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________________ कमाणुयोगद्दारे द्विदिसंकमो ( ३५७ सादिरेयाणि । उच्चागोदस्स उक्कस्सट्ठिदिसंकमकालो जह० एगसमओ, उक्क० आवलिया । णीचागोदस्स जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । उच्च णीचागोदाणं अणुक्कस्सट्ठि दिसंकमकालो जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखे० पोग्गलपरियट्टा । एवमुक्कस्सकालो समत्तो । जहणट्ठदिसंकमकालो । तं जहा- पंचणाणावरणीय णवदंसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त- सोलसकसाय णवणोकसाय- पंचंतराइयाणं जहण्णट्ठिदिसंकमकालो जहणुक्क एगसमओ । अजहण्ण # ट्ठिदिसंकमकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो वा । णवरि सोलसकसाय - णवणोकसायाणं अजहण्णस्स तिणि भंगा। जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क उवड्ढपोग्गलपरिय । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णट्ठिदिसंकमकालो जहण्णुक्क० एगसमओ । अहणट्ठि दिसंकमकालो दोष्णं पि जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० बेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । चटुण्णमाउआणं जहणट्ठिदिसंकमकालो जहण्णुक्क० एगसमओ । अजहण्णट्ठिदिसंकमकालो देव- णिरयाउआणं जह० दसवस्ससहस्साणि सादिरेयाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोमाणि साहियाणि । मणुस - तिरिक्खाउआणं अजहण्णद्विदिसंकमकालो जह० उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति के संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवली मात्र है | नीचगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त मात्र है । उच्चगोत्र और नीचगोत्रकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ । जघन्य स्थिति के संक्रमकालकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय और पांच अन्तराय; इनकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल अनादि- अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित भी है । विशेष इतना है कि सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अजघन्य स्थिति संबंधी संक्रमकाल के तीन भंग हैं । उनमें जो सादि सपर्यवसित है वह जघन्यसे अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से उपाधं पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्ष से एक समय मात्र है । अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल दोनों का ही जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छ्यासठ सागरोपम मात्र है । चार आयु कर्मोंकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है । अजघन्य स्थिति के संक्रमका काल देवायु और नारकायुका जघन्यसे साधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है । मनुष्यायु और तिर्यंच आयुकी अजघन्य स्थिति के अावसाए पयडीणं जहण्णद्विदिसंकमकालो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । वरि इत्थि - णवंसयवेद छण्णोकसायाणं जगणद्विदिसंकमकालो केवचिरं कालादो होदि ? जहष्णुक्कस्सेण अंतत्तं । क. पा. सु. पृ. ३२२, ७८-८१. * अ-काप्रत्योः ' जहण्ण' इति पाठः । प्रतिषु जण इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education Iremation www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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