाउअस्स संतकम्मिया असंखेज्जगुणा। देवाउअस्स संतकम्मिया असंखेज्जगुणा। देवगइसंतकम्मिया असंखेज्जगुणा । णिरयगइसंतकम्मिया विसेसाहिया। वेउब्विय० विसेसाहिया। उच्चागोद० अणंतगुणा । मणुसगइ. विसे । तिरिक्खाउअस्स० विसे० । अणंताणुबंधिउक्क० ( विसे० ) । मिच्छत्त० विसे० । अटकसायाणं० विसे० । थीणगिद्धितिय० तिरिवखगइणामाए. विसे । णवंसयवेद० विसे० । इत्थि० विसे । छण्णोकसाय० विमे० । पुरिस० विसे०। कोहसंजल. विसे० । माणसंज. विसे० । मायासंज. विसे० । लोभसंज० विसे० । णिद्धा पयलाणं विसे० । पंचणाणावरण-चउदसणावरण-पंचतराइयाणं तुल्ला विसेसाहिया । ओरालिय-तेजा-कम्मइय-अजसकित्ति-णीचगोदाणं विसे० । असादस्स० विसे । साद० विसे० । जसकित्तीणं (?) विसे । एवमोघदंडओ समत्तो। मोहणीयस्स पयडिट्ठाणसंतकम्मेण सव्वत्थोवा पंचसंतकम्मिया । एक्किस्से विसेसाहिया । दोण्हं विसेसा० । तिण्हं विसे० । एक्कारसण्हं विसे०। बारसण्हं विसे। चउण्हं० तेरसण्हं संखेज्जगुणं । वावीसाए संखे० गुणं । तेवीसाए संखे० गुणं। मनुष्यायुके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं। नारकायुके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं। देवायुके सत्कमिक असंख्यातगुणे है । देवगति नामकर्मके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं। नरकगति नामकर्मके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। वैक्रियिकशरीर नामकर्मके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। उच्चगोत्रके सत्कमिक अनन्तगुणे हैं। मनुष्यगति नामकर्मके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। तिर्यगायुके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। अनन्तानुबन्धिचतुष्कके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। आठ कषायोंके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक और तिर्यग्गति नामकर्मके समिक विशेष अधिक है। नपुंसकवेदके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । स्त्रीवेदके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। छह नोकषायोंके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। पुरुषवेदके सत्कत्मिक विशेष अधिक हैं। संज्वलन क्रोधके सत्कत्मिक विशेष अधिक हैं। संज्वलन मानके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। संज्वलन मायाके सत्ककिम विशेष अधिक हैं। संज्वलन लोभके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। निद्रा और प्रचलाके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायके सत्कमिक तुल्य व विशेष अधिक हैं। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, अयशकीर्ति और नीचगोत्रके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। असातावेदनीयके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। सातावेदनीयके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। यशकीतिके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ। मोहनीयके प्रकृतिस्थानसत्कर्मकी अपेक्षा पांच प्रकृतिरूप स्थानके सत्कमिक सबमें स्तोक हैं। एकके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। दोके विशेष अधिक हैं । तीनके विशेष अधिक हैं । ग्यारहके विशेष अधिक हैं। बारहके विशेष अधिक हैं। चारके विशेष अधिक हैं। तेरहके संख्यातगुणे है । * अ-काप्रत्यो!पलभ्यते वाक्यमिदम् । ४ अका-प्रत्योः 'पंचसम्मत्तधम्मिया', तापतो 'पंचसम्मतधम्मिय (पंचसंतकम्मिया)' इति पाठ:1 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा बहुअणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसंतक्रम्मदंडओ ( ५८१ पंचवीसाए असंखे० गुणं । एक्कवीसाए असंखे० गुणं । चउवीसाए असंखे० गुणं । अट्ठवीसाए असंखे० गुणं । छव्वीसाए अगंगुणं । एवमोघदंडओ समत्तो । उत्तरपयडिट्ठिदिसंतकम्मेण जहण्णेण पंचणाणावरण- चउदसणावरण-सादासादसम्मत्त-लोहसंजलण - इत्थि - णवुंसयवेद. आउच उक्क मणुसगइ जस कित्ति- उच्चागोदपंचतराइयाणं जहण्णट्ठिदी थोवा । जट्ठिदी तत्तिया* चेव । जत्तिया ( णिद्दाणिद्दा - ) पलापयला थीणगिद्धि- णिद्दा- पयला-मिच्छत्त सम्मामिच्छत्त- बारसकसाय - णिरयइ-तिरिक्खगइ - देवगड पंचसरीर अजसकित्ति-णीचागोदाणं जहण्णिया द्विदी तत्तिया चेव । जट्ठिदी संखेज्जगुणा । मायासंज० जह० असंखेज्जगुणा । माणसंजल० विसे० । कोहसंज० विसे० । पुरिसवेद० संखे० गुणा । छष्णोकसायणं संखे० गुणा । जट्टिदी विसे । एवमोघदंडओ चेव । उत्तरपयडिअणुभागसंतकम्मेण जहण्णेण सव्वमंदाणुभागं लोहसंजलणं । माया ० अतगुणा | माण अनंतगुणं । कोह० अनंतगुणं । विरियंतराइय० अनंतगुणं । सम्मत्त० अनंतगुणं । चवखु अनंतगुणं । सुदाणुभागं अनंतगुणं । मदिणाण अनंतगुणं । अक्खु अनंतगुणं । ओहिणाण० अनंतगुणं । ओहिदंसण० अनंतगुणं । ० बाईस संख्यातगुणे हैं । तेईसके संख्यातगुणे हैं । सतावीस के असंख्यातगुणे हैं । इक्कीसके असंख्यातगुणे हैं। चौबीसके असंख्यातगुणे हैं । अट्ठाईसके असंख्यातगुणे हैं । छब्बीसके अनन्तगुणे हैं । इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ । उत्तरप्रकृतिस्थितिसत्कर्मकी अपेक्षा जघन्यसे पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता व असातावेदनीय, सम्यक्त्व, संज्वलन लोभ, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार आयु कर्म, मनुष्यगति, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय; इनकी जघन्य स्थिति स्तोक है । ज-स्थिति उतनी मात्र ही है । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, नरकगति, तिर्यग्गति, देवगति, पांच शरीर, अयशकीर्ति और नीचगोत्र ; इनकी जघन्य स्थिति उतनी मात्र ही है । ज-स्थिति संख्यातगुणी है। संज्वलन मायाकी जघन्य स्थिति असंख्यात - गुणी है । संज्वलन मानकी जघन्य स्थिति विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोधकी जघन्य स्थिति विशेष अधिक है । पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी है। छह नोकषायोंकी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी है । इन सबकी जस्थिति क्रमशः विशेष अधिक है। इस प्रकार ओघदण्डक ही है । उत्तरप्रकृतिसत्कर्मकी अपेक्षा जघन्यत: सबसे मद अनुभागवाला संज्वलन लोभ है । संज्वलन माया उससे अनन्तगुणी है । संज्वलन मान अनन्तगुणा है । सज्वलन क्रोध अनन्तगुणा है । वीर्यान्तराय अनन्तगुणा है । सम्यक्त्व प्रकृति अनन्तगुणी । चक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है। श्रुतज्ञानावरण अनन्तगुणा है । मतिज्ञानावरण अनन्तगुणा है । अचक्षुदर्शनावरण अनन्तगुणा है । अवधिज्ञानावरण अनन्तगुणा है । अवधिदर्शनावरण अनन्तगुणा D प्रतिषु सम्मत्त मणुसग इणामाए इत्थि ' इति पाठः । तातो' तत्तिय'ए' इति पाठः । अ-काप्रत्यो: 'जत्तिया पयलापयला', ताप्रती 'जत्तिया ( णिद्दाणिद्दा ) पयलापयला' इति पाठ: । * अप्रतो' मंदाणुभागं', काप्रती ' मंदमंदाणुभाग, ताप्रती ' मद०' इति पाठः । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं O परिभोग० अणंतगुणं । ( भोग० अनंतगुणं । - ) लाहंतराइय० अनंतगुणं । दाणंत'राइय० अनंतगुणं । विरियंतराइय० अनंतगुणं । ( पुरिस० अनंतगुणं । ) इत्थि - वेद० अणंतगुणं । णवुंस० अनंतगुणं । मणपज्ज० अनंतगुणं । सम्मामिच्छत्त० अणंतगुणं । केवलणाण० केवलदंसणावरण० अनंतगुणं । पयला० अनंतगुणं । णिद्दा० अनंतगुणं । हस्स० अणंतगुणं । रदि० अनंतगुणं । दुगंछा० अनंतगुणं । भय० अनंतगुणं । सोग० अनंतगुणं । अरदि० अनंतगुणं । अणंताणुबंधिमाण० अनंतगुणं । कोह० विसे० । मायाए० विसे० । लोह० विसे० । वेउ० अनंतगुणं । तिखिखाउ० अनंतगुणं । तिरिक्खाणुपुवि० अनंतगुणं । णिरयगइ० अनंतगुणं । मणुसगइ० अनंतगुणं । देवगइ० अनंतगुणं । उच्चागोद० अनंतगुणं । असाद० अनंतगुणं । निरयाउ० अनंतगुणं । ओरालिय० अनंतगुणं । तेज० अनंतगुणं । कम्मइय० अनंतगुणं । तिरिक्खइ० अनंतगुणं । णीचागोद० अनंतगुणं । अजस कित्ति ० अनंतगुणं । अणादेज्ज० अनंतगुणं । पयलायपयला अनंतगुणं । णिद्दाणिद्दा० अनंतगुणं । थोणगिद्धि० अनंतगुणं अपच्चक्खाणमाण अनंतगुणं । कोह० विसे० । माया ० विसे० । लोह० विसे० । मिच्छत्त० अनंतगुणं । जसकित्ति० अनंतगुणं । एवमोघदंडओ समत्तो । 1 है । परिभोगान्तराय अनन्तगुणा है । ( भोगान्तराय अनन्तगुणा है। ) लाभान्तराय अनन्तगुणा है । दानान्तराय अनन्तगुणा है । वीर्यान्तराय अनन्तगुणा है । पुरुषवेद अनन्तगुणा है । स्त्रीवेद अनन्तगुणा है । नपुंसकवेद अनन्तगुणा है । मन:पर्ययज्ञानावरण अनन्तगुणा है । सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तगुणा है । केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण अनन्तगुणे हैं । प्रचला अनन्तगुणी है । निद्रा अनन्तगुणी है । हास्य अनन्तगुणा है । रति अनन्तगुणी है । जुगुप्सा अनन्तगुणी है । भय अनन्तगुणा है। शोक अनन्तगुणा है । अरति अनन्तगुणी हैं । अनन्तानुबन्धी मान अनन्तगुणा है । अनन्तानुबन्धी क्रोध विशेष अधिक है । अनतानुबन्धी माया विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी लोभ विशेष अधिक है । वैक्रियिकशरीर अनन्तगुणा है । तिर्यगायु अनन्तगुणी है । तिर्यगानुपूर्वी अनन्तगुणी है । नरकगति अनन्तगुणी है । मनुष्यगति अनन्तगुणी है । देवगति अनन्तगुणा है । उच्चगोत्र अनन्तगुणा है । असातावेदनीय अनन्तगुणा है । नारका अनन्तगुणी है । औदारिकशरीर अनन्तगुणा है । तैजसशरीर अनन्तगुणा है । कार्मणशरीर अनन्तगुणा है । तिर्यग्गति अनन्तगुणी है । नीचगोत्र अनन्तगुणा है । अयशकीर्ति अनन्तगुणी है । अनादेय अनन्तगुणा है । प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी है । निद्रानिद्रा अनन्तगुणी है | स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणी है । अप्रत्याख्यानावरण मान अनन्तगुणा है । क्रोध विशेष अधिक है । माया विशेष अधिक है । लोभ विशेष अधिक है। मिथ्यात्व अनन्तगुणा है । यशकीर्ति अनन्तगुणी है । इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ । कात 'परिभोगांत राइय० अनंतगुणं । लाहंतराइयं अनंतगुणं । दाणंतराद्दय अनंतगुणं । वीरियंतराइय• गुणं । इत्थवेद ', ताप्रती 'परिभोग०लाहं तराइय。 वीरियंतराइय० इत्थिवेद ' इति पाठ: । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसंतकम्मदंडओ उत्तरपयडिसंतकम्मेण उक्कस्सपदेसग्गेण सम्वत्थोवं अपच्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेसग्गं । (कोहे) विसे० । मायाए विसे०। लोहे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे०। अणंताणुबंधिमाणे विसे० । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । सम्मामिच्छत्ते विसे० । सम्मत्ते विसे । मिच्छत्ते विसे० । केवलणाणावरगे विसे०। पयला० विसे०। णिद्दा० विसे०। पयलापयला० विसे० । णिहाणिद्दा० विसे० । थीणगिद्धि० विसे० । केवलदंसणावरण विसे०। णिरयाउअम्मि अणंतगुणो । देवाउअम्मि तत्तिया चेव । तिरिक्खाउअम्मि विसे० । मणस्साउअम्मि विसे० । णिरयगइ० असंखे० गुणा । आहार. असंखे० गुणा । ओरालिय० विसे० । तेज० विसे० । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति० संखे० गुणा । देवगइ० विसे । मणुसगइ० विसे० । हस्स० संखेज्जगुणं । रदि० विसेसाहियं । इत्थि० संखे० गुणं । सोग० विसे० अरदि० विसे०। णवूस० विसे। दुगुंछ ० विसे० । भय० विसे । एवं विसेसाहिय कमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति । ओहिणाण विसे० । मणपज्जव० विसे० । ओहिदसण. विसे०। चक्खु० उत्तरप्रकृतिसत्कर्म रूप उत्कृष्ट प्रदेशाग्रकी अपेक्षा अप्रत्याख्यानावरण मानमें उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक हैं। क्रोध में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। क्रोध में विशेष अधिक है। माया में विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी मानमें विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है । सम्यग्मिथ्यात्वमें विशेष अधिक हैं। सम्यक्त्व में विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रामें विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । नारकायुमें अनन्तगुणा है। देवायुमें उतना ही है । तिर्यगायुमें विशेष अधिक है । मनुष्यायुमें विशेष अधिक है। नरकगतिमें असंख्यातगुणा है। आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीरमें विशेष अधिक है। तैजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीर्तिमें संख्यातगुणा है। देवगति में विशेष अधिक है। मनुष्यगतिमें विशेष अधिक है । हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है। शोकमें विशेष अधिक है। अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है । जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेषाधिक विशेषाधिकक्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये। अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें * ताप्रती नोपलभ्यते वाक्यमिदम् । ५ अ-काप्रत्योः · भय० विसे० एवं विसंसाहिया २ एवं विसे साहिया-', ताप्रतो भय० विसे, विसेसाहिओ, एवं विसेसाहिय-' इति पाठः । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ ) छक्खंडागमे संतकम्म विसे । अचक्खु० विसे० । कोहसंजल. विसे० । माणसंज. विसे० । मायासंज विसे । जसकित्ति० विसे० । णीचागोद० विसे० । उच्चागोद० विसे० । लोहसंजणण. विसेसाहियं । एवमोघदंडओ समत्तो।। णिरयगदीए उक्कस्से सम्मामिच्छत्ते० पदेसग्गं थोवं । अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणं । कोहे. विसे०। मायाए विसे०। लोहे विसे०। पच्चक्खाणमाणे बिसे। कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । अणंताणुबंधिमाणे विसे०। कोहे विसे। मायाए विसे० । लोहे विसे० । सम्मत्ते विसे० । मिच्छत्ते विसे० । केवलणाण० विसे० । पयला० विसे० । णिद्दा विसे । पयलापयला. विसे० । णिहाणिद्दा० विसे० । थीणगिद्धि० विसे । केवलदसण. विसे० । अण्णदरे आउए अगंतगुणं । णिरयगइ० असंखे०गुणं । आहार० असंखे०गुणं । जसकित्ति० संखे० गुणं । वेउविय० विसे। ओरालिय०* विसे। तेज. विसे। कम्मइय० विसे। अजसकित्ति० संखे० गुणं । देवगइ० विसे०। तिरिक्खगइ० विसे० । मणुसगइ० विसे०। हस्स० संखेज्जगुणं । रदि० विसे०। साद० संखे० गुणं । इत्थि० संखेज्जगुणं । सोग० संखे० गुणं । विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक है । संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। यशकीर्तिमें विशेष अधिक है। नीचगोत्रमें विशेष अधिक है। उच्चगोत्रमें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभम विशेष अधिक है। इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ। नरकगतिके उत्कर्षसे सम्यग्मिथ्यात्व में स्तोक प्रदेशाग्र है। अप्रत्याख्यानावरण मान में असंख्यातगुणा है । क्रोध में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभ में विशेष अधिक है . अनन्तानुबन्धी मानमें विशेष अधिक है । क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है । सम्यक्त्वमें विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अन्यतर आयुकर्ममें अनन्तगुणा है। नरकगति नामकर्ममें असंख्यातगुणा है। आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है। यशकीति में संख्यातगुणा है। वैक्रियिकशरीरमें विशेष अधिक है। औदारिकशरीरमें विशेष अधिक है। तेजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीर्तिमं संख्यातगुगा है। देवगतिमें विशेष अधिक है। तिर्यग्गतिमें विशेष अधिक है। मनुष्यगतिमें विशेष अधिक है। हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें ४ प्रतिषु 'सम्मामिच्छते' इति पाठः । ताप्रतौ ' अणंतगणा' इति पाठः । अप्रढो विदिय',का-मप्रत्योः 'बादिय०',ताप्रतौ ' वेदिय' इति पाठः । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसंतकम्मदंडओ ( ५८५ अरदि*० विसे० । णवंसय. विसे० । दुगुंछ विसे । भय० विसे । पुरिस० विसे०। माणसंजल० विसे०। कोहे० विसे । मायाए विसे० । लोहे विसे । पुणो पुणो विसेसाहियं, एवं विसेसाहियकमेण णेदवं जाव विरियंतराइं ति । मणपज्जव० विसे० । ओहिणाण. विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे । ओहिदसण. विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे० । सादे० संखे० गणं । उच्चागोदे० विसे० । णीचागोदे० विसे० । एवं णिरयगइदंडओ समत्तो। जहण्णेण पदेससंतकम्मेण सम्मत्ते* थोवं संतकम्मं । सम्मामिच्छत्ते असंखेज्जगुणो। अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणं । कोहे विसे० । मायाए० विसे० । लोहे विसे० । मिच्छत्ते असंखे० गणं । अपच्चवखाणमाणे असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे । पच्चक्खाणमाणे विसेसाहिओ। कोहे विसे०। मायाए विसे०। लोहे० विसे० । पयलापयला० असंखे० गुणा। णिहाणिद्दा० विसे० । थोणगिद्धि० विसे० । केवलणाण० असंखे० गुणं । पयला. विसे० । णिद्दा० विसे० । केवलदसण० संख्यात गुणे संख्यातगुणा है। शोक में संख्यातगुगा है। अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भय में विशेष अधिक है। पुरुषवेदमें विशेष अधिक है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है। पुनः पुनः विशेष अधिक, इस प्रकार विशेष अधिक क्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरण में विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रमें विशेष अधिक है। नीचगोत्र में विशेष अधिक है । इस प्रकार नरकगतिदण्डक समाप्त हुआ। जघन्य प्रदेशसत्कर्मकी अपेक्षा सत्कर्म सम्यक्त्वमें स्तोक है। सम्पग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरण में असंख्यातगुणा है । प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है । * अप्रती 'रदि०', काप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः ताप्रतौ' (अ) रदि.' इति पाठः । ४ अप्रतौ 'एव णिरयाउणिरयगई-', काप्रती णिरयाउणिरयगई-', ताप्रती 'णिरयाउ० । णिग्यगइ-' Jain Education Inte इति पाठः। * प्रतिषु 'सम्मत्त' इति पाउ: A Personal use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ) छक्खंडागमे संतकम्म विसे० । ओहिणाण. असंखे० गुणं । ओहिदंसण. विसे० । जिरयगइ० असंखे० गुणं । देवगइ० असंखे० गुणं । वेउध्विय० संखे० गुणं । आहार० असंखे० गुणं । मणुसगइ० संखे० गुणं । उच्चागोद० संखे० गुणं । णिरयाउअम्मि असंखे० गुणं । देवाउअम्मि विसेसाहियं । तिरिक्खाउअम्मि विसे० । मणुस्साउअम्मि विसे० । कोहसंजलण असंख० गुणं । माणसंजल० विसे० । पुरिस० विसे० । मायासांजल० विसे० । तिरिवख गइ० असंखे० गुणा । इत्थि० अखे० गुणा। णवूस० विसे० । णीचागोद० असंखेज्जगुणं । ओरालिय० असंखे० गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । तेज० विसे० । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति० खेज्जगुणं । हस्स० संखे० गुणं । रदि० विसे०। सादे संखे० गुणं । सोगे संखे० गुणं । अरदि० विसे०। दुगुंछ० विसे०। भय० विसे० । लोहसंजलणं विसेसाहियं । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति । मणपज्जव० विसेसाहियं । सुद० विसे०। मदि० विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु विसे० । असादे संखेज्जगुणं । एवमोघदंडओ समत्तो। णिरयगदीए सव्वत्थोवं सम्मत्ते जहण्णयं पदेसगं संतकम्मं । सम्मामिच्छत्ते असंखेज्जगुणं । अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणं । कोहे विसे० । मायाए विसे०। लोहे केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें असंख्यातगुणा है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। नरकगतिमें असंख्यातगुणा है। देवगतिमें असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीर में असंख्यातगुणा है । आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है । मनुष्यगतिमें संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है। नारकायुमें असंख्यातगुणा है। देवायुमें विशेष अधिक है। तिर्यगायुमें विशेष अधिक है। मनुष्यायुमें विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोधमें असंख्यातगुणा है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। पुरुषवेदमें विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है । तिर्यग्गति में असंख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें असंख्यातगुणा है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। नीचगोत्रमें असंख्यातगुणा है। औदारिकशरीरम असंख्यातगुणा है। यशकीतिमें असंख्यातगुणा है। तेजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीर्तिमें संख्यातगुणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। शोकमें संख्यातगुणा है। अरतिमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेषाधिक क्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये। आगे मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ। नरकगतिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म सम्यक्त्व प्रकृतिमें सबसे स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोध में विशेष अधिक है। 3 ताप्रती 'अणंतगुणा' इति पाठः । - Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसंतकम्मदंडओ । ५८७ विसे० । अचक्खु० असंखे० गुणं । पयलापयला० असंखे० गणं । णिद्दाणिद्दा० विसे०। थीणगिद्धि० विसे० । अपच्चक्खाणमाणे० असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए विसे०। लोहे विसे । पच्चक्खाणमाणे विसे० । (कोहे विसे० ।) मायाए विसे । लोहे विसे० । केवलणाण. विसे० । पयला० विसे० । णिद्दा० विसे०। केवलदंसण० विसे० । आहार० अणंतगुणं । णिरयाउअम्मि असंखे० गुणं । देवगदीए असंखे० गुणं । मणुसगई० असंखे० गणं । तिरिक्खगई० संखे० गुणं । णिरयगई० संखे० गुणं । उच्चागोद० संखे० गुणं * । इत्थि० संखे० गुणं । णqस० संखे० गुणं । णी वागोद० संखे० गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । ओरालिय० संखे० गुणं। तेज. विसे० । कम्मइय० विसे । अजसकित्ति० संखे०० गुणं । पुरिस० संखे० गुणं । हस्स०संखे० गुणं । रदि० विसे० सादे० संखे० गुणं । सोगे० संखे० गुणं । अरदि०विसे०। दुगुंछ ० विसे । भय विसे० । माणसंजलण विसे० । कोहसंज. विसे० । मायाए विसे० । लोहसंजलण विसे० । दाणंतराइय० विसे० । लाहंतराइय० विसे० । भोगंतराइय० विसे । परिभोगंतराइय० विसे० । विरियंतराइय. विसे० । मणपज्जव० विसे० । मायामें विशेष अधिक है। लोभ में विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें असंख्यातगुणा है। प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगणा है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धिमें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मान में असंख्यात गुणा है। क्रोध में विशेष अधिक है। मायाम विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। ( क्रोधमें विशेष अधिक है । ) मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। आहारकशरीरमें अनन्तगुणा है। नारकायुमें असंख्यातगुणा है। देवगति में असंख्यातगुणा है। मनुष्यगतिमें असंख्यातगुणा है। तिर्यग्गतिमें संख्यात गुणा है। नरकगतिमें संख्यातगुणा है। उच्चगोत्र में संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है। नपुंसकवेदमें संख्यातगुणा है। नीचगोत्रमें संख्यातगुणा है। यशकीतिमें असंख्यातगुणा है। औदारिकशरीरमें संख्यातगुणा है। तैजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीर्तिमें संख्यातगुणा है। पुरुषवेदमें संख्यातगुणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। शोकमें संख्यातगुणा है । अरतिमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। संज्वलन मान में विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभ में विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। लाभान्तरायमें विशेष अधिक है। भोगान्त राय में विशेष अधिक है। परिभोगान्तरायमें विशेष अधिक है। वीर्यान्त राय में विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरण में * अतोऽने प्रतिषु 'तिरिक्तगई. असंखे. गणं ' इत्येदधिकं वाक्यमपलभ्यते । ४ अप्रतौ 'अपंखे० ' इति पाठः । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८) छक्खंडागमे संतकम्म ओहिणाण० विसे० ।सुद० विसे । मदि० विसे० । ओहिदसण० विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे० । असादे० संखेज्जगुणा । एवं णिरयगइदंडओ समत्तो । तिरिक्खगदीए सव्वत्थोवं सम्मत्ते जहण्णपदेससंतकम्मं । सम्मामिच्छत्ते असंखेज्जगुणं । अणंताणुबंधिमाणे असंखेज्जगुणं । कोहे विसे । मायाए विसे । लोहे विसे० । मिच्छत्ते असं० गुणं । पयलापयला० असंखे० गुणं । णिहाणिद्दा० संखे० गुणं । थीण-- गिद्धि० विसे० । अपच्चक्खाणमाणे० असंखे० गुणं । कोहे. विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोहे विसे । मायाए विसे० । लोहे. विसे। ओहिणाण. विसे० । केवलणाण० विसे० । पयला० विसे । णिद्दा० विसे० । केवलदसण. विसे०। णिरयगदीए अणंतगुणं । देवगदीए असंखे० गुणं । वेउब्विय० संखे० गुणं । आहार० असंखे० गुणं । मणुसगदीए संखेज्जगणं । उच्चागोद० संखे० गुणं । तिरिक्खाउअम्मि असंखे० गुणं । मणुस्साउअम्मि असंखे० गुणं । देवणिरयाउअम्मि असंखे० गुणं । ओरालिय० असंखे० गुणं । तिरिक्खगदीए संखे० गुणं । इत्थि० संखे० गुणं । णवंसय० संखे० गुणं । पुरिस० विसे० । जसकित्ति० असंखे० गुणं । तेज० संखे० गुणं । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति० संख० गुणं । हस्स० विसे० । रदि० विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञातावरण में विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। इस प्रकार नरकगतिदण्डक समाप्त हुआ। तिर्यग्गतिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म सम्यक्त्व में सबसे स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें असंख्यात गुणा है। प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है । निद्रानिद्रामें संख्यातगुणा है । स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है। माया में विशेष अधिक है। लोभ में विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। क्रोध में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। नरकगति में अनन्तगुणा है। देवगतिमें असंख्यातगुणा है। वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है। मनुष्यगतिमें संख्यातगणा है। उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है। तिर्यगायुमें असंख्यातगुणा है। मनुष्यायुम असंख्यातगुणा है। देवायु और नारकायुमें असंख्यातगुणा है। औदारिकशरीरमें असंख्यातगुणा है । तिर्यग्गतिमें संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है । नपुंसकवेदमें संख्यातगुणा है । पुरुषवेदमें विशेष अधिक है। यशकीर्तिमें संख्यातगुणा है। तेजसशरीरमें संख्यातगुणा है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीति में संख्यातगुणा है। हास्यमें विशेष अधिक Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसंतकम्मदंडओ ( ५८९ विप्से० । सादे संखे० गुणं । सोगे संखे० गुणं । अरदि० विसे० । दुगुंछ० विसे० । भय० विसे० । माणसंजल. विसे० । कोहसंज० विसे । मायासंजविसे०। लोहसं० विसे० । दाणंतराइय० विसे० । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति । मणपज्जव० विसे० । ओहिणाण. विसे० । सुदणा० विसे । मदि० विसे० । ओहिदंसण० विसे० । *अचक्खु० विसे । चक्खु०विसे०। असादे०संखेज्जगुणं । एवं तिरिक्खगइदंडओ समत्तो। देवगदीए जहण्णेण सम्मत्ते पदेससंतकम्मं थोवं । सम्मामिच्छत्ते पदेससंतकम्मं असंखें ज्जगुणं । अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणं । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । मिच्छत्ते असंखे० गुणं । पयलापयला० असंखे० गुणं । णिद्दाणिद्दा० विसे० । थीणगिद्धि०विसे० । अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणं । कोहे विसे ०। मायाए विसे० । लोहे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । केवलणाण. विसे० । पयला० विसे० । णिहा० विसे० । केवलदसण. विसे० । आहार० अणंतगुणं । देवाउअम्मि असंखे० गुणं । तिरिक्ख-मणुसाउअम्मि असंखे० गुणं । णिरयगदीए असंखेज्जगुणं । तिरिक्खगदीए असंखे० गुणं । णवंस० है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीय में संख्यातगणा है । शोकमें संख्यातगुणा है। अरतिमें विशेष अधिक है । जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेषाधिकक्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये। आगे मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरण में धिक है। चक्षदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें संख्यातगणा है। इस प्रकार तिर्यग्गतिदण्डक समाप्त हुआ। देवगतिमें जघन्यसे प्रदेशसत्कर्म सम्यक्त्वमें स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है । प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धिमें विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। क्रोघम विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । प्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रामें विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । आहारकशरीरमें अनन्तगुणा है । देवायुमें असंख्यातगुणा है। तिर्यगायु और * ताप्रती नास्तीदं वाक्यम् । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० ) छक्खंडागमे संतकम्म असंखे० गुणं । णीचागोदे० संखे० गुणं। इत्थि० असंखेज्जगुणं । देवगईए असंखे० गुणं । वेउव्विय० संखे० गुणं । मणुसगदीए असंखे० गुणं । उच्चागोदे असंखे० गुणं । नसकित्ति० असखे० गुणं । ओरालिय० संखे० गुणं। तेज. विसे० । कम्मइय० विसे । अजसकित्ति० संखे० गुणं । पुरिस० संखे० गुणं । हस्स० संखे० गुणं । रदि० विसे० । सादे० संखे० गुणं । सोगे० संखे० गुणं । अरदीए विसे० । दुगुंछ० विसे । भय० विसे० । माणसंजलण विसे० । कोहसंज० विसे० । मायासंज० विसे० । लोहसं० विसे० । दाणंतराइए विसेसाहियं । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति। केवलणाण विसे० । मणपज्ज० विसे० । ओहिणाण. विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे० । ओहिदसण. विसे० । अचवखु० विसे० । चक्खु० विसे० । असादे० संखे० गुणं । एवं देवगइदंडओ समत्तो । मणुसगदीए सव्वत्थोवं सम्मत्ते पदेससंतं जहण्णयं । सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणं । अणंताणुबंधिमाणे असंखेज्जगुणं । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । मिच्छत्ते असंखे० गुणं । अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणं । कोहे विसे । मायाए विसे० । लोहे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोहे विसे० । मनुष्यायुमें असंख्यातगुणा है । नरकगतिमें असंख्यातगुणा है। तिर्यग्गतिमें असंख्यातगुणा है । नपुंसकवेदमें असंख्यातगुणा है। नीचगोत्रमें संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें असंख्यातगुणा है । देवगतिमें असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। मनुष्यगतिमें असंख्यातगुणा है। उच्चगोत्रमें असंख्यातगुणा है। यशकीतिमें असंख्यागुणा है। औदारिकशरीरमें संख्यातगुणा है । तैजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीति में संख्यातगुणा है । पुरुषवेदमें संख्यातगुणा है । हास्यमें संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें संख्यातगणा है। शोक में संख्यातगुणा है। अरितमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोधमें विशेष अधिक है । संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेषाधिकक्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । इस प्रकार देवगतिदण्डक समाप्त हुआ। मनुष्यगतिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म सम्यक्त्वमें सबसे स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मान में विशेष अधिक है। क्रोधमें Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसंतकम्मदंडओ ( ५९१ मायाए विसे० । लोहे विसे० । पयलापयला० असंखे० गुणं । णिद्दाणिद्दा० विसे० । थीणगिद्धि० विसे० । केवलणाण. असंखे गुणं । पयला० विसे० । णिद्दा० विसे० । केवलदंसण. विसे० । ओहिणाण. अणंतगुणं । ओहिदंसण० विसे० । णिरयगइ० असंखे० गुणं । देउव्विय० संखे० गुणं । आहार० असंखे० गुणं । मणुसाउअम्मि असंख० गुणं । तिरिवखाउअम्मि असंखे० गुणं । कोहसंजलण० असंखे० गुणं । मायासंज० विमे० । पुरिस० विसे। माणसंज०० विसे० । णिरय-देवाउ अम्मि विसे । तिरिक्खगईए असंखे० गुणं । इत्थि० असंखे० गुणं । गqस० विसे० । णीचागोदे० असंख० गुणं । मणुसगइ० असंखे० गुणं । ओरालिय. असंखे० गुणं । उच्चागोदे० असंखे० गुणं। जसकित्ति० असंखे० गुणं । तेज० संखे० गुणं । कम्मइय० विसे । अजसगित्ति० संखे० गुणं। हस्स० संखे० गुणं । रदि० विसे० । सादे खे० गुणं । सोगे संखे० गुणं । अरदि० विसे० । दुगुंछ० विसे । भय० विसे०। लोहसंजल० विसे०। दाणंतराइय० विसे० । लाहंतराइय० विसे० । भोगतराइय० विसे० परिभोगंतराइय० विसे० । विरियंतरा विशेषअधिक है। माया में विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें असंख्यातगुणा है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें बिशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरणमें अनन्तगुणा है। अवघिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। नरकगतिमें असंख्यातगुणा है। वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है। मनुष्यायुमें असंख्यात गुणा है। तिर्यगायुमें असंख्यातगुणा है। संज्वलन क्रोधमं असंख्यातगुणा है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। पुरुषवेदमें विशेष अधिक है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। नारकायु और देवायुमें विशेष अधिक है। तिर्यग्गतिमें असंख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें असंख्यातगुणा है । नसकवेदमें विशेष अधिक है। नीचगोत्र में असंख्यातगुणा है। मनुष्यगतिमें असंख्यातगुणा है। औदारिकशरीरमें असंख्यातगुणा है। उच्चगोत्रमें असंख्यातगुणा है। यशकीति में असंख्यातगुणा है। तैजसशरीरमें संख्यातगुणा है। कार्मणशरीर में विशेष अधिक है। अयशकीतिमें संख्यातगुणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। शोक में संख्यातगुणा है। अरतिमें विशेष अविक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयम विशेष अधिक है। संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। लाभान्तराय में विशेष अधिक है। भोगान्त रायमें विशेष अधिक है । परिभोगान्त रायम विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायमें विशेष अधिक है । मनःपर्यय * ताप्रती ‘कोह संजलण० असंखे० गुणा। माणसं० विसे । पुरिस० विसे० । मायासंजलण.' इति पाठः । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ ) छक्खंडागमे संतकम्म इय० विसे० । मणपज्जय० विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे० । असादे संखे० गुणं । एवं मणुसगइदंडओ समत्तो।। एइंदिएसु जहण्णण सव्वत्थोवं सम्मत्ते जहण्णपदेससंतकम्मं । सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणं । मिच्छत्ते असंखे० गुणं । अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणं । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणं । कोहे विसे० । मायाए विसे । लोहे विसे । पच्चक्खाणमाणे विसे । कोहे विसे० । मायाए विसेसा०। लोहे । विसे । केवलणाण विसे । पयला. विसे० । णिद्दा० विसे० । पयलापयला० विसे० । णिद्दाणिद्दा० विसे० । थीणगिद्धि० विसे० । केवलदसण० विसे । णिरयगइ० अणंतगुणं । देवगइ० अणंतगुणंवेउविय० संखे गुणं । आहार० असंखे० गुणं । मणुसगइ० संखे० गुणं । उच्चागोदे संखे० गुणं । मणुसाउअम्मि असंखे० गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । ओरालिय० संखे० गुणं । तेज० विसे । कम्मइय० विसे० तिरिक्खगई०संखे० गुणं। अजसकित्ति० विसे०। पुरिस० संखे०गुणं । इत्थि० संखे। गुणं । हस्स० संखे० गुणं । रदि विसे० । सोग० संखे० गुणं । सादे० विसे । ज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । इस प्रकार मनुष्यगतिदण्डक समाप्त हुआ। एकेन्द्रियोंमें जघन्यसे जघन्य प्रदेशसत्कर्म सम्यक्त्वमें सबसे स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वम असंख्यातगुणा है। मिथ्यात्वमें संख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोध में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। क्रोधम विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रानिद्रामे विशेष अधिक है । स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। नरकगतिमें अनन्तगुणा है। देवगतिमें अनन्तगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है। मनुष्यगतिमें संख्यातगुणा है । उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है। मनुष्यायुमें असंख्यातगुणा है । यशकीर्तिमें असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीरमें संख्यातगुणा है। तेजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। तिर्यग्गतिमें संख्यातगुणा है। अयशकीर्तिमें विशेष अधिक है। पुरुषवेदमें संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। शोकम संख्यातगुणा है। सातावेदनीयमें विशेष अधिक है। अरतिमें विशेष ताप्रती नास्तीदं वाक्यम् । ताप्रतौ 'असंखे० गणा' इति पाठः । 8 अस्य स्थाने अ-ताप्रत्यो: 'पदेस.', काप्रती 'पुरिस० ' इति पाठः । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसतकम्म दडओ ( ५९३ अरदि० विसे० । णवंस० विसे० । दुगंछ० विसे० । भय० विसे० । माणसंजल० विसे० । कोह० विसे० । माया० विसे० । लोह० विसे० । दाणंतराइए विमे० । लाहंत० विसे० । भोगंत० विसे० । परिभोगंत० विसे० । विरियंतरा विसे० । मणपज्जव० विसे० । ओहिणाण. विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे० । ओहिदंस० विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्ख० विसे० । असादे संखेज्जगुणं । णीचागोदे जहण्णयं पदेससंतकम्मं विसेसाहियं । एवमेइंदियदंडओ समत्तो। एवं चउवीसदिमअणयोगहारं समत्तं । अधिक है । नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है । भयमें विशेष अधिक है। संज्वलन मान में विशेष अधिक है । संज्वलन क्रोध में विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभ में विशेष अधिक है । दानान्तरायम विशेष अधिक है। लाभान्तरायमें विशेष अधिक है। भोगान्तराय में विशेष अधिक है । परिभोगान्त राय में विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायमें विशेष अधिक है । मन:पर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है । असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । नीचगोत्रमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म बिशेष अधिक है। इस प्रकार एकेन्द्रियदण्डक समाप्त हुआ। इस प्रकार चौबीसवाँ अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाकार-प्रशस्तिः जस्साएसेण + मए सिद्धंतमिदं हि अहिलहुदं . । मह सो एलाइरियो पसियउ वरवीरसेणस्स ।। वंदामि उसहसेणं तिउवणजियबंधवं सिवं संतं । णाणकिरणावहासियसयल-इयर-तम-पणासियं दिळें । २। अरहंता भगवंतो सिद्धा सिद्धा पसिद्धयायरिया । साहू साहू य महं पसियंतु भडारया सव्वे । ३ । अज्जज्जणंदिसिस्सेणुज्जुवकम्मस्स चदसेणस्स । तह णत्तुवेण पंचत्थुहण्णयंभाणुणा मुणिणा। ४ । सिद्धंत-छंद-जोइस-वायरण-पमाणसत्थणिवणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण । ५ । अट्ठत्तीसम्हि सासिय विक्कमरायम्हि एसु संगरमो । पासेसुतेरसीए भावविलग्गे धवलपक्खे । ६ । जगतुंगदेवरज्जे रियम्हि कुंभम्हि राहुणा कोणे । सूरे तुलाए संते 8 गुरुम्हि कुलविल्लए होते । ७ । चावम्हि वरणिवुत्ते सिंधे* सुक्कम्मि में ढिचंदम्मि(?)। कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिआ+ धवला । ८ । वोद्दणरायणरिंदे णरिंदचूडामणिम्हि भुंजते । सिद्धंतगंधमत्थिय गुरुप्पसाएण विगत्ता सा । ९। पुस्तकप्रदातृ-प्रशस्ति; शब्दब्रह्मेति शाब्दर्गणधरमुनिरित्येव राद्धान्तविद्भिः, साक्षात्सर्वज्ञ एवेत्यवहितमतिभिः सूक्ष्मवस्तुप्रणीतौ । यो दृष्टो विश्वविद्यानिधिरिति जगति प्राप्तभट्टारकाख्यः, स श्रीमान् वीरसेनो जयति परमतध्वान्तभित्तन्त्रकारः । १। श्रीचारित्रसमृद्धि मिक्क विजयश्रीकर्मविच्छित्तिपूर्वकज्ञानावरणीयमूलनिर्नाशनं । भूचक्रं बेसकेय्ये संद मुनिवृंदाधीश्वरकुंदकुंदाचार्यर धृतधैर्यरायतेयिनेनाचार्यरोळ् वर्यरो । २। जितमदविगतमलचतुरंगुल चारद्धिनिरतणेगळ्दर्। कीतिगे गुणगणधरर्यतिपतिगणधरार्येनिसि कुंदकुंदाचार्यर् । ३। अवरन्वदोळ् सिद्धांतविदाकरणवेदिगळ् षट्तर्कप्रवद्धि सिद्धिसंस्तुतरवरय्य गृध्रपिच्छाचार्यावर्य्यर् । ४ । धैर्यपरणेगळ्द गांभीर्य गुणोदधिगळु चित्तशमदमयमताप्तर्यरेने गृद्मपिच्छाचार्यरशिष्यर बलाकपिच्छाचार्यर् । ५। गुणनंदिपंडितैनिजगुणनंदिपंडितजनंगळं मेच्चिसि मैगुणद प्रतिष 'जस्स सेसाएण' इति पाठः। . प्रतिषु 'अहिलहंदी' इति पाठः। Oप्रतिष 'अरि हंतपदो' इति पाठः। काप्रतौ 'सामिय' इति पाठः। ४ ताप्रपा (पो) स' इति पाठः। SAR अ-काप्रत्योः 'संत' इति पाठः। * का-ताप्रत्योः ‘सिग्धे', मप्रती 'सिध्ये' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'सूकम्मिणेमिचंदम्पि', ताप्रती 'सृक्कम्मि मि गे चंदम्मि' इति पाठः । . प्रतिष 'समाणिला' इति पाठः । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकप्रदातृ-प्रश (२ पेसरेसेये विद्वद्गणतिलकर् सकलमनींद्ररशिष्यर् । ६। पदार्थदोळर्थशास्रदोळ् जिनागमदोळ् हयतंत्रदोळ् महाचरितपुराणसंततिगळोळ परमागमदोळ पेरर्समंदोरे सरि पाटि पासटि समानमेनळ् कृतविद्य रारेनुत्तिरे बुधकोटि संदरवनीतलदोळ । ७ । गुणनंदि पंडितशिष्यर् विहितविदर्गे सूनुर्वराशिष्यरोळ तत्त्वेच्छर् सिद्धांतपरायणरेणिकेगोळ् केयदि वर्तयो विच्छिन्नानंगेरंबी महिमेयिनेसेदर्वाधिर्यतंतुदारर् स्वच्छर् दिनकरकिरणमेनेगले देवेंद्रसिद्धांतर् । ८ । अंतु नेगर्तेवेत्त वरशिष्यकदंबकदोळ समस्तसिद्धांतमहापयोनिधियेनिसि तडंबरेगं तपोबला-। क्रांतमनोजरागि मदजितरागि पोगत्तवेत्तराशांतभनेटदे कीर्ति वसूनंदिमनींद्ररुदात्तवत्तियं । ९ । उदधिगेकलाधरं पुट्टिदने बतवर्गे शिष्यरादर् गुणदोळोदवे रविचंद्रसिद्धांतदेवरेबर्जगद्विशेषकचरितर् । १० । अंतुदयावनीधरकृतोदयनाद शशांकनिदे शावरिकपराब्धिगित्तु धरातलमंते दुर्णयध्वांतविघातभागिरे तदुद्भवरि सले पूर्णचन्द्रसिद्धांतमुनींद्रनिगदितांतप्रतिशासनं जैनशासनं । ११ । इंदु शरददबेदिंगळे पुदिदुदु देसेदेसयोळेनिप जसदोल्वं ताळिद दामनंदिसिद्धांतदेवरवग्यशिष्यरधिगततत्त्वर् । १२ । शांततेवेत्त चित्तजनोळाद विरोधमिदेत्त निस्पृहर स्वांततेवेत्तकांक्षे परमार्थदोळिंतु नेराळतेवेत्तिदानींतनरिन्मरारेने जन्यजिनेंद्र वीरनंदिसिद्धांतमुनींद्ररे सुरितक्रमदोळ् विपरीतवृत्तरो। १३ । बोधितभब्यरचित्तवर्धमान श्रीधरदेवरेंबरवर्गग्रतनूभवरादरा यशःश्रीधरर्गादशिष्यरवरोळ् नेगळ्दर् मलधारिदेवरु श्रीधरदेवलं । १४ । नतनरेंद्रतिरीटतटाचिंतक्रमर् । अनुवशनागि बर्पनेनगंबुरुहोदरनोदे पूविनं । बिनोलेवसक्के वंदनभवं जलजासन मीनकेतनमनेक तत्तदेवप्रकरकरींद्रमदोद्धतनप्पचित्तजन्मनेतले दोरलमनेमेच्चदरार् मलधारिदेवरं । १५ । श्रुतधरवलित्तिनेमेय्यनोमयं तुरिसुवुदिल्ल निद्दवरमर्गुलनिक्कवुदिल्लवागिलं- । किरुत्तेरेयेबुंदिलु गुवुदिल्ल महेद्रनु नेरे ओण बण्णिसल गुणगणावलियं मलधारिदेवरं । १६ । आ मलधारिदेवमुनिमुख्यर शिष्यरोळग्रगण्यरु वजितकषायक्रोधलोभमानमायारमदजितणेगर्दरिंदुमरीचिगळंदभ यशः श्रीचंद्रकीर्तिमुनिनाथरुदात्तचरित्रवृत्तियं । १७ । मलधारिदेवरिदं बेळगिदुदु जिनेंद्रशासन मुन्नं निर्मलमागि मत्तभीगल बेळगिदपुदु चंद्रकीर्ति भट्टारकरि । १८ । बेळगव कीर्तिचंद्रिके मदूक्तिसुधारसप्रसरित मूर्तियोळ् । बढ्दमल पोदलदसितलांछनमागिरे चंद्रनंदमं तळेदु जनं मनंगोळे दिगंतरविकासितोज्वलि-शुभचंद्रकी तिमुनिनाथरिदें विबुधाभिवंद्यरो । १९ । इंतु प्रसरकिरणारातीय चंद्रकीर्तिमुनींद्रराशांतर्वतितकीर्ति- गळन् मुनिर्वृदवंदितरादरा शांतचित्तर शिष्यरात्तदय दिवाकरणंदि सिद्धांतदेवरिदें जिनागमवाधिपारगरादरो । २० । इतिदावुरिंदिल्लिकेयुदु सिद्धांतवारिधियनलुकदे बंदिरेंदोडानेतु बण्णिसुवेनण्ण दिवाकरणंदिसिद्धांतदेवरखिलागमभक्तर मार्गभं । २१ । तिभसुधांबुप्रचुरपूरनिकरं व्याख्यानघोषं मरुच्चलितोत्तुङतरंगघोषमेनेमिक्कौदार्यदिदोप्पि निर्मलधर्मामतदिदलंकरिसि गंभीरत्वमं ताळदी भूवलयक्केटदे पवित्ररागि नेगळ्दर् सिद्धांतरत्नाकरर् ।