________________
संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो
( ४५३ उच्चागोदे संखे० गुणो। जस कित्ति. असंखे० गुणो । ओरालिय० संखे० गुणो। तेजा० विसे०। कम्पइय० विसे०। तिरिक्खगदोए संखे० गुगो । अजसकित्ति० विसे० । पुरिसवेदे संखे० गुणो । इथिवेदे संखे० गुणो । हस्से संखे० गुणो । रदी० विसे० । सादे० संखे० गुणो । सोगे संखे० गुणो । अरदी० विसे०। णवूस० विसे० । दुगुंछ विसे । भय० विसे०। संजलणमाणे विसे० । कोधे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । दाणंतराइए विसे० । लाहंतराइए विसे । भोगंतरा० विसे० । परिभोगंतरा० विसे० । वीरियंतरा० विसे । मणपज्जव० विसे० । ओहिणाणावरण० विसे० । सुदणा० विसे० । मदिणाणाव. विसे०। ओहिदसणाव. विसे० । अचक्खु विसे० । चक्खु० विसे० । असादे असंखे० गुणो । णीचागोदे विसेसाहिओ। एवमसण्णीसु जहण्णओ पदेससंकमदंडओ समत्तो।
जहा असण्णीसु तहा एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिएसु वि वत्तव्वं ।
एत्तो भुजगारसंकमो उच्चदे- भुजगारे अट्रपदं कादूण सामित्तं कायव्वं । तं जहा-- मदिआवरणस्स भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदसंकामगो को होदि ? अण्णदरो । अवत्तव्व० को होइ? अण्णदरो उवसंतकसाओ परिवदमाणओ। चदुणाणावरणीय
यशकीतिमें असंख्यात गुणा है । औदारिकशरीर में संख्यातगुणा है । तैजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। तिर्यंचगतिमें संख्यातगुणा है । अयशकीर्तिमें विशेष अधिक है । पुरुषवेदमें संख्यातगणा है । स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । शोकमें संख्यातगुणा है । अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमे विशेष अधिक है । संज्वलन मान में विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। लाभान्तराय में विशेष अधिक है। भोगान्तरायमें विशेष अधिक है। परिभोगान्तरायमें विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायमें विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरण में विशेष है । अवधिज्ञानावरणम विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरण में विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । असातावेदनीयमें असंख्यातगुणा है । नीचगोत्रमें विशेष अधिक है । इस प्रकार असंज्ञी जीवोंमें जघन्य प्रदेशसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ।
जिस प्रकार असंज्ञियोंमें यह प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार एकेन्द्रियों, द्वीन्द्रियों, त्रीन्द्रियों और चतरिन्द्रियोंमें भी उसे करना चाहिये।
अब यहां भुजाकारसंक्रमका कथन करते हैं-- भुजाकारके विषयमें अर्थपद करके स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है । यथा-- मतिज्ञानावरणका भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामक कौन होता है ? उसका संक्रामक अन्यतर जीव होता है । अवक्तव्य संक्रामक कौन होता
है ? उसका संक्रामक परिपतमान अर्थात् उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला अन्यतर उपशान्तकषाय Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org