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________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे लेस्साणुयोगद्दारं ( ५७१ गुणं । देवगई० असंखे० गुणं । वेउव्विय० संखे० गुणं । आहार० असंखे० गुणं । मणुसगई० असंखे० गुणं । उच्चागोदे० संखे, गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । ओरालिय० संखे० गुणं। तेज.विसे० । कम्म• विसे० । तिरिक्खगई० संखे० गुणं । अजसकित्ति० संखे० गुणं । णीचागोद० संखे० गुणं। हस्स० संखे० गुणं । रदि० विसे । सादे० संखे० गुगं । सोग० संखे० गुणं । अरदि० विसे० । णवंस० विसे० । दुगुंछ विसे । भय० विसेसा० । माणसंजलण विसे । कोहे० विसे०। मायाए० विसे । लोहे. विसे० । दाणंतराइए० विसे० । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति । मणपज्ज. विसे । ओहिणाण. विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे । ओहिदंस० विसे० । अचक्खु० विसे०। चक्खु० विसे०। असादे० खंखे० गुणं । णीचागोदे० विसेसाहियं । एवमेइंदियदंडओ समत्तो । एवं पदेससंकमो समत्तो । लेस्सा त्ति अणुयोगद्दारे तत्य इमाणि अट्ट पदाणि । तं जहा- लेस्साणिक्खेवे १ लेस्साणयपरूवणा २ लेस्साणिरूवणा ३ लेम्सासंकमणणिवत्ती ४ लेस्सावण्णसमोदारो ५ लेस्सावण्णचउरंसे0 ६ लेस्साटाणपरूवणा ७ लेस्सासरीरसमोदारो चेदि ८ । एवं लेस्साणिक्खेवेत्ति समत्तमणुयोगद्दारं । असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है । मनुष्यगतिमें असंख्यातगुणा है। उच्चगोत्र में संख्यातगुणा है। यशकीति में असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीरमें असंख्यातगणा है। तेजसशरीरमें विशेष अधिक है। कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। तिर्यग्गतिमें संख्यातगुणा है। अयशकीर्तिमें संख्यातगुगा है। नीचगोत्रम संख्यातगुणा है। हास्यमें संख्यातगुणा है। रतिमें विशेष अधिक है। सातावेदनीयम संख्यातगुणा है। शोक में संख्यातगुणा है। अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्साम विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है। संज्वलन क्रोध में विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभ में विशेष अधिक है। दानान्तरायमें विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेष अधिक क्रमसे वीर्यान्तराय तक ले जाना चाहिये। आग मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरण में विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयम विशेष अधिक है। नीचगोत्र में विशेष अधिक है। इस प्रकार एकेन्द्रियदण्डक समाप्त हुआ। इस प्रकार प्रदेशमंक्रम समाप्त हुआ। लेश्या अनुयोगद्वारमें वहां ये आठ पद हैं। वे ये हैं- १ लेश्यानिक्षेप, २ लेश्यानयप्ररूपणा, ३ लेश्यानिरूपणा, ४ लेश्या संक्रमणनिर्वृत्ति, ५ लेश्यावर्णसमवतार, ६ लेश्यावर्णचतुरंश, ७ लेश्यास्थानप्ररूपणा और ८ लेश्याशरीरसमवतार । इस प्रकार लेश्यानिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। 8 ताप्रतौ 'तस्स ' इति पारः। 8 ताप्रतौ 'लेस्साअंतरविहागे' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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