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छक्खंडागमे संतकम्मं
णवदंसणावरणीय मिच्छत्त- सोलसकसाय-भय-दुगुंछा - पुरिसवेद-पंचं तराइयाणं सम्माइट्ठी वा मिच्छाइट्ठीसु वा धुवबंधिणामपयडीणं च मदिआवरणभंगो । सादासादसम्मत्त सम्मामि० हस्स - रदि अरदि-सोग - इत्थि - णवुंसयवेद - उच्च णीचागोद परियत्तमाणामपडी पि एवं चेव । णवरि अवद्विदसंकमो णत्थि । एवं सामित्तं समत्तं ।
जीवेण कालो । तं जहा - मदिआवरणस्स भुज० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अप्पदरकालो जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अवट्ठियस्स जह० एगसमओ, उक्क संखेज्जा समया । एवं चउणाणावरण-णवदंसणावरण-पंचंतराइयाणं । सादस्स भुजगारसंकामओ केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० आवलिया समयूणा । अप्पदरसंकामओ केव० ? जह० एगसमओ, उक्क ० अंतमुत्तं । (असादस्स भुजगार - अप्पदरसंक० केव० ? जह० एस ०, उक्क अंतोमुहुत्तं ।
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मिच्छत्तस्स भुज० जह० एस० । उक्क ०
अंतमुत्तं ) आवलिया समऊणा
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होता है । शेष चार ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद और पांच अन्तराय इनकी सम्यग्दृष्टियों एवं मिथ्यादृष्टियों में तथा ध्रुवबन्धी नामप्रकृतियोंकी भी यह प्ररूपणा मतिज्ञानावरण के समान है । साता व असाता वेदनीय, सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, उच्चगोत्र, नीचगोत्र और परिवर्तमान नामप्रकृतिमोंकी भी प्रकृत प्ररूपणा इसी प्रकार ही है। विशेषता इतनी है कि इनका अवस्थित संक्रम नहीं है । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ ।
एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा करते हैं । यथा -- मतिज्ञानावरणके भुजाकार संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है । इसके अल्पतर संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है । अवस्थित संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय मात्र है । इसी प्रकार शेष चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियों के सम्बन्धम कहना चाहिये । सातावेदनीयके भुजाकार संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से एक समय कम आवली प्रमाण है । उसके अल्पतर संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त मात्र है । असातावेदनीयके भुजाकार और अल्पतर संक्रामकोंका काल कितना है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अत्तर्मुहूर्त मात्र है ।
मिथ्यात्व के भुजाकर संक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त
* मिच्छत्तस्स भुजगार अप्पदर अवट्ठिद अवत्तव्वसकामया अस्थि । एव सोलसकपाय- पुरिसवेद-भयदुगंछाणं । एवं चेव सम्मत्त सम्मामिच्छत इत्थि - णवुंसयवेद हस्स र ह अरइ सोगाणं । णवरि अवद्विदसंकामगा णत्थि । क. पा. सु पृ. ४२३, २६४-६७.
कोष्ठकस्थोऽयं पाठ अ-का-ताप्रतिष्वनुपलभ्यमानो मप्रतितोऽत्र योजितः ।
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