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________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो ( ३५९ ग्गाणुपुव्वीणं वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं च बेसागरोवमसहस्साणि साहियाणि । आहारसरीर-आहारसरीरअंगोवंग-बंधण-संघादाणं जह० अंतोमुत्तं, उक्क० पलिदोवमस्स असंखे० भागो। तित्थयरणामाए जहण्णट्ठिदिसंकमकालो जहण्णुक्क० एगसमओ। अजहण्णहिदिसंकमकालो जह० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सेसाणं कम्माणं अजहण्णछिदिसंकमकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो वा। उच्च-णीचगोदाणं जहण्णट्ठिदिसंकमकालो जहण्णुक्क० एगसमओ। अजहण्णट्ठिदिसंकमकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो वा। णवरि उच्चागोदस्स अजहण्णट्ठिदिसंकमकालो जह० अट्ठवस्साणि सादिरेयाणि, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। एवं कालो सपत्तो।। एगजीवेण उक्कस्संतरं- मदि-सुदआवरणाणं उक्कस्सटिदिसंकामयंतरं जह• एगसमओ, उक्क० असंखे० पोग्गलपरियट्टा। तिण्णिणाणावरण-णवदंसणावरण-सादासाद-मिच्छत्तसोलसकसाय--णवणोकसयाणमुक्कस्सटिदिसंकामयंतरं० जह० अंतोमुहुत्तं उक्क० असंखे०पोग्गलपरियट्टा। णवरि णवणोकसायाणं उक्कस्सट्ठिदिसंकामयंतरं* जह० एग शरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकबन्धन और वैक्रियिकसंघातका साधिक दो हजार सागरोपम मात्र है । आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग, आहारकबन्धन और आहारकसंघातका उक्त काल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त व उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। तीर्थंकर नामकर्मकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है । उसकी अजघन्य स्थिति के संक्रमका काल जघन्यसे संख्यात हजार वर्ष और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। शेष कर्मोंकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित भी है। उच्च और नीच गोत्रकी जघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। उनकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल अनादि-अपर्यवसित और अनादिसपर्यवसित भी है। विशेष इतना है कि उच्चगोत्रकी अजघन्य स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे साधिक आठ वर्ष और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। इस प्रकार कालप्ररूपणा समाप्त हुई। एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी संक्रमके अन्तरकालकी प्ररूपणा की जाती है- मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । शेष तीन ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। विशेष इतना है कि नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका अन्तरकाल 0 अप्रतौ 'समयंतरं' काप्रतौ 'सामयंतरं' इति पाठः । अप्रतो 'समयंतरं', ताप्रती 'सं० अंतरं' इति पाठः । Jain Education For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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