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________________ लेस्साणुयोगद्दारे णोआगमदव्वलेस्सा ( ४८५ किण्णं भमरसवण्णा णीला पुण णीलिगुणियसंकासा । काऊ कवोदवण्णा तेऊ तवणिज्जवण्णाभा ।। १ ।। पम्मा पउमसवण्णा सुक्का पुण कासकुसुमसंकासा । किण्णादिदव्वलेस्सावण्ण विसेसा मुणेयव्वा ।। २ ।। भावलेस्सा दुविहा आगम-णोआगमभेएण । आगमभावलेस्सा सुगमा । णोआगमभावलेस्सा मिच्छत्तासंजम-कसायाणुरंजियजोगपवुत्ती कम्मपोग्गलादाणणिमित्ता, मिच्छत्तासंजम-कसायजणिदसंसकारो त्ति वुत्तं होदि । एत्थ णेगमणयवत्तव्वएण णोआगमदव्व-भावलेस्साए पयदं । तत्थ ताव दव्वलेस्सावण्णणं कस्सामो- जीवेहि अपडिगहिदपोग्गलक्खंधाणं किण्ण-णील-काउ-तेउ-पम्म-पुक्कसण्णिदाओ छलेस्साओ होंति। अणंतभागवड्ढि-असंखे० भागवड्ढि-संखे०भागवढि--संखे०गुणवड्ढि-असंखे० गुणवड्ढि-अणंतगुणवढिकमेण असंखे० लोगमेत्तवण्णभेदेण पोग्गलेसु ट्ठिदेसु किमळं छच्चेव लेस्साओ ति एत्थ णियमो कीरदे? ण एस दोसो, पज्जवणयप्पणाए लेस्साओ असंखे०लोगमेत्ताओ, दवट्टियणयप्पणाए पुण लेस्साओ छच्चेव होंति । संपहि एदासि छण्णं लेस्साणं सरीरमस्सिदूण परूवणं कस्सामो। तं जहातिरिक्खजोणियाणं सरीराणि छलेस्साणि- काणिचि किण्णलेस्सियाणि काणिचि णील कृष्णलेश्या भ्रमरके सदृश, नीललेश्या नील गुणवालेके सदृश, कापोतलेश्या कबूतर जैसे वर्णवाली, तेजलेश्या सुवर्ण जैसी प्रभावाली, पद्मलेश्या पद्मके वर्ण समान, और शुक्ललेश्या कांसके फूलके समान होती है। इन कृष्ण आदि द्रव्यलेश्याओंको क्रमसे उक्त वर्णविशेषों रूप जानना चाहिये ।। १-२॥ ___ आगम और नोआगमके भेदसे भावलेश्या दो प्रकार की है। इनमें आगमभावलेश्या सुगम है। कर्म-पुदगलोंके ग्रहण में कारणभूत जो मिथ्यात्व, असंयम और कषायसे अनुरंजित योगप्रवृत्ति होती है उसे नोआगमभावलेश्या कहते हैं। अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्व, असंयम और कषायसे उत्पन्न संस्कारका नाम नोआगमभावलेश्या है। यहां नैगम नय के कथनकी अपेक्षा नोआगम द्रव्यलेश्या और भावलेश्या प्रकृत हैं। उनमे पहिले द्रव्यलेश्याका वर्णन करते हैं-- जीवोंके द्वारा अप्रतिगृहीत पुद्गलस्कन्धोंकी कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल संज्ञावाली छह लेश्यायें होती हैं । शंका-- अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके क्रमसे असंख्यात लोक प्रमाण वर्गों के भेदसे पुद्गलोंके स्थित रहनेपर 'छह ही लेश्यायें हैं ' ऐसा नियम किसलिये किया जाता है ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यद्यपि पर्यायाथिक नयकी विवक्षासे लेश्यायें असंख्यात लोक मात्र हैं, परन्तु द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षासे वे लेश्यायें छह ही होती हैं । अब शरीरका आश्रय करके इन छह लेश्याओंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार हैतिर्यंच योनिवाले जीवोंके शरीर छहों लेश्यावाले होते हैं-- कितने ही शरीर कृष्णलेश्यावाले, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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