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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदे संकमो ( ४१७ इट्ठीसु विज्झादसंकमो अंगुलस्स असंखे० भागपडिभागियो। देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणछसत्तभागे* त्ति अधापवत्तसंकमो, तत्थ एदासि बंधुवलंभादो । तत्तो उरि पि बंधाभावे वि अधापमत्तसंकमो चेव, पसत्थत्तादो। देव-णेरइएसु विज्झादसंकमो, बंधाभावादो। एइंदियविलिदिएसु उव्वेल्लणसंकमो जाव उध्वेल्लणचरिमखंडयमपत्तो ति। चरिमखंडए गुणसंकमो जाव तस्सेव दुचरिमफालि ति । चरिमफालीए सव्वसंकमो। वेउत्रियसरीर-वेउब्वियसरीरगोवंगाणं देवगइभंगो। णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीणं पि देवगइभंगो। णवरि मिच्छाइटिम्हि चेव अधापवत्तसंकमो। सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति विज्झादसंकमो। देव-णेरइएसु वि विज्झादसंकमो, बंधाभावादो। अपुवकरणप्पुहुडि जाव सगचरिमट्टिदिखंडयदुचरिमफालि त्ति गुणसंकमो। चरिमफालीए सव्वसंकमो । एइंदिय-विलिदिएसु उव्वेल्लणसंकमो 1 उधेल्लणचरिमखंडए गुणसंकमो। तस्सेव चरिमफालीए सव्वसंकमो एवं पंच संकमा होति । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुटवीणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठि और वेदकसम्यग्दृष्टिके उसका अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रतिभागवाला विध्यातसंक्रम होता है। देवगति और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टिते लेकर अपूर्वकरणके सात भागोंमेंसे छठे भाग तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध पाया जाता है । उसके आगे भी बन्धका अभाव होनेपर भी अधःप्रवृत्तसंक्रम ही होता है, क्योंकि, वे प्रशस्त प्रकृतियां हैं। देवों व नारकियोंमें उनका विध्यासक्रम होता है, क्योंकि, उनके इनका बन्ध नहीं होता । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवोंमें उद्वेलनके अन्तिम काण्डकके प्राप्त न होने तक उनका उद्वेलनसंक्रम होता है । अन्तिम काण्डकमें उसीकी द्विचरम फालि तक गुणसंक्रम होता है । अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगकी प्ररूपणा देवगतिके समान है। नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीकी भी प्ररूपणा देवगतिके समान है । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही इनका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक उनका विध्यासक्रम होता है । देवों और नारकियों में भी उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, उनके इनका बन्ध नहीं होता । अपूर्वकरणसे लेकर अपने अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरम फालि तक उनका गुणसंक्रम और अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियोंमें उनका उद्वेलनसंक्रम होता है । उद्वेलनके अन्तिम काण्डको (द्विचरम फालि तक ) उनका गुणसंक्रम और उसीकी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है। इस प्रकार उक्त दो प्रकृतियोंके पांच संक्रम होते हैं। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक * ताप्रतौ ' भागो' इति पार:। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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