२२। अवर अशिष्यर् । मरेद्दुमदोर्मे लौकिकदवार्तेयनाडद केत्तबा गिल्लं तेरेयद भानुवस्तमितमागिरे पोगद मेय्यनौमयुं तुरिसदकुक्कुटासनके सोलद गंडविमुक्तवृत्तियं मरेयदघोरदस्तरतपश्चरितं मलाधारिदेवर । २३ । अवरग्रशिष्यर । श्रीदेशीगणवाधिवर्द्धनकरश्चन्द्रावदातोल्वणः, स्थेयात् श्रीमलधारिदेयमिनः पुत्रः पवित्रो भुवि । सद्धमैकशिखामणिजिनपतेर्भव्यकचिन्तामणिः, स श्रीमान् शुभचन्द्रदेवमुनिप: सिद्धान्तविद्यानिधिः ।१। शब्दाधिष्ठितभूतले परिलसत्तर्कोलससस्तंभके (तर्कोल्लसत्स्तंभके), साहित्यस्फटिकाश्मभित्तिरुचिरे ज्योतिर्मये मण्डले । सद्रत्नत्रयनूत्नरत्नकलशे स्याद्वादहम्य मुदा, यो देवेन्द्रसुराचितैर्दिविषदैस्सद्धिविरेजुस्तु तत् । २ । देवेन्द्रसिद्धान्तमुनीन्द्रपाद-पङ्केजभृङ्गः शुभचन्द्रदेवः । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट यदीयनामापि विनेयचेतोजातं तमो हर्त मलं समर्थः । ३ । परमजिनेश्वरविरचितवर सिद्धान्ताम्बुराशिपारगरेदी । धरे बण्णिसुगुं गुणगणधररं शुभचन्द्रदेवसिद्धान्तिकरं । ४ । श्रीमजिनेन्द्रपदपद्म-परागतुङ्गः, श्रीजनशासनसमुद्गतवाद्धिचन्द्रः । सिद्धान्त शास्त्रविहिताङ्कितदिव्यवाणी, धर्मप्रबोधमुकुरः शुभचन्द्रसूरिः । ५ । चित्तोद्भूतमदेभकन्ददलनप्रोत्कण्ठकण्ठीरवो भव्याम्भोजकुलप्रबोधन कृते विद्वज्जनानन्दकृत् । स्थयात्कुन्दहिमेन्दुनिर्मलयशोवल्लीसमालम्बनस्तम्भः श्रीशुभचन्द्रदेवमुनिपः सिद्धान्तरन्नाकरः । ६ । कुवलयकुलबन्धुध्वस्तमीहातमिस्र विकसितमुनितत्त्वे सज्जनानन्दवृत्ते । विदितविमलनानासत्कलान्वोतमूर्तिः । जीयाच्चिरं शुभमतिशुभचन्द्रो राजवाजतेऽयम् । ७। दिग्दन्तिदन्तान्तरवतिको तिः रत्नत्रयालंकृतचार मूतिः । श्री शुभचन्द्रदेवो भव्याब्जिनी-राजत- ( राजित ) राजहंस: । ८ । श्रीमान् भूपालमौलिस्फुरितमणिगणज्योतिरुद्योतितांघ्रिः, भव्याम्भोजातजातप्रमदकरनिधिस्त्यवतमायामदादि: दृश्यत्कन्दर्पदर्पप्रबलितगिलितस्तूणितश्चार्त्यशश्वज्जीयाज्जनाजभास्वाननुपमविनयो नूतसिद्धान्तदेवः ।९। जीयादसावनुपमं शुभचन्द्रदेवो भावोद्भवोद्भवविनाशनमूलमंत्रः । निस्तन्द्रसान्द्रविबुधस्तुतिभूरिपात्रं त्रैलोक्य-गेहमणिदीपसमानकीतिः । १० । मूर्तिः शमस्य नियमस्य विनूतपात्रं क्षेत्रं श्रुतस्य यशसोऽनघजन्मभूमिः । भूविश्रुतश्रि (श्रु तवतां सुरभूजकल्पानल्पान्युधा निवसताच्छुभचन्द्रदेवः । ११ । स्वस्ति श्री समस्तगुणगणालंकृतसत्य-शोचाचारचारुचरित्र-नय-विनय-सुशीलसम्पन्नेयुं विबुधप्रसन्नेयुं आहाराभय-भैषज्य-शास्रदानविनोदेयुं गुणगणाल्हादेयं जिनस्नपनसमयसमुच्छलितदिव्यगन्धबन्धुरगन्धोदकपवित्रगात्रेयुं गोत्रपवित्रेयं सम्यक्त्वचुडामणियुं मंडलिनाड-श्रीभुजबलगंगपेर्माडिदेवरत्तेयरुमप्पेडवि-देमियक्कंश्रुतपंचमिय नोंत्तुज्जवणेयनाड-बन्नियकेरेयुत्तुङ्गचैत्यालयदाचार्यरुं भुवनविख्यातरुमेनिसिद तम्म गुरुगळ श्रीशुभचन्द्रसिद्धान्तदेवर्गे श्रुतपूजेयं माडिबरेयिसि कोट्टधावलेयं पोस्तक मंगलमहा । श्री। श्रीकुपणं प्रसिपुरमापुरदाणेगवंशवाद्धिशोभाकरमूजितं निखिलसाक्षरिकास्यविलासदर्पणं । नाकजनाथवंद्यजिनपादपयोरुहभृङ्गनेन्दु भू लोकमिदुवणिपुदु जिन्नमनं मनुनीतिमार्गनं ।। जिनपद-पद्माराधाकमनुपमविनयाम्बुराशिदानविनोदं । मनुनीतिमार्गनसतीजनदूरं लौकितार्थदानिग जिन्नं ।: वारिनिधियोळगे मुत्तं नेरिदवं कोंडुकोरेदु वरुणं मुददि । भारतियकोरळोळिविकदहारमननुकरिसलेसेवरेवों जिन्नं ।। श्रीधवलं समाप्तम् । ENTERNA SSSSSES Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अवतरण-गाथासूची क्रमसंख्या एना गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां | क्रमसंख्या गाथा पष्ठ अन्यत्र कह १४ ७२)अगुरुलघ-परघादा १३ २५(१४-९)ण य कुणइ पक्खवायं ४९२गो. जी. ५१६ २(२४-२) अत्ता मवृत्ति परिभोग- ५७५ २६(१४-५)" य पत्तियइ परं सो ४९१, ५१२ ३(८-१४) अभावैकान्तपक्षेऽपि ३० आ. मी १२ | २७ १४-३) णिहावच गबहुलो , " ५१° ४(८-१) असदकरणादुपादान- १७ सां. का. ९ २८(७-५) दाणं तराइयं दाणे १४ ५४८-२०)आउअभागो थोवो ३५।। ६(२४-१) आहारे परिभायं २९(८-१०)न सामान्यात्मनोदेति २८ आ. मी. ५७ ७ १२-३) उगुदाल तीस सत य ४१० गो क. ४१८| ३०८-२)नित्यत्वकान्तपक्षेऽपि १९ , ३७ ८(९-४) उदए संकम-उदए २७६ , ४४०३१ (१३-२)पम्मा पउमसवण्णा ४८५ ९(१२-१) उज्वेल्लण विज्झादो ४०८ , ४०९] ३२( ८-९)पयोक्तो न दध्यत्ति २७ आ मी ६० १०( ९-१)एकक य छक्केक्कारस ८२ जयध अ.प. | ३३ ७-१)पंच य छ त्ति य छप्पंच १३ ७५८ (उद्धृत) | ३४ ९-३)पंचादि अट्ठणिहणा ८२ जयध अप.७५१ ११४८-१९ ए रक्खेतोगाढं ३५ गो क. १८५ | ३५४८-४)पुण्य-पापक्रिया न स्यात् २० आ मी ४० १२(८-१६) कथंचित्ते सदेवेष्टं १३ आ मी. १४ ३६(१२-२)बंधे अधापमत्तो ४०९ गो क. ४१६ १३(८-१७, कम्म ण होदि एयं ३२ ३७/८-११)भावकान्ते पदार्थानां २८ आ. मी ९ १४(८-१२) कार्यद्रव्यमनादि स्यात् २९ आ. मी. १०३८(१४-६) मरणं पत्थेइ रणे ४९१ गो. जी. ५१३ १५(१३-१)किण्ण भमरसवण्णा ८४५ ३९/१४-२)मंदो बुद्धिविहीणो ४९० ॥ ५०९ २६८-७१क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि २६ आ. मी. ४१ ४०1८-३) यदि सत्सर्वथा कार्य २० आ मी. ३९ १७(१०-६)खवए य खीणमोहे २९६ ष.ख.पु. १२, |४१४८-५) यद्यसत्सर्वथा कार्य २१ , ४२ पृ.७८; क. प्र ६, ९ | ४२ ८-१८, राग-द्वेषाद्यष्मा १८( ७-३)गदि-जाद उस्सासो १३ ३४ १९( ८-८)घट-मौलि-सूवणार्थी २७ आ. मी ५९४३(१४-४, रुसइ णिदह अण्णे ४९१ गो जी ५११ २०(७-४) चत्तारि आणुपुब्बी १४ 1४४ (८१-५)विरोधान्नोभयकात्म्यं ३० आ मी १३ २१(१४-१)चंडो ण मुवइ वेर ४९० ४५( ९-२) सत्तादि दसुक्कस्सं ८२जयध अप ७५९ २२(१४-८) चाई भद्दो चोक्सो ४९२ गो जी.५१५ | ४६(१०-५)सम्मतुप्पत्तीए २९६ष खं पू १२ २३(१४-७)जाणइ कज्जमकज्ज ४९१, ५१४ | पृ.७८; क. प्र.६, ८ २४(८-६)जातिरेव हि भावानां २६ क.पा.१.प.] ४७(८-१३)सर्वात्मकं तदेकं स्या- २९ आ. मी. ११ २२७ ( उद्धृत)| ४८(८ २१)सव्वुवरिवेदणीए ३६ २ ग्रन्थोल्लेख १ कर्मप्रवाद १ सा कम्मपवादे सवित्थरेण परूविदा । २ कषायप्राभृत १ एसा सबकरणुवसामणा कसायपाहुडे परूविज्जिहिदि । २७५ २७५ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३४७ ५२३ ५२७ ५१० २ मोहणीयस्स जहा कसायपाहुडे वित्यरेण ट्ठाणसमुक्कित्तणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा । ३ मोहणीयसंतकम्मस्स सामित्तं जहा कस.यपाहुडे कदं तहा कायव्वं । ४ पयडिट्ठाणसंतकम्मस्स मोहणीयस्स जहा कसायपाहुडे कदं तहा कायब्ध । _३ जीवस्थान-चूलिका १ बंधं पडुच्च ट्ठिदिरहस्से भण्णमाणे जहा जीवट्ठाणचूलियाए उत्तरपयडीणं जहणणट्ठिदिपरूवणा कदा तहा कायव्वा । ४ तत्त्वार्थसूत्र १ ओहिणाणो । दाव्वदो ) मुत्तिदव्वाणि चेव जाणदि नामुत्तधम्माधम्म काला गास-सिद्धजीवद्रव्याणि, “ रूपिष्ववधेः" इति वचनात् । २ किं च-ण जीवदव्वमथि, "रूपिणः पुद्गला: " इच्वेदेण लक्खणेण जीवाणु पोम्गलेसु अंतब्भावादो। ५ भावविधान १ तासि परूवणा जहा भावविहाणे कदा तहा कायव्या। ६ महाबन्ध १ जहा महाबन्धे परूविदं तहा परूवणा एत्थ किण्ण कीरदे । ७ वेदना १ जेण पदेसग्गेण भवं धारेदि तस्स पदेसग्गस्स पदमीमांसा पामित्तमप्पाबहुगं च जहा वेयणाए परविदं तहा परूवेयव्वं । ८ सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत १ एत्थ एदेसि चदुण्णमुवककमाणं जहा संतकम्मफ्यडिपाहुडे परू विदं तहा परूवेयव्वं । tw m ५१५ ४३ ४३ ९ सूत्रविशेष १ कुदो अधापवत्तभागहारादो विज्झादभागहारस्स संखेज्जगुणहीणत्तं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। ४४९ ३ ग्रन्थकारोल्लेख ५७७ ५७८ १ आर्यनन्दी १ कम्मदिदि त्ति अणुयोगद्दारे एत्थ महावाचया अज्जणंदिणो संतकम्मं करेंति । २ महावाचयाणमज्जणंदीणं उवदेसेण अंतोमुहुत्तं 8वेदि संखेज्जगुण माउआदो। २ आर्यमंक्षु १ अज्जमंखुखमासमणा पुण कम्मट्ठिदिसंचिदसंतकम्मपरूवणा कम्मट्ठिदिपरूवणे त्ति भणंति । २ महावाचयाणमज्जमखुसमणाणमुवदेसेण लोगे पुण्णे आउअसमं करेदि । ५१८ ५७८ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशभेद ३२७ ५.८ ५२२ ३ नागहस्ती १ एसुवदेसो णागहत्थिखमणाणं । २ जहण्णुक्कस्सहिदीणं पमाणपरूवणा कम्मट्रिदि त्ति णागहत्थिखमासमणा भणंति । ३ अप्पाबहुगअणुयोगद्दारे णागहस्थिभडारओ संतकम्ममग्गणं करेदि । ४ निक्षेपाचार्य १ एसो णिक्खेवाइरिय उवएसो। ५ भूतबली भट्टारक १ भूतबलिभडारएण जेणेदं सुत्तं देसामासियभावेण लिहिदं तेणेदेण सुत्तेण सूचिदसेसअठ्ठारसअणुयोगद्दाराणं किंचि संखेवेण परूवणं कस्सामो। ३ महावाचक क्षमाश्रमण १ महावाचयाणं खमासमणाणं वउदेसेण सव्वत्थोवाणि कसाउदयट्ठाणाणि । २ महावाचया ट्ठिदिसंतकम्मं पयासंति । ३ अप्पाबहुए त्ति जमणुओगद्दारं एत्य महावाचयखमासमणा संतकम्ममग्गणं करेदि। ५७७ لم ة ل م ४ परम्परागत उपदेश १ पवाइज्जतेण उवएसेण हस्स-रदिवेदएहितो सादवेदया जीवा विसेसा० । २ पवाइज्जतेण उवदेसेण मखेज्जजीवमेत्तेग विसे० । ३ एयजीवेण अंतरं पवाजंतेण उवएसेण वत्तइस्सामो। ४ एवं पुणो हेदुणा अप्पाबहुअं ण पवाइज्जदि । ५ एसो च उपदेसो पवाइज्जदि । ل سه Vom سه ر ५२२ ११० ५ उपदेशभेद १ उदयावलियमेतदिदिविसेसो त्ति जे आइरिया भणंति तेसिमहिप्पाएण उदीरणकालो जहण्णओ एगसमयमेत्तो। जे पुण दोण्णि समए जहण्णेण उदीरेदि त्ति भणंति तेसिमहिप्पाएण बे समया त्ति परूविदं २ खीणकसायम्मिणिद्दा-पयलाणमुदीरणा णत्थि त्ति भणंताणमभिप्पाएण _णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीहि सह जहण्णसामित्तं वत्तव्वं ।। ३ कुदो ? एदस्साइरियस्स उवदेसेण खीणकसायम्हि जहण्णट्टिदिउदीरणाभावादो। ४ केसि पि आइरियाणं अहिप्पाएण सव्वासिमाणुपुवीणमुक्कस्सकालो तिण्णि समया, तिरिवखगइपाओग्गाणपव्वीए चत्तारि समया। ५ अधवा, ओहिणाण-ओहिदसणावरणाणं वड्ढीए वि मदिणाणावरणभंगो होदि त्ति केसि पि आइरियाणमवदेसो। ६ अण्णेसिमुवदेसेण एदे पुबुत्ता अवेदया होदूण असंखेज्जवासाउआ च उत्तरविउव्विदतिरिक्ख-मणुस्सा च अवेदया । १३७ १९८ २६४ २८५ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) परिशिष्ट २८९ ३२८ ३२९ ४६७ ४६८ ७ अण्णण उवदेसेण असंखे० भागमेत्तेण विसे० । ८ अण्णेण उवएसेण मदिआवरणस्स भुजगारवेदओ तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि सबढ़े। ९ एदम्हि उवदेसे जाणि कम्माणि ण भणिदाणि तेसि कम्माणं णत्थि दो उवदेसा, पढमेण चेव उवदेसेण ताणि णेयव्वाणि । १० अण्णेण उवएसेण पुण सव्वणामपयडीणं णत्यि अवट्ठिदसंकमो । ११ एदेहि दोहि उवदेसेहि भुजगार-पदणिक्खेववड्ढिसंकमेसु सामित्त मप्पा बहुगं कायव्वं । १२ जेसिमाइरियाणं णिग्गमाणु सारी आगमो तेसिमहिप्पाएण अस्थि अव ट्ठिदसंकमो। जेसिं पुण आइरियाणं णिग्गमाणुसारी आगमो ण होदि, किंतु संकामिज्जमाणपयडिपदेसाणुसारी, तेसिमहिप्पाएण सव्वणामपयडीणं णत्थि अवट्ठाणं । १३ जेण उवदेसेण अवट्ठाणं तेण उवदेसेण तिपलिदोवमियस्स तप्पाओग्ग उक्कस्सियाए वड्ढिीए वड्ढिदूण अवट्ठिदस्स उक्कस्समवठ्ठाणं १४ एसो ताव एक्को उवदेसो । अण्णण उवएसेण अणंताणुबंधीणं जहणिया हाणी कस्स? १५ बारसण्णं कसायाणं जण उवएसेण अवठ्ठाणमत्थि तेण उवएसेण उच्चदे-- ४६९ ४६९ ४७४ ४७५ पृष्ठ ६ पारिभाषिक-शब्द-सूची शब्द पृष्ठ | शब्द पृष्ठ | शब्द अ अनादिक नामप्रकृति ४०४ | अनेकान्त अकरणोपशामना अनादिसत्कर्म नामकर्म ३७३ | अनेकान्त असात ४९८ २७५ अगुणप्रतिपन्न १७४,२८८ अनादिसत्कमिकनामप्रकृति अनेकान्तसात अगुणोपशामना २७५ अन्तर ३७९ अघाति १७१,६७४ अनादिसत्कर्मिक प्रवृति ४४१ अपर्याप्त निर्वत्ति १८५ अचक्षुदर्शन अनावजितक १८९ अपूर्वस्पर्धक ५२०,५७८ अचित्तप्रक्रम १५ अनिकाचित अप्रशस्तोपशामना २७६ अतिस्थापना ३७४,३७५ अनिघत्त अभिधाननिबन्धन अद्धाक्षय अनुदीर्णोपशामना अर्थनिबन्धन अधर्म द्रव्य अनुपशान्त २७६ अल्पतर उदय अधःप्रमत्तगुणश्र २९७ अनुभागदीर्घ ५०९ - अल्पतर उदी० ५०,१५७, अधःप्रवृत्त भागहार ४४८ अनुभागमोक्ष ३३८ अधःप्रवृत्तसंक्रम ४०९ अनुभागविपरिणामना २८२ अल्पतर संक्रम ३९८ अधःस्थितिगलन २८३ । अनुभागसत्कर्म ५३८ अवक्तव्य उदय ३२५ अनन्तजीविय २७४ | अनुभागसंक्रम : ३७५ अवक्तव्य उदीरणा ५१,१५७, अनन्तानुबन्धिविसंयोजना | अनुभागह स्व ५११ अवग्रह २७६ / अनुमानित गति ५३७ अवधिलंभ १७६ १७६,२३८ अवस्थित उदय ३२५nelibrary.org. ३७० २७५ ३२५ २६० Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्द-सूची १७४ प्रकति गुणश्रेणि १०१ ५१२ ओ २७५ १० अवस्थित उदीरणा ५,१,१५७ | उपशान्त २७६ । अवस्थित संक्रम, ३९८ | उपशामना २७५ गुण अशुभ १७६ | उपशामकअध्यवसान ५७ णतप्रतिपन्न आ २९६ आकाश द्रव्य ३३ / एकस्थानिका १७४,५३९ गणश्रेणिनिर्जरा २९६ आगमभावलेश्या ४८५ गुणश्रेणिशीर्ष २९८,३३३ | एकस्थिति आदिवर्गणा ५३२ गुणसंक्रम ४०९ एकान्तअसात ४९८ आदिस्पर्धक ३७४,५३८ गणितकर्माशिक २९७ एकान्तभवप्रत्ययिक १७३ आदेशभव ४९८ गुणोपशामना | एकान्तसात २७५ आनुपूर्वीसंक्रम ग्रहणत: आत्त पुद्गल ५१५ आयुष्कघातक २८८ घ ओघभव ५१२ आर्यनन्दी ५७७,५७८ घातस्थान ४०७ आर्यमा ५१८,५७८ घातिसंज्ञा १७१,३७७,५३९ अवजित करण २५९, ५१९, करणोपशामना २७५ घोलमान जघन्य योग ४३५ कर्मउपक्रम ४१, ४२ ५७७ कर्म उपशामना आवासक चक्षुदर्शन कर्मनिबन्धन आहारतःआत्तपुद्गल ५१५ चतुर्दशपूर्वधर २४४ कर्मप्रक्रम चतुर्दशपूर्वी ५४१ कर्ममोक्ष उत्कीरणद्धा ५२० चतु:स्थानिक १४७ कर्मसंक्रम उत्तर निर्वर्तना १२ ४८६ कषाय उदयस्थान उत्तरप्रकृतिविपरिणामना२८३ कापोतलेश्या ४८४,४८८,४९१ उत्पाद जीवगुणहानिस्थानान्तर ३२८ कालउपक्रम उदय २८९ कालद्रव्य जीवद्रव्य उदयगोपुच्छ २५३ कालनिवन्धन जीवनिबद्ध ७,१४ उदयमार्गणा ५१९ कालप्रक्रम जीवविपाकी उदीरणा ४३ तदव्यतिरिक्त द्रव्यलेश्या ४८४ | कालसंक्रम ३३९,३४० उदीरणाउदय कृतकरणीय तीसिय २५३ ५३७ उदीरणामार्गणा ५१९ कृतकृत्य तेजोलेश्या ४८४,४८८,४९१ उद्वेलनकाण्डक ४७८ कृष्टि त्रिस्थानिक १७४ ५२१,५७९ उद्वेलनभागहार ४४८ | कृष्णलेश्या ४८४,४८८,४९० | उद्वेलनसंक्रम क्षपितकर्माशिक ३०८,३२१ | दर्शन उद्वेल्यमान प्रकृति ३८३ | क्षेत्र उपक्रम ४१ दानान्तराय उपक्रम ४१,४२ | क्षेत्रनिबद्ध ७,१४ दारुसमान ३७४,५३९ उपभोगत: आत्तपुद्गल ५१५ क्षेत्रनिबन्धन उपभोगान्तराय १४| क्षेत्रप्रक्रम | देशकरणोपशामना २७५ उपशमसम्यक्त्वगुणश्रेणि २९७ । क्षेत्रसंक्रम ३३९,३४० देशघाति १७१,३७४,५३९ ३३७ चारित्र १२ mry 42RY ३०४ ४१६ दुःख १५ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट M द्रव्य mr २४ ५०७ देशप्रकृतिविपरिणामना २८३ | निबन्धन १ पर्यायाथिक नय ४८५ देशमोक्ष ३३७ | निषेकगुणहानि पर्युदास २५ देशविपरिणामना २८३ स्थानान्तर ३२८ पायदकरण २७८ दोगुणश्रेणिशीर्ष २९७ नीललेश्या ४८४,४८८,४९० पिण्डप्रकृति ३४७ ३३ नैगम पुद्गलद्रव्य द्रव्यउपक्रम ४१ नोअनुभागदीर्घ ५०९ पुद्गलनिबद्ध ७,१३ द्रव्यउपशामना २७५ नोअनुभागह स्व पुद्गलात्त ५१४ द्रव्यनिबन्धन नोआगमभाव उपशामना २७५ पुद्गलात्मा ५१५ द्रव्यपक्रम | नोआगमभावलेश्या ४८५ पूर्वधर २३८ द्रव्यमोक्ष ३३७ नोकर्म उपक्रम पूर्वस्पर्धक ५२०,५७८ द्रव्यलेश्या ४८४ नोकर्मउपशामना २७५ प्रकृतिदीर्घ ५०७ द्रव्यसंक्रम ३३९ नोकर्मप्रक्रम १५ | प्रकृतिमोक्ष ३३७ द्रव्याथिक नय ४८५ | नोकर्ममोक्ष प्रकृतिसत्कर्म ५२२ द्विस्थानिक १७४,५३९ | | नोकर्मसंक्रम प्रकृतिसंक्रम ३४० नोप्रकृतिदीर्घ प्रकृतिस्थानउपशामना २८० धर्मद्रव्य ३३ नोप्रकृतिह स्व ५०९ प्रकृतिह स्व ध्रुव उदयप्रकृति नोप्रदेशदीर्घ प्रक्रम १५,१६,४२ ध्रुवउदीरक नोप्रदेशह स्व ५११ प्रतिग्रह ४११,४१४,४९५ ध्रुवउदीरणाप्रकृति १०९ नोस्थितिदीर्घ प्रत्ययनिबन्धन २ ध्रुवबन्धप्रकृति १४५,३२८ | नोस्थितिह स्व प्रदेशउदीरकअध्यवसानध्रुवोदयप्रकृति १५९,१६२, स्थान ५७७ पद्मलेश्या ४८४,४८८,४९२ प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर ३७८ प्रदेशदीर्घ ५०९ पयदकरण २७६,२७७ नागहस्ती ३२७,५१८,५२२ प्रदेशमोक्ष ३३८ परभविक नामउपक्रम प्रदेशविपरिणामना .२८३ परभविक नामप्रकृति ३४ नामउपशामना २७५ प्रदेशसंक्रम ४०८ परभविकनामबन्धानामनिबन्धन प्रदेसंक्रमणाध्यवध्यवसान ३८७ नामप्रक्रम सानस्थान ५७७ परिग्रहतः आत्त पुद्गल ५१५ नाममोक्ष ३३९ परिणाम प्रदेशह स्त्र १७२ ५११ ४८४ नामलेश्या प्रयोगउ:उदय परिणामतःआत्तपुद्गल ५१५ २८९ नामसंक्रम प्रशस्तोपशामना निकाचनअध्यवसान ५७७ | परिणामप्रत्ययिक १७२,२४२ प्रसज्य निकाचित ५१७,५७६ २६१ निक्षेपाचार्य ४० परित्तजीविय २७४ निक्षेप ३४७ | परिवर्तमान बन्धनउपक्रम निधत्त ५१६,५७६ | परिवर्तमान नामप्रकृति १४६ | बन्धमार्गणा निधत्तअध्यवसान ५७७ पर्याप्तनिर्वृत्ति १८० । . ५०८ ३६३ ४१ २३४ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव ७,५१२,५१९ ५१२ भवग्रहणभव भवप्रत्ययिक १७२,२६१ भगृहीत १७२, १७५,३८० भंग भाव उपक्रम भावनिबन्धत भावप्रक्रम भावमोक्ष भावलेश्या भावसंक्रम भुजाकार भुजाकार उदय भुजाकार उपशामक भुजाकारसंक्रम भूतबली भट्टारक भोगान्तराय भ ५० ३२५ भुजाकारउदीरणा १५७,२६० मार्गणा मिश्रप्रक्रम मुक्त मूलनिर्वर्तना मोक्ष योगयवमध्य लाभान्तराय लेश्या लेश्याकर्म म ममत्तीतः आत्त पुद्गल ५१५ महावाचकक्षमाश्रमण ५७७ ५१० २३ ४१ ३ १६ २३७ य ४८५,४८८ ३३९,३४० ल ३७७ ३९८ १ ૬૪ पारिभाषिक शब्द सूची ४७३ व विध्यात भागहार विध्यातसंक्रम विनाश विपचिचद विपरिणामिता विपरिणामोपक्रम विशेष मनुष्य विशेषविशेषमनुष्य वीतरागछद्मस्थ वीर्यान्तराय वैक्रियिकषट्क व्यञ्जन ष षट्षष्ठिपद षट्स्थानपतितत्व सचित्तप्रक्रम सत्कर्ममार्गणा सत्कर्मस्थान सत्कर्मक ४८ संक्रमस्थान १९ : उदय ४०९ संक्लेशक्ष संप्राप्तितः ५०३ | संयतासंयतगुणश्रेणि २८३ | संयमभवग्रहण २८२,५५५ संयोग स श शुक्ललेश्या ४८४, ४८८, ४९२ | स्थासंज्ञा शुभ प्रकृति शैलेश्य सर्वघाति १४ सर्वमोक्ष ४८४ सर्वविपरिणामना ४९० सर्वसंक्रम संक्रम | संक्रममार्गणा ९३ | साकारक्षय 11 सादिसान्त नामकर्म १७६ स्थापना उपक्रम १८२ सामान्य मनुष्य १४ सुख २७९ | सुहृदुहपंचय ५१२ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती५२१,५७९ |सेचीयादो उदय ५२१,४७९ स्थापनाउपशामना स्थापनानिबन्धन २८२ | स्थापनाप्रक्रम ४९३ स्थापना मोक्ष ( १० 回回 ५१९ ४०८ ३७० २८९ २९७ ३०५ २४ २३८,२६४ ४०४ ९.३ ६ १६४ १७१,३७७,५३९ स्थापनालेश्या १५ | स्थापनासंक्रम ३३९ ५१९ स्थितिक्षयजनित उदय २८९ १५ ४०८ | स्थितिदीर्घ ५०८ ३३८ ५७७ समवाय ४८६ ३३७, ३३८ २७७ | स्थितिबन्धाध्यवसान २४ स्थितिमोक्ष ३३७,३३८ | समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति ५२१ स्थितिविपरिणामना समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती ५७९ स्थितिसत्कर्म २८३ ५२८ सम्यग्दर्शन ३४७ १२ स्थितिसंक्रम सर्वकरणोपशामना २७५ स्थिति स्व ५१० १७१,३२४ ३३७ २८९ ४ १ २७५ २ १५ ३३७ ४४८ ११८,५४२ हत्तसमुत्पत्तिक २८३ | हतसमुत्पत्तिककर्म १११ ४०९ | हतसमुत्पत्तिकक्रम ४०२,४०३ ४९५ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्र षट्खंडागम सूत्र व धवला टीकाके सोलहों भागोंको सम्मिलित पारिभाषिक शब्द-सूची सूचना- प्रारंभके अंक पुस्तक (भाग) के तथा आगेके अंक उसी भागके पृष्ठोंके सूचक हैं । अ अगति ७.६; ८.८ | अचित्तद्रव्यभाव १२.२ अकरणोपशामना १५.२७५ | अगुणप्रतिपन्न १६.१७४,२८८ | अचित्तद्रव्यवेदना १०.७ अकर्मभाव ४.३२७ / अगुणोपशामना १६.२७५ | अचित्तद्रव्यस्पर्शन ४.१४३ अकर्मभूमि ११.८९ | अगुरुलघु ६.५८; ८१.०, अचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक ७.४ अकषाय १.३५१ १३.३६३,३६४] अचित्त प्रक्रम १६.१५ अकषायत्व ५.२२३ | अगृहीतग्रहणद्धा ४.३२७,३२९ | अचित्त मंगल १.२८ अकषायी ७.८३ | अग्निकायिक . १२.२०८ | अच्युत १३.३१८ अकायिक १.३६६ १४.३६७ | अच्युतकल्प ४.१६५,१५०, अकृतयुग्मजगप्रतर ४.१८५ अग्रस्थिति १०.११६ २०८,२३६,२६२; अकृत्रिम ४.११,४७६ | अग्रस्थितिप्राप्त १०.११३,। १३.३१८ अक्ष १३.९,१०,४१,१४.६ | अजीव १३.८,४०,२०० अक्षपकानपशामक ७.५ अग्रास्थातावशष अग्रस्थितिविशेष १४ १४.३६७] अजीवद्रव्य ३.२ अक्षपरावर्त ७.३६ अग्रहणद्रव्यवर्गणा १४.५९, अजीवभावसम्बन्ध १४.२२ अक्षपाद १३.२८८ ६०,६२,६३,५४८ २३, २५ अक्षयराशि ४.३३९ अग्रायणीपूर्व ९.१३४,२१२] अज्ञान १.३६३,३६४ ; ४.- . अक्षर १३.२४७,२६०,२६२ | | अग्रायणीय १.११५ ४७६; १४.१२ अक्षरगता १३.२२१ | अग्र्य १३.२८०,२८८ | अज्ञान मिथ्यात्व ८.२० अक्षरज्ञान १३.२६४| अघातायुष्क ९.८९ अज्ञानिक दृष्टि ९.२०३ अक्षरवृद्धि ६.२२ | अघाति १६.१७१,३७४ | अणिमा ९.७५ अक्षरश्रुत ६.२२ | अघातिकर्म ७.६२ | अणुव्रत ४.६७८ अक्षरश्रुतज्ञान १३.२६५ | अघोरगुणब्रह्मचारी ९.६४ | अतिचार ८.८२ अक्षरमास ६.२३; १२.४७९ | अचक्षुर्शदन १.३८२; ६.३३, | अतिप्रसंग ४.२३,२०८;५.अक्षरसमासश्रुतज्ञान १३.२६५ ७.१०१,१०३; १३.- २०६,२०९; ६.९०, ७.६९, अक्षरसमासावरणीय १३.२६१ ३५५; १६.९ ७५,७६; ९.६,५९,९३; अक्षरसंयोग १३.२४७,२४० अचक्षुदर्शनस्थिति ५.१३७, .१२.१४२ अक्षरावरणीय १३.२६७ १३८ | अतिवृष्टि १३.३३२,३३६, अक्षिप्र ९.१५२ अचक्षुदर्शनावरणीय६.३१,३३ ३४१ अक्षिप्र अवग्रह ६.२०/ अचक्षुदर्शनी ७.९८; ८.३१८; | अतिस्थापना ६.२२५,२२६, अक्षिण प्रत्यय १३.२३७ . १३.३५४ २२८; १०.५३,११०; अक्षीण महानस ९.१०१ | अचित्तकाल १०.७६ १६.३४७,३७५ अक्षीणावास | अचित्तगुणयोग ९.४३३ / अतिस्थापनावली ६-२५०, अक्षेम' १३.२३२,२३६,२४१ | अचित्ततद्व्यतिरिक्तद्रव्यान्तर ३०९, १०-२८१,३२०, अक्षौहिणी १२-८५ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषखंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची ( १२ अतीतकाल विशेषित क्षेत्र अधिराज १०-३५१ ४-१४५ अधोलोक ४-९,२५६ / अनन्त जीवित १६:२७४ अतीतपर्याप्ति १-४१७ | अधोलोक प्रमाण ४-३२,४१, | अनन्त ज्ञान ९.८ अतीतप्रस्थ ३-२९ अनन्त प्रदेशिक ३-३ अतीतप्राण अधोलोक क्षेत्रफल ४-१९ अनन्तबल ९-११८ अतीतानागत वर्तमानकाल अधःकर्म १३-३८,४६,४७ | अनन्त भागवृद्धि ६-२२,१९९ विशिष्ट क्षेत्र ४-१४८, ४-१४८, | अधःप्रमत्त गुणश्रेणि १६-२९७ १०-३५१ अतीन्द्रिय ४-१५८ | अधःप्रवृत्त ७-१२ | अनन्तव्यपदेश ४-४७८ अत्यन्ताभाव | अधःप्रवृत्तकरण ४-३३५, | अनन्तर १३-६ अत्यन्तायोग व्यवच्छेद ३५७ ; ६.२१७,२२२,२४८० | अनन्तरक्षेत्र । १३.७ ११-३१८ ६५२; १०-२८०,२८८ | अनन्तरक्षेत्र स्पर्श १३-३,७,१६ अत्यासना १०-४२/ अधःप्रवृत्तकरण विशुद्धि अनन्त रबन्ध १२-३७० अदत्तादान १२-२८१ ६-२१४ अनन्तरोपनिधा ६-३७०,३७१, अद्धा ४-३१८ अधःप्रवृत्त भागहार १६-४४८ ३८६,३९८; १०-११५, अद्धाकाल ११-७७ अध.प्रवृत्त विशोधि ६-३३९) ३५२; १२-२१४; १४-४९ अधःप्रवृत्त संक्रम ६-१२९,१३, | अनन्तानन्त अद्धाक्षय ३-१८,१९ अद्धानिषेकस्थितिप्राप्त २८९; १६-४०९ अनंनानुबंध ६-४२ अधःस्थितिगलन ६-१७०; | अनंतानुबधि विसंयोजन १०-११३ अद्धावास १३-८०; १६-२८३ ७-१४; १०-२८४ १०-५०,५५ अद्वैत अध्यात्म विद्या १३-३६ | अनन्तानुबन्धि विसंयोजना ९-१७० अध्यात्म विद्या अध्वान ६-२८९; १६-२७६ ८-८; ३१ १३.