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________________ ४१०) छक्खंडागमे संतकम्म 'अप्पसत्थाणं' एसा परूवणा अप्पसत्थपयडीणं कदा, ण पसत्थाणं; उसम-खवगसेडीसु वि बंधविरहियपसत्थपयडीणमधापवत्तसंकमदंसणादो। एदाओ पयडीओ एत्तिएहि भागहारेहि संकमंति त्ति जाणावणठें एसा गाहा उगुदाल तीस सत्त य वीसं एगेग बार तियच उक्कं । ___ एवं चदु दुग तिय तिय चदु पण दुग तिग दुगं च बोद्धव्यं ।। ३ ।। एदीए गाहाए वृत्तपयडीणं भागहाराणं च एसा संदिट्ठी-|३९ २०१३ ६२/६६।९।। एवं ठविय एदिस्से गाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा- पंचणाणावरणचत्तारिदसणावरण-सादावेयणीय-लोहसंजलण-पंचिदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-पसत्थवण्ण-रस-गंध-फास-अगुरुअलहुअ-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइतस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिण-पंचतराइयाणं अधापवत्तसंकमो एक्को चेव । कुदो ? पंचणाणावरण-चउदंसणावरणपंचंतराइयाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति बंधो चेव । यह प्ररूपणा 'अप्पसत्थाणं' अर्थात् अप्रशस्त प्रकृतियोंकी गयी है, न कि प्रशस्त प्रकृतियोंकी; क्योंकि, उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि में भी बन्ध रहित प्रशस्त प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्तसंक्रम देखा जाता है। ये प्रकृतियां इतने भागहारोंसे संक्रमणको प्राप्त होती हैं, यह बतलाने के लिये यह गाथा है-- उनतालीस, तीस, सात, बीस, एक, एक बारह और तीन चतुष्क ( ४, ४,४ ; इन प्रकृतियोंके क्रमसे एक, चार, दो, तीन, तीन, चार, पांच, दो, तीन और दो; ये भागहार जानने चाहिये ।। ३ ।। इस गाथामें कही गयी प्रकृतियों और भागहारोंकी यह संदृष्टि है-- । प्रकृति ।३० । ३०।७। २० । १ । १ । १२ । । ४।४।। । इसे इस प्रकारसे स्थापित करके इस भागहार । १ । ४।२। ३।३।४। ५ ।२।३। । गाथाका अर्थ कहते हैं । यथा- पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, संज्वलन, लोभ, पंचेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्ण रस गन्ध व स्पर्श, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीति, निर्माण और पांच अन्तराय ; इन उनतालीस प्रकृतियोंका एक अधःप्रवृत्तसंक्रम ही होता है, क्योंकि, पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायका मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय तक उगदाल-तीस-सत्तय-वीसे एक्केकक-बार तिचउक्के । इगि-चदु दुग-तिग-तिग-चदु-पण-दुग दुग-तिण्णिसंकमणा । गो. क ४१८. 0 सुहुमस्स बंधघादी सादं संजलणलोह-पंचिदि । तेजदु-सम-वण्णचऊ-अगुरुगपरघाद-उस्सासं ।। सत्थगदी तसदसयं णिमिणुगदाले अधापवत्तो दु। गो. क. ४१९-२०. ४ ताप्रती ‘णाणावरण-पंचंतराइयाणं' इति पाठः। * अप्रतो '-इत्थि ' इति पाट: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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