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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४३५ पदेससंकमो कस्स ? जो जहण्णसंतकम्मेण चदुक्खुत्ते कसाए उवसामेयूण खवेदि, तदो खवणाए अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए वट्ट माणस्स तेसि जहण्णओ पदेससंकमोन। एवमरदि-सोगाणं । हस्स-रदि-भय-दुगंछाणं पि एवं चेव । णवरि आवलियअपुवकरणस्स । तिण्णिसंजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? उवसामयस्स अपच्छिमसमयपबद्धं घोलमाणजहण्णजोगेण बद्धं अपच्छिमसंकामयंतस्स जहण्णओ पदेससंकमोथे। (लोहसंजलणाए. जहण्णओ पदेससंकमो) कस्स? जो जहण्णएण संतकम्मेण कसाए अणुवसामेयूण खवेदि तस्स अपुव्वकरणस्स आवलियपविट्ठस्स लोभसंजलणाए प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्म के साथ चार वार कषायोंको उपशमा कर क्षपणा करता है और तत्पश्चात् क्षपणा करते हुए जो अधःप्रवृत्त करणके अन्तिम समयमें वर्तमान है उसके उनका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । इसी प्रकार अरति और शोकके जघन्य प्रदेशसंक्रमका कथन करना चाहिये। हास्य, रति, भय और जुगुप्साके भी जघन्य प्रदेशसंक्रपकी प्ररूपणा इसी प्रकार करना चाहिये । विशेष इतना है कि इनका जघन्य प्रदेशसंक्रम आवली कालवर्ती अपूर्वकरणके होता है । तीन संज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो घोलमान जघन्य योगके द्वारा बांधे गये अन्तिम समयप्रबद्ध का संयम कर रहा है ऐसे उपशामक जीवके संक्रमकके अन्तिम समयमें उन चार प्रकतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। (संज्वलन लोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम) किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ कषायोंका उपशम न करके क्षय करता है उस आवली विसंजोइदा । पुणो मिच्छत्तं गंतुण अंतोमहत्तं संज एण पुणो तेण सम्मतं लद्धं । तदो सागरोवमवेछावट्ठीओ अणपालिदं । तदो विसंज'एदुमाढतो। तस्स अधारवत्त करणचरिमसमए अणनाणुबंधीणं जहण्जओ पदेससंकमो। क. पा. सु. पृ ४०७, ५१-५२ पंजोयणाग चतुरुवसमित्तु संजोजइत्तु अप्पद्धं । अयरच्छावद्विदुग पालिय सकहप्पवत्तंते ।। क. प्र. २, १०१. 0 अटूण्हं कसायाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? एइंदियकम्मेण जहण एण तसेसु आगदो संजमासंजम संजमं च बहसो गदो। चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो एइंदिएस गदो। असंखेज्जाणि वस्साणि अच्छिदो जाव उवसामयसमय बद्धा णिग्गलंति । तदो तसे सु आगदो संजमं संव्वलहुं लद्धो। पुणो कसायक्खवणाए उवट्रिदो। तस्स अधापवतकरणस्स चरिमसमए अटण्हं कसायाण जहण्णओ पदेससंकमो। क. पा. सु. पृ ४०८, ५३-५४. अट्ठकसायासाए य असुमधुवबंधि अथिरतिगे य । सबलहुं खवणाए अहापवत्तस्स चरिमम्मि ।। क. प्र. २, १०२. " असाएण समा अरई य सोगो य । क प्र २,१०३. . * हस्प-रइ-भय-दुगुंछाणं पि एवं चेव, णवरि अपुवकरणस्सावलियपविट्ठस्स । क. पा. सु. पृ. ४०७, ५६. ४ कोहसजलणस्स जहगणओ पदेससंकमो कस्स? उवसामयस्स चरिमसमयपबद्धो जाधे उवसामिज्जमाणो उवसंतो ताधे तस्स कोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो। एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । क. पा. सु.पु. ४०८, ५७-५९. पुरिसे संजल गतिगे य घोलमाणेण चरमबद्धस्स । सगअंतिमे। xxx क. प्र. २, १०३. .ताप्रती ‘बद्धं अपच्छिमसंकामयंतस्स । ( लोभसंजलणाए ) ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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