३६ अधस्तन राशि ५-२४९,२६२ अध्रुव ८-८,१३-२३१ | अनन्तानुबन्धी ४-३३६; अध्रुव अबग्रह १-३५७, ६-२१ ६-४१; ८-९; १३-३६० अधस्तनविकल्प ३-५२,७४; अध्रुव प्रत्यय ९-१५४ अनन्तावधि ९-५१,५२ ४-१८१ अनन्तावधि जिन ९-५१ अधस्तन विरलन ३-१६५,१०९ अनक्ष रगता १३-२२१ अनन्तिम भाग ९-१८८ ३-६१,६२ अनङ्गश्रुत अध्वान ८-८,३१ अनर्पित ४.३९३,३९८% अनध्यवसाय ७-८६ अधर्म द्रव्य ३-३१३-४३; अनध्यात्म विद्या १३-३६ अनवस्था ४-३२०, ६-३४,५७ अधर्मास्तिद्रव्य १०.४३६ | अननुगामी६-४९९; १३-२९२, ६४,१४४,१६४,३०३; अधर्मास्तिकायानुभाव १३ २९४ ७-९९, ९-२६१,१०-६, ३४९ / अनन्त ३-११,१२,१५, ४-३३८ ४३,२२८,४०३; १२-२५७ अधिकार ७-२ अनन्तकाल ४-३२८ अनवस्थान अधिकार गोपुच्छा १०-३४८, अनन्तगुण ३-२२,२९ | अनवस्थाप्य १३-६२ ३५७,३६६ अनन्तगुण विहीन ३-२१, अनवस्थाप्रसंग ४-१६३ अधिकार स्थिति १०-३४८ २२,९१ | अनवस्थित १३-२९२,२९४ अधिगम ३-३९ | अनन्तगुणवृद्धि ६-२२,१९९; | अनवस्थित भागहार १०-१४८ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ ) परिशिष्ट अनस्तिकाय ९-१६८ ६-२२१,२२२,२२९,२४८, | अनुपशान्त १६-२७६ अनाकारोपयोग ४-३९१; २५२,८-४; १०-२८० अनुप्रेक्षण १४-९ ६-२०७; १३-२०७ अनिवृत्तिकरण उपशामक ७-५ | अनुप्रेक्षणा९-२६३; १३-२०३ अनागत (काल) ३-२९ | अनिवृत्तिकरण क्षपक ७-५ | अनुभाग ७-६३ ; १२-९१; अनागतप्रस्थ ३-२९ अनिवत्तिकरण विशुद्धि-२१४ | १३-२४३, २४९ अनागमद्रव्य नारक ७-३० अनिवत्ति क्षपक ६-३३६ / अनुभागकाण्डक ६-२२२॥ अनात्मभावभूत ५-१८५ | अनिवृत्तिबादरसाम्पराय १२-३२ अनात्मस्वरूप ५-२२५ १-१८४ | अनुभागकाण्डकघात ६-२०६ अनादि ४-४३६ | अनिःसरणात्मक १४-३२८ अनुभागकाण्डकोत्कीरण द्धा अनादि अपर्यवसितबन्ध ७-५ | अनिःसृत ९-१५२ ६-२२८ अनादिक ८-८ अनिःसृत अवग्रह ६.२० | नभागघात ६-२३०,२६४ अनादिक नामप्रकुति १६-४०४ | अनिःसृत प्रत्यय १३-२३७ | अनुभागदीर्घ १६-५०९ अनादिकशरीरबन्ध १४-४ ७-७ | अनुभागबंध ६-१९८,२००, अनादिक सिद्धान्तपद ९-१३८ | अनुकृष्टि ४-३५५; ६-२१६, ८-२ अनादि पारिणामिक ५-२२५ ११-३४९ | अनुभागबधास्थान १२-२०४ अनादि मिथ्यादृष्टि ४-३३५. अनुक्त अवग्रह ६-२० | अनुभागबंधाध्यवसायस्थान ६-२३१ | अनुक्त प्रत्यय ९-१५४ ६-२००; १२-२०४ अनादि बादरसाम्परायिक ७-५ | अनुगम ३-८; ४-९, ३२२; | अनुभागमोक्ष १६-३३८ विपरिणामना अनादिसत्कर्मनामकर्म १६-३७३ ९-१४२, १६२ अनादि सत्कमिक नामप्रकृति | अनुगामी ६-४९९; १३-२९२, १६-२८२ १६-३९९ २९४ अनुभागवेदक अनादि सत्कर्मिक प्रकृति ६-२१३ अनुग्रहण १४-२२८ अनुभागसत्कर्म १६-५२८ १६-४४१ | अनुच्छेद १४-४३६ अनुभागसत्कर्मिक ६-२०९ अनादि सपर्यवसित बन्ध ७-५ | अनुत्तर १३-२८०,२८३,३१९ अनुभागसत्त्वस्थान १२-११२ अनादि सिद्धान्तपद १-७६ अनुत्तर विमान ४-२३६,३८६ अनुभागसंक्रम १२-२३२, अनादेय ६-६५; ८-९ | अनुत्तर विमानवासी ९-३३ १६-३७५ अनादेय नाम १३-३६३,३१ रौपपादिकदशा १-१०३ अनुभागह,स्व १६-५११ अनावजितक १६-१८९, अनुत्तरौपपादिकदशांग९-२०२ अनुमान ६-१५१ अनावृष्टि १३-३३२,३३६ | अनुत्पादानुच्छेद १२-४५८, अनुमानित गति १६-५३७ अनाहार १-१५३,७-७,११३ ४९४ अनुयोग ६-२४; १२-४८० अनाहारक ४-४८७;८-३९१ | अनुदयोपशम ५-२०७ अनुयोगद्वार १३-२,२३६,२६९ अनिकाचित १६-५७६ | अनुदिशविमान ४-८१, १३६, | अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान १३-१६९ अनिधत्त १६-५७६ २४०, ३८६ | अनुयोगद्वार समास १३-२७० अनिन्द्रिय १-२९४;८-६८,६९ अनुदीर्णोपशामना १६-२७५ | अनुयोगद्वार समासावरणीय अनिवृत्ति १-१८४ | अनुपयुक्त १३-२०४ १३-२६१ अनिवृत्तिकरण ४-३३५,३५७; । अनुपयोग १३-२०४ | अनुयोगद्वारावरणीय १३-२६१ | अनुभागवृद्धि Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची ( १४ अनुसारी अनुयोगसमास६-२४,१२-४८० ३८० ; ५-९;७-२६७, | अपरीत संसार ४-३३५ अनुलोमप्रदेशविन्यास १०-४४ २८७,२८९ | अपवर्तना ४-३८,४१,४३, अनुसमयापवर्तना १२-३२ अन्धकाकलेश्या ११-१९ ४७,१०३,२१६,२३० अनुसमयापवर्तनाघात १२-३१ | अन्यथानुपपत्ति ५-२२३ | अपवर्तनाघात ४-४६३, ७ ९-५७,६० अन्ययोगव्यवच्छेद ११-२४५, २२९,१०.२३८,३३२; अनुसंचिताद्धा ४-३७६ ३१८ १२-२१ अनजक १३-३३०/ अन्योन्यगणकारशलाका अपवर्तनोद्वर्तनकरण ६-३६४ अनेक क्षेत्र १३-२९२,२९५ ३.३३४ अपवादसूत्र १०-४० अनेकस्थानसंस्थित १३-२९३ अन्योन्याभ्यस्त ४-१५९,१९६, | अपश्चिम ५-४४, ७४ अनेकान्त ६-११५;८-१४५ २०२ | अपहृत ३-४२ ९-१५९; १६-२५ | अन्योन्याभ्यस्तराशि १०-७९, | अपायविचय १३-७२ अनेकान्त असात १६-४९८ १२१ | अपिण्डप्रकृति १३-३६६ अनेकान्त सात १६-४९८| अन्योन्याभ्यास ३-२०,११५, अपूर्व कृष्टि ६-३८५ अनेषण १३-५५ | अपूर्वकरण १-१८०,१८१, अनैकान्तिक ७-७३ अन्वय ७-१५; १०-१० १८४,४-३३५,३५७, ६अन्तर ५-३, ६-२३१,२३२, | अन्वयमुख ६९५; १२-९८ | २२० २२१,२४८,२५२; २९०, ८-६३, १३-९१; | अपकर्षण ४-३३२, ६-१४८, ८-४; १०-२८०,२८० १६-३७९ १७१; १०-५३,३३० | अपूर्वकरण उपशामक ७-५ अन्तरकरण ६-२३१,३००, | अपकर्षणभागहार ६-२२४, अपूर्वकरणकाल ७-१२ ७-८१८-५३ २२७ अपूर्वकरणक्षपक४-३३६, ७-५ अन्तरकाल ४-१७९ अपक्रमषट्कनियम ४-१७९ अन्तरकृत प्रथम समय ६-३२५ अपक्रमणोपक्रमण अपूर्वकरणगुणस्थान ४-३५३ ४-२६५ | अपूर्वकरणविशुद्धि ६-२१४ ३५८ अपगतवेदना ५-२२२| अपूर्वस्पर्धक ६-३६५,४१५, अन्तरकृष्टि ६-३९०,३९१ अपगतवेद १-३४२ ; ७-८०; १०-३२२,३२५; १३-८५; अन्तरघात ६-२३४ ८-२६५,२६६ १६-५२०,५७८ अंतरद्विचरमफालि ६-२९१ अपनयन (राशि) ३-४८; स्पर्धकशलाका ६-३६८ अंतरद्विसमयकत६-३३५,४१० ४-२००; १०-७८ अपूर्वाद्धा ५-५४ अंतर प्रथम समयकृत ६-३०३ अपनयन ध्रुवराशि ४-२०१ | अपोहा १३-२४२ ____३०४ | अपनेय ३-४९ अप्कायिक १-२७३७-७१, अंतरस्थिति ६-२३२,२३४ | अपर्याप्त १-२६७,४४४; ३ ८-१९२ अन्तरामा १-११७ १-१२०] ३३१४-९१६-६२,४१९: | अप्रणतिवाक् अन्तरानुगम ५-१७; १३-१३२ अप्रतिपात अप्रतिपद्यमानस्थान अन्तराय ६-१४;८-१० | अपराजित -३८६ ६-२७६,२७८ १३-२६,२०९,३८९ | अपर्याप्त नाम १३-३६३.३६५ अप्रतिपाति १३-२९२,२९५ अन्तराय कर्मप्रकृति १३-२०६ | अपर्याप्त निर्वृति १६-१८५ | | अप्रतिपाती ९.४१ अन्तरिक्ष ९-३७,७४ | अपर्याप्ति १-२५६,२५७ | अप्रतिहत १४.३२७ अन्तर्मुहूर्त ३-६७,७०, ४-३२४, अपरिवर्तमानपरिणाम १२-२७ । अप्रत्याख्यान६-४३; १३ ३६० Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५) परिशिष्ट अप्रत्यख्यानावरणदण्डक अभिशुख अर्थ १३.२०९/ अचिमालिनी १३-१४१ ८-२५१; २७४ | अभिव्यक्तिजनन ४-३२२/ अर्थ ४-२००; ५-१९४; अप्रत्यख्यानावरणीय ६-४४ | अभीक्ष्ण अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग १३-२, १४-८ अप्रत्यय ८८ | युक्तता ८-७९,९१ | अर्थकर्ता ९-१२७ अप्रदेश १४-५४| अभेद ४-१४४| अर्थक्रिया ९-१४२ अप्रदेशिक ३-३ | अभ्याख्यान १-११६; अर्थनय १-८६; ९-१८१ अप्रदेशिकानन्त ३-१२४ १२-२८५ अर्थनिबन्धन १६-२ अप्रदेशिकासंख्यात ३-१५,१६ | अभ्र १४-३५ अर्थपद ४-१८७; ९-१९६, अप्रधानकाल ४-१४४ १०-१८, ३७१, १२-३; अप्रमत्त ७-१२ अमूर्तत्त्व ६-४९० अप्रमत्तसंयत १-१७८;८-४ | अमूर्त द्रव्यभाव १२-२| अर्थपरिणाम ६.९० अप्रमाद १४-८९ अमृतस्रवी ९-१०१ अर्थपर्याय ९-१४२, १७२ अप्रवद्यमानोपदेश १०-२९८ | अयन ४-३१७; ३९५; अर्थसम ९-२५९,२६१,२६८; अप्रवीचार १-३३९ १३-२९८, ३००; १४-३६| ५३-२०३; १४-८ अप्रशस्त तैजसशरीर ४.२८ अयशःकीत्ति ८-९| अर्थाधिकार ९-१४० ७-३०० अयश:कीत्ति नाम १३-३६३,| अर्थापत्ति ६-९६,९७,७-८, अप्रशस्त विहायोगति ६-७६ ३६६ ८-२७४९-२४३; १२-१७, अप्रशस्तोपशामना अयोग १-१९२; ७-१८ अर्थावग्रह १-३५४, ६-१६) ६-२५४,१६-२७६ अयोगकेवली १-१९२ | ९-१५६; १३-२२० अप्रशस्तोपशामनाकरण अयोगवाह १३-२४७ अर्थावग्रहावरणीय १३-२१९ ६-२९५,३३९ | अयोगव्यवच्छेद ११-२४५) २२० अबद्धप्रलाप १-११७ ३१७| अर्धच्छेद ३-२१, १०-८५ अबद्धायुष्क ६-२०८ अयोगिकेवली अर्धच्छेदशलाका ३-३३५ अबंधक ७-८ | अयोगी १-२८०, ४-३३६, अर्धतृतीयक्षेत्र ४-३७. १६९ अभव्य १-३९४;७-२४२; ७-८, ७८; १०-३२५ अर्धतृतीयद्वीपसमुद्र ४-२१४ १०-२२; १४-१३ अरति ६-४७;८-१०; अर्धनाराचशरीरसंहनन ६-७४ अभव्य समान भव्य ७-१६२, १३-३६१ अर्धनाराचसंहनन ८-१०; १७१, १७६; १०-२२ अरतिवाक् १-११७ १३-३६९, ३७० अभब्यसिद्धिक ७-१०६; | अरहःकर्म १३-३४६, ३५० | अर्धपुद्गलपरिवर्तन ५-११; ८-३५९ अरहन्तभक्ति ८-७९, ८९/ अभाग ७-४९५ अरिहन्त १-४२, ४३ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल अभिजित ४-३१८| अरुण ४.३१९ ३-२६, २६७ अभिधान ५-१९४ | अरूपी १४-३२ अर्धमण्डलीक १-५७ अभिधाननिबन्धन १६-२ | अरूपी अजीव द्रव्य ३-२, ३, अर्धमास १३-३०७ अभिधेय ८-१ अरंजन १३-२०४| अर्पणासूत्र ८-१९२,१९९,२०० अभिन्नदशपूर्वी ८-९२ अर्पित ४-३९३,३९८; ५-६३, अभिनिबोध ६-१५ अचि १३-११५, १४१ | ९-६९| अर्चना ८-५ . Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची अर्यमन ४-३१८ , अवग्रहजिन ९-६२ | अवस्थितगुणश्रेणी निक्षप अर्हत १-४४ | अवग्रहावरणीय १३-२१६, ६-२७३ अल्प १३-१८ २१९ | अवस्थित प्रक्षेप ६-२०० अल्पतर उदय १६-३२५ | अवदान १३-२४२ | अवस्थित भागहार १०-६६; अल्पतर उदीरणा १६-५०, अवधि १-३५९,८-२६४; १२-१०२ १५७,२६० १३-२१०,२९० अवस्थितवेदक ६-३१७ अवधिक्षेत्र अल्पतरकाल १०-२९५,२९२ अवस्थित संक्रम ४-३८,७९ १६-३९८ अवस्थितोग्रतप पतरसक्रम ९.८७,८९ १२-४० १६-३९८ अवधिजिन अवसन्नासन्न ४-२३ अल्पबहुत्व । अनुयोग) १,१५८ | अवधिज्ञान १-९३.३५८; अवसर्पिणी ३-१८; ४-३८९; अस्पबहुत्व ३-११४,२०८; ६-२५,४८४,४८६,४८८; ९-११९ ४-२५; १०-१९, १३-९१, ९-१३ अवहरणीय १०-८४ १७५,३८४; १४-३२२) अवधिज्ञानावरणीय ६-२६; अवहार ३-४६,४७,४८; अल्पबहुत्वप्ररूपणा १४-५० १३.२०९,२८९ १०-८४; १४-५० अल्पान्तर ५-११७ | अवधिज्ञानी ७-८४, ८-२८६ हारकाल ३-१६४,१६७; अलाभ १३-३३२,३२४,३४१ अवधिदर्शन १-३८२, ६-३३; ४-१५७,१८५,५-२४९; अलेश्य ७-१०२; १३-३५५ ६-३६९; १०-८८ अलेश्यिक ७-१०५,१०६ / अवधिदर्शनावरणीय ६-३१। अवहारकालप्रक्षेपशलाका अलोक १०-२ ३३; १३-३५४ ३-१६५,१६६,१७१ अलोकाकाश ४-९,२२|अवधिदर्शनी ७-९८,१०३; | अवहारकालशलाका ३-१६५ अवक्तव्य उदय १६-३ ५ ८-३१९ अवहारविशेष अवक्तव्य उदीरणा १६-५१, अवधिलम्भ १६-१७६.२३८ अवहारशलाका १०-८८ १५७ | अवधियिषय १३-२१५ अवहारार्थ ३-८७ अवक्तव्यकृति ९-२७४| अवगमन १३-८९ अवहित ७-२४७ अवक्तव्यपरिहानि १०- , १२ | अवबोध ४-३२२ अवाङ १३-२१० अवक्रमणकाल १४-४७९| अवमौदर्य १३-५६ अवाण १४-२२६ अवगाहनलक्षण ४-८| अवयव ९-१३६ अवाय १-३५४,६-१७,१८% अवगाह्यमान ४-२३| अवयवपद १-७७ ९-१४४; १३-२१०,२४३ अवायजिन अवगाहना ४-२५,३०,४५, अजितकरण ९-६२ १५.२५९ अवितथ १३-२८०,२८६ ९-१७; १३-३०१ १६-५१९,५७७ अविभाग प्रतिच्छेद ४-१५%, अवगाहनागुणकार ४-४४,९८ | अवलम्बना १३-२४२ ९-१६९, १०-१४१ अबगाहनादंडक ११.५६ | अवस्थित १३-२९२,२९४ १२-९२; १४-४३१ अवगाहनाविकल्प ४-१७६; | अवस्थित उदय १५.३२५ | अविभागप्रतिच्छेदाग्र ६-३६६ १३-३७१,३७६,३७७,३८३ | अवस्थित उदारणा १५-१,५, | अविरति ७-९ अबग्रह १-३५४,३७९, ६-१६, १५७ | अविरदत्त १४-१२ १८; ९-१४४; १३-२१६, | अवस्थित गुणकार ९-४५ अविवाग १४-१० २४२; १६-५ । अवस्थित गुणश्रेणी ६.२७३ | अविसंवाद ४-१५८ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७) परिशिष्ट अविहत १३-२८०,२८६ | असद्वचन १२-२७९ ) असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन अवेदककाल १०-१४३ | असपत्न १३-३४५ १३-३६९,३७० अव्यक्तमनस १३-३३७.३४२ | असातबंधक असातबंधक ११.३१२/ असंयत १-३७३, ७-९५, अव्ययाभाव समास ३-७ असातसमयप्रबद्ध १२-४८९ / ८-३१२; १४-११ अव्यवस्थापत्ति ६-१०९ | असातादण्डक ८-२४९,२७४ | असंयतसम्यग्दृष्टि १-१७१, अशब्दलिङ्गज १३-२४५ असाताद्धा १०-२४३ | ४-३५८; ६-४६४, ४६७, ८-४ अशरीर १४-२३८,२३९ असातावेदनीय ६-३५; | असंयम ४-४७७,५-१८८; अशुद्ध ऋजुसूत्र ९-२४४ १३-३५६,३५७ ७-८१३,८,२,१९,९-११७ असंयमप्रत्यय अशुद्धनय असाम्परायिक ८-२५ ७-११० अशुद्धपर्यायार्थिक १३-१९९ असिद्धता ५-१८८; १४-१३ असंयमबहुलता ४-२८१ अशुभ ८-१०; १४-३२८ असुर १४-३२६ १३-३१५,३९१ अस्तिकाय अशुभनाम असंक्षेपाद्धा १३-३६३,३६५ ९-१६८ ६-१६७,१७० अशुभनामकर्म अस्तिनास्तिप्रवाद १-११५, असंख्यात ३-१२१; १३-३०४, ६-६४ . ९-२१३ अशुभ प्रकृति ३०८ १५-१७६ अस्थिर अश्वकरणद्धा असंख्यातगुणवृद्धि ११-३५१ ६-६३८-१० ६-३७४ अश्वकर्णकरण | असंख्येयगुणश्रेणी अस्पृष्ट काल ९-३,६ १३-५ ६-२६४ अहमिन्द्रत्व ६-४३६ अष्ट महामङ्गल ९-१०९ | अमंख्यातभागवृद्धि ११-३५१ अहोदिम ९-२७२ | असंख्यातवर्षायुष्क ७-५५७; अष्टरूपधारा (धनधारा) ८-११६; १०-२३७ | अहोरात्र ३-५७ असंख्यातासंख्यात आ अष्टस्थानिक ३-१२७ ८-२०५ असंख्येयगण आकार ३-२१,६८ अष्टम पृथिवी ४-९०,१६४ १३-२०७ १६० | असंख्येयगुणवृद्धि ६-२२, १९९ आकाश ४-८,३१९ अष्टांक १२-१३१ आकाशगता १.११३;९-२१० अष्टाङगमहानिमित्त ९-७२ | असंख्यातभागवृद्धि ११-३५१ आकाशगामी ९-८०,८४ अष्टाविंशतिसत्कमिक मिथ्या| असंख्येयगुणहीन ३-२१ आकाश चारण ९-८०,८४ दृष्टि ४-३४९,३५६, असंख्येयप्रदेशिक ३-२,३८ आकाश द्रव्य ३-३; १३--४३; ३६२,३६६,३७०,३७५ | असंख्येयभाग ३-६३,६८ १५-३३ ३७७,४३९,४४३,४६१ असंख्येयभागवृद्धि ६-२२,१९९ | आकाशप्रदेश ४-१७६ असत्यमन ४-३३८ १-२८१ असंख्येयराशि आकाशास्तिकायानुभाग असत्यमोषमनोयोग १-२८१ | असंख्येयवर्षायुष्क ११-८९,९० १३.३४९ असद्भावस्थापनबंध १४-५,६ | असंख्येयाद्धा (असंक्षेपाद्धा). आकाशास्तिद्रव्य १०-४३६ १०-२२६,२३२ असद्भावस्थापना ....१२० १-२०; | असंग्रहिक १३-४ आक्षेपणी १-१७५; ९-२७२ १३-१०,४२ असंज्ञिस्थिति ५-१७२ | आगति १३-३३८,३४२,३४६, असद्धावस्थापना काल४-३१४ असंज्ञी ७-७,१११,८-३८७ ३-१२, असद्भावस्थापनान्तर ५-२ असंप्राप्तसृपाटिकाशरीर १२३, ६-१५१ असद्भाबस्थापनाभाव ५-१८४| ६.७४ १३-७ असद्भावस्थापनावेदना १०-७ | असंप्राप्तसृपाटिकासंह. ८-१० | असद्भूतप्ररूपणा १०-१३१ ३८७ | आगम | संहनन Jain Education international Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.४ धवलासहितसमग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची ( १८ आगमद्रव्य काल ४-३१४ | आचार्य १-४८,४९;८-७२,७३ | आधार ४-८; १४.५०२ आगमद्रव्यक्षेत्र ४-५ | आज्ञा १३-७०; १४.२२६, आधेय ४-८ आनत १३-३१८ आगमद्रव्यनारक ७-३० आनप्राणपर्याप्ति ४-२५; आगमद्रव्यप्रकृति १३-२०३ | आज्ञाकनिष्ठता ७-३४ अनापानपर्याप्ति १-२५५ २०४ १४-३२६ आनुपूर्वी ६-५६, ८-९ ; आगमद्रव्यबंध १४-२८ १४-२२६ आज्ञावान् ९-१३४; १३-३७१ आगमद्रव्यबंधक आज्ञाविचय १३-७१ आन पूर्वी नाम १३-३६३ आगमद्रव्यभाव ५-१८४; आतप आनुपूर्वी नामकर्म ४-३० १२-२ आतपनाम १३-३६२,३६५ आनुपूर्वीप्रायोग्य क्षेत्र ४-१९१ आगमद्रव्यमंगल आताप ८-९,२०० अनपूर्वीविपाकाप्रायोग्य क्षेत्र आगमद्रव्यवर्गणा १४-५२| आत्मप्रवाद १-११८;९-२१९ ४-१७७ आगमद्रव्यवेदना १०-७ | आत्मन् १३-२८०,२८२, | आनुपूर्वीसंक्रम ६-३०२, आगमद्रव्य स्पर्शन ४-१४२ ३३६,४४२ ३०७; १६-४११ आगमद्रव्यानन्त ३-१२ आत्मा १-१४८ आष्त ३-११ आगमद्रव्यान्तर आत्माधीन १३-८८|| आबाधा ४-३२७, ६-१४६, आगमद्रव्याल्पबहुत्त्व ५-२४२ | आदानपद १-७५; ९-१३५, १४७,१४८; १०-१९४; आगमद्रव्य संख्यात ३-१२३ | १३६ ११-६२,२०२,२६७ आगमभावकाल ४-३१६, | आदि १०-१५०,१९०,४७५, आबाधा काण्डक ६-१४८, ११-७६ आदि (घन) ३-९१,९३, १४९, ११-९२,२६६ आगमभावक्षेत्र ४-७,११-२ ९४; १०-१९० आबाधास्थान ११-१६२,२७१ आगमभावजघन्य ११-१२ | आदिकर्म १३-३४६,३५० | आभिनिबोधिक १३-२०९, आगमभाव नारक ७-३० | आदित्य ४-१५०; १३-११५ २१० आभिनिबोधिकज्ञान १-९३, आगमभावप्रकृति १३-३९० आदिवर्गणा ६-३६६; | आगमभावबंध ७-११४-७,९ १६-५३२ २५१, ६-१६,३८४,४८६, ४८८ आगमभावभाव ८.१४४: आदिस्पर्द्धक १६-३७४,५-३८ ५.१८४, आदि आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय १२-२ आदेश ३-१,१०,४-१०, ६-१५,२१; १३-२०९ २१६ आगमभावलेश्या १६-४८५ १४४,३२२; ५-१,२४३; २४१,२४४ आगमभाववर्गणा १४-५२ ८-९३ ; १४-२३७ आभिनिबोधिकज्ञानी ७-८४; आगमभावस्पर्शन ४-१४४ | आदेश उत्कृष्ट ११-१३ ८-२८६; १४-२० आगमभावान्तर आदेश जघन्य आभ्यन्तर तप ८-८६ आगमभावानन्त ३-१२३ | आदेशकाल जघन्य ११-१२ आभ्यन्तर निर्वृत्ति १-१३२ आगमभावाल्पबहुत्त्व ५-२४२ | आदेश निर्देश ४-१४५,३२२| आमाँषधि प्राप्त ९-९५ आगमभावासंख्यात ३-१२५ आदेश भव ११-५१२ आमुण्डा १३-२४३ आगाल ६-२३३,३०८ आदेय ६-६५,८-११ आम्लनाम १३-३७० आचारगृह १४-२२ | आदेयनाम १३.३६३,३६६ | आम्लनामकर्म ६-७५ आचाराङ्ग १-९९; ९-१९७ | आदोलकरण ६-३६४ | आयत ४-११,१७२ ११-१२ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ ) ४- १३ | आबियमान आयतचतुरस्र क्षेत्र आयतचतुरस्रलोक संस्थान आशीविष ४-१५७ आशंकासूत्र आयाम ३-१९९, २००,२४५; आसादन -१३-१६५,१८१ आसादन ६- १२ आस्तिक्प परिशिष्ट ११२; १४ - २२३,३३९ आहारआहारशरीरबंध १४ ४३ १३- २०६ | आहारकार्मणशरीरबंध १४-४३ ४-१६५,१७०, १३६ | आहारतजसकार्मणशरीरबंध आलोचना आवन्ती अवर्जित करण ३२८,१५-२५९; १६-५१९ आयु आयु आवास १०-५१ आस्रव ७-९ आयुबंधप्रायोग्यकाल १०-४२२ आहार १-१५२,२९२; ७-७, आहारकशरीरसंघातनाम आयुष्क १३-२६,२०९,३६२ १६-२८८ आहारकशरीरांगोपांग अ युष्कघातक आयुष्कर्म प्रकृति आरण ६-८ | आहारकशरीर ९-८५,८६ आहारकशरीरद्विक १०-३२ आहारकशरीरनाम १३-३६७ ५- २४ आहारकशरीरबन्धस्पर्श १०-४३ ७-७ आहारशरीरबन्धननाम आरम्भ १३-४६ आर्यनन्दी १६,५७७,५७८ आहारतजसशरीरबंध १४-४३ आर्यमंक्षु १२-२३२; १६-५१८ आहारद्रव्यवर्गणा १४- ५४६, ५७८ ५४७,५४९,५५१,५५२ इङ्गिनीमरण आलापन बंध १४-३७,३८, आहारपर्याप्ति १-२५४ ३२,४० आहारमिश्रकाययोग १ - २९३, १३-६० इच्छा (राशि) २९४ ४-३२ इच्छाराशि १३-३३५ आहारवर्गणा १०-३२५, आहारशरीर ६-६९; १४-७८, इतरेतराश्रय २२६ इन्द्र इन्द्रक ५७७ | आहारशरीरआंगोपांग आवलिका ३-६५,६७; ४-४३ आवलिप्रथक्त्व १३-३०६ | आहारशरीरबंधन आवली ४-३१७,३५०,३९१; आहारशरीरसंघात आवश्यक आवश्यक परिहीनता ८-८९, ६-७३ ६-७० ६-७० ५-७ ; ६-२३३; ३०८; आहारसमुद्घात ७-३०० १३-२९८,३०४ | आहारसंज्ञा १-४१४ ८-८४ आहारक १- २९४ ८-३९०, १४-३२६,३२७ ५-२९८ १-१९२ ८- २२९ |ईर्यापथकर्म ५- १७४ ईर्यापथबंध ८३ | आहारक ऋद्धि ६-९ | आहारककाययोग ४-७८; १४-८६ | आहारककाययोगी आवारक आवास आवासक १५-३०३ आहारककाल आवृतकरण उपशामक ६- ३०३ | आहारकमिश्र काययोगी आवृतकरण संक्रामक ६-३५८ आहारकमुद्घात १४-४४ आहारतः आत्तपुद्गल इन्द्रायुध इन्द्रिय इन्द्रियपर्याप्ति इन्द्रियासंयम इषुगति ईशान ८- २२९ | ईशित्व ४-४५ ८-९ इ १३-३० १३-३६७ १३-३८७ १३-३६९ ४-२८ १६-५१५ १-२४ ३-१८७, १९०,१९१ ४-५७,७१, १९९-३४१ ९-११५ ४-३१९ ४-१७४,२३४ १४-३५ १-१३६,१३७, २३२,२६०; ७-६,६१ १-२५५ १४-५२७ ८-२१ १-२९९ १३-३८.४७ १७.५ ४.२३५; १३-३१६ ९-७६ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची ( २० उ ईषत्प्राग्भार ७.३५१. उत्कर्षण ६२६८,१७१; | उत्सेधयोजन ४.३४ ईषत्प्राग्भार पृथिवी ४.१६२ | ६.२१३; १०.५२ ४.२४,१६०, ईहा १.३५४, ६.१७ ; ९.१४४, | उत्तर १० १५०,१९०,४७. १८५, ९.१६ १४६; १३.२१७,२४२ उत्तर (धन) ३.९१,९३,९४ / उत्सेधांगुलप्रमाण ४.४० ईहाजिन उत्तरकुरु ४.३६५ उदय ६.२०१,२०२,२१३; ईहावरणीय १३.२१६,२३१ उत्तरनिर्वर्तना १६.४८६ ७.८२; १५.२८९ उत्तर प्रकृति उदयअनुयोगद्वार ९२३४ उक्त १३.२३९ उत्तरप्रकृतिबन्ध उदयगोपुच्छ १५.२५३ ८२ उक्त अवग्रह ६.२० उत्तरप्रकृतिविपरिणामना . उदयमार्गणा १६.५१९ उक्त प्रत्यय ९.१५४ उदयस्थान १५.२८३ ७.३२ उक्ता १४.३५ उदयस्थितिप्राप्त उत्तरप्रतिपत्ति ३.९४,९९; १०.११४ उक्तावग्रह १.३५७ | उदयादिअवस्थितगुणश्रेणि उग्रतप ९.८७ उत्तर प्रत्यय ८.२० ६.२५९ उग्रोग्रतप ९.८७ उत्तराध्ययन १.९७ | उदयादिगुणश्रेणी ६.३१८, उच्चगोत्र ६.७७, ८ ११ उत्तराभिमुख केवली ४.५० ३२०; १०.३१९; उच्चारणा १०.४५ उत्तरोत्तरतंत्रकर्ता ९.१३० १३.८० उच्चारणाचार्य १०.४४ उत्तान शैय्या ४.३७८; ५.१७ उदयादिनिषेक ४.३ ७ उच्चैर्गोत्र १३.३८८,३८६ उत्पत्तिक्षेत्र ४.१७९ उदयावलिप्रविशमानउच्छेद उत्पत्तिक्षेत्र समान क्षेत्रान्तर अनुभाग ६.२५९ उच्छे णी ४.८० ४.१७९ | उदयावलिबाहिर ६.२३३ उच्छ्वास ३.६१,६६,६७; | उत्पन्नज्ञानदर्शी १३.३४६ | उदयावलिबाहिरअनुभाग ६.०८.१० उत्पन्नलय ६.४८४,४८६, ६.२५९ उच्छ्वासनाम १३.३६३,३६४ ४८७,४८८ | उदयावलिबाहिरसर्वह स्वउत्कीरणकाल ५.१०; उत्पाद ४.३३६; १५.१९ स्थिति ६.२५९ १०.३२१ उत्पादपूर्व १.११४ ; ९.२१२ | उदयावलि ६.२२५,३०८; उत्कीरणद्धा १६.५२० | उत्पादस्थान ६.२८३ १०.२८० उत्कीरणाद्धा १०.२९२ | उत्पादानच्छेद (परिशिष्ट उदाण १२.३०३ उत्कृष्ट दाह ११.३३९ भाग १) १.२८; | उदीरणा ६.२०१,२०२,२१४, उत्कृष्ट निक्षेप ६.२२६ १२.४५७ ३०२,३०३; उत्कृष्ट पद १४.३९२ | उत्सर्गसूत्र १०.४० १५.४३ उत्कृष्टपद अल्पबहुत्व १०.३८५ / उत्सर्पिणी ३.१८; ४.३८९; | उदीरणाउदय १५,३०४ उत्कृष्टपदमीमांसा १४.३९७ ९.११९ उदीरणामार्गणा १६.५११ उत्कृष्ट स्थिति संक्लेश११.९१ | उत्सेध ४.१३,२०,५७,१८१ | उद्योत ६.६०;८.९,२०० उत्कृष्टपद स्वामित्व १०.३१ उत्सेधकृति ४.२१ | उद्योतनाम १३.३६३,३६५, उत्कृष्ट सान्तर वक्रमणकाल उत्सेधकृतिगुणित ४.५१ | ४.३८३ १४.४७६ | उत्सेधगुणकार ४.२१० । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ ) उद्वत्तितसमान ६.४४६, ४५१, । उपपादयोग ४५२,४८४,४८५ उद्वेध उद्वेलन काण्डक उद्वेलनकाल ५.३४, ७.२३३ उद्वेलन भागहर १६.४४८ उद्वेलन संक्रम १६.४१६ उद्वेलना ५.३३ उद्वेलनाकाण्डक ५.१०,१५ १६.३८३ उद्वेल्यमानप्रकृति उद्वेल्लिम ९.२७२,२७३ १.२३६ उपकरण उपक्रम १.७२ ९.१३४; १५.४१,४२ ९.२३३ ४. १७ उपपादराशि १६.४७८ उपपादस्पर्शन उपक्रमअनुयोगद्वार उपक्रमणकाल ४.७१,१२९; उपघात उपघातनाम उपचार उपलक्षण उपक्रमणकालगुणकार ४.८५ उपवास उपशम ६.५९,८.१० १३.३६३,३६४ ४.२०४,३३९; ७.६७,६८ ५.३२ १३.४६ उपदेश उपद्रावण उपधि उपधिवाक् उपनय उपपाद ४.२६,१६६,२०५; ७.३००; १३.३४६,३४७ १२.२८५ १.११७ ९.१८२ परिशिष्ट उपपादकाल ४.३२२ ४.८५ उपपादक्षेत्र उपपादक्षेत्र प्रमाण ४.१६५ उपपादक्षेत्रायाम उपपादभवनसम्मुखवृत्तक्षेत्र ४. १८५ उपशान्तमाया उपरिमविरलन ३. १६५, १.७९ उपशान्तराग ५. २५०,२५१ उपरिमस्थिति ६.२२५,२३२ उपशान्तलोभ २५५; १४.४७६ उपभोगान्तराय उपमालोक ४.३३२; उपशमक १०. ४२० उपशमिक अविपाकप्रत्ययजीव उपभोगत: अत्तपुद्गल १४.१४ १४.१५ १४.१५ १६.५१५ उपशान्त १२.३०३; १५.२७६ १५.१४ उपशान्तकषाय १. १८८, १८९; ४.१८५ ७.५,१४,८.४ १३.३९० | उपशान्तकषायवीतराग छद्मस्थ उपयोग १.२३६ ; २.४१३ उपयुक्त १४.१५ ५.१९ ४.३५३ उपरम उपरिमग्रैवेयक ४.८० उपशान्तकषायाद्धा उपरि निक्षेप ६.२२६ । उपशान्तकाल उपरिम राशि ५.२४९, २६२ उपशान्तक्रोध उपरिमवर्ग ३.२१,२२,५२ उपशान्तदोष ३.५४,७७ ; उपशान्तमान १४. १४ १४.१४ उपरिम विकल्प १४. १४ १४.१४ १४. १४ १४.१४ ४.३५२,४४६; ९. १८४ | उपशामक १३.५५ ५.१२५,२६०; ६.२३३; ७.५ १२११;५.२००, उपशामक अध्यवसान १६.५७७ २०२,२०३; २११, । उपशामकाद्धा ५.१५९,१६० २२०; ७.९,८१ १०.२९४ उपशामना १०.४६; १५.२७५ उपशामनाकरण उपशामनवार उपशमश्रेणी ४.३५१, ४४७ ५.११,१५१ ; ६.२०६, ३०५ १०.१४४ ७.८१ उपसंहार ८.५७; १०.१११, उपशमसम्यक्त्व ७.१०७ २४४,३१० उपशमसम्यक्त्वगुण ४.४४ उपादानकारण ७.६९; उपशमसम्यक्त्वगुणश्रेणि ४. ३१ भावबन्ध ४.१६५ उपशमिकचारित्र उपशमिकसम्यक्त्व ४.७९ उपशमसम्यग्दर्शन १५.२९७ उपादेय उपशमसम्यक्त्वाद्धा ४.४४ उपादेयछेदना ३३९,३४१,३४२, ३७४, उपाध्याय ४८३; ५.१५,२५४ | उपार्धपुद्गलपरिवर्तन ३.९५ उपशमसम्यग्दृष्टि १-१७१; ४. १७२ ७.१०८; ८.३७२; १०.३१५ ८.२६५ ९.११५; १०.७ ७.६९ १४.४३६ १.५० ४.३३६, ७.१७१,२११ उपासकाध्ययन १.१०२; ९.२०० Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलास हितसमग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द सूची ( २२ ८.९२ उभय १३.६० । एकावग्रह उभयसारी ९.६० | एक १३.२३६ | एकासंख्यात ३.१२५ उभयान्त एक-एकमलप्रकृतिबंध ८.२| एकेन्द्रिय १.२४८,२६४; उभयासंख्यात ३.१२५ एक क्षेत्र १३.६,२९२,२९५ ७.६२,८.९ उराल १४.३२२,३२३ एकक्षेत्रस्पर्श १३.३,६,१६ एकेन्द्रियजाति ६.६७ उलुञ्चन १३.२०४ एकक्षेत्रावगाढ ४३२७ एकेन्द्रियजातिनाम १३.३६७ उश्वास ४.३९१ एकत्वविचारअविचार १३.७९ एकेन्द्रियलब्धि १४.२० उष्णनाम १३.३७० | एकत्ववितर्कअविचार १.९०,७.२९ उष्णनामकर्म ६.७५ | शुक्लध्यान ९.१८० उष्णस्पर्श १३.२४/एक दण्ड ४.२२६ एषण १३.५५ एकनारकावासविष्कम्भ ऊर्ध्वकपाट १३.३७९ ऐन्द्रध्वज ऊर्ध्वकपाटच्छेदनकनिष्पन्न एकप्रत्यय ९.१५१ एरावत ४.४५ ४.१७६ एकप्रादेशिकपुद्गलऊवलोक ४.९,२५६ | द्रव्यवर्गणा १४.५४ | ओघ ४.९,१४४,३२२ ; ५.१, ऊर्ध्वलोकक्षेत्रफल ४.१६ एकप्रादेशिकवर्गणा २४३; १४.२३७ ऊर्ध्वलोकप्रमाण ४.३२,४१, | १४.१२१,१२२ ओघ उत्कृष्ट ११.१३ ५१ | एकबन्धन १४.४६१ ओघजघन्य ११.१२ ऊर्ववृत्त ४.१७२ / एकविध ९.१५२; १३.२३७ | ओघनिर्देश ३.१,९; ४.१४५ ऊहा १३.२४२ | एकविध अवग्रह ६.२० ३२२ ऋ |एकविंशतिप्रकृति उदयस्थान | ओघप्ररूपणा ४.२५९ १३.३३० ____७.३२ ओघभव १६.५१२ ऋजुगति ४.२६,२९,८० | एकस्थान ११.३१३ ओज ३.२४९ ऋजुमति ४.२८; ९.६२ | एकस्थानदण्डक ८.२७४ ओज १०.१९ ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञाना- एकस्थानिक ८.२४९ / ओम १०.१९ वरणीय १३.३२८,३२९,३४० एकस्थानिका १५.१७४; | ओवेल्लिम ९.२७२,२७३ ऋजुवलन ४.१८० १६.५३९ ऋजुसूत्र ९.१७२,२४४; | एकस्थिति १५.१०१ | औत्पत्तिकी ९.८२ १३.६,३९,४०,१९९| एकानन्त ३.१६ | औदयिक १.१६१; ७.९,३००; ऋजुसूत्रनय ७.२९ एकान्त असात १६.४९८ ९.४२८; १२.९७९ ऋण १०.१५२ | एकान्तभवप्रत्ययिक १५.१७३ | औदयिकभाव ५.१८५,१९४ ऋतु ४.३१७,३९५; | एकान्तसात १६.४९८ | औदारिक १४.३२३ १३.२९८,३०० एकान्त मिथ्यात्व ८.२० | औदारिकऔदारिकऋद्धि १३.३४६,३४८; एकान्तानुवृद्धि ६.२७३,२७४ | शरीरबन्ध १४.४२ १४.३२५ | एकान्तानुवृद्धियोग १०.५४ | औदारिककाययोग १.२८९ ४२०॥ ऋजुक औ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क बन्ध १४.४० १३.३७० ८२०५, कणय २३ ) परिशिष्ट औदारिककाययोगी ८.२०३ | अंगुल ४.५७; १३.३०४,३७१ | कर्णक्षेत्र ४.१५ औदारिककार्मणशरीर- अंगुलगणना ४.४० | कर्णाकार ४.७८ बन्ध १४.४२ अंगुलपृथक्त्व १३.३०४ | | कर्ता १.११९; ९.१०७ औदारिकतैजसकामण अंडर १४.८६ कर्म ४.२३ ; १३.३७.३२८; शरीरबन्ध १४.४३ अंशांशिभाव १४.४३३ ५.२०८ कर्मअनन्त रविधान १३.३८ औदारिकतंजसशरीर कर्मअनुयोगद्वार १४.४२ कटक ९.२३२ औदारिकमिश्रकाययोग | कटुकनाम कर्मअल्पबहुत्व १३ ३८ कटुकनामकर्म कर्मउपक्रम १५.४१,४२ १.२९०,३१६ कर्म उपशामना औदारिकमिश्रकाययोगी कणभक्ष १३.२८८ १५.२७५ १४.३५ कर्म-कर्मविधान १३.३८ कर्मकारक औदारिकशरीर कदलीघात ६.१७०७.१२४; १३.२७९ ४.५४; १०.२२८,२३७,२४० कर्मकालविधान १३.३८ ६.६९; ८.१०; १४.७८ कदलीघातक्रम औदारिकशरीर अंगोपांग६.७३ १०.२५० | कर्मक्षेत्र उत्कृष्ट ११.१३ कथन ४.१४४,३२२ | कर्मक्षेत्रजघन्य औदारिकशरीरकायत्व ११.१२ कन्दक १३.३४ कर्मक्षेत्रविधान १३.३८ १४.२४२ | कर्मगतिविधान औदारिकशरीरनाम १३.३६७ कपाट ९.२३६; १०.३२१; १३.३८ औदारिकशरीरबंधन ६७० १३८४ कर्मजा प्रज्ञा ९.८२ औदारिकशरीरबंधननाम कपाटगतकेवली ४.४९ कर्मत्व ६.१२ कपाटपर्याय कर्मद्रव्य ७.८२ १३.३६७ औदारिकबंशरीरधस्पर्श कपाटसमुद्घात ४.२८,४३६ ; | कर्मद्रव्यक्षेत्र १३.३०,३१ ६.४१३ | कर्मद्रव्यभाव १२.२ औदारिकशरीरसंघात ६.७० कपिल ६.४९०; १३.२८८ | कर्मद्रव्यविधान १३.३८ औदारिकशरीरसंघातनाम करण ४.३३५,५.११ | कर्मधारय १०.२३६ करण कृति १३.३६७ | कर्मधारयसमास ३.७ औदारिकशरीरस्थान करणगाथा ४.२०३ कर्मनयविभाषणता १३.३८ १४.४३२,४३३ करणिगच्छ १०.१५५ कर्मनामविधान १३.३८ औदारिकशरीरांगोपांग करणिगत १०.१५२ | कर्मनारक। ७.३० ८.१०; १३.३६९ करणिगतराशि १०,१५२ | कर्मनिक्षेप १३.३८ औपचारिकनोकर्मद्रव्यक्षेत्र४.७ करणिशुद्धवर्गमूल १०.१५१ | कर्मनिबन्धन १५.३ औपशमिक १.१६१,१७२; करणोपशामना १५.२७५ कर्मनिर्जरा ७.१४ ७.३०; १३.२७९ करुणा १३.३६१ कर्मपरिमाणविधान १३.३८ औपशमिकभाव ५.१८५,२०४ कर्कशनाम १३.३७० कर्मपुद्गल ४.३३२,३२५ कर्कशनामकर्म | कर्मपुद्गलपरिवर्तन ४.३२२, अंक कर्कशस्पर्श १३.२४ ३२५ अंग ९.७२; १३.३३५ कर्ण ४.१४ | कर्मप्रकृति १३.२०४,२०५, अंगमल १४.३६ अ . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहित समग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची ( २४ १२.२८५ कारक कर्मप्रक्रम १५.१५ | कलश १३.२ ७ कायोत्सर्ग ४.५०,१३.८८ कर्मप्रत्ययविधान १३.३८ | कलह कर्मप्रवाद १.१२१,९.२२२ कला ६.६३ कारण ३.४३,७२, ७.२४७ कर्मबन्ध ४.४७६; १४.४६ ९.२७६ | कामण १.२९२१४.३२२,३२९ कर्मबन्धक ७.४,५ | कलिओज १०.२३; १४.१४७ कार्मणकाय १.२९९ कर्मभागाभागविधान १३.३८ | कलिओजराशि ३.२४९ कार्मणकाययोग १.२९५ कर्मभावविधान १३.३८ कलिंग १३ ३३५ कार्मणकाययोगी ८.२३२ कर्मभूमि ४.१४,१९९; १३.५६ काणकार्मणशरीरबन्ध ६.२४५ | कषाय १.१४१; ४.३९१; १४.४४१ कर्मभूमिप्रतिभाग ४.२१४; ५.२२३; ६.४०;७.७, कार्मणवर्गणा ४.३३२ ११.८६ ८८२,१९, १३.३५९ कार्मणशरीर ४.२४,१६५; कर्ममोक्ष १६.३३७ कषायउदयस्थान १६.५२७ ६६९, ८.१०; ९.३५) कर्ममंगल १.२६ | कषायनाम १३.३७० १३.३०; १४.७८,३२८,३२९ कर्मवर्गणा १४.५२ कषायनामकर्म ६.७५ कार्मणशरीरबन्धस्पर्श १३.३० कर्मवेदना १०.७ | कषायप्रत्यय ८.२१,२५ कार्मणशरीरबन्धन ६.७० कर्मसंन्निकर्षविधान १३.२८ | कषायवेदनीय १३.३५९,३६० कार्मणशरीरबन्धननाम कर्मस्थिति ४.३९०,४०२, | कषायसमुद्घात ४.२६,१६६; १३.३६७ ४०७;७.१४५ ७.२९९ कार्मणशरीरसंघात ६.७० कर्मस्थितिअनुयोग ९.२३६ | | कषायोपशामना १०.६९४ कार्मणशरीरसंघातनाम १३.३६७ कर्मस्थितिकाल ४.३२२ काकजघन्य ११.८५ कर्मस्पर्श | काल ४.३१८,३२१, १३.९१, १३३,४,५ | काकलेश्या ११.१९। ३०८,३०९, १४.३६ कर्मास्रव ४.४७७ | काण्डक कालउपक्रप १५.४१ कर्मसंक्रम १६.३३९ / काण्डकघात ६.२३५ कालगतसमान कर्मानयोग काण्डर्जुगति ४.७८,२१९ कालगत उत्कृष्ट ११.१३ कर्वट ७.६,१३.३३५ कापिष्ठ ४.२३५ कालद्रव्य ३.३; १०.४३६; कर्वटविनाश १३.३३२,३३५, | कापोतलेश्या १.२८९; ७. १३.४३,१५.३३ ३४१ | १०४;८.३२०,३३२; १६. कालद्रव्यानुभाग १३.३४९ कल १३.३४६,३४९ ४८४,४८८,४९१ कालनिबन्धन कल्प ४.३२०; १२.२०९ | कामरूपित्व ९.७६ कालपरिवर्तन ४.३८५ कल्पकाल ३.१३१,३५९ | काय १.१३८,३०८७.६ कालपरिवर्तनकाल ४.३३४ कल्पवासिदेव ४.२३८ | कायक्लेश १३५८ कालपरिवर्तनवार ४.३३४ कल्पवृक्ष ८.९२ | कायप्रयोग १३.४४ कालभावप्रमाण ३.३९ कल्प्यव्यवहार १.९८; ९.१९० कायबली कालप्रक्रम कल्प्याकल्प्य १.९८९.१९० काययोग १.२७९,३०८%; कालमंगल १-२१ कल्याणनामध्येय १.१२१; | ४.३९१७.७८; १०.४३८ कालयवमध्य १०-९८% ९.२२३ | कायस्थितिकाल ४.३२२ | १२-२१२ ४.४३५ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५) परिशिष्ट कालयुति १३-३४९ | कटस्थानादि ७-७३ | केवलज्ञान १-९५,१९१, काललब्धि ६-२५०,९-१२१ कृत १३-३४६,३५० ३५९,३६०,३८५; कालवर्गणा १४-५२ कृतकृत्य ६-२४७,२६२; ४-३९१, ६-२९,३३,४८९, कालस्पर्शन ४-१४१ ४९२; १०-३१९; १३-२१२, कालसंप्रयुक्त १३-३३२ कृतकृत्यकाल ६-२६३,२६४ २४५; १४-१७ कालसंक्रम १६-३३९,३४० कतकरणीय ५-१४,१५,१६, केवलज्ञानावरणीय १३-२८९, कालसंयोग ९-१३७ ९९,१०५,१३९,२३३, कालसंसार ४-३३३ ७-१८१, १०-३१५; केवलज्ञानी ७-८८;८-२९६, कालाणु ४-३१५,१३-११ १५-२५३ ९-११८ कालानुगम ४-३१३,३२२; / कतकरणीयवेदकसम्यग्दृष्टि । ६-४३८,४४१ केवलदर्शन १-३८१, ४-३९१; १३-१०७ कालानुयोग ६-३३,३४; १०-३१९, १-१५८ | कृतयुग्म ४-१८४;७-२५६; कालोदकसमुद्र १०-२२; १४-१४७ १३-३५५,१४-१७ ४-१५०, १९४,१९५ | कृतयुग्मराशि ३-२४९ | केवलदर्शनी ७-९८,१०३; काशी ४-२३२,८-२ १३-३३५ ८-३१२, ९-११८ काष्ठ कर्म ९-२४९; १३-९, ९-१३४,२३२,२३७, केवललब्धि ९-११३ ४१,२०२ २७४,३२६,३५९ | केवलिसमुद्घात ४-२८; ६काष्ठपोतलेप्यकर्मादि ७-३ | कृतिकर्म -९७, ९-६१, ४१२;७-३०० काष्ठा ४-३१७,६-७५३ ८६,१८९ | केवली ६-२४६, ७-५, किनर ९-५४ १०-३१९ किंपुरुष १३-३९१ | कृतिवेदनादिक ७-१ | केशत्व ६-४.९,४९२१ कीर १३-२२३ | कृष्टि ६-३१३; १०-३२४, कीलकशरीरसंहनन ६-७४ | ३२५; १३-८५ कोटाकोटी ३.२५५,४-१५२ कीलितसंहनन ८-१०,१३ १६-५२१,५७९ कोटि १३-३१५ ३६९,३७० कष्टि अन्तर ६-३७६ कोटी ४-१४ कुट्टिकार ९-२७६ | कृष्टिकरणद्धा ६-३७४,३८२ | कोष्ठबुद्धि ९-५३,५४ कुडव १३-५६ कृष्टिवेदकाद्धा ६-३७४,३८४ | कोष्ठा १३-२४३ १४-४० कृष्टिकरण ४-३९१ | क्रमवृद्धि १०-४५२ कुण्डलपर्वत ४-१९३ | कृष्ण ६-२४७ | क्रमहानि १०-४५२ कुब्जकशरीरसंस्थान ६-७१ | कष्णनीलकापोततेजपद्म। क्रिया १-१८; १३-८३ कुब्जकशरीरसंस्थाननाम शक्ललेश्या १४-११ | क्रियाकर्म १३-३८,८८ १३-३६८ कृष्णलेश्या १-३८८; ७-९०४; क्रियावाददृष्टि ९-२०३ कुभाषा १३-२२२ ८-३२०१६-४८४, कुरु क्रियाविशाल१-१२२; ९-२२४ ४८८,४९० १३-२२२ | कृष्णवर्णनाम १३-३७० क्रोध १.३५०,६.४१; १२.२८३ १३-६३ कृष्णवर्णनामकर्म ६-७४ क्रोधकषाय १.३४९,७.८२ ९-७७ क्रोधकषायाद्धा ४.४४४ कृष्णादिमिथ्यात्वकाल ४.३२४ कुलशैल ४-१९३,२१८ | केवल ८-२६४ धमानमायालोभभाव कूट १३-५,३४; १४-४९५ केवलकाल ९ -१२० | १४.११ कुरुक कुलविद्या Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषखंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची (२६ डडी १९८ क्रोधसंज्वलन १३.३६० क्षायिकसम्यक्त्व १.३९५; | गच्छसमीकरण ४१५३ क्रोधाद्धा ४.३९१ ७.१०७,१४.१६ १४.३८ क्रोधोपशामनाद्धा ५.१९० क्षायिकसम्यक्त्वाद्धा ५.२५४ | गण क्षण ४.३१७; १३.२९५,२९९ | क्षायिकसम्यग्दृष्टि १.१७१ | गणधर ९.३,५८ क्षणलवप्रतिबोधनता ८.७९ ४.३५७; ६.४३२,४४१ / गगनकृति ९.२७४ ८५ | क्षायिकसंज्ञा ५.२०० | गगनानन्त ४.१५,१८ क्षणिकैकान्त ९.२४७ क्षायोपशमिक १.१६१,१७२; | गगनासंख्यात ३.१२४,१२६ क्षपक ४.३५४,४४७; ५.१०५, ! ५.२००,२११,२२०; गणित ४.३५,२०९ १२४,२६० ; ७.५; ८.२६५; ७.३०,६१ गणी १४.२२ ९.१० | क्षायोपशमिकभाव ५.१८५, | गती ६,५०,७.६,१३.३३८, क्षपकश्रेणी ४.३३५,४४७, ३४२,३४६ ५.१२,१०६; १०.२९५ | क्षिप्र ९.१५२| गति आगति . ६.३ १२.३० क्षिप्रप्रत्यय १३.२३७|गतिनाम १३-३६३,३६७ क्षपकश्रेणीप्रायोग्यविशुद्धि क्षीणक्रोध १४.१६ | ग गतिनिवृत्ति ९-२७६ ४.३४७ क्षीणदोष १४.१६ गतिमार्गता १३-२८०,२८२ क्षपकदश ५.१५६,१६० क्षीणमाया १४.१६ गतिसंयुक्त ८-८ क्षपण १.२१६ | क्षीण मोह १४.१६ | गन्ध ६-५५.८-१० क्षपित ९.१५ क्षीणराग १४.१६ गंधनाम १३-३६३.३६४,३७० क्षपितकर्माशिक ६.२५७; क्षीणलोभ १४.१६ | गन्धर्व १३-३९१ ९.३४२,३४५; १०.२२,२१६, | १४.३६ | गरुड १३-३९१ १२.११६,३८४,४२ क्षेत्रवर्गणा १४.५२ | गर्भोपक्रान्त ४-१६३ क्षपितघोलमान १०.३५,२१६ गर्भोपक्रांतिक ६-४२८, १२.४२६ खगचर ११.९०,११५, ७-५५५,५५६ क्षय ५.१९८,२०२,२११, १३.३९० १३-९६ २२०; ७.९; ९.८७,९२ खण्ड ७.२४७ क्षयोपशम ७.९२ गलितशेषगुणश्रेणी ६-२४९, खण्डित क्षयोपशमलब्धि ६.२०४ ३.३९,४१ २५३,३४५,१०-२८१ खातफल ४.१२,१८१,१८६ | गवेषणा क्षायिक १३-२४२ १.१६१,१७२; खेट ७.३० ; ९.४२८ ७.६,१३.३३५ | गव्यति १३.३२५ खेटविनाश १३.३३२,३३५, क्षायिकचारित्र १४.१६ गव्यूतिपृथक्त्व१३-३०६,३३८ क्षायिकपरिभोगलब्धि १४.१६ ३४१ ! गान्धार १३-३३५ खेलौषधि क्षायिकभोगलब्धि १४.१७ गारव ९.४१ क्षायिकलब्धि ७.९० गिल्ली १४-३८ क्षायिकलाभलब्धि १४.१७ | गगन ४.८ गुण.१-१७४,४-२००,९-१३७, क्षायिकविपाकप्रत्ययिक- गच्छ ४.१५३,२०१,१०.५०, १५-१७४ जीवभावबंध १४.१५,१६ १३.६३ गुणकाल गच्छराशि क्षेत्र गलस्थ ४.१५४) Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ) परिशिष्ट . ४.५१ गुणकार ४.७६; ५.२४७, | गुणितकर्माशिक ६.२५६,२५८ | गोड १३.२२२ २५७,२६२,२७४ १०.२१,२१५; १२.११६, | ४.१४५ गुणकारशलाका ४.१९६ | ३८२, ४२६; १५.२९७ गौण्य ९.१३५,१३६ गुणकारशलाकासंकलना | गुणितक्षपितघोलमान ६.२५७ गौण्यपद १.७४; ९.१३८ ४.२०१ गुणितघोलमान १०.३५,२१५, गौतम १०.२३७ गुणगार १४.३२१ १२.४२६ | गौतम स्थविर १२.२३१ गुणधरभट्टारक १२.२३२ गुणोपशामना १५.२७५ ग्रन्थ १४.८ गुणनाम १.१८ गुरुकनामकर्म ६.७५ ग्रन्थकर्ता ९.१२७,१२८ गुणपरावृत्ति ४.४०९,४७० । गुरुनाम १३.३७० ग्रन्थकृति ९.३२१ ४७१ गुरुस्पर्श १३.२४ | ग्रन्थसम ९.२६०,२६८; गुणप्रतिपन्न १५.१७४ .१७४ | गुह्यकाचरित ४८ १३.२०३; १४.८ गुणप्रत्यय १३.२९०,२९२ | गृह १४.३९ | ग्रन्थिम ९.२७२ गणप्रत्ययअवधि ६.२९| गहकर्म ९.१५०; ३.९ | ग्रह गुणप्रत्यासत्तिकृत १४.१७ १०,४१,२०२,१४.६ | ग्रहणतः आत्तपुद्गल १६.५१५ गुणयोग १०.४३३ | गहछली ९.१०७,१०८ | ग्रहणप्रायोग्य १४.५४३ गुणश्रेणि६.२ २२,६२४,२२७; ३.५४,५७ | ग्राम ७-६; १३-३३६ १२.८०; १५२९६ गृहीत अगृहीत १३.५१ | ग्रेवेयक ४-२३६,१३-३१८ गुणश्रेणिनिक्षेप ६.२२८,२३२ १०.४४१ ग्लान १३.६३,२२१ गुणश्रेणिनिक्षेपाग्राम ६.२३२ गहीतगुणाकार ३.५४,६१ गणश्रेणिनिर्जरा १०.२९६ गृहीतगृहणाद्धा ४.३२८ घट १३.२०४ १५.२९ गुणश्रेणिशीर्ष गृहीतगृहणाद्धाशलाका ४.३२९ | घटोत्पादानुभाग १३.२४९ ६.२३२; गृहीतगृहीत १५.२९८,३३३ १३-२२१ ३.५४,५९; | घन घनपल्य १०.२२२ । ३-८०,८१ गणश्रेणिशीर्षक १०.२८१, गोत्र ६.१३; १३.२६,२०९ | घनफल ४-२० ३२० गोत्रकर्म ४-१४६ गुणसंक्रम६.२२२,२३६,२४९, १३.३०८ | धनरज्जु गोत्रकर्मप्रकृति १३.२०६ | घनलोक ४-१८,१८४,२५६ १०.२८०,१६.४०९ गुणस्थानपरिपाटी ५.१३ गोधूम १३.२०५ ७-३७२ गुणतस्थितिकाल ४.३२२ गोपुच्छद्रव्य ६.२६० | घनलोकप्रमाण ४-५० गुणहानि ६.१५१,१६३,१६५ | गोपुच्छविशेष ६.१५३; । धनहस्त १३-३०६ गुणहानिअध्वान १०.७६ १०.१२२ घनांगुल ३-१३२,१३९; गुणाद्धा ५.१५१ | गोपुच्छा १०.१०९ ४-१०,४३,४४,१५,१७८; गुणान्तरसंक्रमण ४.३३५ | गोपुर १४.३९ ५-३१७,३३५ गुणान्तरसंक्रान्ति ५.८९,१५४ गोमूत्रिकगति ४.२९ । घनांगुलगुणाकार. ४-३३ १७१ | गोमूत्रकागति १.३०० |घनांगुलप्रमाण ४-३३ गुणित | गोम्हिक्षेत्र ४.३४ | हार ४-९८ |गोवरपीठ १४.४० | घनाघनधारा ३-५३,५८ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची (२८ __३५५ शिरम ९-८८ १०.४९४ ६-२१० घातक्षुद्रभवग्रहण ४-२९२; | चक्षुरिन्द्रियअर्थावग्रह १३-२२७ | चतुष्पद ११-३९१ ७-१२६,१३६; १४-३६२ | चक्षदर्श १-३७९,३८२; | | चन्द्र ४-१५०,३१९ घातक्षुद्रभवग्रहणमात्रकाल १३-३५५/ | चन्द्रप्रज्ञप्ति १-१०९,९-२०६ ७-१८३ | चक्षुदर्शनावरणीय १३-३५४ चन्द्रबिम्बशलाका ४-१५९ घातपरिणाम १२-२२०,२२५ चयन १३-३४६,३४७ घातस्यान १२-१३०,२२१, १४-२३८ चयनलब्धि १-१२४; ९२३१; १६-४०७ चतुःशिरस् १३-८९ २२७; १३-२७० घातायुष्क चतुःषष्ठिपदिकदण्डक १२-४४ | १-२२ घातिक ७-६२ | चतुःसामयिकअनुभागस्थान । च्यावितदेह ९-२६९ घातिसंज्ञा १५-१७१,१६ १०-२०२० च्युत १-२२ ३७७,५३९| चतु:सामयिकयोगस्थान च्युतदेह ९-२६९ घोरमान ६-२५७ चरमफालि घोरगुण चतु.स्थानबंधक ११-३१३ चरमवर्गणा ६-२०१ घोरतप ९.९२ चतु:स्थानिक १५-१७४ चारण ९-७८ घोरपराक्रम ९-९३ चतु:स्थानिकअनुभागबन्धक । चारित्र ६-४०; १५-१२ घोलमानजघन्ययोग १६-४३५ | चारित्रमोहक्षपण ७-१४ घोष १३-२२१,३३६ | चतुःस्थानिकअनुभागवेदक चारित्रमोहनीय ६-३७,४०; घोषसम ९-२६१,२६९; १३-३५७,३५९ १३-२०३, १४.९ चतुःस्थानिक अनुभागसत्कोमक | चतुःस्थानिक अनुभागसत्कमिक चारित्रमोहोपशामक ७-१४ घ्राणनिर्वृति १-२३५ | ६-२०९ चारित्रविनय ८-८०,८१ घ्राणेन्द्रिय ४-३९१; ७-६५ | चतुरमलबुद्धि ९.५८| चार्वाक १३-२८८ घ्राणेन्द्रियअर्थावग्रह १३-२२८ | चतुरिन्द्रिय १-२४४,२४८; चालनासूत्र १०-९ घ्राणेन्द्रिय अवाय १३-२३२ ७-६५,८-९ चित्रकर्म ९-२४२; १३-९, घ्राणेन्द्रिय ईहा १३-२३२ चतुरिन्द्रियजाति ६-६८ ४१,२०२; १४-५ घ्राणेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह चतुरिन्द्रियजातिनाम १३-३६७ चित्रा ४-२१७ १३-२२५/ चतुरिन्द्रियलब्धि १४-२० १३.२४४,३३२, चतुर्गति निगोद १४-२३६ ३३३,३४१ चक्रवर्तित्व ६-४८९,४९२, चतुर्थपृथिवी ४-८९ चिरन्तन अनुभाग १२-३६ ४९५,४९६ | चतुर्थस्थान ११-३१३ चुन्द १४-३८ चक्षुदर्शन ६-३३, ७-१०१; / चतुर्थस्थान अनुभागबन्ध ९-२७३ १५-१० ११-३१३ | चूर्णचूणि १२-१६२ चक्षुदर्शनस्थिति ५-१३७,१३९ | चतुर्थसमुद्रक्षेत्र ४-१९८ | चूणि १२-१६२ चक्षुदर्शनावरणीय ६-३१,३३ / चतुर्दशगुणस्थाननिबद्ध ४-१४८ चूणिसूत्र ८-९; १२-१३२ चक्षुदर्शनी ७-९८;८-३१८| चतुर्थपूर्वधर १५-२४४ | चूलिका ७-५७५; ९-२०९; चक्षुरिन्द्रिय १-२६४; ४-/ चतुर्दशपूर्वी ९-७०; १६-५४१ / १०-३९५; ११-१४०; ३९१; ७-६५ / चतुर्विंशतिस्तव १-९६,९-१८८ | १४-४६९ | चूर्ण Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ ) चैतन्य चैत्यवृक्ष छ छद्मस्थ १-१८८, १९०; ७-५ जघन्य बन्ध ९- १२० १३- ४७ छवि १४-४०१ छह द्रव्य प्रक्षिप्त राशि ३ १९, छद्मस्थकाल छद्मस्थवीतराग छिन्न छिन्नस्वप्न छिन्नाछिन्न छिन्नायुककाल १-१४५ जघन्यपदस्वामित्व ९- ११० जधन्यपरीतानन्त जघन्यपरीतासंख्य २६,१२९ ९-७२,७३; १२-१६२ परिशिष्ट जघन्य योगस्थान जघन्य वर्गणा जघन्य स्थान जघन्य स्थिति जघन्य स्थितिबंध ९-७४ जघन्य स्पर्द्धक २१४; ११-१२५; १२-१०२ जन्तु छेदराशि छेदोपस्थापक छेदोपस्थापनशुद्धि संयम १३-२२५ १३-३१४ छेद १३-३०३ | ज्योतिष्क जीवराशि ४ १५५ १३- ३३५ ज्योतिष्कसासादनसम्य छेदगुणकार ११-१२८ | जनपद छेदना १४-४३५, ४३६ | जनपदविनाश १३-३३५, ३४१ दृष्टिस्वस्थानक्षेत्र ४- १५० छेदभागहार १०-६६,७२, जनपदसत्य १०- १५१ | जम्बूद्वीप १-३७२ १२- १६२ जघन्यावगाहना ४- १६३ | जघन्यावधि १३-३२५, ३२७ ज्योतिष्क १३-६१; १४-४०१ जघन्यावधिक्षेत्र १०-३१ | जातिविद्या ९-७७ ३- २१ जातिस्मरण ३-१५७; ६-४३३ १०-८५ जित ९-२६२,२६८; १३-२०३; १४-८ ६-२४६, ९ - २,१० | जम्बूद्वीपक्षेत्र १- ३७० जम्बूद्वीपच्छेदनक जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ज जगप्रतर ३- १३२,१४२; ४-१८,५२,१५०,१५१,१५५. जम्बूद्वीपशलाका १६९,१८०,१८४,१९९,२०२, जयन्त २०९,२३३; ७-३७२ जया जगश्रेणी ३ - १३५,१४२,१७७; जलगता जलजर ४- १०, १८, १८४ ; ७-३७२ जघन्य १३-३०१,३३८; जघन्य अनन्तानन्त ३-११ जघन्य उत्कृष्टपद १४- ३९२ जघन्य कृष्टिअन्तर ६-३७६ जघन्यद्रव्य वेदना १२-९८ जघन्यपद १४-३९२ जघन्य पदअल्पबहुत्व १०-१८५ जघन्यपदमीमांसा १४-३९७ जातिनाम ११-३३९ १०-४६३ जिन ६. १०१ | जिनपूजा १२-९८ | जिनवृषभ ६-१८० ; | जिह् वेन्द्रिय ४ ३९१७ ६४ ११- ३५० जिह्वेंद्रियअर्थावग्रह १३-२२८ ११- ३३९ जिह् वेन्द्रिय ईहा १३-२३१ ६-२१३ जिह् वेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह ४-२२, ३३: १-११८ | ज्योतिष्कस्वस्थानक्षेत्र ४-१६० १- १२० ज्योतिषी ८-१४६ ३ -१; ४- १५० जीव १-११९, १३-८, ४० १३-३०७ | जीवगुणहानि १०-१०६ ४- १९४ | जीवगुणहानिस्थानान्तर ४-१५५ १०-९८; १५-३२८ १४-१३ १ - ११० ; जीवत्व जीवद्रव्य ३-२; १३-८३; ९ - २०६ ४-१९६ १५-३३ ४- ३८६ जीवनिबद्ध ४- ३१९ | जीवपुद् गलबन्ध ९-७९ | जीवपुद्गल मोक्ष ११- ९०,११५; | जीवपुद्गलयति १३ - ३९१ जीवप्रदेशसंज्ञा जलचारण जल्लोषधिप्राप्त जहत्स्वार्थवृत्ति जाति ९-७९ जीवभाव ९-९६ जीवभावबन्ध जीवमोक्ष ९-१६० १-१७; ३-२५० जीवयवमध्य ४-१६३; ६-५१ १०-१८९ १३-३७ १३-३६३,३६७ | जीक्युति १५-७,१४ १३-३४७ १३-३४८ १३-३४८ १३- ४३९ १४- १३ १४-९ १३-३४८; १०-६०; १२-२१२ १३-३४८ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवविपाकित्व ६.३६ जीवविपाकी ५२२२१६.११४ | तटच्छेद १२.४६; १५.१३ तत् जीवस्थान १-७९,७२,३, ८.५,१३.२९९ जीवसमास १.१३१; ४. ३१; ६.२, ८.४ जैमिनी जंघाचरण ज्ञातृधर्मकथा ज्ञान धवलासहित समग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक शब्द सूची तन्तुचारण १४.४३६ | तपोविद्या १३.२२१ तप. कर्म ज्ञानकार्य ज्ञानप्रवाह १४.३३२ जीवसमुदाहार१०.२२१,२२३ तद्भावसामान्य४-३; १०.१०, ११ ५.७,९,८४,१४२, १८६ ; ज्ञानविनय १४६, १४७, ३६४; ९.२१९ १३.३४९ तदुभयप्रत्ययित अजीवभावबंध तारा जुग तालप्रमाण जीवानुभाग जीवित १३.३३२, ३३३, ३४१ १४.३८ १४.२३,२६,२७ तार्किक जुगुप्सा ६.४८; ८.१० ; | तदुभयप्रत्ययित जीवभावबंध १४.१०,१८,१९ १३.२८८ तदुभयवक्तव्यता १.८२ तद्वयतिरिक्त ९.७० ९. २०० तद्वतिरिक्त अल्पबहुत्व १३.३६१ तालप्रलम्बसूत्र तालवृक्ष संस्थान तिक्तनाम ७.४ तिक्तनामकर्म १.३५३,३६३,३८४; टंक तत्पुरुषसमास तत्त्व तत्त्वार्थ सूत्र तद्भवस्थ ज्ञानावरण ९.१०८ ज्ञानावरणीय ६.६,९; ८.१७; १३.२६,२५६,२५७ ज्ञानावरणीय कर्म प्रकृति ज्ञानावरणीयवेदना ज्ञानोपयोग ज्ञायकशरीर त ३. ७; १०.१४ तपस् १३.२८०, २८५ १३. १८७ १३.९६; १४.३८ ५.२२४ १.१४२,१४३, तद्व्यतिरिक्त द्रव्य लेश्या ५.२४२ तद्व्यतिरिक्तकर्मानन्त ३.१६ तद्व्यतिरिक्तकर्म संख्यात झ झल्लरी संस्थान ४.११,२१ स्पर्शन ट ८.८० तद्वव्यतिरिक्तद्रव्यवर्गणा ३.१२४ १६.४८४ १४.५२ तद्व्यतिरिक्तद्रव्यानन्त ३.१५ तद्वव्यतिरिक्तद्रव्या संख्यात ३.१२४ १३.२९५ तद्वव्यतिरिक्तनोआगमद्रव्य १०.१४ १३.३३४ तद्वव्यतिरिक्तनोआगमद्रव्य७.४,३० भाव तद्व्यतिरिवतनोआगमद्रव्य ड डहरकाल ५.४२,४४,४७, ५६ | तद्वव्यतिरिक्तस्थान ४.३१५ तप्ततप तर्क तर्पण ( ३० ९७९ ९.७७ १३-२०५ ४-१३ तलबाहल्य तवली १० - २०,४४,२४२, २७४ ४-१५१ ६-४९०,४९१ तिर्यग्योनि १३.३८,५४ १३.५४,६१ ९-९१ १३-३४६, ३४९ ३.१२४ ६. २८३ तिर्यञ्चभाव ४-४० ६-२३० ४-११,२१ १३-३७० तिथि तिर्यक् १३-२२२,३२७,३९१ तिक्षेत्र ४- : ६ तिर्यक्लोक ४.३७,१६९,१८३ तिर्यक्लोकप्रमाण ४.४१,१५० तिर्यग्गति १.२०२८.९ तिर्यग्गतिनाम १३.३६७ तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी ४.१७६,६. ७६,१३.३७१, ३७५ ६-७५ ४.३१९ तिर्यप्रतर ४.२११,१३.३७१, ५ १८४ तिर्यग्स्वस्थानस्वथानक्षेत्र ४. १४२ तिर्यगायु तद्व्यतिरिक्त नोकर्मानंत ३. १५ तिर्यगायुष्क १४.४९५ | तद्वव्यतिरिक्तनोकर्मासंख्यात तिर्यञ्च ३७३ १३.३२५ ४.१९४,२०४ ६.४९,८.९ १३.३६२ ४.२२०,८.१९२, १४-२३९ १४-११ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ १-२७४ ३१) परिशिष्ट तीर्थ ८-९२,९-१०९,११९ | तैजसशरीरबंधननाम१३-३६७ । त्रैराशिक ३-९५,९६; १०-३ तीर्थकरत्व ६-४८९,४९२, तजसशरीरलम्ब १३-३२५ १२० ४९५,४९६ | तैजसशरीरसमुद्घात ४-२७ | त्रैराशिक क्रम ४-७१८ तीर्थकर १-५८,५-१९४,३२३, | तैजसशरीरसंघात ६-७० | व्यंश ४-४८ ६-२४६.७-५५,८-११,७२, | तेजसशरीरसंघातनाम ७३,९-५७,५८,१०-४३ ५३-३६७ | दक्षिण प्रतिपत्ति ३-९४,९८; तीर्थकरनाम १३-३६३,३६६ | तोरण ४-१६५,१४-३९ ५-३२ तीर्थकरनामकर्म ६-६७ त्यक्त १-२६ | दण्ड ४-३०; ९-२३६; तीर्थंकरनामगोत्रकर्म ८-७६, त्यवतदेह ९-२६९ १०-३२०; १३-८४ त्वकस्पर्श १३-३,१९ दण्डक्षेत्र ४-४८ तीर्थंकरसन्तकर्मिक ८-३३२ त्वगिन्द्रिय १३-२४ दण्डगत तीव्रकषाय बस १०-४३ ६-६१८-११ दण्डगतकेवली ४-४८ तीव्रमन्दभाव त्रसकाय ५-१८७ दण्डसमुद्घात ४-२८; ६-४१२ तृतीय पृथिवी ४-८६ त्रसकायिक ७-५०२/ दन्तकर्म ९-२५०; १३-९,१० तृतीय पृथिवी अधस्तनतल । त्रसनाम १३-३६३,३६५ ४१,२०२; १४-६ त्रसपर्याप्तस्थिति ४-२२५ ५-८४,८५ दर्शन १-१४५,१४६,१४७, तृतीय स्थान ११-३१३ त्रसस्थिति ५.६१,८१ १४८,१४९,३८३,३८४, तृतीयसंग्रहकृष्टिअन्तर६-३७७ त्रिकच्छेद ३८५, ६-९,३२,३३,३८; तृतीयाक्ष त्रिकरण ६-२०४ ७-७,१००,१३-२०७,२१६. तेज ८-२०० त्रि:कत्वा १३-८६ ३५८; १५-५,६ तेजकायिक त्रिकोटिपरिणाम ९-१६२ | दर्शनमोहक्षपण ७-१४ तेजसकायिक ७-७१ २२८,२४७; १०-४३५ | दर्शनमोहक्षपणानिष्ठापक तेजोलेश्या १-३८९,१६-४८४, त्रिकोण क्षेत्र ४-१३ ६-२४५ ४८८,४९१ त्रिखंड धरणीश १-५८ | दर्शनमोहक्षपणाप्रस्थापक त्रिरत्न तेजोज १०-२३,१४-१४७ त्रिशरीर तेजोजमनुष्यराशि ७-२६६ १४-२३८ | दर्शनमोहनीय४-३३५, ६-३७, तेजोजराशि ३-२४९ त्रिंशत्क ६-१८६; १०-१२१; ३८; १०-२९४; १३-३५७, तेजस १४-३२७ १६-५३७ ३५८ तैजसकाय १-२७३ त्रिसमयाधिकावली ४-३३२ ] दर्शनविनय ८-८० तैजसकार्मणशरीरबंध १४-४४ त्रिस्थानबन्धक ११-३१३ | दर्शनविशुद्धता ८-७९ तैजसद्रव्यवर्गणा १४-६०,५४९ त्रिस्थानिक १५-१७४ | दर्शनावरण ९-१०८ तैजसशरीर ४-२४,६-६९, त्रीन्द्रिय १-२४२,२४८,२६४; | दर्शनावरणकर्मप्रकृति ७-३००,८-१०,१३-३१० ७-६५, ८-९| १३-२०६ १४-३२८ त्रीन्द्रियजाति ६-६८ | दर्शनावरणीय ६-१०, ८-१०, तैजसशरीरनाम १३-३६७ त्रीन्द्रियलब्धि १४-२० १३-२६,२०८,३५३ तेजसशरीरबन्धस्पर्श १३-३० | त्रुटित १२-१६२ | दर्शनोपयोग ११-३३३ तेजसशरीरबन्धन ६-७० | त्रुटितात्रुटित १२-१६२ । दलित १२-१६२ ८-१९२ ६-२४५ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषखंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची दलितदलित १२.१६२ | दुषमकाल ९१२६ देशप्रत्यासत्तिकृत १४.२७ दशपूर्बी षमसुषम ९.११९ | देशमोक्ष १६.३३७ दशवकालिक १-९७ ; ९-१९० | दूरापकृष्टि ३.२५१,२५५ | देशविनाश १३.३३२,३३५, दान १३.३८९ | दृश्यमान द्रव्य ६.२६० ३४१ दानान्त राय ६.७८; १३.३८९ | दृष्टमार्ग ५.२२,३८ | देशविपरिणामना १५.२८३ . १५.१४ | दृष्टान्त ४.२२ देशव्रत ५.२७७ दार्टान्त ४.२१ दृष्टि अमृत ९.८६,९४ | देशव्रती ८.२५५,३११ दामसमान १६.३७४,५३९ दृष्टिप्रवाद ९.२०३ देशसत्य १.११८ दारुसमानअनुभाग १२.११७ | दृष्टिवाद १.१०९ देशसिद्ध ९.१०२ दारुकसमान दष्टिविष ९.८६,९४ | देशसंयम ५.२०२७-१४ दाह ११.३३९ | देय ३.२० देशस्पर्श १३.३,५,१७ दाहस्थिति ११.३४१ | देव १.२०३; १३.२६१,२९२ देशना ६.२०४ दिवस ३.६७,४.३१७,३९५, | देवकूरु . ४.३६५ देशामर्शक ४.५७ १३.२९८,३०० | देवगति १.२०३; ६.६७; ८.९ | | देशावधि ६.२५; ९.१४ दिवसपृथक्त्ब ५..८,१०३; | देवगतिनाम १३.२६५ | देशावरण ७.६३ ६.४२६ । देवक्षेत्र देशोन लोक दिवसान्त | देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी ६.७६; | देशोपशम ६.२४१ दिव्यध्वनि ५.१९४, ९.१२० १३.३७१,३८२ | दैत्य ४.१८ दिशा ४.२२६ | देवता ४.३१९ | दोष १४.११ दिशादाह १४.३५ देवपथ ४.८ द्रव्य १.८३,३८६,३.२,५, दीप्ततप ९.९० | देवभाव १४.११ ६;४.३३१,३३७; १३.९१ दीप्तशिखा १०.६५; १२.- देवद्धिदर्शन ६.४३४ २०४,३२३, १५.३३ ४२८ देवद्धिदर्शननिबन्धन ६.४३३ द्रव्य उत्कृष्ट ११.१३ दीर्घ १३.२४८ देवलोक ५.२८४/ द्रव्य उपक्रम १५.४१ दीर्घह स्वअनुयोगद्वार ९.२३५ देवायु ६.४९; ८.९ द्रव्य उपशामना १५.२७५ दीर्घान्तर देवायुष्क १३.३६२ द्रव्यकर्म १३.३८,४३ दुरभिगन्ध ६.७५ १३.११ द्रव्यकाल ४.३१३ दूरभिगन्धानाम १३.३७० देशकरणोपशामना १५.२७५ द्रव्यकृति ९.२५० ९.१८३ देशघातक द्वव्यक्रोध ७-८२ ६.६५, ८.९ | देशघाति १५.१७१; १६.३७४, द्रव्य क्षेत्र ४.३ दुर्भगनाम १३.३६३,३६६ ५.३९ द्रव्य छेदना १४.४३५ दुभिक्ष १३.३३२,३३६,३४१ | देशघातिस्पर्द्धक५.१९९,७-६१ दुर्वष्टि १३.३३२,३३६,३४१ | देशघाती ११-१२,८५ द्रव्य जघन्य ६.२९९; ७.६४; दुस्वर ६.६५, ८.१० दुस्वरनाम द्रव्यतः आदेश जघन्य ११-१२ १३.३६३,३६६ देशजिन ६.२४६; ९.१० दुःख ६.३५; १३.३३२,३३४, | देशप्रकृतिविपरिणामना द्रव्यत्व ४-३३६ ३४१,१५.६ १५.२८३ देश दुर्नय दुभंग १२.५४ | द्रव्यार्जन Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १.३२ द्विगणहानि द्रव्य निबन्धन १५.२ । द्रव्याथिकनय ४.३,१४५, । द्विस्थानिक अनुभागवेदक द्रव्यपरिवर्तन ४.३२५ १७०,३२२,३६७,४४४; ६.२१३ द्रव्यप्रकृति १३.१९८,२०३ | ७.३,१३; ८.३; १०-२२, द्विस्थानिक अनुभाग सत्कमिक द्रव्यप्रक्रम १५.१५ ४५०; १६.४८५ ६.२०९ द्रव्यप्रमाण ___३.१० द्रव्यार्थिकप्ररूपणा ४ २५९ द्विस्थानी ८२ ५५,२७२ द्रव्यप्रमाणानुमम द्रव्याल्पबहुत्व ५.२४१ / द्वीन्द्रिय १.२४१,२४८,२६४, द्रव्यासंख्यात ३.१२३/ ७ ६४,८९; १४.३२३ द्रव्यबन्ध १४.५७ द्रव्येन्द्रिय १२३२ द्वीन्द्रियकार्मणशरीरबाध द्रव्यबन्धक द्वन्द्वसमास १४.४३ द्रव्यभावप्रमाण ३.३९ द्वादशांग ९.५६,५८/द्वन्द्रिय जाति १.६८ द्रव्यमन १.२५९ | द्विगुणश्रेणिशीर्ष १५.६९७ | द्वीन्द्रिय जातिनाम १३.३६७ द्रव्यमल ६.१५३ | द्वीद्रियतैजस कार्मणशरीरबन्ध द्रव्यमोक्ष १६.३३७ द्विगुणादिकरण ३.७७,८', १४.४३ द्रव्यमंगल १.२०,३२ ३.७ द्वीन्द्रियतैजसशरीरबध१४.४३ द्रव्ययुति १३.४८ | द्विचरमसमानवृद्धि ९३४ | द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियशरीरबन्ध द्रव्यलिंग ४.२०८ | द्वितीय दण्ड ७.३१३,३१५ १४.४३ द्रव्यलिंगी ४.४२७,४२८; द्वितीय दण्डस्थित ४.७२ / द्वीन्द्रियशरीर १४.७८ ५.५८,६३,१४९ द्वितीय पृथिवी ४.८९ / द्वीप १३.३०८ द्रव्यलेश्या १६.४८४ द्वितीय संग्रहकृष्टिअतर६.३७७ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति १.११०; द्रव्यवर्गणा १४.५२ द्वितीय स्थान ९.२,६ द्रव्यविष्कम्भसूची ११.११३ ५.२६३ द्वितीय स्थिति ६.२३२,२५ द्रव्यवेदना १२.२१ १०.७ द्वितीयाक्ष ७४५ | द्वेष १२.२८३ द्रव्यश्रुत ८.९१ द्विपद १३.३९१ द्वयर्धगुणहानि ६१५२ द्रव्यसूत्र द्विप्रदेशीय परमाणु पुद्गल द्रव्यस्पर्श १३.३,११,३६ द्रव्यस्पर्शन द्रव्यवर्गणा १४.५५ धन ४ १५९; १०.१५० ४.१४१ द्विप्रदेशीय वर्गणा १४.१२२ धनुष द्रव्यसंक्रम ४.४५,५७ १६.३३९ द्विमात्रा द्रव्यसंयम १४.६२ धरणी ६.४६५,४७३; १३.२४३ द्विरूपधारा ३.५२ धरणीतल ४.२३६ द्रव्यसंयोग द्विसमयाधिकावली ४.३३२|धर्म ४.३१९:८.९२ ९.१३७ द्रव्यसंयोगपद द्विस्कन्ध द्विबाहुक्षेत्र ४.१८७, | धर्मकथा ९.२६३ ; १३.२०३; ९.१३८ द्रव्यान्तर २१८ १४.९ द्रव्यानन्त ३.१३ द्विस्थान दण्डक ८.२७४ | धर्मद्रव्य ३.३,१३.४३,१५.३३ द्रव्यानुयोग १.१५८; ३.१ | द्विस्थानबन्धक ११.३१३ | धर्मास्तिद्रव्य १०.२३६ द्रव्यार्थता १३.९३ | द्विस्थानिक १५ १७४,१६ ५३९ / धर्मास्तिकायानुभाग १३.३४९ द्रव्याथिक १.८३ ; ४.१४१; द्विस्थानिक अनुभागबन्धक धर्म्यध्यान १३.७०,७४,७७ ९.१६७,१७० ६.२१० | धर्म्यध्यानफल १३ ८०,८१ सायन ७.९१ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषखंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची धूमके४ ध्येय धातकीखण्ड ४.१५०,१९५ / नानात्व ६.३:२,४०७ धान १३.२०५ | नक्षत्र ४१५१ | नानाप्रदेशगणहानिस्थानाधारणा १.३५४, ६.१८; नगर ७.६; १३.३३४ । |न्तरशलाका १०.११६ ९.१४४; १३.३१९,२३३, नगरविनाश १३.३३४ | नानाश्रेणि १४.१३४ धारणाजिन ९६२ नन्दा ४३१९ नाम ६. ३; १३ २६,२०९ धारणावरणीय १३.२१६,२१९ | नन्दावर्त १३ २९७ नामउपक्रम १५.४१ २३३ १.३४१,३४२; ४.४६ | नाम उपशामना १५.२७५ धर्य ४.३२९ नपुंसकवेद ६.४७;७७९; नामकर्म १३ ३८,४०,२६३ १४.३५ ८.१०; १३ ३६१ नामकर्मप्रकृति १३.२०६ ध्यात नपुसकवेदभाव १४ ११ नामकारक ७.२९ ध्यान १३.६४,७४,७६,८६ नपुंसकवेदोपशामनाद्धा५-१९० नामकाल ४.३१३ नमंसन ध्यानसन्तान १३.६६ नामकृति ९.२४६ नय १.८३ ; ३.१८, ७.६०% नामक्षेत्र ९.१६२,१६६; १३.३८, ध्रुव ८.८ नामछेदना १४,४३९ १९८,२८७ नाम जिन ६.२१ ९.६ ध्रुवअवग्रह नयवाद १३.२८०,२८७ नामनिबन्धन ध्रुवउदयप्रकृति १५.११९ १५.२ नयविधि १३ २८०,२८४ नामनिरुक्ति ध्रुवउदीरक १५.१०८ १४.३२२ नयविभाषणता १३.२ ध्रुवउदीरणाप्रकृति १५.१०९ नामपद १.७७, ९.१३६ नयान्तरविधि १३.२८०,२८४ नामप्रकृति ४.१४१ ध्रवत्व १३,१९८ नरक १३.३२५; १४.४९५ ध्रुवप्रत्यय नामप्रक्रम नरकगति १.२०१,३०२; ध्रुवबन्ध ८.११७ नामबन्ध ६.६७, ८.९ ध्रुवबंधप्रकृति८.१७,१५.१४५, | नरकगतिप्रायोग्यानपूर्वी नामबन्धक ३२८ ४.१७५,१९१,६.७६. नामभाव ५.१८३; १२,१ ध्रुवबन्धी ६.८९,११८; ४.१७ १३.३७१ नाममोक्ष १६.३३९ ध्रुवराशि ३ ४१ ; १०.१९८, | नरकगतिमान १३.३६७ नाममंगल १.१७,१९ १७०,१७३ १४.४९५ नामलेश्या १५४८४ ध्रुवशुन्यद्रव्यवर्गणा १४.८३, | नरकप्रस्तर नामवर्गणा १४.५२ १४.४९५ ११२,११६ | नरकायुष्क नामवेदना १३.३६२ १०.५ ध्रुवशून्यवर्गणा १४.६३ | नवग्रैवेयक विमान ४.३८५ । नामसत्य १.११७ ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणा १४.६३ | नवविधि ९.१०९; ११० नामसम ९.२६०,२६९; ११.३५० नाग १३.३९१ १३.२०३; १४.८ ध्रुवावग्रह १.३५७ | | नागहस्ती१२.२३२,१५-३२७, नामसंक्रम ६.१०३ १६.५१८,५२२ नामस्पर्श १३.३,८; ध्रुवोदयप्रकृति१५.१५९,१६२, नाथधर्मकथा १.१०१ / नामस्पशन ४.१४१ २३३ | नानागुणहानिशलाका ६.१५१, नामानन्त ___ १५२,१६३,१६५ / नामानन्तर ५-१ १४.४ ध्रुवस्थिति ध्रुवोदय Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ८-८ १५-४० । १४-२३६ नामाल्पबहुत्व ५-२४१ | निक्षेप १-१०;:-१७; । निरन्तर ५-५६,२५७; नामासंख्यात ३-१२३ ४-२,४१६-२२५, नाभेय १३-३८८ २२७,२२८७-३,६०; |निरन्तरअवक्रमणकालनिःशेष नामोपक्रम ९-६,१४०; १३-३,३८, १४-४७८ ४-५७; १९८; १४-५१; निरन्तर बन्ध नारक ८-१७ १६-३४७ १३-२९२,३९१. निरन्तरबन्धप्रकृति ८-१७ निक्षेपाचार्य ३९२ निरन्तरवेदककाल १०-१४२ निगोद जीव ३-३५७; १४३ नारकगति १-२०१ ४-४०६,७-५०६, निरन्तरसमयअवक्रमणकाल नारकभाव १४-११ ८-१९२ १४-४७०,४७५ नारकायु ६-४८;८-६ निगोदशरीर ४-४७८; निराधार रूप १०-१७१ नारकसर्वावास ४-१७९ १४-८६ निरिन्द्रिय १४-४२९ नारकावास | निचितकर्म ४-७६ निरुवित ३-५१,७३, नाराचशरीरसंहनन ६-७४ नित्यनिगोद १०-२४; ७.४७ नाराचसंहनन ८-१० निरुपक्रमायु ९-८९ नालिका ३-६५ | नित्यै कान्त ९-२४७ निरुक्रमायुष्क १०-२३४, नाली ३-६६,४-३१८ निदशन ५-६; १५-३२ २३८ निःसूचिक्षेत्र ४-१२ | निदान ६-५०१,१२-२८४ निर्ग्रन्थ ९-३२३,३२४ निःसृत ९-१५३ निद्रा ६-३१,३२, निर्जरा ९-३,१३-३५२ निःसृत अवग्रह ६-२० ८-१०,१३-३५४ निर्जराभाव ५-१८७ नि:सत प्रत्यय १३-२३८ निद्रादण्डक निर्जरित-अनिर्जरित १३-५४ निकाचन अध्यवसान निद्रानिद्रा ६-३१,८-९; निर्देश | निर्देश ३-१,८,९; १६-५७७ १३-३५३,३५४ ४-९,१४४,६२२; निकाचना १०-४६ निधत्त ६-४२७; १६-५१६, निकाचनाकरण ६-२९५, | निधत्त अध्यवसान १६-५७७ ८-१० निधत्त अनिधत्त निर्माणनाम ९-२३५ १३-३६३, निकाचित निधत्तिकरण ६-२९५,३४१ १२-३४; १६-५१७, | निन्ह १४-३२७ निर्लेपन १४-५०० | निपुण १४-३२७ निर्लेपनस्थान १०-२९७, निकाचित-अनिकाचित निबन्धन १५-१ २९८; १४-५२७ ९-२३५ निबन्धन अनुयोगद्वार ९-२३३ निर्वर्गणा ६-३८५ निकृति १२-२८५ | निमिष ४-३१७ | निववर्गणाकाण्डक ६-२१५, निकृतिवाक् १-१२७ |निरतगति १-१०१ ३१६,२१८; ११-३६३ निक्खेदिम ९-२७३ निरतिचारता ८-८२ | निर्वाण ५-३५, १०-२६९ ५७६ । निर्माण ३४९ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहित समग्रषटखंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची १३-२६५ ९-१९१ १३-३९०,३९१ निर्वृति १८४; ८.६; ६-४९७ ; ७-४३६ ; | नैगमनय १४-३६३ १३.४,११ नोआगमभावबंध १४-९ निर्वतिस्थान १४-३५८ | नैयायिक ६.४२०,९.३२३ नोआगमभावबंधक ७-५ | नैसर्गिकप्रथमसम्यक्त्व नोआगमभावभाव ५.१८४ निर्वत्यक्षर निवेदनी ६.४३० | नोआगमभावलेश्या १६४८५ १-१०५; ९-२०२ नोअनुभागदीर्घ निर्लेपन १६.५०९ १४-५०० नोआगमभाववर्गणा १४.५२ निर्लेपनस्थान १०.२९७, नोअनुभागह स्व १६.५११ नोआगमभावस्पर्शन ४.१४४ नोआगम ३.१३,१२३ २९८; १४-५२७ नोआगमभावान्तर नोआगमअचित्तद्रव्यभाव १८४ नोआगमभावानन्त निषिद्धिका नोआगमद्रव्यकाल ४.३१४ नोआगमभावाल्पबहुत्व निषेक ६-१४६,१४७,१५०; नोआगमद्रव्यप्रकृति १३-२०४ ५.२४२ ११-२३७ नोआगमद्रव्यभाव ५-१८४ | नोआगभावासंख्यात ३.१२५ निषेकक्षुद्रभवग्रहण | नोआगमद्रव्यबन्ध १४-२८ | नोआगममिश्रद्रव्यभाव १४.३६२ | नोआगमद्रव्यबन्धक ७-४ ५.१८४ निषेकगुणहानिस्थानान्तर नोआगमद्रव्यवर्गणा १४-५२ / नोआगमवर्गणा १४.५२ १६.३२८ | नोआगमद्रव्यवेदना १०-७ | नोआगमसचित्तद्रव्यभाव निषेकप्ररूपणा १४.३२१ | नोआगमद्रव्यस्पर्शन ४-१४२ ५.१८४ निषेक भागहार नोआगमद्रव्यान्तर ५-२ | नोइन्द्रियअर्थावग्रह १३.२२८ निषेकरचना १०.४३ | नोआगमद्रव्यानन्त ३.१३ | नोइन्द्रियअर्थावग्रहावरणीय निषेकस्थिति ६.१६६,१६७ | नोआगमद्रव्याल्पबहुत्व १३.२२९ निषेकस्थितिप्राप्त १०.११३ ५-२४२ / नोइन्द्रियआवायावरणीय निस्सरणात्मक तैजसशरीर नोआगमद्रव्यासंख्यात १३.९३२ ४२७ ३-१२३ नोइन्द्रिय ईहा १३.२३२ नीचगोत्र ६.७७; ८.९ | नोआगमभव्यद्रव्यभाव | नोइन्द्रिय ईहावरणीय नीचैर्गोत्र १३.३८८,३८९ ५-१८४ १३.२३२ नीललेश्या १.३८९; ७.१०४; | नोआगमभावउपशामना नोइन्द्रियज्ञान ८.३२०,३३१,१६.४८४ १५-२७५ | नोइन्द्रियधारणावरणीय ४८८,४९० नोआगमभावकाल ४३१६; १२.२३३ नीलवर्ण नोइन्द्रियावरण ५.२३७ नीलवर्णनाम १३.३७० नोआगमभावक्षेत्र ४-७; नोकर्मउपक्रम १५.४१ नैऋत ४.३१८ ११-२ | नोकर्मउपशामना १५.२७५ नैगम ७.२८; ९.१७१,१८१; | नोआगमभावजघन्य ११-१३ ११.१३ १०.२२; १२.३०३; नोआगमभावनारक ७-३० नोकर्मक्षेत्रजघन्य १३.१९९; १५.२४ नोआगमभावप्रकृति नोकर्मद्रव्य ६.७४ ११-७७ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ ) नोकर्मद्रव्यनारक नोक पर्याय नोकर्मपुद्गल नोकर्म पुद्गलपरिवर्त्तन ४- ३२५ नोकर्म प्रकृति नोकर्म प्रक्रम नोकर्मबन्धक नोकर्ममोक्ष नोकर्मवेदना नोकर्म संक्रम १६-३३९ १३- ४, ५ नोकर्मस्पर्श नोकषाय ६-४० ; ४१; १३ ३५९ कृति नगण्य नगौण्यपद नोजीव नोत्वक् नो प्रकृतिदीर्घ नोप्रकृति स्व नोप्रदेशदीर्घ नोप्रदेश स्व नोकषायवेदनीय ६-४५; १३-३५९,३६१ ९-२७४ नोमनोविशिष्ट नोस्थितिदीर्घ न्याढ्य न्याय न्यास पक्ष ७-३० | पक्षिन् ४-३२७ पट्टन ४-३३२ पट्टन विनाश १३-३३२,३३५, नोस्थितिह, स्व न्यग्रोधपरिमण्डलशरीर संस्थाननाम पक्षधर्मत्व न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान६-७१ १३-२०५ पद १५-१५ ७-४ पदनिक्षेप १६-३३७ पद्मलेश्या । १९०; ७-१०४; १०-७ ८-३३३, ३४५; १६-४८० ४.८,४९२ १-८२ पदमीमांसा ९- १४१; १० ६९; १२-३१४-५०, ३२२ परस्थान (अल्पबहुत्व ) ३ २०८ पदश्रुतज्ञान १३- ६५ ९-४२९,४३८ पदसमास ६-२३; १२- ४८० | परस्थानात्पबहुत्व ५-२८९; १३-२६७ १०-४.६ १३-२६१ || परस्परपरिहारलक्षणविरोध ९-५९,६० १३-२६१ पराक्रम १३-८९ परिकर्श ४-२३२ १५-२७६, २७७ परिग्रह ६५९, ८-१० १३-३६३ ९-१३५ | पदानुसारी १-७४ पदावरणीय १३-३६८ १२-२९६,२९७ पदाहिन पन्नग १३-१९ १६-५०७ पयदकरण १६-५०९ परघात १६-५०९ परघातनाम १६-५११ परप्रकृतिसंक्रमण १०-१९ परप्रत्यय १६- ५०८ परभविक १६-५१० परिशिष्ट १३-२८६ १३-२८६ पदसमासावरणीय ६-२३, १०-२९, १२-३, ४ ०;१३-२६०,२६५ ४-३२० १३-३९१ परमार्थंकाल १३-३३५ | परमावधि ६-२-९- ४,४१, १३.२९२,३२२ परभविकनामकर्म ३-१८ | परमाणु ३४१ परम्परापर्याप्ति १०-४२९ परम्पराबंध १२-३७०,३७२ परंपरा लब्धि १३-२००,२८३ परम्परोपनिधा ६-१५२ २९८,३०० १३-२४५ | परमार्थ परभविक नाम प्रकृति १६-३४२ परभविकनामबंधाध्यवसान प ४-३१७,३९५; १३- | परमाणुपुद् गलद्रव्यवर्गणा परवाद ४-२३; १३-११' १८,२१५; १४-५४ ६-३७८; १०-२०५ ११-३५२; १२.२१० ; १४-४९ १३-२८०,२८८ ६-१७१ परिग्रह संज्ञा ४-२३४ परिचित १६-३६३ परसमयवक्तव्यता ७-४३६; १३-३४५ ९-९३ परिजित ९ - २६८; १३ २०३ ६- २९३ परिणाम १-८०; १५-१७२ ३३०,३४७ | परिणमतः आत्तपुद्गल परिग्रहत: आत्तपुद्गल १६-५.५ परिणामप्रत्यय ६-३१७ १६-३८७ परिणामप्रत्ययिक १५-१७२, २४२,२६१ १३-१७,२६२, २६३,२९९ १२-२८२ १६ ५१५ १.४.५ ९-२५२ १४- १२१ | परित्तजीविय ५-७ | परित्तापन परिणामयोग १०-५५, ४२० परित अपरित वर्गणा १४-५८ २७४ १३-४६ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषखंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द सूची ( ३८ परिधि ४-१२, ४३,४५, | पर्याप्ति १- ५७; ४-३६२; } पारिणामिकभाव ५- १८५ २०९,२२२ १०-२३९ १९६,२०७,२३०, ७-१४ परिधिविष्कम्भ ४-३४ पर्याय १-८; ४-३३७,६-२२,पारिगामिकी ९-१८२ परिनिर्वतभाव ८-५,६,१३-६० पात्र १४-१८ १३-१ पर्यायज्ञान १३-३६३ परिपाटी ५-२० पिठर १३-२०४ पर्यायनय ४-३३७ परिभोग ६-७८; १३-३९० पिशुल १२-१५८ पर्यायसमास ६-२२ परिभोगान्तराय ६-७८; १३-पर्यायसपासज्ञान पिशुलापिशुल १२-२६० १३-२६३ ३८९ पर्यायसमासावरणीय १३-१६१ मा पिंड ४-५४४,१४; १३-३६६ परिमण्डलाकार ४-१७८ पर्यायाथिक १-८५, ९-१७० पिंडप्रकृति ६-४९; ३-३६३, १४.९ पर्यायाधिश जन ३६६; १६-३४७ परिवर्तन १४-९ .१४९ पुच्छण १४-९ परिवर्तना ९-२६२; १३-२०३ | पर्यायाथिकनय ४-३,१४५, पूण्य १३-३५२ परिवर्तमान | १७०३२२,४४४ ; ७-१३;८. १५-२३४ | ३,७८१.-४५१,१६-४८५ पुद्गल परिवर्तमाननामप्रकृति १-११९; १४-३६ १५-१४६ पर्यायाथिकप्ररूपणा ४-१४२. पुद्गलद्रव्य ३-३, १३-४३; १५-३३ परिवर्तमानपरिणाम १२-२७ १७२,१८६,२०७,२५९ पर्यायावरणीय १३-२६१ | पुद्गलनिबद्ध परिवर्तमानमध्यमपरिणाम १५-७,१३ | पर्युदास १५-१५ | पुद्गलपरिवर्तन ४-३६४,३८८ १२-२७ ४०६,५-५७ परिशातनकृति पर्युदासप्रतिषेध ७-४७९,४८० ९-३२७ परिहाणि ( रूप ) ३-१८७ पर्व ४-३१७; १३-२९८.३०० | पुद्गलपरिवर्तनकाल ४-३२७; पल्य ४-९,१८५,३८९ परिहार ३३४ परिहारशुद्धिर्सयत १-३७०, पल्योपम ३-६३ ; ४-५,७,९, पुद्गलपरिवर्तनवार ४-३३४ ७७,१८५,३१७,३४०,३७९, पूदगलपरिवर्तनसंसार ४३३३ ३७१,३७२, ७-९४,१६७, १३-२९८,३०० पुद्गलबन्ध १३-३४७ | पल्योपमशतपृथक्त्व १-४३७ पुद्गलमोक्ष १३-३४८ परिहारशुद्धिसंयम ७-१६७ | ४.४९ पुदगलविपाकित्त्व ५-२२२; परीतानन्त ३-१८ | पश्चात्कृतमिथ्यात्व ४-३४९ परोक्ष ६-२६; १-५५,१४३; | पश्चादानुपूर्वी १-७३; ९-१३५ पुद्गलविपाकी ५-२२६; १३-२१२,२१४ | | पश १ ३-३९१ ६-११४; १२-४६ परोदय ८-७ पश्यमान १४-१४३ | पुद्ग पुद्गलयुति १३-३४८ पर्यन्त ४-८६,३६२ । पाणिमुक्तागति १-३००,४-२९ पुद्गलात्त ९-२३५; १६-५१४ पर्याप्त१-२५४,२६७, ३-३३१ | पाप १३-३५२ पुद्गलात्मा १६-५१५ ६-६२,४१९,८-११, पायदकरण १५-२७८| पुद्गलानुभाग १३-३४९ १०-२४० पारञ्चिक १३-६२ | पुनरुक्तदोष १०-२९६ पर्याप्तनाम १३-२६३ पारमाथिकनोकर्मद्रव्यक्षेत्र ४-७ १२-२०९ पर्याप्तनिवृत्ति १४-३५२; | पारसिक १३-२२३ | पुरुष १-३४१, ६-४६ १५-१८० | पारिणामिक १-१६१, ७-९, | पुरुषवेद ६-४७,७-७९, ८-१० पर्याप्ताद्धा १०-३७ । ३०१२-२७९ १३.३६१ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९) परिशिष्ट पुलविय ४-१९५ पुरुषवेददण्डक ८-२७५ | पृथिवी ४.४६० | प्रकीर्णकाध्याय १३-२७६ पुरुष (पुरिस) वेदभाव १४-११ | पृथिवीकायिक ३-३३० ; ७- | प्रकृति १२-३०३,१३-१९७, पुरुषवेदोपशमनाद्धा ५-१९० ७०८-१९२ २०५ १४-८६ पृथिवीकायिकनामकर्म ७-७० | प्रकृतिअनुयोगद्वार ९-२३२ पुष्करद्वीप ४-१९५ पैशुन्य १-१७ | प्रकृतिअल्पबहुत्व १३-१९७ पुष्करद्वीपार्ध ४-१५० पोतकर्म ९-२४९ ; १३-९, प्रकृतिगोपुच्छा १०-२४१ पुष्करसमुद्र ४१,२०२; १४-५ प्रकृतिदीर्घ १६-५०७ पुष्पोत्तरविमान ९-१२० | पंकवहलपथिवी ४.२.२ प्रकृतिद्रव्यविधान १३-१९७ पुंडरीक १-९८; ९-१९१ | पंचच्छेद ३-७८ प्रकृतिनयविभाषणता पुंवेद १-३४१ | पचद्रव्याधारलोक ४-१८५ १३-१९७ पूरिम ९-२७२,२७३ | पंचमक्षिति १३-३१८ प्रकृतिनामावधान १३-१९७ पूर्व ४-३१७, ६-२५; १२- | पंचमपृथिवी (प्रकृतिनिक्षेप १३-१९७,१९८ ४-८९ ४८०, १३-२८०,२८९,३०० | पंचमुष्टि ९-१२९ / प्रकृतिबंध ८-२७; ६-१९८; पूर्वकृत ९-२०९ पंचविधलब्धि ७-१५ २०० पूर्वकोटी ४-३४७,३५०,३५९, |पंचलोकपाल | प्रकृतिबंघव्युच्छेद ३६६ | पंचसामायिकयोगस्थान प्रकृतिमोक्ष १६-३३७ पूर्वकोटीपृथक्त्व ४-३६८,३७३, १०-४९५ प्रकृतिविकल्प ४-१७६ ४००,४०८;५-४२,५२,७२ पंचांश ४-१७८ प्रकृतिविशेष १०-५१०,५११ पूर्वगत १-११२ | पंचेन्द्रिय १-२४६,२४८, प्रकृतिशब्द १३-२०० पूर्वधर १५-२३८ २६४;७-६६ प्रकृतिस्थानउपशामना पूर्वफल ३-४९, पंचेन्द्रियजाति १-२६४, ६-६८ १५-२८० पूर्वश्रुतज्ञान १३-३७१ ८-११ प्रकृतिस्थानबन्ध ८-२ पूर्वसमास ६-२५; १२-४८० | पंचेन्द्रियजातिनाम १३-३६७ प्रकृतिसत्कर्म १६-५२२ पूर्वसमासश्रुतज्ञान १३-२७१ पंचेन्द्रियतिर्यग्गतिप्रायोग्यानु प्रकृतिसमुत्कीर्तना ८-७ पूर्वसमासावरणीय १३-२६१ | पूर्वी ४-१९१ | प्रकृतिसंक्रम १६-३४० पूर्वस्पर्द्धक १०-३२२,३२५; | पंचेन्द्रियतिथंच ८-११२ | प्रकृतिस्वरूपगलित १०-२४९ १३-८५; १६-५२०,५७८ | पंचेन्द्रियतिर्यंचअपर्याप्त प्रकृतिह,स्व १६-५०९ पूर्वातिपूर्व १३-२८० ८-१२७ प्रकृत्यर्थता १२-४७८ पूर्वानुपूर्वी १-७३; ९-१३५; | पंचेन्द्रियतिर्यंचपर्याप्त ८-११२ | प्रक्षेप ३-४८,४९,१८७; १२-२२१ पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिमती ६-१५२; १०-३३७ पूर्वाभिमुखकेवली ४-५० ८-११२ | प्रक्षेपप्रमाण १०-८८ पूर्वावरणीय १३-२६१ पंचेंद्रियलब्धि १४-२० प्रक्षेपभागहार १६-७६,१०१ पृच्छना ९-२६२; १३-२०३ |पंजर १३-५,३४। प्रक्षेपराशि ३-४९ पृच्छाविधि १३-२८०,२८५ पजिका प्रक्षेपशलाका ३-१५९ पृच्छाविधिविशेष १३-२८० प्रकाशन ४-३२२ | प्रक्षेपसंक्षेप ५-२९४ पृच्छासूत्र १०-९प्रकीर्णक ४-१७४,२३४ प्रक्षेपोत्तरक्रम ६-१८२ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचय प्रचला प्रचलाप्रचला प्रज्ञा ६-३१,३२,८-१० ; धवलासहित समग्र षट्खंडागमस्य पारिभाषिक शब्द सूची ३-९४ | प्रतिपातस्थान १३- ३५४ प्रतिपाती ६-३१;८-९; १३- ३५४ ९-८२, ८३, ८४ प्रज्ञाभावछेदना प्रज्ञाश्रवण प्रतर ९-२३६; १०-३२०; १३-८४ प्रतरगत प्रतरगत केवलिक्षेत्र प्रतरगत केवली प्रतरपल्य प्रतरसमुद्घात प्रतराकार प्रतरावली प्रतरांगुल १४-४३६ प्रतिष्ठा ९-८१,८३ प्रतिसारी प्रतिपातीअवधि ६-५०१ प्रतिभाग ४ ८२, ५-२७०,२९० प्रतिराशि ९-१८८ ९-४५ प्रतिगुणकार प्रतिग्रह १६-४११, ४१४, ४९५ प्रतिपक्षपद १-७६; ९-३६ प्रतिपद्यमानस्थान ६-२७६, प्रतिसारी बुद्धि प्रतिपत्तिसमासश्रुतज्ञान प्रतिपत्तिसमासावरणीय प्रति सेवित ७-५५ प्रतिक्षण ४-५६ प्रतीच्छा ४-१९ प्रतीच्छना ३-७८ | प्रतीत सत्य ४- २९,४३६ प्रत्यक्ष ४-२०४ ४-३८९ प्रत्यक्षज्ञानी ३-७८,७९,८० ; ४-१०,४३,४९,१५१,१६०, प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय १७२,५-३१७,३३५,९ - २१ प्रतरांगुल भागहार ४-९८ प्रत्ययनिबन्धन प्रतिक्रमण १ ९७, ८-८३, ८४, १३-३६३ ६- २८३ | प्रत्येक नाम ५-३२३ ७-५६४ | प्रत्येकबुद्ध १३-८३ | प्रत्येकशरीर १-२६८; ३-३३१, ३३३; ६-६२; ८-१० ; १३-३८७, १४-२२५ | प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा १४-६५ प्रथम त्रिभाग १४-५०१,५०२ प्रथक्त्व ३-८९ १३-१३,७७ प्रथक्त्वविर्कवीचार १३-७७, ८० १०-६७ १३- २४३ ९-५७,६० १३-२७१, २७३ १३- ३४६ | प्रथक्त्ववितर्कवीचार१४-९ | शुक्लध्यान १३- २०३ प्रथम दण्ड ९- २६२ प्रथम निषेक १- ११८ प्रथम पृथिवी १-१३५ ; ४-३३९; |प्रथम पृथिवीस्वस्थानक्षेत्र ६-२६; ९-५५,१४२; ( ४० ४-१८२ ६-३.