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________________ ४३६ ) छक्खंडागमे संतकम्म जहण्णओ पदेससंकमो*। ___ इत्थवेदस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? जो जहण्णसंतकम्मेण बे-छावट्ठीओ सम्मत्तमगुपालिय चदुक्खुत्तो कसाए उवसामिय तदो खवेंतस्स अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए इत्थिवेदस्स जहण्णओ पदेससंकमो । णवंसयवेदस्स इथिवेदभंगो। णवरि पुव्वं चेव तिपलिदोवमिएसु उप्पाइय अवसाणे सम्मत्तं घेत्तूण बे-छावट्ठीयो हिंडावेयव्वोत्र। ___ आउआणं णत्थि संकमो । णिरयगइणामाए जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? जो उज्वेल्लिदेण कम्मेण अंतोमुहुत्तं संजोएदूण सत्तमपुढवि गदो, तदो उव्वट्ठिटो संतो अणंताणुबंधीणं एत्तदो (?) तदो एइंदिएसु जीवेसु महंतेण* उव्वेल्लणकालेण उव्वेल्लमाणस्स जं दुचरिमट्ठिदिखंडयं तस्स चरिमसमए णिरयगइणामाए जहण्णओ पदेससंकमो देवगईए णिरयगइभंगो। कालवर्ती अपूर्वकरणके संज्वलन लोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वको पालकर और चार वार कषायोंको उपशमा कर फिर क्षय करने में प्रवृत्त होता है उसके अधःप्रवृतकरणके अन्तिम समय में स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। नपुंसकवेदकी प्ररूपणा स्त्रीवेदके समान है। विशेष इतना है कि पहिले ही तीन पस्योपम आयुवालोंमें उत्पन्न कराकर अन्त में सम्यक्त्वको ग्रहण करके दो छयासठ सागरोपम तक घुमाना चाहिये। आयु कर्मोंका संक्रम नहीं होता। नरकगति नामकर्मका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है? जो उद्वेलित कर्म के साथ अन्तर्मुहर्त काल संयुक्त होकर सातवी पृथिवीको प्राप्त हुआ है, तत्पश्चात् वहांसे निकलकर ( पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें उत्पन्न हो अल्प काल उसका बन्ध करके ) फिर एकेंद्रिय जीवोंमें महान् उद्वेलनकाल द्वारा उद्वेलना कर रहा है उसका जो द्विचरम स्थितिकाण्डक है उसके अन्तिम समयमें नरकगति नामकर्मका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। देवगति नामकर्मकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है। * लोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो संजमासंजम संजमं च बहुसो लधुण कसाएसु कि पि णो उवसामेदि। दीहं संजमद्धमणुपालिदूण खवणाए अब्भुट्रिदो तस्स अपुवकरणस्स आवलियाविटुस्स लोहसजलणस्स जहण्णओ पदेस कमो। क पा सु. पृ ४०९, ६०-६१. खवणाए लोभस्स वि अपुव्वकरणालिगाअंते । क. प्र. २, ९८. . क. पा. सु पृ. ४१०, ६४. 8 अप्रती 'वेछावट्टि', काप्रतौ ' वेछावट्टि' इति पाठः । ४ क. पा. सु. प. ४०९, ६०-६३. EPS अप्रतौ ' उवट्रिदो', काप्रतौ ' उव्वेल्लिदो' इति पाठः । अप्रतौ 'जीवेसु हत्तेग', कापतो 'जीवेसु सुहत्तेण' ताप्रतौ 'जीवेसु हत्तेण ( महंतेण)' इति पाठः । 0 वेउवि (व्वे)ककारसगं उब्वल्लियंबंधिऊण अप्पद्ध। जिठिई निरयाओ उबट्रित्ता अबंधित्तु ।। थावरगयस्स चिरउव्वलणोणे)xxx क. प्र. २,१०४-५. वेउवित्ति- देवद्विक-नरकद्विक-बक्रियिकसप्तकलक्षणं वैक्रियकादशकं एकेन्द्रियभवे उद्वर्तमानेनोदलितं पुनरपि पंचेन्द्रियत्वमपागतेन सताल्पाद्धमल्पकालं अन्तर्मुहर्तकालं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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