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________________ ४३२ ) छक्खंडागमे संतकम्म एत्तो जहण्णयं पदेससंकमस्स सामित्तं। तं जहा- मदिआवरणस्त जहण्णपदेससंकामओ को होदि ? जो अभवसिद्धियपाओग्गेण सव्वजहण्णसंतकम्मेण चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेदूण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लध्दूण उप्पण्णोहिणाणो संतो खवेदि, तस्स चरिमसमयसुहमसांपराइयस्स जहण्णओ पदेससंकमो। सुद-मणपज्जवकेवलणाणावरणाणं मदिआवरणभंगो । एवं ओहिणाणावरणस्स वि। णवरि खवेंतस्स ओहिणाणं णत्थि त्ति वत्तव्वं । चक्खु-अचक्खु-केवलदंसणावरणाणं मदिआवरणभंगो। ओहिदसणावरणस्स ओहिणाणावरणभंगो । णिद्दा-पयलाणं सुदावरणभंगो। णवरि णिद्दा-पयलाणं जहण्णसंकमो ओहिणाणिस्स चेव होदि ति णियमो णत्थि। णिद्दा-पयलाणं बंधवोच्छेदस्स. चरिमसमए चेव जहण्णसंकमो दायव्वो। थोणगिद्धितियस्स जहण्णपदेससंकमो कस्स ? जो अब यहां जघन्य प्रदेशसंक्रमके स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- मतिज्ञानावरणका जघन्य प्रदेश संक्रामक कौन होता है ? जो अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य सर्वजघन्य सत्कर्मके साथ चार वार कषायोंको उपशमा कर और बहुत वार संयमासंयम एवं संयमको प्राप्त करके उत्पन्न हुए अवधिज्ञानसे संयुक्त होता हुआ क्षपण करता है उस अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके मतिज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। श्रुतज्ञानाबरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। अवधिज्ञानावरणकी भी प्ररूपणा इसी प्रकार ही है। विशेष इतना है कि क्षपणा करते हुए उसके अवधिज्ञान नहीं होता, यह कहना चाहिये। चक्षु, अचक्षु और केवलदर्शनावरणकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। अवधिदर्शनावरणकी प्ररूपणा अवधिज्ञानावरण के समान है। निद्रा और प्रचलाकी प्ररूपणा श्रुतज्ञानावरणके समान है । विशेष इतना है कि निद्रा और प्रचलाका जघन्य संक्रम अवधिज्ञानी के ही होता है, ऐसा नियम नहीं है। निद्रा और प्रचलाके जघन्य संक्रमको बन्धव्युच्छेदके अन्तिम समयमें ही देना चाहिये। स्त्यानगृद्धि त्रयका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता नीचर्गोत्रं संक्रमयति । एवं भूयो भूय उच्चर्गोत्रं नीचर्गोत्रं च बन्धतो नीचैर्गोत्रबन्धव्यवच्छेदानन्तरं शीघ्रमेव सिद्धिं गन्तुकामस्य नीचैर्गोत्रबन्ध चरमसमये उच्चैर्गोत्रस्य गुणसंक्रमणेन बन्धेन चोपचितीकृतस्योत्कृष्ट: प्रदेशसंक्रमो भवति । मलयगिरि. ४ आवरणसत्तगम्मि उ सहोहिणा तं विणोहिजयलम्मि । क. प्र. २, ९७. * अ-काप्रत्योः 'ओहिदसणावरणभंगो' इति पाठः। मप्रतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्योः 'वोच्छे दो हम', ताप्रतौ 'वोच्छेदे हस्स' इति पाठः। *णिहादुगंतराइय-हासचउक्के य बंधते ॥ क. प्र. २, ९७. निद्राद्विकं निद्रा-प्रचलारूपं, अन्तरायपंचकं हास्यचतुष्कं हास्य-रत-भय-जुगुप्सालझणं, एतासामेकादशप्रकनीनां । ११) स्वबन्धान्तसमये यथाप्रवृतसंक्रमेण जघन्यः प्रदेशसक्रमो भवति । निद्राद्विक-हास्यचतुष्टययोर्बन्धव्यवच्छेदानन्तरं गणसंक्रमण संक्रमो जायते । तत: प्रभूतं दलिकं लभ्यते । अन्तरायपञ्चकस्य । तु) बन्धव्यवच्छेदानन्तरं संक्रम एव न भवति, पतद्ग्रहाप्रा'तेः, ततो बन्धान्तसमयग्रहणम् । मलय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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