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________________ ५७२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं साम्मे ति अणुओगद्दारे दस वित्थरपदाणि । तं जहा - लेस्सापरिणामे १ लेस्सापच्चय विहाणे २ लेस्सापदविहाणे ३ लेस्सासामित्तविहाणे ४ लेस्साकालविहाणे ५ लेस्साअंतरविहाणे* ६ लेस्सातिव्व-मंददाए ७ लेस्साद्वाणपरूवणा ८ लेस्साट्ठाणाणं अप्पा बहुअं ९ ले सागइसमोदारो १० । एवं लेस्सापरिणामे त्ति समत्तमणुओगद्दारं । लेस्सापरिणामे ति अणुओगद्दारे पंचविधियपदाणि । तं जहा- लेस्सासंकमे १ लेस्साट्टा संकमे २ लेस्साट्ठाणप्पा बहुए ३ लेस्साअद्धासमोदारे ४ लेस्साअद्धा कमे ५ । किहलेस्सादो संकिले संतो अण्णलेस्सं ण संकमदि, विसुज्झतो सट्टाणे छट्टानपदिदाणि ओसरदि, णीललेस्सं वा संकमदि * ठाणे अनंतगुणहीणो पददि । णीलादो संकिलिस्तो सट्टा छुट्टाणपदिदाणि ओसरदि, किण्णलेस्सं संकमदि * ठाणे अनंतगुणे; तदो विसुज्झतो सट्ठाणे छट्टाणपदिदाणि ओसरइ, काउं वा संकमदि ट्ठाणे अनंतगुणी | काउलेस्सादो संकिलेसंतो सट्ठाणे छट्टाणपदिदाणि ओसरइ*, णीललेस्सं वा संकमदि ट्ठाणे अनंतगुणे; विसुज्झतो सट्टाणे ओसरदि छट्टाणपदिदाणि ते वा संकमदि द्वाणे अनंतगुणहीणे । तेउलेस्सादो संकिलेसंतोष्ट सट्टाणे छट्टाणपदिदाणि ओसरदि, काउं वा संकमदि द्वाणे अनंतगुणे; विसुज्झतो सट्ठाणे छट्टाणपदिदाणि श्याकर्म अनुयोगद्वार में दस विस्तारपद हैं । वे ये हैं- १ लेश्यापरिणाम, २ लेश्या - प्रत्ययविधान, ३ लेश्यापदविधान, ४ लेश्यास्वामित्वविधान, ५ लेश्याकालविधान, ६ लेश्याअन्तरविधान, ७ लेश्यातीव्र मंदता, ८ लेश्यास्थानप्ररूपणा, ९ लेश्यास्थानोंका अल्पबहुत्व और १० लेश्यागतिसमवतार । इस प्रकार लेश्यापरिणाम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । लेश्यापरिणाम अनुयोगद्वार में पंचविधिक पद हैं। वे ये हैं- १ लेश्यासंक्रम, २ लेश्यास्थान संक्रम, ३ लेश्यास्थानअल्पबहुत्व, ४ लेश्याद्धासमवतार और ५ लेश्याद्धासंक्रम | कृष्णलेश्यासे संक्लेशको प्राप्त होता हुआ जीव अन्य लेश्यामें संक्रमण नहीं करता, उससे विशुद्धिको प्राप्त होकर स्वस्थानमें छह स्थानोंमं पडता है अथवा नीललेश्या में संक्रमण करता है- अर्थात् अनन्तगुणे हीन नीललेश्या रूप परस्थान में जाता है। नीललेश्यासे संक्लेशको प्राप्त होकर स्वस्थानमें छह स्थानोंमें नीचे गिरता है अथवा अनन्तगुणे परस्थानमें कृष्णलेश्यामें संक्रमण करता है। उससे विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ स्वस्थानमें छह स्थानों में गिरता है, अथवा अनन्तगुणी होन परस्थानभूत कापोतलेश्या में संक्रमण करता है । कापोतलेश्यासे संक्लेशको प्राप्त होकर स्वस्थानमें छह स्थानों में नीचे पडता है, अथवा अनन्तगुणं परस्थानमें नीललेश्या में संक्रमण करता है। उससे विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ स्वस्थानमें छह स्थानों में गिरता है, अथवा अनन्तगुणी होन परस्थानभूत तेजलेश्यासे संक्रमण करता है । तेजलेश्यासे संक्लेशको प्राप्त होकर स्वस्थानमें छह स्थानोंमें नीचे गिरता है, अथवा अनन्तगुणे परस्थानमें कापोतलेश्यामें संक्रमण करता है । उससे विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ स्वस्थानमें ताप्रती 'लेस्सावण्णचउरसे' इति पाठः । * अ-काप्रत्यो: ' संक्रमदि ' इति पाठ: । उक्कस्सादो', काप्रती 'उस्सासादो', ताप्रती 'उस्तादो ( काउलेस्सादो ) ' इति पाठ: । ' अइसरइ ' इति पाठः । अप्रती अ-काप्रत्योः अ-काप्रत्यो: ' संकमदि ' इति पाठः । अ-काप्रत्यो: ' तेउसकम संकिले संतो ' तात'' उसकम (लेस्सादो ) संकिलेसंतो ' इति पाठः । * ताप्रती ' काउलेस्सं वा' इति पाठ: । Jain Education International For Private & Personal Use Only # www.jainelibrary.org.
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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