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________________ ३५८ ) छक्खंडागमे संतकम्म एगसमी, अंतोमुहत्तं । कुदो मणुसाउअस्स एगसमओ? आउए आवलियाए असंखे० भागेणाहियदोआवलियावसेसे आउअस्स विणट्ठोकड्डणसंकमे अप्पमत्ते दुसमयाहियवलियावसेसपमत्तगुणं पडिवण्णे कयएगसमय अजहण्णसंकमे बिदियसमए जहण्णसंकमुवलंभादो। उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि। णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणपुव्वी-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणपुव्वीएइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय--चरिदियजादि-आदावुज्जोव-थावर-सुहम-साहारणसरीरणामाणं जहण्णट्ठिदिसंकमकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अजहण्णढिदिसंकमकालो अणुव्वेल्लिज्जमाणियाणं अणादियो अपज्जवसिदो अणादियो सपज्जवसिदो वा । उव्वेल्लिज्जमाणियाणं अजहण्णटिदिसंकमकालो जहण्णण अटुवस्साणि सादिरेयाणि, उक्क० बेसागरोवमसहस्साणि साहियाणि । वृत्तसेसाणं णामपयडीणं जहण्णदिदिसंकमकालो जहण्णुक्क० एयसमओ। उव्वेल्लिज्जमाणियाणं अजहण्णट्ठिदिसंकमकालो जह० अटुवस्साणि सादिरेयाणि । उक्कस्सेण मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं असंखेज्जपोग्लगपरियट्टा, देवगइ-देवगइपाओ संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त मात्र है। शंका--- मनुष्यायुका एक समय मात्र उक्त काल कैसे बनता है ? समाधान-- कारण यह कि आयु में आवलीके असंख्यातवें भागसे अधिक दो आवली कालके शेष रहनेपर जिसके आयुका अपकर्षण व संक्रम नष्ट हो चुका है ऐसे अप्रमत्तसंयतके दो समय अधिक आवली मात्र शेष प्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त होकर एक समय अजघन्य संक्रमके करनेपर द्वितीय समयमें जघन्य संक्रम पाया जाता है । ___ उनकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल उत्कर्षसे साधिक तीन पल्योपच मात्र है । नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीर नामकर्मोकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। अजघन्य स्थिति संक्रमका काल अनुद्वेल्यमान प्रकृतियोंका अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित भी है। उद्वेल्यमान प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे साधिक आठ वर्ष और उत्कर्षसे साधिक दो हजार सागरोपम मात्र है। उपर्युक्त प्रकृतियोंके अतिरिक्त जो शेष नामप्रकृतियां हैं उनकी जघन्य स्थिति के संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। उद्वेल्यमान प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे साधिक आठ वर्ष मात्र है। उत्कर्षसे वह मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन तथा देवगति, देवगतिप्रायोग्यानपूर्वी, वैक्रियिक Xअ-का-मप्रत्योः ‘संकमो', ताप्रतो 'संकमो ( मे )' इति पाठः । * अ- काप्रत्योः 'पडिवण्णो कयएगसमय', ताप्रतौ 'पडिवण्णी (णे) क (ए) यसमय' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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