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________________ संमाणुयोगद्दारे पदेस संकमो ( ४३७ मणुसगइणामाए जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जो तेउक्काइओ वाउक्काइओ वा उव्वेल्लिदमणुसग इणामकम्मो जहण्णेण कम्मेण तेउ वाउवज्जेसु सुहुमेसु खुद्दाभवग्गहणमच्छिऊण संजुत्तो, पुणो तेउजीवे वा वाउजीवे वा गदो तस्स सव्वमहंतेण उव्वेलणकालेण मणुसगइं उब्वेल्लमाणस्स जं दुचरिमुव्वेल्लणखंडयं तस्स चरिमसमए जहण्णओ पदेससंकमो * । तिरिक्खगइ - उज्जोवणामाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जो जहण्णएण संतकम्मेण मणुस गई गदो, तिपलिदोवमिएसु उववण्णो, अंतोमुहुत्ते सेसे सम्मत्तं mer पलिदो मिओ देवो जादो, तदो अपरिवडिदेण सम्मत्तेण मणुसर्गाद गदो, पुणो व अपरिवडि एक्कत्ती सागरोवमिओ देवो जादो, अंतोमुहुत्तुववण्णो मिच्छत्तं गदो, तो तस्स देवभवस्स अंतोमुहुत्त सेसे सम्मत्तं लद्धं तदो बे-छाबट्टिसेसा सम्मत्त मनुष्यगति नामकर्मका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? मनुष्यगति नामकर्मकी उद्वेलना करनेवाला जो तेजकायिक अथवा वायुकायिक जीव जघन्य कर्मके साथ तेजकायिक और वायुकायिकको छोड़कर शेष सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में क्षुद्रभवग्रहण काल रहकर उसको बांधता है. फिर तेजकायिक अथवा वायुकायिक जीवों में जाकर सबसे महान् उद्वेलनकाल द्वारा मनुष्यगतिकी उद्वेलना कर रहा है, उसका जो द्विचरम उद्वेलनकाण्डक है उसके आन्तम समयमें उसका जघन्य प्रदेश संक्रम होता है । तिर्यंचगति और उद्योत नामकर्मका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसका होता है ? जो जघन्य सत्कर्म के साथ मनुष्यगतिको प्राप्त होकर तीन पत्योपम प्रमाण आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ है, वहां अन्तर्मुहूर्त आयुके शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त कर पल्योपम प्रमाण आयुवाला देव हुआ, तत्पश्चात् अप्रतिपतित सम्यक्त्वके साथ मनुष्यगतिको प्राप्त हुआ, फिरसे भी अप्रतिपतित सम्यक्त्वके साथ इकतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाला देव हुआ, वहां उत्पन्न होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, पश्चात् उस देवभव के अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, पश्चात् जो शेष दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वका परिपालन करके चार यावदित्यर्थः । बध्वा ततो ज्येष्ठस्थिनिरुत्कृष्ट स्थितिस्त्रयस्त्रित्सागरोपमस्थितिक इत्यर्थः । सप्तमनरकपृथिव्यां नारको जातः । ततस्तावन्तं कालं यावत् यथायोगं तद्वैक्रियैकादशकमन्भूय ततो नरकादुद्धृत्य पंचेन्द्रियतिर्यक्षु मध्ये समुत्पन्नः । तत्र च तद्वैक्रियकदशकमबध्वा स्थावरेष्वे केन्द्रियेष मध्ये समुत्पन्नः । तस्य चिरोद्वलनया पल्योपमासंख्येयभागमात्रेण कालेनोद्वलनया तदुद्वलयतो यत् द्विचरमखण्डस्य चरमसमये प्रकृत्यन्तरे दलिक संक्रामति, स तस्य वैक्रियेकादशकस्य जघन्यः प्रदेशसंक्रमः । मलय. Xx X एक्स्स एव उच्चस्स । मण्यदुगस्स य तेउसु वाउसु वा सुहुमबद्धाणं ।। क. प्र. २, १०५. x x x इयमत्र भावना - मनुजद्विकमुच्चैर्गोत्रं च प्रथमतस्तेजोवायुभवे वर्तमानेननोद्वलितम् पुनरपि सूक्ष्मैकेन्द्रियभवमुपागते नान्तर्मुहूर्ते यावद् बद्धम्, ततः पंचेन्द्रियभवं गत्वा सप्तमनरक पृथिव्यामुत्कृष्ट स्थितिको नारको जातः । तत उद्धृत्य पंचेद्रियतिर्यक्षु मध्ये समुत्न्नः । एतावन्तं च कालमबध्वा प्रदेशसंक्रमेण चानुभूय तेजोवायुषु मध्ये समागतः । तस्य मनुजद्विकोच्चैर्गोत्रे चिरोद्वलनयोद्बलयतो द्विचरमखण्डस्य चरमसमये परप्रकृतौ यद्दलं संक्रामति स तभोजघन्यः प्रदेशसंक्रमः । मलय. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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