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________________ ४१२) छक्खंडागमे संतकम्म थीणगिद्धितिय-इत्थिवेद-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव-अणंताणुबंधिचउक्क मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सासणसम्माइट्ठि ति अधापवत्तसंकमो, तत्थ बंधुवलंभादो। सुहुम मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति ताव विज्झादसंकमो, तत्थ बंधाभावादो। सग-सगअपुव्वखवगपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमद्विदिखंडयदुचरिफालि त्ति ताव गुणसंकमो । चरिमफालीए सव्वसंकमो। __णउसयवेद-एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियजादि-आदाव-थावर-सुहुम-साहारणाणं मिच्छाइट्ठिम्हि अधापवत्तसंकमो, तत्थ एदासि बंधुवलंभादो। सासणसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति ताव विज्झादसंकमो, अप्पसत्थत्ते संते बंधाभावादो। एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिय-आदाव-थावर-सुहम-साहारणाणं देव-णेरइयमिच्छाइट्ठीसु विज्झादसंकमो, तत्थ एदासि बंधाभावादो। णवरि एइंदिय-आदाव-थावरागं ईसाणंता देवा अधापवत्तेण संकामया, तत्थ एदासि बंधदसणादो। अपुवकरणपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमट्ठिदिखंडयदुचरिमफालि त्ति ताव एदासि पयडीणं गुणसंकमो, अप्पसत्थत्ते तेसिंबंधाभावादो। चरिमफालीए सव्वसंकमो, संछोहणेण णद्वत्तादो। अपच्चक्खाणचउक्कस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति ताव अधा यथा- स्त्यानगृद्धित्रय. स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत और अनन्तानबन्धिचतुष्कका मिथ्यादृष्टि से लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध पाया जाता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां उनके बन्धका अभाव है। अपूर्वकरण क्षपकके प्रथम समयसे लेकर अपने अपने अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरम फालि तक उनका गुणसंक्रम होता है। अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है। नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आतप, स्थावर सूक्ष्म और साधारणशरीरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, वहांपर इनका बन्ध पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, अप्रशस्तताके होनेपर वहां बन्धका अभाव है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण; इनका देव व नारक मिथ्यादृष्टियोंमें विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, उनके इनका बन्ध नहीं होता। विशेष इतना है कि एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर इनके ईशान कल्प तकके देव अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा संक्रामक है; क्योंकि, उनमें इनका बन्ध देखा जाता है। अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम स्थितिकाण्डकको द्विचरम फालि तक इन प्रकृतियोंका गुणसंक्रम होता है, क्योंकि, अप्रशस्तताके होनेपर उनके बन्धका अभाव है, इनकी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है, क्योंकि उसका विनाश निक्षेपपूर्वक होता है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक अध:प्रवृत्तसंक्रम ४ अ-काप्रत्योः ‘अप्पसत्थत्ते सिंते' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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