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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४६७ समाणदव्वस्त तेहितो आगच्छमाणस्स उवलंभेण वयाभावादो । पदेससंतभुजगाराभावे वि परिणामवसेण संकमभुजगारस्सेव तव्वसेण अवट्ठाणसंकमो अत्थि ति किण्ण वुच्चदे ? ण, पडिसेहस्स दव्वणिबंधणावट्टिदसंकमापडिसेहफलत्तादो। पुरिसवेदस्स कधमवट्ठिदसंकमो? ण, सम्माइट्ठीसु इत्थि-णवंसयवेदेसु बंधाभावेण विज्झादसंकमेण पुरिसवेदे संकातेसु अघट्ठिदिगलणाए गलमाणदव्वेण समाणं इत्थिणवंसयवेदेहितो आगच्छमाणदव्वादो असंखेज्जगुणं बंधतेसु तदुवलंभादो । अबज्झमाणमोहपयडिदव्वं पुरिसवेदस्स किण्णागच्छदे ? ण, तस्स सदो णिग्गददव्वाणुसारेणेव आगमुवलंभादो। एवं णामस्त सव्वधुवबंधिपयडीणं पि अवढाणपरूवणा कायवा । अण्णेण उवएसेण पुण सव्वणामपयडीणं णत्थि अवट्ठिदसंकमो । कुदो ? जसकित्ति-अजसकित्तीणमागम-णिग्गमविसमदाए । तं जहा- जसकित्तीए तुल्लसंतकम्मे णिग्गमादो णिग्गमो तुल्लो वा विसेसुत्तरो वा । आगमो पुण णिग्गमादो संखे०गुणो । अजस कित्तीए वि तुल्लसंतकम्मे णिग्गमादो णिग्गमो तुल्लो वा असंखेज्जदिभागुत्तरो वा । आगमो द्रव्य चूंकि उनसे आनेवाला भी पाया जाता है, अतएव व्ययकी वहां सम्भावना नहीं है । शंका- प्रदेशसत्त्वभुजाकारके अभाव में भी परिणामोंके वशसे जैसे भुजाकार संक्रम होता है, वैसे ही परिणामोंके वशसे अवस्थानसंक्रम होता है, ऐसा क्यों नहीं कहते ? ___ समाधान- नहीं, क्योंकि इस प्रतिषेधका फल द्रव्य निबन्धन अवस्थितसंक्रमका प्रतिषेध नहीं है। शंका- पुरुषवेदका अवस्थितपंक्रम कैसे होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टि जीवोंमें बन्धकी सम्भावना न होनेसे स्त्री और नपुंसक वेदोंके विध्यातसंक्रम द्वारा पुरुषवेदमें संक्रान्त होनेपर चंकि वे अधस्थितिगलनसे गलने-- वाले द्रव्यके समान स्त्री और नपंसक वेदोंसे आनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातगणे द्रव्यको बांधनेवाले होते हैं, अतएव उक्त सम्यग्दृष्टि जीवोंमें पुरुषवेदका अवस्थित संक्रम पाया जाता है शंका - अबध्यमान मोहप्रकृतियोंका द्रव्य पुरुषवेदमें क्यों नही आता? समाधान - नहीं, क्योंकि, उसके अपनेमेसे जानेवाले द्रव्यके अनुसार ही उनसे आने वाला द्रव्य पाया जाता है। इसी प्रकार नामकर्म की सब ध्रुववन्धी प्रकृतियों के भी अवस्थानकी प्ररूपणा करना चाहिये। परन्तु अन्य उपदेशके अनुसार सब नाम प्रकृतियोंका अवस्थितसंक्रम नहीं होता । इसका कारण यशकीति और अयशकीतिके आने व जानेवाले द्रव्यकी विषमता है। वह इस प्रकारसेयशकीर्तिके समान सत्कर्म में निर्गमकी अपेक्षा निर्गम तुल्य अथवा विशेष अधिक होता है। परन्तु आगमन निर्गमनकी अपेक्षा संख्यातगुणा होता है । अयशकीतिके भी समान सत्कर्ममें निर्गमसे निर्गम समान अथवा असंख्यातवें भागसे अधिक होता है। परन्तु 8 अ-काप्रत्योः ' अवट्ठिदि ' ताप्रतौ ' अवट्ठिद' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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