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________________ ४३८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं मणुपालय, चदुक्खुत्तो कसाए उवसामिय, तिस्से उक्कस्सियाए सम्मत्तद्धाए अंतोमुहुत्ते सेसे खवणाए अब्भुट्टिदो, तदो अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए तिरिक्खगइउज्जोवणामाणं जहण्णओ पदेससंकमो जहा गईणं तहा तासिमाणुपुव्वीणं पि वत्तव्वं । वेउब्वियसरीर - वेडव्वियसरीरअंगोवंग - बंधण-संघादाणं णिरयगइभंगो। आहारसरीर आहारसरी रंगोवंग- बंधण-संघादाणं जहणपदेस संकमो कस्स ? जो अभवसिद्धियपाओग्गाणं जहणेण कम्मेण पढमदाए जहणियं संजमद्धमनुपालेयूण मिच्छत्तं गदो, तदो तस्स उक्कस्स उब्वेलणकालस्स जं दुचरिममुव्वेल्लणखंडयं तस्स चरिमसमए तेसि जहण्णओ पदेससंकमो * । ओरालिय सरीर-ओरालिय सरीरंगोवंग- बंधण-संघादाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? जो जहणएण कम्मेण तिपलिदोवमिएसु मणुस-तिरिक्खेसु उववण्णो तस्स चरिम वार कषायोंको उपशमा कर उस उत्कृष्ट सम्यक्त्वकाल में अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर क्षपणा में उद्यत हुआ है, उसके अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में तिर्यंचगति और उद्योत नामकर्मका जघन्य प्रदेश संक्रम होता है । जैसे गतियोंके जघन्य प्रदेशसंक्रमकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही उनकी आनुपूर्वयोंकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकबन्धन और वैक्रियिकसंघातकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है । आहारकशरीर, आहारकशरी रांगोपांग, आहारकबन्धन और आहारकसंघातका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अभव्यसिद्धिक प्रायोग्य उक्त प्रकृतियोंके जघन्य संक्रमके साथ प्रथमत: जघन्य संयमकालका पालन कर फिर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, उसके उत्कृष्ट उद्वेलनकालका जो द्विचरम उद्वेलनकाण्डक है उसके चरम समय में उक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकबन्धन और औदारिकसंघातका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ तीन पत्योपम आयुवाले तेवट्ठियं उदहीणं स चउपल्लाहियं अबंधिता । अंते अहप्पवत्तकरणस्स उज्जोव - तिरियदुगे । क. प्र. २, १०७. × × × कथं त्रिषष्ट्यधिकं सागरोपमाणं शतं चतुः पल्याधिकं च यावद् बध्वेति चेदुच्यते - स क्षपितकर्यांश स्त्रिग्ल्योपमायुष्केषु मनुजेष मध्ये समुत्पन्नस्तत्र देवद्विकमेव बध्नाति, न तिर्यद्विकं नाप्युद्यतम् । तत्र चान्तर्मुहूर्ते शेषे सत्यायुषि सम्यक्त्वमवाप्य ततोऽप्रतिपतितसम्यक्त्वं एवं पल्योपमस्थितिको देवो जातः । ततोऽप्यप्रतिपतितसम्यक्त्वो देवभवाच्च्यत्वा मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नः । ततस्तेनैवाप्रतिपतितेन सम्यक्त्वेन सहित एकत्रित्सागरोपमस्थितिको ग्रैवेयकेषु मध्ये देवो जातः । तत्र चोत्पत्त्यनन्तरमन्तर्मुहूर्तादूर्ध्वं मिथ्यात्वं गतः । ततोऽन्तर्मुहूर्तावशेषे आयुषि पुनरपि सम्यक्त्वं लभते । ततो द्वे षट्षष्टी सागरोपमाणा यावन्मनुष्यानुतरसुरादिषु सम्यक्त्वमन गल्य तस्याः सम्यक्त्वाद्वाया अन्तर्मुहूर्ते शेषे शीघ्रमेव क्षपणाय समृद्यतः । ततोऽनेन विधिना त्रिषष्ट्यधिक सागरोपमाणां शतं चतुष्पल्याधिकं च यावत्तिर्यद्विकमुद्योतं च बन्धरहितं भवतीति । मलय. * काप्रती ' जेसि' इति पाठ: । हस्स कालं बंधिय विरओ आहारसत्तगं प्र०ly Jain Educatnem अविरइ महुव्वलंतस्स जा थोव उव्वलणा ॥ www.jainelibrary.org.
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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