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________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो संक्रमइ जेहि कम्मं परिणामवसेण जीवाणं ।। २ ।। ara astओ केत्तिएहि संकमेहि संकमंति त्ति जाणावणट्ठ परूवणाए कीरमाणाए * एसा गाहा होदि बंधे अधापमत्तो विज्झाद अबंध अप्पमत्तंतो । गुणसंकमो दु एतो पयडीणं अप्पसत्थाणं ॥ ४ ॥ ' बंधे अधापवत्तो' जत्थ जासि पयडोणं बंधो संभवदि तत्थ तासि पयडीणं बंधे संते असंते वि अधापमत्तसंकमो होदि । एसो नियमो बंघपयडीणं अबंधपयडीणं णत्थि । कुदो ? सम्मत्त सम्मामिच्छतेसु वि अधापमत्तसंकमुवलंभादो ? | 'विज्झाद अबंधे' जासि पयडीणं जत्थ बंधसंभवो णियमेण णत्थि तत्थ तासि विज्झादसंकमो 4 | एसो विनियम मिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति तावदेव धुत्र चेव होदि । 'गुणसंकमो दु एत्तो अप्पमत्तादो उवरिमगुणट्ठाणेसु बंधविरहिदपयडीणं गुणसंकमो सव्वसंकमो च होदि । सव्वसंकमो हीदि त्ति कथं णव्वदे? तु सद्दादो । , ( ४०९ उद्वेलन संक्रम, विध्यातसंक्रम, अधाप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ।। १ ।। कौन प्रकृतियां कितने संक्रमणोंके द्वारा संक्रमणको प्राप्त होती हैं यह जतलाने के लिये की जानेवाली प्ररूपणा में यह गाथा है बन्धके होनेपर अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । विध्यातसंक्रम अबन्ध अवस्था में अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त होता है । यहांसे अर्थात् अप्रमत्त गुणस्थानसे आगेके गुणस्थानोंमें बन्धरहित अप्रशस्त प्रकृतियों का गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम भी होता है || २ || ' बंधे अधापवत्तो ' का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाते हैं कि जिन प्रकृतियों का बन्ध संभव है वहां उन प्रकृतियों के बन्धके होनेपर और उसके न होनेपर भी अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । यह नियम बन्धप्रकृतियोंके लिये है, अबन्धप्रकृतियोंके लिये नहीं है; क्योंकि, सम्यक्त्व और सम्य मिथ्यात्व इन दो अबन्धप्रकृतियों में भी अधःप्रवृत्तसंक्रम पाया जाता है । ' बिज्झाद अबंधे' का अर्थ करते हुए कहते हैं कि जिन प्रकृतियों का जहां नियमसे बन्ध संभव नहीं है वहां उन प्रकृतियोंका विध्यातसंक्रम होता है । यह भी नियम मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक ही ध्रुव स्वरूपसे है । ' गुणसंकमो दु एत्तो' अर्थात् अप्रमत्त गुणस्थानसे आगे गुणस्थानों में बन्धरहित प्रकृतियों का गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम भी होता है । शंका- सर्वसंक्रम भी होता है, यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान- यह उपर्युक्त गाथामें प्रयुक्त ' तु' शब्दसे जाना जाता है । अंतति ॥ गो.क. ४१२. " Xx ताव देवधुव Jain Education International ति अप्रतौ ' संक्रमिय', काप्रतौ 'संकमय' इति पाठ: । * गो. क. ४०९. अ- काप्रत्योः परूवणा की रमाणा', ताप्रतौ 'परूवणाए कीरमाणा' इति पाठ: । * बंधे अधापवतो विज्झादं सत्तमो दु अबधे । एतो गुणी अबंधे पयडीणं अप्पसत्थाणं ।। गो. क. ४१६. मिच्छे सम्मिस्साणं अधापवत्तो जासि न बंधो गुण-मवपच्चयओ तासि होइ विज्झाओ । क. प्र. २,६८. इति पाठ: । For Private & Personal Use Only चेव 3 www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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