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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेलसंकमो ( ४११ तेणेव एदासिमधापवत्तसंकमं मोतूण णत्थि अण्णसंकमो। बंधवोच्छेदे जादे वि संकमो णत्थि, पडिग्गहाभावादो । पंचिदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाणपसत्थवण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ--परघादुस्सास--पसत्थविहायगइ-तस- बादरपज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिरादिछक्का-णिमिणाणं बंधवोच्छेदे संते विज्झादो गुणसंकमो वा किण्ण जायदे? ण एस दोसो, पसत्थत्तादो। लोहसंजलणस्स अधापवत्तसंकमो चेव, बंधे संते चेव आणुपुग्विसंकमेण ओसारिदसकमत्तादो । एशासि पयडीणं सव्वसंकमो किण्ण होदि ? ण, परपयसिंछोहणेण विणासाभावादो। थीणगिद्धितिय-बारसकसाय-इत्थि-णवंसयवेद-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-एइंदियबेइंदिय-तेइंदिय-चरिदयजादि-तिरिक्ख गइपाओग्गाणुपुटवी-आदावुज्जोव-थावर-सुहुमसाहारणाणं तीसण्णं पयडीणं उबेल्लणेण विणा चत्तारि संकमा होतिफ तं जहा-- बन्ध ही है । इसीलिये इन प्रकृतियोंके अधःप्रवृत्तसंक्रमको छोड़कर अन्य संक्रम नहीं होते। बन्धव्युच्छित्तिके हो जानेपर उनका संक्रम नहीं होता, क्योंकि, प्रतिग्रह ( जिनमें विवक्षित प्रकृतियां संक्रान्त होती हैं । प्रकृतियोंका यहां अभाव है । शंका- पंचेन्द्रिय जाति, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्ण गन्ध रस व स्पर्श, अगुल्ल घु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर आदि छह और निर्माण ; इनकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर विध्यात अथवा गुणसंक्रम क्यों नही होता? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वे प्रशस्त प्रकृतियां हैं । संज्वलन लोभका एक अधःप्रवृत्तसंक्रम ही होता है, क्योंकि, बन्धके होने की अवस्था में ही आनुपूर्वीसंक्रम ( संज्वलन क्रोधका संज्वलन मान आदिमें, संज्वलन मानका संज्वलन माया आदिमें, इत्यादि ) वश उनका संक्रम नष्ट हो जाता है । शंका- इन प्रकृतियोंका सर्वसंक्रम क्यों नहीं होता ? समाधान- नहीं, क्योंकि अन्य प्रकृतियों में क्षेपण करके इनका विनाश नहीं होता। स्त्यानगृद्धि आदि तीन, बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीर; इन तीस प्रकृतियोंके उद्वेलनके विना चार संक्रम होते हैं । S8 प्रतिषु — थिरादिओजोछका' इति पार:। D अंतरक रणम्मि कए चरित्तमाहे ण पुब्बिसंकमणं । अन्नत्थ सेसिगाणं च सव्वहिं सनहा बंधे। क प्र. २, ४. xxx चरित्रमोहे पुरुषवेद-संज्वलनंचतुष्टयलक्षणे । अत्र हि चरित्रमोहनीयग्रहणेनैत्ता एव पंच प्रकृतयो गह्यन्ते, न शेषाः; बन्धाभावात् । तत्रानुपूर्वी ( ा) परिपाट्या संक्रमणं भवति, न त्वनाना । तथा हि-पुरुषवेदं संज्वलनक्रोधादावेव संक्रमयति, नान्यत्र । संज्वलनक्रोधमपि संज्वलनमानादावेव, न तु पुरुषवेदे । संज्वलनमानमपि संज्वलनमायादावेव, न तु संज्वलनक्रोधादौ । संज्वलनमायामपि संज्वलनलोभ एव, न तु संज्वलनमानादाविति । मलय. प्रथीणति बारकसाया सढित्थी अरइ सोगो य॥ तिरियेयारं तीसे उब्वेल्लणहीणचत्तारियंकमणा । गो. क. ४२०-२१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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