SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सं माणुयोगद्दारे पदेस संकमो समय तब्भवत्थस्स एदासि पयडीणं जहण्णओ पदेससंकमो * । तेजा - कम्मइयसरीर - तब्बंधणX-संघाद-पसत्थवण्ण-गंध-रस- फास - अगुरुअलहुअपरघाद--उस्सास--पसत्थविहायगइ तस -- बादर - पज्जत्त - पत्तेयसरीर-थिर--सुभ-सुभगसुस्सर आदेज्ज-जसकित्तिणिमिणणामाणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स? D जो कसा अणुवसामेण सेसेहि पयारेहि जहण्णयं संतकम्मं काढूण तदो खवणाए अभुट्टो तस्स आवलियअपुत्वकरणस्स एदासि पयडीणं जहण्णओ पदेससंकमो* । पसत्थसंठाण - संघडणाणं कम्मइयभंगी । अप्पसत्यवण्ण-गंध-रस- फास उवघाद - अथिर् असुह-अजस कित्तीणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जो जहणेण कम्मेण चदुक्खुत्त कसाए उवसामेण गुणसेडीहि गालिय सव्वलहुं खवणाए अब्भुट्टिदो तस्स चरिमसमयअधापवत्तकरणे वट्टमाणस्स जहण्णओ पदेससंकमो । अप्पसत्यसव्वसंठाणसंघडri अपसत्थविहायगइ दूभग-- दुस्सर - अणा देज्ज - णीचागोदाणं णवुंसयवेदभंगो । आदाव---- थावर---- सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरोराणं तिरिक्खगइभंगो 1 मनुष्यों यातिर्यंचों में उत्पन्न हुआ है उसके तद्द्भवस्थ होनेके अन्तिम समय में इन प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । ( ४३९ तेजस व कार्मण शरीर तथा उनके बन्धन व संघात, प्रशस्त वर्ण, गन्ध रस व स्पर्श, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति और निर्माण नामकर्मोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो कषायों का उपशम न करके शेष प्रकारों द्वारा जघन्य सत्कर्म करके तत्पश्चात् क्षपण में उद्यत हुआ है; उस आवली कालवर्ती अपूर्वकरणके इन प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेश - संक्रम होता है । प्रशस्त संस्थान और प्रशस्त संहननकी प्ररूपणा कार्मणशरीरके समान है । अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्तिका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है? जो जघन्य सत्कर्मके साथ चार वार कषायोंको उपशमा करके गुणश्रेणियोंके द्वारा गलाकर सर्वलघु कालमें क्षपणामें उद्यत हुआ है, उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय में वर्तमान होनेपर उक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । अप्रशस्त सव संस्थानों और संहननोंका तथा अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रकी प्ररूपणा नपुंसक - वेदके समान है । आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीरकी प्ररूपणा तिर्यचगतिके र तिरियाण तिपल्लस्संते ओरालियस्स पाउग्गा । क. प्र. २, १११. ताप्रतौ ' सरीर २ - बंधण ' इति पाठ: D 'अ-काप्रत्योन ग्लभ्यते पदमिदम् । पाठः । छत्तीसाए सुभाणं सेढिमणारुहिय सेसगविहीहि । कट्टु जहण्ण खवणं प्र. २, १०९. अ-काप्रत्योः 'जे' इति पाठः । थीवेण सरिसगं णवरं पढमं तिपल्लेसु । क, प्र. २, ११०. Jain Education International काप्रतौ 'सरीर बंधण', अप्रतो 'उवसामेदूण' इति अपुग्वकरणालिया अंते ॥ क, सम्म द्दिट्ठिअजोग्गाण सोलसण्हं पि असुभ गईणं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy