SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४३३ खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण संजमं पडिवण्णो, सव्वजहण्णमंतोमुत्तावसेसे संसारे चरिमसमयअधापवत्तकरणो जादो, ताधे तस्स जहण्णगो पदेससंकमोथे। ___सादस्स जहण्णपदेससंकमो कस्स ? जो अभवसिद्धियपाओग्गेण जहणण संतकम्मेण कसाए अणुवसामेदूण खवेदि, तस्स जाधे चरिमो असादबंधो तस्स बंधस्स चरिमसमए सादस्स जहण्णओ पदेससंकमो* । असादस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जो जहण्णेण संतकम्मेण चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेयूण खवेदि, तस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयम्हि जहण्णगो पदेससंकमो?। मिच्छत्तस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्त ? जो जहण्णेण संतकम्मेण बेछावट्ठीओ सम्मत्तमणुपालेयूण, चदुक्खुत्तो कसाए उवसामिय, संजमं संजमासंजमं च बहुसो लध्दूण, सव्वमहंति सम्मत्तद्धमणुपालेदूण अंतोमुहुत्तेण सिज्झिहिदि त्ति दसणमोहणीय खवेदि, तदो दंसणमोहक्खवगअधापवत्तकरणस्स चरिमसमए जहण्णओ पदेससंकमो*। है ? जो क्षपितकौशिक स्वरूपसे आकर संयमको प्राप्त हो सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त मात्र संसारके शेष रहनेपर अन्तिम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरण हुआ है उसके उस समय स्त्यानगृद्धित्रयका जघन्य प्रदेससंक्रम होता है। सातावेदनीयका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य जघन्य सत्कर्मके साथ कषायोंका न उपशमा कर क्षय करता है, उसके जब असातावेदनीयका अन्तिम बन्ध होता है तब उस बन्धके अन्तिम समयमें सातावेदनीयका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । असातावेदनीयका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ चार वार कषायोंका उपशमा कर क्षय करता है उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयम असातावेदनीयका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वका पालन कर, चार वार कषापोंको उपशमा कर, संयम और संयमासंयमको बहुत वार प्राप्त कर. तथा सबसे महान् सम्यक्त्वकालका पालन करके अन्तर्मुहूर्त कालमें सिद्ध होनेवाला है, इसीलिये जो दर्शनमोहनीयको क्षपणा करता है, उस दर्शनमोहक्षपकके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । सम्यक्त्व और अ-काप्रत्योः 'गंतूण णा संजमं' तापतौ 'गंतूण ( णा) संजमं' इति पाठः । अयरछावटिदुगं गालिय थीवेय-थीणगिद्धितिगे । सगखवणहापवत्तस्संत (ते)xxx ॥२, ९९. सायस्स णवसमित्ता असायबंधाण चरिमबंधते क.प्र. २, ९८ • अट्ठकसायासाए य असुभधुवबंधि अत्थिरतिगे य । सव्वलहु खवणाए अहापवत्तस्स चरिमम्मि ॥ क.प्र. २,१०२. *मिच्छतस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? ख विदकम्मसिओ एइंदियकम्मेण जहण्णएण मणुसेसु आगदो सव्वलहं चेव सम्मतं पडिवण्णो संजमं संजमासंजमं च बहसो लमिदाउगो चत्तारिवारे कसाए उवसामित्ता वे छावट्रि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि सम्मत्तमणुपालिद । तदो मिच्छतं गदो अंतोमहत्तेण पुणो तेण सम्मत्तं लद्धं । पुणो सागरोवमपुधत्तं सम्मत्तमणपालिदं । तदो दंसणमोहणीयक्खवणार अब्भट्रिदो । तस्स चरिमसमयअधापवत्त करणस्स मिच्छत्तस्स जहण्णओ पदेससंकमा । क. पा. सु प. ४०५, ८४-४९. ' एमेव मिच्छत्त इति ' एवमेव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy