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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४८३ हस्स-रदि अरदि-सोगाणं असादभंगो। पुरिसवेदस्स कोधसंजलणभंगो। इत्थिणवंसयवेदाणं अत्थि असंखे. भागवड्ढि-असंखे० भागहाणि-संखे० भागवड्ढि-संखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणवढि-असंखे० गुणहाणि-अवत्तव्वसंकमा । सेसपदाणि पत्थि । भय-दुगुंछाणं अत्थि असंखे० भागवड्ढि-असंखे० भागहाणि-असंखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणहाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा । सेसपदाणि णत्थि। णिरयगइणामाए अत्थि असंखे० भागवड्ढि संखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणवड्ढि-असंखे० भागहाणि-असंखे० गुणहाणि-अवत्तव्वसंकमा । तिरिक्खगइणामाए अत्थि असंखे० भागवड्ढि-संखे० भागवड्ढि-संखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणवड्ढिअसंखे० भागहाणि असंखे० गुणहाणि-अवत्तव्वसंकमा । मणुस्सगइणामाए अस्थि असंखे० भागवड्ढि-संखे० भागवड्ढि-संखे० गुणवड्ढि असंखे० गुणवड्ढि-असंखे० भागहाणि-असंखे० गुणहाणि-अवत्तध्वसंकमा। सेसपदाणि पत्थि । देवगइणामाए अत्थि असंखे० भागवड्ढि-संखे० भागवड्ढि-संखे० गुणवड्ढि-असंखे० गुणवड्ढिअसंखे० भागहाणि-संखे० गुणहाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा । सेसं जाणिदूण वत्तव्वं । एवं संकमे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । अवक्तव्य संक्रम पद हैं । शेष पद नहीं हैं । हास्य, रति, अरति और शोक की प्ररूपणा असातावेदनीयके समान है । पुरुषवेदकी प्ररूपणा मंज्वलन क्रोधके समान है । स्त्री और नपुंसक वेदोंके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि. सख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य संक्रमपद हैं । शेष पद नहीं हैं। भय और जगप्साके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य संक्रमपद हैं। शेष पद नहीं हैं । नरकगति नामकर्मके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य संक्रमपद हैं। तिर्यग्गति नामकर्मके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य संक्रमपद हैं। मनुष्यगति नामकर्मके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य संक्रामपद हैं । शेष पद नहीं हैं । देवगति नामकर्मके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभाग. वृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि असंख्यातगुणवृद्धि असंख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य संक्रामपद हैं। शेष कथन जानकर करना चाहिये। इस प्रकार संक्रम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। * क. पा. सु. पृ. ४५६, ६२५-३१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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