SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३४ ) छक्खंडागमे संतकम्म सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जेण जहणेण मिच्छत्तसंतकम्मेण सम्मत्तमुप्पाइदं, जहण्णण गुणसंकमेण जहण्णपूरणकालेण च सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि पूरिदाणि, तदो बे-छावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालेदूण मिच्छत्तं गदो, सव्वमहंतेण उव्वेल्लणकालेण उबेल्लेदि, तदो दुचरिमस्स उव्वेल्लणखंडयस्स चरिमसमए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णओ पदेससंकमो*। अणंताणुबंधीणं जहण्णगो पदेससंकमो कस्स? अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णण संत कम्मेण चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेदूण तदो अणंताणुबंधिविसंजोइदं संजोइदं कादूण सव्वमहंति सम्मत्तद्धमणुपालेदूण तदो विसंजोयणं गदो, विसंजोयणाए अध.पवत्तकरणस्स चरिमसमए अणंताणुबंधोणं जहण्णओ पदेससंकमो । अढण्णं कसायाणं जहण्णओ सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जिसने मिथ्यात्वके जघन्य सत्कर्मके साथ सम्यक्त्वको उत्पन्न कर लिया है तथा जघन्य गुण संक्रम और जघन्य पूरणकालके द्वारा सम्यक्त्व एवं सम्यग्मिथ्यात्वको ( मिथ्यात्वके प्रदेशाग्रसे ) पूर्ण किया है, तत्पश्चात् जो दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका परिपालन करके मिथ्यात्वको प्राप्त होता हुआ सबसे महान् उद्वेलनकालके द्वारा उद्वेलना करता है उसके द्विचरम उद्वेलनकाण्डकके अन्तिम समयमें सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। अनन्तानुबन्धी कषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य जघन्य सत्कर्मके साथ चार चार कषायोंको उपशमा कर तत्पश्चात् । मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अल्प काल तक विसंयोजित) अनन्तानुबन्धीको संयोजित करके जो सबसे यहान् सम्यत्वक्कालका पालन करते हुए विसंयोजनको प्राप्त हुआ है, उसके विसंयोजन करते हुए अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धी कषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। आठ कषायोंका जघन्य पूर्वोक्तप्रकारेण मिथ्यात्वस्य जघन्यप्रदेशसंक्रमोऽवगन्तव्यः । तद्यथा-द्वे षषष्टी सागरोवमाणां यावत्सम्यक्त्वमनुणल्य तावन्तं कालं मिथ्यात्वं गालयित्वा किचिच्छेषस्य मिथ्यात्वस्य क्षपणाय समुद्यतस्य स्वकीययथाप्रवृत्तकरणान्तसमये वर्तमानस्य विध्यातसंक्रमेण मित्थात्वस्य जघन्यः प्रदेससंक्रमो भवति, परतो गुणसंक्रमः प्रवर्तते, तेन स न प्राप्यते । क. प्र. (मलय.) २, ९९. * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? एसो चेव जीवो मिच्छत्तं गदो । तदो पलिदोबमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण अप्पप्पणो दुचरिमझिदिखडय चरिमसमयउब्वेल्लमाणयस्स जघण्णओ पदेससंकमो। क. पा. सु. पृ. ४०७, ४९-५० हस्सगणकसंमद्धाए पूरयित्ता समीस-सम्मत्तं । चिरसंमत्ता मिच्छत्तगयस्सुव्वलणथोगो सिं ॥ क. प्र. २, १००. ताप्रती 'अणंताणबंधिविसंजोइदं कादूण' इति पाठः। अर्णताणबंधीणं जहणओ पदेसरांकमो कस्स? एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेस आगदो। संजमं संजमासंजमंच बहसो लक्ष्ण चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो एइंदिएस पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमच्छिद जाव उवसामयसमयपबद्धा णिग्गलिदा ति । तदो पुणो तसेसु आगदो सब्बलहं सम्मत्तं लद्धं अणंताणबंधिणो च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy