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________________ ४४० छक्खंडागमे संतकम्म णवरि छट्ठीए पुढवीए अंते सम्मत्तं घेत्तूण सम्मत्तेण सह णिग्गदो, पुणो सव्वं पि पंचासीदिसागरोवमसदं पूरेदव्वं । एसो तिरिक्खगदीदो एदासि विसेसो । विलिदियजादिणामाणं साहारणसरीरभंगो। उच्चागोदस्स मणुसगइभंगो । तित्थयरणामाए जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? जहण्णएण कम्मेण पढमदाए जहण्णजोगेण जो बद्धो समयपबद्धो तमावलियादीदं संकातस्स जहण्णओ पदेससंकमो, चरिमसमयमिच्छाइटिस्स वा विज्झादेण जहण्णसंकमो । एवं सामित्तं । समान है। विशेषता इतनी है कि छठी पृथिवीमें अन्त में सम्यक्त्वको ग्रहण करके और सम्यक्त्वके साथ निकलकर फिर सभीको एक सौ पचासी सागरोपम तक पूरा करना चाहिये । यह इन प्रकृतियोंके तिर्यंचगतिसे विशेषता है। _ विशेषार्थ- तिर्यंचगतिके जघन्य प्रदेशसंक्रमकी प्ररूपणामें १६३ सागरोपम और ४ पल्योपम तक उसके बन्धका अभाव निर्दिष्ट किया गया है। परन्तु इन आतप आदि प्रकृतियों के बन्धका अभाव १८५ सागरोपम और ४ पल्य तक रहता है । वह इस प्रकारसे-कोई क्षपितकौशिक जीव छठी पृथिवीमें २२ सागरोपम आयुवाला नारकी उत्पन्न हुआ। वहां वह आयुम अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त होकर उस अविनष्ट सम्यक्त्वके साथ मनुष्य होता ह और वहांपर सम्यक्त्वके साथ संयमासंयमको पालकर फिर सौधर्म स्वर्ग में चार पल्योपम आयुवाला देव उत्पन्न होता है। वहां भी अविनष्ट सम्यक्त्वके साथ देवभवसे च्युत होकर मनुष्य भवको प्राप्त होता हुआ यहां संयमको पालता है और तब मुत्युको प्राप्त हो ग्रैवेयकोंमें ३१ सागरोपम प्रमाण आयुवाला देव उत्पन्न होता है। यहां उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहुर्त पश्चात् वह मिथ्यात्वको प्राप्त होकर आयुमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है । तत्पश्चात् दो छयासठ (१३२) सागरोपम काल तक सम्यक्त्वको पालकर और चार वार कषायोंको उपशमा कर इस उत्कृष्ट सम्यक्त्वकालमें अन्तर्मुहुर्त शेष रहनेपर क्षपणामें उद्यत होता है । उस समय अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें उसके उपर्युक्त आतप आदि प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । इस प्रकार सौधर्म देवकी आयुके ४ पल्योपमोंके साथ १८५ (२२+३१+१३३) सागरोपम काल तक इन प्रकृतियों के बन्धका अभाव रहता है जब कि तिर्यंचगतिके बन्धका अभाव ४ पल्योपमोंसे अधिक १६३ सागरोपम काल तक ही रहता है । यही उससे इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशसंक्रममें विशेषता है। विकलेन्द्रिय जाति नामकर्मोकी प्ररूपणा साधारशरीर नामकर्मके समान है। उच्चगोत्रकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है। तीर्थंकर नामकर्मका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जघन्य सत्कर्मके साथ प्रथमतया जघन्य योगके द्वारा जो समयप्रबद्ध बांधा गया है बन्धावलीके पश्चात् उसका संक्रम करनेवालेके तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है अथवा, अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि के विध्यातसंक्रमके द्वारा उसका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । इस प्रकार स्वामित्वकी प्ररूपणा समाप्त हुई । ० इग-विगलिदियजोग्गा अट्ट पज्जत्तगेण सह ते । ता) सि । तिरियगइसमं नवरं पंचासीउदहिसयं तु॥ क. प्र. २, १०८. तित्ययरस्स य बंधा जहण्णओ आलिंगं गत् ।। क. प्र. २. १११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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