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________________ रहते हुए वेदा जाता है वह एकान्त सातकर्म है और इससे अन्य अनेकान्त सातकर्म है । इसी प्रकार जो कर्म असातरूपसे बद्ध होकर यथावस्थित रहते हुए वेदा जाता है वह एकान्त असात कर्म है और इससे अन्य अनेकान्त असातकर्म है। पदमीमांसामें इनके उत्कष्ट, अनत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य पदोंके अस्तित्वकी सचना मात्र की कई है। स्वामित्वमें इन उत्कष्ट आदि भेद रूप एकान्त सात आदिके स्वामित्वका निर्देश किया गया है। तथा अन्त में प्रमाणका विचार कर अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए इस अनुयोगद्वारको समाप्त किया गया है। १७ दोघं-ह स्व- इसमें दीर्घको प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका बतला कर उनका बन्ध, उदय और सत्त्वकी अपेक्षा विचार किया गया है । सर्व प्रथम मूलप्रकृतिदीर्घके प्रकृतिस्थानदीर्घ और एकैकप्रकृतिस्थानदीर्घ ये दो भेद करके प्रकृतिस्थानका विचार करते हुए बतलाया है कि आठ प्रकृतियोंका बन्ध होने पर प्रकृतिदीर्घ और उससे न्यून प्रकृतियोंका बन्ध होने पर नोप्रकृतिदीर्घ होता है । इसी प्रकार उदय और सत्त्वकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ और नोप्रकृतिर्द घंको घटित करके बतला कर उत्तर प्रकृतियोंमेंसे किस मूल कर्मकी उत्तर प्रकृतियोंमें बन्धादिकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ सम्भव नहीं है और किसकी उत्तर प्रकृतियोंमें प्रकृतिदीर्घ और नोप्रकृतिदीर्घ सम्भव है यह बतलाया गया है । आगे स्थितिदीर्घ, अनुभागदीघ और प्रदेशदीर्घको भी बतलाया __ आगे दीर्घके समान ह.स्वके भी चार भेद करके उनका विचार किया गया है । उदाहरणार्थ बन्धकी अपेक्षा प्रकृतिह स्वका निर्देश करते हुए बतलाया है कि एक एक प्रकृतिका बन्ध करने वाले के प्रकृतिह स्व होता है और इससे अधिकका बन्ध करनेवालेके नोप्रकृतिह स्व होता है। इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियोंका आलम्बन लेकर बन्ध, उदय और सत्त्वकी अपेक्षा दीर्घ और ह,स्वके विचार करने में इस अनुयोगद्वारकी प्रवृत्ति हुई है। १८भवधारणीय- इस अनयोमद्रारमें भवके ओघभव. आदेशभव और भवग्रहणभव ये तीन भेद करके बतलाया है कि आठ कर्म और कर्मोंके निमित्तसे उत्पन्न हुए जीवके परिणामको ओघभव कहते हैं । चार गति नामकर्म और उनसे उत्पन्न हुए जीवके परिणामको आदेशभव कहते हैं। इसके अनुसार आदेशभव चार प्रकारका है- नारकभव, तिर्यञ्चभव, मनुष्यभव और देवभव । तथा भुज्यमान आयु गलकर नई आयुका उदय होने पर प्रथम समयम उत्पन्न हुए व्यञ्जन संज्ञावाले जीवके परिणामको या पूर्वशरीरका त्याग होकर नूतन शरीरके ग्रहणको भवग्रहणभव कहते हैं। प्रकृतमें भवग्रहणभवका प्रकरण है । यद्यपि जीव अमूर्त है फिर भी उसका कर्मके साथ अनादि सम्बन्ध होनेसे संसार अवस्थामें वह मूर्तभावको प्राप्त हो रहा है, इसलिए अमूर्त जीवका मूर्त कर्मके साथ बन्ध बन जाता है । ऐसा यह जीव शेष कर्मोके द्वारा न धारण किया जाकर आयुकर्म के द्वारा धारण किया जाता है, अतएव भवधारणीय आयुकर्म ठहरता है । इसका पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्वको आलम्बन लेकर विस्तारसे विचार वेदना अनुयोगद्वारमें किया है, इसलिए उस सब व्याख्यानको वहाँसे जान लेना चाहिए। इस प्रकार भवग्रहणभवके व्याख्यान करने में यह अनुयोगद्वार चरितार्थ है। १९ पुद्गलात्त- इसमें पुद्गलके चार निक्षेप करके प्रकृतमें नोआगमतद्व्यतिरिक्त द्रव्यपूदगलका विचार करते हए बतलाया गया है कि पूदगलात्त अर्थात पूदगलोंका आत्मसात्कार छह प्रकारसे होता है-ग्रहणसे, परिणामसे, उपभोगसे, आहारसे, ममत्त्वसे और परिग्रहसे । इसका खुलासा करते हुए बतलाया है कि हाथ और पैर आदिसे ग्रहण किये गये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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