२०४, १३-२१२,२१४ | प्रथम सम्यक्त्व २०६,२२३,४१८; १०-२८५ ८-५७ प्रथम समय शपशमसम्यग्दृष्टि ९-१४२ ५-११५ १५-२ प्रत्ययप्ररूपणा ७-१३ प्रत्ययविधि प्रत्याख्यान प्रथमाक्ष ८-८ ३०८ १-१२१; ६-४३, ७-४५ ४४ ८-८३, ८५; १३-३६० प्रथमानुयोग १ - ११२; ९-२०८ प्रत्याख्यानदण्डक ८-२७४ ; प्रदेश १३-११ ९-२२२ प्रदेश उदीरक अध्यवसानस्थान ७-१६७ १६-५७७ ८-९ | प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर ६-४४ १३-२६१ प्रत्येक अनन्तकाय ४-३९१ ७-३१३ ६-१७३ ४-८८ २७८ प्रत्याख्यानपूर्व प्रत्याख्यानावरण प्रतिपत्ति ६- २४; १२-४८० ; १३-२९२ | प्रत्याख्यानावरणीय प्रतिपत्तिआवरणीय १३-२६१ प्रत्यागाल प्रतिपत्तिसमास ६-२३३,३०८ प्रदेशघात १३- २४३ | प्रदेशछेदना १२- ४८० प्रत्यावली ६- २३३, २३४, ३०८ प्रदेशदीर्घ १६-३७६ ६-२३०, २३४ १४-३३६ ६-२४; प्रत्यामुण्डा १६-५०९ प्रत्यासत्ति ४-३७७ ८-६ प्रदेशप्रमाणानुगम १४-३२१ १३-२६९ | प्रत्यासन्नविकानुपूर्वी फल ६-२३५ प्रथम समय तद्भवस्थ १४-३३२ प्रथम संग्रहकृष्टिअन्तर६-२७१ प्रथम स्थिति ६-२३२,२३३, प्रदेशबंध ६- १९८,२००,८-२ ४- १७५ प्रदेशबंधस्थान १०-५०५,५११ १- २७४ | प्रदेश मोक्ष १६-३३८ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१) परिशिष्ट प्राणी १६.५७७ प्रयोजन प्रदेशविन्यासावास १०.५१ प्रमेय ७१६ | प्राण . १.२५६,२.४१२' प्रदेशविपरिणामना १५.२८३ 'प्रमेयत्व ४.१४४ ३.६६१२.२७६ प्रदेशविरच १४३५२ प्रमोक्ष ८.३ प्राणत १३.३.८ प्रदेशविरचित अल्पबहत्व प्रयोग १२.२८६; १३.४४ प्राणातिपात १२.२७५,२७६ १०.१२०,१३६ प्रयोगकर्म १३.३८,४३,४४ प्राणावाय १.१२२,९.२२४ प्रदेशसंक्रम ६.२५६,२५८; प्रयोगपरिणत १४ २३,२४ १६.४०८.प्रयोगबन्ध १४.३७ । प्राण्यसंयम ८.२१ प्रदेशसंक्रमणाध्यवसास्थान प्रयोगश:उदय १५.२८९ प्राधान्यपद १.७६,९ १३६ ८.१ प्राप्तार्थग्रहण ९.१५७,१५९ प्रदेशह स्व प्ररूपणा १.४११ प्राप्ति ९.७५ प्रदेशाग्र ६.२२४,२२५ | प्ररोहण १४.३२८ प्राभूत ६.२५,९.१३४, प्रदेशार्थता १६.९३ | प्रवचन ८.७२,७३,९०; १२.४८० प्रधान द्रव्यकाल ११.७५ १३.२८०,२८२ प्राभृतज्ञायक १३.३ प्रधानभाव प्रवचनप्रभावना ८.७९,९१ प्राभृतप्राभूत ६.२४,१२.४८०, प्रपद्यमान उपदेश ३.९२ प्रवचनभक्ति ८.७९.९० १३.२६० प्रबन्धन १४.४८०,४८५ | प्रवचनवत्सलता ८.७९.९० । प्राभृतप्राभृतश्रुतज्ञान १३.२७० प्रबन्धनकाल | प्रवचनसन्निकर्ष१३.२८०,२८४ भृतप्राभृतसमास ६.२४; प्रभा १४.३२७ प्रवचनसन्यास १३.२८४ १२.४८०; १३.२७० प्रभापटल प्रवचनाद्धा १३.२८०,२८४ प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय प्रमत्तसंयत १.१७६;८.४ प्रवचनार्थ १३.२८०,२८२ १३.२६१ प्रमत्ताप्रमत्तसपरावर्तसहस्र प्रवचनी १३.२८०.२८३ प्राभृतप्राभृतावरणीय १३.६६१ ४.३४७ प्रवचनीय १३.२८०,२८१ प्राभृतश्रुतज्ञान १३.२७० प्रमाण ३.४,१८४.३९६; प्रवरवाद १३२८०,२८७ प्राभृतसमास ६ २५, १२.४८० ७.२४७,९१३८,१६३ प्रवाहानादि ७.७३ प्राभृतसमासश्रुतज्ञान १ ३.२७० प्रमाण (परिणाम) ३४०; प्रवेध ४.१९१ प्राभृतसमासावरणीय १३.२६१ प्रमाण (राशि) ३.१८७,१९४ |प्रश्नव्याकरण १.१०४,९.२०२ प्राभृतावरण १३.२६१ प्रामाण्य ९.१४२ प्रमाणकाल ११.७७ प्रशम प्रायश्चित १३.५९ प्रमाणधनांगुल ४.३५ प्रशम्ततजसशरीर ४.२८%; प्रायोग्यलब्धि ६.२०४ प्रमाणपद १.७७ ; ९६०,१३६, ७.४०० ६.७६ १९६,१३.२६६ प्रशस्तविहायोगति प्रायोपगमन १.२३ प्रमाणराशि ४.७१,३४१ |प्रशस्तोपशामना १५.२७५ प्रावचन १३.२८० प्रमाणलोक १५.२५ प्राशकपरित्यागता ८.८७, प्रमाणवाक्य प्रसज्यप्रतिषेध ७.८५,४७९ प्रमाणांगुल ४.४८,१६०,१८५ प्रस्तार ४.५७ प्रासाद १४.३९ प्रमाद ७.११ प्राकाम्य ९.७६,७९ १२.२८४ प्राकार १४.४० | प्रेयस ९.१३३ ४२,७२/ प्रवेशन प्रेम Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलास हितसमग्रषटखंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची ( ४२ भ १३-२४८ | बाह्य निर्वृत्ति -२३४ | ब्रह्म ४-२३५; १३-३१६ फ बाह्यपंक्ति ४-१५१ | ब्रह्मोत्तर फल ( राशि ) ३-१८७,१९० | बाह्य-वर्गणा १४-२ ३,२२४ फलराशि ४- ७,७१,३४७ बाह्येन्द्रिय ७-६८| भक्त प्रत्याख्यान १-२४ फलाचारण ९-५९ बीज १.-३२८ भगवत १३-३४६ बीजचारण ९-७९ भजितत्र्य १३-३०९ बद्ध-अबद्ध १३-५२ | बीजपद ९-५६,५७,५९. | भज्यमानराशि ३-४७ बद्धायष्क ६-२०८ ६०,१२७ | भद्रा ४-३१९ बद्धायुष्कघात ४-३८३ | बीजबद्धि भय ६-४७;७-३४,३५,३६; बद्धायुष्कमनुष्य सम्यग्दृष्टि | बुद्धभाव । १४-१८ ८-१०, १३-३३२,३३६, ३४१,३६१ ४-६९ / बुद्धि १३-२४३ १२-३०३ | बोधितबुद्ध ४-१५, १३-३०७ भरत बध्यमान ५-३२३ | भव १०-३५,१४-४२५; बल ४-३१८ | बौद्ध -४९७; ९-३२३ | बलदेव १५-७; १६.५१२,५१९ ६-८३,८५.४९०, ७- 1 बलदेवत्व भवग्रहण १३-३३८,३४२; ६-४८९,४९२, ८२, ८-२,३,८; ३१-७, १४-३६२ ४९५,४९६ ३४७; १४-१,२,३० बहु ९-१४९; १३-५०; २३५ | बंधक | भवग्रहणभव १६-५१२ ७-१;८-२; १४-२ बहु-अवग्रह ६-१९ | भवधारणीय ९-२३५ बंधकसत्वाधिकार ७-२४ बहुव्रीहिसमास ३-७ भवन १४-४९५ बंधकारण बहुविध ९-१५१; १३-२३७ भवनवासिउपपादक्षेत्र ४-८० बंधन ७-१८-२; १४-१ ४-७८ बहुविध-अवग्रह भवनवासिक्षेत्र ६-२० बंधन उपक्रम १५-४२ भवनवासिजगप्रणधि ४-७८ बहुश्रुत ८-७२,७३,८९ बंधनगुण १४-४३५ | बहुश्रुतभक्ति ८-९,८९ भवनवासि जगमूल ४-१६४ बंधनीय ७-२;८२-; १४-१, भवनवागिप्रायोग्यानुपूर्वी बादर १-२४९,२६७, २-३३० २ ४८,९६, ४-२३० ३३१, ६-६१८-११, बंधप्रकृति १२-४९५ भवनवासी ४-१६२८-१४६ १३-४९,५० बादरकर्म १-१५३ बंधमार्गणा | भवनविमान ४-१६२ बंधविधान ७-२;८-२,१४-२| ४-३२५ बादरकृष्टि | भवपरिवर्तन १२-६६ बादरनिगोदद्रव्यवर्गणा१४-८४ बंधविधि | भवपरिवर्तनकाल ४-३३४ बादरनिगोदप्रतिष्ठित बंधव्युच्छेद भवपरिवर्तनवार ४-३३४ ३-३४८,४-२५१ बंधसमत्पत्तिकस्थान १२-२२४ भवस्थिति ४-३३३,३९८ बादरयुग्म १०-२३, १४-१४७ बंधस्थान १३-१११,११२ भवस्थितिकाल ४-३२२,३९९ बादरयुग्मराशि ३-२४९ बंधस्पर्श १३-३,४,७ भवाननुगामी १३-२९४ बादरसाम्परायिक ७-५ बंधाध्वान ८-८ भवानुगामी १३.२९४ बादरस्थिति ४-३९०,४०३ बंधानुयोगद्वार ९-२३३ भवप्रत्यय १३-२९०,२९२ बाहल्य ४-१२,३५,१७२ | बंधावली ४-३३२; ६-१६८ | भवप्रत्ययअवधि ६.२९ बाह्यतप ८-८६ २०२; १०-१११,१९७ । भवप्रत्ययिक १५-१७२,२६१ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ ) परिशिष्ट ३-१४ भविष्यत् १३.२८०,२८६ | भावजघन्य ११.८५ | भाषाद्रव्यवर्गणा १४-६१,५५० भवोपगृहीत १५-१७२,१७५; भावजिन | भाषापर्याप्ति -२५':;७-३४ १६-३८० भावनिक्षेप १३.३९ | भावेन्द्रिय १-२३४ भव्य १-१५०,७-४,७; | भावनिबन्धन भित्तिकर्म ९-२५०,१४-९ १० १३-४,५,२८०, भावप्रकृति १३.१९८,३९० ४१,२०२,१४.६ २८६ भावप्रक्रम | भिन्नदशपूर्वी ९६९ भव्यजीव १४-१३ भावपरिवर्तन ४.३२५ ३ ६६,६७, भव्यत्व ४-४८०,५-१८८ भावपरिवर्तनकाल ४.३३४ भव्यद्रव्यस्पर्शन ४.१४२ भावपरिवर्तनवार ४.३६४| | भीमसेन भव्यनोआगमद्रव्य १-२६ भावप्रमाण ३.३२,३२ | भक्त १६.३४६,३५० भव्यनोआगमद्रव्यकाल४.३१४ भावबंधक ७.३,५ | भुज भव्य राशि भावमन १.२५९ भजगारबन्ध भव्य सिद्ध १.३९२,३९४ भावमल १.३२ | भुजाकार (भूयस्कार। भव्यसिद्धिक ७.१०६८-३५८ भावमोक्ष १५.२३७ १०.२९१, १५.५० भव्यस्पर्श १३-४,३४ भावमंगल १.२९,३३ | भुजाकार उदय १५.३५५ भव्यानन्त भावयुति १३.३४९ | भुजाकारउदीरणा १५.१५७, भव्यासंख्यात ३-१२४ भावलेश्या १.४३१,१६.४८५; २६० भाग ७-४९५ ४८८ भुजाकारउपशामक १६.३७७ भागलब्ध १४.५२ | भुजाकारबन्ध ६,१८१ भागहार ३-३९,४८,४-७१ भाववेद ५.२२२ | भुजाकार संक्रम १६.३९८ भागहारप्रमाणानुगम१०-११३ भाववेदना १०.८ | भुज्यमानायु६ १९३,१०.२३७ भागाभाग ३-१०१.२०७ भावधुत ८.९१ २४७ भाजित ३-३९,४१,७-२४७ भासत्य १.११८ भुवन भाज्यशेष भावसंक्रम १६-३३५,३४० भत ४.२३२,१३.२८०; २८८ भान ६.४६५,७.५१ | भूतपूर्वनय ६.१२९ भार्य ४-१८ | भावसंयोग ९-१३७,१३८ भूतबलि १३.६६.३८१ भामा १३-२६१ / भावसंसार . ४-३३४ | भूतबलिभट्टारक १५१ भाव. १-२९,५.१८६,९.१३७] भावस्थितिकाल ४-३२२ भमि ४.८ १६८; १३.९१ भावस्पर्श १३-३,६,२४ भेडकर्म ९२५०; १३.९,१०, भाव उपक्रम भावस्पर्शन ४-१४१ . ४१,२०२; १४६ भावकर्म. १३.३६,४०,९०/ भावानन्त ३-१६ भेद ४.१४४; १४-३०,१२१; भावकलंक १४.२३४ | भावानुयोग १-१५८ १२९ भावकलकल १४२३४ | भावानुवाद १३.१७२ भेदजनित १४-१३४ भावकाल | भाषा १३.२२१,२२२ भेदप्ररूपणा ४-२५६ भावक्षेत्र ४.३ भाषागाथा १०.१४३ भदपद १०.१६ भावक्षेत्रागम ४.६ | माषाद्रव्य १३.२१०,२१२ 'भेदसंघात १४.१२१ ३-३८,३९/ भाववर्गणा Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषटखंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची (४४ ४.१८९/ मनुष्यपर्याप्त मनुष्यनी भोक्ता १-११९ मनज .१३-३९१ ८-९,१०-२०१३-२६ भोग ६-७८; १३-३८९ मनुष्य१.२०३,१३-:९२,३२७ भोगभूमि ४-२०९; ६-२४५ मनुष्य अपर्याप्त ८-१३० | महाकल्प १.९८; ९.१९१ भोगभूमिप्रतिभाग ४-१६८ मनुष्यगति १-२० ; ६-६७; | महातप महाबन्ध ९.१०५ भोगभूमिप्रतिभागद्वीप ४-२११ भोग भूमिसंस्थानसंस्थित मनुष्यगतिनाम १-३६७ महापुण्डरीक १.८; ९.१९१ | महामण्डलीक १.५८ महामत्स्यक्षेत्र मनुष्यगतिप्रायोग्यानपूर्वी भोगांतराय ६-७८; १३-३८९ ४.३६ महामत्स्यक्षेत्रस्थान ४-१७६, ६-७६; १३-३७७ १५-१४ ४.६६ मनुष्यभाव १४-११ महामह ८.९२ भंग ३-२०२,२०३४-३३६, मनष्यलोक १३-३०७ महावाचकक्षमाश्रमण ४११; ८-१७१; १०.२२५ १६.५७७ मनुष्यलोकप्रमाण ४-४२ १५-२३ महाराज भंगप्ररूपणा ४-४७५ मनुष्यायु ५-४९,८-११ महाराष्ट्र १३.२२२ भंगविधि मनुष्यायुष्क १३-३६२ १३-२८०,२८५ महाव्यय १३.५१ ८-१३० भंगविधि विशेष १३-२८०. ५.२७७,९.४१ मनोज्ञवैयावृत्य महाव्रत १३-६३ मनोद्रव्यवर्गणा ९-२८,६७ महाव्रती ८.२२५,२५६ क्रि मनोबली महाशुक्र मडंबविनाश १३-३३२,३३५, ४.२३५ ९-९८ मनोयोग १-२७९,३०८ महास्कन्धस्थान १४.४९५ महास्कन्धद्रव्यवर्गणा १४.११७ मति १३-२४४,३३२,३३३, ४-३९१; ७-७७; १०-४३७ महिमा ९.७५ मनोद्रव्य वर्गणा १४-६२,५५१. महोरग १३.३९१ मतिअज्ञानी ७-८४,८-२७९; ५५२ मागध १३.२२२ १३-४४ १४-२० मनःप्रयोग मागध प्रस्थ मन.प्रवीचार ४३२० मतिज्ञान १-३३९ १-३५४; ७-६६ मादा मनःपर्यय १४.३०,३२ मत्यज्ञान ११९४,३५८, १-३५४, ७-६६ १.३५०;६.४५, मधुरनाम १३-३७० ३६०; १३-२१२ मधुरनामकर्म . १२.२८३, १३.३४६ | मन:पर्ययज्ञान ६.७५ ६-२८,४८८. मानकषाय १.३४९ मधुस्रवी ४९२.४९५,१३-२१२.३२८ मानकषायी ७.८२ मध्यदीपक ९-४४; १०-४८, | मन.पर्ययज्ञानावरणीय ६-२९; मानदण्डक ८.२७५ ४९६,१२-१४ १३-२१३ मानस १३.३३२,३४० मध्यमगणकार ४-४१ मनःपर्ययज्ञानी ७८४,८.२९५ मानसिक १३.३४६,३५० मध्यमघन १०-१९० मनःपर्याप्ति १-२५५ मानसंज्वलन १३.३६० मध्यमत्रिभाग १४-५०२ | ममत्तीतःआत्तपुद्गल १६-५१५ मानाद्धा मध्यमप्रतिपत्ति ४-३४० मरण ४-४०९,४७०,४७१, मानी १.१२० मध्यमपद ९-६०,१९५; १३-३३२.३३३.३४१ / मानुष १३.३९१ १३-२६६ | मस्कारी १३-२८८ मानुषक्षेत्र ३.२५५,२५६; मध्यलोक ४-९ ' महाकर्मप्रकृतिप्राभूत ७-१,२, ४.१७० मान Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५) परिशिष्ट १८२ मृतिका मृदुक मृदुकनामक ७८३ मानुषक्षेत्रव्यपदेशान्य- मिथ्यात्वादिकारण ४.२४ | मूलप्रकृति थानपपत्ति ४.१७१ मिथ्यात्वादिप्रत्यय ७../ मूलप्रकृतिबन्ध मानुषोत्तरपर्वत ४.१९३ | | मिथ्यादर्शन १२.२८६ मूलप्रत्यय ८-२० मानुषोत्तरशैल ४.१५०,२१६. मिथ्यादर्शनवाक् १.११७ मूलप्रायश्चित १३-६२ | मिथ्यादृष्टि १.१६२, ६२, मूलाग्रसमास -३३; १०. मानोपशामनाद्धा ५.१९० । २७४,६.४४९,४५२, ४५४; १.३,१३४,२४६ माया १.३.० ६.४१, ७.१२१८.४,८६; मृग १३-३९१ १२.२८३ ९.१८ १३-२०५ मायाकषाय १.३४९ मिश्र ७.९ १३-५० मायाकषायी मिश्रक १३.. २३, २४ ६-७५ मायागता १.११३; ९.२१० मिश्रग्रहणाद्धा ४२२९,३२८ | मृदुनाम १३-३७० मायाद्धा | मिश्रद्रव्यस्पर्शन ४.१४३ | मृदुस्पर्श १३-२४ मायासंज्वलन १३.३६० मिश्रनोकर्मद्रव्यबन्धक ७.४ मृदंगक्षेत्र ४-५१ मायी १.१२० मिश्रप्रक्रम | मृदंममुखरुंदप्रमाण ४५१ मायोपशामनाद्धा ५.१९० मिश्रमगल १.८/मदंगसंस्थान ४-२२ मारणान्तिककाल मिश्रवेदना १०.७ मृदंगाकार ४-११,१२ मारणान्तिकक्षेत्रायाम ४६६ | मीमांसक ६.४१.०९.३२३ मषावाद १२.२७९ मारणान्तिकराशि ४.८५ मीमांसा १३.२४२ १३.२४२ मारणान्तिकसमुद्घात ४.२६ १६.३३८ मेरु ४.१९३ १६६, ७.३०० मक्तजीवसमवेत ५०.५ मेरुतल ४ २०४ मार्ग १३.२८०,२८८ मुक्तमारणान्तिक ४.१७५, मेरुपर्वत ४ २ १८ मार्गण १.१३१ २३०, ७.३०७,३१२ | मेरुमूल ४.२०५ मार्गणा ७.७; १३.२४२; | मुक्तमारणान्तिकराशि ४.७६, मेड २४३५ ३०७,३१२| मंत्र ४१८ मार्गणास्थान ८.८ | मुख ४.१४६.१३.३७१.३८३ | १.२८२ मालव १३.२२२ मुखप्रतरांगुल ४.४८ मैथुनसंज्ञा १.४१५ मालास्वप्न ९.७४ मुखविस्तार ४. ३ | मोक्ष .४९०;९६;१३. मास४.३१७,३९५,१३.२९८ मुनिसुव्रत १३.३७ ३.६,३ ८,१६.३३७, मुहूते ३ ६६.४.३१७ ३९०, ३३८ मासपृथक्त्व ५.३२,९३ १३.९८,२९९ मोक्षअनुयोगद्वार मासपृथक्त्वान्तर ५.१७९ ९.२३४ मुहुर्तपृथक्त्व ५.३२,४५ | मोक्षकारण माहेन्द्र ४.२३५,१३.३१६ १३.३०६ | मोक्षप्रत्यय ७.२४ मिथ्याज्ञान १२.२८६ मूर्तद्रव्यभाव मिथ्यात्व ४,३३६,३५८,४७७, १२.२ | मोष मनोयोग १.२८०,२८१ ५.६;६.३९, ७.८,८.२, | मूल ४१४६,१०.१५० मोह १२.२८३; १४.११ ९,१९; ९.११७,१०.४३; मूलनिवर्तना १६.४८६ मोहनीय ६.११; १३.२६, १३.३५८; १४.१२ मूलतंत्र २०८,३५७ १० मेधा मुक्त Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषखंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची मंग युग्म मंद रागद्वेष मंदरमल मोहनीयकर्मप्रकृति १३.२०६ | युग ४-३१७; १३-२९८,३०० | रत्नि ४-४५ युग्म । राशि) ३-२४९ | रस ६-५५,८-१०,३५७ मंगल १.३२,३३,३४, ९-२, १०-१९,२२ | रस १-२३५ १०३ यति १३-३४६,३१८ रसनाम १३-३६३,३६४,३७० मंगलदण्डक ९.१०६ योग १-१४०,२९९,४-४७७ | रसपरित्याग १२-५७ मडलीक १५७ ५-२२६;७-६,८८.२ | रह १४-३८ मंथ १०.३२१,३२८ २०; १०-४३६,४३७; | राक्षस ४-२३२; १३-३९१ मंथसमुद्घात ६.४१३ १२-३६७ १२-२८३; १४-११ . १३.५० | योगकृष्टि १०-३२३ ४.८३ योगद्वार १३-२६०,२६१ राजा य योगनिरोध ४-३५६,१३-८४| राजु ७-३७२ यक्ष १३.३९३ | योगप्रत्यय ८-२१ रात्रियोजन . १२-२८३ यतिवृषभभट्टारक १२.२३२ | योगवर्गणा १०-३४३,४४९ राशि ३-२४९ यथाख्यातसंयत १.३७३; | योगपरावत्ति ४-४०९ राशिविशेष ३-३४२ ८.३०९ योगयवमध्य १०-५७,५९,रिक्ता ४-३१९ यथाख्यातसंयम १२.५१ २४२; १६-४७३ | रुचक १३-३०७ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत योगस्थान ६-२०११०-७६, रुचकपर्वत ४-१९३ १.३७१७-२४ ४३६,४४२ रुधिरनामकर्म ६-७४ यथातथानुपूर्वी १.७३; ९-१३५ | योगान्तरसंक्रान्ति ५-८९ रुधिरवर्णनाम . १३-३७० १३-३८० योमावलम्नाकरण १०-२१२ रूक्षनाम यथानुमार्ग १३-२८०,२८६ | योगावास १०-५१ १०-५१ रुक्षनामकर्म ६-७५ यथाशक्तितप ८-७९,८६ | योगाविभागप्रतिच्छेद रूक्षस्पर्श यथास्वरूप .१०-१७७,१८९, १०-४४० ४-२०० १९९,२३७,४७६ | योगी १-१२० रूपगत १३-३१९,३२१,३२३ यन्त्र १३-५,५४ योग्य ४-३१९ रूपगतराशि १०-१५१ यम योजन १३-३०६,३१४,३२५ रूपगता १-११३; ९-२१० यव १३-२०५ | योजनपृथक्त्व १३-३३८,२३९ रूपप्रक्षेप ४-१५० यवमध्य १०-५९,२३६; | योजनायोग ( जुंजण ) रूपप्रवीचार १.३३९ . १२-२३१, १४.५०,४०२, १०-४३३,४३ . १-११७ _५०० योनिप्राभृत १३-३४९ यवमध्यजीव १०-६२ रूपाधिकाभागहार १०-६६,७० यवमध्यप्रमाण रूपी १४.३२ १०-८८ रज्जु ३-३३;४-११,१३, यशःकीर्ति - ८-११ १६५,१६७ रूपीअजीवद्रव्य यशःकीर्तिनाम १३-३६३,३६६ रज्जुच्छेपनका ४१५५ रूपोनभागहार १०-६६,७१ यादृच्छिक प्रसंग ४-१८ | रज्जुप्रतर ४-१५०,१६४ १२-१०२ युक्तानन्त ३-१८ | रति ६-४७;८-१०; १३-३९१ | रूपोनावलिका ४-४३ | रतिवाक् १-११७ | रोग १३-३३२,३३६,३४१ १३-२४ रूप रूपसत्य Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ ) परिशिष्ट रोहण ४.३१८ | लेश्या १.१४९,१५०,३८६, लोभदण्डक । ८२७५ रोहिणी २.४३१८.३५६; | लोभसंज्वलन. १३.३६० रौद्र ४.३१८ १६.४८४ / लोभाद्धा ४.३९१ रौद ४.१९ | लेश्यानुयोगद्वार ९.२३४ लोभोपशामनाद्धा ५.१९० | लेश्याकर्म १६.४९० लोहाग्नि लक्षण ७.९६ ; ९.७२,७३ | लेश्याकर्मअनुयोगद्वार ९.२३४ लौकिकभावश्रुत ९.३२२ लघिमा ९.७५ लेश्याद्धा लौकिक वाद १३.२८०.२८८ लघुनाम १३.३७० लेश्यान्तरसंक्रान्ति ५.१५३ | लौकिकसमाचारकाल ११.७६ लघुनामकर्म ६.७५ | लेश्यापरावृत्ति ४.३७०,४७१ | लांगलिकगति ४.२९ लघुम्पर्श १३.२४ / लेश्यापरिणाम ९.२३४ लांगलिका १.२०० लतासमानअनुभाग १२.११७ | लोक ३.३३,१३२,४ ९.१०; लांतव ४२३', ; १३.३१६ लब्धअवहार ११.२; १३.२८८,३४६, लिंग १३.२४५ लब्धमत्स्य ११.१५,५१ ३४७ लब्ध्यक्षर १३.२६२,२६३, लोकनाडी वक्तव्यता ९.१४० २६५, लोकनाली ४२०,८३,१४८, वक्ता लब्धविशेष ३.४६ १६४,१७०,१९१ वचनबली ९.९८ लब्धान्तर ३.४७ | लोकप्रतर ३.१३३; ४.१० वचनयोग ४.३९१;७.७८; लब्धि १.२३६,७.४३६,८.८६ लोकप्रदेशपरिणाम ३.३ १०.४३७ . वचःप्रयोग १४.४४ लब्धिसंपन्नमुनिवर ४.११७ | लोकपाल १३ २०२ लोकपूरण ७५५; ९.२३६; वचस् १.३०८ लब्धिसंवेगसम्पन्नता५.७९,८६ १०.३२१; १३८४ वनस्पतिकायि ३. ५७,७.७२ लयनकर्म ९.२४९,१३.९,४१, ८.१९२ लोकपूरणसमुद्घात ४.२९. २०२; १४.५ वन्दना १.९७,८.८३,८४, लयसत्तम . ४.३५३ ४.३६ ; ६.४१३ लोकप्रमाण ४.१४६,१४७ . ९२,९१८८; १०.२८९ लव ३.६५ ; ४.१५०,१९४; लोकबिन्दुसार१.१२२,६.२५; वराटक १३.५,१०,४१,१४.६ १३.२९८,२९९ वज्र १३.५१५ ९.२२४ लवणसमुद्र ४.१५०,१९४ वज्रनाराचसंहनन ८.१० लोकमात्र लवणसमुद्रक्षेत्रफल ४.१९५, १३.३२२,३२७ लोकाकाश वजनाराचशरीरसंहनन६.७३, ४.९ १९८ १३.३६९ लोकायत ९.३२३ | लाढ १३.२२२ वज्रर्षभनाराचसंहनन ९.१०७ लोकालोकविभाग ३४१,३८९ वज्रर्षभनाराचशरीरसंहनन लोकोत्तरसमाचारकाल११.७६ लाभ १३.३३२,३३४ ३४१,३८९ लोकोत्तरीयवाद १३.२८०, वज्रवृषभनाराचसंहनन ८.१० लाभान्तराय ६.७८,१३.३ २९ २८८/ वज्रवृषभनाराचशरीरसंहनन १५.१४ लोभ १.३५०, ६.४१; ६.७३ लेपकर्म १३.९,१०,४१,२०२ १२.२८३,२८४ | वर्ग ४.२०,१४६; १०.१०३, लेप्यकर्म ९.२४९,१४.५ ' लोभकषायी ७.८३ | १५०,४५०,१२.९३ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषटखडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची ( ४८ वर्ग ४-२०,१४६; १०-१०३ वर्षपृथक्त्वान्तर ५-१८ | वासुदेवत्व ६-४८९,४९२ ४९५,४९६ १५०,४५०,१२-९३ | वर्षपृथक्त्वाय वर्गण ५-२०० वर्षसहस्र ४-४१८, विकल्प ३-५२,७४; ५-१८९ वर्गणा ६-२०१.३७०८-२, वल्लरिच्छेद १४-४३६ ७-२४७ ९-१०५; १०-४४२,४५०, वशित्व ९-७६, विकलप्रक्षेप १०-२३७,२४३ ४५७; १२-९३, १४-५१ वस्तु २५६ १-१७४,३-६,६-२५, वर्गणादेश १४-१३६ ९-१३४,१२-४८०, विकलप्रत्यक्ष ९-१४३ वर्गणाद्रव्यसमुदाहार १४-४९, १६.२६० । बिकलादेश ५३-५४ | वस्तुआवरणीय १३-२६० | यिकृतगोपुच्छा १०-२४१, वर्गणानययिभाषणता १४-५२ | वस्तुश्रुतज्ञान १३-२७० २५० वर्गणानिक्षेप १४-५१ वस्तुसमास ६-२५; १२-४८० | विकृतिस्वरूपगलित १०-२४९ वर्गणाप्ररूपणा r १४-४९ / वस्तुसमासश्रुतज्ञान १२-२७० .x.x.laममायतजान १२.२७० विक्रिया १.२९१ वर्गमूल ३-१३३,१३४, | वस्तुसमासावरणीय विक्रियाप्राप्त ९.७५ ४-२०२५-२६७, १३-२६० - विक्षपणी १.१०५; ९-२०२ १०-१३१ | वाइम ९-२७२ विक्षोभ ४-३१९ वर्गशलाका ३-२१,३३५ वाक्प्रयोग ९-२१७ | विग्रह ४-६४,१७५; ५-१७३; वर्गस्थान ३-१९ | वाग्गुप्ति १-११६; ९-२१६ ११-२० वर्गसंवर्गित ३-३३५ वागुरा १३-३४ | विग्रहगति १-२९९;-४२६; वगितसंगितराशि ३-१९ | वाग्योग १-२७९,३०८ ३-४३,८०,५-३००, वर्ण ६-५५; ८-१०, ९.२७३ | १४-२२ ८-१६० वर्णनाम १३-३३६,३६४, वाचना ९-२५२,२६२; | विग्रहगतिनामकर्म ४.४३४ ३७० १३-२०३; १४-८ | विगर्वणादिऋद्धिप्राप्त ४-१७० वर्तमान १३-३३६,३४२ वाचनापगत ९.२६८; विगर्वमानएकेन्द्रिय राशि वर्तमानप्रस्थ १३.२०३,१४-८ ४-८२ वर्तमान विशिष्टक्षेत्र ४-१४५ वाच्यवाचक्रशक्ति ४-२ | विजय ४-३१८,२८६ वर्धनकुमार ६-२४७ वातवलय ४-५१ विज वर्धनकुमार मिथ्यात्वकाल वादाल ३-२५५ विज्ञप्ति १३-२४३ ४-३२४] वानव्यन्तर ८-१४६; | वितत १३-२२१ वर्धमान ५-११९,१२६, १३-३१४ | वितर्क १३-७७ १३-२९२,२९३ वामनशरीरसंस्थान ९-७२ | विद्याधर ९-७७,७८ वर्धमानभट्टारक १२-२३१ | वामनशरीरसंस्थाननाम विद्यानुवाद १-१२१; ९-७१, वधितराशि १३-३६८ २२३ वर्वर १३-२२२ | वायू विद्यावादी ९-१०८,११३ वर्ष ४-३२०; १३-३०७ | वायुकायिक १-२७३; ७-७१; विद्रावण १३-४६ ४-२२६ वर्षपृथक्त्व ४-३४८; ५-१८, ५३,५५,२६४; १३-३०७ | वारुण ४-३१८ | विदेह ८-१९२ | विदिशा Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ ) विदेहसंयतराशि विधिनय विध्यात भागहार विध्यात संक्रम विनय विनयसम्पन्नता विनाश विपरितमिथ्यात्व विपाक विपाकविचय विपुलगिरि विपुलमति ४.४५ विरच विरति १६.४४८ विरलन ६.२३६. २८९, १६.४०९ | विरलित ८.८०, १३.६३ | विरह ८७९,विलेपन ८० विविक्त विन्यासक्रम विपक्ष सत्व विपच्चिद विपरिणामता १५.२८३ विशरीर विपरिणामोपक्रम १५.२८२; विशिष्ट 1 ६.९१ । विपाकविचयअजीवभावबन्ध विपाकविचयजीवभावबन्ध विमानप्रस्तर विमानशिखर विमानेन्द्रिय १०.६९,८२ विषयिन् विस्तार विस्तारानन्त ९. २७३ विस्तारासंख्यात १३५८ विस्रसापरिणतअवगाहना १३.५८ ४. ३३६ ; विविक्तशय्यासन १४.२५ १५.१९ विविधभाजनविशेष १३.२०४ विस्रसापरिणगति १४.२५ ४.७६ विवेक १३.६० १४.२५ १३.२४५ | विलोम प्रदेशविन्यास विस्रसापरिणतगन्ध विस्रसापरिणतरस १०.४४ विस्रसापरिणतवर्ण १४.२५ ५४.२५ १६.५०३ १४.२३७ विस्रसापरिणतस्कन्ध १४.२६ १०.१९ विस्रसापरिणतम्कन्धदेश ११.३१४ ६.१८०, ०४; विस्रसापरिणतशब्द ११.२०९ १४.१०,११ १२.२३१ ६.२८; विपुलमतिमन:पर्ययज्ञाना ९.६६ वरणीय १३.३३८,३४० विभंगज्ञान १.३५८; १३.२९१ विभंगज्ञानी ७.८४; ८.२७९; विमाता विमान ४.१७०; १४.४९५ विमानतल परिशिष्ट १४.१० १६.५५५ | विशुद्धता ८.२० विशुद्धि १३.७२ विशुद्धिस्थान ११.२०८,२०९ विस्रसापरिणतस्पर्श विशुद्धिलब्धि ६.२०४ १४.२३ विशेष ४.१४५.१३.२३४ विस्रसापरिणतसंस्थान विशेषमनुष्य ७.५२,१५.