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________________ १३ लेस्साणुयोगद्दार ० असुर- सुर-णरवरोरग-गुणिदविदेहि वंदिए चलणे । मिथूण अरस्स तदो लेस्सणियोगं परूवेमो ॥ १ ॥ एत्थ लेस्सा णिक्खिविदव्वा, अण्णहा पयदलेस्सावगमाणुववत्तदो । तं जहाणामलेस्सा ट्ठवणलेस्सा दव्वलेस्सा भावलेस्सा चेदि लेस्सा चउव्विहा । लेस्सा - सद्दो णामलेस्सा । सब्भावासब्भाव टुवणाए दुविदव्वं ट्ठवणलेस्सा । दव्वलेस्सा दुविहा आगमदव्वलेस्सा णोआगमदव्वलेस्सा चेदि । आगमदव्वलेस्सा सुगमा । णोआगमदव्वलेस्सा तिविहा जाणुगसरीर भविय ( -तव्वदिरित्तणो आगमदव्वलेस्साभेएण । जाणुसरीरभविय ) नोआगमदव्वलेस्साओ सुगमाओ । तव्वदिरित्तदब्वलेस्सा पोग्गलक्खंधाणं चक्खिदियगेज्झो वण्णो । सो छव्विहो किण्णलेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा पम्मलेस्सा सुक्कलेस्सा चेदि । तत्थ भमरंगार - कज्जलादीणं कण्णलेस्सा | बि-कदलीदावपत्तादीणं गीललेस्सा । छार-खर- कवोदादीणं काउलेस्सा | कुंकुम - जवाकुसुम - कुसुंभादीणं तेउलेस्सा । तडवड - पउमकुसुमादीणं पम्मलेस्सा | हंस-बलायादीणं सुक्कलेस्सा । वृत्तं च असुरेन्द्र, सुरेन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र और मुनीन्द्र इनके समूहोंके द्वारा वन्दित ऐसे अर जिनेन्द्रके चरणोंको नमस्कार करके लेश्या अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा करते हैं ।। १ ।। यहां लेश्याका निक्षेप करना चाहिये, क्योंकि, उसके विना प्रकृत लेश्याका अवगम नहीं हो सकता । उसका निक्षेप इस प्रकार है- नामलेश्या, स्थापनालेश्या, द्रव्यलेश्या और भावलेश्या इस प्रकार लेश्या चार प्रकारकी है । उनमे ' लेश्या ' यह शब्द नामलेश्या कहा जाता है । सद्भाव स्थापना और असद्भावस्थापना रूपसे जो लेश्याकी स्थापना की जाती है। वह स्थापनालेश्या है । द्रव्यलेश्या दो प्रकारकी है- आगमद्रव्यलेश्या और नोआगमद्रव्यलेश्या । इनमें आगमद्रव्यलेश्या सुगम है । नोआगमद्रव्यलेश्या ज्ञायकशरीर, और भावी तद्व्यतिरिक्त arrature भेदसे तीन प्रकारकी है । इनमें ज्ञायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्यलेश्यायें सुगम है । चक्षु इंद्रियके द्वारा ग्रहण करने योग्य पुद्गलस्कन्धोंके वर्णको तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यलेश्या कहते हैं । वह छह प्रकारकी हैं कृष्णलंश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । उनमें कृष्णलेश्या भ्रमर, अंगार और कज्जल आदि होती है । नीम, कदली और दावके पत्तों आदिके नीललेश्या होती है । छार, खर और कबूतर आदिके कापोतलेश्या जानना चहिये । कुंकुम, जपाकुसुम और कसूम कुसुम आदिकी लेश्या तेजलेश्या कहलाती है । तडबडा और पद्म पुष्पादिकोंके पद्मलेश्या होती है । हंस और बलाका आदिकी शुक्ललेश्या अनुभूत है । कहा भी है ताप्रतौ ' चरणे' इति पाठः । Jain Education International अ-काप्रत्योः ' भावामब्भाव ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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