९३ विशेषविशेषमनुष्य ७.५२; १४.३५२ | विष्णु विषम विषय ८ ८२; १४.१२ ३.१९;४.२० ' ; विष विष्कम्भ ३.४०, ४२, ७.२४७ ४.३९०, ५ . ३ १.११९ १४.३३ ४.१९५ | विष्कम्भसूची गुणितश्रेणी १३.२१६ १३.२१६ ४.१६५ ३. १६ ३.१२५ १४.४९५ ४.२२७ विष्कम्भार्ध १४.४९५ | विष्ठौषधिप्राप्त ४.८० ४.१२ ९.९७ विस्रसाबन्ध १४.२२४ १५.९३ | विस्रसासुवचय १३.५, ३४ विस्रसासुवचयप्ररूपणता ४.११,४५, १४७ विष्कम्भचतुर्भाग ४.२०९ विस्रसोपचय ४.२५,९,१४, विष्कम्भवर्गगुणितरज्जु ४.८५ विष्कम्भवदशगुणकरणी वीचार. १४.२६ ६७,१०.४८; १३.३७१ विसंयोजन ४.३३६; १२५० ६.६१,८.१० ४. २०९ | विहायोगति १४.३० | विष्कम्भसूची ३.१३१,१३३, विहायोगतिनाम १३.३६३, १४.२० १३८.१०.६४ ३६५ विहायोगति नामकर्म ४.३२ विहारवत्स्वस्थान ४.२६,३२, १६६७.३०० १३.७७ १४.२५ १०.२५ १४.२६ १४.२६ १४.४३० Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीचारस्थान वीचारस्थानत्व वीतराग वृत्त वृत्ति ६.१८५.१८७, ८-२० १९७ ; ११.१११ ९-८२ ९.११८ ६. १५० वेदनीय ६-१० ८-११; १३ - वैयावृत्य ८-८८; १३-६३ २६,२०८,३५६ वैयावृत्ययोगयुक्तता ८.७९,८८ वीतरागछद्मस्थ १५-१८२ | वेदनीयकर्मप्रकृति १३- २०६ वंरोचन ४-३१८; १३-११५ वीर्यप्रवाद ९-२१३ | वेदान्तरसंक्रान्ति४-३६९,३७३ वैशेषिक वीर्यान्तराय ६-७८; १३-३८९ वेदित अवेदित ६-४९०; ९-३२३ ४-३१८ १३-५३ वैश्वदेव ९-२७२, ७३ वंग १५-१४ वेदिम १३-३३५ १- ११५ वेध ४-२० ४-२३२ १- २९१ १- २९१ ८-२१५, २२२ प्रवाद वृत्तिपरिसंख्यान वृद्धि वृद्धि ( रूप ) वेदक वेदकसम्यक्त्व धवलासहित समग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक शब्द - सूची ४-२०९ १-१३७, १४८; १३-५७ १३-५७ ४- १,२८ ३-४६, १८७ ; वेत्रासन वेत्रासनसंस्थित ४-२० वेद १ - ११९,१४०, १४१ ; ७-७; १३-२८० १-३९८ १-३९५;७ १०७,८ - १०; १०-२८८ सम्यग्दृष्टि वेदनाखंड वेदना वेदना वेदनासमुद्घा वेदनाकृत्स्नप्राभृत वेदनाक्षेत्रविधान १३-३०९ ४-११,२१ ८७,१८६; ७-२९९ | वैनयिकमिथ्यात्व ११- १८ वैनयिकी वेलन्धर वैक्रियिक वैक्रियिककाययोग वैक्रियिकाययोगी व्यंजन ९ - ७२, ७३; १३.२४७ ; १६-५१२ १-८६ ४-३३७, ३१७८; ९-१७२, २४३, १०-११,१५ व्यंजनपरिणाम ६-४९० व्यंजनावग्रह १-३५५; ६-१६, ९-१५६; १३-२२० व्यंजनावग्रहावरणीय १३.२२१ ९-२४० ७-१५; १२-९८ ६-९२ व्यतिरेकपर्यायार्थिकनय ६-९१ १३-३६७ | व्यतिरेकमुख व्यधिकरण ६-९५ १३-३० | व्यंतरकुमारवर्ग ६-७० व्यंतर देव वैक्रियिक मिश्रकाययोग १- २९१.२९२ ६-६९ व्यंजननय व्यंजन पर्याय वैक्रियिकशरीर वैकिकशरीरआंगोपांग ६-७३ ; ८-९ ; १३-३६९ | व्यतिकर | वैक्रियिकशरीरनाम १३ - ३६७ व्यतिरेक वैक्रियिकशरीरबन्धन ६-७० व्यतिरेकनय वैक्रियिकशरीरबन्धननाम वैकिकिशरीरबन्धस्पर्श वैक्रियिकशरीरसंघात वैक्रियिकशरीरसंघातनाम १-१७१; ७- १०८ ; ८-३६४ वेदना८- २ ९- २३२; १०-१६, १७ ; ११-२; १२-३०२; १३-३६,२०३,२१२, २६८,२९०,२९३,३१० वैक्रियिकषट्क ३२५,३२७ | वैक्रियिकसमुद्घात व्यंतर देवराशि १३-३६७ | व्यंतरदेवसासादन सम्यग्दृष्टि८- ९ | स्वस्थानक्षेत्र वैक्रियिक शरीरांगोपांग ४-१६१ ४-१६१,२३१ १५-२७९ ४-२६, ४-४६,३२० ; ५१८९,२०८; ६-४६३,४६५; १-१२५ ८-३०८; ९-१०७; १६६; ७-२९९ ११-२ वैजयन्त ४-३१९,३८६ ९-१०४ वैदिकभावश्रुतग्रन्थ ९-३२२ १२- ३०२ वैनयिक १० ५१०; १२-२१; १३-७ व्यवस्थापद १०-१८; १२-३ व्यवसाय ९-१७९ ९-२०९ ४-२६,७९, वैनयिकदृष्टि १३-२४३ ( ५० व्यंतरावास व्यभिचार १२-३१३ १३-३१४ ४-१६१ ४-१६१ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ ) व्यवहार १-८४७ - २९; १३ | शरीरनिवृत्तिस्थान १४ -५१६ | शुक्र ४,३९,१९९ | शरीरपर्याप्ति १-५५; शुक्ल ४-२६५; १३-३१६ ६-७४; १३-५० १३-७७ ४-३१७ शुक्लत्व ७-३४; १४-५२७ शरीरबन्ध १४-३७,४१,४४ शरीरबन्धन ७-१३,६७; १३-७५, ७७ ६-५३ शुक्लध्यान शुक्ललेश्या १-३९०; ७-१०४, ९-१७१ शरीरबन्धन गुणछेदना १३-३०० ८-३४६ ; १६-४८४,४८८ व्यवहारकाल व्यवहारनय व्यवहारपल्य व्याख्यान ४-७९.११४,१६५ ३४१ व्याख्याप्रज्ञप्ति १ - १०१,११०, शरीर विस्रसोपचयप्ररूपणा ९-२२०,२०७ व्याघात ४-४०९ | शरीरसंघात व्यापक व्यास ४-८ शरीरसंघातनाम ४-२२१ व्युत्सर्ग ८-८३,८५; १३-६१ शरीरसंस्थान व्रज १३- ३३६ शरीर संस्थाननाम व्रत ८-८३ शक्र शत शककाल शकट शक्तिस्थिति १०-१०९,११० १३-१३,१६ श शतपृथक्त्व शतसहस्र शतार शब्दनय ४-२३५ ७-१५७ ४-२३५ ४-२३६ १-८७; ७ - २९; ९-१७६, १८१; १३-६,७, ४०,२०० शब्दप्रवीचार शब्दलिंगज शरीर परिशिष्ट १४-४३६ शरीरबन्धननाम १३-३६३, ३६४ शरीरनाम Jain Educatior शरीरनामकर्म शलाका शलाकाराशि शलाकासंकलना शशिपरिवार शाटिका ( साडिया) शालभज्जिका शाश्वतानन्त शाश्वता संख्यात शिविका १-२३९ १३-२४५ १४-४३४, शीत शैलेश्य शरीरसंहनननाम ९-१३२ १४-३८ | शरीरी १-१२०; १४-४५,२२४ शरीरीशरीरप्ररूपणा १४-२२४ | शोक ३-३१४-४३५. ४८४, ६-१५२ | शंख ३-३३५,३३६ | शंखक्षेत्र ४-२०० श्यामा ४३५ शीतिनाम शरीरआंगोपांग ६-५४; शीतस्पर्श १३-३६३,३६४|शील १४-२२४ ६-५३ १३-३६३, शुभनाम ३६४ ६-५३ शुभप्रकृति १३-३६३, शून्य शैलकर्म ३६४ १३-३६३, ३६४ शुक्लवर्णनाम शुद्ध शुद्ध ऋजुसूत्र शुद्धनय शुभ ४-१५२ श्यामामध्य १४ - ४१ ४-१६५ श्वेत लक्षण १५-१७६ १४-१३६ ९-२४९ ३ ९,१०, ४१,२०२; १४-५ ६-४१७ ; ९-३४५; १०-३२६; १६-४७९,५२१ १३-३६३,३६७ | शीलव्रतेषु निरतिचारता ६-५२ ३-१५ श्रद्धान श्रीवत्स ३ - १२४ १४-३९ श्रुत ६-७५ श्रुतअज्ञानी १३-३७० १३-२४ श्रुतकेवली ८-८२ श्रुतज्ञान For Private & Person८-७९,८२ ४९२ १३-३७० १३-२८०,२८६ ९-२४४ ७-६७ ६-६४; ८-१० १३-३६२,३६५ ६-४७; ८-१० ; १३-३६१ १३-२९७ ४-३५ १४- ५०३ १४- ५०३ १३-५०२ ४-३१८ १३-६३ १३-२९७ ९-३३२; १६-३८५ ७-८४; ८- २७९ १४-२० ८-५७; ९-१३० १-९३,३५७, ३५८० ३५९; ६-१८,४८४,४८६; ९-१६० ; १३-२१०२४onelibrary.org. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञानावरणीय ६.२१,२५; सकलप्रत्यक्ष १३.२०९,२४५, सकलश्रुतज्ञान श्रुतज्ञानी श्रेणिचारण श्रेणिभागहार ७.८४,८.२८६ सकलश्रुतधारक ९.८० | सकलादेश सचित्तकाल १०.६६ श्रेणि ३.३३,१४२,४७६,८० सचित्तगुणयोग ५.१६६, १३.३७१,३७५ सचित्तद्रव्यस्पर्शन सचित्तद्रव्यभाव सचित्तद्रव्य वेदना सचित्तनो कर्म द्रव्यबन्धक श्रेणीबद्ध श्रोत्र श्रोत्रेन्द्रिय धवलासहित समग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक शब्द-सूची ३७७ ४.१७४,२३४ १.२४७ ४.३९१, ७.६६, १३. २२१ श्रोत्रेन्द्रियअर्थावग्रह श्रोत्रेन्द्रियहा ष षट् कायक्रम नियम ४.२१८, २२६ षट्खण्ड ९.१३३ १५.२८२ ष षष्ठिपद् षट्स्थान ६.२००; १२.१२०, सत्ता षष्ठ वृद्धि षष्ठोपवास षट्स्थानपतितत्व षड्वृद्धि षडश षण्मास षण्णाकषायोपशामनाद्धा सचित्तप्रक्रम सचित्तमंगल सचित्तान्तर स सकल सकलजिन सकलप्रक्षेप सकल प्रक्षेपभागहार १३. २२७ १३.२३१ सत् १२१; १४.४३४ |सत्प्ररूपणा १६.४९३ ६.२२,१९९ | सत्यभामा सत्यप्रवाद ४. १७८ सत्यमन ५.२१ सत्कर्म सत्कमिक ५.३ १३.९१ १३.३५८ सत्कर्ममार्गणा १६५१९ सत्कर्मस्थान १२२२०,२२५ २३१; १६.४०८ १.२०१ ९.१४२ सद्भावस्थापना १२.२६७ १३.१०,४२,४३१४, १४.५ ९. १३० सद्भावस्थापनाकाल ४.३१४ ५.२ ९.१६५ सद्भावस्थापनान्तर ११.७६ | सद्भाव स्थापनाभाव १०.४३३ | सद्भावस्थापनावेदना ७.४ १५.१५ १.२८ सत्यमनोयोग सत्यमोषमनोयोग ४. १४३ | सनत्कुमार सन्निकर्ष १२.२ १०.७ सन्निपातफल १३.२५४ सपक्ष सत्व १३.२४५ सप्तभंगीर ९.२१६ सप्तम पृथिवी ४.९० सप्तम पृथिवीनारक ४.१६३ सप्तविधपरिवर्तन सप्रतिपक्ष ६.३ १३.२९२.२९५ १४.३३ सम समकरण ३.१०७ १० ७७, १३५ ४.८३ ६.७१ ९.१०७ समचतुरस्र १५.२७७ | समचतुरस्रसंस्थान १.१२०, १३.१६ १.११६; ९.२१६ १३.२६१ १.२८१ १.२८०,२८१ १३.९१ | समचतुरशरीर संस्थाननाम समता १.२८० ; | समभागहार १.१५८ ५. २०७, ७.६१ २८१ ५.१९० ४.१९० सत्त्व ४.१४४,६,२०१, ७.८२ समभिरूढ ९.१२४ ] सत्त्वप्रकृति सत्त्वस्थान १३.३४५ | सदनुयोग ९.१० सदु१शम १०.२५६ | सदेवासुरमानुष सद्भावविक्रियानिष्पन्न १३.४३ १०.२५५ । सद्भावस्थानबन्ध समपरिमण्डलसंस्थित १२.४९५ | समभिरूढनय १२.२१९ समय ( ५२ समयकाल १३. ३४६ समय प्रबद्ध ५.१८३ १०.७ १३.३१६ १३.२८४ ४.१७२ १०.२१४; ११.१२७ १८९७.२९ ९.१७९ ४.३१७,३१८; १३.२९८ १३.३२२ ६.१४६,१४८, २५६,१०.१९४,२०१ १४.५,६ समय प्रबद्धार्थता १३.३६८ ८.८३,८४ १२.४७८ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट | सर्वसिद्ध समयसत्य १.११८ | सम्यक्त्व १.५१,३९५, ४.३५८ | सर्वतोभद्र ८.९२ समयोग १०.४५१ ५.६ ; ३.३९,४८४,४८६, | सर्वदुःखअन्तकृतभाव १४-१८ समवदानकर्म १३.३८,४५, ४८८; ७ ७ ; ९.६, | सर्वपरस्थान ३-११४,२०८ समवशरण ९.११३,१२८ ११७,१३ १५८ | सर्वपरस्थानअल्पबहुत्व ५.२८९ समवाय १.१०१,१५.२४ सम्यक्त्वकांडक१०२६९,२९४ | सर्वभाव १३.३४६ समवायद्रव्य १.१८ सम्यक्त्वलब्धि १४.२१ सर्वमोक्ष समबायांग ९.१९९ | सम्यग्दर्शन १.१५१ ; ७ ७ ; सर्वलोक १३.३४६ समाचारकाल ११.७६ १५१२ सर्वलोकप्रमाण ४.४२ समाधि ८८८ सम्यग्दर्शनवाक १.११७ / सर्वपविरिणामना १५.२८३ समानजातीय ४.१३३ सम्यग्दष्टि ६.४५१७.१०७; | सर्व विशुद्ध ६२१४ समानवृद्धि ९.३४ ८,३६३, ९.६,१८२; | सर्वविशुद्धमिथ्यादृष्टि ६.३७ समास ३.६; १३.२६०,२६२ | १३.२८०,२८७ ९.१०२ समास (जोड) ३.२०३ | सम्यग्मिथ्यात्व ४.३५८,५.७; | सर्वसंक्रम ६.१३०,२४९; समीकरण ४.१७८; १०.७७ ६.३९,४८५,४८६ । १६.४०९ समीकृत सम्यग्मिथ्यात्वलब्धि १४.२१ | सर्वम्पर्श १३.३,५.७, समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति सम्यग्मिथ्यात्वदृष्टि १.१६६५ २१ १६५२१ सर्वह स्वस्थिति ४.३५८,६.४५०,४.६३, ६.२५९ समुच्छिन्न क्रियानिवृत्तिध्यान | ४६७,७.११०,८.४,३८३ सर्वाकाश ४.१८ १०.३२६ सयोग १.१९१,१९२| सवाद्धा ४.३६३ समुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिशुक्ल | सयोगकेवली१.१९१७-१४; | सवान ३.१६ ध्यान ६.४१७ सर्वार्थसिद्धि ४-२४०,३८७; ८४ समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति सयोगिकाल १३.८७,१६.५७९ सयोगिकेवलिन १३.४४.४७ सवार्थसिद्धिविमान ४.८१ समुदाहार ११.३०८ सर्वावधि सयोगी ६.२५, ९.१४, समुद्घात ४.२६/ सरागसंयम १२.५१ ४७; १३.२९२ समुद्घातकेवलिजीवप्रदेश सराव सर्वाधिजिन ९.१०२ ४.४५, सर्व १३.३१९ सर्वावयव १३.७ समुद्र १३.३०८| सर्वकरणोपशामना १५.२७५ | सर्वावरण समुद्राभ्यन्तरप्रथमपंक्ति सर्वघातक ७.६९] सर्वासंख्यात ३.१२५ ४.१५१ | सर्वघाति ५.१९९,२०२, सर्वोपशम ६२४१ समोद्दियार १३.३४ | १२.५३; १५.१७१,३२४ सवौंषधिप्राप्त सम्पूर्ण १३.३४५ | सर्वघातित्व ५.१५८ | सहकारिकारण ७.६९ सम्प्रदायविरोधाशंका ४.१५८] सर्वघातिस्पर्धक ५.१९९,२३७, | सहस्र ४.२३५ सम्बन्ध ८.१,२, | सहस्रार ४.२३६; १३.३१६ सम्भवयोग १०.४३३,४३४ | सर्वजीव १३.३४६,३५१ सहानवस्थान १२.३००; सम्मच्छिम ५.४१; ६.४२८ | सर्वज्ञ ९-११३ । १३.२१३,३४५ १३.२०४ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची ८.८ सहानवस्थानलक्षणविरोध | साधिकमास १३-३०६ | साम्परायिकबन्धन ७-५ ४-२५९,४१२, ७-४३६ | साधु १-५१,८-८७,३६४ / सारभट ४-३१८ ४-३१९ साकार उपगोग १३-२०७ | साधसमाधि ८-७९,८८| सावित्र | सासादन साकारोपयुक्त ६ २०७ | साध्य सान साकारक्षय | सासादनगुण १३-२२४ १५-२३८, ५-७; ६-१८५ सासादनकाल ४-६५१ २६४ सानत्कुमार ४-२३५ सासादनपश्चादागतसागर ३-१३२,४-१०,१८५ सान्तर ५-२५७, ८-७ मिथ्यादृष्टि सागरोपम ४-१०,१८५,३१७, सान्तरक्षेत्र १३-७ सासादनमारणणान्तिक३६०,३८०,३८७ ; ५-६; सान्तरनिरन्तर क्षेत्रायाम ४-१६२ १३-२९८, | सान्तरनिरन्तरद्रव्यवर्गणा सासादनसम्यक्त्व ६-४८७ १४-४७४मासादनसम्यक्त्वपृष्ठायत सागरोपमपृथक्त्व ५-१० | सान्तरबन्धप्रकृति ८-१७ ४-३२५ सागरोपमशतपृथक्त्व ४-४००, सान्तरवक्रमणकाल १४-४४७ ४-३२५ सान्त रवक्रमणकालविशेष ४४१,४८. ;५-७२ ...सासादनसम्यग्दृष्टि १-१६६; सात १४-४७७ १३.३५७ ६-४४६,४५८,४५९, सान्तरसमयोपक्रमणकाल सातबन्धक ११-३१२ ४६६,४७१, ७-१०९; साताद्धा १४-४७४ १०-२४३ ८-४,३८० सान्त रसमयोपक्रमणकालसाताम्यधिक सासंयमसम्यक्त्व ५-१६ विशेष सातावेदनीय १३-३५६,३५७ १४-७५ सांख्य ६-४९०, ९-३२३ सातासात सान्तरोवक्रमणजघन्यकाल ९-२३५ सांशयिकमिथ्यात्व ८-२० सातासातबंधपरावृत्ति १४-४७६ सिद्ध १-४६,४-३३६, सान्तरोपक्रमणवार ४-३४० ५-१३०,१४२ ४७७; ९-१०२,१४-१३ सादिक ८-८ सान्निपातिकभाव ५-१९३ सिद्धगति सादिविस्रसाबन्ध १४-३४ | सामान्य १३-१९९,२३४ सिद्धभाव १४-१७ सादिशरीरबन्ध १४-४५ सामान्य मनुष्य ७-५२; | सिद्धसेन सादिसान्तनामकर्म १६-४०४ १५-९३ सिक्थ्यमत्स्य११.५२,१२.३९० सादृश्यसामान्य ४-३,१०-१०; सामायिक १-९६;९-१८८ सिद्धत्रत्वकाल ५-१०४ ११, १३-१९९ सामायिकछेदोपस्थापन सिद्धयमानभव्य ७-१७३ साधन | शुद्धिसंयत ८-२९८ सिद्धायतन ९-१०२ साधारण सामायिकछेदोपस्थापना सिद्धार्थ ४-३१९ शुद्धिसंयत साधारणजीव १४-२२७,४८७ ७-९१ | सिद्धिगति १-२० सामायिकभावश्रुत साधारणनाम १३-३६३,३६५ सिद्धिविनिश्रय १३-३५६ सामायिकशुद्धिसंयत १-३७३ सिंहल साधारणभाव ५-१९६ १३-२२२ साधारणलक्षण १४-२२६ | सामायिकशुद्धि संयम १-३६९ | सुख ६-३५; १३-२०८,३६२ साधारणशरीर१-२६९,३-३३, ३७० ३३४,३४१,१४-३२८ ६-६३, १३.३८७; १४-२२५ | साम्परायिक ४-३९१ | १५-६ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५) परिशिष्ट सुपर्ण सुभग सुर सूरसेन सुखदुखपञ्चक १५-१६४ सूक्ष्मसाम्परायिक ७.५, ८.४ / संकलनसूत्र ३ ९१,९३ सुगन्धर्व ४-३१९ , सूक्ष्माद्धा ५,११९ संकलनसंकलना १०.२०० सुचक्रधर १.५८ सूचीक्षेत्रफल ४.१६ | संकलना ४.१५९; १३.२५६ सूच्यंगुल ३.१३२,१३५,४.१० | सूत्र १.११०,८.५७,९.२०७, | संकुट १.१२० २०३,२१२,९.२१ २५९,१४.८ संक्लेश ६.१८०; ११.२०९ सुनयवाक्य ९-१८३ | सूत्रकृत १.९९ ३०९ १३-३९१ / सूत्रकृतांग ९.१९७ सक्लेशक्षय १६.३७० ६-६५,८-११ १३.२८९ / संक्लेशस्थान ११.२०८ सुभगनाम १३-३६३,३६६ | सूत्रपुस्तक १३.३८२] संक्लेशावास १०.५१ सुभिक्ष १३-३३२,३३६ सूत्रसम ९२५९,२६१,२६८; ] संख्या ३.७ १३-३९१ १३.२०३, १४.८ संख्यात ३.२६७; १३.३०४, सुरभिगन्ध ६.७५ १३.३३५ ३०८ सुरभिगन्धनाम १३ ३७० सूर्पक्षेत्र ४.१३ | संख्यातगुणवृद्धि ११.३५१ सुषमसुषमा ९.११९ सूर्य ४.१५०,३१९ संख्यातभागवृद्धि ११.३५१ सुषिर १३.२२१ सूर्यप्रज्ञप्ति १.११०; १.२०६ संख्यातयोजन १३.३१४ सुस्वर ६.६५,८.१० सेचिकस्वरूप ५२६७ | संख्यातवर्षायुष्क ८.११६; सुस्वरनाम सेचीयादो उदय १५.२८९ १०.२३७ | सेन १३.२६१ संख्यातीतसहस्र १३.३१५ सूक्ष्म १.२५०,२६७; ३-३३१ सोपक्रमायु । ९८९ | सोपक्रमायुष्क १०.२३३,२३८ संख्येयगुणवृद्धि ६-६२; ८-९ १६ २२, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति १३-८३. सोम १३.११५,१४१ सोमरुचि सस्येयभागवृद्धि ६ २२, १९९ १६-५२१,५७९ १३.११५,१४१ सौद्धादनि सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिध्यान १३.२८८ गस्ययराशि ४.:३८ सौधर्म संख्यय वर्षायुक ४.२३५ ६-४१६; १०-३२५ ११.८९ | सौधमंइन्द्र सूक्ष्मकर्म ९.२१३,१२९ १.८४ १-२५३ सौधर्मविमान ४.२२९,२३५ संग्रहकृष्टि ६.६७५ सूक्ष्मत्व १०-४३ सूक्ष्मनाम १३.३६३,३६५ | सौधर्मादि ४.५६२| संग्रहनय ६.९९,१०१,१०४; सूक्ष्मनिगोदजीव १३.३०१ | संयम ९.१७०,१३.४,५, १६ ४९५ सुक्ष्मानगोदवर्गणा १४-११३ संक्रमण ५.१७१, ६.१६८ ३९,१९९ सूक्ष्मप्ररूपणा १२.१७४ | सक्रममार्गणा १६.५१९ | संघवयावृत्य १३.६३ सूक्ष्मसाम्पराय संक्रमस्थान १.३७३ | ६.२३; १२.४८०; १२.२३१; | संघात सूक्ष्मसांपरायकृष्टि ६.२९६ १६.४०८ १३.२६०; १४.१२१ सूक्ष्मसांपरायकादिक ७.५ | संकर १४.१३४ सूक्ष्मसाम्परायसंयत ८.३०८ | संकरअनुयोगद्वार ९.२३४ | संघातनकृति ९.३२६ सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत संकलन ४.१४४,१९९; संघातनपरिशातन ९.३२७ १-१८६,३७१, ७-९४ १०.१२३ संघातसमास ६.२३; १२.४८० | संघातसमासश्रुतज्ञान १३.२६९ संग्रह ९.२४० | संघातज Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहित समग्रषट्खंडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची १-१५२ संघातसमासावरणीय १३.२९१ । ४९२,४९५; ७-७,१४, | स्तिवुकसंक्रमण ५-२१०; संघातावरणीय १३-२६१ ९१; ९-११७; ६-३११,३१२,३१६, संघातिम ९-२७२,२७३ १४-१२ १०-३८९ संचय ५-२४४,२७३ | संयमकांडक , १०-२९४ | स्तुति ९-२६३; १३-२०३; संचयकाल ५-२७७ | संयमगुणश्रेणि १०-२७८ १४-९ संचयकालप्रतिभाग ५-२८४ | सयमभवग्रहण १५-३०५ | स्तूपतल ४-१६२ संचयकालमाहात्म्य ५-२५३ | संयमासंयम ४-३४३,३५०; | स्तोक ३-६५ संचयराशि ५-६, ६-४८५,४८६,४८८/ स्त्यानगृद्धि ६-३१,३२; ८-९; संचयानुगम. १०-१११ संयमासंयमकांडक १०-२९४ संज्वलन ६-४४८-१०; संयोग ४-१४४९-१३७, | स्त्री १-३४०, ६-४६ १३-३६० १३-२५०; १४-२७; १५-२४ स्त्रीवेद १-३४०, ३४१; संयोगद्रव्य संज्ञ १-१८ ६-४७,७-७९,८-१०; संयोगाक्षर १३-२५४,२५९ संज्ञा १३-२४४,३३२,३३३, १३-३६१ ३४१ संयोजनासत्य १-११८| स्त्रीवेदभाव ११-११ संज्ञी संवत्सर १-१५२; २५९, ७-७, ५-९६,९८ ४-३१७,३६५: स्त्रीवेदस्थिति स्त्रीवेदोपशामनाद्धा १११;८-३८६ १३-२९८,३०० संदन १४-३९ संवर ७.९; १३.२५२ संवर्ग स्थलगता संदृष्टि ४.१७, १०.१५३, १-११३;९-२०९ ३-८७,१९७ सनिकर्ष स्थलचर ११-९०,११५, १२-३७५ १३-३९१ संनिवेश १३-३३६ मंवेग ७.७८.८६ | स्थान ५-१०९;९-२१७, संपातफल १३-२५४ संवेदनी १.१०५; ९.२०२ १०.४३४; १२-१११; संप्राप्तितः उदय १५-२८९ संवृतिसत्य १.११८ १३-२३६ संबंध १४-२७ संश्लेषबन्ध १४.३७,४१ | स्थानांग १.१००; ९.१९८ संभव १४-६७ संसार १३-४४ स्थानांतर १२.११४ संभिन्नश्रोता ५-५९,६१,६२ संसारस्थ १३-४४ स्थापनबंध १४.४ संयत ७.९१,८-२९८ संस्थान ८-१० १४.५२ संयतराशि ४-४६ संस्थानअक्षर . १३-२६५ | स्थापना ४,३,३१४ ; ७.३; संयतासंयत १-१७३७-९४; संस्थाननामकर्म ४-२७६ १३.२०१:१४.४३५ ८-४,३१० संस्थानविचय | स्थापनाउपक्रम संयतासंयत उत्त्सेध १३-७२ १५.४१ ४-१६९ संयतासंयतगुणश्रेणि संस्थानविपाकी ४-१७६ स्थापनाउपशामना १५.२७५ १५-२९७ | सहनन ६-५४ स्थापनाकर्म १३.४१,२०१, २४३ संयतासंयतस्वस्थानक्षेत्र स्कन्ध १३-११,१४-८६ ४-१६९ | स्तव ८-८३,८४, ९-२६३, स्थापनाकाल संयम १-१४४,१७६,३७४; १३-२०३; १४-९ ९.२४८ स्थापनाकृति ४-३४३; ५-६, ६-४८८, १३-५३ | स्थापनाक्षर १३.२६५ संवाह Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७-३ स्थापनाक्षेत्र ४-३ स्थितिक्षयजनितउदय स्पर्शक्षेत्रविधान १३-२ स्थापनाजिन १५-२८६ | स्पर्शगतिविधान १३-२ स्थापनानन्त ३-११ स्थितिघात ६-२३०,२३४ | स्पर्शद्रव्यविधान ५३-२ स्थापनानारक ७-२९ स्थितिदीर्घ १६-५०८ स्पर्शन १-२३७ स्थापनानिबन्धन १५-२ | स्थितिबंध ६-१९९,२९०, ८.२ | स्पर्शनय विभाषणता १३-२,३ स्थापनाप्रकति १३-२०१ स्थितिबंधस्थान ६-१९९; स्पर्शनानगम १३-१००. स्थापनाप्रक्रम ११-१४२,१६२,२०५,२२५ | स्पर्शनाम १३-३६३,३६४, स्थापनाबन्ध १४-६ स्थितिबंधाध्यवसायस्थान ३७० स्थापनाबन्धक ६-११९ / स्पर्शनामविधान १३-२ स्थापनाभाव ५-१८३; १२-१ स्थितिबन्धाध्यवसान | स्पशंनिक्षेप १३-२ स्थापनामोक्ष १६-३३७ ११-३१०,१६-५७७| स्पर्शनेन्द्रिय ४-३९१ स्थापनामंगल १-१९ स्थितिबन्धापसरण ६-२३०; | स्पर्शनेन्द्रियअर्थावग्रह स्थापनालेश्या १६-४८४ १३.२२८ स्थापनाल्पबहुत्व | स्थितिमोक्ष १६-३३७,३३८ | स्पर्शनेन्द्रियईहा १३-२३१, स्थापनावेदना १०-७ स्थितिविपरिणामना १५-२८३ २३२ स्थापनाशब्द स्थितिसत्कर्म १६-५२८ | स्पर्शनेन्द्रियव्यज्जनावग्रह स्थापनासत्य १-११८ | स्थितिसंक्रम ६-२५६,२५८; १३-२२५ स्थापनासंक्रम १६-३३९ १६-३४७ | स्पर्शपरिणामविधान १३-२ स्थापनासंख्यात ३-१२३ स्थितिह,स्व १६-५१० स्पर्शप्रत्ययविधान १३-२ स्थापनास्पर्श १३-९ स्थिर ६-६३,८-१०, स्पर्शप्रवीचार १.३३८ स्थापनास्पर्शन ४-१४१ १३-२३९| स्पर्शभागाभागविधान स्थावर ६-६१८-६ | स्थिरनाम १३-२६३,२६५ १३-२ स्थावरस्थिति ५-८५ | स्थूलप्ररूपणा १२-१७४ | स्पर्शभावविधान १३-२ स्थिति ९-२५२,२६८; स्निग्धनाम १५-३७० स्पर्शसन्निकर्षविधान १३-२ १३-२०३, | स्निग्धनामकर्म ९-७५ स्पर्शस्पर्श १३-३,६,८,२४ १४.७/ स्निग्धस्पर्श १३-२४ स्पर्शस्पर्श विधान १३-२ स्थितश्रुतज्ञान १४.६ स्पर्द्धक ७-६१,१०-४९२, स्पर्शस्वामित्वाविधान १३-२ ४-३३६, ६-१४६; १२-९५ | स्पर्शानुगम १-१५८; १३-३४६,३४८ | स्पर्द्धकान्तर १२-११८ ४-१४४ स्थितिकांडक ६-२२२,२२४; | स्पर्श ६-५५.८-१०,१३-१,४, | स्पशोनुयाग १३.८० ५,७,८,३५ स्पृष्टअस्पृष्ट १३-५२ स्थितिकांडकघात ६-२०६; | स्पर्शअनुयोगद्वा ९.२३३, | स्फटिक १३.३१५ १०-२९२, १३-२ | स्मृति ९.१४२; १३.२४४, ३१८ स्पर्शअन्तरविधान १३.२ ३३२,३३३,३४१ स्थितिकांड चरम- ६.२२८, | स्पर्शअल्पबहुत्व १३-२ स्याद्वाद ९.१६७ फालि __२२९ | स्पर्शकालविधान १३-२ | स्वकर्म स्थित १३.३१९ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलासहितसमग्रषटखडागमस्य पारिभाषिक-शब्द-सूची ८.८ हानि हार . ६.४९१ हास्य स्वकप्रत्यय ४.२३४ | स्वस्थानक्षेत्रमेलापनविधान ।हर १३.२८६ स्वक्षेत्र ४.१६७ | हरि १३.२८६ स्वप्न ९.७२,७४ | स्वस्थानजघन्य स्थिति हरिद्रवर्णनाम १३.३७० स्वप्रत्यय ११३१९ हस्त ४.१९ स्वयंप्रभपर्वत ४.२२१ | स्वस्थानस्वस्थान ४.२६ ४.१९ स्वयप्रभपर्वतपरभाग ४.२१४ १६६; ७.३०० हायमान १३.२९२,२९३ स्वयंप्रभपर्वतपरभागक्षेत्र स्वस्थानस्वस्थानराशि ४.३१ हायमानअवधि ६.५०१ ४.१६८ स्वास्तिशरीरसंस्थान ६.७१ ३.४७ स्वयंप्रभपर्वतोपरिमभाग स्वाध्याय हारान्तर ३.४७ ४.२०९ स्वामित्व ८.८; १०.१९ हारिद्रवर्णनामकर्म ६.७४ स्वयंभू १.१२० स्वास्थ्य ६.४७,८.१० स्वयंभूमरणक्षेत्रफल ४.१९८ | स्वोदय स्वयंभूमरणसमुद्र ४.१५१, हतसमुत्पत्तिक १०.२९२, हिरण्यगर्भ १३.२८६ ३१८; १५.११८; हिंसा १४.८,९,९० स्वयंभूमरणसमुद्रविष्कम्भ १६.५४२ | हुण्डकशरीरसंस्थान ६.७२ ४.१६८ हतसमुत्पत्तिकक्रम १६.४०२, | हुण्डकशरीरसंस्थाननाम स्वर ९.७२; १३.२४७ ४०३ १३.३६८ स्वसमयवक्तव्यता १.८२ | हतसमुत्पत्तिकर्म १२.२८, | हुताशन ४.३१९ स्वसंवेदन ९.११४ २९; १५.१११ हेतु १३.२८७ स्वस्तिक १३.२९७ | हतसमुत्पत्तिकस्थान हेतुवाद ४.१५८; १३.२८०, स्वस्थान ४.२६,९२,१२१ १२.२१९,२२० २८७ स्वस्थानअल्पबहुत्व ३.११४, हतहतसमुत्पत्तिक १२.९०, हेतुहेतुमद्भाव ५.३२२ २०८; ५.२८९; ९.४२९ ९१ | हेमपाषाण ४.४७८ १३ २४८ १९४ 'ह,स्व Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० धवला - षट्खंडागम सूचिपत्र ० पुस्तक खंड विषय भाग १ प्रथम खंड (जीवस्थान) २ " " " _. ४ , , , ३।४।५ ६७८ ७ द्वितीय खंड ८ तृतीय खंड ९ चतुर्थ खंड (वेदनाखंड) १० , " ॥ सत्प्ररूपणा १ सत्प्ररूपणा २ द्रव्यप्रमाणानुगम क्षेत्र-स्पर्शन-कालानुगम अंतर-भाव-अल्पबहुत्त्व चूलिका क्षुद्रकबंध बंधस्वामित्त्व कृतिअनुयोगद्वारम् वेदनानिक्षेप-वेदनानय-वेदनाद्रव्य वेदनाक्षेत्र वेदनाकाल वेदना भाव विधान स्पर्शकर्म प्रकृति अनुयोग बंधन अनुयोग निबंधनादि ४ अनुयोग मोक्षादि १४ अनुयोग २।३१४ ५।६ १२ , , , १३ पंचम खंड (वर्गणाखंड) १४ , " " १५ " " " ons Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________